जैसे पाषाण शिल्पकार के द्वारा संस्कारित होकर भगवान बनता है, मिट्टी कुम्हार से संस्कारित होकर घड़ा, सकोरा, खिलौने आदि के रूप को धारण कर लेती है, लोहा लुहार के द्वारा तपाये जाने पर, कूटे-पीटे जाने पर ताला, चाबी, अलमारी, तिजोरी आदि अनेक प्रकार से परिवर्तित हो जाता है, सोना स्वर्णकार के हाथों में आकर प्रयोगों के बल पर चमकता है तथा अनेक आभूषणों का रूप धारण करता है।
उसी प्रकार गुरु से संस्कारों को प्राप्त करके मनुष्य श्रावक व साधु का रूप धारण कर लेते हैं। जो अनादिकाल के मिथ्यात्व को दूर करके सम्यक्त्व में दृढ़ करें वे सच्चे गुरु कहलाते हैं। उनके द्वारा प्राप्त संस्कार इस भव में तो काम आते ही हैं, अगले कई जन्मों में वे संस्कार कभी न कभी जागृत अवश्य होते हैं। साधुगण जहाँ भी जाते हैं समाज को अपना धर्मोपदेश प्रदान करते हैं।
कोई पूरा ग्रहण करते हैं, कोई थोड़ा तथा कोई मात्र सुनते ही हैं एक अक्षर भी ग्रहण नहीं करते फिर भी आचार्यों ने उन्हें सांत्वना प्रदान की है कि मात्र सुना हुआ उपदेश भी बिल्कुल व्यर्थ नहीं जाता वह किसी भव में देशनालब्धि के रूप में कार्यकारी अवश्य होता है। नरकों में जाने वाले जीवों को भी पूर्वभव की देशना काम आ जाती है।
पहले नरक से तीसरे नरक तक तो पूर्व भव के कोई संबंधी देव सम्बोधन करने पहुँच सकते हैं किन्तु चौथे से सातवें नरक तक किसी देव का आवागमन नहीं है अत: वहाँ तो मात्र पूर्वभव का ज्ञान ही काम आ सकता है।
पूर्वभव के संस्कारों का फल
पूर्वभव के संस्कारों से कभी-कभी विद्या ज्यों की त्यों उपलब्ध हो जाती है। सन् १९५२ में जब मैंने घर छोड़ा, मेरे मन में पढ़ने की तीव्र उत्कण्ठा थी किन्तु पढ़ाने वाला कोई नहीं मिला। सन् १९५४ में जब मैं कातंत्र व्याकरण के सूत्र पढ़ाती तो रात्रि स्वप्न में मुझे कुछ सूत्र नये याद हो जाते।
सुबह अपने साथ की क्षुल्लिकाविशालमती जी को बताती तो वे कहतीं कि पूर्वजन्म में तुमने इस व्याकरण को अवश्य पढ़ा होगा। एक बार पढ़ने मात्र से मुझे उस व्याकरण के सारे सूत्र याद हो जाते थे। इसी प्रकार बिना पर निमित्त के शास्त्रों का स्वाध्याय करते-करते मुझे वैराग्य हो गया। घर में माता-पिता मेरी बातें सुनकर आश्चर्यचकित होते कि मेरी बेटी ऐसी बातें क्यों कर रही है? परन्तु मुझे ऐसा लगता कि दीक्षा कोई नई चीज नहीं है।
शायद ये भी पूर्वजन्म के संस्कार ही होंगे। आप लोगों के भी कई जन्म के संस्कार ही हैं जो इस कलिकाल में गुरुओं का उपदेश मिल रहा है, सहज में यह पुण्य अवसर प्राप्त नहीं होता। शास्त्रों में भी कई उदाहरण मिलते हैं कि वैर और मित्रता के संस्कार भव-भव तक चलते हैं। भगवान पार्श्वनाथ के साथ कमठ का वैर कई भवों तक चलता रहा है। अन्त में उन्हीं की प्रकर्ष क्षमा ने उन्हें तीर्थंकर महापुरुष बना दिया।
हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस को तो आठ भव पूर्व के संस्कार स्मरण में आ गए जिसके बल पर दिगम्बर जैन मुनियों की आहारचर्या विधि को जाना और भगवान आदिनाथ को मुनि अवस्था में उन्होंने इक्षुरस का आहार दिया । राम, रावण और सीता के जीवन से आप परिचित हैं। एक स्त्री के लिए राम को इतना घमासान युद्ध करना पड़ा। संसार में कंचन, कामिनी (स्त्री) और कीर्ति इन तीन के कारण ही बड़े-बड़े युद्ध हुए हैं।
