पश्चिम सुुपुष्करद्वीप के छह कुलगिरी पर जिनगृहा।
गजदंत चउ वक्षार सोलह के जिनालय अघदहा।।
चौंतीस रजताचल जिनालय सर्व की पूजा करूँ।
आह्वानन कर मैं थापहूँ मन में अतुल श्रद्धा धरूँ।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलचतु:गजदंतषोडशवक्षारचतुिंस्त्रशत् रूपप्यगिरिस्थितषष्टिजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलचतु:गजदंतषोडशवक्षारचतुिंस्त्रशत् रूपप्यगिरिस्थितषष्टिजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलचतु:गजदंतषोडशवक्षारचतुिंस्त्रशत् रूपप्यगिरिस्थितषष्टिजिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
गंगा नदी सुनीर स्वर्ण भृंग में भरूँ।
प्रभुपाद में त्रय धार दे भव वार्धि से तिरूँ।।
हे नाथ! आप भक्ति से भव रोग को हरूँ।
अब दीजिये वो शक्ती भव वन में ना फिरूं।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलादिषष्टिजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
मलयागिरी चंदन सुगंध चर्ण चर्चते।
भवताप दाह दूर हो प्रभु आप अर्चते।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलादिषष्टिजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
मोती समान श्वेत शालि पुंज चढ़ाऊँ।
अक्षय अखंड पद को प्रभु अर्चते पाऊँ।।
हे नाथ! आप भक्ति से भव रोग को हरूँ।
अब दीजिये वो शक्ती भव वन में ना फिरूं।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलादिषष्टिजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
बेला गुलाब पुष्प वर्ण वर्ण के लिये।
प्रभु चर्ण में चढ़ाय सर्व संपदा किये।।हे.।।४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलादिषष्टिजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
पायस व बालूसाही हलुआ चढ़ायके।
उदराग्नि को प्रशमित करूँ प्रभु को रिक्षायके।।हे.।।५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलादिषष्टिजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
कर्पूर ज्योति जगमगे मैं आरती करूँ।
अज्ञान अंधकार नाश भारती भरूँ।।हे.।।६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलादिषष्टिजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
वर धूप खेय धूपघट में धूम्र उड़ाऊँ।
जो दु:ख दे रहे हैं ऐसे कर्म जलाऊँ।।हे.।।७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलादिषष्टिजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
पिस्ता बदाम काजू अखरोट चढ़ाऊँ।
बस एक मोक्ष फल की ही आश लगाऊँ।।हे.।।८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलादिषष्टिजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
नीरादि अर्घ लेय रजत पुष्प मिलाऊँ।
निज आत्मनिधि हेतु आप अर्घ चढ़ाऊँ।।हे.।।९।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिषट्कुलाचलादिषष्टिजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतीधारा मैं करूँ, जिनवर पद अरविंद।
त्रिभुवन में भी शांति हो, मिले निजात्म अिंनद।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरभित हरसिंगार ले, पुष्पांजलि करंत।
सुख संतति संपति बढ़े, निजनिधि मिले अनंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
पश्चिम पुष्कर द्वीप, साठ जिनालय सोहते।
नमूँ नमूं धर प्रीत, पुष्पांजलि कर भक्ति से।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
विद्युन्माली दक्षिण दिश में, हिमवन गिरि कलधौत समान।
ग्यारह कूटों में अनुपम इक, सिद्धकूट जिनमंदिर जान।।
बीचों बीच पद्म सरवर में, कमल बीच श्रीदेवी थान।
जिनमंदिर जिनप्रतिमा पूजूँ, चिच्चैतन्य सुधारस दान।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिहिमवत्पर्वतसिद्धकूटजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पंचम सुरगिरि दक्षिण दिश में, चांदी सदृश ‘महाहिमवान’।
बीच सरोवर महापद्म में, कमल मध्य ह्रीं देवी मान।।
आठ कूट में पूर्व दिशा पर, सिद्धकूट अविचल गुणखान।
जिनमंदिर जिनप्रतिमा पूजूँ, चिच्चैतन्य सुधारस दान।।२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिमहाहिमवत्पर्वतसिद्धकूटजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
कनकाचल पंचम दक्षिण दिश, ‘निषध’ तप्त सुवरण छवि मान।
बीज तिगिंछ सरोवर मध्ये, कमल बीच धृति देवी जान।।
