जैनधर्म में व्यक्ति पूजा का नहीं, गुण पूजा का महत्व है। गुणों की पूजा को भी प्रश्रय दिया जाता है ताकि वे गुण हमें प्राप्त हो जाएं। गुण पूजा का प्रतीक णमोकार महामंत्र है। यह मंत्र किसी ने बनाया नहीं है बल्कि सदा से इसी रूप में चला आ रहा है इसलिए इसे अनादि कहा जाता है। इसी मंत्र से संसार के सभी मंत्रों की उत्पत्ति हुई है और यह बीजाक्षरों का जन्मस्थान है। यह महामंत्र इस प्रकार है।
यह मंत्र प्राकृत भाषा में है तथा इसकी रचना ”आर्य” छंद में है। इस मंत्र के अंतिम पद में ”लोए” और ”सव्व” शब्दों का प्रयोग हुआ है। ये शब्द ”अन्त्यदीपक” हैं। ”अन्त्य” का अर्थ अन्त में और ”दीपक” का अर्थ प्रकाशित करना होता है। जिस प्रकार प्रज्वलित दीपक को अन्य प्राणियों के अन्त में रखने से वह दीपक पूर्व में सभी प्राणियों को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार यहाँ भी ऊँचा ही होना चाहिए अर्थात् इन शब्दों को सम्पूर्ण क्षेत्र में रहने वाले त्रिकालदर्शी अरिहंत आदि देवताओं को नमस्कार करने के लिए उन्हें नमस्कार करें। हर बार नमस्कार करना चाहिए। पद के साथ जोड़ना चाहिए। इस प्रकार इस मंत्र का अर्थ होता है-
लोक में सभी अरिहंतों को नमस्कार हो। लोक में सभी सिद्धों को नमस्कार हो। लोक में सभी आचार्यों को नमस्कार हो। लोक में सभी उपाध्यायों को नमस्कार हो। लोक में सभी साधुओं को नमस्कार हो।
ॐ … फिर भी प्रात: जगते ही, रात्रि को सोने से पूर्व तथा मन्दिरजी में इसका प्रकाशन-स्मरण सर्व करना चाहिए। श्रावक की दिनचर्या में सबसे पहला गुण नमस्कार मंत्र का स्मरण करना बताया गया है-
अर्थात्: ब्रह्म-मुहूर्त में उठकर परम मंगल के लिए नमस्कार मंत्र का स्मरण करें। यात्रा प्रारंभ करने, भोजन के समापन और समापन के समय भी प्रिय: इस मंत्र का स्मरण किया जाता है। मुनि भी इस मंत्र का जाप करते हैं।
नमन का वास्तविक भाव-
केवल नमस्कार मंत्र को बोलना या नमस्कार करना सही अर्थों में नमन नहीं है। पाँचों परमेष्ठियों के स्वरूप को समझकर उनके गुण चिंतन करते हुए मन में जो समर्पण भाव उत्पन्न होता है, वही वास्तविक नमन है। श्रद्धा इस मंत्र का मूल प्रवाह है। यह मंत्र ”ऋणमो” से प्रारंभ होता है और ”ऋणमो” अहंकार का मनोरंजन है। जो व्यक्ति नमस्कार करता है, समर्पण भाव रखता है, उसके अहंकार को कोई स्थान नहीं रहता।
जो भी शब्द हमस्टैंड होते हैं, उससे वातावरण में प्रकम्पन पैदा होता है और उसकी तरंगें हमें बहुत प्रभावित करती हैं: साधक को मंत्र के शब्दों का सही चयन, अर्थ का बोध, शुद्ध उच्चारण और श्रद्धा भावना का योग करना होता है, तभी मंत्र का उपयुक्त प्रकम्पन प्रभावशाली और लाभदायक होता है। नमस्कार मंत्र ऐसा मंत्र है जिसमें शब्दों का शक्तिशाली चयन है। इस मंत्र का निश्चित ध्वनि से एकाग्रतापूर्वक जप करने से यह अधिक प्रभावशाली हो सकता है और इसके प्रभाव से आत्मशुद्धि होती है: इसका शुद्ध उच्चारण अपरिहार्य है।
अरिहंत को पहिले नमस्कार क्यों ?-
इस मंत्र में सर्वप्रथम ”अरिहंत” को नमस्कार किया गया है जबकि पंच परमेष्ठी में सबसे उच्च स्थान ”सिद्धों” का है। इसका कारण यह है कि संसार सागर को पार करने का दिव्य उपदेश अरिहंत द्वारा ही दिया जाता है, ”सिद्धों” द्वारा नहीं। ‘अरिहंत’ की कृपा से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है और जग का कल्याण होता है: उनके उपकार के अनुरूप सर्वप्रथम ‘अरिहंत’ को नमस्कार करना युक्तिसंगत है।
