आचार्य विनोबा भावे जैन—दर्शन की सल्लेखना के महत्त्व से परिचित थे। भगवान् महावीर स्वामी के २५०० वें निर्वाण महोत्सव वर्ष में बाबा को चिन्ता हुई कि जैनधर्म का साहित्य विपुल और विशाल है और तीर्थंकरों की वाणी प्राकृत भाषा में निबद्ध है और जैन दर्शन का सार प्रस्तुत करने वाला कोई प्रतिनिधि ग्रंथ नहीं है, उन्होंने प्रेरणा देकर समणसुत्तं का सृजन कराया। श्री विनोबा भावे ने समणसुत्तं की भूमिका में लिखा है— ‘‘मेरे जीवन में मुझे अनेक समाधान प्राप्त हुए हैं। उनमें आखिरी, अन्तिम समाधान, जो शायद सर्वोत्तम समाधान है, इसी साल प्राप्त हुआ। मैंने कई बार जैनों से प्रार्थना की थी कि जैसे वैदिक धर्म का सार गीता में सात सौ श्लोकों में मिल गया है, बौद्धों का धम्मपद में मिल गया है, जिसके कारण ढाई हजार साल के बाद भी बुद्ध का धर्म लोगों को मालूम होता है वैसे जैनों का होना चाहिए। आखिर वर्णीजी नाम का एक बेववूफ निकला और बाबा की बात उसको जँच गई।’’’ समणसुत्तं उसी की सुखद परिणति है। समणसुत्त में एक अध्याय सल्लेखना के नाम से है। फिर बाबा लिखते हैं— ‘‘यह बहुत बड़ा कार्य हुआ है, जो हजार—पन्द्रह सौ साल में नहीं हुआ था। उसका निमित्त—मात्र बाबा बना, लेकिन बाबा को पूरा विश्वास है कि यह भगवान् महावीर की कृपा है।’’ मैं कबूल करता हूँ कि मुझ पर गीता का गहरा असर है। उस गीता को छोड़कर महावीर से बढ़कर किसी का असर मेरे चित्त पर नहीं है। उसका कारण यह है कि महावीर ने जो आज्ञा दी है वह बाबा को पूर्ण मान्य है। स्पष्ट है कि महावीर के वचनों पर बाबा को पूर्ण आस्था थी और महावीर भगवान ने सल्लेखना को श्रमण साधना का चरम उत्कर्ष बताया है। बाबा ने भी उसे साकार कर दिखाया। बाबा ने सल्लेखना समाधिमरणरत श्रमणों के दर्शन भी किए थे।