भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक तत्व को जीवन में बनाए रखने का बहुत बड़ा योगदान है। यही कारण है कि संस्कृति की रक्षा के लिए अनेक जीवन न्यौछावर हो गए हैं। सदाचार धर्म का लक्षण है और संस्कृति धर्म की संचेतना है।
धर्मशास्त्र के अनुसार आचरण, लोकानुमोदित आचरण, देव—शास्त्र—गुरु की श्रद्धा और महापुरुषों के वचनों पर विश्वास, इन चारों पुत्रों का संमिश्रण ही संस्कृति है। आज भक्ष्याभक्ष्य भोजन ने, चलते-फिरते यात्रा ने, चलते-फिरते यात्रा ने, स्पर्शस्पर्श का भेद पाये बिना सबके हाथ के भोजन ने और दिन के ही सदृश रात्रि के भोजन ने खान-पान की पवित्रता और पुरानी मृत्युओं का लोप कर दिया है इसलिए प्राचीन सभ्यता का मात्र हश्र ही नहीं हुआ है, अपितु उसका गौरव भी नष्ट हो गया है। विधवा विवाह एवं विकृत आदि विवाह ने, सहशिक्षा ने और टी. वी. ने कुलाचार को नष्ट किया है।
सूतक, पातक और रजोधर्म की मर्यादाओं का लोप हो जाने से धर्माचरण का गौरव नष्ट हो गया है। आज जिन पापों को भ्रूणहत्या के रूप में पाप के प्रति भी ग्लानि नहीं है, उन्हें रजोधर्म के प्रति ग्लानि उत्पन्न न होना सहज ही है क्योंकि यह ध्यान रखें कि धर्मघातक रजोधर्म के प्रति होने वाली आगमविरुद्ध प्रक्रिया भव—भव में आपको असाह्य दु:ख का कारण होगी अत: स्व आत्मा का हितकारी नारियों को रजोधर्म का पूर्णरूप से पालन करना चाहिए।
इस संसार में मनुष्य के द्रव्य और भाव ये दोनों, सूतक (पातक) से मलिन हो जाते हैं तथा द्रव्य और भावों के मलिन होते ही धर्म और चरित्र स्वयं मलिन हो जाते हैं। सूतक—पातक अनुरूप से द्रव्य शुद्धि होती है, द्रव्य—शुद्धि होने से भाव शुद्धि होती है और भावशुद्धि होने से चरित्र निर्मल होता है।
यह निश्चित सिद्धान्त है कि मनुष्य जन्म में भी धर्म की स्थिति शरीर के प्रतिभा होती है, इसलिए मनुष्य के शरीर की शुद्धि होने से सम्यग्दर्शन और व्रतों की शुद्धि करने वाली धर्म की शुद्धि होती है और धर्म की शुद्धि के लिए तथा सम्यग्दर्शन और व्रतों की शुद्धि के लिए जो समस्त शुद्धियों को उत्पन्न करने वाला है और शुभ है ऐसे में इस सूतक—पातक का पालन सर्वथा करना चाहिए। यदि सूतक—पातक का पालन नहीं किया जाता है तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का सज्जातिपना नष्ट हो जाता है।
भगवान जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का पालन करने वाले यदि सूतक—पातक में भी भगवान की पूजा करते हैं, आहारदान आदि देते हैं तो उनके केवल पाप का आश्रव होता है। जो अज्ञान से अथवा प्रमाद से सूतक—पातक को नहीं मानता, वह जैन भी मिथ्यादृष्टि माना जाता है।
जिनेन्द्र भगवान ने व्रत पालने वाले त्रिवर्णों को चार प्रकार का सूतक बताया है। पहला अर्थव—ऋतुधर्म—मासिक धर्म से होने वाला, दूसरा सौतिक—प्रसूति से होने वाला, तीसरा अर्थव—मृत्यु से होने वाला और चौथा अर्थव—मृत्यु के संसार से होने वाला।
इसमें से अर्थव सूतक स्त्रियों को होता है, इसे रजोधर्म या मासिकधर्म भी कहा जाता है। यह राज अनेकात बीमारियों से भरा रहता है इसलिए यह हिंसा का मूल कारण है। इसके अतिरिक्त वह रजोनिवृत्ति में विकार उत्पन्न करने वाला है, अपवित्रता का कारण है और ग्लानि आदि का भी मूल कारण है।
रजस्वला स्त्री को तीन दिन तक सूतक पैदा करना चाहिए। वह स्त्री चौथे दिन मात्र पति को भोजन आदि बनाने के लिए शुद्ध मन जाती है तथा दान—पूजादि धर्मकार्यों में (यदि पूर्ण शुद्ध हो तो) पाँचवें दिन शुद्ध मन जाती है।
यदि कोई स्त्री बार-बार रजस्वला होती हो, स्नान करने के बाद फिर रजस्वला हो जाए तो उसे पात्रदान एवं जिनपूजा आदि किसी भी प्रकार के धर्म कार्य नहीं करना चाहिए। रजस्वला स्त्री को किसी एकान्त स्थान में मौन धारण कर विश्राम करना चाहिए। ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना चाहिए और किसी का भी स्पर्श नहीं करना चाहिए।
उस रजस्वला स्त्री को तीन दिन तक गृहकार्य नहीं करना चाहिए। गाना, नाचना, वीडियो बजाना, चाय, नाश्ता एवं रसोई आदि बनाना, हास्य करना, पैसा एवं जल आदि बनाना ऐसे अन्य और भी कोई काम नहीं करना चाहिए।
रजस्वला स्त्री दूसरी—तीसरे दिन रसोई निर्मित परिवार को नहीं खिलाए। गृहकार्य के लिए नल आदि से जल नहीं भरता। वस्त्रों को सुखाकर एवं महंगा नहीं रखा जा सकता।
यदि आप स्त्री रजस्वला हैं और आपके घर के सदस्य आपकी आशुचि अवस्था में स्पर्शित विस्तृत जल से स्नान करके और वे ही वस्त्र धारण मंदिर जाते हैं, स्वाध्याय करते हैं, माला फेरते हैं तो क्या यह पाप आपको नहीं लगता ? पाप कर्म का बन्ध नहीं होता ?