इसके अतिरिक्त परमात्मा की दो अवस्थाएँ होती हैं-अरिहंत और सिद्ध, अत: प्रथम अवस्था को पूर्व में और द्वितीय अवस्था को बाद में नमस्कार किया गया है।
णमोकार मंत्र के विभिन्न नाम-
णमोकार मंत्र प्राकृत भाषा का मंत्र है। यह मंत्र प्राकृत में कहा गया है। यह संस्कृत में नमस्कार मंत्र कह रहे हैं। हिन्दी में इसी का अपभ्रंश नाम नवकार मंत्र है।
इस मंत्र के अनेक नाम हैं। इनमें प्रमुख हैं-पंच नमस्कार मंत्र, महामंत्र, अपराजित मंत्र, मूलमंत्र, मंत्रराज, आनंदनिधान मंत्र, मंगल मंत्र आदि। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-
(१) पंच नमस्कार मंत्र- जो परम पद (मोक्ष) प्राप्त कर चुके हैं अथवा उस मार्ग पर अग्रसर हैं, ऐसे पांच परमेष्ठियों को इस मंत्र में नमस्कार किया गया है अत: इसे पंच नमस्कार मंत्र कहते हैं।
(२) महामंत्र- अपराजित मंत्र-तीनों लोगों में इस मंत्र के समान कोई मंत्र नहीं है। आचार्य उमास्वामी ने कहा है कि तुला के एक पलड़े में मणिमोकार मंत्र और दूसरे में तीन लोक रख दें तो मणिमोकार मंत्र पलड़ा ही भारी रहेगा। इसे महान् मंत्र या अपराजित मंत्र भी कहा जाता है।
(३) मूलमंत्र- मंत्रराज- यह मंत्र संसार के सभी मंत्रों का जनक है। इन लाखों मंत्रों की उत्पत्ति हुई है: इसे मूल मंत्र या मंत्रराज भी कहा जाता है।
(४) आनंदनिधन मंत्र – पांचों परमेष्ठी अनंत काल से होते आ रहे हैं तथा भविष्य में भी अनंत काल तक होते रहेंगे। इस प्रकार इनका आदि भी नहीं है और अन्त भी नहीं है। इस मंत्र को किसी ने बनाया नहीं है और न ही यह कभी नष्ट होगा इसलिए यह आनंदनिधन मंत्र कहा जाता है। वर्तमान काल की अपेक्षा से आचार्य भूतबली और पुष्पदंत ने इस मंत्र को जैनधर्म के महान् ग्रन्थ ‘षट्खण्डागम’ में सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध किया।
(५) मंगल मंत्र- यह मंत्र पाप का नाश करने वाला व मंगल करने वाला है।
यह पंच नमस्कार मंत्र सब पापों का नाश करने वाला है और सभी मंगलों में पहला मंगल है।
मंत्र की विशेषताएं-
(१) इस मंत्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें किसी विशेष व्यक्ति या देवी-देवता को नमस्कार नहीं किया जाता है। जिन्होंने तप-ध्यान करके अपनी आत्मा का कल्याण किया है और परमेष्ठी पद प्राप्त किया है, या इस हेतु प्रयासरत हैं, ऐसे सभी महापुरुषों को नमस्कार किया गया है।
(२) यह मंत्र किसी धर्म, सम्प्रदाय या जाति विशेष से संबंधित नहीं है। सभी प्राणी चाहे वे किसी भी जाति, संप्रदाय, धर्म, देश के हों या गरीब हों, अमीर हों, इस मंत्र के द्वारा अपना कल्याण कर सकते हैं।
(३) इस मंत्र की एक विशेषता यह भी है कि इसमें किसी प्रकार की याचना नहीं की गई है। केवल निःस्वार्थ भाव से पंच परमेष्ठी के प्रति भक्तिभाव प्रकट किया गया है। अन्य मंत्रों में कोई न कोई इच्छा प्रिय: की जाती है। जैसे-”सर्वशांतिं कुरु कुरु स्वाहा”। इसमें भी शांति की याचना की गई है। हालाँकि यह सार्वजनिक हित के लिए याचना है, फिर भी याचना तो की ही गई है। मगर ऋणमोकार मंत्र में किसी से भी किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष या परोक्ष याचना की नहीं गई है।
(४) ॐमोकार मंत्र को किसी भी स्थान व स्थिति आदि में जपा जा सकता है। यदि वह स्थान पवित्र हो, अपवित्र हो, यदि व्यक्ति गतिमान हो या स्थिर हो, खड़ा हो या बैठा हो, तो सभी बक्सों में यह मंत्र जप जा सकता है।
