Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

सच्चा वैराग्य – बना इतिहास

September 15, 2022नाटकjambudweep
  • Part 1
  • Part 2
  • Part 3
  • Part 4
  • Part 5
  • Part 6
  • Part 7
  • Part 8
  • Part 9
  • Part 10
  • Part 11
  • Part 12

गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के जीवन पर आधारित

नाटक


सच्चा वैराग्य – बना इतिहास

लेखिका – आर्यिका श्री चंदनामती माताजी

मंच पर सामूहिक गान के साथ डांडिया नृत्य –

तर्ज-पंखिड़ा……………..

वन्दना करूँ मैं गणिनी ज्ञानमती की।
बीसवीं सदी की पहली बालसती की।। वंदना……..।।टेक.।।
इनके मात-पिता का, गुणानुवाद मैं करूँ,
इनकी जन्मभूमि का भी, साधुवाद मैं करूँ।।
मिल के आओ, मिल के गाओ, मिल के करो जी।
वन्दना चरण मेें करके, पुण्य भरो जी।।वंदना………….।।१।।
वीर के युग की ये, लेखिका पहली हैं,
ढ़ाई सौ ग्रंथों की, लेखिका साध्वी हैं।।
मिल के आओ, मिल के गाओ, मिल के करो जी,
वन्दना चरण में करके, पुण्य भरो जी।।वंदना…………..।।२।।
इनके वात्सल्य में, माँ की ममता भरी,
इनके सानिध्य में, मुझको समता मिली।।
मिल के आओ, मिल के गाओ, मिल के करो जी,
वन्दना चरण में करके, पुण्य भरो जी।।वंदना………….।।३।।
इनके तप त्याग से, लाभ लेते सभी,
‘‘चन्दना’’ भाग्य से, भक्ति करते सभी।
मिल के आओ, मिल के गाओ, मिल के करो जी,
वन्दना चरण में करके, पुण्य भरो जी।।वंदना……………..।।४।।

 

(प्रथम दृश्य)


उत्तरप्रदेश के सीतापुर जिले में ‘‘महमूदाबाद’’ नामक नगर है। वहाँ जैन समाज के एक श्रेष्ठी सुखपालदास जैन के घर में दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हैं। उनमें से छोटी पुत्री मोहिनी के विवाह का दृश्य प्रस्तुत है –
(बारातियों की धूम मची है, शोरगुल चल रहा है, विदाई की बेला निकट है।)
मोहिनी –  (रोती हुई माँ के गले से लिपट जाती है) माँ! मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं ससुराल में आपकी शिक्षाओं का पालन कर सवूँâ। मुझे जल्दी- जल्दी बुला लेना माँ, यह अपना घर छोड़कर मैं पराये घर में वैâसे रह पाऊँगी माँ।

माता मत्तोदेवी-(रोते हुए बेटी को समझाती है) नहीं बेटी मोहिनी! तुम अपना मन इतना छोटा न करो। तुम जहाँ जा रही हो, टिवैâतनगर के उस परिवार में सभी बहुत अच्छे लोग हैं, वे सब तुम्हें बहुत अच्छी तरह से रखेंगे। (सिर पर हाथ पेâरते हुए) मेरी बच्ची पर मुझे पूरा भरोसा है कि ससुराल में जाते ही वहाँ अपने मधुर व्यवहार से सबका मन मोह लेगी। बेटी! तुम्हारा नाम‘‘मोहिनी’’ है न, देखो मेरी ओर (बेटी का चेहरा अपने हाथों से ऊपर उठाकर)जैसा नाम-वैसा काम। ठीक है न, अब रोना नहीं है, वर्ना आंखें सूज जाएंगी और मेरी रानी सबको मुँह वैâसे दिखाएगी।

(कृत्रिम हंसी के साथ पुत्री को अपने से अलग कर विदा करने लगती है)
मोहिनी –  (पास में खड़े पिताजी के चरण स्पर्श करती है) पिताजी!आप मुझे बहुत प्यार करते थे न, फिर क्यों मुझे अपने से दूर भेज रहे हैं? अब आपको जल्दी-जल्दी मेरे पास आना पड़ेगा। आएंगे न? बोलो।
पिता सुखपालदास-  (रुंधे वंâठ से) हाँ बेटी! क्यों नहीं? अपनी लाडली के पास तो मैं बहुत जल्दी-जल्दी आया कऊश्ँगा। क्या कऊश्ँ पुत्री! यह मेरी नहीं, हर माता-पिता की मजबूरी होती है कि बेटी को पराये घर भेजना और पराये घर की बेटी लाकर पुत्रवधू के ऊश्प में अपने घर की शोभा बढ़ाना।
भाई महिपालदास –हाँ जीजी! यही इस सृष्टि की प्राचीन परम्परा है।

बड़ी बहन रामदुलारी –मोहिनी! देखो, मुझे भी तो तुम सभी ने  मिलकर पराये घर भेजा था। अब मुझे वही ससुराल अपना घर लगता है और वहीं के सब लोग अपने माता-पिता, भाई-बहन के ऊश्प में प्रिय लगते हैं। इसी तरह तुम भी थोड़े दिन में अपने घर में रम जाओगी।
मोहिनी –(आँसू पोंछती हुई) ठीक है, ठीक है। अब मैं आप सबसे विदा लेकर एक संस्कारित कन्या के ऊश्प में ससुराल के प्रति अपने कर्तव्य को निभाऊँगी और हमेशा अपने पीहर का नाम ऊँचा रखूँगी।

(पति के साथ जाते-जाते पुन: एक बार माता-पिता की ओर देखकर मोहिनी भावुक होती हुई)
मोहिनी –पिताजी! माँ! मुझे और कोई शिक्षाऊश्पी उपहार दीजिए ताकि मेरी भावी जिंदगी बिल्कुल धर्ममयी बने।

पिताजी –हॉँ हाँ, अच्छी याद दिलाई बेटी! अरे महिपाल की माँ! लाओ न वह शास्त्र, वह तो मैं देना ही भूल गया था। जल्दी लाओ, यही तो अमूल्य उपहार है एक पिता द्वारा अपनी पुत्री के लिए।

(ग्रंथ देते हुए) ले बेटी! यह पद्मनंदिपंचविंशतिका ग्रंथ अपने घर में बड़े पुराने समय से पढ़ने की परम्परा रही है। इसका तुम भी रोजस्वाध्याय करना। बस, पुत्री! मेरा यही तेरे लिए अमूल्य उपहार है।
(बेटी के सिर पर हाथ पेâरते हुए) जा बेटी! तू सदा सुहागिन रहे, सुखी रहे, यही मेरा आशीर्वाद है।
सूत्रधार –

मानव समाज की दुनिया में, अब ऐसी नई लहर आयी।
इस ग्रंथ को पढ़कर जीवन में, जिनधर्म की बगिया लहराई।।
इसका ही चमत्कार प्रियवर, मुझको अब तुम्हें बताना है।
बस ज्ञानमती पैदा करने को, तत्पर हुआ जमाना है।।

(द्वितीय दृश्य)


(इस प्रकार इधर महमूदाबाद से बारात विदा हो जाती है और अब टिकैतनगर में नई बहू के आगमन के उपलक्ष्य में खुशियाँ छाई हैं। बाजे बज रहे हैं, महिलाएँ मंगलाचार गा रही हैं।)

लाला धन्यकुमार का घर, बहू को मंदिर ले जाती महिलाएँ। मंदिर दर्शन करने के बाद घर आकर सभी नित्य क्रियाओं में निमग्न हो जाते हैं पुन: एकदिन मोहिनी को स्वाध्याय करते देखकर सासू माँ अपनी बेटियों से कहती हैं-

(मोहिनी को पद्मनंदिपंचविंशतिका शास्त्र का स्वाध्याय करते दिखावें।)

सासू माँ –देखो मुन्नी! मेरे घर में वैसी धर्मात्मा बहू आई है, इसने तो आते ही घर का वातावरण ही बदल दिया है।

मुन्नी-हाँ, माँ! धर्मात्मा तो बहुत दिख रही है किन्तु खाने-खेलने, सजने-संवरने के सुनहरे दिनों में भाभी के लिए इतना धर्मध्यान करना क्या उचित है? माँ! मुझे यह सब देखकर कुछ डर लगता है कि कहीं इस घर में कभी वैरागी बाजे न बजने लग जाएं।

सासू माँ – नहीं नहीं मुन्नी! ऐसी कोई बात नहीं है अरे! तुम इतनी आगे तक कहाँ सोचने लग गर्इं। (कुछ चिन्तन मुद्रा में) अच्छा देखो, मैं बहू से पूछती हूँ कि इस शास्त्र में गृहस्थ धर्म का वर्णन है या वैराग्य भावना का?
बहू ओ बहू! यह शास्त्र तुम्हें बहुत अच्छा लगता है। बताओ, इसमें क्या लिखा है?

मोहिनी –माँ जी! यह वही शास्त्र तो है जो मुझे विदाई के समय दहेज के ऊश्प में मेरे बापू जी ने दिया था।
(हाथ जोड़कर विनम्रता से सासू के पास आकर) इस शास्त्र में गृहस्थों के लिए बड़ी अच्छी-अच्छी बातें लिखी हैं।

सासू माँ –मेरी प्यारी बहू! मुझे भी तो कुछ बताओं कि कौन सी अच्छी-अच्छी बातें हैं?

मोहिनी –(शास्त्र उठाकर पास में लाती है) देखिए माँ जी! इसमेंलिखा है कि श्रावक-श्राविकाओं को घर में रहते हुए भी देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छह कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। इससे वे भी मोक्षमार्गी माने जाते हैं।

सासू माँ –किन्तु मेरी पूâल जैसी बहू को अभी से पूजा, संयम, तप इन सबको जानने की क्या जरुरत है। बेटी! तुम तो अभी मेरे लड़के को खूब खुश रखो। गृहस्थ नारी के लिए अपना पति ही परमेश्वर होता है और उसकी सेवा ही परमात्मा की पूजा समझना चाहिए। समझीं बहू! हाँ, दर्शन तो तुम रोज करती ही हो, दान भी जो इच्छा हो कर लिया करो, लेकिन संयम-तप की बात अभी बिल्कुल मत किया करो।

मोहिनी –(सासू माँ के पैर पकड़कर) माँ जी! मैं कहाँ दीक्षा लियेले रही हूँ। लेकिन घर में रहकर भी भोगों की तृष्णा थोड़ी कम की जाए तो भी संयम का पालन हो जाता है और पुण्य का बंध होता है।

सासू माँ –मैं समझी नहीं, मेरी बहू क्या कह रही है?

मोहिनी –नहीं माँ जी! कुछ नहीं, बस मैं यही कह रही थी कि
अष्टमी-चौदश, अष्टान्हिका-दशलक्षण आदि पर्वों में गृहस्थ भी संयम का पालन करके पाप कर्मों को नष्ट कर सकते हैं।

सासू माँ –अच्छा-अच्छा बस, चलो बहू! शास्त्र बंद करो और मेरे लिए नाश्ता लगाओ, सुनो! तुम भी मेरे साथ बैठकर नाश्ता किया करो। देखो बेटा! शास्त्र तो रोज चार-चार लाइन पढ़ा जाता है, बस यही स्वाध्याय है। (मोहिनी उठकर काम मे लग जाती है और देखते-देखते दिन, महीने, वर्ष निकल जाते हैं। फिर एक दिन गर्भवती मोहिनी प्रसव
वेदना से कराहने लगती है। कुछ ही देर में समाचार ज्ञात होता है कि प्रथम पुष्प के ऊश्प में कुलवधू ने कन्यारत्न को जन्म दिया है। अन्दर से धाय की आवाज आती है।
धाय -देखो, देखो मालकिन, अरे देखो तो सही! यहाँ प्रसूतिगृह में वैâसा उजाला छा गया है। ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे घर में कोई देवी का अवतार हुआ हो? लेकिन यह क्या, यह बिटिया तो रो ही नहीं रही है।

सासू माँ –हे भगवान्! मेरी बहू का पहला पूल है, कुम्हलाने न पाए। प्रभो! इसकी रक्षा करना। (इस प्रकार सभी की मंगल कामना और खुशियों के साथ कन्या का जन्म उस घर के लिए वरदान बन गया। धीरे-धीरे बालिका सबकी गोद का खिलौना बन गई। उसका नाम पड़ा-मैना। धीरे-धीरे मैना बड़ी होने लगी और ७-८ साल की होते-होते उसमें ज्ञान की किरणें प्रस्पुâटित होने लगीं, उस पर माँ मोहिनी ने उसे और भी ज्यादा संस्कारित होने का मौका दे दिया। होता क्या है एक दिन-

