हिन्दी के प्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त ने एक कविता लिखी है—
किसी भी देश के गौरवशाली साहित्य भंडार से यह बात स्पष्ट हो रही है।
हमारा भारत देश सदा—सदा से साहित्य का प्रमुख समृद्ध केन्द्र रहा है। यहाँ के ऋषि—मुनियों ने प्राणीमात्र के हित को दृष्टि में रखते हुए समय—समय पर सारगर्भित एवं सर्वजन सुलभ साहित्य की रचना की है। सत् साहित्य को पढ़ने से ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान को मनीषियों ने सच्चे प्रकाश की उपमा देकर अज्ञानता को महान् अंधकार के रूप में बताया है।
कन्फ्यूशियस ने एक स्थान पर यह भी लिखा है—
अज्ञान मन की रात है, परन्तु वह रात जिसमें चाँद और तारे नहीं हों।
‘अज्ञानता मन की वह अन्धकारपूर्ण रात है, जिसमें न चाँद हैं, न तारे’ ऐसी अन्धकारपूर्ण दुनिया में महापुरुषों द्वारा निर्धारित या लिखी गई बातें ही हमारे लिए प्रकाश देने का कार्य करती हैं।
उनके द्वारा लिखी गई एक—एक पंक्ति कभी—कभी महान जीवनदायिनी बन जाती है। जैसे कि एक प्रसिद्ध कवि भारीवी की विलक्षण काव्य रचनाओं के विषय में घटना सुनी जाती है कि—बिहार के धनपुर पट्टी नामक गाँव में एक छोटे सी रहने वाले भारीवी कवि आदि की कविताएँ लिखी थीं। एक दिन उसकी पत्नी बहुत नाराज़ हुई और उनसे बोली कि—आपके इस लेखन से हमें क्या लाभ है ? इधर हमारे परिवार में भोजन का ठिकाना नहीं है, और आप हर समय भोजन में लगे रहते हैं। अरे ! कुछ और काम—धंधा करो, जिससे परिवार का पालन हो। कवि भारीवी की पत्नी की बात सुनने से पहले तो कुछ चिंता में डूब गए फिर: चिंता करके उन्होंने पत्नी को एक ताड़पत्र पर श्लोक लिखकर दिया और उससे कहा—देवी! तुम बाजार में जाकर इसे बेचकर पैसे ले आओ।
कवि की पत्नी ने बाजार में जाकर उस श्लोक को एक सुनार के हाथ बेच दिया। सुनार ने वेपरलाइन को अपने घर में टांग दिया। वेतें इस प्रकार थे—
एक बार जब वह सुनार विदेश में धन कमाने चली गई, उस समय उसकी पत्नी तीन मास के गर्भ में थी। उसने ९ माह बाद पुत्र को जन्म दिया और उसका लालन—पालन करके बड़ा किया। लगभग १५—१६ वर्ष बाद जब सुनार वापस अपने घर लौटा तो अपनी पत्नी के पास पलंग पर एक बिजली को सोता देखकर क्रोध में आगबबूला हो गया और पत्नी तथा बिजली को जान से मारने के लिए उसने तलवार निकाल ली, लेकिन उसकी दृष्टि कमरे में तुरन्त आ गई। टंगे दोहे की पंक्ति पर पड़ा: पत्नी को जगाकर उसने पूछा कि यह आग कौन है? कहाँ से आया है ? कब से तेरे पास रहता है ? आदि। पत्नी ने कहा—स्वामी! यह तो आपका पुत्र है। क्या आपको याद नहीं है कि आप मुझे गर्भवती अवस्था में छोड़कर चले गए थे? अब तो देखो, यह बेटा जवानी की ओर बढ़ रहा है। बेटे ने तुरन्त अपने पिता के चरण स्पर्श पाए और परिवार का मिलन हो गया। सुनार को अपने पर बड़ा अफसोस हुआ। तब उस सुनार को कवि की कृतियों पर बहुत श्रद्धा हो गई। उसने पत्नी और बेटे से कहा कि—आज भारी कवि की इन भावनाओं ने हमारे परिवार की रक्षा कर दी, अन्यथा गलतफहमी का शिकार बनकर मेरे हाथ से आज आप दोनों की हत्या हो जाती और हमारा परिवार नष्ट हो जाता—अर्थात भारी कवि की वे पंक्तियाँ सार्थक जीवन निर्माण के लिए उपयोगी हो गया।
