ऊर्ध्व लोक में वैमानिक की, विमान संख्या मानी है।
चौरासि लाख सत्तानवे हजार तेइस मानी है।।
इन सबमें एक-एक जिनगृह, शाश्वत मणिमय सुरवंदित हैं।
इन सबमें इक सौ आठ-आठ, जिनप्रतिमा पूजूँ शिवप्रद हैं।।१।।
ॐ ह्रीं ऊर्ध्वलोके-वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्र- त्रयोिंवशतिजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं ऊर्ध्वलोके-वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्र- त्रयोिंवशतिजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं ऊर्ध्वलोके-वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्र- त्रयोिंवशतिजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
हे नाथ! मेरी ज्ञानसरिता, पूर्ण भर दीजे अबे।
इस हेतु जल से आपके, पदकमल पूजूँ मैं अबे।।
वैमानिकों के जिनभवन, शाश्वत मणीमय शोभते।
उन पूजते निज आत्मगुण, संपति मिले मन मोहते।।१।।
ॐ ह्रीं वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोिंवशति- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्म में संपूर्ण शीतल, सलिल धारा पूरिये।
तुम चरणयुगल सरोज में, चंदन चढ़ाऊँ इसलिए।।
वैमानिकों के जिनभवन, शाश्वत मणीमय शोभते।
उन पूजते निज आत्मगुण, संपति मिले मन मोहते।।२।।
ॐ ह्रीं वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोिंवशति- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षय अखंडित सौख्यनिधि, भंडार भर दीजे प्रभो!।
इस हेतु अक्षत पुंज से, मैं पूजहूँ तुम पद विभो!।।
वैमानिकों के जिनभवन, शाश्वत मणीमय शोभते।
उन पूजते निज आत्मगुण, संपति मिले मन मोहते।।३।।
ॐ ह्रीं वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोिंवशति- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मुझ आत्म गुण सौगंध्यसागर, पूर्ण भर दीजे प्रभो!।
इस हेतु मैं सुरभित सुमन ले, पूजहूँ तुम पद विभो!।।
वैमानिकों के जिनभवन, शाश्वत मणीमय शोभते।
उन पूजते निज आत्मगुण, संपति मिले मन मोहते।।४।।
ॐ ह्रीं वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोिंवशति- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरी प्रभो! परिपूर्ण तृप्ती, आत्मसुख पीयूष से।
कीजे अत: नैवेद्य से, पूजूूँ चरणयुग भक्ति से।।
वैमानिकों के जिनभवन, शाश्वत मणीमय शोभते।
उन पूजते निज आत्मगुण, संपति मिले मन मोहते।।५।।
ॐ ह्रीं वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोिंवशति- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ज्ञानज्योती मुझ हृदय में, पूर्ण भर दीजे अबे।
मैं आरती रुचि से करूँ, अज्ञानतम तुरतहि भगे।।
वैमानिकों के जिनभवन, शाश्वत मणीमय शोभते।
उन पूजते निज आत्मगुण, संपति मिले मन मोहते।।६।।
ॐ ह्रीं वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोिंवशति- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
मुझ आत्मयश सौरभ गगन में, व्याप्त कर दीजे प्रभो!।
इस हेतु खेऊँ धूप मैं, कटुकर्म भस्म करो विभो!।।
वैमानिकों के जिनभवन, शाश्वत मणीमय शोभते।
उन पूजते निज आत्मगुण, संपति मिले मन मोहते।।७।।
ॐ ह्रीं वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोिंवशति- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
निज आत्मगुण संपत्ति को, अब पूर्ण भर दीजे प्रभो!।
इस हेतु फल को मैं चढ़ाऊँ, आपके सन्निध विभो।।
वैमानिकों के जिनभवन, शाश्वत मणीमय शोभते।
उन पूजते निज आत्मगुण, संपति मिले मन मोहते।।८।।
