यह मन्त्रराज, घनकर्म समूह हटाता है। यह संसार महापर्वत, भेदन में वाक् कहाता है। सत्पुरुषों को स्वर्ग मोक्ष दे, संकट दूर भगाता है। मोह महान्दकूप में डूबे, को अवलम्बदाता है।। दोहा-जीवनदाता मंत्र यह, करे जगत उद्धार। मेरी भी रक्षा करो, ऋणमोकार सुखकार।।
अर्थ- अर्हंत आदि पंचपरमेष्ठियों का वाचक मंत्र ज्ञानावरण आदि कर्म समूह को आत्मा से हटाने वाला है अतएव संसाररूपी पर्वत को तोड़ने के लिए वाक् के समान है। सत्पुरुषों को स्वर्ग-मोक्ष जाने में सहायक है, मोहरूपी अंधकूप में गिरे हुए प्राणियों को उससे बाहर निकालने के लिए हस्तिनावलम्बन (हाथ के सहारे) के समान है, चर (त्रस) और अचर (पृथ्वी, वनस्पति आदि स्थावर) जगत को जीवनदाता है, ऐसा ही परममोकार महामंत्र हमारी रक्षा करे।
एक तराजू के पलड़े पर, मणिबंध पद मंत्र लीजिए। लोकत्रय के गुण अनन्त, पुंजों को भी इक ओर रखो।। परमेष्ठी के मंत्रों का, फिर भी पलड़ा भारी होगा। गौरवशाली महामंत्र को, नमन शिवसुख करे।। दोहा-नमोकार यह मंत्र है, जग में गुरुतर मंत्र। नमूँ इसे सर्वत्र मैं, पाउँ सौख्य स्वतंत्र।।
अर्थ- यदि कोई व्यक्ति एक पंचपरमेष्ठी के मंत्र के पदों को और दूसरे अनंत महीनों के तीन लोगों को देखकर, वह मंत्र को अधिक वजनदान (भारी) अनुभव करेगा, तो मैं उस महान गौरवशाली मंत्र को नमस्कार करता हूँ।
ये केचनापि सुषमाद्यर्का अनन्ता, उत्सर्पिणीप्रभृतय: प्रियुर्विवर्त्ता:। तेष्वप्यं परतरं प्रथितं पुरापि, लब्ध्वाैनमेव हि गता: शिवमात्र लोका:।।३।।
(३)
उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के, सुष्मादिक काल अनन्त रहे। यह महान् मंत्र ही, सदैव प्रसिद्ध हुआ। काल अनादि से अनन्त तक, मन्त्रराज यह शाश्वत है। भव से पर मुक्ति हेतू, वंदन कर लूँ भव सार्थक है।। दोहा-अपराजित यह मंत्र है, पंचपदों से युक्त। अंजन तस्कर हो गया, इसके बल पर मुक्त।।
अर्थ- उत्सर्पिणी, अवसरिणी आदि काल के जो सुषमा, दु:षमा आदि अनन्त युग पहले ही व्यतीत हो चुके हैं, उनमें भी यह मंत्र सबसे अधिक महात्त्वशाली प्रसिद्ध हुआ है। मैं संसार से बाह्य मोक्ष प्राप्त करने के लिए उस मंत्र को नमस्कार करता हूँ।
जो नर इस मंत्र को, सदा-सदा स्मरण करे। दुःख-गिरते-चलते-पृथ्वी, पर भी दुःखते मन में धरे।। जगते-सोते-हंसते अथवा, वन में भी जब भय लगता है। मन्त्रराज को जपने से हर, मनवांछित फल मिलता है। दोहा-मूलमंत्र जिनधर्म का, पढ़ो करो नित जाप। देखो ग्वाला भी हुआ, सेठ सुदर्शनराज।।
अर्थ-जो व्यक्ति चलित हुए, गिरते हुए, चलते हुए, पृथ्वी तल पर लोटे-लुढ़कते हुए, जागते हुए, सोते हुए, हंसते हुए, वन में चलित हुए, परिदृश्य, मार्ग में चलते हुए, घर में रहते व कोई कार्य करते हुए पग-पग पर सदा मणिमोकार मंत्र का स्मरण करता है, उसकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।
