-स्थापना-
तर्ज-सन्त साधू बनके………
मिल गया मानव जनम, भव भव के पुण्य प्रताप से।
पाऊँ अब संयम रतन, फिर छूट जाऊँ पाप से।।
प्राणि संयम और इंद्रिय, भेद दो संयम के हैं।
शक्ति के अनुसार इनको, धार लूँ यह भाव है।।
तब ही छुट सकता है क्रम, संसार जो है अनादि से।
पाऊँ अब संयम रतन, फिर छूट जाऊँ पाप से।।१।।
धर्म संयम की करूँ, मैं अर्चना स्थापना।
धर्म संयम की करूँ, मैं वंदना आराधना।।
नाथ अब सद्बुद्धि दे दो, होवे द्वन्द्व समाप्त ये।
पाऊँ अब संयम रतन, फिर छूट जाऊँ पाप से।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तम संयम धर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं उत्तम संयम धर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं उत्तम संयम धर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
तर्ज-जरा सामने तो……..
उत्तम संयम धरम की अर्चना, करे भव्यों को भव से पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।
गंगानदि का शीतल जल ले, जिन पद में त्रयधार करूँ।
जन्म जरा मृत्यू नश जावे, यही आस प्रभु पास करूँ।।
बहे आतम में ज्ञानरस धार है, धर्म संयम से हो बेड़ा पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम संयम धरम की अर्चना, करे भव्यों को भव से पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।
मलयागिरि का चंदन घिसकर, जिनपद में चर्चन कर लूँ।
भव-भव का आतम नश जावे, उत्तम संयम मन धर लूँ।।
बहे आतम में ज्ञानरस धार है, धर्म संयम से हो बेड़ा पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम संयम धरम की अर्चना, करे भव्यों को भव से पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।
शालिपुंज ले धवल अखण्डित, प्रभु सम्मुख अर्पण कर दूँ।
अक्षयपद मिल जावे मुझको, उत्तम संयम मन धर लूँ।।
बहे आतम में ज्ञानरस धार है, धर्म संयम से हो बेड़ा पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।३।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम संयम धरम की अर्चना, करे भव्यों को भव से पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।
बेला चंपक और चमेली, पुष्पों से पूजन कर लूँ।
कामबाण नश जावे मेरा, उत्तम संयम मन धर लूँ।।
बहे आतम में ज्ञानरस धार है, धर्म संयम से हो बेड़ा पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम संयम धरम की अर्चना, करे भव्यों को भव से पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।
मालपुआ रसगुल्ला आदिक, व्यंजन से पूजन कर लूँ।
क्षुधारोग नश जावे मेरा, उत्तम संयम मन धर लूँ।।
बहे आतम में ज्ञानरस धार है, धर्म संयम से हो बेड़ा पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।५।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम संयम धरम की अर्चना, करे भव्यों को भव से पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।
स्वर्णथाल में रत्नदीप ले, जिनवर की आरति कर लूँ।
मोह तिमिर नश जावे मेरा, उत्तम संयम मन धर लूँ।।
बहे आतम में ज्ञानरस धार है, धर्म संयम से हो बेड़ा पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।६।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम संयम धरम की अर्चना, करे भव्यों को भव से पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।
धूप दशांगी ले करके मैं, अग्नि माँहि अर्पण कर दूँ।
अष्टकर्म नश जाएं मेरे, उत्तम संयम मन धर लूँ।।
बहे आतम में ज्ञानरस धार है, धर्म संयम से हो बेड़ा पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।७।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम संयम धरम की अर्चना, करे भव्यों को भव से पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।
श्रीफल और बदाम सुपारी, फल प्रभु पद अर्पण कर दूँ।
मोक्ष महाफल मिल जावे, उत्तम संयम मन में धर लूँ।।
