श्रीपंचपरम गुरु त्रिभुवन में, नित शत इंद्रों से वंदित हैं।
अर्हंत सिद्ध साधू केवलि, प्रज्ञप्तधर्म मंगलमय हैंं।।
ये चार लोक में उत्तम हैं, ये चारहि शरणभूत जग में।
ये सिद्ध विनायक यंत्र मध्य, पूजत ही विघ्न हरें क्षण में।।
ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा मंगलोत्तमशरणभूता! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा मंगलोत्तमशरणभूता! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा मंगलोत्तमशरणभूता! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—(चाल-नंदीश्वर पूजा)
रेवानदि को जल लाय, कंचन भृंग भरूँ।
भव भव की तृषा मिटाय, आतम शुद्ध करूँ।।
श्रीसिद्ध विनायक यंत्र, विघ्न विनाश करे।
पूजत हो आत्म स्वतंत्र, मंगल सौख्य भरे।।१।।
ॐ ह्रीं मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन गंध, घिस कर्पूर मिला।
जिनपद पंकेरुह चर्च, निजमन कमल खिला।।
श्रीसिद्ध विनायक यंत्र, विघ्न विनाश करे।
पूजत हो आत्म स्वतंत्र, मंगल सौख्य भरे।।२।।
ॐ ह्रीं मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशिकर सम तंदुल श्वेत, खंड विवर्जित हैं।
शिवरमणी परिणय हेतु, पुंज समर्पित हैं।।
श्रीसिद्ध विनायक यंत्र, विघ्न विनाश करे।
पूजत हो आत्म स्वतंत्र, मंगल सौख्य भरे।।३।।
ॐ ह्रीं मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सित कुमुद नील अरविन्द, लाल कमल प्यारे।
मदनारिजयी पदपद्म, पूजूँ सुखकारे।।
श्रीसिद्ध विनायक यंत्र, विघ्न विनाश करे।
पूजत हो आत्म स्वतंत्र, मंगल सौख्य भरे।।४।।
ॐ ह्रीं मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरणपोली पयसार, पायस मालपुआ।
अमृतसम जिनपद अर्च, आतम सौख्य लिया।।
श्रीसिद्ध विनायक यंत्र, विघ्न विनाश करे।
पूजत हो आत्म स्वतंत्र, मंगल सौख्य भरे।।५।।
ॐ ह्रीं मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिदीप कपूर प्रजाल, ज्योति उद्योत करे।
अंतर में भेद विज्ञान, प्रगटे मोह हरे।।
श्रीसिद्ध विनायक यंत्र, विघ्न विनाश करे।
पूजत हो आत्म स्वतंत्र, मंगल सौख्य भरे।।६।।
ॐ ह्रीं मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध अग्नि में जार, सुरभित गंध करे।
निज आतम अनुभव सार, कर्मकलंक हरे।।
श्रीसिद्ध विनायक यंत्र, विघ्न विनाश करे।
पूजत हो आत्म स्वतंत्र, मंगल सौख्य भरे।।७।।
ॐ ह्रीं मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला फल आम्र, जंबू निंबू हरे।
शिव कांता संगम हेतु, तुम ढिग भेंट करें।।
श्रीसिद्ध विनायक यंत्र, विघ्न विनाश करे।
पूजत हो आत्म स्वतंत्र, मंगल सौख्य भरे।।८।।
ॐ ह्रीं मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सलिलादिक द्रव्य मिलाय, कंचनपात्र भरें।
जिन सन्मुख अर्घ्य चढ़ाय, शिव साम्राज्य वरें।।
श्रीसिद्ध विनायक यंत्र, विघ्न विनाश करे।
पूजत हो आत्म स्वतंत्र, मंगल सौख्य भरे।।९।।
ॐ ह्रीं मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य: पंचपरमेष्ठिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रासुक मिष्ट सुगंध जल, क्षीरोदधि समश्वेत।
यंत्र मध्य धारा करूँ, तिहुँजग शांती हेतु।।१०।।
शांतये शांतिधारा।।
पारिजात के पुष्प ले, पुष्पांजलि विकिरंत।
यंत्र विनायक पूजते, आतमसुख विलसंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जिनके पांचों कल्याणक में, इन्द्रादि महोत्सव करते हैं।
जो ज्ञानदर्श सुखवीर्यमयी, आनन्त्य चतुष्टय धरते हैं।।
