तीर्थराज श्री सम्मेदशिखर दिगम्बर जैनों का अनादिनिधन शाश्वत सिद्धक्षेत्र है। जहाँ से अनन्त तीर्थंकरों ने मोक्षप्राप्त किया है और अनन्तानन्त भव्य जीवों ने भी तपस्या करके इस पर्वतराज से निर्वाणधाम को प्राप्त किया है इसीलिए इसे सिद्धक्षेत्र के रूप में सदा से पूजने की परम्परा रही है। जैन समाज में जन्म लेने वाले प्रत्येक नर-नारी को अपने भव्यत्व की पहचान के लिए सम्मेदशिखर की यात्रा/वंदना करने की प्रेरणा विरासत में पूर्वजों के द्वारा प्राप्त होती है और उन्हें प्रारंभ से ही यह पंक्ति सिखाई जाती है-
अर्थात् सम्मेदशिखर पर्वत की एक बार भी वंदना करने वाले मनुष्य को नरक और पशुगति की प्राप्ति नहीं होती है।
श्री देवदत्त यतिवर द्वारा रचित ‘‘श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य’’ नामक ग्रंथ में इस अनादि तीर्थ का बड़ा भारी महत्व वर्णित है।
उसमें उन्होंने प्राथमिक रूप में लिखा है कि-
अर्थ-तीर्थंकर महावीर ने गौतम गणधर के सम्मुख सम्मेदशिखर का वृत्तान्त कहा था। उसे ही फिर से बुद्धिसम्पन्न अष्टम, नवम और दशम अंगधारी आचार्यों में एक आचार्य लोहाचार्य ने कहा। जिनके सद्वाक्यों के अनुसार अपनी बुद्धि व्यवस्थित कर देवदत्त नाम का यह सत्कवि सम्मेदशैल अर्थात् सम्मेदशिखर की महिमा को इस काव्य में प्रगट कर रहा है।।६-७।।
अर्थात् सिद्धक्षेत्रों में सर्वोत्तम श्रेष्ठ पर्वत सम्मेदशिखर पर श्रेयस्कर बीस कूट हैं, उन बीसों कूटों पर बीस तीर्थंकर के चरण चिन्ह हैं। मैं उन तीर्थंकरों को सर्वदा नमस्कार करता हूँ।।८।।
वर्तमान युग में जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के चौबीस तीर्थंकरों में से बीस तीर्थंकरों ने इस पर्वत के भिन्न-भिन्न कूटों से मोक्ष प्राप्त किया है, उन कूटों के प्रति भी श्रद्धा व्यक्त करते हुए कवि ने कहा है-
अर्थ-बीसों ही तीर्थंकरों के अपने-अपने नाम से समलङ्कृत और ध्यान करने पर सर्वार्थों अर्थात् सभी प्रयोजनभूत पदार्थों की सिद्धि करने वाले ये बीसों ही कूट निरन्तर, हमेशा ध्यान करने योग्य हैं।।१८।।
इस सिद्धक्षेत्र की यात्रा प्राचीनकाल से लोग बड़ी धूमधाम से करते आये हैं। द्वितीय तीर्थंकर भगवान् अजितनाथ इस सम्मेदशिखर पर्वत से वर्तमान हुण्डावसर्पिणी के प्रथम मोक्षमागी हुए हैं। उनके काल में उत्पन्न हुए सम्राट् सगर चक्रवर्ती ने प्रथम बार यात्रा संघ ले जाकर इस सिद्धक्षेत्र की वंदना की थी पुन: अन्य और महापुरुषों की यात्रा का वर्णन भी आता है-
अर्थ-सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर यात्रा संघ लाने वाले प्रथम संघपति सगर चक्रवर्ती थे। उनके बाद क्रमश: मघवान्, सनतकुमार चक्रवर्ती, आनन्द, प्रभाश्रेणिक आदि बताये गये हैं।।२०।।
संघपति प्रभाश्रेणिक के बाद क्रमश: ललितद्योतक, दत्तश्रेष्ठी, कुन्दप्रभ, दत्तशुभ (चरश्रेणिक), दत्तश्रेणिक, सोमप्रभ, सुप्रभ, चारूश्रेणिक, भावदत्तक या भवदत्त, अविचल, आनंदश्रेणिक, सुन्दर, रामचन्द्र, अमर श्रेणिक आदि सुवरान्त अर्थात् जिनका अंतिम समय सुन्दर व श्रेष्ठ है, ऐसे ये भव्य जीव तीर्थयात्रा संघों के संघपति हुए।
