भारत में अनादिकाल से सार्वजनिक स्थानों, मन्दिरों, महलों आदि को चित्रों और भित्ति—चित्रों से सज्जित करने की प्रथा चली आ रही है। ये कलाकृतियाँ युगविशेष के लोगों के जीवन, उनकी संस्कृति और परम्पराओं की प्रतीक हैं। हमारे लिए अब ये भारत की प्राचीन महान् सभ्यताओं और साम्राज्यों का स्मरण कराने वाली हैं और साथ ही उन महान् सम्राटों, वीरों और संतों का भी स्मरण कराने वाली हैं, जिन्होंने विभिन्न युगों में अपने कृत्यों और महान् उपलब्धियों से हमारी इस भूमि को महिमामण्डित किया अत: यह स्वाभाविक ही था कि आधुनिक भारत के निर्माताओं ने लोकतंत्र के आधुनिक मंदिर अर्थात् संसद भवन को इस देश के इतिहास के महान् क्षणों का चित्रण करने वाले चित्रों से सजाकर भारत के अतीत के गौरव को कुछ सीमा तक पुनरुज्जीवित करने का प्रयत्न करना उपयुक्त समझा।
सर्वप्रथम इस विचार की परिकल्पना लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष स्वर्गीय श्री जी. वी. मावलंकर ने की। ज्यों ही कोई व्यक्ति संसद भवन में प्रवेश करता है वह निचली मंजिल पर बाहरी बरामदे की दीवारों पर सुशोभित सुन्दर चित्रों की पंक्ति को देखकर मंत्र—मुग्ध हो जाता है।
ये चित्र भारत के विख्यात कलाकारों की कृतियाँ हैं और इनमें वैदिक युग से लेकर १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ अंत हुए अंग्रेजों के राज्यकाल तक के, इस देश के लंबे इतिहास के दृश्य चित्रित किए गए हैं। कुछ भित्ति—चित्रों को १९९९ के कैलेण्डर के पृष्ठों पर दर्शाया गया है। उन चित्रों में से जैनधर्म के तीर्थंकरों की परम्परा को दर्शाने वाला यह चित्र प्रस्तुत है—