नवकूटों में पूर्वदिशा का, सिद्धकूट शिव मारग मान।
जिनमंदिर जिनप्रतिमा पूजूँ, चिच्चैतन्य सुधारस दान।।३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिनिषधपर्वतसिद्धकूटजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विद्युन्माली मेरू उत्तर, ‘नीलाचल’ वैडूर्य समान।
मध्य केशरी द्रह में पंकज, बीच कीर्ति देवी द्युतिमान।।
नवकूटों में सिद्धकूट पर, मणि रत्नों से खचित वखान।
जिनमंदिर जिनप्रतिमा पूजूँ, चिच्चैतन्य सुधारस दान।।४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिनीलपर्वतसिद्धकूटजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पंचम सुरनग के उत्तर में, रजतवर्ण ‘रूक्मीगिरि’ जान।
मध्य सरोवर पुंडरीक में, कमल बीच बुद्धिसुरि मान।।
आठ कूट में पूर्व दिशागत, सिद्धकूट शिवपंथ महान्।
जिनमंदिर जिनप्रतिमा पूजूँ, चिच्चैतन्य सुधारस दान।।५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिरूक्मीपर्वतसिद्धकूटजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
स्वर्णाचल पंचम के उत्तर, ‘शिखरी’ पर्वत स्वर्ण समान।
मध्य महापुंडरीक सरोवर, जलज, बीच लक्ष्मी सुरि मान।।
ग्यारह कूटों में पूरब गत, सिद्धकूट शाश्वत सुख खान।
जिनमंदिर जिनप्रतिमा पूजूँ, चिच्चैतन्य सुधारस दान।।६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिशिखरीपर्वतसिद्धकूटजिनालयजिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
गजदंत जिनालय अर्घ्य-चौबोल छंद
मेरू के ईशान कोण में, ‘माल्यवंत’ गजदंत रहे।
छवि वैडूर्य मणीसम अनुपम, नवकूटों युत संत कहें।।
सुरगिरि सन्निध सिद्धकूट पर, जिनगृह शाश्वत सिद्ध कहीं।
वहाँ शक्ति नहिं गमन करन की, अत: जजूँ तुम चरण यहीं।।७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिमाल्यवद्गजदंतस्थितसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सुरगिरि के आग्नेय विदिश में, ‘सौमनस्य’ गजदंत कहा।
रतनमयी यह पर्वत सुंदर सात कूट से शोभ रहा।।
मेरु निकट श्री सिद्धकूट पर, जिनमंदिर छवि रतनमयी।
वहाँ शक्ति नहिं गमन करन की, अत: जजूँ तुम चरण यहीं।।८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिसौमनसगजदंतस्थितसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
स्वर्णाचल नैऋत्य विदिश में, ‘विद्युत्प्रभ’ गजदंत दिपे।
नवकूटों युत तप्त कनकछवि, दिनकर लज्जित संत छिपे।।
सुरगिरि सन्निधि सिद्धकूट पर, जिनमंदिर शिव गमन मही।
वहाँ शक्ति नहिं गमन करन की, अत: जजूँ तुम चरण यहीं।।९।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिविद्युत्प्रभगजदंतस्थितसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पंचम सुरगिरि के वायव्ये, ‘गंधमादनाचल’ सोहे।
स्वर्णवर्णमय सात कूटयुत, सुरनर किन्नर मन मोहे।।
सुरगिरि सन्निध सिद्धकूट पर, जिनगृह अनुपम अचल मही।
वहाँ शक्ति नहिं गमन करन की, अत: जजूँ तुम चरण यहीं।।१०।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिगंधमादनगजदंतस्थितसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पश्चिम पुष्करअर्ध द्वीप में, सुरगिरि पूर्व दिशा में।
सीता नदि के उत्तर तट पे, भद्रसाल ढिग तामे।।
‘चित्रकूट’ वक्षार अचल पर, जिनमंदिर सुखकारी।
सुरनर वंदित जिनप्रतिमा को, नित प्रति धोक हमारी।।११।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिचित्रकूटवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नलिन कूट वक्षार दूसरा, ‘पुष्करार्ध’ में जानो।
उसमे चार कूट में अनुपम, सिद्धकूट इक मानो।।
जिन चैत्यालय शाश्वत अविचल, पूजूँ कर्म विडारी।
सुरनर वंदित जिनप्रतिमा को, नित प्रति धोक हमारी।।१२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिनलिन वक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘पद्मकूट’ वक्षार अतुल है, पाप पंक मल धोवें।
जो जन इसके सिद्धवृक्ष को, पूजें सब दु:ख खोवें।।
जिनगृह की छवि अतिशय प्यारी, भविजन मन सुखकारी।
सुरनर वंदित जिनप्रतिमा को, नित प्रति धोक हमारी।।१३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपद्मकूटवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘एकशैल’ वक्षार अनूपम, सुर किन्नर मन भावे।
सुवरण छवि से सूर्य तेजहर, जिनमंदिर मन भावे।।
विद्याधर विद्याधरियाँ भी, गुण गावें चित हारी।