सम्मेदशिखर पर्वत जो सभी पर्वतों में श्रेष्ठ है, उसका विस्तार बारह योजन है। इस पर्वत की प्रत्येक टोंक पर अनन्त मुनिराज मुक्त हुए हैं और इसी पर्वतराज से सिद्धत्व को प्राप्त होकर सिद्ध हुए हैं।
आगे और भी कहा है-
अर्थ-जो भविष्य में मुक्त होंगे, वे भव्य जीव तथा जो कभी भी मुक्त नहीं होंगे वे अभव्य जीव कहे गये हैं। सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर यात्रा करने की पात्रता भव्य जीवों की ही मानी गई है, अभव्य जीवों की नहीं।।२५।।
केवलज्ञानी स्नातक मुनिराज ऐसा कहते हैं-‘‘भव्यराशि का कोई भी, वैâसा भी पापी जीव सम्मेदशिखर पर ठहरता है या बैठता है तो ४९ भवों के अन्दर ही वह मुक्त हो जाता है। इस संसार में एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों में, जो नामकर्म की विभिन्नता से अनेकानेक आकृति वाले हैं, वे भव्यराशि के भाग से वहाँ अर्थात् सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर उत्पन्न होते हैं वे निश्चय ही उनचास भवों के भीतर मोक्ष जाने योग्य भव्य जीव हैं। भव्य राशि से अतिरिक्त जीवों का वहाँ जन्म ही नहीं होता है।
इसी प्रकरण में नरकायु के बंधक राजा श्रेणिक के द्वारा सम्मेदशिखर यात्रा का उपक्रम करने के पश्चात् भी उनकी यात्रा न हो पाने का विषय भी पठनीय है, उसे पढ़कर भव्य जीवोें को नरकायु-तिर्यंचायु के बंध के कारणों से सदैव बचने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
नये वस्त्र पहनकर शिखरजी की वंदना करने की परम्परा क्यों है ? प्राय: करके जैन समाज में परम्परा रही है कि सम्मेदशिखर की यात्रा करने वाले बालक-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी नये कपड़े (जो पहले कभी न पहने गये होें) लेकर जाते हैं और वहाँ उन्हें धोकर पहनकर पर्वत पर चढ़ते हैं। इसका कारण तन-मन की पवित्रता के साथ-साथ वस्त्रों की शुद्धि भी आवश्यक समझना चाहिए।
जो मोक्षफल को चाहने वाला है, वह श्वेत वस्त्र पहनकर सम्मेदशिखर की यात्रा करे। जो पुत्र चाहने वाला है वह सुपुत्र की प्राप्ति के लिए पीले वस्त्र धारण करके सम्मेदशिखर की यात्रा करे। यदि रोग से पीड़ित काले वस्त्र धारण कर यात्रा करने वाला होवे तो कुछ ही दिन बाद वह सरोगी निरोगता को प्राप्त करता है तथा यह भी कि जो सम्मेदशिखर की यात्रा करने वाला है वह कहीं पर शोक को प्राप्त नहीं होता है। जो लक्ष्मी चाहने वाला है, वह ताम्रवर्णीय वस्त्र धारण कर पर्वतराज सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र की यात्रा प्रयत्नपूर्वक करे।
इससे यह अभिप्राय निकलता है कि सर्वोत्तम मोक्षफल की इच्छा से श्वेत वस्त्र पहनकर सम्मेदशिखर की वंदना करना सर्वाधिक शुभ है। उसके मध्य मोक्षप्राप्ति से पूर्व सांसारिक वैभव तो स्वयं प्राप्त हो ही जाएंगे।
