जैनशासन के वर्तमानकालीन २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर के बारे में अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ समाज में व्याप्त हैं। जैसे-उनका ब्राह्मणी के गर्भ से त्रिशला के गर्भ में इन्द्र द्वारा गर्भहरण कराना, विवाह होना, दीक्षा के बाद यत्र-तत्र विचरण करते हुए चण्डकौशिक नाग द्वारा उन पर विष छोड़ा जाना एवं जनसाधारण द्वारा यातनाएँ दिया जाना,…….इत्यादि।
भ्रांतियों की इसी शृँखला में कुछ लोगों ने भगवान महावीर के ४२ चातुर्मास लिख दिए हैं, जबकि दिगम्बर जैन ग्रंथों में कहीं भी उनके चातुर्मासों का उल्लेख नहीं है इसलिए दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों एवं आगमज्ञाता विद्वानों को, लेखकों को इस विषय पर गंभीरता से चिंतन करना चाहिए।
एक दिगम्बर जैन पत्रिका में ‘‘तीर्थंकर महावीर का चातुर्मास काल’’ नामक एक लेख प्रकाशित हुआ जो दिगम्बर जैन आगम के प्रतिकूल था। इस लेख के अंदर लेखक ने भगवान महावीर के द्वारा ४२ चातुर्मास करना सिद्ध किया था। जैसे-
‘‘भगवान महावीर ने बयालीस चातुर्मास इस धरा पर बिताये।
वैशाली, वाणिज्यग्राम, राजगृही, चम्पा, मिथिला, श्रावस्ती, अहिच्छत्र, हस्तिनापुर, परिक्षेत्र में विहार कर चालीसवाँ ‘मिथिला’ में बिताया, यहाँ से फिर ‘राजगृही’ को विहार किया। यह वह समय था जब ‘अग्निभूति’ एवं ‘वायुभूति’ गणधर संसार त्याग मोक्ष गये।
इकतालीसवाँ चातुर्मास राजगृही में बिताया। वर्षा व्यतीत होने पर भी प्रस्थान नहीं किया, यहीं ‘अव्यक्त’, ‘अकम्पिक’, ‘मौर्यपुत्र’, ‘गणिक’ गणधरों ने देह त्याग मोक्ष प्राप्त किया।’’
यह एक विचारणीय विषय है कि ऐसे आगमविरुद्ध लेख क्या दिगम्बर जैन पत्र-पत्रिकाओं में छपना उचित है ? क्या पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक, संचालक आदि को आगमज्ञान से इतना अनभिज्ञ रहना उचित है ? क्या आगम विरुद्ध लेख छापने में उनकी कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है ? अथवा क्या भगवान महावीर के जीवन का दिगम्बर जैन आगम गं्रथों से कोई संबंध स्वीकार्य नहीं है ?
पंडितप्रवर श्री सुमेरचंद जैन दिवाकर ने ‘‘महाश्रमण महावीर’’ नामक ग्रंथ में तीर्थंकरों के चातुर्मास के निषेध का उल्लेख करते हुए स्पष्ट लिखा है कि ‘‘वर्धमान चरित्र में कहा है-
अर्थात् परिहारविशुद्धि संयम को प्राप्त करके बारह वर्ष तक तपस्या करते हुए भगवान तीनों लोकों के बंधु ज्ञातृवंश के निर्मल आकाश के चंद्रमा सदृश सुशोभित होते थे।
इसी संयमी का वर्षाकाल में विहार-इस परिहारविशुद्धि संयम की यह विशेषता है कि वह मुनि-‘‘सदापि प्राणिवधं परिहरति’’ सदा प्राणियों के वध का परिहार करता है (गो.जी.सं. टीका, पृ. ८८१)। इस संबंध में यह भी लिखा है कि परिहारविशुद्धि संयमी रात्रि को विहार छोड़कर तथा संध्या के तीन समयों को बचाता हुआ सर्वदा दो कोस प्रमाण विहार करता है। इस संयमी के लिए वर्षाकाल में विहार त्याग नहीं कहा गया है क्योंकि इस ऋद्धि के द्वारा वर्षाकाल में जीव का घात नहीं होता है इसलिए इस संयम को प्राप्त महान साधु वर्षाकाल में भी आसक्ति,मोह, ममता आदि का परित्याग कर भ्रमण करता है।
गोम्मटसार संस्कृत टीका में लिखा है-
परिहारविशुद्धि संयुक्त जीव-मुनि छह कायरूप जीवों के समूह में विहार करता हुआ जैसे कमलपत्र जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार वह पाप से लिप्त नहीं होता। इस संयम के धारक के विषय में उपरोक्त बात लिखी है, तब यह स्पष्ट है कि परिहारविशुद्धि संयम समन्वित साधुराज वर्षाकाल में चातुर्मास में एकत्र निवास करने के बंधन से विमुक्त हैं।