सुरनर वंदित जिनप्रतिमा को, नित प्रति धोक हमारी।।१४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिएकशैलवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सीतानदि के दक्षिण तट पर, देवारण्य समीपे।
नग ‘त्रिकूट’ वक्षार सुवर्णिम, चार कूट से दीपे।।
सिद्धकूट जिनमंदिर अद्भुत, मुनिमन सम अविकारी।
सरनर वंदित जिनप्रतिमा को, नित प्रति धोक हमारी।।१५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधित्रिकूटवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
गिरि ‘वैश्रवण’ कहा वक्षारा, भूधर मुकुट मणी हैं।
सिद्धकूट का श्रीजिनमंदिर, चिंतारत्नमणी हैं।।
वंदन करते वाले भवि के, भव भय संकटहारी।
सुरनर वंदित जिनप्रतिमा को, नित प्रति धोक हमारी।।१६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिवैश्रवणवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘अंजन’ नग वक्षार अकृत्रिम, अमर गणों से सोहे।
इस ऊपर परमात्मनिरंजन, का जिनमंदिर सोहे।।
वन वेदी वापी तोरण से, सुरगृह से चित हारी।
सुरनर वंदित जिनप्रतिमा को, नित प्रति धोक हमारी।।१७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिअंजनवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘आत्मांजन’ वक्षार आठवाँ, अतुल निधी को धारे।
इस पे सिद्धकूट को जो जन, पूजें मोक्ष सिधारें।।
मृत्युंजयि जिनवर का मंदिर, अखिल अमल गुणधारी।
सुरनर वंदित जिनप्रतिमा को, नित प्रति धोक हमारी।।१८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिआत्मांजनवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मेरु के पश्चिम दिश् में है, अपर विदेह कहाता।
सीतोदा सरिता बहने से, उभय भाग बँट जाता।।
सरिता दक्षिण भद्रसाल के, ढिग वक्षार गिरी है।
‘श्रद्धावान’ उपरि जिनमंदिर,पूजूं पाप हरी है।।१९।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिश्रद्धावानवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘विजटावान्’ अचल वक्षारा, चार कूट युुत सोहे।
कनककांति से सिद्धकूट से, अतुल अपूरव सोहे।।
जिनमंदिर में मृत्युंजयि की, प्रतिमा सौख्यकारी है।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं नित पूूजूँ, भव भय ताप हरी है।।२०।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिविजटावानवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘आशीविष’ वक्षार स्वर्णसम, विवधि गृहों को धारे।
सिद्धकूट पे श्रीजिनमंदिर, कर्म कालिमा टारे।।
पद्मासन जिनप्रतिमा सुंदर, सिंहासन पे राजें।
जो जन पूजन वंदन करते, कर्म अरीदल भाजें।।२१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिआशीविषवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अचल ‘सुखावह’ बहु सुखदाता, चार कूट से सोहे।
जो जन सिद्धकूट को वंदे, त्रिभुवन के पति होहें।।
साधू जन आकाश मार्ग से, जिनवंदन को आते।
जो जन पूजें श्रद्धा धर मन, वे अनुपम सुख पाते।।२२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिसुखावहवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सीतोदा के उत्तर तट में, भूतारण्य निकट में।
‘चंद्रमाल’ वक्षार मनोहर, देव रमें उस तट में।।
चार कूट में सिद्धकूट इक, जिनमंदिर अभिरामा।
मैं इत अर्घ्य चढ़ाकर पूजूँ, पाऊँ शिव विश्रामा।।२३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिचंद्रमालवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘सूर्यमाल’ वक्षार अनोखा, सूरजतेज लजावे।
सिद्धकूट में जिनवर मंदिर, मुनिमन कुमुद खिलावें।।
भव विजयी की प्रतिमा मणिमय, पूजत पाप हरे हैं।
नित प्रति ध्यान धरें जो उनका, वे यमपाश हरे हैं।२४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिसूर्यमालवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘नागमाल’ वक्षार भूमिधर, नवनिधि वैभव शाली।
सिद्धकूट में जिन चैत्यालय, अनुपम छवि मणिमाली।।
भव विजयी की प्रतिमा मणिमय, पूजत पाप हरे हैं।
नित प्रति ध्यान धरें जो उनका, वे यमपाश हरे हैं।२५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिनागमालवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘देवमाल’ वक्षार सोलवाँ, स्वर्गपुरी सम शोभा।
चार कूट में एक कूट पर, जिनगृह अतुल अनोखा।।