चतुर्विध संघ को भी सम्मेदशिखर यात्रा कराने की प्राचीन परम्परा है-हम इस युग में तो बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर महाराज के संघ को दक्षिण भारत से सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र की यात्रा सेठ पूनमचंद घासीलाल-मुम्बई परिवार द्वारा कराने का पुण्यमयी इतिहास तो सुनते ही हैं कि उन पुण्यात्माओं ने यह पुण्यकार्य करके अपरिमित धन-धान्य को तो प्राप्त किया ही था, पुन: उनमें से दो भाइयों ने जैनेश्वरी दीक्षा भी धारण करके मोक्षमार्ग को प्रशस्त किया है, जिन्हें मैंने स्वयं अपनी आँखों से (मोतीलाल जौहरी मुनि श्री सुबुद्धिसागर बने और गेंदनमल जौहरी भी दीक्षित हुए) देखा है।
इसी प्रकार पूर्व के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो श्रद्धा से उन चक्रवर्ती सम्राट् के प्रति भी मस्तक नत हो जाता है, जिन्होंने करोड़ों वर्ष पूर्व चतुर्विध संघ को बड़े महोत्सवपूर्वक सम्मेदशिखर की यात्रा करवाई। उस समय का वर्णन भगवान महावीर की दिव्यध्वनि के अनुसार श्री गौतम गणधर स्वामी ने राजा श्रेणिक को बताया, तदनुसार श्री देवदत्त यतिवर ने भी कहा है-
उस सगर चक्रवर्ती नामक श्रेष्ठ राजा अत्यधिक आदर-सत्कारपूर्वक मुनिराजों, आर्यिकाओं, श्रावकों तथा श्राविकाओं के चतुर्विध संघ को साथी बनाकर अर्थात् उन्हें यात्रा के लिए साथ लेकर पहले दिन तीन कोस अर्थात् लगभग ९ किमी. चला।
चक्रवर्ती की उस तीर्थयात्रा में चौरासी लाख शुभ लक्षणों वाले हाथी, अठारह करोड़ शुभ लक्षण सम्पन्न एवं वायु के वेग समान दौड़ने वाले घोड़े तथा चौरासी लाख पदाति सैनिकों की टुकड़ियाँ कही गईं हैं। चक्रवर्ती के साथ यात्रा करने वाले चक्री के सद्वाक्यों की रक्षा करने वाले विद्याधर भी यात्रा के लिए चले।
उस यात्रा में ध्वजाओं एवं नगाड़ों की संख्या एक-एक करोड़ मानी गई है। मार्ग में बाजों की ध्वनि सभी को प्रसन्न करती हुई चलती थी। उस राजा ने अतिशय भक्ति से सम्मेदशिखर पर्वत को ही पूजकर सिद्धवर नामक कूट पर अजितनाथ तीर्थंकर की स्थापना करके और सारे सम्मेदशिखर की तीन बार प्रदक्षिणा देकर जय-जय के घोषों से गूंजता हुआ महोत्सव कराया और वहाँ देवताओं द्वारा किये गये पाँच आश्चर्य हुए जिनको देखकर वहाँ सभी लोग सचमुच आश्चर्यचकित हो गये।
सम्मेदशिखर यात्रा का फल-जब आप इस पर्वत की वंदना करते हैं तो पुस्तक में पढ़ते हैं कि एक-एक टोंक की वंदना से इतने-इतने करोड़-लाख आदि उपवासों का फल प्राप्त होता है। इसे कपोलकल्पित या भ्रामक नहीं समझना चाहिए, प्रत्युत् पर्वतराज के कण-कण की पवित्रता का स्पर्श करने से जो परिणामशुद्धि होती है, उसी को उपवासों के प्रमाण में हमारे आचार्यों ने निबद्ध करके सम्मेदशिखर पर्वत वंदना की महिमा बताई है। जैसा कि ग्रंथ में भी लिखा है-
ज्ञानीजन बत्तीस करोड़ सच्चे प्रोषधोपवास का जो फल जानते हैं, वह फल सम्मेदशिखर की यात्रा करने वाला यात्री प्राप्त करे, उसके नरकगति और तिर्यंचगति का नाश होता है इस प्रकार भगवान् महावीर द्वारा कथित जो प्रमाण है, वह तुम सभी के लिए सही हो, ऐसी कवि की कामना है।
