कुंडलगिरि पर, उत्तर दिश जिन सद्म है।
पांच कूट के अभ्यंतर, अति रम्य है।।
कनक रतनमय जिनप्रतिमा को नित जजूँ।
कर्म कुलाचल चूर्ण हेतु पूजन रचूं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्ब-समूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्ब-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्ब-समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
रेवानदि को नीर, धार देत कलिमल हरे।
कुंडलनग कनकाभ१, उत्तरदिश जिनगृह जजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन केशर पीत, पूजत मन शीतल करे।
कुंडलनग कनकाभ, उत्तरदिश जिनगृह जजूँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षत उज्ज्वल धोय, पूजत भव पीड़ा हरे।।
कुंडलनग कनकाभ, उत्तरदिश जिनगृह जजूँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला कुंद सरोज पूजत भव पीड़ा हरे।
कुंडलनग कनकाभ, उत्तरदिश जिनगृह जजूँ।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू बरफी मिष्ट, क्षुधाव्याधि हर पूजते।
कुंडलनग कनकाभ, उत्तरदिश जिनगृह जजूँ।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योति अमंद, पूजत भ्रम तम को हरे।
कुंडलनग कनकाभ, उत्तरदिश जिनगृह जजूँ।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप खेऊँ रुचि धार, कर्म भस्म कर शिव करे।
कुंडलनग कनकाभ, उत्तरदिश जिनगृह जजूँ।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल अंगूर अनार, जजत रिद्धि सिद्धी करे।
कुंडलनग कनकाभ, उत्तरदिश जिनगृह जजूँ।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसु विधि अर्घ्य सजाय, पूजत अनुपम फल मिले।
कुंडलनग कनकाभ, उत्तरदिश जिनगृह जजूँ।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत श्री जिनबिंब, जलधारा से पूजते।
शांति करो जिनराज, शांतीधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार प्रसून, सुरभित करते सर्वदिक्।
पुष्पांजलि तुम अर्प्य, भव भव के दुख को हरूं।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
चिन्मय चिंतामणि प्रभू, वांछित फलदातार।
पुष्पांजलि कर पूजते, छुटे सकल संसार।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटस्थाने मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
महिमावंत अचल कुंडल है, उत्तरदिश जिनमंदिर सिद्ध।
स्वयंसिद्ध जिनप्रतिमा अनुपम, करती सकल मनोरथ सिद्ध।।
जल गंधादिक द्रव्य सजाकर, पूजन करुं हरष उर धार।
नव निधि ऋद्धि समृद्धी देतीं, करतीं नितप्रति मंगलसार।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं शाश्वतजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो नम:।
त्रिभुवन के स्वामी तुम्हीं, परमज्योति भगवान।
गाऊँ तुम जयमालिका, करो विघ्न की हान।।१।।
शुद्ध बुद्ध सर्वज्ञ निरंजन सिद्ध प्रसिद्ध महात्मा।
चिच्चैतन्य चमत्कारी प्रभु, स्वयंसिद्ध परमात्मा।।
वीतराग विज्ञान पुंज हो, चिन्मय ज्योति स्वरूपी।
अमल विमल निर्मल तुम ही हो, कर्म शून्य चिदू्रपी।।१।।
मिथ्यात्वोदय के वश जग में, काल अनादि गमायो।
मिथ्या देव शास्त्र गुरुओं में, श्रद्धा कर दुख पायो।।
जैसे तैसे अति दुर्लभ ये, मिथ्या कर्म छुटा है।
काललब्धि वश सम्यक् पाकर, ज्ञान सूर्य प्रकटा है।।२।।
अब प्रभु ऐसी करुणा करिये, समकित निधि निंह खोऊँ।
स्वपर भेदविज्ञान ज्योति से, मिथ्यामल को धोऊं।।
कर्म अनंतानूबंधी जो, क्रोध लोभ मद माया।
इनका उदय हुए समकित में, आसादन१ है गाया।।३।।
तुम प्रसाद से सासादन, गुणथान कभी ना पाऊँ।
मिश्र भाव से प्रभु तीजा, गुणथान न हो यह भाऊँ।।
समकित निधि मुझ कभी न छूटे, यही भावना भाऊँ।
भगवन अन्तिम क्षायिक सम्यक्, पाकर कर्म नशाऊँॅ।।४।।
अणुव्रत गुणव्रत शिक्षाव्रत धर, देशव्रती बन जाऊँ।
ग्यारह प्रतिमा के व्रत निर्मल, धर मलदोष हटाऊँ।।
कब ऐसा दिन आवे हे जिन! संयम पूर्ण करूँ मैं।
पंचमहाव्रत गुप्ति समिति धर, चारित पूर्ण करूँ मैं।।५।।
पुत्र मित्र पत्नी धन परिजन, ये प्रत्यक्ष पृथक् हैं।
तन आतम मिल एक दीखते, वे भी पृथक् पृथक् हैं।।
तन से निर्मल होकर धन जन, त्याग बनूं वैरागी।
निज आतम से ममता करके, होऊँ निज अनुरागी।।६।।
सब संकल्प विकल्पों से हट, परम समाधि लगाऊँ।
परमानंद पियूष पान कर, सब भव व्यथा मिटाऊँ।।
प्रभु ऐसी अब शक्ती दीजे, मन संक्लेश न होवे।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ भास्कर कर, मोह महातम खोवे।।७।।
कुंडलगिरि के जिनभवन, अनुपम शाश्वत सिद्ध।
पुन: पुन: वंदन करुँ, पाऊं स्ाौख्य समृद्ध।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीकुण्डलपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिनबिम्बेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भक्ति श्रद्धा भाव से यह ‘इन्द्रध्वज’ पूजा करें।
नव निद्धि रिद्धि समृद्धि पा देवेन्द्र सुख पावें खरे।।
नित भोग मंगल सौख्य जग में, फेर शिवललना वरें।
जहं अंत नाहीं ‘‘ज्ञानमति’’ आनंद सुख झरना झरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।