यदि सीता को रावण से मुक्त कराने हेतु राम–लक्ष्मण यह युद्ध नहीं करते तो वे मर्यादा पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध नहीं होते यद्यपि जैन रामायण के अनुसार उनके आठ हजार रानियाँ थीं उनमें से एक सीता के चले जाने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था किन्तु स्त्री जाति पर होने वाले अन्याय का प्रतीकार करने के लिए ही उन्होंने युद्ध किया ।
लोक में नीति भी है-‘‘अन्याय को सहन करने वाला भी अन्यायी कहलाता है’’, अत: महापुरुष कभी भी अन्याय को सहन नहीं कर सकते हैं। मैं यहाँ संस्कार के विषय में बता रही थी कि यद्यपि रावण ने सीता के रूप पर मोहित होकर उसका अपहरण किया किन्तु उसका जबरदस्ती शील भंग नहीं किया क्योंकि रावण ने एक बार मुनिराज से नियम लिया था कि ‘‘जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसके साथ बलात्कार नहीं करूँगा।’’
सीता ने रावण के इस उपकार का भविष्य में बदला भी ऐसा चुकाया कि नरक में पड़े हुए रावण को वह स्वर्ग से भी सम्बोधन करने पहुँच गई। फलस्वरूप रावण ने वहाँ पर सम्यग्दर्शन ग्रहण किया, कालान्तर में वह रावण का जीव धातकीखण्ड में तीर्थंकर होकर मोक्ष प्राप्त करेगा। यह सम्यक्त्व के संस्कार थे अन्यथा सीता जी रावण की बुराइयों को सोचकर उन्हें नरक के दु:ख भोगते हुए देखकर प्रसन्न भी हो सकती थीं किन्तु महापुरुष बुराइयों में भी अच्छाइयाँ ढूंढ लेते हैं।
सीता ने भी रावण का एक गुण ही याद किया उसकी बुराइयां नहीं। बुराइयों का फल तो बेचारा वह स्वयं भोग ही रहा था। जैसे शत्रुता और मित्रता के संस्कार जन्मजात तक चलते हैं उसी प्रकार धर्म के संस्कार भी कई भवों तक काम आते हैं। चार पुरुषार्थों में से धर्म पुरुषार्थ की गणना सर्वप्रथम आई है-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
यह क्रम बहुत ही सुन्दर रूप से आचार्यों ने बतलाया है। जितने भी महापुरुष हुए हैं उन सभी ने इन्हीं क्रम से पुरुषार्थों का पालन करके मोक्षधाम को प्राप्त किया है ।
दुनिया में लाखों करोड़ों की संख्या में स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय आदि बने हुए हैं। किसलिए? प्रत्येक प्राणी को शिक्षित करने के लिए। आज तक कहीं पर ऐसा विद्यालय नहीं देखने में आया होगा जहाँ चोरी, डकैती, बेइमानी, अन्याय की शिक्षा दी जाती हो किन्तु फिर भी इन पापों की बहुलता होती जा रही है। इसका एक ही कारण है अनादिकालीन अज्ञान और पाप के संस्कार।
जल स्वभावत:नीचे की ओर ही बहता है
उसे ऊपर पहाड़ों पर या कई मंजिले ऊंचे मकानों में पहुँचाने के लिए मशीनों का प्रयोग करना पड़ता है इसी प्रकार संसारी प्राणियों की मन:स्थिति प्राय: अधोगामी मानी गई है उसे ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए सत्संग, स्वाध्याय आदि मशीनों की आवश्यकता पड़ती है। समयसार में आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी ने कहा है-
सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्सवि काम भोगबन्धकहा।
एयत्तस्सुवलम्भो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स।।
