(२७३)
प्रिय सुनो राम के उसी समय,सब घातिकर्म थे क्षार भये।
प्रभु केवलज्ञान हुआ सुनकर, इंद्रों के आसन कांप गए।।
आ करके रच दी गंधकुटी, नभ में ही अधर रहा करती।
बारह कोठों में ऋषिमुनि और,सुरनर किन्नरियाँ आ बैठीं।।
(२७४)
सीतेन्द्र व्यथित हो बार—बार,झुक करके क्षमा याचना की ।
हे नाथ! किया दुर्बुद्धिवश, सन्मति दे रही कामना की ।।
प्रभुवर की दिव्यध्वनि खिरी, ईश्वर न किसी को कुछ देता।
हे इन्द्र ! राग के शोलों पर, वैराग्य कभी ना टिक सकता।।
(२७५)
इसलिए तुम्हें यदि अपने में, ईश्वर का रूप दिखाना है।
श्री आदिनाथ से वीरप्रभू तक, की कोटी में आना है।।
तो रागद्वेष को छोड़ो तुम, इससे ही प्राणी दुख पाता ।
वैराग्य धार कर जीवन में,भवदधि को पार किया जाता।।
(२७६)
फिर पूछा प्रभु से हे भगवान ! श्री दशरथ राजा कहाँ गए।
कौशल्या आदिक मातायें भी, ये तन तजकर कहाँ गए।।
तब वाणी खिरी सुनो सुरेन्द्र! सब देव बने हैं स्वर्गों में ।
वह स्वर्ग नाम ‘‘आनत’’ जिसका,सुख भोग रहे शुभ कर्मों से।।
(२७७)
लवकुश हनुमान भरत सुग्रीव, सब मुक्तिरमा को ब्याहेंगे।
यह सुन सीतेन्द्र पूछ बैठे, हम शिवपुर को कब जायेंगे ?।
भगवन ने आगे बतलाया, जो सुनकर सभी चकित होंगे।
रावण के संग—संग लक्ष्मण भी, पाताल लोक में ही होंगे।।
(२७८)
आगे भी दोनों साथ—साथ, भाई बन साथ निभायेंगे।
अब सुनो ध्यान से भद्र पुरुष, अब आगे जो बतलायेंगे।।
तुम स्वर्गपुरी से जा करके, जब छ: खंड वसुधापति होंगे।
तब रावण लक्ष्मण भी आकर, तेरे ही युगलपुत्र होंगे।।
(२७९)
तुम दोनों का ये साथ सुनो,इस भव में नहीं खतम होगा।
जब रावण तीर्थंकर होंगे, तो तू उसका गणधर होगा।।
लक्ष्मण भी आगे जा करके, तीर्थंकर चक्रवर्ति होंगे।
अब सात वर्ष के बाद हमें भी, शिवपुर के दर्शन होंगे।।