आगे बढ़ते सुनार ने भारतीय लेखकों के साहित्य का खूब प्रचार-प्रसार किया है। साहित्य का यह चमत्कार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को चमत्कारिक कर सकता है इसलिए सत्साहित्य का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है—
जो वस्तु भौतिक दृष्टि से नहीं देखी जा सकती, उसे रचनात्मक दृष्टि से देखा जा सकता है। ”जो वस्तु भौतिक दृष्टि से नहीं दिखती, उसे भी साहित्य की आँख से देखा जाता है।” जा सकता है।
प्राचीनकाल से ही भारतीय साहित्य में जैन साहित्य का भी बड़ा विशाल योगदान रहा है। हमारे अनेक लोकोपकारक जैनाचार्यों ने अपने जीवन का बहुभाग सर्वजनहितकारक साहित्य की पुण्यतिथि पर योगदान दिया है।
जैनधर्म में बड़े पैमाने पर प्रकाण्ड जैनाचार्य हो गए हैं जो प्रबल तर्कशील, कवि और दार्शनिक थे। वे जैनधर्म के साथ-साथ भारतीय साहित्य के अन्य क्षेत्रों में भी अपनी लेखनी के जौहर दिखाते हैं। दर्शन, न्याय, व्याकरण, काव्य, नाटक, कथा, शिल्प, मन्त्र—तन्त्र, वास्तुकला, वैद्यक आदि अनेक विषयों पर प्राचीन जैन साहित्य आज भी काफी मात्रा में उपलब्ध है, जबकि बहुत सारा साहित्य धार्मिक द्वेष, चमत्कार तथा अज्ञानता के कारण नष्ट हो गया है। गया है। हो चुका है।
भारत की अनेक कृतियों में जैन साहित्य लिखा गया है, जिनमें से कुछ प्राकृत और संस्कृत भाषा के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जैनधर्म ने अपने प्रचार के लिए लोकभाषाओं को अपनाया है: अपने समय की लोकभाषा में भी जैन साहित्य की रचनाएँ पाई जाती हैं। इसी प्रकार जर्मन विद्वान डॉ. इन्वर्टर्निट्ज ने अपने भारतीय साहित्य के इतिहास में लिखा है—’भारतीय कथाओं की दृष्टि से भी जैन साहित्य बहुत महत्वपूर्ण है; क्योंकि जैन सदा इस बात की विशेष परवाह करते थे कि उनके साहित्य को अधिक से अधिक जनता के परिचय में आये। इसी से आगमिक साहित्य तथा प्राचीनतम टीकाएँ प्राकृत में लिखी गयीं। दिगम्बरों ने पहले संस्कृत में रचनाएँ करना आरम्भ किया। बाद में १०वीं से १२वीं शताब्दी तक अपभ्रंश भाषा में, जो उस समय की जन भाषा थी, उन्होंने हिन्दी, गुजराती साहित्य को तथा दक्षिण में तमिल और कन्नड़ में भी रचनाएँ कीं। कन्नड़ साहित्य को विशेष रूप से समृद्ध किया गया है।’ (भारतीय साहित्य का इतिहास, पृ.427-428)
आज जो जैन साहित्य उपलब्ध है वह सभी भगवान महावीर के उपदेश पुराणों से सम्बद्ध है। भगवान महावीर के प्रमुख गणधर गौतम स्वामी थे। इनका मूल नाम इन्द्रभूति था, ये जाति से ब्राह्मण थे और वेद-वेदांग में पारंगत थे। जब केवलज्ञान हो जाने पर भी भगवान महावीर की वाणी नहीं खरी तो इंद्र को चिंता हुई। इसका कारण यह है कि वह इन्द्रभूति ब्राह्मण विद्वान के पास गए और युक्ति से उन्हें भगवान महावीर के समवसरण में ले आए। समवसरण में पहुँचते ही इन्द्रभूति ने जैन सिद्धांतों को ले लिया और भगवान के प्रमुख गणधर हुए। भगवान का उपदेश द्वादशांग श्रुत की रचना की। उन्होंने भगवान महावीर के उपदेशों को अवतार लेकर बारह अंग और चौदह पूर्व के रूप में निबद्ध किया। जो इन अंगों और पूर्वों का परगामी होता है, उसे जैनधर्म में श्रुतकेवली कहा जाता है। जैन परम्परा में ज्ञानियों में दो ही पद सबसे महान् गिने जाते हैं— प्रत्यक्ष ज्ञानियों में केवलज्ञानी का और परोक्षज्ञानियों में श्रुतकेवली का। जैसे केवलज्ञानी भगवान समस्त चराचर जगत को प्रत्यक्ष रूप से जानते और मानते हैं वैसे ही श्रुतकेवली महामुनि शास्त्रों में वर्णित प्रत्येक विषय को स्पष्ट रूप से जानते हैं। जब कार्तिक कृष्ण अमावस्या को भगवान महावीर का निर्वाण हुआ, उसी दिन विज्ञानकाल में गौतम स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। अपने १२ वर्ष पश्चात गौतम स्वामी को भी निर्वाणपद प्राप्त हुआ।
भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् तीन केवलज्ञानी (गौतमगणधर, सुधर्माचार्य और जम्बूस्वामी) हुए और उनके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए चं से अन्तिम श्रुतकेवली भद्रभद्र थे। इनके समय में मगध में बारह वर्ष का भयंकर दु:ख पड़ा। तब ये अपने संघ के साथ दक्षिण की ओर चले गए और लौटकर नहीं आए: दुर्भिक्ष के पश्चात् पाटलीपुत्र में भद्रभद्र स्वामी की अनुपस्थिति में जो अंग साहित्य एकत्रित किया गया था वह एक निठुर था। मूल या दूसरे पक्ष ने उसे स्वीकार नहीं किया, क्योंकि दुर्भिक्ष के समय जो साधु मगध में ही रहे थे, प्राकृतिक अवसरों के कारण वे अपने आचार में शिथिल हो गए थे। दक्खिन से जैन संघ में श्वेताम्बर सम्प्रदाय का जन्म हुआ और जिनधर्म (दिगम्बर) को भी सम्प्रदाय कहा गया तथा दोनों सम्प्रदायों का साहित्य भी पृथक्-पृथक् हो गया।
श्रुतकेवली भद्रभद्र इस युग के अंतिम श्रुतकेवली माने गये हैं जो सम्पूर्ण द्वादशांग के ज्ञाता थे। उनके शिष्य ग्यारह अंग और दस पूर्वों के ज्ञाता आचार्य हुए। फिर पाँच आचार्य केवल ग्यारह अंग के ज्ञाता हुए। पूर्वों का ज्ञान एक तरह से नष्ट ही हो गया और छुट—ज्ञान शेष रह गया। फिर चार आचार्य केवल प्रथम आचारांग के ही ज्ञाता हुए और अंग ज्ञान भी समाप्त हो गया। इस प्रकार कालक्रम के विच्छिन्न होते—होते वीर निर्वाण से ६ वर्षों के पश्चात् अंगों और पीड़ा के शेष बचे ज्ञान के भी लुप्त होने का प्रसंग उपस्थित हुआ, तब गिरनार पर्वत पर स्थित आचार्य श्री धरसेन मुनिवर ने पुष्पदन्त और भूतबली के नाम के दो श्रेष्ठ संतों को जन्म दिया। बुलाया। अपना शिष्य बनाया जिसने षट्खण्डागम नाम के सूत्रग्रंथ की रचना प्राकृत भाषा में की।
श्रुतधर—शास्त्रों को लिखने वाले आचार्यों की परम्परा में सर्वप्रथम लेखक आचार्य कौन हैं ? ऐसे प्रश्न होने पर इतिहासकारों ने बड़े आधार से महान आचार्य श्री ”गुणधर देव” का नाम लिया है। श्रीगुणधर और धरसेन ये दोनों आचार्य श्रुत के प्रतिष्ठापक रूप से प्रसिद्ध हुए हैं फिर भी गुणधरदेव, धरसेनाचार्य की अपेक्षा अधिक ज्ञानी थे और लगभग उनके दो सौ वर्ष पूर्व हो चुके हैं ऐसे विद्वान का अभिमत है अतएव आचार्य गुणधर को दिगम्बर परम्परा में लिखित रूप से प्राप्त हुआ। हुआ श्रुत का प्रथम श्रुतकार माना जा सकता है। धरसेनाचार्य ने किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की है, जबकि गुणधराचार्य ने ”पृष्ठदोषपाहुड़” ग्रन्थ की रचना की है।
ये गुणधराचार्य किनके शिष्य थे, इनका परिचय यद्यपि आज उपलब्ध नहीं है, फिर भी उनकी महान कृति से ही उनकी महानता जानी जाती है। यथा—