मैना –(यहाँ ७ साल की बालिका को प्रक पहने हुए दिखावें) माँ! मैं सहेलियों के साथ बाहर खेलने जा रही हूँ।

माँ –अरी मैना! कहाँ जाओगी खेलने, क्या रखा है खेल-वेल में। मुझे यह शास्त्र पढ़कर सुनाओ। देखो! इसमें कितनी अच्छी-अच्छी बातें लिखी हैं।

मैना –(माँ के पास बैठकर शास्त्र पढ़ती है) सती मनोवती ने क्वाँरीअवस्था में ही गजमोती चढ़ाकर भगवान के दर्शन करने की प्रतिज्ञा ले ली। पुन: विवाह के बाद अनेकों संकट आने के बाद भी वह अपने नियम में अडिग रही, तो देवता भी उसके सामने नतमस्तक हो गये और उसकी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए जंगल में भी एक तलघर के अंदर मंदिर प्रगट हो गया एवं चढ़ाने हेतु गजमोती भी रख दिए। (इतना पढ़कर कहती है) ओ हो! कितनी रोमांचक कहानी है। मेरी प्यारी माँ! ऐसी सुन्दर कहानियाँ तो मुझे रोज पढ़ने को दिया करो।

माँ –ठीक है बिटिया! ऐसी कहानी पढ़ने में जो आनंद मिलता है वह भला खेल में मिलेगा क्य। चलो, अब मेरे साथ थोड़ा रसोई का काम करो, जिससे तुम बहुत जल्दी एक होशियार लड़की बन जाओगी। (मैना माँ के साथ काम में लग जाती है किन्तु काम करते-करते भी वह पुस्तक खोलकर आलोचना पाठ विनती आदि याद करने लगती है)

मैना –(याद करती हुई गुनगुनाती है) द्रौपदि को चीर बढ़ाया, सीता प्रति कमल रचाया। अंजन सों कियो अकामी, दुख मेटो अन्तर्यामी।। (माँ से कहती है) माँ! देखो मैंने यह आलोचना पाठ पूरा याद कर लिया है।

माँ –(बेटी के सिर पर हाथ पेâरती है) मैना! तुम इतनी छोटी होकर भी बहुत होशियार हो गई हो। अरे! मेरी गुड़िया को किसी की नजर न लग जाए। बिटिया! अब मैं तुम्हें वह शास्त्र भी दिखाऊँगी जिसे तुम्हारे नाना जी ने मुझे दहेज में दिया था। उसका नाम है-पद्मनंदिपंचविंशतिका। अर्थात् आचार्य श्री पद्मनंदि ने इसे लिखा है, इसमें पच्चीस अध्याय हैं जो एक से एक अच्छे हैं।

मैना –मुझे जल्दी दिखाओ वह शास्त्र। नानाजी की धरोहर, मैं उसका एक-एक शब्द पढूंगी और उसे याद भी कर लूँगी। ठीक है न माँ। (जाकर माँ के गले से लग जाती है। माँ अपनी उस देवी सी पुत्री को कलेजे से लगाकर असीम सुख का अनुभव करने लगती है। अगले दिन पुन:) –

माँ –बिटिया मैना! लो पहले दूध पियो (गिलास देती हुई) फिर मैं रसोई में खाना बनाने जा रही हूँ। तुम अपने छोटे भाई-बहनों को संभाल लेना। वैâलाश को तैयार करके स्वूâल भेज देना, श्रीमती-मनोवती और प्रकाश-सुभाष को नहला-धुलाकर मंदिर भेज दो,फिर सबको नाश्ता करवाकर नौकर के साथ बाहर खेलने भेज देना।

मैना –ठीक है माँ! मैं अब आपके हर काम में सहयोग कऊश्ँंगी। बड़ी हो गई हूँ ना, इसलिए दादी-बाबा का भी ध्यान रखूँगी। आप अकेली सब काम करती-करती थक जाती हो ना। (बच्चों को जल्दी-जल्दी तैयार करके स्कूल और मंदिर भेजती है पुन: दादी से कहती है)
दादी जी! आप नाश्ता कर लीजिए, माँ ने यह नाश्ता आपके लिए भेजा है।

दादी माँ-जुग जुग जिये मेरी पोती रानी, मैं तो निहाल हो गई हूँ। ऐसी सुन्दर और सुयोग्य पोती पाकर। (फिर वे मैना के सिर पर हाथ फिराती है) भगवान्! इसे अच्छी सी ससुराल दे, खूब सुखी रहे मेरी
लाडली। (मैना के बाबा से कहने लगती हैं) अजी! सुनो तो सही, देखो! अपनी मैना अब मेरी कितनी सेवा करने लगी है। इस भोली सी बच्ची को तुम पैसे-वैसे तो दिया करो, यह तो बेचारी कभी कुछ मांगती ही नहीं है।

बाबाजी-आ जा बेटी मेरे पास। यह तो मेरी सबसे दुलारी पोती है। (मैना बाबा के पास चली जाती है) अरे मैना की दादी! तुम इसे पैसे देनेकी बात करती हो, मेरा सब कुछ तो इसी का है। मेरा बेटा छोटेलाल देखो कितना होशियार है। उससे कहकर मैं इसकी खूब अच्छी शादीकराऊँगा, फिर तो मेरी बच्ची दूधों नहायेगी। (मैना के सिर पर हाथ फेरते हैं, मैना शर्माई सी सिर नीचा करके माँ के पास चली जाती है)

मैना -माँ!माँ! दादी-बाबा तो बस सीधे मेरी शादी के ही सपने संजोने लगे। क्या एक बेटी की यही नियति होती है कि उसे पाल-पोस कर शादी करके ससुराल भेज दिया जाए। बस, इससे ज्यादा यहाँ मेरी कोई अहमियत नहीं है। ये शादी-वादी की बात मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती है।

माँ –नहीं बेटी! ऐसी बात नहीं है। तुम सबकी बहुत लाडली बेटी हो ना, इसीलिए सब तुम्हारे भविष्य की चिंता करते हैं। लेकिन अभी मेरी बच्ची की उमर ही क्या है। अच्छा जाओ मैना! तुम थोड़ी देर सहेलियों के साथ कोई खेल खेल आओ, मूड बदल जाएगा।

मैना-नहीं, मुझे खेलने नहीं जाना है। आज तो मैं वो आपका वाला शास्त्र पढ़ूंगी उसी से मन बदल जाएगा।
(शास्त्र उठाकर बड़ी विनय से चौकी पर रखती है, पास में माँ और दादी दोनों बैठकर सुनने लगती हैं)

दादी-बिटिया! सुनाओ, आज तुमरे मुंह से हमहू शास्तर सुने खातिर बइठी हन। जानत हौ, ई शास्तर तुमरी महतारी का तुमरे नाना दिहिन हैं। ईका का नाम है? जरा बताव।

मैना -दादी! इस शास्त्र का नाम है -पद्मनंदिपंचविंशतिका। (ॐकांर बिंदु संयुत्तं की दो लाइनें पढ़कर शास्त्र पढ़ती है) अब आप लोग ध्यानपूर्वक इसको सुनिये-देखो! इसमें लिखा है कि ‘संसार की चारों
गतियों में मनुष्य गति सबसे अच्छी गति है, क्योकि मनुष्य के अन्दर विवेक होता है और मोक्ष जाने के लिए प्रबल पुरुषार्थ कर सकता है। अनादिकाल से यह जीव संसार में मिथ्यात्व और अज्ञान के कारण
चौरासी लाख योनियों में घूम रहा है। (मैना आगे कहती है)-
समझी माँ! संसार में मिथ्यात्व और अज्ञान सबसे ज्यादा खराब होता है। देखो! आगे क्या लिखा है? ‘‘इन्द्रत्वं च निगोदतां च बहुधा मध्ये तथा योनय:’’……….ओ हो! कितनी सुन्दर बात आचार्यदेव लिख रहे हैं कि ‘‘हे आत्मन्! तूने संसार में न जाने कितनी बार स्वर्गों में इन्द्र का पद पाया, कितनी ही बार एकेन्द्रिय की निगोद पर्याय पाई, जहाँ किसी के द्वारा कभी संबोधन भी नहीं मिल सकता है तथा तरह-तरह के पशु-पक्षी, नारकी आदि जन्मों को धारण कर दु:ख उठाये हैं……………..।
(कुछ चिंतन मुद्रा में कहती है)–
देखो तो माँ! इस अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य जनम को पाकर भी केवल विषय-भोगों में प्राणी रम जाता है और अपने अंदर छिपी भगवान् आत्मा को पाने का कोई पुरुषार्थ ही नहीं हो पाता है।

दादी –(मोहिनी से) अरी बहू! ई लड़की का तुम यू सब का पढ़ाय रही है। ई वैराग की बात पढ़-पढ़के, कहूँ हमरी मैना घर से उड़ ना जाय। हमका तो बड़ी चिंता है। अब शास्तर इससे न पढवाव, नाही तो वैराग ईके सिर चढके बोले वोले लगि है।

मोहिनी –ठीक है माँ जी! अब हम खुद शास्त्र पढ़ा करेंगे, इससे नहीं पढ़ायेंगे। (कुछ सोचकर) लेकिन माँ जी! इस लड़की में तो स्वयं ही न जाने कहाँ से ज्ञान भर गया है, इसने तो मुझे समझा-समझाकर कई मिथ्यात्व क्रियाओं का त्याग करा दिया है। अब मुझे भी समझ में आ गया है कि पुरानी परम्परा से चली आर्इं कुरीतियाँ हैं उन्हें छोड़कर केवल भगवान की भक्ति में ही दृढ़ श्रद्धान करना चाहिए। ठीक है न माँ जी?

दादी माँ-अरे वाह! र्इं तो महतारी खुदै बिटिया का धरम पढ़ाय- पढ़ाय चापर किये हैं। ऊका अपनी गुरु बनयिहौ बहू, फिर तो यू समझौ गई हाथ से। जहाँ ब्याहके जइहै, हुआं यही मेल राग फैलइहैं । अरे भगवान्! हमका तो ई लड़की की बड़ी चिन्ता है। सुनौ, मैना के बाबा! ओ बेटा छोटेलाल! ईके खातिर बड़ा धर्मात्मा घर देखेव, नाई तो या जहाँ जइहै रोज लड़ाई होइहै सास-नन्द से। (हांफती हुई दादी अंदर जाने लगती हैं) रक्षा करौ रक्षा करौ भगवान्! हमरी पोती की बुद्धी ठीक कर देव।

छोटे लाल-(माँ को रोककर) अरे अम्मा! तुम चिंता न करो। मैना अभी छोटी है, थोड़ी बड़ी हो जाएगी तो सारा लोक व्यवहार समझ जाएगी।

बाबाजी-हाँ हाँ! मैना की दादी! तुम बेकार घबड़ात हौ, अपनी मैना तो बड़ी अच्छी लड़की है। वा ससुराल जायके तुमरी बदनामी न होय देहै। बस थोड़ी धर्मात्मा ही तो है तो हम लोग अपने नगर के आसैपास मा कोई धर्मात्मा परिवार देख लेबै। ईका बड़ी तो होय देव, सब चिंता दूर अपने आपय होइ जइहै।

छोटे लाल-अरे पिताजी! सभी संतान अपना-अपना भाग्य लेकर ही जनमते हैं। इसके भाग्य में जैसा वर लिखा होगा, वही तो मिलेगा। हम लोग तो केवल निमित्त मात्र बनकर इनका लालन-पालन करते हैं और फिर यह लड़की तो हमारे लिए पुत्री नहीं पुत्र के समान है। अम्मा! जानती हो, हमारे व्यापार में भी इससे पूरा सहयोग मिलता है, मेरे कमाए हुए नोटो को, पैसों को यही तो संभालकर रखती है, फिर मुझे
सबकी अलग-अलग गड्डियाँ लगाकर देती है।

दादी-अच्छा भैय्या! अब समझ मा आवा कि या बिटेवा तुमरी तिजोड़ी संभाले है। फिर तो हमका कौनो चिन्ता नाई है ।
(इस प्रकार आपसी वार्ता में विषय यहीं समाप्त होजाता है)