ॐ श्रीमद्भगवद्गीता मंत्र को पूर्ण श्रद्धा के साथ जपने से यह बहुत ही फलदायी है अत: आवश्यकता इसी बात की है कि हमें इस मंत्र पर पूर्ण श्रद्धा रखना चाहिए। राजकुमार जीवंधर ने कुत्ते को मारने के लिए यह मंत्र दिया तो कुत्ते का जीव सुदर्शन नामक यक्षेन्द्र हुआ। पद्मरुचि सेठ ने मरणासन बैल को ऋणमोकार मंत्र दिया जिसके प्रभाव से वह वृषभध्वज राजकुमार बना। कुछ भव आप्प् ये दोनों देवता: राम और सुग्रीव बने। जिनदत्त सेठ के वचनों को प्रमाणित मानकर अंजन चोर ने परोक्ष रूप से इस मंत्र पर श्रद्धान किया तो उसे आकाशगामिनी विद्या प्राप्त हुई और अंजन से निरंजन बना दिया।
इस मंत्र का कभी अपमान नहीं करना चाहिए। इस मंत्र का अपमान दु:खद होता है। शुभम चक्रवर्ती ने अपने प्राणों की रक्षा के लिए मंत्र का जाप करके समुद्र के जल पर अपने पैरों को नष्ट कर दिया, इसलिए व्यंतर देव ने उन्हें समुद्र में लवण डाला और वह छठे नरक में चले गए।
”आचार्यों ने द्वादशांग जिनवाणी का वर्णन करते हुए प्रत्येक की पदसंख्या तथा समस्त श्रुतज्ञान कल्प की संख्या का वर्णन किया है। इस महामंत्र में समस्त श्रुतज्ञान विद्यामान है क्योंकि पंचपरमेष्ठी के अतिरिक्त अन्य श्रुतज्ञान कुछ नहीं है अत: यह महामंत्र समस्त द्वादशांग जिनवाणीरूप है।”
२.४ महामंत्र के विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्ष-
इस मंत्र में ५ पद और ५ अक्षर हैं। णमो अरिहंताणं·७ अक्षर, णमो सिद्धाणं·५, णमो आइरियाणं·७, णमो उवज्ज्याणं·७, णमो लोए सव्वसाहूणं·९ अक्षर, इस प्रकार इस मंत्र में कुल ५ अक्षर हैं। स्वर और गीत का विश्लेषण करने पर ऐसा दिखता है-
यथा-
ण्±अ±म्±ओ±अ±र्±इ±ह्±अं±त्±आ±ण्±अं।
ण्±अ±म्±ओ±स्±इ±द्±ध्±आ±ण्±अं।
ण्±अ±म्±ओ±आ±इ±र्±इ±य्±आ±ण्±अं।
ण्±अ±म्±ओ±उ±व्±अ±ज्±झ्±आ±य्±आ±ण्±अं।
ण्±अ±म्±ओ±ल्±ओ±ए±स±अ±व्±व्±अ±स±आ±ह्±उâ±ण्±अं।
इस प्रकार प्रथम पद में ६ व्यंजन, ६ स्वर, द्वितीय पद में ६ व्यंजन, ५ स्वर, तृतीय पद में ५ स्वर, ७ स्वर, चतुर्थ पद में ६ व्यंजन, ७ स्वर, पंचम पद में ८ व्यंजन, ९ स्वर हैं। इस मंत्र में सभी वर्ण अजंता हैं, यहाँ हलन्त एक भी वर्ण नहीं है। अत: यहाँ ५ फ़ील में ५ स्वर और ३० व्यंजन होना चाहिए था, परन्तु यहाँ ५ फ़ील हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि ‘णमो अरिहंताणं’ इस पद में ६ ही स्वर माने जाते हैं। मंत्रशास्त्र के व्याकरण के अनुसार ‘णमो अरिहंताणं’ पद के ‘अ’ का लोप हो जाता है। यद्यपि प्राकृत में ‘एङ:’-नेत्यनुवर्तते। एङित्येदोतौ। एदोतो: संस्कृतोक्त: संद: प्राकृते तु न भवति। यथा देवो अहिनान्दानो, अहो आच्छ्रिअं, इत्यादि। सूत्र के अनुसार ‘अ’ का अस्तित्व ज्यों का त्यों रहता है। ‘अ’ का लोप या खंडकार नहीं होता है, परन्तु मन्त्रशास्त्र में ‘बहुलम्’ सूत्र की प्रवृत्ति मानकर ‘स्वरयोरव्यवधने प्रकृतिभावो लोपो वाक्य्य।२ इस सूत्र के अनुसार ‘अरिहंताणं’ वाले पद के ‘अ’ का लोप विकल्प से हो जाता है। इस पोस्ट में ६ ही स्वर माने जाते हैं। अत: मंत्र में कुल ५ अक्षर होने पर भी ३४ ही स्वर माने जाते हैं। जो द्धा, ज्झा, व्व से संयुक्ताक्षर हैं, उनमें से एक-एक व्यंजन बनाने से तीस व्यंजन होते हैं। इस प्रकार से कुल स्वर और मूर्तियों की संख्या 4± 5· निर्मित होती है। मूल वर्णों की संख्या भी अधिक ही है। प्राकृत भाषा के नियमानुसार अ, इ, उ और ए मूल स्वर तथा ज झ ण त द ध य र ल व स और ह ये मूल व्यंजन इस मंत्र में निहित हैं। अतएव अनादि मूलवर्णों को लेकर समस्त श्रुत-ज्ञान के साक्ष्य का निम्नतम प्रकार निकाला जा सकता है। गाथा सूत्र निम्न प्रकार है-