पुनश्च कहा है-
अर्थात् भगवान् महावीर द्वारा बताया गया, जिनराजों द्वारा बताये धर्म का कथन करने वाला तथा उनके भ्रमों का निवारण करने वाला इस प्रकार जो यह सम्मेदशिखर का प्रामाणिक फल वर्णन मुनिवर्य लोहाचार्य ने पुन: उदित किया है, उसको सभी सज्जन पुरुष भाव सहित अर्थात् तीर्थवंदना की सच्ची भावना से परिपूर्ण होकर सर्वार्थसिद्धि प्रदान करने वाले सम्मेदशिखर की ओर जाओ। यहाँ कवि ने सम्मेदाचल की यात्रा हेतु हम सभी सज्जनों को उत्साहित किया है तथा अपने इस वर्णन को ‘लोहाचार्य द्वारा उदित हुआ था’-ऐसा कहकर प्रामाणिक बनाया है।
इस पर्वत की वंदना केवल भव्यजीव ही करने के अधिकारी होते हैं, अभव्य नहीं।
अर्थ-भगवान् महावीर के उपदेश के उपरान्त कुछ समय पीछे लोहाचार्य द्वारा कहा गया या प्रेरित किया गया जो सम्मेदशिखर का माहात्म्य है, वह भव्यजनों में प्रमाण ही है तथा अभव्य लोग उसमें अधिकारी नहीं होते हैं।
सम्मेदशिखर पर्वत पर जहाँ इस युग के द्वितीय तीर्थंकर भगवान अजितनाथ ने सर्वप्रथम योगनिरोध करके मोक्ष प्राप्त किया, वहीं तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के मोक्षगमन के पश्चात् उस पर्वत से किसी तीर्थंकर ने मोक्ष प्राप्त नहीं किया अर्थात् पार्श्वनाथ भगवान सम्मेदशिखर से मोक्ष जाने वाले तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थंकर हैं। उनके मोक्ष जाने के बाद भावसेन नाम के राजा ने उस पर्वत की वंदना करके श्रीप्रसन्नमुख मुनिराज की प्रेरणा से पार्श्वनाथ के स्वर्णभद्रकूट पर जिनमंदिर बनवाकर उसमें भगवान पार्श्वनाथ की नीलमणि वाली रत्नप्रतिमा विराजमान की थी, ऐसा वर्णन भी ग्रंथ में आया है।
तीर्थयात्रा करने से संसार यात्रा समाप्त होती है !-प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय के अपने-अपने तीर्थ होते हैं, जो उनकी श्रद्धा से जुड़े होते हैं। वे सभी अपने तीर्थों की यात्रा बड़ी भक्ति से करने जाते हैं और आत्मशांति प्राप्त करते हैं। तीर्थस्थान पवित्रता, शांति और कल्याण के धाम माने जाते हैं। जैनधर्म में भी प्राचीनकाल से तीर्थ का विशेष महत्त्व रहा है। जैनधर्म के अनुयायी प्रतिवर्ष बड़ी श्रद्धापूर्वक अपने तीर्थों की यात्रा करते हैं, उनका विश्वास है कि तीर्थयात्रा से पुण्य संचय होता है और परम्परा से मुक्तिलाभ की प्राप्ति होती है। इसी विश्वास के कारण बालक, वृद्ध, युवा सभी तीर्थभक्त लोग सम्मेदशिखर जैसे दुरूह पर्वतों की वंदना अपने पैरों से करने की भावना करते हैं।
तीर्थक्षेत्रोें का माहात्म्य आचार्यों ने लिखा है-
अर्थात् तीर्थभूमि के मार्ग की रज इतनी पवित्र होती है कि उसके आश्रय से मनुष्य रज रहित अर्थात् कर्ममल रहित हो जाता है। तीर्थों पर भ्रमण करने से अर्थात् यात्रा करने से संसार का भ्रमण छूट जाता है।