गुणधर और धरसेन के पूर्वापर गुरु ग्रन्थ हमें ज्ञात नहीं है, क्योंकि इसका वृत्तान्त न तो हमें किसी आगम में मिला है और न ही किसी मुनि ने बताया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन्द्रनंदी आचार्य के समय तक आचार्य गुणधर और धरसेन के गुरु शिष्य परंपरा का अस्तित्व स्मृति के गर्भ में विलीन हो चुका था फिर भी इतना स्पष्ट है कि श्री अर्हद्बली आचार्य द्वारा स्थापित संघों में ”गुणधर संघ” का नाम आया है। नंदीसंघ की प्राकृत चट्टानों में अर्हद्बली का समय वीर नि. सं. ५द्दि ओर वि. सं. लागू है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गुणधर देव अर्हद्बली के पूर्ववर्ती पर कितने पूर्ववर्ती हैं, इसे निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। यदि गुणधर की परम्परा को ख्याति प्राप्त करने में सौ वर्ष का समय मान लिया जाए तो षट्खंडागम के प्रवचनकर्ता धरसेनाचार्य से ”कसायपाहुड़” के प्रणेता गुणधराचार्य का समय लगभग दो सौ वर्ष पूर्व सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार आचार्य गुणधर का समय विक्रम पूर्व प्रथम शताब्दी सिद्ध होता है।
श्रीगुणधराचार्य को पाँचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व की दशवीं वस्तु के तृतीय पृष्ठदोस्पाहुड़ का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ था, जबकि षट्खण्डागम आदि ग्रंथों के साक्ष्य को उक्त ग्रंथों की उत्पत्ति के आधार पर ”महाकम्पयदीपाधु” का आंशिक ही ज्ञान प्राप्त हुआ था। इस प्रकार से गुणधराचार्य ने ”कसायपाहुड़” जिसका स्पष्ट ”पृष्ठदोसपाहुड़” भी है, उनकी रचना की है। सोलह हज़ार पद प्रमाण कसायपाहुड़ के विषय को संक्षेप में एक सौ अस्सी गाथाओं में ही पूर्ण कर दिया गया है।
पृष्ठज नाम प्रेयस या राग का है और दोस नाम द्वेष का है। चतुर्भुज क्रोधादि चारों क्षयों में माया, लोभ को राग रूप से और क्रोध, मान को द्वेष रूप से, ऐसे ही नव क्षयों का विभाजन भी राग और द्वेषरूप में किया गया है अत: प्रस्तुत ग्रंथ का मूल नाम ”पृष्ठदोषपाहुड़” है और उत्तर नाम ”पृथ्वी पर क्रोध” है। ”कसायापाहुड़” है। इस ग्रन्थ में कषायों की विभिन्न अवस्थाओं का एवं इनसे छूटने का विस्तृत विवेचन किया गया है, अर्थात् किस कषायों के अभाव से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है, किस कषायों के क्षयोपशम आदि से देशसंयम और सकलसंयम की प्राप्ति होती है, यह बताकर कषायों की उपशमना और क्षपणा का विधान किया गया है। यही कारण है कि इस ग्रंथ में कषायों की विभिन्न जातियों को बताकर उन्हें दूर करने का मार्ग बताया गया है।
इस ग्रन्थ की रचना गाथासूत्रों में की गई है। आचार्य गुणधरदेव स्वयं कहते हैं—”वोच्छामि सुत्तगाहा जपिगाहा जम्मि अट्ठम्मि” जिस अर्थाधिकार में लिखते हैं—जितनी सूत्र गाथायें प्रतिबद्ध हैं, उन्हें मैं कहता हूँ। इस ग्रन्थ में कुल २ घट गाथाएँ हैं, जिन्हें ”कसायपाहुड़” सुत्त की प्रस्तावना में पं. हीरालाल जी ने श्रीगुणधराचार्य रचित ही माना है अर्थात् 5 गाथाओं में विवाद के कारण भी गुणधराचार्य रचित ही निर्णय माना जाता है।
”इस प्रकार के उपसंहृत एवं गाथासूत्र में निबद्ध द्वादशांग जैन वाङ्मय के भीतर अनुसंधान करने पर यह ज्ञात हुआ है कि कसायपाहुड़ ही सर्वप्रथम निबद्ध हुआ।” इससे प्राचीन कोई अन्य रचना अभी तक उपलब्ध नहीं है।”