ॐ ह्रीं वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोिंवशति- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अनमोल गुण निज के अनंते, किस विधी से पूर्ण हों।
बस अर्घ्य अर्पण करत ही, सब विघ्नवैरी चूर्ण हों।।
वैमानिकों के जिनभवन, शाश्वत मणीमय शोभते।
उन पूजते निज आत्मगुण, संपति मिले मन मोहते।।९।।
ॐ ह्रीं वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोिंवशति- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर पद अरविंद में, धारा तीन करंत।
त्रिभुवन में भी शांति हो, निज गुणमणि विलसंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जिनवर चरण सरोज में, सुरभित कुसुम धरंत।
सुख संतति संपति बढ़े, निज गुण मणि विलसंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
वैमानिक सुविमान, जिनमंदिर पावन वहाँ।
पूजूँ नित धर ध्यान, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
पहले ही सौधर्म स्वर्ग में, बत्तिस लाख जिनालय।
गणधर मुनिगण सौ इंद्रों से, वंदित सर्व सुखालय।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।१।।
ॐ ह्रीं सौधर्मकल्पस्थितद्वािंत्रशत्लक्षविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वितीय स्वर्ग ऐशान कल्प में, लाख अठाइस जानो।
शाश्वत मणिमय जिनमंदिर हैं, वंदन कर भव हानो।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।२।।
ॐ ह्रीं ऐशानकल्पस्थितअष्टािंवशतिलक्षविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सानत्कुमार स्वर्ग में बारह, लाख जिनालय सोहें।
ध्वज ककिणि घंटा चंद्रोपक, आदिक से मन मोहें।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।३।।
ॐ ह्रीं सानत्कुमारकल्पस्थितद्वादशलक्षविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौथे स्वर्ग माहेंद्रकल्प में, आठ लाख जिनधामा।
सुरगण देव अप्सराएँ नित, गुण गावें अभिरामा।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।४।।
ॐ ह्रीं माहेन्द्रकल्पस्थितअष्टलक्षतीविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग उभय में, चार लाख जिनधामा।
आठ द्रव्य मंगलमय शोभें, प्रति जिन पास महाना।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के -ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।५।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मकल्पस्थितचतुर्लक्षविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लांतव अरु कापिष्ठ स्वर्ग में, सहस पचास जिनालय।
शाश्वत रत्नमयी जिनप्रतिमा, भविजन हेतु शिवालय।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।६।।
ॐ ह्रीं लांतवकल्पस्थितपंचाशत्सहस्रविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुक्र-महाशुक्र उभय स्वर्ग में, चालिस सहस जिनालय।
मणिमय रत्नमयी जिनप्रतिमा, वंदत सर्व सुखालय।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।७।।
ॐ ह्रीं महाशुक्रकल्पस्थितचत्वािंरशत्सहस्रविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शतार अरु सहस्रार कल्प में, छह हजार जिनगेहा।
अभिषेक प्रेक्षागृह नर्तन, मंडप मंडित गेहा।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।८।।
ॐ ह्रीं सहस्रारकल्पस्थितषट्सहस्रविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आनत-प्राणत-आरण-अच्युत, चार कल्प में गिनिये।
सात शतक जिनमंदिर शाश्वत, वंदत ही भव हनिये।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।९।।