सूत्रधार-अरे भैय्या! मेरी बहना! सब सुन रहे हो न ध्यान से उस मैना की कहानी, जिन्होंने अपने विलक्षण कार्यकलापों से ज्ञानमती नाम को प्राप्त किया है। अर्थात् साधारण कन्याओं की तरह से इनका बचपन नहीं बीता, बल्कि बचपन से ही अपने क्षण-क्षण का सदुपयोग किया था। तभी तो इनके लिए लिखा गया है–

जब बाल्यकाल देखा सबने, मैना का बड़ा निराला है।
उस नगरी में इस बाला सा, कोई ना प्रतिभा वाला है।।
प्रारंभिक बेसिक शिक्षा पर, थी ऐसी कड़ी नजर डाली।
कुल आठ बरस में मैना ने, यह शिक्षा पूरी कर डाली।।१।।

था आगे और नहीं साधन, पर साध न पूरी हो पाई।
फिर गई जैन शाला पढ़ने, मच गई वहाँ हलचल भाई।।
मैना इस तरह वहाँ जाकर, मेधा को और निखार चली।
जो आगे पढ़ने वाली थी, हर बाला इनसे हार चली।।२।।

उस शाला में इस बाला का,पढ़ने का अलग तरीका था।
तोता-मैना की तरह न इस, मैना ने रटना सीखा था।।
जो उसको सबक मिला करता, आ चरणों से कर दिखलाया।
अर्जुन सम एक लक्ष्य सिद्धी, करने का मानो युग आया।।३।।

सूत्रधार-चलो भाई चलो! आगे देखें कि अब क्या होता है? मैना देवी अब क्या गुल खिलाती हैं?–

(तृतीय दृश्य)


जिनेन्द्र भक्ति का चमत्कार

(टिकैतनगर में घर का दृश्य है, दो बच्चे एक पलंग पर लेटे हैं (एक बच्चा ३ वर्ष का, दूसरा ५ वर्ष का है)
पास में बैठी माँ उनके पंखा कर रही है। घर में सभी लोग अपने-अपने काम में लगे हैं। १-२ बच्चे आ-आकर थोड़ा परेशान करते हैं तो माँ उन्हें गुस्सा करके वहाँ से भगाती है। तभी मैना (१२ वर्ष की लड़की दिखावें) वहाँ आ जाती है–

मैना- माँ! इन दोनों भाइयों को क्या हो गया है? आप तो आज बड़ी दु:खी दिख रही हो।

माँ –दु:ख की तो बात ही है बेटी। देखो! सुभाष और प्रकाश दोनों तुम्हारे छोटे भाइयों को बड़ी भयंकर चेचक निकल आई हैं।

मैना कोई बात नहीं माँ! यह बीमारी आई है, दवा देने से धीरे-धीरे ठीक हो जाएगी।

माँ –नहीं मैना! तुम इस बीमारी की गंभीरता नहीं समझती हो। इस समय अपने पूरे नगर में यह रोग खूब पैला है। रोज सुनने में आ रहा
है कि उसका बच्चा मर गया, उनकी लड़की बच नहीं पाई। लोग कहते हैं कि यह बीमारी नहीं, दैवी प्रकोप है। इसमें बचना मुश्किल ही रहता है।

मैना- आप घबराओ मत मेरी माँ! सब समय से ठीक हो जाएगा। आप जाकर काम देख लो, मैं इन बच्चों की देख-भाल कर लूँगी। (माँ को भेजकर खुद भाइयों को खोलकर देखती है तो थोड़ा घबड़ा जाती है।) हे भगवान्! वैसे ठीक होंगे मेरे भाई। (इतनी देर में ही कई पुरुष घर में घुस आते हैं और छोटेलाल जी से कहते हैं)

एक व्यक्ति-अरे भइया, सुनो! यह भयंकर दैवी प्रकोप बड़ी जोर से पैला है, मेरे घर में भी एक बच्ची को चेचक हो गई है, वह तो बिल्कुल संसार से विदाई ही लेने को तैयार है। तुम्हारे बच्चों के क्या हाल हैं भाई।

छोटेलाल –हालत तो इनकी भी ठीक नहीं है। बस मेरी बिटिया मैना दिन भर इनकी सेवा में लगी रहती है। देखो! भगवान् को क्या मंजूर है।

दूसरा व्यक्ति-अरे भाई छोटे! सुनो, हम सब मिलकर कल शीतला माता के मंदिर में चलकर पूजा करें, वर्ना हमारे बच्चे ठीक नहीं होंगे। सभी लोग यही कहते हैं कि यह बीमारी नहीं है, देवी माता का प्रकोप है, इसीलिए शीतल माता को ही खुश करना पड़ेगा। तो ठीक है, कल सुबह हम सब लोग साथ चलकर प्रसाद चढ़ायेंगे। (यह सारी वार्ता वहाँ खड़ी मैना सुन रही है, उन लोगों के जाने के बाद वह अपने माता-पिता से कहती है)-

मैना –(हंसकर) पिताजी! आप इन लोगों के साथ किसी देवी को प्रसाद चढ़ाने नहीं जाएंगे। माँ! आपका तो मिथ्यात्व करने का त्याग ही है।

छोटेलाल –क्यों बेटी! इसमें क्या आपत्ति है। अरे! ये सब तो बेचारे हमारे अच्छे के लिए ही कह रहे थे। यह देवी माता केवल हमारे घर में ही नहीं, सारे गांव को परेशान किए हुए हैं, तो इनको तो शांत
करना ही चाहिए।

मैना –यही तो भ्रांति पैâली है मेरे पिताश्री! जो आप लोगों ने इसे देवी का प्रकोप समझ रखा है। अरे! आप यह क्यों नहीं समझते कि यह केवल बीमारी है और बीमारी तो दवाई एवं भगवान के गंधोदक लगाने से चली जाएगी। सुनो माँ! इस घर में ऐसी रुढ़िवादिता अब आप एकदम समाप्त करो और मेरी बात मानकर आप तो भगवान शीतलनाथ के अभिषेक का गंधोदक लाकर बच्चों को लगाओ। मुझे विश्वास है कि जिस गंधोदक से सती मैना सुन्दरी ने राजा श्रीपाल सहित सात सौ कुष्टियों का कुष्ट रोग मिटा दिया था, उस गंधोदक से मेरे भाइयों की चेचक जरुरत ठीक हो जाएगी।

मोहिनी –(पति से) देखो जी! मेरे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए। मैना इतनी जिद कर रही है तो आप न जाकर किसी और से माता की शांति का उपाय कर दीजिए। अपने बच्चों को कुछ होना नहीं चाहिए। बड़ी भयंकर माता निकली हैं इन्हें देखों! अब तो इन्हें उठाना-संभालना भी मुश्किल हो रहा है।

मैना –नहीं माँ! यह भी नहीं होगा। बस, आप मंदिर में जाकर शीतलनाथ भगवान के अभिषेक का गंधोदक लाओ, इन्हें लगाओ, यदि इनकी आयु शेष होगी तो इन्हें हमसे कोई छीन नहीं सकता है।
(अगले दिन सुबह फिर कुछ लोग घर के पास आकर बोलते हैं)।
सामूहिक स्वर -अरे ओ भाई छोटेलाल! जल्दी आओ, चलो/ सब लोग सामान लेकर तैयार खड़े हैं। शीतला माता के पास चलना है।

छोटेलाल –(सकुचाते हुए घर से बाहर निकलकर) भैय्या! मैं आप लोगों के साथ जाने में मजबूर हूँ।

एक व्यक्ति –क्या बात है छोटे! क्या घर में कुछ ज्यादा समस्या है।

छोटेलाल –नहीं, ऐसा कुछ नहीं, बस! हमारी मैना बिटिया है न, वह इसको ढकोसला मानती है। उसने तो अपनी माँ को मंदिर से गंधोदक लाने भेजा है।

दूसरा व्यक्ति-अरे यार! तुम भी एक लड़की के कहने से बच्चों की जान पर खेल रहे हो। इसमें भला गंधोदक क्या काम करेगा। (यह वार्ता सुनते ही मैना बाहर निकलकर बड़ी नम्रता से सबको
समझाती है)

मैना –चाचा जी! आप लोग चेचक को माता का प्रकोप न मानकर इसे बीमारी समझिये और मेरा सभी से निवेदन है कि अपने मंदिर के भगवन्तों में बड़ा चमत्कार है, उनमें एक शीतलनाथ भगवान भी हैं। आप लोग भक्तिपूर्वक उनका अभिषेक कीजिए और श्रद्धा के साथ अपने-अपने बीमार बच्चों को गंधोदक लगाइए, वे जरुरतठीक हो जायेंगे।

एक व्यक्ति –मैना! तुम बहुत गलती पर हो। बिटिया! हर चीज का अपना-अपना महत्त्व होता है। इस समय तो माता की शांति ही इसका उपाय है, वर्ना तुम्हारे भाइयों की जान भी जा सकती है। थोड़ा समझदारी से काम लो बेटा।

मैना –देखो चाचा! किसी की आयु तो कोई बढ़ा नहीं सकता है। आप लोग भी रोज बारहभावना में पढ़ते हैं–

दल बल देवी देवता, मात-पिता परिवार।
मरती बिरिया जीव को, कोई न राखनहार।।

(वहाँ खड़े सभी लोग एक-दूसरे का मुँह देखकर कहने लगते हैं)-

एक व्यक्ति-चलो भाई यहाँ से चलो! यह लड़की तो हम लोगों को ही उपदेश देने लगी। चलो! हम तो चलें भैय्या, इन्हें इनके भाग्य पर छोड़ो, हम लोग तो अपने-अपने बच्चों की भलाई देखें। ये अपनी जानें, इनकी लड़की बड़ी धर्मात्मा बनती है न, उसी ने इन्हें गुमराह कर रखा है। चलो चलो, जल्दी चलो।
(सभी लोग बड़बड़ाते हुए चले जाते हैं, उधर से मोहिनी मंदिर से कलशी में गंधोदक लेकर आती है और बच्चों के शरीर पर बड़ी श्रद्धा से लगाती है।) (यहाँ मंत्र पढ़कर गंधोदक लगाने कादृश्य दिखावें)

सूत्रधार-बंधुओें! देखी न एक कन्या की दृढ़ता। गांव के बड़े- बुजुर्ग तो ऊश्ढिवादी परम्परा निभाने को शीतला माता के पास चले गए, लेकिन मैना ने अपने माता-पिता को वहाँ नहीं जाने दिया और भगवान
की भक्ति का सहारा लेकर ही उसने भाइयों को स्वस्थ करने का निर्णय ले लिया। फिर वह इस नाजुक क्षण में मंदिर जाकर भगवान से प्रार्थना करती है)–

मैना –(मंदिर मेंं भगवान के सामने हाथ जोड़कर) हे प्रभो! मेरे प्यारे भाइयों को स्वस्थ जऊश्र कर देना। मैंने सबकुछ छोड़कर भगवन्! आपका ही सहारा लिया है। नाथ! यदि मेरे भाइयों को जरा भी कुछ हो गया तो सारे नगरवासियों की श्रद्धा भगवान की भक्ति से हट जाएगी। भगवन्! मेरी लाज अब आपके हाथ में है, रक्षा करना। (गवासन से बैठकर नमस्कार करके वापस घर चली आती है)।

सूत्रधार-ओ हो मैं तो धन्य हो गया, ऐसी दृढ़ श्रद्धा-भक्ति देखकर। देखो ना! मैना ने भगवान के पास अपनी सारी बात कहकर उन्हीं के भरोसे अपनी नैया डाल दी। जरा आप लोग भी मेरे साथ बोलिए –
मैंने तेरे ही भरोसे भगवान्! भंवर में नैया डाल दई। (तीन बार) तो भाइयों, बहनों! अब आगे देखो क्या होता है? मैना के भाइयों के साथ-साथ पूरे नगर में पैâली चेचक की बीमारी ने अपना क्या ऊश्प ले रखा है?
(घर में मोहिनी प्रतिदिन गंधोदक लाकर बच्चों को लगाती हैं और मैना दिनभर भाइयों की साज-संभाल करती है, पुन: एक दिन)–

