राष्ट्रगान से सभी लोग परिचित हैं और उसे सम्मानपूर्वक गाते भी हैं, परन्तु इस राष्ट्रगान के दूसरे पद की दूसरी पंक्ति में ‘जैन’ शब्द को भारत में प्रचलित अन्य छह मुख्य धर्मों की भाँति लिया गया है। इसका बहुत कम लोगों को पता होगा। यहाँ राष्ट्रगान के उसी अन्तरे को प्रस्तुत किया जा रहा है।
(२) अहरह तव आह्वान प्रचारित, शुनि तव उदार वाणी,
हिन्दु बौद्ध सिख जैन पारसिक, मुसलमान खिष्तानी।
पूरब पश्चिम आसे तव सिंहासन पाशे, प्रेमहार हय गाथा।
जन—गण—ऐक्य—विधायक जय हे, भारत—भाग्य विधाता।।
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।
नोबल पुरस्कार विजेता श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित और संगीतबद्ध ‘जन—गण—मन’ ५ पदों में सर्वप्रथम २७ दिसम्बर, १९११ को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया था तथा राष्ट्रगान के रूप में २४ जनवरी, १९५० को अपनाया गया। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी इस गान को एक भजन मानते थे।