काल परिवर्तन के साथ—साथ जिनेन्द्र भगवान की वाणी में आजकल कुछ ऐसे परिवर्तन होने लगे हैं जो दूध पानी की तरह इस प्रकार एकरूप हो रहे हैं कि साधारण मनुष्य तो उनकी वास्तविकता, अवास्तविकता के बारे में जान ही नहीं सकता है। आनन्दनिधान अपराजित मन्त्र जो जिनधर्म और उसके अनुयायियों का मूलमंत्र माना जाता है, उसका मूल स्वरूप ”षट्खण्डागम” नामक आगम ग्रन्थ में इस प्रकार मिलता है—
इसी ग्रन्थ में धवला टीकाकार श्री वीरसेनाचार्य ने पुस्तक में एक ”अतिशयपूजार्हत्वात् वा अर्हंत” इस वाक्य से ”अरहंताणं” पद की व्याख्या करके इसे भी शुद्ध माना है तथा टिपप्पण में एक ”अरुहंताणं” पद भी दिया है। प्रसिद्धि में नहीं है, वर्तमान में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में ”अरिहंताणं” और ”अरहंताणं” ये दोनों ग्रन्थ प्रचलित हैं। श्वेताम्बर परम्परा में प्रिय: ”नमो अरिहंताणं” आदि ग्रन्थ देखा जाता है।
इस मंत्र को पढ़ने में भी लोग जल्दी और गलती का कारण बनते हैं। शत—प्रतिशत शुद्ध मंत्र पढ़ने वाले बहुत कम स्त्री—पुरुषों को देखा जाता है। यही कारण है कि इस महामंत्र के उच्चारण-चिंतन-मनन करने वालों को पूर्णफल की प्राप्ति नहीं हो पाती है। जनता से मंत्र का शुद्ध उच्चारण कराने में भी ध्यान देना चाहिए। यदि इसकी शुद्ध लेखन और पाठन की प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाएंगी तो अच्छे परिणाम सामने आएंगे और संतान—युवाओं में इसकी लेखनी के प्रति उत्तम संस्कार बनेंगे।
आजकल पत्रिका में नवीन प्रकाशन के माध्यम से जन साधारण के मुंह पर चटारी मंगल का प्राथमिक पाठ नजरगोचर हो रहा है। जैसे—”अरहंता मंगलं, अरहंता लोगुत्तमा, अरहंते शरणं पवज्जामि” इत्यादि, और प्राचीन ग्रंथों के अनुसार विभक्ति रहित पाठ ही मान्य होना चाहिए। आचार्यश्री शुभचन्द्र स्वामी द्वारा रचित ज्ञानार्णव ग्रंथ में चत्तारि मंगल का विभक्ति रहित पाठ ही आया है। यथा—चत्तारिमंगलं—अरहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा—अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिप्पन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि शरणं पवज्जामि—अरहंत शरणं पवज्जामि, सिद्ध शरणं पवज्जामि, साहूकार शरणं पव्वाजामि, केवलिप्पन्नत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
यही प्राचीन ग्रन्थ क्रियाकलाप तथा प्रतिष्ठातिलक गंरथ में भी है, जब कि विभक्तियुक्त आधुनिक ग्रन्थ को देखकर एक बार सन् १९९१ में जब मैं ब्रह्मचारिणी कु. माधुरी के रूप में उस समय पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने मुझे इस विषय में अनेक संतों एवं पुस्तकों के पास भेंट किया था। उनसे पंडित पन्नालाल जी साहित्याचार्य के पत्र से विदित हुआ कि ”यह विभक्ति लगाकर प्राकृत ग्रंथ श्वेताम्बर परम्परा से आया है” तथा क्षुल्लक श्री सिद्धसागर महाराज मौजमाबाद (दीक्षित आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज) के पत्र में था कि ”प्राकृत व्याकरण के अनुसार यह चत्तारि मंगल पाठ में विभक्तियाँ प्रयुक्त की गई हैं और ”एदे छ च समाणा” सूत्र के अनुसार आ और अ को समान मानक अरहंता में आ के स्थान पर आ गया है: यह विभक्ति सहित पाठ भी विभक्ति रहित है ‘यदि फल की’ ”तो यह फल प्राचीन पाठ से ही प्रतीत होता है, अत: फल को विभक्ति रहित पाठ ही चलाना चाहिए।” श्वेताम्बर संप्रदाय द्वारा मूल पाठ में किए गए परिवर्तन को हमें मान्यता नहीं देना चाहिए।
