गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के जीवन पर आधारित
नाटक
सच्चा वैराग्य – बना इतिहास
लेखिका – आर्यिका श्री चंदनामती माताजी
मंच पर सामूहिक गान के साथ डांडिया नृत्य –
तर्ज-पंखिड़ा……………..
वन्दना करूँ मैं गणिनी ज्ञानमती की।
बीसवीं सदी की पहली बालसती की।। वंदना……..।।टेक.।।
इनके मात-पिता का, गुणानुवाद मैं करूँ,
इनकी जन्मभूमि का भी, साधुवाद मैं करूँ।।
मिल के आओ, मिल के गाओ, मिल के करो जी।
वन्दना चरण मेें करके, पुण्य भरो जी।।वंदना………….।।१।।
वीर के युग की ये, लेखिका पहली हैं,
ढ़ाई सौ ग्रंथों की, लेखिका साध्वी हैं।।
मिल के आओ, मिल के गाओ, मिल के करो जी,
वन्दना चरण में करके, पुण्य भरो जी।।वंदना…………..।।२।।
इनके वात्सल्य में, माँ की ममता भरी,
इनके सानिध्य में, मुझको समता मिली।।
मिल के आओ, मिल के गाओ, मिल के करो जी,
वन्दना चरण में करके, पुण्य भरो जी।।वंदना………….।।३।।
इनके तप त्याग से, लाभ लेते सभी,
‘‘चन्दना’’ भाग्य से, भक्ति करते सभी।
मिल के आओ, मिल के गाओ, मिल के करो जी,
वन्दना चरण में करके, पुण्य भरो जी।।वंदना……………..।।४।।
(प्रथम दृश्य)
उत्तरप्रदेश के सीतापुर जिले में ‘‘महमूदाबाद’’ नामक नगर है। वहाँ जैन समाज के एक श्रेष्ठी सुखपालदास जैन के घर में दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हैं। उनमें से छोटी पुत्री मोहिनी के विवाह का दृश्य प्रस्तुत है –
(बारातियों की धूम मची है, शोरगुल चल रहा है, विदाई की बेला निकट है।)
मोहिनी – (रोती हुई माँ के गले से लिपट जाती है) माँ! मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं ससुराल में आपकी शिक्षाओं का पालन कर सवूँâ। मुझे जल्दी- जल्दी बुला लेना माँ, यह अपना घर छोड़कर मैं पराये घर में वैâसे रह पाऊँगी माँ।
माता मत्तोदेवी-(रोते हुए बेटी को समझाती है) नहीं बेटी मोहिनी! तुम अपना मन इतना छोटा न करो। तुम जहाँ जा रही हो, टिवैâतनगर के उस परिवार में सभी बहुत अच्छे लोग हैं, वे सब तुम्हें बहुत अच्छी तरह से रखेंगे। (सिर पर हाथ पेâरते हुए) मेरी बच्ची पर मुझे पूरा भरोसा है कि ससुराल में जाते ही वहाँ अपने मधुर व्यवहार से सबका मन मोह लेगी। बेटी! तुम्हारा नाम‘‘मोहिनी’’ है न, देखो मेरी ओर (बेटी का चेहरा अपने हाथों से ऊपर उठाकर)जैसा नाम-वैसा काम। ठीक है न, अब रोना नहीं है, वर्ना आंखें सूज जाएंगी और मेरी रानी सबको मुँह वैâसे दिखाएगी।
(कृत्रिम हंसी के साथ पुत्री को अपने से अलग कर विदा करने लगती है)
मोहिनी – (पास में खड़े पिताजी के चरण स्पर्श करती है) पिताजी!आप मुझे बहुत प्यार करते थे न, फिर क्यों मुझे अपने से दूर भेज रहे हैं? अब आपको जल्दी-जल्दी मेरे पास आना पड़ेगा। आएंगे न? बोलो।
पिता सुखपालदास- (रुंधे वंâठ से) हाँ बेटी! क्यों नहीं? अपनी लाडली के पास तो मैं बहुत जल्दी-जल्दी आया कऊश्ँगा। क्या कऊश्ँ पुत्री! यह मेरी नहीं, हर माता-पिता की मजबूरी होती है कि बेटी को पराये घर भेजना और पराये घर की बेटी लाकर पुत्रवधू के ऊश्प में अपने घर की शोभा बढ़ाना।
भाई महिपालदास –हाँ जीजी! यही इस सृष्टि की प्राचीन परम्परा है।
बड़ी बहन रामदुलारी –मोहिनी! देखो, मुझे भी तो तुम सभी ने मिलकर पराये घर भेजा था। अब मुझे वही ससुराल अपना घर लगता है और वहीं के सब लोग अपने माता-पिता, भाई-बहन के ऊश्प में प्रिय लगते हैं। इसी तरह तुम भी थोड़े दिन में अपने घर में रम जाओगी।
मोहिनी –(आँसू पोंछती हुई) ठीक है, ठीक है। अब मैं आप सबसे विदा लेकर एक संस्कारित कन्या के ऊश्प में ससुराल के प्रति अपने कर्तव्य को निभाऊँगी और हमेशा अपने पीहर का नाम ऊँचा रखूँगी।
(पति के साथ जाते-जाते पुन: एक बार माता-पिता की ओर देखकर मोहिनी भावुक होती हुई)
मोहिनी –पिताजी! माँ! मुझे और कोई शिक्षाऊश्पी उपहार दीजिए ताकि मेरी भावी जिंदगी बिल्कुल धर्ममयी बने।
पिताजी –हॉँ हाँ, अच्छी याद दिलाई बेटी! अरे महिपाल की माँ! लाओ न वह शास्त्र, वह तो मैं देना ही भूल गया था। जल्दी लाओ, यही तो अमूल्य उपहार है एक पिता द्वारा अपनी पुत्री के लिए।
(ग्रंथ देते हुए) ले बेटी! यह पद्मनंदिपंचविंशतिका ग्रंथ अपने घर में बड़े पुराने समय से पढ़ने की परम्परा रही है। इसका तुम भी रोजस्वाध्याय करना। बस, पुत्री! मेरा यही तेरे लिए अमूल्य उपहार है।
(बेटी के सिर पर हाथ पेâरते हुए) जा बेटी! तू सदा सुहागिन रहे, सुखी रहे, यही मेरा आशीर्वाद है।
सूत्रधार –
मानव समाज की दुनिया में, अब ऐसी नई लहर आयी।
इस ग्रंथ को पढ़कर जीवन में, जिनधर्म की बगिया लहराई।।
इसका ही चमत्कार प्रियवर, मुझको अब तुम्हें बताना है।
बस ज्ञानमती पैदा करने को, तत्पर हुआ जमाना है।।