क्या आप अपने शुद्ध हृदय से स्वयं चिन्तन करें कि आगम और अपनी कुल-वंश परम्परा के प्रतिकूल कार्य करके आपको सुख देंगे या दु:ख ? क्या आपके मन में इस पाप से उत्पन्न भयानक दु:ख भोगने को लालायित है ? नरक—तिर्यंचगति में जाने को उत्कण्ठित है ? वैधव्य एवं दरिद्रता आदि के दु:ख भोगने को उत्साहित है ? यदि नहीं, तो आप आज ही प्रतिज्ञा कर लें कि मैं रजस्वला धर्म का पूरे तीन दिनों तक स्वयं पालन करूंगी और अपनी बहन, बेटी एवं पुत्रवधू आदि से भी पालन करवाऊंगी।
रजस्वला अवस्था में यदि किसी साधु से, आर्यिका से स्पर्श हो जाय तो उन्हें कितना प्रायश्चित लेना होता है ? आचार्यसार में वीरनन्दि आचार्य कहते हैं कि—
यदि कपाली, चांडाल एवं रजोधर्म वाली महिला से किसी साधु का स्पर्श हो जाए तो वे दण्डस्नान करें, महामंत्र का जाप करें और उपवास करें।
जब मुनिराजों की विदाई आदि होती है, तो आपके परिवारजनों से आपकी प्रार्थना स्वीकार कर ली जाती है, तब क्या वे मुनिराज प्रायश्चित के भागी नहीं होते। पवित्रात्मा साधुओं को उपवास के निमित्त उपस्थित करके आप अनर्थ कर रहे हैं, आपको इस घोरतम अपराध का कटुफल भोगना पड़ेगा।
6 कुभोगभूमियों में कौन उत्पन्न होते हैं—श्रीमन्नेमिचंद्राचार्य त्रिलोकसार गाथा ६२४ में कहते हैं—
जो दुर्वाणा नाम ईर्ष्या आदि खोटे भावों से आहारदान देते हैं। जो अपवित्र अवस्था में अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव में, इन चार शुद्धियों में से किसी एक शुद्धि की भी अवहेलना करके आहारदान देते हैं, जो सूतक पातक आदि को नहीं मानते और आहारदान आदि देते हैं तथा जो रजस्वला स्त्री के स्पर्श से युक्त होते हैं। आहार देते हैं, जो जातिसंकर आदि जीवों से दूषित होते हुए भी आहारदान देते हैं और जो कुपात्रों को दान देते हैं, वे जीव मर्कर कुभोगभूमियों में कुमनुष्य (सूकर, कुत्ता, उल्लू, घोड़ा एवं भैंसा आदि के मुख वाले, एक जंघा वाले, बड़े) होते हैं। —बड़े कान वाले, पूँछ वाले, सींग वाले और गूँगे) होते हैं।
श्रावक के अन्तरायों में भी आगम की क्या आज्ञा है ? सागर धर्मामृत के चतुर्थ अध्याय, श्लोक १६ में पं. आशाधर जी कहते हैं कि—
व्रतों को पालन करने वाला गृहस्थ गीला चमड़ा, हड्डी, मदिरा, माँस, रक्त और पीप आदि पदार्थों को देखने तथा रजोस्वला स्त्री, सूखा चमड़ा, हड्डी, कुत्ता, बिल्ली एवं चांडाल आदि का स्पर्श हो जाने पर भोजनपान छोड़ दे अर्थात् अन्तराय करे। यहाँ भी रजोस्वला अवस्था में आपको हड्डी, चमड़ा आदि के समकक्ष रखा गया है।
१. तीन दिन पूर्णरूपेण शीलव्रत पालना चाहिए, ब्रह्मचर्य व्रत से रहना चाहिए।
२. दाभ के आसन पर सोना, सुखाना चाहिए, खाट पालना आदि ऊँचे आसन पर नहीं।
३. देवधर्म की बात नहीं करना चाहिए।
४. दूध, दही, घी आदि रस निकालकर नीला भोजन करना चाहिए।
५. भोजन जिस बर्तन में करें उसे तीन दिन बाद अग्नि द्वारा शुद्ध करना चाहिए।
६. तीन दिनों में पहने साड़ी, पेटीकोट आदि वस्त्र अलग रखना चाहिए, उन वस्त्रों से तीर्थयात्रा, पूजन एवं आहारदान नहीं देना चाहिए।
७. स्वामीवात्सल्य, विवाह समारोह तथा मृत्युप्रसंग पर भोजनार्थ बाहर कहीं नहीं जाना चाहिए।