निर्वाणक्षेत्र-ये वे क्षेत्र कहलाते हैं जहाँ तीर्थंकरों या किन्हीं दिगम्बर तपस्वी मुनिराज का निर्वाण हुआ हो। शास्त्रों का उपदेश, व्रत, चारित्र, तप आदि सभी कुछ निर्वाण प्राप्ति के लिए है। यही परम पुरुषार्थ है। जिस स्थान पर निर्वाण होता है, उस स्थान पर इन्द्रदेव पूजा को आते हैं तथा चरण-चिन्ह स्थापित कर देते हैं।
तीर्थंकरों के निर्वाणक्षेत्र कुल पाँच हैं-वैâलाशपर्वत, चम्पापुरी, पावापुरी, ऊर्जयन्त और सम्मेदशिखर। वैâलाश पर्वत से भगवान ऋषभदेव, चम्पापुरी से श्री वासुपूज्य स्वामी, गिरनार से नेमिनाथ स्वामी, पावापुरी से महावीर स्वामी ने कर्मों को नाशकर शाश्वत सुख को प्राप्त किया। सम्मेदशिखर से २० तीर्थंकरों ने कठोर आत्म-साधना कर कर्मों को नाश कर अविनाशी सुख को प्राप्त किया।
निश्चित रूप से सम्मेदशिखर गौरवमय भूमि है। इस भूमि की विशेषता है, व्यक्ति जैसे ही शिखर की प्रथम सीढ़ी पर एक कदम रखता है, आगे ही बढ़ता चला जाता है। हृदय आनन्द से इस तरह सराबोर हो जाता है कि आगे आने वाली थकावट उसे महसूस नहीं होती है।
हमारा हृदय तब कितना प्रसन्न होता है, जब हम सम्मेदशिखर पर्वत के पावन शिखरों पर पहुँचते हैं। आँधी-तूफान, झंझावात, वर्षा, तेज हवाएँ सब कुछ चलती हैं, कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि पूरा शिखर ही हिल रहा है, तब भी निर्वाण की वे ज्योतियाँ अकम्प दिखाई देती हैं।
इस पवित्र तीर्थधाम की यात्रा करना हमारा अहोभाग्य है। यही तो वह पर्वत है, जिसके कण-कण में सिद्धत्व की आभा है। असंख्य वर्षों से मानव ही नहीं वरन् देवों ने भी इसकी पूजन-अर्चन कर जीवन को पवित्र किया है। यहाँ का कंकण-कंकण सिद्ध आत्मा के चरण कमलों के स्पर्श से पवित्र है। यात्रा के समय हृदय में जो हर्षोल्लास, प्रफुल्लता और सहज आनन्द की उपलब्धि होती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस पावन तीर्थ की यात्रा, वंदना, दर्शन संकटहारी, पुण्यकारी और पापनाशक है।
भारत का अतीत गौरवमय रहा है। विश्व के अनन्त प्राणी जब अज्ञान के अंधेरे में रास्ते टोह रहे थे, तब इस देश के अनेकों महापुरुष, तीर्थंकर, आचार्य एवं मुनि गहन चिन्तन की अतुल गहराइयों में पहुँचकर सिद्धत्व को प्राप्त कर रहे थे इसीलिए सम्मेदशिखर जैनों का सबसे पवित्र, बड़ा एवं सबसे ऊँचा तीर्थ माना जाता है।
वर्तमान में सम्मेदशिखर पर्वत की ऊँचाई ४५७९ फुट है। इसका क्षेत्रफल (विस्तार) २५ वर्ग मी. में है। साधारण दिगम्बर जैन यात्रीगण रात्रि को १-२ बजे स्नान कर शुद्ध धुले वस्त्र पहनकर गिरिराज की वंदना को जाते हैं।
