सिद्ध हुए जो भी मनुज, कर्म अरी को जीत।
उनके पद को नमन कर, करूँ सिद्धि से प्रीत।।१।।
भव भव की जो भावना, भाई इस भव माँहि।
वही सफल हो कामना, हो भव का भ्रम नाहिं।।२।।
संसार के दुख से हुए भयभीत जो प्राणी।
उनके लिए हितकारि प्रभु जिनेन्द्र की वाणी।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।३।।
नारी व नर सभी की आतमा है एक सी।
सबमें छिपी भगवान आतमा है एक सी।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।४।।
कुछ पूर्व के संस्कार से वैराग्य मिल गया।
पुरुषार्थ के निमित्त सोया भाग्य खिल गया।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।५।।
संसार को तज सकते हैं संसार में रह कर।
जीवन के किसी क्षण में भी वैराग्य ग्रहण कर।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।६।।
माँ को दहेज में मिले इक ग्रंथ को पढ़ा।
जिससे हृदय में ज्ञान औ वैराग्य था बढ़ा।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।७।।
संसार में अनादिकाल से भ्रमण हुआ।
अब पुण्य से जिनधर्म का अवलम्ब मिल गया।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।८।।
माता-पिता भाई बहन कोई न हैं अपने।
सोचो तो सभी लोग हैं संसार के सपने।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।९।।
जग में प्रसिद्ध लोक मूढ़ताओं को रोका।
है कर्म का सिद्धान्त अटल शेष सब धोखा।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।१०।।
प्रभु भक्ति से टल सकती है अकाल मृत्यु भी।
समझाया सबको इसके सिवा व्यर्थ है सभी।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।११।।
पग पंक में रख धोने से अच्छा है न रखना।
सोचा यही भव पंक में पग ही नहीं रखना।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।१२।।
वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला गणिनी ज्ञानमती महापूजा
अकलंक के नाटक से ग्रहण की यही शिक्षा।
गृहपंक को तज ले ली ब्रह्मचर्य की दीक्षा।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।१३।।
आगे बढ़ीं तो ज्ञानमती मात बन गई ।
इस युग की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी हुई ।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।१४।।
कुछ पूर्व पुण्य से अगाध ज्ञान मिल गया।
स्वयमेव कठिन ग्रंथों का अनुवाद कर दिया।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।१५।।
चाहे बनाओ शिष्य या तीरथ विकास हो।
संयम पले निर्विघ्न तो सब कुछ ही सार्थ हो।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।१६।।
चारित्र चक्रवर्ति शांतिसिंधु से लेकर।
देखा है सात पीढ़ियों से संघ चतुर्विध।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।१७।।
कलियुग में त्याग मार्ग है यद्यपि बहुत कठिन।
होता है तो भी साधु और साध्वी का दर्शन।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।१८।।
है त्याग से पवित्र जिनकी काया का कण-कण।
सब लाभ लेते उनकी तपस्या का प्रतिक्षण।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।१९।।
जिनकी चरणरज से धरा बनती है स्वर्ण सम।
जिन प्रेरणा से होता है जंगल में भी मंगल।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।२०।।
जीवन से जिनके सीखना है त्याग तपस्या।
जो हैं प्रसिद्ध बीसवीं सदी की विशल्या।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।२१।।
प्रभु नाम जिनके रोम-रोम में है समाया।
प्रभु नाम को ही जिनने विश्व भर में गुंजाया।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।२२।।
उन ज्ञानमती मात को शत-शत नमन करूँ।
उनके चरण में ‘‘चन्दनामती’’ सुमन धरूँ।।
वैराग्य भावना है ज्ञानमती मात की।
गणिनीप्रमुख हुई जो बीसवीं शताब्दि की।।२३।।
यह वैरागी भावना, पढ़ो भव्य मन लाय।
फिर विराग की साधना, करो चित्त हरषाय।।२४।।