सब इंद्रगण इंद्राणियों के, साथ जहं पे आवते।
परिवार वैभव भी असंख्यों, साथ में ही लावते।।
ऐसे रुचकवर अद्रि पे, उत्तरदिशी जिनधाम को।
जिनबिम्ब को भी पूजते, नहिं विघ्न आते नाम को।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
सुरगंगा सम निर्मल जल ले, श्रीजिन पूज रचाऊँ।
स्वर्णखचित भृंगार नाल से, धारा तीन कराऊँ।।
रुचकवराचल उत्तरदिश में, जिनगृह नित्य जजूँ मैं।
शिवपथ के सब विघ्न टाल के, जिनपद शीघ्र भजूं मैं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उत्तरदिक सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर चंदन घिस, जिनपद पूज रचाऊँ।
कर्र्म कालिमा दूर भगाकर, चित्त प्रसन्न बनाऊँ।।रुचक.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उत्तरदिक सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रकिरण सम तंदुल उज्ज्वल, जिनपद पूजन आऊँ।
निज आतमगुण उज्ज्वल हेतू, सुंदर पुंज चढ़ाऊँ।।
रुचकवराचल उत्तरदिश में, जिनगृह नित्य जजूँ मैं।
शिवपथ के सब विघ्न टाल के, जिनपद शीघ्र भजूं मैं।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उउत्तरदिक सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
विविध पुष्प मंदार मालिका, दशदिश गंध भरे हैं।
मदनजयी जिनपूजन करते, दशदिश सुयश भरे हैं।।रुचक.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उउत्तरदिक सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
अमृतिंपड सदृश उत्तम चरु, घ्राणनयन मनहारी।
क्षुधावेदनी दूर करन को, जिनपूजा विस्तारी।।रुचक.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरिउत्तरदिक सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नदीप सम ज्योति जलाकर, तुम पद पूज रचाऊँ।
मोहमहातम अंतर का हर, ज्योति अकंपित पाऊँ।।रुचक.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उत्तरदिक सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्निपात्र में धूप खेवते, कर्म जले दुखकारी।
निजआतम निर्मल होते जन, पूर्ण सौख्य अधिकारी।।रुचक.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उउत्तरदिक सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल सेब अनार फलों से, पूजत पुण्य भरे हैं।
अतिशय सहित पुण्य प्रकृति का, क्षण में बंध करे हैं।।रुचक.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उउत्तरदिक सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
उदक गंध अक्षत माला चरु, दीप धूप फल लाऊँं।
ताल मृदंग बजावत गावत, तुम पद अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
रुचकवराचल उत्तरदिश में, जिनगृह नित्य जजूँ मैं।
शिवपथ के सब विघ्न टाल के, जिनपद शीघ्र भजूं मैं।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उत्तरदिक सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनपद सरसिज मािंह, मैं जल से धारा करूँ।
भव जल को जल देय, परम शांति पाऊं सदा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
बेला जुही गुलाब, कुसुमांजलि अर्पण करूं।
आतम गुण की गंध, पैले चारों दिश विषे।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
धर्मराज्य अधिपति प्रभो, धर्मचक्र करतार।
विघ्न अद्रि को वङ्कासम, तुम पूजा हितकार।।१।।
इति श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उत्तरदिक्स्थाने मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
नित शचीपति१ पूजित चरण, पंकज जिनेश्वर देव हैं।
ईप्सित२ पदारथ हेतु भविजन, करें तुम पद सेव हैं।।
नग रुचकवर उत्तरदिशी, जिनगेह शाश्वत सोहना।
पूजूँ सदा कर अर्घ्य लेकर, मिले जिनपद मोहना।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उत्तरदिक सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अर्हं शाश्वतजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो नम:।
प्रभु अनंतमहिमा जलधि, लक्ष्मीपति जिनदेव।
तुम गुणमाला को कहूँ, करो अमंगल छेव।।१।।
जै जै जिनेन्द्रबिंब सकल सिद्धि को करें।
जै जै जिनेन्द्रबिम्ब अतुल ऋद्धि को भरें।।
जै जै जिनेन्द्रबिम्ब परम सौख्य को करें।
जै जै जिनेन्द्रबिम्ब निखिल दोष को हरें।।१।।
चैतन्य चमत्काररूप चैत्य१ कहाये।
चिंतित पदार्थ दान में चिंतामणी गाये।।
बिन याचते अनल्प फलों को सदा देवें।
वर कल्पवृक्ष के समान जन मुदा सेवें।।२।।
इस लोक के भरपूर सौख्य आप फले हैं।
परलोक में स्वर्गापवर्ग२ शीघ्र मिले हैं।।
धन धान्य विपुल भोग भी मनवांछिते मिलें।
सुपुत्र मित्र अंगना संयोग हों भले।।३।।
राज्यादि संपदायें सभी आन मिले हैं।
सम्राट चक्रवर्ति का भी चक्र चले हैं।।
ये अभ्युदय समस्त स्वयं आ गले पड़े।
मैं पूर्व में मैं पूर्व में, कह कर के आ पड़े।।४।।
हे नाथ! आप पूजते ही कर्म सब टरें।
लौकिक अनंत संपदायें फिर न क्यों वरें।।
परमार्थ संपदायें जो अपूर्व कही हैं।
वे भी तुम्हारे भक्त पे आसक्त हुई हैं।।५।।
सम्पूर्ण अमंगल विपत्ति व्याधि नशे हैं।
सम्पूर्ण विघ्न कर्म एक क्षण में नशे हैं।।
जो धर्म कार्य में ही, विघ्न आन के पड़े।
हे नाथ! कहो क्यों न वो तुम भक्ति से झड़े।।६।।
दर्शन वशुद्धि भावनादि संपदा मिलें।
जिनके प्रसाद से समस्त आपदा हिलें।।
निजचित्त में सद्ज्ञान की कलियाँ तुरत खिलें।
चारित्र पूर्ण देख शिवललना तुरत मिलें।।७।।
इस विध सुकीर्ति आपकी सुन पास में आया।
मैं द्रव्यहीन भक्ति सुमन साथ में लाया।।
करके कृपा जिनेन्द्र लाज राख लीजिये।
वैâवल्य ‘‘ज्ञानमती’’ सिद्धि आज कीजिये।।८।।
जय जय जिनमूर्ती, गुणगणमूर्ती, शिवसुखपूर्ती तुरत करो।
जय सुखरत्नाकर, धर्म सुधाकर, ज्ञान दिवाकर उदित करो।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीरुचकवरपर्वतस्योपरि उत्तरदिक सिद्धकूटजिनालयस्थजिन-बिम्बेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भक्ति श्रद्धा भाव से यह ‘इन्द्रध्वज’ पूजा करें।
नव निद्धि रिद्धि समृद्धि पा देवेन्द्र सुख पावें खरे।।
नित भोग मंगल सौख्य जग में, फेर शिवललना वरें।
जहं अंत नाहीं ‘‘ज्ञानमति’’ आनंद सुख झरना झरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।