(२७०)
कई वर्षों तक श्री रामचंद्र, मुनि वन में सुनो विहार किया।
फिर कोटिशिला पर जाकर के, निजयोगलीन हो ध्यान किया।।
सीता ने जाकर स्वर्गों में, निज अवधिज्ञान से ये जाना।
श्री रामचंद्र हैं ध्यानरूढ़, तब उनका मन भी ना माना।।
(२७१)
सोचा यदि विचलित कर दूँ मैं, तो मोक्ष नहीं ये जायेंगे।
और यहाँ स्वर्ग में आ करके, ये मेरे मित्र बन जायेंगे।।
यह सोच दिखाए हावभाव, नैना कटाक्ष कर बार चले।
हर अंग—प्रत्यंग दिखाकर के, मुस्कानों के उपहार चले।।
(२७२)
कितनी ही नृत्य क्रियाओं से,तिरिया चरित्र सब दिखा थकीं।
पर रामचंद्र के प्रियमन में, वे नहीं वासना जगा सकीं।।
जिसका प्रहरी चारित्र बने, उसकी कब जग में हार हुई।
जो भी टकराई शक्ति आ, वो आखिर में लाचार हुई।।