दिगम्बर जैन बीसपंथी कोठी से २ फर्लांग की दूरी पर क्षेत्रपाल महाराज की गुमटी है। यहाँ से ढाई मील की दूरी पर गन्धर्व नाला आता है। जहाँ यात्रीगण विश्राम तथा यात्रा से वापसी में जलपान किया करते हैं। यहाँ से १ मी. की दूरी पर सीता नाला बहता है। सीता नाला पर यात्री बंधुओं के लिए शुद्ध जल से पूजन-सामग्री धोने का जल बहता रहता है। इस नाले के पार से १ मील दूर चोपड़ा कुण्ड है, जहाँ दिगम्बर जैन मंदिर है, वहाँ भगवान पार्श्वनाथ, भगवान चन्द्रप्रभ तथा बाहुबली स्वामी की मूर्ति स्थापित है। यहाँ से आधा किलोमीटर की दूरी पर देवाधिदेव कुन्थुनाथ स्वामी तथा गौतम गणधर महाराज की टोंक शुरू होती है। इस पर्वत की वंदना करते समय यात्री जूते, चप्पल, ऊनी वस्त्र, चमड़े की बनी वस्तुओं का उपयोग न करें क्योंकि यह पाप बंध का कारण है।
मधुवन से भगवान् कुंथुनाथ जी की टोंक तक ६ मील (९ किमी.) तथा ऊपर समस्त टोकों की वन्दना का घुमाव ६ मील तथा पार्श्वनाथ से नीचे धर्मशाला तक आने में ६ मील इस प्रकार १८ मील यानि २७ किमी. की यात्रा में पुण्यभूमि के प्रताप से किसी प्रकार की थकावट प्रतीत नहीं होती है। इस गिरिराज से असंख्यात चौबीसी और अनन्तानन्त मुनीश्वरों ने कर्म नाशकर मोक्ष पद प्राप्त किया है।
तीर्थराज सम्मेदशिखर के २० टोंकों से २० तीर्थंकरों के साथ ८६ अरब ४८८ कोड़ाकोड़ी १४० कोड़ी १०२७ करोड़ ३८ लाख ७० हजार तीन सौ तेईस मुनि कर्मों को नाश कर मोक्ष पधारे। इस कारण इस भूमि का कण-कण पूजनीय एवं वंदनीय है।
सभी पापों का संहार करने वाले तीर्थराज की वंदना महान् पुण्य का कारण है। एक बार इस तीर्थ की वंदना करने से ३३ कोटि २३४ करोड़ ७४ लाख उपवास का फल मिलता है।
गिरिराज का प्रभाव है कि विशाल जंगल में नाना प्रकार के क्रूर जीव हैं किन्तु आज तक किसी भी तीर्थयात्री को किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं पहुँचाई, यही तो इसका प्रभाव है।
आचार्यों ने आगम ग्रंथों में लिखा है कि इस १२ योजन (९६ मील) प्रमाण विस्तार वाले सिद्धक्षेत्र में भव्य राशि वैसी भी हो, अत्यन्त पापी जीव भी इसमें रहता हो/जन्म लेता हो तो भी ४९ जन्मों के बीच में कर्म नाश कर बंधन मुक्त हो जाता है।
इसीलिए संसार में सम्मेदशिखर तीर्थ की वंदना का अचिन्त्य फल माना गया है। वर्तमान में सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर अनेक दिगम्बर जैन संस्थाओं के द्वारा विविध जिनमंदिर, आश्रम, धर्मशाला आदि का संचालन हो रहा है। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के द्वारा भी समय-समय पर क्षतिग्रस्त टोंकों एवं चरणचिन्हों का जीर्णोद्धार किया जाता है। पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी सदैव कहा करती हैं कि मेरे गुरुदेव पूज्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज कहते थे-
जिसने जीवन में सम्मेदशिखर की वंदना नहीं की, आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के दर्शन नहीं किये उसका जीवन अधूरा है अर्थात् तीर्थों में तीर्थराज सम्मेदशिखर जी एवं गुरुओं में गुरु श्री शांतिसागर जी का दर्शन प्रत्येक भव्यात्मा के लिए कल्याणकारी माना गया है।
ऐसे उस पावन तीर्थ सम्मेदशिखर जी एवं वहाँ से मुक्ति को प्राप्त हुए अनन्तानन्त सिद्ध भगवन्तों को मेरा अनन्तानन्त बार वंदन है और अन्त में यही भावना है-