अथ स्थापना (गीता छंद)
इन ढाईद्वीपों में यहाँ जो, जन्मते नरश्रेष्ठ हैं।
वे ही करम हन सिद्ध होते, वे प्रमुख परमेष्ठि हैं।।
इन कर्मभूमी से हुए, सब सिद्ध की पूजा करूँ।
सब सिद्ध का आह्वान कर, वर भक्ति से अर्चा करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धसमूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
अथ अष्टक (नरेन्द्र छंद)
सीतानदि को तीरथमय जल, पयसम मुनि मनहारी।
जन्म जरा मृति ताप तीन हर, धार करूँ हितकारी।।
ढाईद्वीप से सिद्ध हुए जो, होते हैं होवेंगे।
उनको मैं पूजूँ वे मुझको, सर्वसिद्धि देवेंगे।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: जलं
निर्वपामीति स्वाहा।
कंचनद्रव सम कुंकुम केशर, भ्रमर समूह रमे हैं।
सिद्धों की अर्चा करने से, भव वन में न भ्रमे हैं।।
ढाईद्वीप से सिद्ध हुए जो, होते हैं होवेंगे।
उनको मैं पूजूँ वे मुझको, सर्वसिद्धि देवेंगे।।२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: चंदनं
निर्वपामीति स्वाहा।
दुग्ध सिंधु के फेन सदृश अति, उज्ज्वल अक्षत लाए।
अमृत सम पुंजों को सब, सिद्धों के निकट चढ़ाएँ।।
ढाईद्वीप से सिद्ध हुए जो, होते हैं होवेंगे।
उनको मैं पूजूँ वे मुझको, सर्वसिद्धि देवेंगे।।३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अक्षतं
निर्वपामीति स्वाहा।
जुही चमेली मल्ली चंपा, सुवरण पुष्प मंगाए।
घ्राण नयन प्रिय सिद्धप्रभू को, पुष्पांजली चढ़ाएँ।।
ढाईद्वीप से सिद्ध हुए जो, होते हैं होवेंगे।
उनको मैं पूजूँ वे मुझको, सर्वसिद्धि देवेंगे।।४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: पुष्पं
निर्वपामीति स्वाहा।
बरफी पेड़ा मोदक खाजे, पूरणपोली लाए।
क्षुधारोग हर सिद्धचक्र को, पूजन मध्य चढ़ाएँ।।
ढाईद्वीप से सिद्ध हुए जो, होते हैं होवेंगे।
उनको मैं पूजूँ वे मुझको, सर्वसिद्धि देवेंगे।।५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: नैवेद्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
मणिमय दीप रतनमय ज्योती, दशदिश तम हरता है।
सिद्धगणों की करें आरती, मोहतिमिर नशता है।।
ढाईद्वीप से सिद्ध हुए जो, होते हैं होवेंगे।
उनको मैं पूजूँ वे मुझको, सर्वसिद्धि देवेंगे।।६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: दीपं
निर्वपामीति स्वाहा।
कालागरु चंदन मलयागिरि, धूप सुगंधित लेके।
दशदिश सुरभित करूँ धूम से, धूप अगनि में खेके।।
ढाईद्वीप से सिद्ध हुए जो, होते हैं होवेंगे।
उनको मैं पूजूँ वे मुझको, सर्वसिद्धि देवेंगे।।७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: धूपं
निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला सेव मोसम्बी, श्रीफल बहुफल लाए।
घ्राण नयन सुखकारी फल को, शिवफल हेतु चढ़ाएँ।।
ढाईद्वीप से सिद्ध हुए जो, होते हैं होवेंगे।
उनको मैं पूजूँ वे मुझको, सर्वसिद्धि देवेंगे।।८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: फलं
निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल आदिक अर्घ्य संजोकर, उसमें रतन मिलाऊँ।
सिद्धप्रभू को अर्घ्य चढ़ाकर, स्वयंसिद्ध पद पाऊँ।।
ढाईद्वीप से सिद्ध हुए जो, होते हैं होवेंगे।
उनको मैं पूजूँ वे मुझको, सर्वसिद्धि देवेंगे।।९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा- प्रासुक मिष्ट पवित्र जल, क्षीर जलधि सम श्वेत।
प्रभुपद धारा मैं करूँ, तिहुंजग शांती हेत।।
शांतये शांतिधारा।
कमल केतकी पुष्प ले, पुष्पांजली करंत।
इंद्र चक्रिपद पायकर, अनुपम सौख्य धरंत।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा- भूत भविष्यत् काल के, वर्तमान के सिद्ध।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सिद्धि नव निद्धि।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीपस्य सर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं लवणसमुद्रस्य सर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं पूर्वधातकीखण्डद्वीपस्य सर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं पश्चिमधातकीखण्डद्वीपस्य सर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्त-सर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं कालोदधिसमुद्रस्य सर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्य सर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्य सर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं मानुषोत्तरपर्वतस्य सर्वस्थानेभ्य: सिद्धपदप्राप्तसर्वसिद्धेभ्य: अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
