विणयेण सुदमधीदं जदि वि पमादेण होदि विस्सरिदं। त उवट्ठादिपरभवे केवलणाणं च आहवदि।।
इसका अर्थ यह है कि जो प्राणी विनयपूर्वक श्रुत/शास्त्र को पढ़ता है वह पढ़ा गया श्रुत आदि प्रमाद से कभी विस्मृत भी हो जावे, तो अगले भव में वह कभी न कभी उपलब्ध हो जाता है तथा केवलज्ञान की प्राप्त कराने में भी वह स्वाध्याय कारण बन जाता है। जैन सिद्धान्त में चार अनुयोग माने गये हैं-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।
इनका क्रमपूर्वक अध्ययन करना ही स्वाध्याय कहलाता है। शास्त्र को पढ़ते समय यदि कोई विषय आपकी समझ में भी नहीं आता है तो भी दुखी होने की आवश्यकता नहीं है। आज नहीं तो कभी न कभी वह विषय अवश्य ही समझ में आयेगा। एक ब्राह्मण कन्या एक दिन अपनी सखियों के साथ दिगम्बर मुनिराज के दर्शन करने गई। वहाँ धर्मोपदेश सुनकर मुनि से उसने पाँच अणुव्रत ग्रहण किए और आशीर्वाद लेकर वापस घर आ गई।
गुरुदेव दीर्घदर्शी थे अत: कन्या को घर जाते समय उन्होंने कहा कि बेटी! यदि माता-पिता को तेरे इन व्रतों से कोई कष्ट पहुँचे तो मुझे व्रत वापस कर जाना। यद्यपि व्रत कोई साग भाजी की तरह वापस नहीं होते हैं फिर भी गुरुदेव ने कुछ सोचकर कह दिया। कन्या ने घर जाकर जब यह बतलाया कि मैं आज दिगम्बर मुनि से हिंसा आदि पाँच पापों का एकदेश त्याग करके पाँच अणुव्रत ग्रहण करके आई हूँ तब उसके पिता ब्राह्मण देवता बहुत क्रोधित हो उठे और बोले कि अरे! उस नंगे की यह हिम्मत कैसे हुई? मेरे बिना पूछे तू उससे नियम क्यों लेकर आई?
उस दिगम्बर ने जरूर तेरे ऊपर कोई जादू किया है, ये तो ठग होते ही हैं जो भी भोला प्राणी इनके चक्कर में आ जाता है उसे ही कुछ न कुछ नियम देकर फसाते हैं। वह बेचारा ब्राह्मण सार्वभौम धर्म के ज्ञान से शून्य था इसीलिए ऐसी बातें कर रहा था। बेटी ने घर में इतनी अशांति देखकर कहा कि पिताजी! गुरुदेव ने मुझसे यह भी कहा था कि यदि इन व्रतों से घर में किसी को कष्ट होवे तो मुझे वापस कर जाना।
पुत्री के ये शब्द सुनकर पिताजी को कुछ राहत मिली और वे बोले-हाँ ठीक है, तू मेरे साथ चल, मैं इन व्रतों को वापस करके आऊँगा और उनसे यह भी पूछूँगा कि तूने मेरे बिना पूछे मेरी कन्या को व्रत क्यों दिया? पिताजी के साथ पुत्री व्रतों को वापस करने के लिए घर से चल पड़ती है। चलते-चलते मार्ग में एक दृश्य उपस्थित होता है-
हिंसा व्रत
कई सिपाही एक व्यक्ति को बड़ी व्रूरतापूर्वक मार रहे हैं, बहुत सारी भीड़ वहाँ एकत्रित है। यह दृश्य देखकर कन्या ने पिताजी से पूछा-इस पुरुष को क्यों मारा जा रहा है? सोमशर्मा ब्राह्मण बोला-बेटी! इसने एक व्यक्ति की हिंसा की थी अत: राजा ने इसे प्राणदण्ड की सजा दी है।
लड़की कहती है-पिताजी! इसी हिंसा को तो मुनि ने मुझे त्याग कराया है, फिर आप उसे वापस करने क्यों जा रहे हैं? बेटी की बात से निरुत्तर होकर सोमशर्मा कहने लगा-पुत्री! तेरी इच्छा है तो इस व्रत को रख ले, बाकी व्रत तो वापस करना ही है।
झूठ व्रत
कुछ दूर आगे जाने पर एक अन्य व्यक्ति को देखा जिसकी जीभ काटी जा रही थी। पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह झूठ बोलकर लोगों को ठगता है अत: इसे दण्डित किया जा रहा है। नागश्री नामक उस कन्या ने पिताजी से कहा कि मैं इस पाप का त्याग करके सत्याणुव्रत ग्रहण कर चुकी हूँ अत: उसे मैं कदापि नहीं छोड़ सकती हूँ।
इसी प्रकार पाँचों पापों के दृश्य देखकर उसने पिताजी को राजी कर लिया फिर भी सोमशर्मा बोला-भले ही तू इन व्रतों को रख ले किन्तु मैं वहाँ चलकर उस मुनि को दो-चार बातें तो अवश्य सुनाऊँगा ताकि भविष्य में वे किसी को इस प्रकार व्रत न दे सकें। मुनिराज के पास पहुँचते ही ब्राह्मण देवता गुर्रा करके बोले-क्यों रे नंगे!
