1- तीर्थंकरों द्वारा उपदेशित द्वादशांग रूप शास्त्र के उत्तर भेद प्राणावाय पूर्व ही आयुर्वेद शास्त्रों का मूल स्रोत ग्रंथ है। इस ग्रंथ में विस्तार से अष्टांगायुर्वेद का वर्णन है।
2- ८—९ वीं शताब्दी में जैनाचार्य उग्रादित्य ने कल्याणकारकम् नामक महान् आयुर्वेद ग्रंथ की रचना की थी। जो आज प्रकाशित होकर हमारे पास उपलब्ध है।
3- ‘अहिंसा परमो धर्म:’ के सिद्धान्त को सामने रखते हुए जैनाचार्यों ने मद्य, माँस, मधु के प्रयोग बिना ही केवल वनस्पति, खनिज और रत्नादिक पदार्थों का ही औषधि में उपयोग बताया है। वैद्यक ग्रंथों का उद्देश्य शरीर स्वास्थ्य के साथ—साथ आत्मिक स्वस्थता को भी प्राप्त कराना रहा है। इसलिए जगह—जगह भक्ष्याभक्ष्य, सेव्य—असेव्य पदार्थों का विवेक रखने का भी आदेश ग्रंथों में दिया है।
4- कल्याणकारकम् ग्रंथ में पच्चीस परिच्छेद हैं (जिसमें आदिनाथ प्रभु से प्रार्थना, चिकित्सा के आधार, आयु परीक्षा, गर्भाधान क्रम, वात—पित्त—कफ के स्थान, लक्षण दोष इत्यादि ऋतुमान, भोजन, अन्न और वनस्पति आदि के गुण—दोष, पानी, दूध, दही, तेल, घी आदि के गुण—दोष, ब्रह्मचर्य के गुण, त्रिफला आदि रसायन) तथा परिशिष्ट में अरिष्ट अध्याय भी दिया है। रिष्टाध्याय, हिताध्याय एवं वनौषधि शब्दादर्श है। इन वनौषधि शब्दादर्श में औषधियों के नाम संस्कृत, हिन्दी, मराठी, कन्नड़ भाषा में लिखे गए हैं।
5- अपूर्व पाण्डित्य के धारी अनेक दिगम्बर जैनाचार्यों ने भी वैद्यक ग्रंथों की रचना की हैं जैसे—पूज्यपाद ने शालाक्य शिलाभेदन, पात्रकेसरी ने शल्यतंत्र, सिद्धसेन ने विष की शमन विधि, मेघनाद आचार्य ने बाल रोगों की चिकित्सा, सिंहनाद आचार्य ने शरीर बलवर्धक प्रयोग, श्री समन्तभद्र आचार्य ने सिद्धान्त रसायन कल्प ग्रंथ की रचना की।