८. मृत्यु आदि प्रसंगों पर रोना नहीं चाहिए और मांगलिक प्रसंगों पर गीत आदि गाने नहीं चाहिए।
९. रसमण्डल, स्वस्तिक एवं चौक आदि पूर्ण नहीं होना चाहिए।
१०. मांग नहीं भरना चाहिए। आँखों में काजल, अज्जन आदि लगाना नहीं चाहिए।
. सिनेमा, पब एवं क्लब आदि स्थानों पर नहीं जाना चाहिए।
12. … महामंत्र णमोकार का मुख से उच्चारण नहीं करना चाहिए लेकिन अहर्निश मन में चिंतन करते रहना चाहिए।
भावमिश्र वैद्यराज द्वारा विरचित भावप्रकाश वैद्यक ग्रन्थ के अनुसार कोई भी स्त्री अज्ञान से, प्रमाद से, विषयलोलुपता से अथवा दैवयोग से रजस्वला अवस्था के तीन दिनों में शुद्धि का ध्यान नहीं करता, अनर्गल क्रिया करती है तो अन्धी, बहरी, गूंगी, मूर्ख, आलसी , रोगी, दुष्ट, दुराचारी और उन्मत्त सन्तान उत्पन्न होती है।
वैदिक धर्म, ईसाई धर्म, यहूदी धर्म, पारसी धर्म, मुस्लिम धर्म जैसे अन्य धर्मों में रजोधर्म माना जाता है, तीन दिन कार्य करने का निषेध है।
विश्व में रजोधर्म पालन की व्यवस्थाएं हैं, अपाइका में स्त्रियां रजोस्वला अवस्था में किसी का स्पर्श नहीं करतीं, अपनी पहचान के लिए सीन पर टीका लगाती हैं। दक्षिण अमेरिका एवं आयरलैंड की स्त्रियां रजोनिवृत्ति में अलग-अलग चुलियां में रहती हैं, किसी वस्तु एवं दूध तक का स्पर्श नहीं करती हैं। उनकी मान्यता है कि पदार्थ खराब हो जाते हैं। न्यूजीलैंड में स्त्रियाँ अंतरिक्ष में लटकते हुए एक पिंजड़े में तीन दिन तक रहती हैं। लेबनान में रजोधर्म वाली स्त्री क्षेत्र में कार्य नहीं किया जा सकता। जर्मनी में रजोधर्म वाली जर्मन स्त्रियाँ अपनी पहचान के लिए ”मुझे कागज मिला है।” ऐसे मार्मिक वाक्यों का प्रयोग करती हैं। वहाँ मादक पदार्थ (शराब) के भंडार में रजोधर्म वाली स्त्री का प्रवेश निषिद्ध है क्योंकि उसके प्रवेश से कितनी भी ऊंची जाति की शराब क्यों नहीं हो, वह खट्टी हो जाती है और उसका स्वाद खराब हो जाता है।
प्राणों में रजस्वला स्त्री को शक्कर के कारखाने में प्रवेश नहीं करने देता क्योंकि उसकी परछाईं ही शक्कर काली पड़ जाती है। रेशम की पैकेजिंग में ऐसी स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध है क्योंकि उनकी उपस्थिति से रेशम की कोमलता कम हो जाती है।
यदि इत्र की शीशी को भी रजस्वला स्त्री स्पर्श कर ले तो उसकी सुगंध कम हो जाती है।
‘जब चेते तब सबेरा’ अब भी आप समझ लें और चिंतन करें कि जब शक्कर के रूप में अजीव पदार्थ भी आपकी उस अपवित्र अवस्था की छाया से विकृत हो जाता है, तब जो परिवार रजोधर्मयुक्त महिला के हाथ का भोजन-पान करता है, उसकी बुद्धि विकृत नहीं होगी। ? सब होगा, हो रही है, हो चुका है।
अब भी आप चाहें तो अपनी आत्मा को और अपने परिवार को गवाही से होने वाली हानियों से बचा सकते हैं।
उपरोक्त बातों का ध्यान रखते हुए आप संयमी बनें, विचार शुद्ध रखें, आचरण शुद्ध रखें, स्वयं संस्कारित बनें, संतान को संस्कारित करें, रजोधर्म की मर्यादाओं का पालन करें। इससे आपका जीवन सुखी रहेगा, घर में सुख, शांति एवं लक्ष्मी का वास रहेगा और आपकी आत्मा की रक्षा के साथ-साथ धर्म की भी रक्षा होगी।