भव विजयी की प्रतिमा मणिमय, पूजत पाप हरे हैं।
नित प्रति ध्यान धरें जो उनका, वे यमपाश हरे हैं।२६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिदेवमालवक्षारगिरिसिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सीतानदि उत्तर तरफ, भद्रसाल वन पास।
‘कच्छा’ देश रजतगिरि, जिनगृह जजूँ हुलास।।२७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वविदेहकच्छादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरि सिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘सुकच्छा’ मध्य में, रूपाचल मनहार।
सिद्धकूट में जिनभवन, जजूँ सदा सुखकार।।२८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वविदेहसुकच्छादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरि सिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘महाकच्छा’ मधी, रूपाचल अभिराम।
सिद्धकूट का जिनभवन, पूजूूं करूँ प्रणाम।।२९।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वविदेहमहाकच्छादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरि सिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘कच्छकावति’ विषें, विजयारध सुखकार।
भवविजयी के जिनभवन, पूजूँ भव दुखटार।।३०।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपूर्वविदेहकच्छकावतिदेशमध्यस्थितविजयार्ध—गिरि सिद्धकूटजिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘आवर्ता’ सुविदेह में, रूपाचल रजताभ।
ताके श्री जिनगेह को, पूजूँ करो कृतार्थ।।३१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिआवर्तादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरि सिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘लांगलावर्त’ में, रजताचल सुखकार।
सिद्धकूट पर जिनभवन, पूजूँ सुयश उचार।।३२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिलांगलावर्तादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरि सिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘पुष्पकला’ में अचल, विजयारध मनहार।
ताके श्री जिनगेह को, पूजूं शिव सुखकार।।३३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपुष्कलादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरि सिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘पुष्कलावती’ मधि, रूपाचल सुखधाम।
जिनगृह के जिनबिंब को, पूजूं नित शिवधाम।।३४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपुष्कलावतीदेशमध्यस्थितविजयार्धगिरि सिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
सीता के दक्षिण तरफ, देवारण्य समीप।
‘वत्सा’ के विजयार्ध का, जिनगृह जजूँ पुनीत।।३५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिवत्सादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘सुवत्सा’ मध्य में, विजयारध गुणधाम।
उसपे जिनमंदिर जजूूँ, परमानंद प्रदाम्।।३६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिसुवत्सादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘महावत्सा’ मधी, रूपाचल मनहार।
जिनमंदिर के बिंब को, पूजूँ शिव करतार।।३७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिमहावत्सादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘वत्सकावति’ देश में, रूपाचल सुखधाम।
तापे जिनगृह जिनछवी, पूजूँ भुवन ललाम।।३८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिवत्सकावतीदेशमध्यस्थितविजयार्धगिरि—सिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘रम्या’ देश विदेह में, रजताचल गुणमाल।
जिनगृह के जिनबिंब को, पूजूँ जग प्रतिपाल।।३९।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिरम्यादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘सुरम्या’ मध्य में, रूपाचल अभिराम।
जिन चैत्यालय को जजूूं, पाऊँ म्ाोक्ष निकाम।।४०।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिसुरम्यादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘रमणीया’ सुविदेह में रूप्यागिरि रूपाभ।
जिनगृह की जिनमूर्ति को, जजूँ नमाऊँ माथ।।४१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिरमणीयादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘‘मंगलावति’ देश में, खग पर्वत सुखपाल।
