दक्षिण भारत के प्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो. जी.ब्रह्मप्पा ने कर्नाटक की शान महासती अत्तिमब्बे पर कन्नड़ भाषा में दान चिन्तामणि उपन्यास १९६५ में लिखा था, उसी समय मैसूर विश्वविद्यालय ने इसे पाठ्यक्रम में सम्मिलित करके पुरस्कृत किया। अगले वर्ष एम. के. भारती रमणाचार्य ने राष्ट्र भाषा में अनुवाद करके यह उपन्यास हिन्दी पाठकों को उपलब्ध कराया। इस दान चिन्तामणि में महासती अत्तिमब्बे की दानशीलता के सैंकड़ों उदाहरण हैं। कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्यों के वंश एवं साम्राज्य की स्थापना में जिन धर्मात्माओं के पुण्य आशीर्वाद और सद्भावनाओं का योग रहा उनमें सर्वोपरि महासती अत्तिमब्बे थीं, जिनके शील, आचरण, धार्मिकता, धर्म प्रभावना, साहित्यसेवा, वैदुष्य, पातिव्रत्य, दानशीलता आदि सद्गुणों के उत्कृष्ट आदर्श में तैलप आहवमल्ल का शासनकाल धन्य हुआ। इस साम्राज्य के प्रधान सेनापति मल्लप की वह सुपुत्री थीं। वाजीवंशीय प्रधानामात्य मन्त्रीश्वर धल्ल की वह पुत्रवधू थीं। प्रचण्ड महादण्डनायक वीर नागदेव की वह प्रिय पत्नी थीं और कुशल प्रशासनाधिकारी वीर पदुवेल तैल की स्वनामधन्या जननी थीं। उत्तम संस्कारों में पली, दिगम्बर गुरुओं का मार्गदर्शन लेकर महासती अत्तिमब्बे ने परोपकार और जिनशासन की सेवा करने का संकल्प लिया था। उस महासती ने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण और परिवार की सम्पदा का कण—कण परोपकार में लगा दिया, उसकी प्रकृति इतनी कोमल थी कि वह किसी को दुखी नहीं देख सकती थी, उनकी कृपा जैन और जैनेतर, छोटे—बड़े सभी पर समान रूप से बरसती थी। स्वर्ण एवं मणि—माणिक्यादि महार्घ्य रत्नों की १५०० जिनप्रतिमाएँ बनवाकर उन्होंने विभिन्न मंदिरों में प्रतिष्ठापित की थीं, अनेक जिनालयों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार कराया था और आहार—अभय—औषध—विद्या रूप चार प्रकार का दान अनवरत देती रहने के कारण वह दान चिन्तामणि कहलायी थी। वह महान् महिला प्रत्येक दम्पत्ति को एक तीर्थंकर प्रतिमा भेंट करके उनसे कहती—नित्य जिनदर्शन करना और किसी एक ग्रंथ की पाँच प्रतियाँ करवाकर जिनालयों में स्थापित करना। जिनधर्म की अतिशय प्रभावना करने के कारण महासती अत्तिमब्बे को कर्नाटक माता के नाम से ख्याति प्राप्त हुई। उनका चरित्र पुराणों में अंकित हुआ। उन महिमामयी श्राविका की धर्मोपासना प्रणम्य है और आज भी प्रेरणादायक है। महासती अत्तिमब्बे ने चाँदी की नकेल और सोने की सींग वाली एक हजार अच्छी—अच्छी गाभिन गायों को गरीब गर्भवती महिलाओं को दान किया। महासती अत्तिमब्बे की एक इच्छा थी कि एक हजार जिन—मुनियों को एक छत के नीचे एक साथ आहार दान दें। हजार से भी अधिक मुनियों को एक ही छप्पर के नीचे शास्त्रोक्त विधि से आहार दान दिया। वह कितना अद्भुत दृश्य रहा होगा। उभयभाषा चक्रवर्ती महाकवि पोन्न के शान्तिपुराण (कन्नड़ी) की स्वद्रव्य से एक सहस्र प्रतियाँ लिखवाकर अत्तिमब्बे ने विभिन्न शास्त्रभण्डारों आदि में वितरित की थीं। स्वयं सम्राट् एवं युवराज की इस देवी के धर्म कार्यों में अनुमति, सहायता एवं प्रसन्नता थी। सर्वत्र उसका अप्रतिम सम्मान और प्रतिष्ठा थी। डॉ. भास्कर आनन्द सालतोर के शब्दों में—जैन इतिहास के महिला जगत् में सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रशंसित नाम अत्तिमब्बे है। अत्तिमब्बे को जिन जननी के समकक्ष माना है। ‘बुधजन वंदिता’! कविवर कामधेनु’! चक्रवर्ती पूजिता’ ! ‘जिनशासन प्रदीपिका’! ‘दानचिन्तामणि’! विनय चूड़ामणि’! ‘सम्यक्त्व शिरोमणि’! ‘शीलालंकृता’! ‘गुणमालालंकृता’! आदि उपाधियों से अलंकृत किया था।