कषायप्राभृत ग्रंथ आचार्य परम्परा से आर्यमंक्षु और नागहस्ति नाम के आचार्यों को प्राप्त हुआ। उनसे सीखने वाले यतिवृषभ नामक नामक आचार्य ने उन पर वृत्तिसूत्र रचे, जो प्राकृत में हैं और ६००० श्लोक प्रमाण हैं। यहाँ ध्यान रहे कि ३२ अक्षर के एक अनुष्टुप छंद का १ श्लोक कहा गया है, इसलिए उस प्रकार से ६००० श्लोक प्रमाण संख्या कही गई है, अर्थात् ३२००० अक्षर की टिप्पणी है। इन दोनों कसायपाहुड़ और षट्खण्डागम नाम से महान् ग्रंथों पर अनेक आचार्यों ने अनेक टीकाएँ रची हैं जो आज उपलब्ध नहीं हैं। इनके अन्तिम टीकाकार श्री वीरसेनाचार्य हुए। ये बड़े समर्थ विद्वान् थे। चित्रांश षट्खण्डागम पर अपनी सुप्रसिद्ध टीका धवला शक सं. ४३८ में पूर्ण की। यह टीका बीस हजार श्लोक प्रमाण है तथा कसायपाहुड़ ग्रन्थ पर भी टीका लिखी गई है, वे उसे बीस हजार श्लोक प्रमाण मानकर ही स्वर्गवासी हो गए हैं। तब उनके सुयोग्य शिष्य ईसानाचार्य ने
हजारों श्लोक प्रमाण और प्रमाण प्रस्तुत किये। 75 में उसे पूरा किया गया। इस श्लोक का नाम जयधवला है और वह अनेक हजार श्लोकों का प्रमाण है। ये दोनों टीकाएँ संस्कृत और प्राकृत के सम्मिश्रण से ली गई हैं और बहुभाग प्राकृत में हैं। बीच—बीच में संस्कृत भी आ जाती है, जैसा कि टीकाकार ने उसकी प्रशस्ति में लिखा है—
षट्खण्डागम का ही अंतिम खण्ड महाबंध है जिसकी रचना भूतपूर्व आचार्य ने की थी, यह भी प्राकृत में है और इसके हजारों टीकाएँ प्रमाण हैं। इन सभी ग्रंथों में जीवतत्त्व एवं कर्मसिद्धान्त का बहुत सूक्ष्म एवं गहन वर्णन है।
चिरकाल से ये तीनों महान् ग्रन्थ मूड़बिदरी (दक्षिण कर्नाटक) के जैन भण्डार में ताड़पत्र पर सुरक्षित थे चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की प्रबल प्रेरणा से वहां के भट्टारक महोदय तथा पंचों की उदात्त भावना के फलस्वरूप अब इन तीनों का प्रकाशन हिन्दी टीका द्वारा लिखा गया। साथ हो चुका है।
ईसा की प्रथम शताब्दी में कुन्दकुन्द नाम के एक महान् आचार्य हुए हैं। इस विषय में प्रसिद्ध है कि विदेह क्षेत्र में जाकर, परमानंद स्वामी की दिव्यध्वनि सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इनके प्रवचनसार, नियमसार, रयणसार, पंचास्तिकाय और समयसार नाम के ग्रंथ अति प्रसिद्ध हैं। इनके चित्रण पाद प्राभृतों की रचनाएँ अष्टपाहुड़ ग्रंथों से आठ प्राभृत उपलब्ध हैं।
इनके शिष्य उमास्वामी नाम के आचार्य थे, जिन्होंने जैन वाङ्मय को संस्कृत में निबद्ध करके तत्त्वार्थसूत्र नाम के ग्रंथ की रचना की। इस ग्रन्थ के दस अध्यायों में जीव आदि सात तत्वों का सुन्दर विवेचन किया गया है। अपने—अपने धर्मों में गीता, कुरान और बाइबिल को जो स्थान प्राप्त हुआ है, वही स्थान जैनधर्म में तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्थ को प्राप्त हुआ है। दिगम्बर और श्वेताम्बर भी इसे समान रूप से मानते हैं। दोनों ही परम्पराओं के आचार्यों ने इसके ऊपर अनेक टीकाएँ रची हैं, जिनमें पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि एवं अकलंकदेव का तत्त्वार्थराजवार्तिक और विद्यानन्दि आचार्य का तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक उल्लेखनीय है। दोनों ही वार्तिकग्रन्थ संस्कृत में बड़े ही प्रौढ़ शैली में रचे गए हैं और जैनदर्शन के अपूर्व ग्रन्थ हैं।
