णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
प्राकृत एक लोकभाषा है अत: इसका अस्तित्त्व उतना ही पुराना है, जितना कि लोक।
१-प्राक्—कृत · प्राकृत—पुराकाल से प्राचीन जनभाषाओं को प्राकृत कहते हैं। संस्कृत के समान प्राकृत का क्षेत्र व काल विस्तृत रहा है। तीर्थंकर जैसे दिव्यपुरुषों ने जन—जन की समझ में आने वाली जनभाषा के द्वारा ही जगत् में धर्म की गंगा प्रवाहित की है।
२-वैदिक सम्प्रदाय ने केवल संस्कृत भाषा को अपनाया, अत: किसी भी वैदिक विद्वान् का बनाया हुआ कोई प्राकृत भाषा का ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता, किन्तु जैन सम्प्रदाय ने किसी भी भाषा से अरुचि प्रकट नहीं की अतएव जैन विद्वानों ने भारतीय मूल भाषा प्राकृत में भी विपुल एवं महत्त्वपूर्ण साहित्य की रचना की तथा संस्कृत भाषा में भी व्याकरण, साहित्य, तर्क, छन्द, अलंकार, कोश, वैद्यक, ज्योतिष, गणित आदि समस्त विषयों पर अनुपम ग्रंथों की रचना की।
३- काल और क्षेत्र के परिवर्तन से प्राकृत भाषा के भी अनेक रूप हो गए, जिन्हें भाषा—विज्ञानी शौरसेनी, महाराष्ट्री, अर्धमागधी, पाली, पैशाची, अपभ्रंश, शिलालेखी व निया प्राकृत आदि कहते हैं।
४- पुरा साहित्य की प्रकृति, पुराकालीन धर्म, दर्शन तथा जीवनपद्धति को समझने के लिए प्राकृत को समझना आवश्यक है।