किसी भी ग्रंथकर्ता और गंरथ के परिचय के लिए प्रषस्ति का बहुत महत्व होता है। इसमें ग्रंथ लेखन का अपेक्षित इतिवृत्त, ग्रंथकर्ता का जीवन, तत्कालीन परिस्थिति, द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदि का भी समावेष होता है। मुझे स्याद्वाद चन्द्रिका की कर्त्री पू० आर्यिका ज्ञानमती जी द्वारा लिखित प्रषस्ति का आषय यहां प्रस्तुत करने की आवष्यकता का अनुभव हुआ अतः पाठकों के परिज्ञान हेतु मैं अंकित कर रहा हूँ।
प्रशस्ति में प्रारंभ में माता जी ने अंतिम मंगलाचरण के रूप में चतुर्विंशति तीर्थंकरों को हर्श एवं भक्तिपूर्वक नमस्कार किया है। तत्पश्चात् भ० वृशभदेव के समवसरण में विराजमान वृशभसेन आदि गणधर के साथ ही समस्त मुनि और आर्यिकाओं को प्रणाम किया है। मुनिगण की संख्या 9580000 तथा आर्यिकाओं, जिनमें ब्राह्मी प्रधान हैं, की संख्या 36005650 निरूपित कर सबका सम्मान प्रकट किया है। तत्पष्चात भ० महावीर से लेकर आ० कुन्दकुन्द स्वामी तथा उनकी परम्परा में निर्ग्रन्थ श्रमण आ० “शांतिसागर महाराज अपने दीक्षागुरू वीरसागर महाराज, षिवसागर महाराज, श्री देशभूशण जी, श्री धर्मसागर जी को बहुमान पूर्वक स्मरण किया है। माता जी ने उल्लेख किया है कि बाल्यावस्था से उनके मन में ज्ञान वैराग्य संपत्ति की प्राप्ति हुई थी। आठ बरस की आयु तक गृहवास तथा तत्पश्चात् गृह त्याग व्रतग्रहण आर्यिका दीक्षा प्राप्त कर बत्तीस बरस पर्यन्त जो ज्ञानाराधना की उसका एकत्रीकरण करके स्व और पर के कल्याण हेतु स्याद्वाद चन्द्रिका की रचना की है। प्रधान लक्ष्य अपनी आत्मा की तुश्टि, पुश्टि, “शांति, मन की “शुद्धि और सिद्धि ही है कोई लौकिक कामना नहीं। इस वर्णन से यह विदित होता है कि एक महाव्रती के 32 बरसों के अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग रूप कठोर परिश्रम और जिनवाणी मां की सेवा से समुत्पन्न इस टीकाकृति का ज्ञान गौरव अत्यंत प्रकाशमान है। यह तो हमारे ऊपर निर्भर करता है कि इस ज्ञानामृत का हम कितना और किस रूप में पान करें।
वीर निर्वाण सं. 2511 मार्गशीर्ष कृष्णा सप्तमी को यह टीका पूर्ण हुई थी तथा मार्गषीर्श “शुक्ला द्वितीया के दिन प्रशस्ति पूर्ण हुई। माता जी ने लिखा है कि भारत के गणतंत्र “शासन में उस समय राश्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह थे तथा श्री राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। जैन धर्म पुश्पित पल्लवित फलित हो रहा था। इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) के निकट हस्तिनापुर “शुभ क्षेत्र में जम्बू द्वीप पर स्थित रत्नत्रय निलय वसतिका में टीका रचना का समापन किया था। ग्रंथ समापन पर उसकी पूजा, “शोभायात्रा तथा सरस्वती वंदना समारोह मनाया गया। उस समय जम्बू द्वीप ज्ञानज्योतिं का भ्रमण सारे देष में चल रहा था। यह ज्ञानज्योति माता जी के जन्म स्थान टिकैत नगर भी पहुंची थी। हमारे मैनपुरी नगर में भी इसका पावन आगमन हुआ था धर्म प्रभावना हुई थी।
पुनष्च माता जी ने अपनी लघुता प्रकट करते हुए लिखा है कि प्रस्तुत टीकाकृति में प्रमाद या अज्ञान से कुछ आगमविरूद्ध लिखा गया हो तो विद्धज्जन जो आर्शमार्गीय है, सुधार कर लेवें। आर्श परम्परा की अवज्ञा करने वालों को अधिकार नहीं है।
टीका के फलस्वरूप लेखिका ने कामना की है कि मूल ग्रंथकार आ० कुन्दकुन्द देव के समान ही मेरी चर्या हो अर्थात अगले भव में मैं मुनिदीक्षा ग्रहण कर निर्दोश चर्या का पालन करूं। वर्तमान में मेरा संयम अत्यंत दृढ़ रहे। टीकाकत्र्री ने भाव व्यक्त किया है कि मैं सबके साथ समता धारण करती हूँ नियमसार का यही ध्येय है। उन्होंने “शुभकामना का प्रकटीकरण किया है जब तक चतुर्विध संघ इस पृथ्वी तल पर रहे तब तक निरंतर यह टीका भव्यों के लिए आत्मसिद्धि में साधक होकर प्रकाषित रहे। माता जी ने इंदिरा गांधी की कीर्ति, उनके पुत्र राजीव गांधी और गणतंत्र “शासन की जयषीलता की कामना भी धर्मवृद्धि हेतु की है। ग्रंथ के अंतिम “लोक को यहां विष्व “शांति हेतु उद्धृत करता हूं जिसमें माता जी ने भ० शांतिष्वर देव को नमस्कार किया है।
त्रैलोक्यचक्रवर्तिन्! हे “शातीष्वर ! नमोऽस्तु ते।
त्वन्नामस्मृतिमात्रेण “शांतिर्भवति मानसे।।
अंतिम पुश्पिका वाक्य निम्न प्रकार हैं :-
‘‘इति श्री नियमसारप्राभृतस्य स्याद्वादचन्द्रिकाटीकायाः प्रषस्तिः पूर्णतामगात्।
वर्धतां जिनषासनं।”
उपरोक्त प्रकार प्रषस्ति में टीकाकत्र्री माँ ने अपने भावों की कल्याणमयी अभिव्यक्ति करते हुए ग्रंथ का समापन किया है। प्रषस्ति इतिहास के प्रारूप की अनुपम विशयवस्तु होती है। इसके द्वारा ग्रंथ की परिपूर्णता एक षिश्ट “शैली का अनुसरण है। माता जी रचित इस प्रषस्ति में प्रायः सभी प्रषस्ति रूप समाहित हैं।