बुंदेलखण्ड में बहु प्रचलित किवंदन्तियों के अनुसार यहाँ १२ वीं—१३ वीं शताब्दी के लगभग एक अग्रवाल जैन धनकुबेर हो गये हैं, जो भक्त—शिरोमणि, जैन—जगत् के गौरव श्री पाड़ाशाह के नाम से प्रसिद्ध हैं। आप एक धर्मात्मा, इतिहास—पुरुष माने गये हैं। पाड़ों के व्यापार के कारण इन्हें पाड़ाशाह कहते थे। उस व्यापार से अर्जित अपार सम्पदा से अनेक जिनालयों का निर्माण कराकर जिनबिम्ब प्रतिष्ठित कराये। पाड़ाशाह तीर्थंकर शान्तिनाथ के परम भक्त थे, इसलिए उन्होंने जितनी भी मूर्ति बनवाई और प्रतिष्ठित कराई वे सब तीर्थंकर शान्तिनाथ की ही थीं। पाड़ाशाह ने अहारजी, बजरंगगढ़, खानपुर, झालरापाटन, थूवौनजी, मियादास, पचराई, सेरोन, पजनारी, ईशुरवारा आदि स्थानों पर जिनालयों का निर्माण कर शान्तिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा करायी थी।
ये सभी जिनबिम्ब हल्के लाल या कत्थई रंगी पाषाण के निर्मित हैं। आपके पास इतनी अपार धनराशि और वैभव / सम्पत्ति कैसे प्राप्त हुई, इस विषय में कई किंवदन्तियाँ विख्यात हैं। जैसे—जब पाड़ाशाह पाड़ों का झुण्ड लेकर बजरंगगढ़ जा रहे थे, तब मार्ग में उनका एक पाड़ा कहीं खो गया, जिसे ढूँढ़ने शाहजी निकल पड़े। ढ़ूँढ़ते—ढ़ूँढ़ते एक स्थान पर वह चरता हुआ मिल गया, पर शाहजी के विस्मय का ठिकाना न रहा उन्होंने देखा कि पाड़े के पैर का नाल अथवा लोहे की चेन सोने—सी चमक रही है, उन्होंने उसे ध्यान से देखा, सचमुच ही वह स्वर्णमय था तब उन्होंने परीक्षण हेतु दूसरा पाड़ा भेजा, उसका भी नाल सोने का हो गया। फिर क्या था, थोड़ा परिश्रम करके उन्हें वहाँ पारस पथरी मिल गई और इसी पारस पथरी से उनके यहाँ अपार सम्पत्ति हो गई, जिसे जिनालयों और जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा में लगा दिया।