चौसट्ठिपदं विरलिय दुगं च दाऊण संगुणं किच्चा। रूऊँ च के पुन सुदनांससक्खरा होंति।।
अर्थ-उक्त चौंसठ वर्ण का विरलीकरण करके प्रत्येक के ऊपर दो का अंक देकर सम्पूर्ण दो के अंक का गुणन करने से लब्ध राशि में एक घट देने से जो प्रमाण रहता है, यथा ही श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं।
इस नियम से गुणाकार करने पर-
एकट्ठ च च य छस्सत्त्यं च च य सुण्णसत्तियुस्ता। सुण्णं नव पण पंच य एक्कं जोखिम्क्कगो य पणयं च।।
अर्थात् एक आठ चार-चार-छह-सात-चार-चार-शून्य-सात-तीन-सात-शून्य-नौ-पाँच-पाँच-एक-छह-एक-पाँच, यह संख्या अति है। इस गाथा सूत्र के अनुसार १८४४ ये समस्त श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं।
इस प्रकार के मन्त्र में समस्त श्रुतज्ञान के अक्षर निहित हैं, क्योंकि आनन्दनिधान मूलाक्षरों पर से ही उक्त प्रमाण निकाला गया है, अत: संक्षेप में समस्त जिनवाणीरूप यह मन्त्र है। इसके पाठ या स्मरण करने से अत्यंत महान पुण्य का बंधन होता है तथा केवलज्ञान लक्ष्मी की प्राप्ति भी इस मंत्र की आराधना से होती है। ज्ञानार्णव में श्री शुभचन्द्राचार्य ने इस मंत्र की आराधना को वर्णित करते हुए लिखा है-
”इस लोक में सभी योगियों ने मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त किया है, उन सभी ने श्रुतज्ञानभूत इस महान् मंत्र की आराधना करके ही प्राप्त किया है।” इस महान् मंत्र का प्रभाव योगियों के अगोचर है। फिर भी जो इसके महत्व से अनभिज्ञ सुनना चाहता है, मैं जानता हूँ कि वह वायुरोग से व्यापक सुनना ही बता रहा है। पापरूपी पंक से संयुत भी जीव यदि शुद्ध होते हैं, तो इस मंत्र के प्रभाव से ही शुद्ध होते हैं। मनीषीजन भी मंत्र के प्रभाव से ही संसार के क्लेश से छूटते हैं।”
इसलिए इस महामंत्र की महिमा को अचिन्त्य हीडना चाहिए।
अयं महामंत्र: मंगलाचरणरूपेणात्रलिखितोऽपि आनंदनिधान:, न तु केनापि रचितो ग्रथीतो वा। उक्तं च णमोकारमंत्रकल्पे श्रीसकलकीर्तिभट्टर्के: –
ये केचनापि सुषमाद्यर्का अनन्ता, उत्सर्पिणी-प्रभृतय: प्रियुर्विवर्त:। तेष्वप्यं परतर: पृथितप्रभावो, लब्ध्वामुमेव हि गता: शिवमात्र लोका:।।३।।
अथवा द्रव्यार्थिकनयापेक्षयानादिप्रवाहरूपेणागतोऽयं महान्तोऽनादि:, पर्यायार्थिकनयापेक्षया हुण्डवसर्पिणीकालदोषापेक्षया तृतीयकालस्यन्ते तीर्थंकरदिव्यध्वनिसमुद्गत: सदीश्चापि संभवति।
यह मंत्र किसी के द्वारा रचित या गूँथा हुआ नहीं है। प्राकृतिक रूप से अनादिकाल से चला आ रहा है।
”नमोकार मंत्रकल्प” में श्री सकलकीर्ति भट्टारक ने भी कहा है-
श्लोकार्थ- नमस्कार मंत्र में रहने वाले पांच महागुरुओं के नाम से निष्पन्न यह महामंत्र जगत् में ज्येष्ठ-सबसे बड़ा और महान है, अनादिसिद्ध है और आदि अर्थात् प्रथम है।।
पांच महागुरुओं के तीन पंथी अक्षर प्रमाण मंत्र को संसार भ्रमण के नाश हेतु एकाग्रचित्त सभी महानुभावों को जपना या ध्यान करना चाहिए।
श्रीमत् उमास्वामी आचार्य ने भी कहा है-
श्लोकार्थ -उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी आदि के जो सुषमा, दु:षमा आदि अनन्त युग से पहले ही समाप्त हो चुके हैं उनमें भी यह परममोकार मंत्र सबसे अधिक महात्त्वशाली प्रसिद्ध हुआ है। मैं संसार से बाह्य मोक्ष प्राप्त करने के लिए उस मंत्र को नमस्कार करता हूँ।।३।।