तूने मेरी लड़की को व्रत देकर क्यों ठग लिया? कई खरी-खोटी बातें सुनने के बाद मुनिराज शांत भाव से कहते हैं-यह लड़की तो मेरी है इसीलिए मैंने इसे व्रत दिए हैं। कन्या शांत भाव से बैठी थी, उसके पिता जी अब और परेशानी में पड़ गये, वे राजा के पास न्याय के लिए पहुँचे कि मेरी लड़की को यह नंगा अपनी पुत्री कह रहा है, आप चलकर उसे समझावें।
जाति स्मरण होने के पश्चात
मुनिराज के पास भीड़ लगी थी। राजा आकर जब मुनिराज को कन्या वापस करने हेतु समझाने लगे तो मुनि कन्या को पास बुलाकर उसके मस्तक पर पिच्छी लगाते हुए बोले-हे कन्ये! पूर्व जन्म में वायुभूति नाम का तू मेरा पुत्र था, तब मैंने तुझे कई शास्त्र पढ़ाये थे। तू सबके सामने शास्त्र की उन समस्त बातों को सुना दे। इतना कहते ही नागश्री न जाने क्या-क्या सुनाने लगी, उसे पूर्वभव का जातिस्मरण हो गया था। सारी सभा आश्चर्यचकित थी।
राजा इस घटना को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ। विस्तृत रूप से अवधिज्ञानी मुनि के मुखारविन्द से उनके और नागश्री के पूर्वभवों के संबंध सुनकर राजा को वैराग्य हो गया अत: उन्होंने, सोमशर्मा ने, नागश्री ने तथा अनेकों लोगों ने मुनि के चरण सानिध्य में मुनि-आर्यिका की दीक्षा ग्रहण कर ली।
यह है गुरुमुख से पढ़े गये श्रुत की महत्ता, जो अगले भव में दीक्षा प्राप्त कराने में भी कारण बन गया। बचपन में पढ़ी गई विद्या जो बड़े होकर यदि भूल भी जाते हैं फिर भी किंचित् मात्र दूसरे से सुन लेने पर वह ज्यों की त्यों उपलब्ध हो जाती है क्योंकि उसके संस्कार तो मस्तिष्क में होते ही हैं।
मेरे गुरु आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज कहा करते थे
‘‘पठितव्यं खलु पठितव्यं अग्रे अग्रे स्पष्टं भविष्यति’’ अर्थात् हमेशा पढ़ते रहो, आगे-आगे विषय स्पष्ट होगा। जैसे श्रावक की दैनिक षट् क्रियाओं में स्वाध्याय एक क्रिया है, उसी प्रकार मुनियो के ६ अंतरंग तपों में स्वाध्याय नाम का एक तप है। आप जगह-जगह सूक्तियाँ भी पढ़ते हैं-‘‘स्वाध्याय: परमं तप:’’।
वैसे तो श्रावकों के लिए मुख्यरूप से दान और पूजा ये दो क्रियाएँ आचार्यश्री कुन्दकुन्द स्वामी ने रयणसार में बतलाई हैं। इनके पालन बिना मनुष्य श्रावक नहीं कहलाता। पूजा करते हुए यदि उनकी पंक्तियों का अर्थ अच्छी तरह समझ में आता रहता है तो स्वाध्याय भी उसी में गर्भित हो जाता है। स्वाध्याय के पाँच भेद हैं-वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश।
जिस प्रकार लकड़ी के अन्दर विद्यमान अग्नि भी बिना जलाए प्रकट नहीं होती उसी प्रकार ज्ञान का दीपक जो हमारे भीतर ही विद्यमान है वह भी स्वाध्याय के बिना प्रदीप्त नहीं होता है अत: अंतरंग दीप को प्रज्वलित करने हेतु शास्त्र स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। हमारा भारत देश एक धनाढ्य देश है क्योंकि यहाँ के अनमोल साहित्य ने अन्य देशों में भी अपना कीर्तिमान स्थापित किया है। हमारे ही शास्त्रों के आधार पर वहाँ विभिन्न खोजें हो रही हैं।
अन्तर यह हो गया है कि वैज्ञानिक केवल पुद्गल की खोज में लगे हुए हैं, आत्मा-चैतन्य की खोज से वे विमुख हो गये हैं। आज भूगोल और ज्योतिर्लोक का विषय प्राय: अछूता सा हो गया है। मात्र आत्मा की चर्चा करने वालों को यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि जब तक आप अपने निवास स्थान को नहीं जानेंगे, अन्य गतियों के बारे में नहीं जानेंगे, तब तक कर्मचक्र से छूटने का पुरुषार्थ भी नहीं कर सकते हैं।
एक ‘‘जैन कास्मोलॉजी’’ नामक अंग्रेजी पुस्तक इटली से प्रकाशित हुई है, जिसमें लेखक ने प्राचीन ग्रंथों के आधार से अनेकों चित्र तथा पर्याप्त विषय का प्रतिपादन किया है। सन् १९८२ में ज्ञानज्योति के उद्घाटन के समय जब वह पुस्तक श्रीमती इन्दिरा गांधी को अवलोकनार्थ दी गई, तो वे उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुई।
जैसे साहित्य रचना व्यक्ति को अमर कर देती है उसी प्रकार साहित्य का स्वाध्याय भी मनुष्य जन्म को सार्थक कर देता है। आप लोग प्रतिदिन किसी न किसी शास्त्र की १०-२० लाइनें अवश्य पढ़ें, आत्मा में ज्ञान का विकास करें और एक दिन स्वाध्याय के फल को प्राप्त करके रत्नत्रयरूप परिणत होवें, यही मेरा मंगल आशीर्वाद है।