मैना –(माँ से) देखो माँ! इनके दाने तो एकदम सूख गए हैं। अब ये ठीक से आंखे खोलकर देख भी रहे हैं। (भाइयों को पुचकराते हुए) बेटा! हँसो-हँसो। सुभाष! अब तुम बिल्कुल ठीक हो। मेरे भइया प्रकाश! आओ जल्दी जीजी की गोद में। (दोनों बच्चे जल्दी से जीजी की गोद में पहुँचकर हंसने लगते हैं)
(इधर मैना के घर में बच्चों की किलकारियाँ छूट रही हैं, उधर बाहर से कई लोगों के रोने की आवाज आती है। लोग कह रहे हैं कि अरे भाई! मेरा बच्चा मर गया, मेरी लड़की मर गई। हमने इतना सब कुछ किया, शीतला माता की खूब पूजा की, उन्होंने भी हमारी रक्षा नहीं की।)

सूत्रधार-(खुशी से उछलता हुआ) चमत्कार हो गया, चमत्कार हो गया। मैना की भक्ती का सपना साकार हो गया। अरे भैय्या! जैसे उस मैना ने गंधोदक से पति का कुष्ट रोग दूर किया था, तो उसके बारे
में पढ़ते है–
‘‘फल पायो मैना रानी’’। अब इस मैना का साक्षात् चमत्कार भी देख लिया न, अब भी तो बोलो–
गंधोदक से हुई काया स्वर्ण समानी, फल पायो मैना रानी।
फिर जानते हो क्या हुआ?–
मैना की इस भक्ति का चमत्कार देखकर सारे नगर निवासी शीतलनाथ भगवान का जयजयकार करते हैं और समाज में व्याप्त कुरीतियाँ वहाँ से भगा दी जाती हैं। मैना को सभी लोग खूब साधुवाद देते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं।
स्त्री-पुरुषों का सामूहिक स्वर–
जय हो, शीतलनाथ भगवान की जय, चौबीसों भगवान की जय, सच्चे जैनधर्म की जय, मैना देवी की जय।

(चौथा दृश्य)


नाटक का मैना पर पड़ा प्रभाव

सूत्रधार-टिकैतनगर में वार्षिकोत्सव के अवसर पर अनेक प्रकार के रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन था। उसी में एक नाटक मण्डली द्वारा ‘अकलंक-निकलंक’ नाटक का मंचन चल रहा था। सारी समाज के साथ, साथ १५ वर्ष की कन्या मैना भी बैठी देख रही थी। उसमें एक
दृश्य प्रस्तुत होता है-
(एक पति-पत्नी अपने दो पुत्रों के (लगभग १५ वर्ष के) साथ मंदिर में दर्शन करके वहाँ विराजमान एक दिगम्बर मुनिराज के पास मस्तक झुकाकर कहते हैं)। (यहाँ मुनि का चित्र दिखावें)

दम्पत्ति-गुरुदेव! हम लोग को अष्टान्हिका पर्व तक ब्रह्मचर्य व्रत दे दीजिए।

मुनिराज –मंत्र पढ़कर व्रत देते हैं) जीवन में खूब धर्म की वृद्धि करो, यही मेरा मंगल आशीर्वाद है।

दोनों बालक –(सिर झुकाकर) पिताजी! हम लोग भी यही वाला व्रत लेंगे।

पिताजी –ठीक है बच्चों! तुम भी ले लो |

दोनों बालक –(सिर झुकाकर मुनि से) गुरु जी! हम लोगों को भी वही ब्रह्मचर्यव्रत प्रदान कीजिए, जो हमारे माता-पिता ने लिया है।

मुनिराज –(मंत्र पढ़कर व्रत देते हैं) बच्चों! तुम लोग भी जीवन में महान बनो और धर्म की खूब प्रभावना करो, यही मेरा शुभाशीर्वाद है।

सूत्रधार-इसके बाद वे सभी खुशी-खुशी घर चले जाते हैं। प्रसन्नतापूर्वक जीवन के दिन व्यतीत हो रहे हैं। पुन: कुछ वर्षों के बाद बालकों की तरुणावस्था देखकर माता-पिता उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखते हैं-

माता –(बच्चों को पास में बैठाकर प्यार से) अब मेरे बच्चे सयाने हो गये हैं, जल्दी से इनकी शादी करके घर में बहू लाना है। तभी तो घर में असली रौनक आएगी।

पिताजी –हाँ! मैं भी इन दिनों यही सोच रहा था कि अब अच्छी सी दो सुन्दर लड़कियाँ देखकर अकलंक-निकलंक का विवाह रचाना है।
(माता-पिता की इस चर्चा को सुनकर अकलंक विनयपूर्वक कहते हैं)

अकलंक –पिताजी! हम लोगों का तो ब्रह्मचर्य व्रत है, फिर विवाह की बात कैसे ?

निकलंक –हाँ पिताजी! आपके सामने ही तो हम लोगों ने मुनिवर से ब्रह्मचर्य व्रत लिया था तो अब शादी की बात कहाँ से आ गई?

पिताजी –अरे बेटे! यह तुम लोग क्या कह रहे हो।

माता –(हंसकर) मेरे भोले भाले बच्चों! वह तो केवल अष्टान्हिका पर्व में आठ दिन की बात थी। क्या उसको तुमने आजीवन समझ लिया है।

अकलंक –नहीं माँ! हमने व्रत लेते समय ऐसी कोई समय सीमा नहीं कही थी, अत: हम तो उसे जीवन भर ही निभाएंगे और आगे मुनिव्रत धारणकर आत्मकल्याण करेंगे। आप बिल्कुल चिंता न करें, हम लोग पूरे जीवन जिनधर्म की प्रभावना करके आपका नाम रोशन करेंगे।

पिताजी –(भावुक होकर) नहीं बेटा! ऐसा मत कहो। हम लोगों ने अपने बच्चों से बहुत सारी आशाएँ संजोई है। हमारी भावनाओं को मत ठुकराओ बच्चे।

माता –सुनो बेटे! मेरी बात मानो, तुम पहले शादी करो, जैसा कि धरती की प्राचीन परम्परा रही है, गृहस्थधर्म का पालन करो फिर कर्तव्य निर्वाह के बाद दीक्षा लेना।

अकलंक –पूज्य पिताजी! कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर नहीं रखना ही ज्यादा अच्छा है। अर्थात् पहले विवाह करके गृहस्थ कीचड़ में फसना पुन: उससे छूटने का पुरुषार्थ करना कीचड़ में पैर रखकर धोने के समान है किन्तु इसकी अपेक्षा विवाह नहीं करना ज्यादा ठीक है।

‘‘प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्’’

अर्थात् अब हमारा पक्का निर्णय है कि हम विवाह नहीं करेंगे।

सूत्रधार-जय हो, अकलंक-निकलंक की जय हो, असिधारा व्रत की जय हो।
कितना मार्मिक दृश्य है न भाइयों! आप लोगों के यह सब देख- सुनकर होश ही उड़ गए होंगे कि जिस घर में केवल दो ही बच्चे हों और दोनों दीक्षा लेने की ठान लें तो उनके माता-पिता पर क्या बीतेगी। वे ही घड़ियाँ अकलंक-निकलंक के माता-पिता पर बीतीं। किन्तु देखो मेरी माताओं-बहनों! उनके माता-पिता ने मात्र समझा-बुझाकर अपने बालकों की गृहस्थी बसाने का पुरुषार्थ किया, लेकिन उनकी दृढ़ प्रतिज्ञा देखकर उन्हें किसी कमरे में बंद नहीं कर दिया, मारा-पीटा भी नहीं।
और हाँ, अगर आपका बेटा ऐसा हो जाए, तो क्या आप भी ऐसे उदार बनोगे? (थोड़ा सा हंसकर) नहीं ना, तभी तो अब आपके घरों में अकलंक-निकलंक जैसे महापुरुष पैदा होना बंद हो गया है। लेकिन मेरे भाई! कभी-कभी कलियुग में भी सतयुग जैसा वातावरण दिखने लगता है। तब यह धरती वीरों एवं वीरांगनाओं से सनाथ हो जाती है।
यहाँ मैं आपको बताता हूँ कि इस ऐतिहासिक नाटक को टिकैतनगर की सारी जनता तो रोमांच से देख ही रही थी, उनके साथ बैठी यहाँ की देवी स्वऊश्पा मैना चूँकि अपने जीवन निर्माण के ताने-बाने बुन रही थी, उसके हृदय पर अकलंक की पंक्तियाँ एवं उनकी दृढ़ता ने महल बनाने जैसा असर दिखाया और फिर क्या हुआ सो सुनिये–

नाटक का अति चित्ताकर्षक, जब एक सीन ऐसा आया।
अकलंक करो शादी जल्दी, था उन्हें पिता ने समझाया।
कीचड़ में पग रख कर धोना, यह काम पिता न सच्चा है।
इससे तो सुन्दर कीचड़ में, पग ही न रखूँ यह अच्छा है।।१।।

बस इसी वाक्य ने मैना के, मन को मक्खन सा मथ डाला।
उसने अकलंक समान तभी, दृढ़ होकर निश्चय कर डाला।।
बोली परिणय के बाद में, दीक्षा सफल नहीं हो पाएगी।
अब मैना क्वांरी दीक्षित हो, जिनमत का अलख जगाएगी।।२।।

(यहाँ मैना को माँ के कान में कुछ कहते हुए दृश्य दिखावें)

जब पता चला यह माता को, उसने समझा यह बचपन है।
सब ठीक ठाक हो जाएगा, आने तो दो नव यौवन है।।
जब आँखों में होगा खुमार, यौवन अपना रंग लाएगा।
तब यह भोलापन बालापन, सब स्वयं भंग हो जाएगा।।३।।

(पंचम दृश्य)


त्याग की दृढ़ता

(घर का दृश्य, बच्चे शोर मचाते हुए माँ-बेटी (१६ वर्ष की) अपने-अपने काम में लगी हैं, तभी एक ग्वालन मटका सिर पर लिए हुए घर में प्रवेश करती है)–

ग्वालन –(घर में घुसते हुए) मालकिन, ओ मालकिन! घी ले लो, ताजा घी लाई हूँ।

मोहिनी –ठीक है,दे दो। कितना घी है इसमें?

ग्वालन –पूरा दस किलो है, बहू जी!

मोहिनी –(मैना से) बिटिया! ग्वालन दादी घी लेकर आई हैं, इनका घी ले लो और पैसे दे दो।

मैना-(पैसे देकर) दादी लाओ घी, अच्छा बढ़िया है न। (लेकर कोठरी में रख दिया)

सूत्रधार-ग्वालन दादी तो हमेशा की तरह मटकी में छन्ना बांधकर घी देकर चली गर्इं, फिर तीन-चार दिन बाद माँ के कहने से मैना देवी ने घी को गरम करके छानने के लिए मटकी का कपड़ा खोला तो उसमें चिपकी तमाम लाल चीटियाँ देखकर एकदम कांप गई और कहने लगी-

मैना-(घबराकर) अरे माँ! देखो तो सही अनर्थ हो गया। इस घी
को फेक दो।

मोहिनी –क्या हुआ बेटी! ऐसे क्यों घबरा रही हो?

मैना-माँ देखो! इसमें कितनी सारी मरी हुई चीटियाँ हैं। क्या यह घी अपने घर में काम आ सकता है?