दर्शन और न्यायशास्त्र में स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन की रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। स्वामी समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा नाम का एक ग्रन्थ लिखा है, जिसमें स्याद्वाद का सुन्दर विवेचन करते हुए अन्य दर्शनों की विचारपूर्ण समीक्षा की गई है। इस आप्तमीमांसा पर स्वामी अद्वैतंकदेव ने ‘अष्टशती’ नामक ग्रंथ लिखा है और अष्टशती को मोड़ा है—मिलाकर स्वामी विद्यानन्द आचार्य ने आप्तमीमांसा की पंक्तियों पर अष्टसहस्री नाम की वृत्तांत लिखी है। अष्टसहस्री इतनी गहन है कि इसे करने में इतना कष्ट का अनुभव होता है कि आचार्यदेव ने स्वयं इसे कष्टसहस्री कहा है। इस अत्यन्त कठिन ग्रन्थ का सन् १९९६-२० में पू. गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने सरल हिन्दी में अनुवाद करके विद्वत जगत के मस्तक को गौरवान्वित किया है।
पुराण साहित्य में महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण आदि ग्रंथों के नाम उल्लेखनीय हैं। जैन पुराणों का मूल प्रतिपाद्य विषय पवित्र शलाका पुरुषों के चरित्र हैं। इनमें २ तीर्थंकर, २ चक्र, ९ बलदेव, ९ वासुदेव (नारायण) और ९ प्रतिवासुदेव (प्रतिनारायण) हैं। उनमें से कुछ पुरुषों का पुण्यचरित्र वर्णित किया गया है जो उन्हें पुराण कहते हैं। हरिवंशपुराण में बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ और नवमें नारायण श्रीकृष्ण का वर्णन करते हुए कौरव और पांडवों का वर्णन किया है तथा पद्मपुराण में आठ बलभद्र श्रीरामचंद्र एवं नारायण लक्ष्मण का वर्णन किया है। इस तरह से ये दोनों ग्रंथ: जैन महाभारत और जैन रामायण कहे जाते हैं। इनके सम्पूर्ण चरित ग्रंथों का तो जैन साहित्य में भंडार भरा है। सकलकीर्ति आदि आचार्यों ने अनेक चरित ग्रंथ रचे हैं। आचार्य जटासिंहनन्दि का वरांगचरित एक सुन्दर पौराणिक काव्य है। काव्यसाहित्य भी कम नहीं हैं। वीरनन्दि का चन्द्रप्रभचरित, हरिचंद्र का धर्मशर्माभ्युदय, धनंजय कवि का द्विसन्धन और वाग्भट्ट का नेमिनिर्वाण काव्य उच्च कोटि के संस्कृत महाकाव्य हैं।
अपभ्रंश भाषा में तो इन पुराणों और चरित ग्रंथों का संस्कृत की अपेक्षा भी बाहुल्य है। अपभ्रंश भाषा में भी जैन ग्रंथों ने खूब रचनाएँ की हैं।
जैनधर्म का कथा साहित्य भी विशाल है। आचार्य हरिषेण का कथाकोश बहुत प्राचीन (ई. स.जी.डब्ल्यू.टी.) है। आराधना कथाकोश, पुण्याश्रव कथाकोश आदि अन्य भी बहुत से कथाकोश हैं जो धर्माचरण के द्वारा शुभ फल और अधर्माचरण का अशुभ फल दिखाया गया है। चंपू काव्य भी जैन साहित्य में बहुत हैं। सोमदेव के यशस्तिलक चम्पू, हरिचंद्र के जीवनधर चम्पू और अर्हद्दस के पुरुदेव चम्पू उत्कृष्ट चम्पू काव्य हैं। गद्य ग्रंथों में वादीभिषेक की गद्यचिंतामणि उल्लेखनीय है। नाटकों में हस्तिमल्ल के विक्रांत कौरव, मैथिलीकल्याण, अंजनापवनंजय आदि दर्शनीय हैं। स्तोत्र साहित्य भी कम नहीं हैं। आचार्य श्रीमानतुंग का भक्तामर स्तोत्र, महाकवि धनंजय का विषापहार, कुमुदचंद्र का कल्याण मन्दिर आदि स्तोत्र साहित्य की दृष्टि से भी उत्कृष्ट हैं। स्वामी समन्तभद्र ने स्वयंभू स्तोत्र में जैनदर्शन के उच्च कोटि के सिद्धान्तों को कूट-कूट कर भर दिया है। वह एक दार्शनिक है। नीति ग्रंथों की भी कमी नहीं है। वादीभिषेक का क्षत्रचूड़ामणि काव्य एक नीतिपूर्ण काव्य ग्रंथ है। आचार्य अमितगति का सुभाषितरत्नसंदोह, पद्मनन्दि आचार्य की पद्मनन्दि पञ्चिंवशतिका और महाराज अमोघवर्ष की प्रश्नोत्तर रत्नमाला भी सुन्दर नीतिग्रंथ हैं।
