द्बीप ग्यारवां कुंडल नाम प्रमानिये।
ताके मधि में कुंडल पर्वत जानिये।।
वलयाकृति१ गिरि पे चउदिश जिनधाम हैं।
पूरब दिशि जिनगेह जजूँ इह ठाम हैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि पूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि पूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि पूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
सिंधु स्रोतस्विनी२ का जल है, जो स्वातम का हरता मल है।
पूजते ही मिले मोक्षफल है, जिनेंद्र पाद वंदन करूं मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर प्रतिमा, जाकी अद्भुत अकथ है महिमा।
कुंडलाचल जिनालय प्राक्मा३, जिनेंद्रदेव वंदन करूं मैं नित ही।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलगिरिपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध कर्पूर केशर मेला, सौगंधित सुमिश्रित एला।
ताप संताप हरत अकेला, जिनेंद्रपाद वंदन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर प्रतिमा, जाकी अद्भुत अकथ है महिमा।
कुंडलाचल जिनालय प्राक्मा, जिनेंद्रदेव वंदन करूं मैं नित ही।२।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलगिरिपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
हार मोती सदृश तंदुल हैं, पुंज धारे हृदय निर्मल है।
लाभ होता सुगुण उज्ज्वल है, जिनेंद्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें….।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलगिरिपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद मंदार सुमनस माला, काम मल्ल निमूल१ कर डाला।
आत्म संपद गुणों की माला, जिनेन्द्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें….।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलगिरिपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मुग्द२ लाडू इमरती भरके, पूजते भूख रोगादि हरके।
आत्मपीयूष अनुभव करके, जिनेन्द्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें….।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलगिरिपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हेम दीपक शिखा उज्ज्वल है, आरती ये हरे मोह मल है।
होय आत्मा अपूर्व विमल है,जिनेन्द्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें….।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलगिरिपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप खेऊँ सुरभि दशगंधी, धूम्र पैâले दशों दिश गंधी।
होय कर्म अरी शत खंडी,जिनेन्द्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर प्रतिमा, जाकी अद्भुत अकथ है महिमा।
कुंडलाचल जिनालय प्राक्मा, जिनेंद्रदेव वंदन करूं मैं नित ही।७।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलगिरिपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम्र अंगूर दाडिम फल हैं, जो फल दें उत्तम सुफल हैं।
तीन रत्नों की संपत्ति फल हैं,जिनेन्द्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें….।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलगिरिपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंधादि द्रव्य मिलाके, पूर्ण सौख्यादि होवे चढ़ाके।
अष्ट कर्मारि बंधन हटाके, जिनेन्द्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें….।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलगिरिपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत श्री जिनबिम्ब, जलधारा से पूजते।
शांति करो जिनराज, शांतीधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार प्रसून, सुरभित करते सर्वदिक्।
पुष्पांजलि तुम अर्प्य, भव भव के दुख को हरूं।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
स्वयंसिद्ध जिनबिम्ब, सर्वसिद्धि में निमित हैं।
नमूँ नमूँ नत शीश, कुसुमांजलि कर भक्ति से ।।१।।
इति श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि पूर्वदिशि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
कुंडलगिरि पर पूर्वदिशा में पांच कूट मनहारी।
अभ्यंतर के सिद्धकूट पर, जिनमंदिर सुखकारी।।
जल गंधादिक अर्घ्य मिलाकर, नितप्रति यजन करूं मैं।
ग्यारह प्रतिमा धर ऊपर चढ़, संयम पूर्ण करूँ मैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलगिरिपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं शाश्वतजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो नम:।
जय जय कुंडलगिरि उपरि, पूरब दिश जिनधाम।
जय जय जिनवर बिंब हैं, त्रिभुवनशिखर ललाम।।१।।
कुंडलद्वीप कहा ग्यारहवां, कुंडलनग मधि राखे।
एक खरब अठ अरब पचासी, कोटि छियत्तर लाखे।।
इतने योजन विस्तृत द्वीपे, बीचोंबीच गिरी है।
वलयाकार१ हजार पचत्तर, योजन तुंगगिरी है।।१।।
तल में विस्तृत दश हजार दो-सौ बिस योजन गाया।
मध्य सुव्यास बहत्तर सौ औ तीस प्रमाण बताया।।
ऊपर चौड़ा ब्यालिस सौ-चालिस योजन तुम जानो।
पर्वत ऊपर चारों दिश में, बीस कूट सरधानो।।२।।
दिशा दिशा में पांच कूट हैं, चउ चउ पर सुर गेहा।
अभ्यंतर के सिद्धकूट पर, अकृत्रिम जिनगेहा।।
कुंडल पर्वत हेम वर्णमय, शाश्वत तीर्थ कहाता।
देव देवियां अप्सरियों के, इन्द्रों के मन भाता।।३।।
पूर्वदिशा के सिद्धकूट में, जिनवरबिंब विराजें।
मैं परोक्ष ही वंदन करता कर्म अरी डर भाजें।।
जिनवंदन से आत्म विशुद्धी, हो परमात्म प्रकासे।
जिनवर प्रवचन हृदय महल में , समयसारमय भासे।।४।।
प्रभू यही अब मेरी इच्छा, रत्नत्रय निधि पाऊँ।
नित व्यवहार रत्नत्रय बल से, निश्चय शिवपथ पाऊँ।।
वीतराग निश्चयरत्नत्रय, निर्विकल्प निज आत्मा।
परमसमाधी में तन्मय हो, बनूँ सिद्ध परमात्मा।।५।।
यही कामना पूरी करिये, कल्पवृक्ष सम दाता।
त्रिभुवन की संपत देने में, तुम हो जग विख्याता।।
प्रभु अज्ञानमती हर मेरी, सम्यग्ज्ञान प्रकासो।
पुनरपि केवल ‘ज्ञानमती’ कर, ज्ञानभानु घट भासो।।६।।
गणपति नरपति सुरपती, खगपति रूचि मन धार।
त्रिभुवनपति गुणगणमणी, तुम गुण गावत सार।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि पूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भक्ति श्रद्धा भाव से यह ‘इन्द्रध्वज’ पूजा करें।
नव निद्धि रिद्धि समृद्धि पा देवेन्द्र सुख पावें खरे।।
नित भोग मंगल सौख्य जग में, फेर शिवललना वरें।
जहं अंत नाहीं ‘‘ज्ञानमति’’ आनंद सुख झरना झरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।