बहे आतम में ज्ञानरस धार है, धर्म संयम से हो बेड़ा पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।८।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम संयम धरम की अर्चना, करे भव्यों को भव से पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।
अर्घ्य थाल ‘‘चंदनामती’’ जिन चरणों में अर्पण कर दूँ।
पद अनर्घ्य मिल जाय मुझे, उत्तम संयम मन में धर लूँ।।
बहे आतम में ज्ञानरस धार है, धर्म संयम से हो बेड़ा पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।९।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तम संयम धरम की अर्चना, करे भव्यों को भव से पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।
स्वर्ण कलश में जल ले करके, मैं शांतीधारा कर लूँ।
सारे जग की शांति हेतु, उत्तम संयम मन में धर लूँ।।
बहे आतम में ज्ञानरस धार है, धर्म संयम से हो बेड़ा पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
उत्तम संयम धरम की अर्चना, करे भव्यों को भव से पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।
तरह-तरह के पुष्प मंगाकर, पुष्पांजलि अर्पण कर दूँ।
जग में शांति सुरभि पैâले, उत्तम संयम मन में धर लूँ।।
बहे आतम में ज्ञानरस धार है, धर्म संयम से हो बेड़ा पार है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, बिना संयम के सब निस्सार है।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
संयम धारण कर मनुज, होते त्रिभुवन पूज्य ।
उसकी पूजन हेतु हम, लेकर आये पुष्प।।
इति मण्डलस्योपरि षष्ठवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-सखी छंद-
षट्काय में पंच स्थावर, में पहला पृथिवीकायिक।
उनकी नित रक्षा करना, उत्तम संयम चित धरना।।१।।
ॐ ह्रीं पृथिवीकायिकजीवरक्षणरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
षट्काय में पंच स्थावर, में दूजा है जलकायिक।
उनकी नित रक्षा करना, उत्तम संयम चित धरना।।२।।
ॐ ह्रीं जलकायिकजीवरक्षणरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
षट्काय में पंच स्थावर, में तीजा अग्नीकायिक।
उनकी नित रक्षा करना, उत्तम संयम चित धरना।।३।।
ॐ ह्रीं अग्निकायिकजीवरक्षणरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
षट्काय में पंच स्थावर, में चौथा वायूकायिक।
उनकी नित रक्षा करना, उत्तम संयम चित धरना।।४।।
ॐ ह्रीं वायुकायिकजीवरक्षणरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
षट्काय में पंच स्थावर, पंचम है वनस्पतिकायिक।
उनकी नित रक्षा करना, उत्तम संयम चित धरना।।५।।
ॐ ह्रीं वनस्पतिकायिकजीवरक्षणरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दो इंद्रिय जीव कहे जो, लट जोंक आदि में रहें जो।
उनकी नित रक्षा करना, उत्तम संयम चित धरना।।६।।
ॐ ह्रीं द्वीन्द्रियजीवरक्षणरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रय इन्द्रिय चींटी खटमल, आदिक हैं जीव धरें तन।
उनकी नित रक्षा करना, उत्तम संयम चित धरना।।७।।
ॐ ह्रीं त्रीन्द्रियजीवरक्षणरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चउ इंद्रिय जीव कहे जो, मक्खी मच्छर आदिक वो।
उनकी नित रक्षा करना, उत्तम संयम चित धरना।।८।।
ॐ ह्रीं चतुरिन्द्रियजीवरक्षणरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचेन्द्रिय जीव असंज्ञी, मन रहित उठाते दुख ही।
उनकी नित रक्षा करना, उत्तम संयम चित धरना।।९।।
ॐ ह्रीं असंज्ञीपंचेन्द्रियजीवरक्षणरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नर-नारक आदि कहे जो, तिर्यंच देव संज्ञी वो।
उनकी नित रक्षा करना, उत्तम संयम चित धरना।।१०।।
ॐ ह्रीं संज्ञीपंचेन्द्रियजीवरक्षणरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्पर्शन इन्द्रिय का सुख, है क्षणिक वही देता दुख।
उसको अनुशासित करना, उत्तम संयम चित धरना।।११।।