इसके अनुरूप ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, कोष, छंद, अलंकार, गणित और राजनीति आदि विषयों पर भी जैनाचार्यों की अनेक रचनाएँ आज उपलब्ध हैं। ज्योतिष साहित्य में केवलज्ञान प्रश्न चूड़ामणि और आयुर्वेद में उग्रादित्य आचार्य का कल्याणकारक ग्रन्थ आया है। व्याकरण में पूज्यपाद देवनन्दि का जैनेन्द्र व्याकरण और शाक्तायन का शाक्तायन व्याकरण उल्लेखनीय है। कोष में धनंजय नाममाला और विश्वलोचन कोष, अलंकार में अलंकार चिंतामणि, गणित में महावीर गणितसार संग्रह और राजनीति में सोमदेव का नीतिवाक्यमृत आदि स्मरणीय हैं।
यहाँ यह बात कहना गलत नहीं होगा कि दक्षिण और कर्नाटक का मूल जैन साहित्य है, वह सब ही दिगंबर जैन शास्त्रों की रचना है तथा जिनधर्म के प्रमुख आचार्य हैं, वे प्रायः सब ही कर्नाटक देश के निवासी थे और वे न केवल संस्कृत और संस्कृत थे। । प्राकृत के ही ग्रंथकार थे और कन्नड़ भाषा के भी प्रसिद्ध ग्रंथकार थे।
तमिल भाषा का साहित्य भी पारंपरिक काल से ही जैनधर्म और जैनसंस्कृति से प्रभावित है। ‘कुरल’ और ‘नालदियार’ नाम के दो महान ग्रंथ उन जनाचार्यों की कृतियाँ हैं जो तमिल देश में बस गई थीं।
गुजराती भाषा में भी दिगंबर जैन कविताओं ने अनेक रचनाएँ की हैं, जिनमें से विशेष विवरण ‘जैन गुर्जर कविताएँ’ से लिया गया है।
दिगम्बर जैन साहित्य में हिन्दी ग्रंथों की संख्या भी बहुत है। यहाँ लगभग 10 वर्षों में अधिकांश ग्रन्थ हिन्दी में रचे गये हैं। जैन श्रावक के लिए प्रतिदिन स्वाध्याय करना आवश्यक है, अत: जनसाधारण की भाषा में जिनवाणी को निबद्ध करने की प्रक्रिया से ही होती है। इसी से हिन्दी जैन साहित्य में गद्यग्रंथ लिखे गए हैं। लगभग सोलहवीं शताब्दी से लेकर अब तक हिन्दी गद्य ग्रंथ जैन साहित्य में उपलब्ध हैं और इसलिए हिन्दी भाषा के निरंतर विकास का अध्ययन करने वालों के लिए वे बड़े काम के हैं।
पद्यसाहित्य में पं. दौलतरामजी का छहढाला जैन सिद्धान्त का रत्न है। पं. टोडरमलजी, पं. दौलतरामजी, पं. सदासुख, पं. बुधजन, पं. दयानतराय, भैया भगवतीदास, पं. जयचन्द आदि अनेक कृतियों ने अपने समय की धुँधली हिन्दी भाषा में गद्य अथवा पद्य अथवा दोनों में अपनी रचनाएँ की हैं। विनती, पूजापाठ, धार्मिक भजन आदि भी पर्याप्त हैं। पाद्य साहित्य में भी अनेक पुराण और चरित रचे गए हैं।
हिन्दी जैन साहित्य की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें शान्तरस और वैराग्यरस की सरिता ही सर्वत्र प्रवाहित दर्शनगोचर होती है। संस्कृत और प्राकृत के जैन ग्रंथकारों के समान हिन्दी जैन ग्रंथकारों का भी एक ही लक्ष्य रहा है कि मनुष्य किसी भी तरह के सांसारिक विषयों में द्विन्द्व से निकलकर अपनी को पहचाने और अपने उद्देश्य का प्रयास करे। इसी लक्ष्य को पूरा करें सबने अपनी—अपनी रचनाएँ की हैं।
यह तो हुआ भगवान महावीर के शासन में लगभग दो हजार वर्षों के मध्य हुए आचार्य, विद्वान कवि आदि लेखकों में कटिपय साहित्य रचनाकारों के कृतित्व का संक्षिप्त परिचय। बीसवीं सदी में भी जैन साहित्य से अत्यन्त समृद्ध हुई है।
बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज के शिष्य आचार्य श्री सुधर्मसागर जी महाराज, आचार्य श्री कुंथुसागर जी महाराज द्वारा सुधर्म श्रावकाचारक, चौबीस तीर्थंकर स्तुति आदि प्रौढ़ ग्रंथ रचे गए हैं। आचार्य श्रीपयासागर जी के शिष्य भारतगौरव आचार्य श्री देशभूषण महाराज ने धर्मामृत, परमोकार आदि ग्रंथ लिखे हैं। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने संस्कृत काव्य साहित्य एवं हिन्दी टीकानुवाद आदि कार्य किये हैं। इसी प्रकार अन्य आचार्य—मुनिराज आदिकों की भी कतिपय शास्त्रीय रचनाएँ संस्कृत—हिन्दी—प्राकृत में गद्य—पद्य दोनों प्रकार की प्राप्त होती हैं।