पूर्णार्घ्य (मोतीदाम छंद)- लिया मैं अर्घ्य भराकर थाल।
चढ़ाऊँ भक्ती से नत भाल।।
त्रिकालिक सब सिद्धों को आज।
जजूँ मैं पाऊँ शिव साम्राज।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिजल-स्थल-कर्मभूमि-भोगभूमि-आर्यखण्ड-
म्लेच्छखण्ड-नदी-वृक्षादिस्थानेभ्य: उपसर्ग-अनुपसर्गादिनिमित्त सिद्धापदप्राप्त-
सर्वसिद्धेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह सिद्धशिला पैंतालिस लाख, सुयोजन मनुज लोक प्रम है।
सर्वत्र अनंतानंत सिद्ध से, भरी अकृत्रिम अनुपम है।।
गणधर मुनिगण से वंद्य शिला, इसको मेरा शत-शत वंदन।
यह सिद्ध शिला न मिले जब तक, तब तक इसको शत-शत वंदन।।२।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यशिखरस्थितपंचचत्वािंरशल्लक्षयोजनप्रमाणसिद्धशिलायै
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हं त्रयोदशद्वीपसंबंधिनवदेवताभ्यो नम:।
-त्रिभंगी छंद-
जय जय सब सिद्धा, कहे अनंता, लोकशिखर पर राज रहे।
जय अष्टगुणों युत, नंत गुणों युत, नहिं किंचित् भी पास रहे।।
जय नित्य निरंजन, भवि आनंदन, मुनि मन कमल विकास करें।
जब त्रिभुवन के गुरु, गुणमणि से गुरु, भविजन ही तुम ध्यान धरें।।१।।
-शंभु छंद-
इन ढाईद्वीप में कर्मभूमियाँ, इक सौ सत्तर मानी हैं।
इन सबसे मनुज सिद्ध होते, यह कहती श्रीजिनवाणी है।।
जो भोगभूमियाँ म्लेच्छखंड, नदियाँ पर्वत वृक्षादिक हैं।
उपसर्ग निमित्त महामुनिगण, उन स्थल से भी सिद्धि लहें।।२।।
कोई नर साढ़े तीन हाथ, कुछ सवा पाँच सौ धनुष तुंग।
नर शिव पाते जघन्य उत्तम, मध्यम भी मधि ऊँचाई युत।।
इन अगणित अवगाहन संयुत, जो सिद्ध हुए उन त्रैकालिक।
सब सिद्धों को नितप्रति पूजूँ, मेरी आत्मा हो स्वयंसिद्ध।।३।।
कोई मानव कुछ अधिक आठ, वर्षों की जघन आयु लेकर।
कोई इक कोटी पूर्व वर्ष की, उत्तम आयू को लेकर।।
मध्यम के भेद मध्यगत सब, इन आयू से जो सिद्ध हुए।
उन सबको पूजूँ भक्ति लिए, अपमृत्यु टले बस इसीलिए।।४।।
कोई नर स्त्रीभाववेद, व नपुंसक भाववेद लेकर।
कोई नर पुरुष भाववेदी, ये शिवपद पाते तीनों नर।।
पर निश्चित ही हो द्रव्यपुरुष, सिद्धान्त यही बतलाता है।
सम विषमवेद से सिद्ध हुए, उन वंदूँ वे सुखदाता हैं।।५।।
कोई मुनि जन पद्मासन से या, खड्गासन से सिद्ध बनें।
सिद्धी का आसन अन्य नहीं, यह सब सिद्धान्तग्रंथ वर्णें।।
इन सबके भी आकार वहाँ, आत्मा प्रदेश से बन जाते।
हो देह नष्ट फिर भी वैसे, मानें उन वंदूँ मन लाके।।६।।
सब विदेहक्षेत्र में कर्मभूमि, शाश्वत वहं काल चतुर्थ सदा।
भरतैरावत में छहकालों का, परिवर्तन होता रहता।।
अवसर्पिणी चौथे काल तथा, उत्सर्पिणी काल तीसरे से।
हुंडावसर्पिणी तिसरे में, शिव पहुँचे नमूँ उन्हें रुचि से।।७।।
छह मास आठ समयों में छह सौ, आठ मुनी शिव जाते हैं।
इस तरह अनंतानंत भूत-भावी नर सिद्ध कहाते हैं।।
उन सभी सिद्ध परमेष्ठी की, पूजा अर्चा स्तुती करूँ।
निज आत्म सुधारस पी करके, निज में ही निज को प्रगट करूँ।।८।।
तीर्थंकर होकर पंचकल्याणक, त्रय द्वय पा बहु सिद्ध हुए।
चक्रेश्वर हलधर कामदेव, उत्तम पद पा बहु सिद्ध हुए।।
सामान्य मनुज अगणित अनंत, सब कर्म नष्ट कर सिद्ध हुए।
उन सब त्रैकालिक सिद्धों को, मैं नमूँ सदा धर भक्ति हिये।।९।।
सब गिरि वन पर्वत गुफा नदी, सरवर तरु कूप तड़ागों से।
तलघर नभ आंगन छिद्र बिलादिक, जल थल के सब भागों से।।
मेरु की चूलिका से जहाँ से, है बालमात्र अंतर ऊपर।
उस जगह मेरु की गुफा आदि से, सिद्ध हुए वंदूँ रुचिधर।।१०।।
-घत्ता-
जय सिद्धिवधूवर, जगपरमेश्वर, परमपिता रक्षा कीजे।
मुझ ‘ज्ञानमती’ को, निजपद दे दो, फेर भले कुछ मत दीजे।।११।।
दोहा- ढाईद्वीप से सिद्धपद, प्राप्त करें जो भव्य।
उन सबको नित भक्ति से, जजत मिले पद नव्य।।१२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपद्वयसमुद्रेभ्य: सिद्धपदप्राप्तत्रैकालिकसर्वसिद्धेभ्य:
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
श्री तेरहद्वीप विधान भव्य, जो भावभक्ति से करते हैं।
वे नित नव मंगल प्राप्त करें, सम्पूर्ण दु:ख को हरते हैं।।
फिर तेरहवाँ गुणस्थान पाय, अर्हंत अवस्था लभते हैं।
कैवल्य ‘ज्ञानमति’ किरणों से, त्रिभुवन आलोकित करते हैं।।
।। इत्याशीर्वाद: ।।