युद्धक्षेत्र या समुद्र में, मौत सामने दिखती हो। हाथी-सर्प-सिंह-दुरव्याधि, तन में या अग्नि भी हो।। शत्रु तथा बंधन एवं, चौराडी बुरे ग्रह दुख देते हैं। शाकिनी डाकिनी आदिक भय, परमेष्ठि पाँच सब हर लेत।। दोहा-इसी मंत्र के श्रवण से, श्वान हुआ यक्षेन्द्र। पढ़ सुनो और नमन से, निज मन करो पवित्र।।
अर्थ-मोकार मंत्र जपने से युद्ध, समुद्र, गजराज (हाथी) सर्प, सिंह, भयानक रोग, अग्नि, शत्रु, बंधन (जेल आदि) के तथा चोर, दुष्टग्रह, राक्षस, चुड़ैल आदि का भय दूर हो जाता है।
यो लक्षं जिनलक्षबद्धहृदय:, सुव्यक्तवर्णक्रमम्। श्रद्धावान्विजितेन्द्रियो भवहरं, मन्त्रं जपेच्छ्रावक:।। पुष्पै: श्वेतसुगन्धिभि: सुविधिना, लक्षप्रमाणैरमुम्। य: संपूजयते स विश्वमहितस्तीर्थाधिनाथो भवेत्।।६।।
(६)
जोपाद जितेन्द्रिय श्रावक मन में प्रभु सुमिरन करके। शुद्ध शब्द उच्चारणपूर्वक का जप करें। एक लक्ष मंत्र को जपकर पुष्प सफेद चढ़ाते हैं। वे तीर्थाधिनाथ से ऋणमोकार पूजन करवाते हैं। दोहा-श्वेत उत्सव पुष्प ले, पूजूँ मंत्र महान। जगत्पूज्य पद प्राप्त कर, बन जाऊँ प्रभु।।
अर्थ-जो जितेन्द्रिय प्रवाह श्रावक हृदय में जिनेन्द्र भगवान का लक्ष्य रखता है, वह स्पष्ट शुद्ध उच्चारण सहित णमोकार मंत्र को एक लाख बार जपता है तथा विधिपूर्वक एक लाख उत्सव श्वेत फूल से णमोकार मंत्र को पूजता है, अर्थात् णमोकार मंत्र शुद्ध स्पष्ट उत्सव श्वेत फूल चढ़ाता है, वह जगत्पूज्य तीर्थंकर पद प्राप्त करता है।
इन्दुर्दिवाकरतया रविन्र्दुरूप:, पातालम्बरमिला सुरलोक एव। किं जल्पितेन बहुना भुवनत्रयेपि, यन्नम तन्न विपरीतं च समं च तस्मात्।।७।।
(७)
ॐ … शशि सम सूर्य बने तथा पाताल भी नभ सम बन सकता है।। धरती स्वर्ग समान सुखद बन, चाहे फल दे सके। और क्या कहें ? तीन लोक की, हर वास्तु मिल सकती है।। दोहा-सुखदायक इस मंत्र से, सभी पदार्थ मिलते हैं। दुःख भी सुख में बदलता है, प्राणी होय कृतार्थ।।
अर्थ-मोकार मंत्र के प्रभाव से सूर्य चन्द्रमा के समान, सूर्य चन्द्रमा की तरह, पाताल आकाश के समान और पृथ्वी स्वर्ग के समान हो जाती है। बहुत क्या कहें ? तीन लोगों में ऐसी कोई भी विपरीत वस्तु नहीं है जो सुखदायक मंत्र के प्रभाव से सम (सुखदायक-इष्ट) न हो सके अर्थात् सभी अनिष्ट प्रेषण सुखदायक मंत्र के प्रभाव से इष्टरूप अप्राप्य हो सकते हैं।
जगमुर्जिनस्तदपवर्गपदं तदैव, विश्वं वरकामिदमात्र कथं विनाशमानन्। तत्सर्वलोकभुवनोद्धराणाय धीरैर्मन्त्रात्मकं निजवपूर्णिहितं तदत्र।।८।।
(८)
धीर वीर जिनवर ने तब ही, शीघ्र मुक्ति पद प्राप्त किया। जब निज तन को मंत्ररूप कर, आत्मतत्त्व में रमा लिया।। त्रिभुवन के उद्धार हेतु जो, परमेष्ठी का ध्यान करें। वे ही जग में क्रम-क्रम से, परमेष्ठी बन विश्राम करें।। दोहा-परमेष्ठी पद प्राप्त का, यही मूल आधार। णमोकार का ध्यान ही, करता भव से पार।।
अर्थ-कक्षय विजेता योगी तब ही मुक्ति प्राप्त कर सका, जबकि उन धीर-वीरों ने समस्त जगत का उद्धार करने के लिए अपना शरीर मंत्ररूप कर लिया। इसके बिना भुनारा संसार (संसारी जीव समूह) जिस तरह कल्याण प्राप्त करता है अर्थात् साधु आदि परमेष्ठी मंत्र के ध्यान से मुक्त होते हैं तथा उनका पाँच परमेष्ठी रूप होना इस मंत्र का मूल आधार है।