मोहिनी –(पास में जाकर देखते हुए) नहीं, नहीं, यह घी काम नहीं आएगा। इसके बंद करके रख दो, ग्वालन को बुलाकर इसे वापस कर देंगे।

सूत्रधार-देखा भइया! ओ मेरी बहना! मैना की बात उनकी माँ कितना मानती हैं। उन्होंने चीटियाँ देखकर पुत्री के कहने से वह पूरा घी वापस करने के लिए रखवा दिया। अरे केवल लड़की की बात ही नहीं मानी, ये तो माता मोहिनी के विरासती धार्मिक संस्कार हैं कि उन्हें खाने-पीने की वस्तुओं में पूरी शुद्धि का विवेक शुऊश् से रहा है। वे एक-एक धनिया का दाना, हल्दी की गांठ, जीरा-सौंफ आदि सभी मसाले तक को खूब देख-शोध कर, धोकर ही चौके में प्रयोग करने देती हैं। बाजार का पिसा मसाला इनके घर में कभी आ ही नहीं सकता है। खैर! अब उस घी का क्या हुआ और मैना ने आगे क्या निर्णय लिया यह देखिएगा। कुछ दिन बाद वही ग्वालन पुन: घर में आती है-

ग्वालन –बहू जी, ओ बहू जी! यह बताओ कि अब कितना घी लाना है। तुम्हारे घर के लिए, उसी हिसाब से घी तैयार किया जाए।

मोहिनी –सुनो-सुनो ग्वालन चाची! तुम अपना यह घी वापस ले जाओ। मैना! इन्हें मटकी में चींटी दिखाकर वापस कर दो।
(मैना कोठरी से मटकी लाकर ग्वालन को दिखाती है)

मैना-ग्वालन दादी! यह अपना घी देखो तो सही, इतनी सारी चीटियाँ इसमें मरी हुई हैं। मैं तो देखकर ही घबड़ा गई।

ग्वालन –(ठीक से मटके का घी देखते हुए) हाँ बेटी! कुछ असावधानी से लगता है इसमें चीटियाँ भर गर्इं और मैं बिना देखे ही कपड़ा बांधकर ले आई। चलो, अब आगे से ध्यान रखूँगी और यह घी छानकर और किसी को दे दूँगी।

मैना-अरे भगवान्! यह घी तुम और किसी को मत देना, वर्ना बड़ा पाप लगेगा।

ग्वालन –तो बिटिया! क्या इतना सारा घी हम पेंâक देंगे? देखो! अगर हम खुद ही इसे गरम करके छानकर ले आते, तो तुम क्या जान पातीं और हमारा घी क्यों बर्बाद होता? चलो, अब तो हम खुद इसके बारे में सोचेंगे, तुम्हें क्या लेना-देना। (मटकी लेकर चली जाती हैं)

सूत्रधार-ओ मटके वाली! ओ रे बुढ़िया! तू तो अपना मटका लेकर जा रही है लेकिन इस लड़की की तरफ भी तो देख, यह बिचारी तेरी बातें सुनकर कितनी दुखी हो गई है। (ग्वालन चलती चली गई,
रुकती नहीं है)
(जनता की ओर देखकर) आप लोक भी तो देख रहे हैं न इन मैना देवी को,ये अब कितनी चिन्तामगन हो गई पता नहीं क्या सोच रहीं है ये? चलो, अब इनकी भी बात सुनते हैं कि ये अपनी माँ से क्या कहने जा रही हैं –

मैना-माँ! मैंने बाजार के घी का आज से त्याग कर दिया है। अब घर में मेरे लिए बिना घी का खाना बनेगा।

मोहिनी –नहीं, ऐसा तुम्हारा कोई निर्णय नहीं माना जाएगा। (नाराज होकर) घर में रहकर इस तरह के अनाप-शनाप नियम नहीं लिये जाते हैं। अरे, हमने वह घी वापस तो कर दिया, अब जब फिर ऐसा कुछ देखना तो वह चीज मत लेना।

मैना-मेरी भी तो सुनो मेरी प्यारी माँ! वह ग्वालन दादी कह रही थी कि मैं घर से ही छानकर ले आती तो तुम क्या जान पातीं और मेरा घी क्यों बर्बाद होता। इसका मतलब यही है कि बाजार की सब चीजों में इसी तरह की अशुद्धि रहती है। व्यापार करने वाले लोग यदि इतनी शुद्धि देखेंगे तो भला कमाएंगे कैसे ? इसीलिए मैंने तो यही सोचा है कि बाजार की बनी कोई चीज ही न खाई जाए, अपने घर में कमी ही क्या है?

मोहिनी –(तेज गुस्से में) यह तमाशा नहीं चलेगा घर में। मैना! तुम बिल्कुल नहीं समझती हो, आखिर तुम्हें पराये घर जाना है तो क्या ससुराल में यह सब चल पाएगा? तुम इतनी ही त्याग की बात करो,
जितना चल सके। बाकी फालतू बहमबाजी में कोई दम नहीं है। चलो अच्छा, अब उस ग्वालन से मैं कभी घी नहीं मंगाऊँगी।

मैना-तुम चाहे कुछ भी कहो माँ, मैंने बाजार के घी का आजीवन त्याग कर दिया है। मैं आराम से गरम-गरम रोटी दूध से खाऊँगी और चावल तो मुझे गुड़ के साथ अच्छा लगता है। तुम चिन्ता न करो। रही बात ससुराल जाने की, तो मुझे शादी करनी ही नहीं है इसलिए वह चिन्ता भी छोड़ दो।

मोहिनी –(दुखी होकर) हे प्रभो! मेरे घर में तो यह मैना बिल्कुल साध्वी बनी जा रही है। मैं कैसे इसे गृहस्थी के कर्तव्य सिखाऊँ। (मैना की ओर देखकर) बेटी! तुम यह क्यों नहीं सोचतीं कि घर में हम सभी घी का सरस भोजन करेंगे तो तुम्हें हम नीरस भोजन करते कैसे देख पाएंगे?

मैना-माँ, आखिर तो मुझे अभी से त्याग का अभ्यास करना पड़ेगा, क्योंकि भविष्य में दीक्षा तो लेनी ही है।

छोटी बहन शांतिदेवी –(चौके के अंदर से) आओ! भोजन तैयार है। मैना जीजी को भी साथ में लेती आओ, जल्दी-जल्दी सब लोग खाना खाकर एक साथ बैठेंगे, तब आराम से बात करेंगे।
(दोनों जाकर भोजन करने बैठ जाती हैं और माँ की आँखों से आंसू गिर रहे हैं।)

सूत्रधार-कैसा वैराग्य का दृश्य देख रहे हैं आप लोग! देखो, बेटी तो बड़े प्रेम से बिना घी का भोजन कर रही है और माँ उसके त्याग को देखकर दुखी हो रही है। लेकिन एक विशेषता है कि इनमें कि जहाँ मैना में त्याग के प्रति असीम दृढ़ता है, वहीं उनकी माँ अपनी सुकुमारी को देखकर दुखी होने के बावजूद भी नियम को तुड़वाती नहीं है। बल्कि स्वयं भी त्याग की भावना भाती हुई गृहस्थी के प्रति कर्तव्य का निर्वाह करती है।

सामूहिक स्वर –जैनधर्म की जय, जैनसाध्वी देख लो-त्याग करना सीख लो (३ बार नारा लगाते हैं)

सूत्रधार-जैनी वीरों! कुछ त्याग करोगे -क्या जी क्या! रात्रि का भोजन-हाँ जी हाँ। (सबके हाथ उठवाएं) अरे मेरे भाई, ओ बच्चों! माताओं-बहनों! देखा न आपने, एक छोटा सा निमित्त कन्या मैना ने
बाजार के घी का तो त्याग किया ही, बाजार की बनी सभी मिठाई-नमकीन, चाट, पकौड़े आदि सब कुछ छोड़ दिया। यह सब इनकी होनहार बताने के लिए निमित्तऊश्प हैं। तब से लेकर आज तक इन्होंने कभी छहों रस का सरस भोजन नहीं किया और दीक्षा के बाद से तो केवल दो रस, एक रस का या नीरस भोजन का आहार लेकर त्याग-तपस्या के चरम शिखर पर पहुँची हैं।
हम और आप इतना त्याग नहीं कर सकते हैं तो कम से कम कोल्ड ड्रिंक, अण्डा, शराब, पान मसाला, बीड़ी-सिगरेट आदि नशीली चीजों का तो त्याग तुरंत कर दीजिए, तभी यह नाटक देखना आपके जीवन के लिए सार्थक हो पाएगा–

इनका कहना हम ज्ञान रखें, लेकिन चारित्र न खो डालें।
आचरण छूट जाए जिससे, हम ऐसा बीज न बो डालें।।
चारित्रहीन यदि ज्ञान मिलना, तो बेड़ा पार नहीं होगा।
केवल कोरी इन बातों से, जग का उद्धार नहीं होगा।।

(छठा दृश्य)


स्वप्न भी आया होनी को बताने

घर का दृश्य, रात्रि में सोती हुई एक १६ वर्ष की लड़की (मैना) सबेरा होते ही वह उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त होती है पुन: अपने छोटे भाई कैलाश (११ वर्ष के हैं) से कहती हैं–

मैना-अरे कैलाश! ओ मेरा भइया!

मैना-हाँ कैलाश! आज मैंने बड़ा सुन्दर सपना देखा है।

कैलाश – -वह सपना मुझे भी तो बताओ जीजी।

मैना-तुमको बताने के लिए ही तो बुलाया है मैंने। सुनो वह सपना क्या देखा–
मैं पूजन की थाली लेकर मंदिर जा रही हूँ आकाश में चन्द्रमा मेरे साथ-साथ चल रहा है और चन्द्रमा की चाँदनी मेरे पीछे भामण्डल की तरह चलरही है,चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश पैâला है। यह सपना मैंने सुबह ४ बजे देखा है, तब से मुझे मन में बड़ा आल्हाद है।

कैलाश – -अरे वाह! मजा आ गया। जीजी! मैं बताऊँ, इस सपने का क्या फल हो सकता है?

मैना-अच्छा बताओ, (हंसकर) तुम बड़े होशियार हो गये हो न। अब तो मेरे सपने का फल भी बताने की तुम्हें अकल आ गई है।

कैलाश –मुझे तो इस सपने से ऐसा लगता है कि जीजी! तुम एक दिन कोई महान साध्वी बनोगी और तुम्हारे गुणों की यशचांदनी संसार भर में फैलेगी।

मैना-अरे भाई कैलाश! तुमको इतना ज्ञान कैसे हो गया। भगवान्क रे तुम्हारी बात फलित हो जाए (मन में) हे प्रभो! कब मेरी दीक्षा की घड़ियाँ आएंगी, कब मेरा सपना फलित होगा।

सूत्रधार-क्या आप लोग भी सपना देखने लग गए मेरे भाई- बहनों! अरे, मैं तो सचमुच ही सपने में खो गया था कि अगर मुझे चाँदनी दिखती सपने में, तो मैं जऊश्र जाता बम्बई में अमिताभ बच्चन के पास (ठहाका मारकर हंसी) आप भी हंसने लगे न, मैंने इसीलिए तो कहा था कि आज तो सबसे ज्यादा प्रसिद्धि फिल्मी कलाकारों को ही मिलती है, तभी तो लोग फिल्म जगत में जाने को आतुर रहते हैं। (फिर एकदम सीरियस मूड में आकर)
लेकिन भैय्या! मैना नामकी इस लौह बाला ने अपने सपने का अर्थ निकाला काटों से भरा वैराग्यमयी जीवन भविष्य में प्राप्त करने हेतु। यह सब पूर्व जन्मों के संस्कारों के साथ-साथ अपनी माँ मोहिनी से मिले ज्ञान और शास्त्र-स्वाध्याय के संस्कार ही मानना पड़ेगा। तभी तो उस देवीस्वऊश्पा नारी मोहिनी जी के लिए कहा है–

एक नहीं कितनी गाथाएं, इतिहासों में छिपी हुई हैं।
वीर शहीदों की स्मृतियाँ, स्वर्णाक्षर में लिखी हुई हैं।।
नहीं पुरुष की पौरुषता से, केवल देश का मस्तक ऊँचा।
बल्कि नारियों ने हँस हँस कर, मांगों के सिंदूर को पोंछा।।१।।

यह भारत आज नहीं युग से, नारी से रहा न खाली है।
नारी के ही कारण इसकी, गौरव गरिमा बलशाली है।।
जहाँ ब्राह्मी और सुन्दरी को, जनने वाली मरुदेवी हैं।
वहीं मैना सी कन्या को पाकर, धन्य मोहिनी देवी हैं।।

(तालियों की गड़गड़ाहट और जैनधर्म की जय-जयकार के सामूहिक स्वर)
पुन: एक दिन की बात है मैना (१२ वर्ष की कन्या, ड्रेस-साड़ी) अपनी माँ से कहती हैं–

मैना-देखो माँ! मैं विवाह कदापि नहीं कऊश्ँगी। आप मेरी बात पर गंभीरतापूर्वक ध्यान दो और पिताजी को समझाओ कि वे मेरे लिए किसी वर की खोज न करें।

मोहिनी –बेटी! तुम जितनी सहजता से इस बात को सोचती हो, यह कार्य उतना सरल नहीं है। आखिर तुम घर छोड़कर कहाँ रहोगी? तुम्हारी रक्षा कौन करेगा? देखो मैना! पुरातन परम्परा के अनुसार तुम्हें
भी शादी तो करनी पड़ेगी, फिर मेरी तरह से तुम भी घर में रहकर खूब पूजा-पाठ-स्वाध्याय-दान सब कुछ करते रहना।

मैना-माँ! तुम कुछ भी कहो, मैं शादी नहीं कऊश्ँगी। मैनें सुना है कि बाराबंकी मैं आचार्य श्री देशभूषण महाराज आए हैं मैं उन्हीं के पास जाकर दीक्षा लूँगी। इसलिए मेरी बात मान जाओ।
(वह मन में सोचती है)–