ऐसे अर्हंत अनंत गुणों के, धारी अच्युत परमात्मा।
स्याद्वादवचन पीयूष झराते, जजूूँ शुद्ध अर्हंतात्मा।।
ॐ ह्रीं अनंतचतुष्टय समवसरणादिलक्ष्मीबिभ्रते अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
जो शुक्लध्यानमय अग्नी में, आठों कर्मेन्धन भस्म करें।
परमानंदामृत सरवर में, अतिशय निमग्न हो सौख्य भरें।।
कृतकृत्य परम सिद्धात्मा ये, लोकाग्र शिखर पर तिष्ठ रहें।
मैं पूजूँ अर्घ्य चढ़ा करके, मेरे सब कर्म कलंक दहें।।
ॐ ह्रीं अष्टकर्मकाष्ठभस्मीकर्त्रे सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
जो पंचाचार स्वयं पालें, भव्यों से भी पलवाते हैं।
ये शिवपथ विघ्न विनाश करें, रत्नत्रय से नित पावन हैं।।
जल गंधादिक से पूजूँ मैं, ये मुझको मोक्ष मार्ग देवें।
निश्चय व्यवहार रत्नत्रय दें, मुझको भी निज सम कर लेवें।।
ॐ ह्रीं पंचाचारपरायणाय आचार्यपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
जो द्वादशांग अरु अंगबाह्य, श्रुत पढ़ते और पढ़ाते हैं।
अष्टांग निमित्त महाज्ञानी, गुरु उपाध्याय कहलाते हैं।।
इन गुरु के चरण कमल पूजूँ, मुझमें भी ज्ञान ज्योति प्रगटे।
ये द्रव्य भावश्रुत पूरे हों, फिर केवल ज्ञान ज्योति चमके।।
ॐ ह्रीं द्वादशांगपठनपाठनोद्योताय उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
चारों आराधन आराधें, नित धर्मामृत पीते रहते।
पर्वत वन गुफा कंदरा में, शुद्धात्म ध्यान करते रहते।।
ये साधु स्वात्म साध्य करें, फिर सिद्धिरमा के स्वामी हों।
मैं पूजूँ गुरु के चरण कमल, मेरा मन शिवपथ गामी हो।।
ॐ ह्रीं त्रयोदशप्रकारचारित्राराधकाय साधुपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
सब जग में करें मंगल, अर्हंत जिनेशा।
सब विघ्न कर्म नाशें जिनदेव हमेशा।।
ये अरिहंत मंगल मैं इनको नित जजूँ।
हों दूर सब अमंगल मैं साम्य सुख भजूँ।।
ॐ ह्रीं अर्हंतमंगलाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
चैतन्य चिदानंद गुण समुद्र से भरे।
भगवंत सिद्धमंगल सब सौख्य विस्तरें।।
जल गंध आदि लेके मैं अर्चना करूँ।
होवे सदा मंगल मेरा दुख रंच ना धरूँ।।
ॐ ह्रीं सिद्धमंगलाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
बुद्धी क्रिया रस तप व विक्रिया व औषधी।
अक्षीण ऋद्धि ये कही है सात ही ऋद्धी।।
तप बल से साधु ऋद्धि धरें सर्व दुख हरें।
मैं नित्य जजूँ साधू ये मंगल सदा करें।।
ॐ ह्रीं साधुमंगलाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
जो लोक औ अलोक के स्वरूप को कहे।
केवलि प्रणीत धर्म ये संसार दुख दहे।।
बाजे बजाके भक्ति गीत नृत्य मैं करूँ।
मंगलमयी जिनधर्म पाके मृत्यु को हरूँ।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्ममंगलाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
तीनों जगत में उत्तम अर्हंत देव हैं।
भव रोग के विनाशक ये श्रेष्ठ वैद्य हैं।।
कर्मारिनाश हेतू मैं अर्घ्य चढ़ाऊँ।
अर्हंत लोकोत्तम को सदा शीश नमाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हल्लोकोत्तमाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
त्रिभुवन शिखर पे तिष्ठे उत्तम हैं विश्व में।
मुक्तीरमा के वल्लभ परमात्मा बनें।।
चिद्रूप परमानंद सौख्य में निमग्न हैं।
मैं नित्य जजूँ ये सुरेन्द्र वृंद वंद्य हैंं।।
ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
जो राग द्वेष त्यागी समता सुधा पियें।
ये विश्व श्रेष्ठ साधु चिन्मय प्राण से जियें।।