जो नर सिंहा झूठ व चोरी तथा परस्त्री में रत है। लोक निन्द्य महान है, पाप में रहता है तत्पर।। वह भी उन्हें तज यदि कदाचित्, मन्त्रराज सुमिरन कर ले। तो कुकर्म से पृथक दुर्गति, बंध रूप दिवगति वर ले।। दोहा-नमोकार मन्त्रेश यह, कुगति निवारक जान। सुगति प्रदाता है यह, शत शत करो प्रणाम।।
अर्थ-जो मनुष्य हिंसा, असत्य वाणी, चोरी, परस्त्री सेवन करने वाला हो तथा लोकनिन्दित होकर अन्य महान पाप कर्मों में तत्पर रहता हो, वह भी यदि (पापों को छोड़कर) निरन्तर-सदा मंत्र का स्मरण करता रहे, तो कुकर्मों से उपार्जित अपनी नरक आदि दुर्गति को बदलकर मरकर देवगति प्राप्त होती है।
अयं धर्म: श्रेयान्नयमपि च देवो जिनपति- र्व्रतं चैष श्रीमान्नयमपि तप: सर्वफलदं। किमन्यैर्वाग्जालैर्बहुभिरपि संसारजलधौ, नमस्कारात्तिंक यदिः शुभरूपो न भवति।।१०।।
( १० )
नमस्कार यह मंत्र जगत में, सर्व हितैषी धर्म कहा। यही मंत्र जिनरूप व व्रतमय फलदायी शिवशर्मा कहा।। अधिक कथन से क्या मतलब है, केवल सार समझ लीजिये। इसी मंत्र की महिमा से हर अशुभ कार्य भी शुभ कीजे। दोहा-है अचिन्त्य महिमामयी, ॐमोकार यह मंत्र। इन्हें जपते ही फल, भौतिक सौख्य अनेक।।
अर्थ-यह पंचनमस्कार मंत्र ही कल्याणकारी धर्म है, यह मंत्र ही जिनेन्द्र भगवान रूप है, यह मंत्र ही समस्त शुभ फलदायी व्रतरूप है। दूसरी बहुत सी बातें करने से क्या लाभ है। संक्षेप में, आप समझ लीजिए कि संसार में यह मंत्र इतना महत्वपूर्ण है, जिसके प्रभाव से ऐसी कोई चीज नहीं, जो शुभरूप न हो सके।
जो मनुष्य स्वर्ग जगते, पथ में चलते यह मंत्र पढ़ें। घर में भी स्खलन के समय, इस मंत्रराज को सदा पढ़ें। भ्रमण-खिन्न-उन्मत्त अवस्था, वन पर्वत या सागर हो। हृदय पाताल में निम्मोकार यह, मंत्र ही सदा उजागर हो।। दोहा-पत्थर पर प्रवाह सम, धरो हृदय में मंत्र। पुण्यवान मानव जन्म, प्रकट बनो स्वतंत्र।।
अर्थ- जो मनुष्य नींद में, जागते, मार्ग में चलते हैं, घर में लड़खड़ाते, चिल्लाते, खेदखिन्न होते, उन्मत्त होते, वन पर्वत में चलते, समुद्र में तैरते हुए अर्थात् प्रत्येक दशा में पंच नमस्कार मंत्र को अपनी हृदय पाताल पर (स्मृति में) पाषाण पर्वत में खुदे हुए धूप के समान धारण किए रहता है, वह पुण्यवान है।
अर्थ- मनुष्य को दुख में, सुख में, संबंध स्थान में, मार्ग में, वन में, युद्ध में, पग-पग पर पंच नमस्कार मंत्र का पाठ करना चाहिए।
(१२)
दोहा-दुख-सुख भयप्रद मार्ग या, वन हो युद्धस्थान। पंचनमस्कृति मंत्र को, पढ़ो लहो सुखान।। ॐ णमोकार महात्म्य ये, उमास्वामी कृत स्तोत्र। यही अनुवाद है, पढ़ो लहो सुख स्रोत।।१।। ज्ञानमती गणिनीप्रमुख, माता जगत्विख्यात। उनकी शिष्या चंदना-मती आर्यिका मात।।२।। किया पद्य अनुवाद यह, गुरु आज्ञा सिर धार। भौतिक आत्मिक सुख मिले, अतः मन्त्र हितकारक।।३।।