वर्तमान समय में भी आचार्य—उपाध्याय—मुनि—आर्यिका आदि अपनी रत्नत्रय साधना के साथ ज्ञानराधना के क्षेत्र में वृहत् मात्रा में साहित्य लेखन करते देखे जा रहे हैं। इनमें कुछ उन्नत जनभाषा में जिनधर्म प्रभावना के साहित्य लेख हैं, इसलिए कुछ प्राचीन आचार्य संस्कृत का निर्वाह करते हुए प्रौढ़ भाषा में जनहितकारी स्वाध्याय के ग्रंथ प्रदान करते हैं। आचार्य श्री विद्यानंदीजी, आचार्य श्री विद्यासागर जी, आचार्य श्री कनकंदी जी, आचार्य श्री पुष्पदंतसागर जी, आचार्य श्री विरागसागर जी आदि कतिपय विशिष्ट आचार्यों की साहित्यिक कृतियाँ भी वर्तमान की उपलब्धियाँ हैं तथा अनेकानेक उपाध्याय-मुनिराजों की भी लेखनी समाज में व्यापक हैं।
इसी संस्था में दिगम्बर जैन साध्वियों द्वारा साहित्य लेखन का शुभारम्भ पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने किया। समयसार आदि अनेकानेक संस्कृत ग्रंथों की हिन्दी टीकाएँ लिखीं, जैनभारती आदि मूल ग्रंथ लिखे गए, पूजा-विधानों में इंद्रध्वज और कल्पद्रुम जैसे विधानों ने सम्पूर्ण जैन समाज में चमत्कारिक रूप से प्रस्तुत किया है। बालक—युवा, नारी—प्रौढ़—विद्वान सभी के हित को ध्यान में रखकर लिखे गए शास्त्र तथा सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्तिक सूत्रग्रंथ षट्खण्डागम के सोलह ग्रंथों की ”सिद्धान्त चिंतामणि” नाम की संस्कृत टीका ३२५ पृष्ठों में लिखकर कीर्तिमान स्थापित किया गया है।
उनके अनुसरण करते हुए अन्य अनेक साध्वियों ने भी ग्रंथ लेखन किये हैं जिनमें आर्यिका श्री जिनमती माताजी, आर्यिका श्री आदिमती माताजी (पू. ज्ञानमती माताजी की शिष्याएँ), गणिनी आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी, आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी आदि के नाम प्रमुख हैं। मुझे भी (आर्यिका चन्दनामती) पूज्य माताजी की प्रेरणा से षट्खण्डागम की सिद्धान्तचिन्तामणि संस्कृत टीका के सभी ग्रंथों की एवं ऋषभदेव चरितम् ग्रन्थ की हिन्दी टीका करने तथा श्री महावीर स्तोत्र की संस्कृत-हिन्दी टीका लिखने का सौभाग्य मिला तथा कतिपय छोटे—बड़े साहित्य (लगभग दो ) सौ ग्रंथ) गुरुकृपा से मेरे द्वारा भी सृजित हुए हैं।
जैन समाज का विद्वतवर्ग तो अपनी लेखनी सदा—सर्वदा की भाँति आज भी चल ही रही है। प्राचीन वंशावली पं. लालाराम जी शास्त्री मुरैना (महापुराण के अनुवादक), पं. भिक्खुचन्द शास्त्री, पं. सुमेरचंद्र दिवाकर, पं. इन्द्रलाल शास्त्री, पं. मोतीचंदजी कोठारी, पं. वैâलाशचन्द सिद्धान्ताचार्य, पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, पं. लाल बहादुर शास्त्री, पं. बाबूलाल जमादार, पं. फूलचन्द सिद्धांतशास्त्री, पं. हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, पं. ए. एन. उपाध्ये, पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं, जो साहित्य की पूर्व सेवा की है।
अन्त में सम्यकज्ञान की ज्योति सभी के हृदय में प्रज्वलित हो इस अभिलाषा के साथ—