व्यवहार और निश्चय त्रयरत्न को धरें।
मैं नित्य नमूँ मुझको गुणरत्न से भरें।।
ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
उत्तम क्षमादि शिवप्रद दश धर्म रूप है।
सद्धर्म विश्व भास्कर निज सौख्य रूप है।।
भगवंत केवली से भाषित जगत् उत्तम।
इस धर्म को मैं वंदूँ, मुनि वंद्य श्रेष्ठतम।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्मलोकोत्तमाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
इस जग में देव कोई नहिं दे सकें शरण।
अर्हंत ही हमारे इस लोक में शरण।।
परिणाम की विशुद्धी अर्हंत भक्ति से।
अरहंत को नमूूँ मैं हो सौख्य इन्हीं से।।
ॐ ह्रीं अर्हच्छरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
जो पाँच परावर्तन से छूट चुके हैं।
चैतन्य कल्पतरू के शिवफल को चखे हैं।।
ये सिद्ध ही शरण हैं भवभीत भक्त के।
पूजूँ सदा निज आत्मा के गुण सभी चमकें।।
ॐ ह्रीं सिद्धशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
मुनिराज ही शरण हैं संसारी जीव के।
अज्ञानतम हटा के श्रुत ज्ञानदान दें।।
मैं भावशुद्धि हेतू गुरुदेव को भजूँ।
सम्यक्त्वरत्न पाऊँ भवदु:ख से बचूँ।।
ॐ ह्रीं साधुशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
जिनधर्म ही जगत में बंधू है शरण है।
इसके सदृश न कोई इस जग में मित्र है।।
करुणा है मूल इसका ये मोक्ष प्रदाता।
मैं नित्य जजूँ इसको हो दूर असाता।।
ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्मशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
श्रीपंच परमगुरु वंद्य, चार मंगल चउ उत्तम शरण धार।
ये सत्रह मंत्र अनादि निधन, हैं तीन भुवन में मुख्य सार।।
संपूर्ण अमंगल अंतराय, नाशक यह मूलयंत्र जग में।
आत्यंतिक शांति प्रदान करे, पूजत ही व्याधि हरें क्षण में।।
ॐ ह्रीं अर्हदादिसप्तदशमंत्रेभ्य: महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
तर्ज-पार्श्वनाथ देव सेव…..
श्री अरीहंत देव छियालीस गुण धरें।
सिद्ध आठ गुण प्रधान भी अनंत गुण भरें।।
सूरि गुण छतीस धार चार संघ नाथ हैं।
पंचबीस गुण समेत श्री उपाध्याय हैं।।१।।
चार ही त्रिलोक वंद्य मंगलीक सिद्ध हैं।
श्री अरिहंत सिद्ध साधु जैन धर्म हैं।।
चार ये हि लोक वंद्य सर्वश्रेष्ठ उत्तमा।
चार ये हि जीव को शरण जगत में और ना।।२।।
केवली प्रणीता धर्म मोक्षधाम में धरे।
विश्व के समस्त सौख्य देय दु:ख को हरे।।
मूल मंत्र युक्त यंत्र सिद्ध है विनायका।
प्राणियों के सर्वविघ्न शत्रु को निवारता।।३।।
मानसीक आधि देह व्याधि शोक दूर हों।
यंत्र भक्ति के प्रसाद वांछितार्थ पूर्ण हो।।
ये गृहस्थ कार्य का प्रसिद्ध सिद्ध हेतु है।
योगियों के आत्म सिद्धि में अपूर्व हेतु है।।४।।
द्रव्य क्षेत्र काल भव व भाव पांच भेद से।
संसरण करें अनंत काल तक अनादि से।।
पंच परावर्तनों से जीव त्रस्त हो रहा।
यंत्र भक्ति के प्रभाव सर्व दु:ख धो रहा।।५।।
आज कलीकाल में मिथ्यात्व शत्रु छा रहे।
चोर ये विषय कषाय स्वात्मधन चुरा रहे।।
नाथ! आपके प्रसाद से पछाड़ दूँ इन्हें।
रत्न तीन दीजिये प्रभो! नमूँ नमूँ तुम्हें।।६।।
मूल अनादी मंत्र का, सिद्ध विनायक यंत्र।
‘‘ज्ञानमती’’ हित मैं जजूँ, पाऊँ सौख्य स्वतंत्र।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य: जयमाला पूणार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
महामंत्र शुभ यंत्र की, महिमा अगम अपार।
सुरगुरु भी नहिं गा सके, नमूँ नमूूँ शतबार।।८।।
।।इत्याशीर्वाद:।।