अथवा द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि प्रवाहरूप से चला आ रहा यह महान् अनादि है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा हुण्डवसर्पिणी कालदोष के कारण तृतीय काल के अंत में तीर्थंकर की दिव्यध्वनि से उत्पन्न होने के कारण यह सादि भी है।
परमेष्ठी का स्वरूप एवं पंच परमेष्ठी के मूलगुण-
जो परम अर्थात् इन्द्रों के द्वारा पूज्य, सबसे उत्तम पद में स्थित हैं, वे परमेष्ठी कहलाते हैं। वे पाँच होते हैं-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु।
अरिहंत का स्वरूप
जिनके चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं, जिनमें से ४६ गुण हैं और १८ दोष नहीं हैं, उन्हें अरिहंत परमेष्ठी कहते हैं।
दोहा-
चौंतीसों अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ। अनन्तचतुष्टय गुण सहित, छियालियाँ पाठ।।१।।
ये अरिहंत के चौथे मूलगुण हैं। उत्तरगुण अनन्त हैं।
सर्व साधारण प्राणियों में अद्भुत या अनोखी बात को अतिशय कहने को नहीं पाई जाती। इन ३० अतिशयनों में जन्म के १०, केवलज्ञान के १० और देवकृत १४ होते हैं।
जन्म के दस अतिशय-
अतिशय रूप सुगंध तन, नाहिं पाशव निहार। प्रिय वचन अतुल्यबल, रूधिर श्वेत आकार।। लक्षण सहस्रु आठ तन, समचतुष्क संथान। वृकवृषभनाराचजुत, ये जनमत दस जान।।
अतिशय सुन्दर शरीर, अतित्यन्त उत्तम शरीर, पसीना रहित शरीर, मल-मूत्र रहित शरीर, हित-मित-प्रिय वचन, अतुल-बल, श्वेत रक्त, शरीर में १००८ लक्षण, समचतुरससंस्थान और वाकवृषभनाराच संहनन ये १० अतिशय अरिहंत भगवान के जन्म से ही होते हैं।
केवलज्ञान के १० अतिशय-
योजन शत इवा में सुभिख, गगन-गमन मुख चार। नहिं अदया, न उपसर्ग, नहिं कवलाहार।। सब विद्या ईश्वरपणो, नैनह उत्पन्न नख-केश। अनिमिष दृग छाया रहित, दश केवल के वेष।।
भगवान के चारों ओर सौ-सौ योजन तक सुखी, आकाश में गमन, एक मुख भी चार मुख वाला, हिंसा न होना, उपसर्ग नहीं होना, ग्रास वाला आहार नहीं लेना, समस्त विद्याओं का स्वामी बनना, नख केश नहीं बढ़ना, नेत्रों की पलकें न लगाना और न शरीर की परछाई पड़ना। केवलज्ञान होने पर ये दश अतिशय होते हैं।
देवकृत १४ अतिशय-
देव रचित हैं चार दश, अर्ध मागधी भाष्य। सारी माहीं मित्रता, निर्मल दिश आकाश।। गरम फूल फल ऋतु सबै, पृथ्वी कांच समान। चरण कमल तल कमल हैं, नभटैं जय-जय बान।। मंद सुगंध बयार पुनि, गंधोदक की वृष्टि। भूमि विषै कंटक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि।। धर्मचक्र आगे रहे, पुनि वसु मंगल सार। अतिशय श्री अरिहंत के, ये चतुर्थीस प्रकार।।
भगवान की अर्ध-मागधी भाषा, जीवों में परस्पर मित्रता, सतहों की निर्मलता, आकाश की निर्मलता, छहों ऋतुओं के फल-फूलों का एक ही समय में फलना-फूलना, एक योजन तक पृथ्वी का दर्पण की तरह निर्मल होना, चलते समय भगवान के चरणों के नीचे सुवर्ण कमल की रचना, आकाश में जय-जय शब्द, मंद वसंत पवन, उत्तम जल की वर्षा, पवन कुमार देवों द्वारा भूमि की निष्कंटकता, सभी प्राणियों को आनंद, भगवान के आगे धर्मचक्र का चलना और आठ मंगल द्रव्यों के साथ रहना ये अनगिनत अतिशय देवों द्वारा किये जाने से देवकृत कहलाते हैं और केवलज्ञान होने पर होते हैं।
प्रार्थना के लक्षण-
विशेष शोभा की प्राप्ति को प्राच्य कहते हैं।
आठ प्राध्यापक-
तरु अशोक के निकट, सिंहासन छविदार। तीन छत्र शिर पर फिरें, भामण्डल पिछवार।। दिव्यध्वनि मुखते खिरें, पुष्पवृष्टि सुर होय। धोरेँ चौंसठ चमार जख, बाँझें दुंदुभि जोय।।