सूत्रधार-

वह मन में बोली रही यहाँ, माँ ऐसी रोज सुनाएगी। जब बांस नही होगा किससे, फिर बजा बांसुरी पाएगी।।
वाणी पर अब देकर विराम, घर से किस तरह निकल जाऊँ।

मोहिनी –(दयनीय मुद्रा में) बेटी! मैं जानती हूँ कि तुम्हारे मन में सच्चा वैराग्य है, तुम शादी न करके दीक्षा लेना चाहती हो, लेकिन सोचो तो सही कि घर में तुम्हारे पिताजी क्या यह सहन कर पाएंगे। वे तो मुझे ही सारा दोष देकर घर में रहना भी मुश्किल कर देंगे, मैना! फिर इन छोटे-छोटे बच्चों को मैं तुम्हारे बिना अकेली कैसे संभाल पाऊंगी। (थोड़ा रुककर आँसू पोंछती हुई फिर बोलती है)–

क्या कमी बताओ इस घर में, जो ऐसा तुमको भाता है।
देखो तो यह छोटा रवीन्द्र, किस तरह बिलखता जाता है।।
इसकी आयु एक बरस सिर्पâ, क्या सोचेगा कल भाई है।
इसने तो बड़ी बहन अपनी, अच्छी विध देख न पाई है।।

(मैना के पास रवीन्द्र को खड़ा कर देती है, तब मैना भी उसे गोद में लेकर उसके कान में वैरागी शिक्षा देती है)
दो -चार दिन बाद मैना फिर माँ से कहती है-

मैना-माँ! मैं एक-दो दिन के लिए बाराबंकी जाना चाहती हूँ।

मोहिनी –क्यो बेटी! बाराबंकी किसलिए जाना चाहती हो।

मैना-सुना है वहाँ विराजमान देशभूषण महाराज के दर्शनकर आऊँगी और महाराज ने मुझे रत्नकरंडश्रावकाचार याद करने को कहा था, उसे याद कर लिया है, अत: महाराज को वह पाठ भी सुना दूँगी।

मोहिनी –(मन में आशंकित होकर) कहीं ऐसा न हो कि यह फिर वापस न आवे। (फिर कुछ सोचकर) अच्छा ठीक है, तुम १-२ दिन के लिए चली जाओ, तुम्हारा मन थोड़ा बदल जाएगा। सुनो! बाराबंकी में तुम्हारे पिताजी की बुआजी का परिवार वहाँ है।उनके घर में ही रहना, वहाँ खाने-पीने की व्यवस्था ठीक हो जायेगी।

मैना-ठीक है, ठीक है। चलो वैâलाश! जल्दी चलो, वर्ना बस नहीं मिलेगी।

सूत्रधार-जल्दी-जल्दी तैयारी करके मैना अपने छोटे भाई वैâलाश के साथ बाराबंकी के लिए प्रस्थान कर गई। बस, यही समझो कि मैना पिंजड़े से उड़ गई और पुन: घर वापस नहीं आई। यह सन् १९५२ की घटना है। बाराबंकी में ये लगभग २ माह रहीं पुन: एक दिन आचार्य श्री का केशलोंच चल रहा था कि सामने सभा में बैठी मैना ने भी अपने केश उखाड़ने शुऊश्क र दिये, तभी सभा मेें हलचल मच गई। एक बुजुर्ग पुरुष ने मैना को जबर्दस्ती रोका। तब मैना ने सबके सामने अपना निर्णय सुना दिया।
(सभा में मैना के बोलने का दृश्य दिखावें)–

मैना-मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया है कि मैं शादी नहीं कऊश्ँगी, दीक्षा लेकर साध्वी बनकर आत्मा का कल्याण कऊश्ँगी।

सामूहिक स्वर –नहीं, नहीं यहाँ तुम ऐसा कुछ नहीं कर सकतीं। आचार्यश्री! यह टिवैâतनगर के छोटेलाल जी की लड़की है, इसे कोई व्रत मत दीजिएगा।
महिलाएं -(मैना का हाथ पकड़कर) -चलो मैना घर चलो। तुम्हारे जैसी कोमल कलियाँ दीक्षा नहीं ले सकती हैं। यह दीक्षा बड़ी कठिन तलवार की धार पर चलने के समान है।

मैना-आचार्यश्री! मुझे व्रत देकर मेरी रक्षा कीजिए। मैं घर नहीं जाऊँगी।

सामूहिक स्वर –बुलाओ, भैय्या! पुलिस को बुलाओ! यह लड़की ऐसे नहीं मानेगी।

सूत्रधार-उत्तरप्रदेश की उस धरती पर प्रथमबार बाराबंकी में राग और वैराग्य का यह रोमांचक दृश्य चल रहा है। समाज का विरोध और आक्रोश देखकर न जाने क्यों, एक बार तो आचार्यश्री भी थोड़ा सा डर गये और मैना को घर जाने का आदेश दे दिया। उस समय सभी तरफ से असहाय मैना के मन में लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगना के समान वीरत्व जागृत हो गया और वह सबको छोड़कर मंदिर में भगवान चन्द्रप्रभ की वेदी के पास जाकर ध्यानस्थमुद्रा में बैठ गई। इधर बाहर खूब शोरगुल चलता रहा और मैना भगवान से प्रार्थना करती रही।
देखो भैय्या! सच ही तो कहा है –

वे क्या जाने इसका महत्त्व, जो चाहा करते भोगों को।
पर समझा सका नहीं कोई, उस दिन ऐसे उन लोगों को।।
कामना काम की करना ही, दुनियां में दुख का कारण है।
जो इससे खुद को बचा सका, वह पर के लिए उदाहरण है।।१।।

चाहे नर हो या नारी हो, वैराग्य जिसे भा जाता है।
उसको इस जग का आकर्षण, फिर जरा न सहला पाता है।।
वह है स्वतंत्र घर हो या वन, उसको कब क्रन्दन होता है।
जो मुक्ति पथ का पथिक उसे, कब वय का बंधन होता है।।२।।

(अब देखो भाई! आगे क्या होता है। बाराबंकी का यह समाचार टिवैâतनगर में मैना के माँ और पिता प्रात: आये हुए थे। सायं तक सारा परिवार भी वहाँ आ गया। तब मैना के पास जाकर माँ मोहिनी जी
समझाती हैं।)

मोहिनी –चलो बेटी! अब घर चलो, रात हो गई है। माली यहाँ वेदी का दरवाजा बंद करने को खड़ा है।

मैना-नहीं माँ! मैं घर नहीं जाऊँगी। अब मैंने अन्न-जल का त्याग कर दिया है। जब तक मुझे आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत या दीक्षा नहीं मिल जाएगी, तब तक भोजन-पानी कुछ नहीं लेना है।

मोहिनी –अच्छा चलो, मैं तुम्हारा साथ दूँगी। तुम यहाँ बाराबंकी में ही कपूरचंद भैय्या के घर चलो, फिर कल सुबह आकर मैं आचार्यश्री से बात कऊश्ँगी। बेटी! मैं तुम्हारी माँ हूँ, तुम्हारे वैराग्य और दृढ़ संकल्प को केवल मैं ही समझ सकती हूँ। बाकी तो सभी लोग इसे देखकर बेहद नाराज हैं, सबने पुलिस तक बुला लिया है अत: मैं तुम्हारी रक्षा करके तुम्हें सहयोग करने का आश्वासन देती हूँ।

सूत्रधार-माँ किसी तरह मैना को समझा-बुझाकर फूलचंद-कपूरचंद जी (मैना के पिता की बुआ के पुत्र) के घर ले गर्इं, वहाँ पूरी रात माँ-बेटी का संवाद होता है, उसे भी देखें–
यहाँ एक ओर सूत्रधार खड़ा है और दूसरी ओर मंच पर माता-पुत्री को वार्ता करते हुए दिखावें।

तर्ज-बार-बार तोहे क्या समझाऊँ…….

मोहिनी माता –बार-बार समझाऊँ बेटी, मान ले मेरी बात।
तेरे जैसी सुकुमारी की, दीक्षा का युग है न आज।।टेक.।।

मैना –भोली भाली माता मेरी, सुन तो मेरी बात।
हम और तुम मिलकर ही, युग को बदल सकते आज।।टेक.।।

माता –तूने तो बेटी अब तक, संसार न कुछ देखा है।
फिर भी मान लिया क्यों इसको, यह सब कुछ धोखा है।।
खाने और खेलने के दिन, क्यों करती बर्बाद।
तेरे जैसी सुकुमारी की, दीक्षा का युग है न आज।।१।।

मैना –प्यारी माँ इस नश्वर जग में, कुछ भी नया नहीं है।
जो कुछ भोगा भव भव में, बस दिखती कथा वही है।।
ग्रन्थों से पाया मैंने, हे माता ज्ञान का स्वाद।
हम और तुम मिलकर ही, युग को बदल सकते आज।।१।।

माता – -ये सुन्दर गहने मैना, मैं तुझको पहनाऊँगी।
अपनी गुड़िया सी पुत्री की, शादी रचवाऊँगी।।
सजधज कर जब बनेगी दुलहन, शरमाएगा चाँद।
तेरे जैसी सुकुमारी की, दीक्षा का युग है न आज।।२।।

मैना –तेरी प्यारी बातों में माँ, मैंना नहिं आयेगी।
सोने चाँदी के गहनों को, वह न पहन पाएगी।।
रत्नत्रय का अलंकार बस, मुझे पहनना मात।
हम और तुम मिलकर ही, युग को बदल सकते आज।।२।।

माता – मेरी बात न मान तो अपने, पिता का ख्याल तो करले।
पुत्रऊश्प में माना तुझको, उनसे कुछ तो समझ ले।।
वे नहिं सह पाएंगे तेरे, कठिन त्याग की बात।
तेरे जैसी सुकुमारी की, दीक्षा का युग है न आज।।३।।

मैना –मैंने अपने पिता का सचमुच, प्रेम अथाह है पाया।
तेरी ममता की मुझ पर तो, सदा रही है छाया।।
फिर भी तू ही समझा सकती है, पितु को सब बात।
हम और तुम मिलकर ही, युग को बदल सकते आज।।३।।

माता – मेरे बस की बात नहीं, तेरे भाई-बहन समझाना।
सब रोकर बोले हैं जीजी, को लेकर ही आना।।
तू ही मेरे घर की रौनक, तू मेरी सौगात।
तेरे जैसी सुकुमारी की, दीक्षा का युग है न आज।।४।।

मैना –मोह की बातें कर करके माँ, मुझे न अब भरमाओ।
मेरे भाई बहनों को अब, प्यार से तुम समझाओ।।
माता की गोदी में उन्हें, जीजी की रहे न याद।
हम और तुम मिलकर ही, युग को बदल सकते आज।।४।।

माता –तेरी वैरागी बातों से, मैं तो पिघल जाती हूँ।
पर तेरे बिन घर वैâसे, जाऊँ न समझ पाती हूँ।।
मेरी मैना मुझे छोड़ क्या, रह लेगी दिन-रात।
तेरी जैसी सुकुमारी की, दीक्षा का युग है न आज।।५।।

मैना –माँ मैंने अपने मन में, दृढ़ निश्चय यही किया है।
गृह पिंजड़े से उड़ने का, मैंने संकल्प लिया है।।
तू प्यारी माँ देगी आज्ञा, मुझे है यह विश्वास।
हम और तुम मिलकर ही, युग को बदल सकते आज।।५।।

माता –आज है पुत्री शरदपूर्णिमा, तेरा जनमदिन आया।
आज के दिन तूने अपना, यह निर्णय मुझे सुनाया।।
पत्थर दिल करके बेटी मैं, देती आज्ञा आज।
सुखी रहे मैना मेरी, यह ही है आशीर्वाद।।६।।

(कागज पर स्वीकृति लिखकर मैना को देती है)

मैना –जनम जनम के पुण्य से मैंने, तुझ जैसी माँ पाई।
तेरे ही संस्कारों की तो, मुझ पर है परछार्इं।।
ग्रन्थ दहेज में मिला तुझे जो, मैंने चखा वह स्वाद।
उस ग्रंथ के अध्यन से, मुझको हुआ है वैराग।।६।।

माता –तूने जम्बूस्वामी जैसा, मुझे आज समझाया।
बालब्रह्मचारिणी प्रथम हो, सफल तेरी यह काया।।
युगयुग यश पैâलेगा तेरा, मुझे है यह विश्वास।
मुझको भी इक दिन लेना, गृहबन्धन से निकाल।।७।।

मैना –आज ही सच्चा जनम हुआ है, मेरा मैंने माना।
शरदपूर्णिमा का महत्त्व अब, ठीक से मैंने जाना।।
ब्रह्मचर्य सप्तम प्रतिमा ले, मैंने किया गृह त्याग।
दीक्षा ग्रहण कर मुझको, असली मिलेगा साम्राज।।७।।

सूत्रधार –जनम से जिनके धन्य हुई है, शरदपूर्णिमा रात।
संयम के द्वारा उसी, पूनो का सार्थक प्रभात।।
जग वालों देखो वही कन्या, ज्ञानमती कहलाई।
आज उन्हीं के त्याग की, स्वर्णिम दीक्षा तिथि भी आई।।
सदी बीसवीं के ये गणिनी, प्रमुख हुई विख्यात।
हम सब मनाएं दीक्षा स्वर्ण जयंती आज।।८।।

पुन: अगले दिन सबेरे माँ के द्वारा लिखित स्वीकृति पत्र को लेकर मैना आचार्य श्री देशभूषण महाराज के पास पहुँचती है, पीछे-पीछे माँ भी आ जाती हैं–

मैना –(बैठकर गवासन से) नमोस्तु महाराज! नमोस्तु!