स्व. पं. मोतीचंद जी कोठारी—फलतन्त्र, पंडित सुमेरचंद जी दिवाकर—सिवनी, पंडित पन्नालाल सोनी ब्यावर आदि पत्रिकाओं से भी पूज्य माताजी की इस विषय में चर्चाएं हुई थीं, उन सभी ने प्राचीन ग्रंथों के आधार पर बिना विभक्ति वाला पाठ ही उचित बताया था: माताजी का कहना यह है कि मंत्र व्याकरण कुछ अलग ही होते हैं, उसका ज्ञान हम लोगों को नहीं है, इसलिए मूलमंत्रों में अपने मन से विभक्तियाँ नहीं लगानी चाहिए।
सन् १९९० डिग्री की बात है, राजस्थान के एक शहर में श्रीकल्पद्रुम महामंडल विधान का विशाल आयोजन था। उन दिनों मेरा भी वहां जाना हुआ था। विधान के प्राचीन दिनों में ही काफी अशांति का वातावरण बना हुआ था। वहाँ विराजित आचार्य संघ के साधु-साध्वी भी बड़े अशांत थे और विधान में कोई अपना सानिध्य प्रदान नहीं करते थे। एक आर्यिका माताजी ने मुझसे अनेक बातें कही हैं। संभवतः: कई विद्वान प्रतिष्ठाचार्यों को एक साथ आमंत्रित करने के कारण भी भारी कलह और विवाद की स्थिति बन गई थी। २—३ दिन बाद जब मैं वहां से वापस आने लगी तो विधान के प्रमुख पदाधिकारियों से मेरी बात हुई, वे भी बड़े खिन्न मन से कहने लगे कि लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी विधान में कोई आनंद नहीं आ रहा है और ना जाने क्यों वातावरण पूरी तरह विषाक्त हो गया है। किसी कारणवश एक विद्वान को तो रात के १२ बजे गुप्तरूप से विदा कर दिया गया।
पुन: एक डॉक्टर विद्वान ने मुझे मंत्र का एक छपा हुआ कार्ड दिखाया है कि इस मंत्र की सवा लाख जाप्य हो रही हैं। मेरे मन्त्र ही कहा—अरे ! यह कल्पद्रुम विधान का मूलमंत्र किसने बदलने का साहस किया है ?” संभवत: अशांति का प्रमुख कारण यह मूल मंत्र ही है” यही धारणा मेरे मन में रही पुन: मैं वह कार्ड लेकर हस्तिनापुर आ गई। मैंने पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी से जब सारी घटना बताई है तो यह भी यही कहा है कि जिसने भी अपनी बुद्धि का अभ्यास करके इस मंत्र में परिवर्तन किया है, उसे ही अशांति का मूल श्रेय है।
उत्साहित ज्ञानार्णव ग्रंथ के आधार से माताजी ने कल्पद्रुम विधान में त्रयोदश अक्षरी निम्न मंत्र रखा है—”ऊँ अर्हतसिद्धसयोगकेवली स्वाहा”।
इस मंत्र में परिवर्तन करके ”ऊँ ह्रीं अर्हतसिद्धसयोगकेवलिभ्यो नम:” छपाया गया और उसी का अनुष्ठान हुआ। संशोधन करने वाले विद्वान् सर ने अपने मन से ”ह्रीं” का प्रयोग किया और केवली को चतुर्थी विभक्ति में ”केवलिभ्यो” कर दिया एवं स्वाहा के स्थान पर नम: कर दिया अत: संशोधन और परिवर्धन के साथ यह मंत्र १५ अक्षरी हो गया।
पहली बात तो आचार्य श्री शुभचंद्र जैसे महान विद्वान द्वारा लिखित ग्रंथ में उपलब्ध इस मंत्र में संशोधन करने का उन्हें अधिकार ही नहीं था। क्या उन आचार्यदेव को नम: या स्वाहा के योग में चतुर्थी विभक्ति प्रयोग करने का ज्ञान नहीं था? या ह्रीं और नम: का प्रयोग नहीं करके उन्होंने क्या मंत्र को अधूरा कर दिया था? अन्यथा परिवर्तन का यह अतिसाहस क्यों किया गया ?