ऐसी स्थिति में परिहारविशुद्धि संयम को प्राप्त करने वाली आध्यात्मिक विभूति भगवान महावीर के चातुर्मासों की कल्पना औचित्यशून्य हैै। कोई-कोई तो केवलज्ञान के ३० वर्ष प्रमाणकाल में भी चातुर्मासों की चर्चा करते हैं। महावीर भगवान जब परिहारविशुद्धि संयम को प्राप्त कर चुके हैं, तब उनका चातुर्मासों में एकत्र निवास मानना सर्वज्ञ कथित दिगम्बर आगम के प्रतिकूल है।’’
इस प्रकार से पं. श्री सुमेरचंद्र दिवाकर ने तीर्थंकरों के मुनि अवस्था में एवं केवली अवस्था में चातुर्मास का खंडन दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों से किया है। गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी भी कहा करती हैं कि आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम पट्टशिष्य मेरे गुरुदेव आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज भी कहा करते थे कि तीर्थंकर भगवान मुनि अवस्था में चातुर्मास नहीं करते हैं तो केवली अवस्था में चातुर्मास का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। केवल श्वेताम्बर परम्परानुसार ही तीर्थंकर महावीर स्वामी के मुनि अवस्था के १२ एवं केवली अवस्था के ३० ऐसे ४२ चातुर्मास माने हैं।
इसके अतिरिक्त भी आचार ग्रंथों में जहाँ जिनकल्पी एवं स्थविरकल्पी मुनियों का वर्णन आता है तो जिनेन्द्र भगवान के समान चर्या का पालन करने वाले मुनियों को ही जिनकल्पी की संज्ञा प्रदान की गई है। वे भी चातुर्मास में विहार कर सकते हैं। उससे स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि साक्षात् जिनचर्या को पालने वाले जिनेन्द्र भगवान की तुलना तो किन्हीं साधारण मुनियों से वâी ही नहीं जा सकती है।
पद्मपुराण में कथानक आया है कि चारणऋद्धिधारी सप्तऋषि मुनिराज चातुर्मास के मध्य मथुरा से अयोध्या में आहार करने गये तो वहाँ मंदिर में विराजमान द्युति आचार्यदेव ने भक्तिपूर्वक उनकी वंदना की……आदि।
उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि भगवान महावीर ने दिगम्बर जैन आगम मान्यतानुसार कहीं पर कोई चातुर्मास सम्पन्न नहीं किया, प्रत्युत् वे उग्रोग्र तपस्या करते हुए १२ वर्ष तक मुनिमुद्रा में रहे पुन: केवलज्ञान होने पर तो उनका विहार अधर आकाश में होता था और इन्द्र उनके चरणों के नीचे स्वर्ण कमलों की रचना करते थे। भव्यात्माओं के पुण्य प्रभाव से जगह-जगह उनके समवसरण लगते थे जिनमें बैठकर भव्यप्राणी दिव्यध्वनि का पानकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होते थे।
यदि किसी दिगम्बर जैन आचार्य प्रणीत ग्रंथों में भगवान महावीर के चातुर्मासों का वर्णन प्राप्त हो तो विद्वज्जन हमें अवश्य परिचित कराएँ अन्यथा जो दिगम्बर जैन पत्र-पत्रिकाएँ भगवान महावीर के चातुर्मास प्रकाशित करते हैं उनमें संशोधन कराएँ ताकि महावीर स्वामी के जिनत्व का दिगम्बर जैन आम्नाय अनुसार परिचय जन-जन को प्राप्त हो सके।
लेख के अंदर दूसरा एक अन्य प्रकरण भी दिगम्बर जैन आम्नाय के विरुद्ध था। वहाँ स्पष्ट रूप से भगवान महावीर के चातुर्मास स्थलों के नाम आदि देकर उनको चंदना द्वारा दिये गये आहार के प्रकरण में लिखा गया कि-
‘‘वैशाली के सभी श्रेष्ठी अपने चौके में आहार कराने के लिए लालायित थे, निराश भी रहे। जहाँ आहार हुए उसका दर्शन कर धन्य माना। ‘महावीर’ ने पौष कृष्णा प्रतिपदा को एक महाघोर अभिग्रह धारण किया, जिसके पूर्ण होने पर ही आहार का संकल्प किया। प्रतिज्ञा पूर्ण चार माह तक नहीं हुई, राजा, रानी, प्रजा सभी चिंतित हो गये, तभी वह पुण्य क्षण आया और ‘चंदना’ को आहार देने का मौका मिला। यह अभिग्रह छ: माह बाद पूर्ण हुआ। ‘चंदना’ के मन में सिर्फ यह भाव रहा-
यह कथन भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार ही है। दिगम्बर जैन आम्नाय अनुसार महासती चंदना के जीवन चरित को उत्तरपुराण एवं महावीर चरित आदि से पढ़ें और इस पर भी अपनी धारणा दिगम्बर जैन आम्नाय अनुसार ही बनाएँ, यही मेरा मन्तव्य है।