भगवान के पास अशोक वृक्ष, रत्नमय सिंहासन, भगवान के सिर पर तीन छत्र, पीछे भामंडल, दिव्यध्वनि, देवों द्वारा पुष्प वर्षा, यक्षदेवों द्वारा चौंसठ चंवर धोरे जाना और दुंदुभि बाजे बजाना ये आठ प्रागितिहास हैं।
अनन्त चतुष्टय-
चार घटिया कर्मों के नाश से जो चार विशेष गुण प्रकट होते हैं, उन्हें अनंत चतुष्टय कहा जाता है।
ज्ञान अनन्त, अनन्त सुख, दर्शन अनन्त प्रमाण। बल अनंत अरिहंत सो, इष्टदेव पहिचान।।
अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य ये चार अनंत चतुष्टय हैं अर्थात् भगवान के ये दर्शन-ज्ञानादिक अन्तहीन होते हैं। चार घटिया कर्म के नाश से जो चार विशेष गुण प्राप्त होते हैं, उन्हें अनन्त चतुष्टय कहा जाता है।
अठारह भूत के नाम-
जन्म जरा तिरखा क्षुधा, विस्मय आरत खेद। रोग शोक मद मोह भय, निद्रा चिंता स्वेद।। राग द्वेष अरु मरण जुत, ये अष्टादश दोष। नहीं होते अरिहंत के, सो छवि सार्थक मोष।।
जन्म, बुधापा, प्यास, भूख, आश्चर्य, पीड़ा, दु:ख, रोग, शोक, गर्व, मोह, भय, अनिद्रा, चिंता, प्यास, राग, द्वेष और मरण ये अठारह दोष अरिहंत भगवान में नहीं होते।
सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप
जो आठों कर्मों का नाश हो जाने से नित्य, निरंजन, आश्रय हैं, लोक के अग्रभाग पर विराजमान हैं, वे सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं। इनके आठ मूलगुण होते हैं, उत्तमगुण तो अनन्तानन्त हैं।
सोरठा- समकित दर्शन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहना।
सूक्ष्म विरज वन, निराबाध गुण सिद्ध के।।
क्षायिक सम्यकत्व, अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अनंतवीर्य और अव्याबाधत्व ये सिद्धों के आठ मूल गुण हैं।
आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप
जो पांच आचार्यों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरे मुनियों से सीखते हैं, मुनि संघ के अधिपति हैं और शिष्यों को उपदेश व प्रायश्चित आदि देते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी हैं। इनके ३ मूलगुण होते हैं।
व्रत संख्या रस अंत, व्रत संख्या रस अंत। विविध शयन आसन धरें, काय कलेश सुखोर।। प्रियश्चित्त धर विनयजुत, वैयावृत स्वाध्याय। पुनि उत्सर्ग विचारि के, धारैं ध्यान मन लय।।
अनशन (उपवास), ऊनोदर (भूख से कम खाना), व्रतपरिसंख्यान (आहार के समय अचानक नियम), रसपरित्याग (नमक आदि रस त्याग), विविक्त शयसन (एकांत स्थान में सोना, बैठना), कायकलेश (शरीर से गर्मी, सर्दी आदि सहन करना) करना) करना) ये छह बाह्य ताप हैं। प्रियश्चित् (दोष लगने पर दण्ड लेना), विनय (विनय करना), वैयावृत्य (रोगी आदि संत की सेवा करना), स्वाध्याय (शास्त्र पढ़ना) व्युत्सर्ग (शरीर से ममत्व छोड़ना) और ध्यान (एकाग्र करके आत्मचिंतन करना) ये छह अन्तराल हैं । इस प्रकार ये १२ ताप होते हैं।
उत्तम क्षमा-क्रोध नहीं करना, मार्दव-मान नहीं करना, आर्जव-कपट नहीं करना, सत्य-झूठ नहीं बोलना, शौच-लोभ नहीं करना, संयम-चाह काय के पूरक की दया निभाना, पाँच इंद्रियों और मन को वश में करना, तप-बारह प्रकार के तप करना, त्याग-चार प्रकार का दान देना, आकिंचन्य-परिग्रह का त्याग करना और ब्रह्मचर्य-स्त्रीमात्र का त्याग करना।
आचार तथा गुप्ति-
दर्शन ज्ञान चरित्र तप, विरज पंचाचार। गोपें मन वाच काय को, गिन छत्तिस गुणसार।।
