जीवन जीने की कला सिखाने वाले अनेक दर्शन इस जगत् में देखे जा सकते हैं, किन्तु मरने की कला, उत्साहपूर्वक मृत्यु को अंगीकार करने की कला सिखाने वाला एकमात्र दर्शन जैनदर्शन ही है। इस कला का नाम सल्लेखना अथवा समाधिमरण है। उपसर्ग होने पर, दुर्भिक्ष पड़ने पर, वृद्धावस्था आने पर, निष्प्रतिकारक रोगों के उत्पन्न होने पर, निज धर्म, व्रतों की रक्षा के लिए, शरीर का त्याग करना सल्लेखना कहा जाता है। सल्लेखना आत्मघात नहीं अपितु विशेष विवेकपूर्वक, साहस के साथ आत्मस्थ होते हुए मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का साधन है। गुरु सानिध्य में योग्य निर्यापकाचार्य के निर्देशन में इस व्रत को धारण करना चाहिए। इस व्रत को धारण करने वाला कम से कम २—३ भव में अथवा अधिक से अधिक ७—८ भव में निश्चित मुक्ति का लाभ प्राप्त करता है।