आचार्यश्री –(आशीर्वाद मुद्रा में यहॉँ चित्र दिखावें और आवाज पीछे से) सद्धर्मवृद्धिरस्तु! बेटी मैना! क्या अब तुम घर जा रही हो?,

मैना –नहीं गुरुदेव! मैं अब घर कभी नहीं जाऊँगी।

आचार्यश्री –(देशभूषण महाराज का चित्र, आवाज पीछे से) लेकिन मैना! यहाँ का माहौल बड़ा खराब हो गया है, इसीलिए जब तक तुम्हारे माता-पिता या किसी एक की भी आज्ञा नहीं मिले तो मैं तुम्हें ब्रह्मचर्यव्रत या दीक्षा नहीं दे सकता हूँ।

मैना –मुझे पता है गुरुदेव! कि सभी लोग आपको मुझे व्रत देने को मना कर रहे हैं। इसीलिए मैं अपनी माँ से यह स्वीकृति पत्र लिखाकर लाई हूँ।

आचार्यश्री –(आश्चर्य से) अच्छा! तब तो तुम्हारी माँ वास्तव में बड़ी वीरांगना नारी है।
(तभी माँ स्वयं आचार्यश्री के हाथ में पत्र दे देती है, वे उसे पढ़ते हैं)–

आचार्यश्री –‘पूज्य आचार्यश्री! मेरी बेटी मैना जो भी व्रत चाहती है आप दे दीजिए। मुझे उसके ऊपर अटल विश्वास है कि वह पूरी दृढ़ता के साथ अपने व्रतों का पालन करेगी।’’
मैना! यह मेरे लिए दस्तावेज है। अब तुम श्रीफल लेकर व्रत ग्रहण कर सकती हो। लेकिन इस समय की परिस्थिति देखकर मैं चाहता हूँ कि तुम अभी घर त्याग करके सप्तम प्रतिमाऊश्प ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लो। दीक्षा थोड़े दिन बाद दे दूँगा।

मैना –जो आज्ञा गुरुदेव! मेरे लिए वह भी किसी दीक्षा से कम नहीं है। (व्रत लेते हुए)

सूत्रधार-गुरु के सामने श्रीफल चढ़ाकर मैना ने सात प्रतिमा के व्रत लेकर घर त्याग कर दिया। चारों ओर से बालब्रह्मचारिणी मैना देवी की जयकारों से गूंज होने लगी और मैना एक सुकुमार साध्वी के समान सफेद साड़ी पहनकर गुरु के चरणसानिध्य में बैठ गई, माँ और छोटे मामा ये दृश्य देख रहे थे पुन: तभी रोती हुई माँ कहती हैं –

मोहिनी –पुत्री! आज शरदपूर्णिमा है। आज तुम पूरे अठारह वर्ष की हुई हो। बेटी! मुझे क्या मालूम था कि शरदपूर्णिमा को जन्मी मेरी मासूम बच्ची शरदपूर्णिमा को ही मुझसे अलग हो जायेगी। (माँ सिसक-
सिसक कर रोने लगती है)

मैना –(माँ के आसू पोंछते हुए) मेरी प्यारी माँ! मैं जानती हूँ कि मेरे बिना तुम बहुत अकेली हो जाओगी। किन्तु माँ! जरा मेरी ओर देखो तो सही, तुम तो मुझे निश्चित अपने से दूर करके पराये घर भेज ही देतीं, इसीलिए अब दु:ख छोड़ो और यही सोचकर संतोष करो कि मेरी बेटी एक अच्छे मार्ग पर चल पड़ी है। आज तुमने वास्तव में एक सच्ची माँ का कर्तव्य निभाकर अपना नाम अमर कर लिया है।

मोहिनी –(बेटी को कलेजे से चिपका लेती है) मेरी प्यारी पुत्री! मेरे घर की रौनक! मैना! तुम सफलता के उच्चतम शिखर को प्राप्त करो, अब तो मेरा तुम्हारे लिए यही आशीर्वाद है। (कुछ क्षण रुककर) सुनो बेटी! मेरी एक बात सुनो! जैसे आज मैंने तुम्हें मोक्षमार्ग में चलने में सहयोग प्रदान किया है, उसी प्रकार तुम भी मुझे एक दिन संसार समुद्र से निकलने में सहयोग जऊश्र देना कि जिससे मैं भी स्त्रीपर्याय के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर आत्मकल्याण कर सकू ।

मैना –(माँ के चरणस्पर्श करते हुए) ओह माँ! मैं सचमुच धन्य हो गई हूँ तुम जैसी परमोपकारी और वैरागी माँ को पाकर। माँ! मैं आपको पूरा आश्वासन देती हूँ कि समय आने पर मैं तुम्हें घर से निकालकर मोक्षमार्ग में जऊश्र लगाऊँगी।

मोहिनी –बेटी! अब हम लोग घर जाएंगे,वहाँ तुम्हारे छोटे भााई- बहनों की देखभाल करना है और तुम्हारे पिताजी को भी संभालना है। देखो! वे वैâसे इस सदमे को सहन कर पाते हैं। (सिर पर हाथ
फेरते हुए) खैर! कोई बात नहीं, अब तुम किसी की चिंता मत करना, केवल अपने ज्ञान-चारित्र का लक्ष्य सिद्ध करना और हाँ! किसी प्रकार की कोई आवश्यकता हो तो अपनी माँ से दु:ख को मत छिपाना, बस मेरा इतना ही कहना है।

सूत्रधार-जय हो, माता मोहिनी देवी की जय हो, महावीर भगवान की जय हो।
क्या हुआ बहनों! क्या आप रोने लगीं, तब मैं भी रोने लग जाऊँगा (रोने का दृश्य) अरे भाई! उस समय भी मैना और उनकी माँ की वीरता देखकर, सारी जनता रोने लगी थी। लेकिन भैय्या! हमारे-तुम्हारे रोने से होना क्या है? वह वीरांगना मैना तो अब गुरुसंघ के साथ महावीर की अतिशयभूमि चांदनपुर महावीर जी की ओर चल देती है–
संयोग देखिए कर्मों का, वैâसा आ मिला निराला था।

यह भी दिन था आसोज सुदी, पूनम का परम उजाला था।।
थे ठीक अठारह वर्ष सुखद, इस दिन मैना ने पूर्ण किये।
जब चातुर्मास समाप्त हुआ, चल पड़ी गुरु का साथ लिये।।१।।

मैना के जीवन का तो अब, वैराग्य बन चुका छाया था।
जब संवत् दो हजार नौ थी, सचमुच कमाल दिखलाया था।।
महावीर क्षेत्र पर चैत्र सुदी, जब एकम की बेला आई।
पा गई क्षुल्लिका पद मैना, थी सारी जनता हरषाई।।२।।

(यहाँ महावीर जी तीर्थ का चित्र और भीड़ के सामने मंच पर मैना की दीक्षा का दृश्य दिखावें। केशलोंच करके पिच्छी कमण्डलु सहित छोटी सी क्षुल्लिका माता को बैठी दिखावें)

वैराग्य जगत में बेमिसाल, यह सबसे कठिन परीक्षा थी।
सबसे कम आयू में प्रियवर, यह सबसे पहली दीक्षा थी।।
हो गया दंग था हर दर्शक, जिसने स्वऊश्प था आन लखा।
तब गुऊश् देशभूषण जी ने, क्षुल्लिका वीरमती नाम रखा।।३।।

सामूहिक स्वर –जय हो, क्षुल्लिका वीरमती माताजी की जय हो, आचार्य श्री देशभूषण महाराज की जय हो, महावीर जी अतिशय क्षेत्र की जय हो।
(क्षुल्लिका वीरमती जी भगवान को और गुरु को पिच्छी लेकर नमस्कार करती हुई गदगद स्वर में बोल रही हैं)–

वीरमती –

हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गई।
बस तीन रत्न से ही मालामाल हो गई।।टेक.।।
मैंने चतुर्गती के दुखों को सहन किया।
कर्मों का भार बहुत ही मैंने वहन किया।।
अब मनुष जन्म पाय मैं निहाल हो गई।
बस तीन रत्न पाय मालामाल हो गई।।१।।हे नाथ.।।

(संघ में क्षुल्लिका वीरमती बैठी अध्ययन कर रही हैं, श्रावक-श्राविका आकर बड़ी भक्तिपूर्वक दर्शन कर रहे हैं।)

महिला सूत्रधार-बीसवीं शताब्दी में पहली बार सन् १९५३ में
किसी क्वांरी कन्या की दीक्षा हुई। चैत्र कृ. एकम को श्री महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर, इसीलिए तो खूब अतिशय-चमत्कार आ गया इनमें। अब ये रात-दिन खूब ज्ञान-ध्यान में मगन रहने लगीं। पुन: सन् १९५३ का इनका पहला चौमासा आचार्य श्री के साथ जन्मभूमि टिवैâतनगर में हुआ तो वहाँ की समाज द्वारा इनका सम्मान किया गया। (समाज के वरिष्ठ लोगों द्वारा मंच पर अभिनंदन पत्र द्वारा सम्मान, सामने भीड़ दिखावें) सन् १९५४ में जयपुर (राज.) में चातुर्मास हुआ पुन: सन् १९५५ में दक्षिण भारत की एक क्षुल्लिका श्री विशालमती माताजी के साथ इन्होंने म्हसवड़ (महा.) में जाकर चातुर्मास किया और कुंथलगिरी पर सल्लेखनारत बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज से अनेक प्रेरणास्पद सम्बोधन प्राप्त कर उनसे आर्यिका दीक्षा प्रदान करने का निवेदन किया। (शांतिसागर जी का चित्र, पास में नमस्कार मुद्रा में बैठी माताजी का चित्र दिखावें, पास में मंच पर अनेक श्रावक-श्राविकाओं को आते-जाते, नमस्कार करते दिखावें।)

क्षु. वीरमती –(केवल आवाज) परमपूज्य गुरुवर! आपके दर्शन करके मेरा जन्म धन्य हो गया है। आप कृपा करके मुझे आर्यिका दीक्षा देकर कृतार्थ कीजिए।

आचार्य शांतिसागर जी –<(आवाज पीछे से) उत्तर की अम्मा, वीरमती! तुम्हारी तो अभी बहुत छोटी सी उम्र दिख रही है।

वीरमती –हाँ महाराज! मैं इक्कीस वर्ष की हूँ। तीन वर्ष पूर्व मैंने श्री देशभूषणजी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा ली थी। इस समय उनकी आज्ञा से ही म्हसवड़ में चातुर्मास किया है, उसी के बीच में भगवन्! मैं आपके दर्शन करने आई हूँ।

शांतिसागर जी –वीरमती! देखो अम्मा! मैंने यम सल्लेखना ले ली है और अपना आचार्यपट्ट मैं अपने प्रथम शिष्य वीरसागर को लिखकर भेज दिया है। वे जयपुर-राजस्थान में हैं तुम उनसे जाकर आर्यिका
दीक्षा लेना। मैं अपने संघपति से उन्हें तुम्हें दीक्षा देने हेतु आज्ञा भिजवा दूँगा। समझीं वीरमती! वहाँ उनका चतुर्विध संघ है सो तुम्हें वहाँ कोई परेशानी नहीं होगी।