अर्थात् काम, भोग, बंध की कथाएँ तो संसार में सभी के लिए श्रुत, परिचित और अनुभूत हैं क्योंकि अनादिकाल से इन्हीं में सभी रचे-पचे हुए हैं। आत्मतत्त्व के एकत्वविभक्त की कथा ही मात्र दुर्लभ रही है जिसे सुनने और सुनाने वाले प्राणी प्राय: दुर्लभता से प्राप्त होते हैं ।
बच्चा जन्म लेते ही माँ के स्तन में मुँह लगाकर दूध पीने लगता है उसे दूध पीना कोई सिखाता तो नहीं है। पंचेन्द्रिय विषय भोगों में आसक्त होने के लिए किसी को सिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ती किन्तु धर्ममार्ग पर लगाने के लिए सैकड़ों प्रयास करने पड़ते हैं। फिर भी संसार में एक आश्चर्य की बात देखने में आती है कि यदि कोई प्राणी दीक्षा में, त्याग में आगे बढ़ने लगता है तो परिवार एवं कुटुम्बी लोग उसे धर्म से उन्मुख करके संसारबंधन में पँसाने हेतु प्रयास करते हैं ।
सन् १९५२ में जब मैं बाराबंकी शहर में आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत और दीक्षा के लिए आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से प्रार्थना कर रही थी तब अपने कुटुम्बी तो विरोध के लिए आए ही साथ में न जाने कितने लोग अपनत्व दिखाते हुए मुझे रोकने के लिए आये थे।
मैंने जब उन लोगों की बात नहीं मानी तो वे आचार्य महाराज को धमकियाँ देने लगे-देखते हैं आप इस लड़की को दीक्षा वैसे देंगे? इत्यादि। खैर! मेरा पुण्य था, पूर्व जन्म के दृढ़ संस्कार थे, मैंने भगवान की भक्ति का आश्रय लिया और अपनी माँ को रातभर समझाया। उन्होंने मुझे स्वीकृति प्रदान की अत: मुझे सफलता प्राप्त हुई। मैं तो उन माता मोहिनी के भी पूर्व संस्कार ही मानती हूँ जिन्होंने संसार की क्षणभंगुर स्थिति को पहचानकर पहले मुझे सहयोग प्रदान कर असली माता का कर्तव्य निर्वाह किया एवं बाद में स्वयं भी दीक्षा धारण कर आर्यिका रत्नमती बनीं।
मैं कई बार कहा करती हूँ कि यदि कोई लड़का या लड़की ब्रह्मचर्य व्रत लेने लगे तो अपने और पराए सभी रोकने के लिए तैयार रहते हैं किन्तु न जाने किन-किन अपरिचितों के साथ शादी कराके बड़े खुश होते हैं जबकि उसमें सुखी रहने की कोई गारंटी नहीं होती।
किन्तु अनादिकाल से इन्हीं संस्कारों में संस्कारित मानव इन्हीं कार्यों में आनंद की अनुभूति करता है। संस्कारों का सर्वाधिक प्रभाव बाल जीवन पर पड़ता है। क्योंकि जैसे गीली मिट्टी को चाहे बर्तन या खिलौने रूप बनाया जा सकता है, नरम सोने को इच्छानुसार गहने रूप परिवर्तित कर सकते हैं उसी प्रकार बाल्यावस्था भी गीली मिट्टी और नरम सोने के समान होती है तथा उनकी उस समय की ग्राहक शक्ति भी तीक्ष्ण होती है इसलिए उन पर डाले गये संस्कार भी उन्हें शीघ्र ही प्रभावित करते हैं।
माता की ममतामयी गोद उनके लिए सबसे बड़ी पाठशाला होती है जो संस्कार वे मान्टेसरी या कान्वेन्ट में प्राप्त नहीं कर सकते वे माँ से अज्ञातरूप में ही प्राप्त हो जाते हैं।
इसके लिए घर और मोहल्ले का वातावरण भी जिम्मेदार होता है। यदि आपकी कॉलोनी शिक्षित है तो आपके बच्चों को भी शिक्षित होने में सहयोग प्राप्त होगा।
अत: मेरा तो यही कहना है कि पहले आप स्वयं गुरुओं से संस्कार प्राप्त कर शिक्षित बनें पुन: भावी पीढ़ी को संस्कारित करने का संकल्प लेवें तभी देश और समाज का कल्याण हो सकता है।