दर्शनाचार-दोषरहित सम्यग्दर्शन, ज्ञानाचार-दोषरहित सम्यग्ज्ञान, चरित्राचार-निर्दोषचारित्र, तपचार-निर्दोष तपश्चरण और वीर्याचार-अपने आत्मबल को प्रगट करना ये पाँच आचार हैं।
मनोगुप्ति-मन को वश में करना, वचनगुप्ति-वचन को वश में करना और कायगुप्ति-काय को वश में रखना ये तीन गुप्तियाँ हैं।
समता- समस्त भक्तों पर समता भाव और त्रिकाल सामायिक, वंदना-किसी एक तीर्थंकर को नमस्कार, स्तुति-चौबीस तीर्थंकर की स्तुति, प्रतिक्रमण-लगे हुए भक्तों को दूर करना, स्वाध्याय-शास्त्रों को पढ़ना और कायोत्सर्ग-शरीर से ममत्व छोड़ना और ध्यान करना ये छह आवश्यक हैं। (मूलाचार आदि में स्वाध्याय की जगह ‘प्रत्याख्यान’ नामक क्रिया है, जिसका अर्थ है कि आगे होने वाले प्राणियों का, आहार-पानी आदि का त्याग करना) यहाँ तक आचार्य के देह मूलगुण हुए।
उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप
जो मुनि ११ अंग और १४ पूर्व के ज्ञानी होते हैं, अथवा जो वर्तमान के सभी शास्त्रों के ज्ञानी होते हैं तथा जो संघ में संत कोहेल हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं। ग्यारह अंग और चौदह पूर्व को पढना ही इनके मूलगुण हैं।
पञ्च अंग-
प्रथमहिं आचारांग गनि, दूजो सूत्रकृतांग। ठाण अंग तीजो सुभग, चौथो समवायांग।। व्याख्यापण्णति पांचमों, ज्ञातृकथा षट् जान। पुनि उपासकाध्ययन है, अन्तःकृत् दश जान।। अनुत्तरण उत्पाद दश, सूत्रविपाक पिचान। बहुरि प्रश्न व्याकरणजत, ग्यारह अंग प्रमाण।।
आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृकथांग, उपासकाध्यायनांग, अन्तःकृद्दाशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग और विपाकसूत्रंग ये ग्यारह अंग हैं।
चौदहवीं के नाम-
उत्पादपूर्व अग्रायणी, तीजो वीरजवाद। अस्तिनास्तिप्रवाद पुनि, पंचम ज्ञानप्रवाद।। छट्ठो कर्मप्रवाद है, सत्प्रवाद परिचय। अष्टम आत्मप्रवाद पुनि, नवमो प्रत्याख्यान।। विद्यानुवाद पूर्व दशम, पूर्व कल्याण महंत। प्राणवाद किरिया बहुल, लोकबिंदु है अन्तः।।
उत्पादपूर्व, अग्रायणी पूर्व, वीर्यानुवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, कर्मप्रवादपूर्व, सत्प्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, विद्यानुवादपूर्व, कल्याणप्रवादपूर्व, प्राणानुवादपूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकपूर्व पूर्व ये १४ पूर्व हैं। ये बारहवें दृष्टिवाद नाम अंग में वर्णित पूर्वगत के चौदह भेद हैं। इनका नाम ही चौदह पूर्व के नाम से जाना जाता है।
साधु परमेष्ठी का स्वरूप
जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों से तथा आरंभ और परिग्रह से रहित होते हैं, ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहते हैं ऐसे दिगम्बर मुनि मोक्षमार्ग का साधन करने वाले होने से साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। इनके २८ मूलगुण होते हैं।
अट्ठाईस मूलगुणों के नाम-
पंच महाव्रत समिति पान, पंचेन्द्रिय का निवारण। षट् आवश्यक साधु गुण, सात शेष अवबोध।।
५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियविजय, ६ आवश्यक और ७ शेष गुण, ये संतों के २८ मूलगुण हैं।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशलता और परिग्रह इन पाँचों पापों का मन-वचन-काय से सर्वथा त्याग कर देना ये पाँच महाव्रत कहलाते हैं।
पांच समितियां-
ईर्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपणप्रवाह। प्रतिष्ठापनाजात क्रिया, पांचों समिति निधान।।