जिनमंदिर में मूर्ति की, पूजा करूं त्रिकाल।।४२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिमंगलावतिदेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
भद्रसाल वन पास, सीतोदा नदि दायें।
‘पद्मादेश’ विदेह, मधि रूपाद्रि कहाये।।
तापे श्रीजिनगेह, सब भवचक्र विनाशे।
जो पूजें धर नेह, केवलज्ञान प्रकाशें।।४३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपद्मादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘सुपद्मा’ माहिं, रजताचल मन मोहे।
तापे श्री जिनधाम, सुर किन्नर मन मोहे।।
ताके श्री जिनबिंब, भवि भवचक्र विनाशें।
जो पूजें, धर प्रीति, केवलज्ञान प्रकाशें।।४४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिसुपद्मादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालयजिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘महापद्मा’ सुविदेह, तामें रजतगिरी है।
उसपे श्री जिनवेश्म, अद्भुत सौख्यगिरि है।।ताके.।।४५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिमहापद्मादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘पद्मकावती’, मधि में रूप्यगिरी है।
त्रयकटनी युत रम्य, जिनगृह अतुलश्री है।।ताके.।।४६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिपद्मकावतीदेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘शंखा’ देश विदेह, शंख ध्वनी जहं गूंजे।
बीच रजतगिरि एक, जिनमंदिर सुर पूजें।।ताके.।।४७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिशंखादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘नलिनादेश’ अपूर्व, शाश्वत सिद्धकहा है।
बीच रजतगिरि शीश, जिनगृह नित्य कहा है।।ताके.।।४८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिनलिनादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘कुमुदा’ देश अनूप, शिव का मार्ग प्रकाशे।
बीच रजतगिरी श्रेष्ठ, जिनगृह अनुपम भासे।।ताके.।।४९।।
‘सरिता’ देश विदेह, छह खंडों युत सोहे।
बीच कहा विजयार्ध, जिनगृह से मन मोहे।।ताके.।।५०।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिसरितादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नदि के उत्तर माहिं, भूतारण्य समीपे।
‘वप्रादेश’ विदेह, बीच रजतगिरि दीपे।।ताके.।।५१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिवप्रादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘सुवप्रा’ मध्य, रूपाचल अविकारी।
नव कूटों में एक, जिनमंदिर सुखकारी।।ताके.।।५२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिसुवप्रादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘महावप्रा’ शुभ देश, अगणित विभव धरे हैं।
बीच रजतगिरि श्वेत, जिनवर सद्म धरे है।।ताके.।।५३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिमहावप्रादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘वप्रकावतिदेश’ बीच रतजगिरि धारे।
नवकूटों में एक, जिनगृह भवदधि तारे।।ताके.।।५४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिवप्रकावतिदेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘गंधादेश’ विदेह, रौप्य अचल से सोहे।
त्रयकटनीयुत रम्य, ऊपर जिनगृह सोहे।।ताके.।।५५।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिगंधादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘सुगंधा’ मध्य, खगपर्वत मन मोहे।
इंद्रादिक से वंद्य, जिनमंदिर इक सोहे।।ताके.।।५६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिसुगंधादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देश ‘गंधिला’ बीच, रजतगिरी रजताभा।
नवकूटों में एक, जिनमंदिर मणि आभा।।ताके.।।५७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिगंधिलादेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
‘गंधमालिनी’ देश, रूप्यगिरी मधि धारे।
रत्नमयी इक कूट, जिनमंदिर को धारे।।
ताके श्री जिनबिंब, भवि भवचक्र विनाशें।
जो पूजें, धर प्रीति, केवलज्ञान प्रकाशें।।५८।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिगंधमालिनीदेशमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पश्चिम पुष्कर अर्घ द्वीप में, सुरगिरि दक्षिण जानो।
भरतक्षेत्र के मध्य रूप्यगिरि, नवकूटों युत मानो।।