दूसरी बात कल्पद्रुम विधान की रचयिता गणिनी माताजी स्वयं उन दिनों हस्तिनापुर में विराजमान थीं। मंत्र में या किसी भी संशोधन से पूर्व एक बार उनसे भी परामर्श लेना चाहिए था। वे भी व्याकरण—छन्द आदि की ज्ञाता हैं परन्तु इनका अध्ययन किया गया है कि मंत्रों का व्याकरण अलग ही होता है। पूर्वाचार्य उनकी अच्छी ज्ञाता होते थे, अत: हमें उनके द्वारा निर्मित मंत्रादिक में अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
यह साक्षात् घटना मैंने आपको बताई है कि एक मंत्र में परिवर्तन करने से कितना आनंद हो सकता है। इस विषय में साधुओं तथा विचारकों को सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि किसी भी नियम में एक पंक्ति का भी परिवर्तन अपने मन से नहीं करना चाहिए।
अभिषेक पाठ में जो पुरानी शांतिधारा फैली है उसमें छिन्द—छिन्द, भिन्द—भिन्द क्रिया का प्रयोग है और अन्त में एक वाक्य है—”इत्यनेन मंत्रेण नवग्रहार्थं गन्धोदकधारा वर्षणम्”! इन दोनों बातों के लिए एक आचार्य महाराज ने एक बार मुझसे कहा कि छिन्द—छिन्द के स्थान पर ”छिन्दि—छिन्दि भिन्दि—भिन्दि” बोलना चाहिए और ”नवग्रहशांत्यर्थं गन्धोदकधारा वर्षणम्” पाठ बोलना चाहिए। उन्होंने अपने अभिप्राय से यह भी बताया कि व्याकरण के अनुसार ”छिन्द—भिन्द” क्रिया गलत है और ग्रहों की शांति हेतु ही शांतिधारा की जाती है न कि ग्रहों के लिए अत: शांतिर्थं शब्द अवश्य जोड़ना चाहिए।
हालाँकि उन मुनिश्री की बात बिल्कुल सच है। छिद्—भिद् धातु से लोट् लकार मध्यम पुरुष के एकवचन में ”छिन्दि—भिन्दि” क्रिया का रूप सिद्ध होता है क्योंकि इस शांतिधारा के अतिरिक्त कुछ प्राचीन मंत्रों में भी ”छिन्द—छिन्द—भिन्द—भिन्द” का प्रयोग देखने में आया है। हो सकता है उन लोगों को कहीं मंत्र शास्त्रों में ”छिन्द—भिन्द” क्रिया मिली हो इसलिए उन्होंने शांतिधारा एवं विभिन्न मंत्रों में इस क्रिया का प्रयोग किया हो।
इस विषय में पूज्य माताजी बता रही हैं कि स्व.ब्र. पं. श्री लालजी शास्त्री ने कहा कि सभी धातुओं को भवादि गण में भी प्रवाहित किया जा सकता है जिससे छिन्द—छिन्द, भिन्द—भिन्द रूप भी बन सकते हैं।