ॐ ह्रीं स्पर्शनेन्द्रियविषयवर्जनरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रसनेन्द्रिय से सुख मिलता, है स्वाद क्षणिक ही उसका।
उसको अनुशासित करना, उत्तम संयम चित धरना।।१२।।
ॐ ह्रीं रसनेन्द्रियविषयवर्जनरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घ्राणेन्द्रिय की प्रकृती है, चाहे सुगंध वस्तू है।
उसको अनुशासित करना, उत्तम संयम चित धरना।।१३।।
ॐ ह्रीं घ्राणेन्द्रियविषयवर्जनरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चक्षु है रूप निरखते, सुंदर वस्तू ही परखते।
उसको अनुशासित करना, उत्तम संयम चित धरना।।१४।।
ॐ ह्रीं चक्षुइन्द्रियविषयवर्जनरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रोत्रेन्द्रिय सुने वचन को, नहिं चाहे कुटिल श्रवण वो।
उसको अनुशासित करना, उत्तम संयम चित धरना।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रोत्रेन्द्रियविषयवर्जनरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मन मर्कट सम चंचल है, इससे संसार विकल है।
उसको अनुशासित करना, उत्तम संयम चित धरना।।१६।।
ॐ ह्रीं मनविषयवर्जनरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जैसे तैसे समताधर, सामायिक करी क्षमा धर।
अब आर्तध्यान को त्यागूँ, संयम में हृदय जगा लूँ।।१७।।
ॐ ह्रीं सामायिकरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अणुव्रत या महाव्रतों में, कोई भी दोष लगे हों।
उनका प्रायश्चित्त लेकर, उत्तम संयम पूजूँ अब।।१८।।
ॐ ह्रीं छेदोपस्थापनारूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन मुनि के गमन समय भी, नहिं संभव दोष लगे भी।
उनका परिहार विशुद्धी, संयम मैं जजूँ विशुद्धी।।१९।।
ॐ ह्रीं परिहारविशुद्धिरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो सूक्ष्म सांपरायिक है, संयम मुनि में उपजत है।
इस संयम संयुत मुनि को, मैं जजूँ धर्म संयम को।।२०।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मसांपरायरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो यथाख्यात संयम है, उसमें न मोहयुत मन है।
इस संयम धारक मुनि को, मैं जजूँ धर्म संयम को।।२१।।
ॐ ह्रीं यथाख्यातरूप संयमधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
संयम के ये भेद बहुत से जानिये।
शिवपथदर्शक संयमधर्म बखानिये।।
उत्तम संयम मुनिवर में ही मानिये।
पूरण अर्घ्य चढ़ाय नियम कुछ ठानिये।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय नम:।
तर्ज-बाबुल की दुआएँ…….
उत्तम संयम की पूजन से, मानव को शिव का द्वार मिले।
निज मन पे नियंत्रण करने से, रत्नत्रय का भंडार मिले।।टेक.।।
पारसमणि को पाना जैसे, दुर्लभ ही नहीं अतिदुर्लभ है।
वैसे ही संयमरूपी मणि को, पाना भी अति दुर्लभ है।।
यदि मिल जावे वह रत्न तो समझो, मोक्षपंथ साकार मिले।
निज मन पे नियंत्रण करने से, रत्नत्रय का भंडार मिले।।१।।
इन्द्रिय संयम प्राणी संयम से, संयम द्वैविध माना है।
इनका पालन करने वालों को, शिवपद निश्चित पाना है।।
श्रावक को भी किंचित् संयम, पालन से सुख आधार मिले।
निज मन पे नियंत्रण करने से, रत्नत्रय का भंडार मिले।।२।।
यदि संयम पालन कर न सको, निंदा न संयमी की करना।
उनकी पूजन आहार आदि से, निज आतम शुद्धी करना।।
‘‘चन्दनामती’’ संयम व संयमी, में ही सुख का सार मिले।
निज मन पे नियंत्रण करने से, रत्नत्रय का भंडार मिले।।३।।
हम इसीलिए आठों द्रव्यों का, थाल सजाकर लाए हैं।
जयमाला पढ़कर संयम का, अनुमोदन करने आए हैं।।
पूर्णार्घ्य समर्पण करके प्रभु, चाहूँ संयम का द्वार खुले।
निज मन पे नियंत्रण करने से, रत्नत्रय का भंडार मिले।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्यजन दशधर्म की, आराधना करें।
निज मन में धर्म धार वे, शिवसाधना करें।।
इस धर्म कल्पवृक्ष को, धारण जो करेंगे।
वे ‘‘चंदनामती’’ पुन:, भव में न भ्रमेंगे।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि: ।।