प्रथम भूमि के द्वितीय भाग में राक्षस भवन बने हैं।
सोलह सहस भवन उन सबमें जिनवर धाम बने हैं।।
मध्य लोक में बहुत भवनपुर अरु आवास कहाये।
सब जिनगृह का आह्वानन कर पूजन विधी रचाये।।१।।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिनबिम्ब समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
क्षीरोदधि का उज्ज्वल जल ले सुवरण भृंग भराऊँ।
जिनपद चरणों धारा करके भव भव तृषा बुणाऊँ।।
शाश्वत जिनमंदिर जिनप्रतिमा पूजूँ भक्ति बढ़ाके।
आत्म सुधारस अनुभव पाऊँ, भक्तिप्रसून चढ़ाके।।१।।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: जलं निर्वपामिति स्वाहा।
कंचन द्रव सम गंध सुगंधित भरी कटोरी लाऊँ।
जिनपद चरणों धारा करके भव भव तृषा बुझाऊँ।।शा.।।२।।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
तंदुल धवल अखंडित लेकर तुम पद पुंज कराऊँ।
निजपद सौख्य अखंडित अक्षय पा निजमें रम जाऊँ।।शा.।।३।।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा।
जुही मोंगरा कमल केतकी पुष्प सुगंधित लाऊँ।
प्रभु के चरण कमल में रखकर निज समरस सुख पाऊँ।।शा.।।४।।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
पूरण पोली हलुआ बरफी रसगुल्ला भर थाली।
आप चरण में अर्पण करते नहीं मनोरथ खाली।।शा.।।५।।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
कनक दीप में घृत भर करके दीप जले जगमग हो।
करूँ आरती मोहतिमिर नश ज्ञान ज्योति प्रगटित हो।।शा.।।६।।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
धूप सुगंधित अग्नि पात्र में खेऊँ कर्म जलाऊँ।
धूम्र उड़े दशदिश में निज की कीर्ति सुरभि पैâलाऊँ।।शा.।।७।।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामिति स्वाहा।
सेव संतरा मोसंबी फल सरस मधुर भर लाऊँ।
जिनपद आगे अर्पण करके निजसमरस फल पाऊँ।।शा.।।८।।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: फलं निर्वपामिति स्वाहा।
जल फल आदिक अर्घ बनाकर सुवरण पुष्प मिलाऊँ।
प्रभु के चरण समर्पित करके मन की कली खिलाऊँ।।शा.।।९।।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरआवासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
श्री जिनवर पदपद्म, शांतीधार मैं करूँ।
मिले शांतिसुखसद्म, त्रिभुवन में सुख शांति हो।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला कमल गुलाब, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
परमामृत सुखलाभ, मिले सर्वसुख संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
व्यंतर राक्षस के यहाँ, अधिपति दोय प्रसिद्ध।
उनके जिनमंदिर जजूँ, पुष्पांजलि से नित्य।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
रत्नप्रभा के पंकभाग में राक्षस भवन बने हैं।
संख्या सोलह सहस सभी में जिनवर भवन बने हैं।।
रजत द्वीप के दक्षिण दिश में भीम इंद्र की नगरी।
इन सबके जिनमंदिर पूजूँ नशें व्याधियां सगरी।।१।।
ॐ ह्रीं अधोमध्यालोकेरजतद्वीपदक्षिणदिक्स्थितभीमेंद्रस्य संख्यातीतजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
चित्राभू के नीचे सुर गृह भवन कहे हैं श्रुत में।
द्वीप जलधि में कहे भवनपुर पांच नगर मुख उनमें।।
पर्वत नदी सरोवर तरु पर हैं आवास इन्होंके।
रजत द्वीप में महाभीम हैं जजूँ जिनालय सबके।।२।।
ॐ ह्रीं अधोमध्यालोकेरजतद्वीपउत्तरदिक्स्थितभीमेंद्रस्य संख्यातीतजिनालय जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
राक्षस सुर के भवन भवनपुर अरु आवास अगणिते।
अधोलोक में मध्यलोक में जिनगृह संख्या रहिते।।
सबमें इक सौ आठ-आठ जिन प्रतिमा शाश्वत होहें।
पूजूँ अर्घ चढ़ाकर रुचिसे सुर नर खग मन मोहें।।१।।