ईर्यासमिति- चार हाथ आगे भूमि देखकर चलना, भाषा समिति-हित-मित-प्रिय वचन बोलना, आशानसमिति-निर्दोष आहार लेना, घूमना निक्षेपण समिति-पिच्छी से पुस्तक आदि को देख-शोधन करके उठाना, प्रतिष्ठापना समिति-जीव रहित भूमि में मलादि विसर्जित करना, ये पाँच समितियाँ हैं।
इन्द्रियविजय एवं शेष मूलगुण-
सपरस रसना नासिका, नयन श्रोत का रोध। शेष सात मज्जन तजन, श्यन भूमि का अनुसंधान।। वस्त्र त्याग कचलुंच अरु, लघु भोजन इक बार। दांतों मुख में ना करें, ठाड़े लेहिं आहार।।
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण-इन पाँचों इन्द्रियों को वश में करना ये पंचेन्द्रियविजय नामक पाँच मूलगुण हैं।
स्नान का त्याग, भूमि पर शयन, वस्त्र त्याग, केशों का त्याग, दिन में एक बार लघु भोजन, दातों का त्याग और खड़े रहकर भोजन ग्रहण करना ये ७ शेष गुण हैं। पाँचों परमेष्ठी के सब मिलकर ४६±८±२६±२५±२८·१४३ मूलगुण हो जाते हैं।
ॐ पंचपरमेष्ठी का संक्षिप्त रूप-
पंचपरमेष्ठी का सबसे छोटा रूप ॐ है। ॐ अर्थात् ॐ में पांचों परमेष्ठी के प्रथम अक्षर (अ, आ, आ, उ और म्) सम्मिलित हैं तथा इन पांचों सज्जनों से ही ऊँ बना है। ओम में (अ±अ±आ±उ±म्) होते हैं। इनसे अभिप्राय निम्न प्रकार है-
लोक में चार मंगल हैं- अरिहंत भगवान मंगल हैं, सिद्ध भगवान मंगल हैं। साधु (आचार्य, उपाध्याय और साधु) मंगल हैं तथा केवली भगवान द्वारा कहा गया धर्म मंगल है। मंगल का अर्थ है जो मल (मोह, राग, द्वेष आदि) को गलावे और सच्चा सुख उत्पन्न करे। अनेक मंगल स्वरूप हैं। ये भक्ति भाव होने से परम मंगल होता है।
लोक में चार उत्तम हैं- अरिहंत भगवान उत्तम हैं, सिद्ध भगवान उत्तम हैं, साधु (आचार्य, उपाध्याय और मुनि) उत्तम हैं तथा केवली भगवान द्वारा कहा गया धर्म उत्तम है। लोगुत्तमा का अर्थ है-लोक में उत्तम। लोक में उत्तम वातावरण या सर्वोत्तम नाम हैं।
चार की शरण में जाता हूँ-अरिहंतों की शरण में जाता हूँ, सिद्धों की शरण में जाता हूँ, साधुओं (आचार्य, उपाध्याय और साधु) की शरण में जाता हूँ और केवली भगवान कहे गये धर्म की शरण में जाता हूँ।
विशेष-शरण का अर्थ है सहारा और पव्वज्जामि का अर्थ है प्राप्त होता हूँ नाम से जाता हूँ। पंच परमेष्ठी द्वारा बताये गये मार्ग पर चलकर अपनी आत्मा की शरण लेना ही पंच परमेष्ठी की शरण है।
चत्तारि दण्डक में अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली भगवान द्वारा कहे गये धर्म को ही मंगल स्वरूप कहा गया है। इन चारों ओर ही लोक में सर्वश्रेष्ठ कह दिए गए हैं और इन चारों ओर को ही सर्वश्रेष्ठ का सहारा कहा गया है। इन चार के अतिरिक्त लोगों में कोई मंगल-उत्तम-शरण नहीं है। इस प्रकार इस चत्तारि दण्डक में पंच परमेष्ठियों के महत्त्व को दर्शाया गया है।
क्योंकि इसमें अरिहंत, सिद्ध और संत का ही उल्लेख है, आचार्य व उपाध्याय का उल्लेख नहीं है। इसके कारण निम्न हैं-
(१) सभी आचार्य और उपाध्याय ”साधु” शब्द में परोक्ष रूप से सम्मिलित हैं। आचार्य और उपाध्याय अपने मूलगुणों के अतिरिक्त साधुओं के मूलगुणों को भी धारण करते हैं, तथा इसलिए वे ‘साधु’ परमेष्ठी में निहित होते हैं। उन्हें छोड़ दिया नहीं गया है अपितु गौण किया गया है।
(२) मोक्ष पद प्राप्त करने के लिए केवल साधु होना आवश्यक है, आचार्य या उपाध्याय होना आवश्यक नहीं है।
(३) जब तक आचार्य पद का परिग्रह है, तब तक उन्हें केवल ज्ञान नहीं हो सकता। आचार्य पद पर ही केवलज्ञान होता है।