ॐ ह्रीं आनतप्राणतारणाच्युतकल्पस्थितसप्तशतविमानस्थितजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन अधोग्रैवेयक में, जिनगृह इक सौ ग्यारह हैं।
मंगल कलश ध्वजा तोरण से, संयुत सुखसागर हैं।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।१०।।
ॐ ह्रीं त्रयाधोग्रैवेयकस्थित-एकशत-एकादशविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मध्यम ग्रैवेयकत्रय में हैं, इक सौ सात जिनालय।
देवच्छंद मध्य जिनप्रतिमा, वंदत मिले शिवालय।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।११।।
ॐ ह्रीं त्रयमध्यग्रैवेयकस्थित-एकशतसप्तविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उपररिमत्रय ग्रैवेयक में, जिनमंदिर इक्यानवे हैं।
अहमिंद्रों से सतत पूज्य हैं, मुनिगण भी वंदें हैं।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।१२।।
ॐ ह्रीं त्रय-उपरिमग्रैवेयकस्थित-एकनवतिविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नव अनुदिश में नवजिनमंदिर, मणिमय बिंब समेता।
सम्यग्दृष्टी अहमिंद्रों से, पूजित पुण्य समेता।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।१३।।
ॐ ह्रीं नवानुदिशस्थितनवविमानस्थितजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच अनुत्तर में जिनमंदिर, पाँच अकृत्रिम सोहें।
अहमिंद्रों से सतत वंद्य ये, मुनिगण का मन मोहें।।
जो जन इनकी पूजा करते, सर्व उपद्रव चूरें।
निज के ज्ञान-दरस-वीरज-सुख, परम सुधारस पूरें।।१४।।
ॐ ह्रीं पंचानुत्तरविमानस्थितपंचजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इंद्रक विमान त्रेसठ मानें, इनमें जिनमंदिर अविनश्वर।
अट्ठत्तर सौ सोलह विमान, श्रेणीबद्ध में जिनगृह सुंदर।।
चौरासी लाख नवासि सहस, इकसौ चौवालिस प्राकीर्णक।
ये सब चौरासी लाख सत्यानवे, सहस सु तेइस जिनगृहयुत।।१।।
ॐ ह्रीं ऊर्ध्वलोके त्रिषष्ठि-इन्द्रकविमान-अष्टसप्ततिशतषोडशश्रेणीबद्धविमान-चतुर- शीतिलक्ष-एकोननवतिसहस्र-एकशतचतुश्चत्वािंरशत्प्रकीर्णकविमानस्थित-सर्वचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोिंवशतिजिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ये कोटि इक्यानवे लाख छियत्तर, सहस अठत्तर चार शतक।
चौरासी जिनवर प्रतिमायें, मैं मन-वच-तन से नमूूँ सतत।।
प्रत्येक जिनालय में ये इकसौ, आठ-आठ पद्मासन हैं।
इनकी पूजा-वंदन-भक्ती, दे देती सुख परमानंद हैं।।२।।
ॐ ह्रीं ऊर्ध्वलोके वैमानिकदेवविमानस्थितएकनवतिकोटिषट्सप्ततिलक्ष-अष्टसप्ततिसहस्रचतु:शतचतुरशीतिजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब इंद्रों के गृह के आगे, न्यग्रोधवृक्ष अतिशय ऊँचे।
पृथिवीकायिक हैं रत्नमयी, ये चैत्यवृक्ष अतिशय शोभें।।
प्रत्येक दिशा में एक-एक, जिनप्रतिमा रत्नमयी राजें।
इन चैत्यवृक्ष को नित पूजें, पूजत ही भव पातक भाजें।।३।।
ॐ ह्रीं प्रत्येक-इंद्रभवनसन्मुखस्थितन्यग्रोधचैत्यवृक्षचतुर्दिक्चतुश्चतु- र्जिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रैलोक्यजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जय जय ज्ाय तीर्थंकर जिनवर, जय वीतराग सर्वज्ञ प्रभो।
जय जय हित उपदेशी जिनवर, जय परमपिता परमेश्वर भो।।
तुम नाम मंत्र भी अतिशायी, तुम प्रतिमाएँ जन सुखदायी।
जय ऊर्ध्वलोक के जिनमंदिर, जिनप्रतिमाएँ मुनि मन भायीं।।१।।
वैमानिक के कल्पोपपन्न, अरु कल्पातीत भेद दो हैं।
कल्पोपपन्न के बारह विध, बारह ही इंद्र-प्रतीन्द्र कहें।।