सिद्धकूट के जिनमंदिर में, रतनमयी प्रतिमा हैं।
जो जन अर्घ्य चढ़ाकर पूजें, लहें अतुल महिमा हैं।।५९।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिभरतक्षेत्रमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विद्युन्माली के उत्तर में, ऐरावत शुभ जानो।
मध्य रजतगिरि पे इकसौ दश, खग नगरी सरधानो।।सिद्ध.।।६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिऐरावतक्षेत्रमध्यस्थितविजयार्धगिरिसिद्धकूट जिनालय-जिनिंबम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पश्चिम सु पुष्कर द्वीप के कुलगिरि व गजदंताद्रि हैं।
वक्षार रूप्याचल इन्हों पर साठ जिनवर गेह हैं।।
ये मोह अहि के विष उतारन हेतु गारुत्मणि कहें।
इनको जजूँ ये भक्त लोहा हेतु पारमणि कहें।।१।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिकुलाचलादिस्थितषष्टिजिनालयेबेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इन धाम में चौंसठ शतक अस्सी जिनेश्वर मूर्तियाँ।
इनको जजें वे बन सकें चैतन्य धातू मूर्तियाँ।।
मृत्युंजयी इन मूत्रियों को कोटि कोटी वंदना।
मैं जजूँ नित प्रति भाव से हो जाय यम की वदंना।।२।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिकुलाचलादिस्थितषष्टिसिद्धकूट-जिनालयमध्य-विराजमानषट्सहस्रचतु:शतअशीतिजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पश्चिम सुपुष्कर द्वीप में वरमेरु विद्युन्मालि है।
पुष्करतरू शाल्मलितरू कुलपर्वतादि विशाल हैं।।
इन पर अकृत्रिम अठत्तर जिनधाम पुण्य निधान हैं।
इनको जजूँ वर भक्ति से ये मोक्ष सुख की खान हैं।।३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिमेर्वादिस्थितअष्टसप्ततिजिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
इन मेरु तरुवर पर्वतों पर जैन मंदिर सोहते।
प्रत्येक में जिनबिंब इक सौ आठ मुनिमन मोहते।।
चौरासि सौ चौबिस जिनेश्वर को यहाँ मैं नित जजूँ।
निज सौख्य परमानंद हेतू आपको अतिशय भजूँ।।४।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिमेर्वादिस्थितअष्टसप्ततिजिनालयमध्यविराज—मानअष्टसहस्रचतु:शतचतुा\वशतिजिनप्रतिमाभ्य पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोक्यशाश्वतजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
पश्चिम पुष्कर द्वीप के, जिनमंदिर अभिराम।
गाऊँ गुणमणिमालिका, शत शत करूँ प्रणाम।।
जय जय कुलगिरि के जिनमंदिर, जय गजदंताचल के मंदिर।
जय वक्षाराचल के मंदिर, जय रूप्याचल के जिनमंदिर।।
जय जय जय जिनवर प्रतिमायें, अज्ञान अंधेरा हरती हैं।
वे भक्तों के मन मंदिर में, सज्ज्ञानज्योति को भरती हैं।।२।।
हिमवन पर्वत वर चार सहस, दो सौ दस योजन विस्तृत है।
महाहिमवन सोलह सहस आठ सौ ब्यालिस योजन विस्तृत है।।
नग निषध सु सड़सठ सहस तीन सौ अड़सठ योजन विस्तृत है।
नग नील निषध सम फिर आधे आधे होते दोनों नग हैं।।३।।
ये पर्वत सौ दोसौ चउसो योजन तक ऊँचे माने हैं।
इन पर पद्मादि सरोवर में, भूकायिक कमल वखाने हैं।।
उन कमलों में श्री ह्री धृति अरु कीर्ति बुद्धी लख्मी रहतीं।
जिनमाता की सेवा करने, आतीं अति गूढ़ प्रश्न करतीं।।४।।
गजदंत वहाँ पर मेरु की, विदिशा में नग को छूते हैं।
पूर्वापर उभय विदेहों में, वक्षाराचल अति लंबे हैं।।
इनसे व विभंगा नदियों से, बत्तिस विदेह हो जाते हैं।
वहाँ पर तीर्थंकर प्रभु विहरें, नित धर्मामृत बरसाते हैं।।५।।
इन बत्तीसों हि विदेहों में, भरतैरावत में रजताचल।
विद्याधर की शुभनगरी से, त्रय कटनी से सोहें अविचल।।
ये क्षेत्र बराबर लंबे हैं, योजन पचीस ही ऊँचे हैं।
योजन पचास चौंड़े सुंदर, चांदी के बने अनोखे हैं।।६।।
इन पर्वत के जिनमंदिर को, हम भी परोक्ष वंदन करते।
इनकी जिनवर प्रतिमाओं का, वंदन कर दुख खंडन करते।।
निज अल्प ज्ञानमति बुद्धी से, जिनवर का गुण कीर्तन करते।
बस पूर्ण ‘ज्ञानमति होने तक, प्रभु का पूजन अर्चन करते।।७।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपसंबंधिकुलाचलादिस्थितषष्टिसिद्धकूटजिनालय-जिनबिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, तीन लोक जिनयज्ञ करें।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, वे नित-नित नव मंगल पावें।।
तीन लोक का भ्रमण मिटाकर निज के तीन रत्न को पाके।
केवलज्ञानमती प्रकटित कर बसें त्रिलोक शिखर पर जाके।।
इत्याशीर्वाद:।