इसी शांतिधारा में ”सर्वदु:खं हन हन दह दह……… यथा ग्रंथ के ऊपर भी एक आचार्य मुनिवर की शंखनाद का पत्र पूज्य माताजी के नाम से आया था कि हन धातु से लोट् लकार में तो ”जहि जही” फेक्ट है न कि हन हन। तब माताजी ने उन्हें भी यही उत्तर लिखा कि पुराने कुछ मंत्रों में भी ”हन हन दह दह” लिखा आता है, इसमें कोई संशोधन नहीं सोचा जा सकता है। ज्ञानार्णव में मुनियों के ध्यान के प्रकरण में एक सरस्वती मंत्र है जिसमें ”हन हन दह दह” पढ़ा गया है। ऐसे कई विकल्प आने के बाद पूज्य माताजी ने एक नई शांतिधारा बनाई जिसमें वर्तमान व्याकरण के अनुसार ”छिन्दि छिन्दि भिन्दि भिन्दि” का प्रयोग किया है तथा आधुनिक दुर्घटनाओं की भावनाओं को टालने के लिए नए शब्द लिए हैं। जैसे-सर्व भूकंपदुर्घटना भयं छिन्दि छिन्दि भिन्दि भिन्दि, सर्ववायुयानदुर्घटना भयं, सर्व साम्प्रदायिक विद्वान्…….आदि। यह शांतिधारा त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित होने वाली पूजन विधान की पुस्तक में छप चुकी है और खूब प्रचलित भी हो चुकी है।
यहां प्रसंगानुसार इसी प्रकार का एक नमूना और प्रस्तुत है कि पूज्य माताजी ने अपने द्वारा रचित संस्कृत पद्य साहित्य में अनेक श्लोकों के पादान्त में ”अनुस्वार” का प्रयोग किया है। जैसे—
जब संस्कृतज्ञ विद्वान उनकी रचनाओं को देखकर अनुस्वार के बारे में पूज्य माताजी से इस संभावित त्रुटि की ओर संकेत करते हैं तो माताजी उन्हें जैन व्याकरण ”कातन्त्र—रूपमाला” का सूत्र नहीं कहती हैं। २ ”विरमे वा” सूत्र मिलते हैं कि केवल इसी व्याकरण में श्री शर्ववर्मा आचार्य ने यह विशेष नियम बताया है कि पादान्त में अनुस्वार भी विकल्प से होता है। इस जैन व्याकरण के नियम को दर्शन हेतु ही मैंने कहीं—कहीं श्लोक के अन्त में अनुस्वार का भी प्रयोग किया है। संभवत: हमारे जैन शास्त्र को ही यह विशेष नियम ज्ञात नहीं होगा, इसलिए माताजी की कृतियों में उन्हें नयापन लगता होगा।
इसी तरह से बहुत कुछ संभव है कि प्राचीन पाठकों को किसी मंत्र व्याकरण ग्रंथ में ”छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द” का कोई विशेष नियम ध्यानपूर्वक हुआ हो तभी वह यह ग्रंथ रखा हो।
इस युग में तो मनुष्य की न जाने वैसी मानसिकता बन गई है कि कहीं किसी ग्रंथ में उसके मन के प्रतिकूल बात दृष्टिगत हुई बस तुरन्त में कुछ न कुछ परिवर्तन कर दिया। जैसे कवि दयानतराय द्वारा रचित पंचपरमेष्ठी की आरती में से आजकल ”छठी ग्यारह प्रतिमाधारी, श्रावक वन्दों आनन्दकारी” वाली दोपीसों को एकान्तपक्षियों ने हटा दिया है। कानून के परिप्रेक्ष्य में किसी की कृति में संशोधन करना नैतिक अपराध भी माना जाता है। अंततः तो न्याय ग्रंथों में भी जैनाचार्यों ने सिद्धांतों पर कुठाराघात करके ही अपने अनेकान्त पक्ष को सिद्ध किया है, तो क्या धार्मिक सहिष्णुता के कारण में भी हमारे विद्वान संशोधन कर अपनी विचारधारा का परिचय देंगे?