सौधर्मकल्प ऐशान तथा, सानत्कुमार माहेंन्द्र कल्प।
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर का पंचम वा, लांवत-कापिष्ठ का छठा कल्प।।२।।
सातवाँ कल्प शुक्र-महाशुक्रद्ध अष्टम शतार-सहस्रार कल्प।
आनत-प्राणत, आरण-अच्युत, इन चार स्वर्ग के चार कल्प।।
बारह कल्पों के द्विदश इंद्र, द्वादश प्रतीन्द्र जिनभक्त कहें।
सौधर्म इंद्र सबमें प्रधान, जिन पंचकल्याणक में रत है।।३।।
प्रत्येक इंद्र के सामानिक, त्रायस्त्र्ािंश लोकपाल होते।
तनुरक्ष पारिषद अरु अनीक, प्राकीर्णक आभियोग्य होते।।
किल्विषक देव सब असंख्यात, परिवार देव माने जाते।
निजनिज इंद्रों की आज्ञा से, सब वैभव सहित चले आते।।४।।
सत्ताइस कोटी अप्सरियाँ, ऐरावत गज पर नृत्य करें।
जब सौधर्मेन्द्र विभव लेकर, चलते विस्मय सब विश्व करे।।
कल्पातीतों में ग्रैवेयक, नव-नव अनुदिश पंचानुत्तर।
इनमें सबही अहमिंद्र रहें, नहिं देवी हैं नहिं सुर परिकर।।५।।
जो समकित सहित पुण्य करते इन इंद्रों का वैभव पाते।
नंदीश्वर मेरु जिनालय को, वंदन करते अति हरषाते।।
जिनवर के पंचकल्याणक में, अतिशायी पुण्य कमाते हैं।
तीर्थंकर की भक्ती करके, इक भव ले शिवपद पाते हैं।।६।।
दक्षिण के इंद्र-इंद्राणी को, मिलता है यह सौभाग्य अहो।
जो जिनभक्ती में दृढ़ रहते, वे पा लेते निजराज्य अहो।।
जो जिनमुद्रा धारण करके, दृढ़तर चारित्र पालते हैं।
सोलह स्वर्गों के ऊपर में, बस वो ही जन्म धारते हैं।।७।।
ये मध्यलोक में नहिं आते, वहिं से जिनवंदन करते हैं।
निजगृह के जिनचैत्यालय की, पूजा कर आनंद भरते हैं।।
बहुगीत नृत्य संगीत करें, जिनगुण कीर्ती को गा-गाके।
निजआत्म तत्त्व से प्रीति करें, जिनसम निज को भी ध्या- ध्याके।।८।।
सौधर्म स्वर्ग में दो सागर, कुछ अधिक आयु उत्कृष्ट रहे।
सर्वार्थसिद्धि में तेतिस ही, सागर आयू जिनराज कहें।।
सौधर्म स्वर्ग में सात हाथ, ऊँचे तनु धारक देव कहें।
सर्वार्थसिद्धि में एक हाथ, तनु के ही सुंदर देव रहें।।९।।
सब इंद्र देव निज औपपाद, शय्या से जन्म ग्रहण करते।
घंटा ध्वनि आदिक से उठकर, क्षण में हि अवधिज्ञानी बनते।।
स्नान आदि से हो पवित्र, जिनमंदिर में पहले जाते।
नाना स्तुति भक्ती-वंदन, करते जिनवर को शिर नाते।।१०।।
क्षीरोदधि के१ जल से पूरित, इक सहस आठ सुवरण कलशे।
पंकज से ढके इन्हों से सुर, जिनबिंबों का सुन्हवन करते।।
मर्दल घंटा दुंदुभि वीणा, बहुविध वाद्यों की उच्च ध्वनी।
संगीत-गीत-नर्तन करते, जिनवर गुण गाते मधुर ध्वनी।।११।।
भृंगार-कलश-दर्पण-चामर, त्रयछत्र आदि बहु द्रव्यों को।
अर्पण करते अठ मंगलमय, शुभ द्रव्य विविध तोरण ध्वज को।।
जल-चंदन-अक्षत-पुष्प-चरू, दीपक-वरधूप-सरसफल से।
जिनपूजा करते हर्ष भरे, अतिशायी भक्ति करें रुचि से।।१२।।
मैं भी जिनमंदिर को पूजूँ, वंदूँ ध्याऊँ गुणगान करूँ।
जिनप्रतिमाओं के चरणों में, मैं बारंबार प्रणाम करूँ।।
प्रभु ऐसी शक्ती दो मुझको, निज आत्मसुधारस पान करूँ।
निज में निज ज्ञानमती ज्योती, पाकर निज में विश्राम करूँ।।१३।।
जय जय जय श्रीजिनभवन, जिनप्रतिमा मुनिवंद्य।
कोटि-कोटि वंदन करूँ, पाऊँ परमानंद।।१४।।
ॐ ह्रीं ऊर्ध्वलोके वैमानिकदेवविमानस्थितचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्र- त्रयोिंवशतिजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, त्रैलोक्य जिन पूजा करें।
सब रोग-शोक विनाश कर, भवसिंधु जल सूखा करें।।
चिंतामणी चिन्मूर्ति को, वे स्वयं में प्रगटित करें।
‘‘सुज्ञानमति’’ रविकिरण से, त्रिभुवन कमल विकसित करें।।
।।इत्याशीर्वाद:।।