(२८०)
सबके आगामी भव सुनकर,सीतेन्द्र हृदय था हरषाया।
इक दिन रावण और लक्ष्मण से,मिलने को उनका मन आया।।
चलदिये नरक में रावण को , संबोधन करने तब देखा।
बोले अब तो लड़ना छोड़ो, इसने ही तुम्हें यहाँ भेजा।।
(२८१)
उनने पूछा हैं आप कौन ? और यहाँ किसलिए आए हैं ?
अपना परिचय देकर बोले, हम तुमको लेने आए हैं।।
जैसे ही उन्हें उठाया था, नवनीत सदृश वे पिघल गए।
लाखों कोशिश ले जाने की,पर नहीं किसी विधि सफल भए।।
(२८२)
फिर उन्हें सुनायी पिछली और, आगामी भव की घटनायें ।
भयभीत हुए जब रावण तब , सम्यग्दर्शन व्रत दिलवाये।।
बोले हम तो हैं देव मगर, भगवान स्वयं भी आ जायें।
तब भी तुमको ले जाने में, कोई समर्थ न हो पाये।।
(२८३)
हे रावण ! तेरे एक नियम ने, मुझमें प्रीत जगाई है।
तुमने इन्द्रिय विषयों के वश, दु:खद नरकगति पाई है।।
अपने को कोई न जान सके, तो इसमें किसकी गलती है।
नर से नारायण बनने की, हर नर में रहती शक्ती है।।
(२८४)
इस तरह अनेकों सम्बोधन से, उनमें शुभभाव जगाया था।
जिनवर भाषित उपदेशों से, अंतस में अलख जगाया था।
वे बोले नरकयोनि से जब, हम मनुषधरा पर आयेंगे।
जिनदेव शरण अपना करके, हम अपने पाप नशायेंगे।।
(२८५)
देवेन्द्र ! जावो तुम सुरपुर को,जाकर सुख का उपभोग करो।
इस नरक में मेरी दशा देख, ना मन में कोई खेद करो।।
जो कर्म किये हमने संचित, उसका फल हम ही भोगेंगे।
कोशिश करके दुर्भावों को, मन में आने से रोकेंगे।