काफी दिनों से योजना एवं आम जनता के द्वारा बात आ रही थी कि कविवर दयानंतराय द्वारा रचित दशलालक्षण पूजन में जो ब्रह्मचर्य धर्म के अनुरूप अति हैं—
इन देवताओं को दशक्षण पर्व में प्रतिदिन अनेकों बार देखा जाता है: लोग स्त्रियों को बड़ी हेय दृष्टि से देखने के कारण होते हैं। दूसरी बात यह है कि तीर्थंकर आदि जिन महापुरुषों ने विवाह करके गृहस्थ धर्म का पालन किया है, क्या उनके ऊपर भी आये हुए भाव घटित होते हैं एवं तीर्थंकर माता जैसी स्त्रियों में महाव्रती आर्यिकाओं में और शीलवती नारियों में क्या विषबेल शब्द शोभास्पद लगता है ? इस प्रश्न के साथ अनेक लोगों ने पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी से अपेक्षा की कि आप इन स्मृतियों में कुछ संशोधन करें तब भी माताजी ने यही कहा कि मैं किसी की कृति में संशोधन नहीं करूँगी। पुन: कुछ भक्तों के विशेष आग्रह पर उन्होंने दशलक्षण पर्व की नई पूजा बनाई जिसमें ब्रह्मचर्य धर्म के अर्घ्य वाले पद निम्न पंक्तियों में लिखे हैं—
पूज्य माताजी का कहना है कि मुनियों के लिए ध्यानस्थ अवस्था में स्त्रियों की अशुचिता का वर्णन तो ज्ञानार्णव आदि ग्रंथों में भी आया है और अन्त में यह भी प्रकट किया गया है कि सभी स्त्रियाँ इन राक्षसों से युक्त नहीं होतीं। ज्ञानार्णव का एक श्लोक यहाँ प्रसंगोपात्त उद्धृत किया जा रहा है—
अर्थात् अनेक स्त्रियाँ ऐसी हैं जो अपने पतिव्रतपन से, महत्त्व से, चरित्र से, विनय से और विवेक से इस पृथ्वी तल को भूषण करती हैं।
इन प्रकरणों के बावजूद भी यहाँ यह देखना है कि पूजन में ऐसी वस्तु को देने का कोई आधार नहीं है, क्योंकि पूजा श्रावक-श्राविका आदि ही करते हैं मुनिगण तो करते नहीं हैं अत: गृहस्थों के लिए तो एकदेश ब्रह्मचर्य (शीलव्रत) का ही उपदेश स्नानस्पद लगता है। जैसा कि पूज्य माताजी ने स्वरचित पूजन की स्मृति में प्रकट किया है कि मुनिगण पूर्ण ब्रह्मचारी होते हैं और श्रावक एकदेश ब्रह्मचर्य का पालन कर अपना जीवन धन्य करते हैं। जैसे—सेठ सुदर्शन, सती सीता आदि के उदाहरण आगम में भरे पड़े हैं।
दयानतराय की आधारशिला पर तीर्थंकर, चक्र आदि तद्भव मोक्षगामी महापुरुष भी काग (कौवे) जैसे निम्न श्रेणी में आते हैं जबकि किसी अपेक्षा से गृहस्थ धर्म भी मुनिधर्म का लघु भ्राता कहा गया है। उन विचारों पर ध्यान देकर अब नई प्रेरणा को समाज में लाने की आवश्यकता है।
इस प्रकार मैंने ये कटिपय आगम परिवर्तन वाले पाठों से होने वाली हानियों के बारे में प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। ये तो छोटे-छोटे उदाहरण हैं आज काफी बड़े बदलाव करते हुए भी कुछ विद्वान बिल्कुल दुष्ट नहीं हैं और विज्ञान की देखी-देखी कुछ साधु-साध्वियों ने भी इस ओर कदम को बढ़ाया है। जिसके बारे में मेरा तो आप सबसे यही कहना है कि प्राचीन आचार्य परम्परा का नाममात्र से निर्वाह करने का कार्य हम और आप सबके ऊपर है इसलिए आगम ग्रंथ में परिवर्तन को स्वप्न में भी नहीं देखना चाहिए।
र : श