ॐ ह्रीं अधोमध्यालोके पंकभागस्थितनभवनरजतद्वीपस्थितभवन-भवनपुरनाना-स्थलस्थितावाससंबंधी संख्यातीतजिनालय जिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्यपुष्पांजलि:।
कंटक द्रुम है चैत्य तरु, जिनवर बिंब समेत।
पुष्पांजलि कर पूजहूँ, निज आतम सुख हेत।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
राक्षस सुर के जिन गृह में, कंटक तरु पूरब दिश में।
हैं चार जिनेश्वर प्रतिमा, मैं पूजूँ गाऊँ महिमा।।१।।
ॐ ह्रीं राक्षससुरभवस्थितकंटकतरुचैत्यवृक्षमूलभागपूर्वदिग्विराजमानचतुर्जिन प्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
राक्षस सुर निलय अनूपम, वहं चैत्यतरु अकृत्रिम।
दक्षिणदिश जिनवर प्रतिमा, पूजूँ गाऊँ जिन महिमा।।२।।
ॐ ह्रीं राक्षससुरभवस्थितकंटकतरुचैत्यवृक्षमूलभागदक्षिणदिग्विराजमान—चतुर्जिन प्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
कंटकद्रुम चैत्य तरु है, मरकत मणि पत्र भरित है।
पश्चिम दिश जिनवर प्रतिमा, पूजूँ गाऊँ जिन महिमा।।३।।
ॐ ह्रीं राक्षससुरभवस्थितकंटकतरुचैत्यवृक्षमूलभागपश्चिमदिग्विराजमान—चतुर्जिन प्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
वर चैत्यतरु उत्तर में, जिन प्रतिमा पद्मासन में।
वर प्रातिहार्ययुत सोहें, सुरगण इंद्रन मन मोहें।।४।।
ॐ ह्रीं राक्षससुरभवस्थितकंटकतरुचैत्यवृक्षमूलभागउत्तरदिग्विराजमानचतुर्जिन प्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जिनप्रतिमा के सन्मुख में,वर मानस्तंभ सुशोभें।
ये सोलह मानसतंभ हैं, पूजत ही पाप नशत हैं।।५।।
ॐ ह्रीं राक्षससुरभवस्थितकंटकतरुचैत्यवृक्षचतुर्दिग्जिनप्रतिमासन्मुखस्थित—षोडश मानस्तम्भेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तरु चैत्य वृक्ष की महिमा, सोलह शोभें जिनप्रतिमा।
सोलह मानस्तंभों में, जिनप्रतिमा नमूँ सदा मैं।।१।।
ॐ ह्रीं राक्षसदेवनिलयस्थितकंटकतरुचैत्यवृक्षस्थितषोडशजिनप्रतिमातत्सन्मुख स्थितषोडशमानस्तंभ संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रिलोक्यशाश्वतजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
नमूँ मैं नमूँ मैं सदा जैन धामा।
नमूँ जैन प्रतिमा सदा सौख्य धामा।।
नमूँ मैं सदा शासते चैत्य वृक्षा।
नमूँ चैत्यप्रतिमा मिले सौख्य अच्छा।।१।।
सुर भीम महाभीम विघ्नंविनाशक।
उदक राक्षसा राक्षसाराक्षसं तक।।
कहे ब्रह्मराक्षस ये राक्षस हैं सतविध।
इन्हों में कहे भीम महभीम अधिपति।।२।।
कहीं देवि पद्मा वसूमित्रका दो।
तथा रत्न आढ्या सुकनकप्रभा दो।।
प्रमुख इंद्र की दो सहस देवियां हैं।
प्रतीन्द्रादि परिवार सुर देवियाँ हैं।।३।।
तनू शुद्ध काला तथापी दिपे है।
धनुष दश ऊँचाई वयस पल्य इक है।।
दिवस पांच नंतर सुमानस अहारा।
झरें कंठ पीयूष तृप्ती अपारा।।४।।
नहीं मांस भोजी न ये मद्य पीते।
सदा पुण्य वैभव भरें देव जीते।।
नहीं राक्षसी वृत्ति राक्षस सुरों की।
बने कोइ वहं पे सुसम्यक्त्व दृष्टी।।५।।
करें देव जिनदेव की नित्य भक्ती।
करें गीत संगीत नर्तन स्व शक्ती।।
जिनालय में जाके प्रभू कीर्ति गाते।
करें अर्चना बीन वंशी बजाके।।६।।
इन्होंके जिनालय सदा वंदते जो।
कभी राक्षसों में जनम ना धरें वो।।
महाघोर मिथ्यात्व विष ना पियें वो।
निजानंद अमृत पियें समकिती वो।।७।।
शाश्वत जिनमंदिर नमूँ, शाश्वत सुखके हेतु।
‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी मिले, जाँ न दुख लवलेश।।८।।
ॐ ह्रीं राक्षसव्यंतरदेवभवनभवनपुरावासस्थितसंख्यातीतजिनालयजिन—बिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, तीन लोक जिनयज्ञ करें।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, वे नित-नित नव मंगल पावें।।
तीन लोक का भ्रमण मिटाकर निज के तीन रत्न को पाके।
केवलज्ञानमती प्रकटित कर बसें त्रिलोक शिखर पर जाके।।
इत्याशीर्वाद:।