वीरमती –(हाथ जोड़कर) जो आज्ञा गुरुदेव की। मैं आपकी सल्लेखना देखकर चातुर्मास के बाद निश्चितऊश्प से जयपुर जाकर संघ में दीक्षा लेकर रत्नत्रय की साधना कऊश्ँगी। नमोस्तु भगवन् (तीन बार)

शांतिसागर जी –अम्मा! मैंने सुना है कि तुम्हारा ज्ञान और वैराग्य दोनों बहुत अच्छे हैं। तुम ४० वर्ष की उम्र तक अकेली नहीं रहना। समयसार, भगवती आराधना और अनगार धर्माम्ृत का खूब स्वाध्याय करना। तुम खूब उन्नति करो, जैनधर्म की प्रभावना करो अपने जन्म को सफल करो, यही मेरा मंगल आशीर्वाद है। ॐ शांति ॐ शांति ॐ शांति।

सूत्रधार- कुंथलगिरी में उस समय आचार्य श्री की सल्लेखना देखने हेतु दूर-दूर से आने वाले भक्तों की अपार भीड़ लगी रहती थी। क्षुल्लिका वीरमती जी ने यहाँ तीसरी बार आचार्यश्री शांतिसागर महाराज
के दर्शन किये और यम सल्लेखनापूर्वक उनका समाधिमरण देखा, उसके बाद म्हसवड़ में चातुर्मास सम्पन्न करके क्षुल्लिका विशालमती अम्मा के साथ वे जयपुर में प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर महाराज के
संघ में पहुँच गई। साथ में म्हसवड़ से ही निकली उनकी एक शिष्या हैं कु. प्रभावती एवं सौ. सोनू बाई जो आगे चलकर आर्यिका जिनमती माताजी एवं आर्यिका पद्मावती माताजी के नाम से दीक्षित हुई हैं।

मेरे भाई –बहनों! आप मेरी बात सुनते-सुनते बोर तो नहीं हो गये।
चलो! तब तक एक चुटकुला तुम्हें इनसे सुनवाता हूँ–
(दूसरा व्यक्ति सुनाता है)–
एक दामाद जी एक बार अपनी ससुराल गये। वहाँ दामाद जी को घर में सभी कुवर साहब कहकर पुकारते थे। सो वे दिन भर कुवर साहब शब्द सुनते-सुनते झुंझला गये तो बोले-आप लोग जानते नहीं है कि ‘कु’ का अर्थ होता है-खराब। क्या मैं खराब वर अर्थात् दूल्हा हूँ। I don`t like this word. वे बड़े गुस्से में थे तो बड़ी विनय से साले साहब ने पूछा कि फिर जीजाजी! अच्छा से अच्छा विशेषण बताने के लिए कौन सा शब्द होता है तो जीजाजी बोले -अरे बैवकुफ साले। ‘‘कु’’ माने खराब और ‘‘सु’’ माने अच्छा यह पाठ भी तुम राजस्थानी ग्रामवासियों को नहीं आता। बताओ भला, वैâसी ससुराल मिली है मुझे, सब निरे बुद्धू ही हैं। मुझे तो जल्दी यहाँ से विदा करो।
डर के मारे बेचारे सभी कापंते हुए बोले -नहीं-नहीं, ऐसा मत कहिए सुवर साहब। फिर तो सबके द्वारा सुवर साहब कहे जाने पर उनकी हालत देखने लायक थी। सब लोग भी हंसते-हंसते लोटपोट हो गये।

सूत्रधार-समझ गये न आप (हंसते हुए)। हर जगह एक शब्द का अर्थ एक जैसा ही नहीं रहता है तो आप सब वुंâवर साहब सुअर साहब मत बनना। यह तो केवल थोड़ा सा मनोरंजन था, आपको तो आना है अमने मूल कथानक पर। कि वह मैना देवी क्षुल्लिका वीरमती जी के ऊश्प में आचार्यसंघ में पहुँच गर्इं। (यहाँ संघ का चित्र दिखावें, जिसमें कई मुनि एवं आर्यिकाएं हैं।) यहाँ भी इनके ज्ञान, वैराग्य और निर्दोष चर्या की सभी में खूब प्रशंसा हुई।
फिर एक दिन आचार्य श्री वीरसागर महाराज ने सन् १९५६ में वैशाख कृष्णा दूज तिथि का शुभ मुहूर्त इनकी आर्यिका दीक्षा के लिए घोषित कर दिया, फिर तो इनकी खुशी का पार नहीं रहा। अब आगे चलते हैं। जयपुर से पदमपुरा अतिशयक्षेत्र के मध्य ‘‘माधोराजपुरा’’ नामक नगर में, जहाँ सदी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी की आर्यिका दीक्षा होने वाली है आचार्य श्री वीरसागर महाराज के करकमलों से।

(सप्तम दृश्य)


क्षुल्लिका वीरमती की आर्यिका दीक्षा

सन् १९५६ –वैशाख कृष्णा दूज

स्थान –माधोराजपुरा (जयपुर) राज.
(आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज ससंघ मंच पर विराजमान हैं। क्षुल्लिका वीरमती जी भी मंच पर विराजमान हैं।)

क्षुल्लिका वीरमती –हे गुरुदेव! मुझे आर्यिका दीक्षा प्रदान करके कृतार्थ कीजिए।
(गुरु के आदेश से क्षुल्लिका वीरमती चांवलों से पूरे हुए स्वस्तिक के चौक पर बैठ जाती है तथा केशलोंच करने लग जाती है)
क्षु. वीरमती की दीक्षा की तैयारी चल रही है। सभा में जनता खचाखच भरी हुई है। तभी एक सांड सभा के बीच से दौड़ता हुआ आता है। जिससे सभा में हा-हाकार मच जाता है।

जनता –यह सांड भागकर आ रहा है, देखो! यह किसी को कुचल न दे।
(हल्ले-गुल्ले के मध्य सांड मंच के सामने आकर शांतिपूर्वक माथा टेककर खड़ा हो जाता है)

ब्र. सूरजमल –(मंच पर माइक से बोलते हुए) सब लोग शांत हो जावें। यह सांड कोई भव्य जीव लगता है। यह दीक्षा देखने आया है। यह चुपचाप शांत भाव से खड़ा है। कोई भी किसी प्रकार की चिंता न करें। दीक्षा के पश्चात् आचार्य श्री ने सभा के मध्य क्षु. वीरमती का नाम परिवर्तित करके ‘‘आर्यिका ज्ञानमती’’ घोषित किया।

जनता –आर्यिका ज्ञानमती माताजी की जय-२।
(दीक्षा सम्पन्न होने तक वह सांड वहीं खड़ा रहा। दीक्षा होते ही वह चुपचाप चला गया।) बाहर श्रावकों ने उसे लड्डू खिलाये। (लड्डू खिलातें श्रावक दिखावें)

आचार्यश्री –अब तुम आर्यिका बन गई हो। तुम्हारे लिए हमारी एक ही शिक्षा है। हमने तुम्हारा नाम ज्ञानमती रखा है। तुम सदैव अपने नाम का ध्यान रखना।

आर्यिका ज्ञानमती जी –जी गुरुदेव! मैं आपके द्वारा दी गई शिक्षा का सदैव स्मरण रखूँगी। अपनी मति को ज्ञानमय बनाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहूँगी।

अन्य आर्यिका –महाराज जी! आपने हमें तो अनेक शिक्षाएं दी थीं। इन्हें केवल एक ही शिक्षा दी।

आचार्यश्री –इनके लिए केवल एक ही शिक्षा पर्याप्त है।
(समस्त संघ मंच से मंदिर के लिए प्रस्थान कर देता है, साथ में श्रावक-श्राविकाएं भी जय-जयकार करते हुए जाते है।।)

एक श्रावक –(मार्ग में आपस में चर्चा करते हुए)-इतनी छोटी उम्र में इन माताजी ने आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। ये बहुत ज्ञानवान हैं। किसी से फालतू बात नहीं करतीं। दिनभर स्वाध्याय करने में लगी रहती हैं। संघ में साधु-साध्वियों को एवं अपनी शिष्याओं को पढ़ाती रहती हैं।

दूसरा श्रावक –हाँ भाई! इन्होंने हमारे इस छोटे से नगर में दीक्षा लेकर हमारे ग्राम माधोराजपुरा का नाम अमर कर दिया।

एक श्राविका –इन माताजी की दीक्षा में इनके पूर्व अवस्था के परिवार के कोई भी व्यक्ति दिखाई नहीं दिये।

दूसरी श्राविका –सुनने में आया है कि इनका परिवार तो बहुत बड़ा है किन्तु इनका परिवार के प्रति ममत्व नहीं होने से इन्होंने किसी को बुलाने के लिए नहीं कहा।

तीसरी श्राविका –तभी तो हमारे रांवका परिवार वालों को दीक्षा के समय इनके माता-पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
(आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी संघस्थ कतिपय मुनियों को आर्यिकाओं, क्षुल्लिकाओं, ब्रह्मचारिणियों को शास्त्रों का अध्ययन करा रही हैं)।

आर्यिका ज्ञानमती माताजी-(तत्त्वार्थ सूत्र ग्रंथ पढ़ाते हुए)–

मोक्ष मार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्व तत्त्वानाम्, वंदे तद्गुण लब्धये।।

यह इस महान ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण है। इसे आ.श्री उमास्वामी ने बनाया है। इसमें सात तत्त्वों का सूत्रऊश्प से दस अध्यायों में विवेचन किया हैं। समझीं जिनमती जी। दोपहर में कातंत्र व्याकरण
तथा परीक्षामुख ग्रंथ का अध्ययन चलेगा। जितना आज पढ़ाया गया,कल उतना सुना देना।

क्षु. जिनमती जी –जी माताजी! हम सब समय से उपस्थित हो जायेंगे।

ज्ञानमती माताजी –आचार्यश्री की इस दी हुई शिक्षा को सदैव याद रखना चाहिए। सुई का काम करो, वैंâची का नहीं।

क्षु. जिनमती जी –इसका क्या मतलब है?

ज्ञानमती माताजी –सुई जोड़ने का काम करती है, वैंâची काटने का काम करती है। इसीलिए सुई उच्च स्थान को प्राप्त करती है। दर्जी उसे सिर की टोपी में लगाकर रखता है तथा वैंâची को नीचे डाल देता है।

एक माताजी –बिल्कुल ठीक है। जो समाज को, संघ को जोड़ने का काम करता है। वह सम्मान पाता है, तथा जो तोड़ने का काम करता है, फूट डालता है वह अनादार का पात्र बनता है।
(अध्ययन कक्षा का विसर्जन)

सूत्रधार –कुछ दिनों में आचार्य श्री की आज्ञा से ज्ञानमती माताजी ने जयपुर के आसपास बगऊश् आदि नगरों में भ्रमण कर प्रवचनों के द्वारा धर्म की प्रभावना की। साथ में दोनों शिष्याएं क्षुल्लिका जिनमती जी व क्षुल्लिका पद्मावती भी थीं।
(संघ चोऊश् ग्राम में विद्यमान है, शांति भक्ति का पाठ चल रहा है)
भगवन! सब जन तव पद युग की, शरण प्रेम से नहीं आते।
उसमें हेतु विविध दु:खों से भरित घोर भव वारिधि है।
(एक श्रावक आकर माताजी के हाथ में एक पत्र देता है)

श्रावक –वंदामि माताजी! बड़े संघ से ब्रह्मचारी श्री लाड़मल जी ने यह पत्र आपको देने के लिए मुझे भेजा है। (पत्र माताजी के हाथ में देता है)

माताजी –सद्धर्मवृद्धिरस्तु आशीर्वाद! भैय्या! संघ में सब कुशलमंगल तो है न?

श्रावक –हाँ माताजी! सब ठीक है।

माताजी –भैय्या! पत्र खोलो। देखें क्या समाचार है।
(माताजी से पत्र श्रावक अपने हाथ में लेकर खोलकर माताजी के हाथ में देता है)

माताजी –(माताजी पत्र पढ़ना प्रारंभ कर देती हैं)
पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी, सादर त्रिबार वंदामि। आपके रत्नत्रय की कुशलता होगी। यहाँ जयपुर में आचार्य महाराज को दो दिन से अतिसार के कारण कमजोरी आ गई है अत: आप शीघ्र ही संघ सहित आचार्य श्री के पास आ जावें।

ब्र. लाड़मल

सूत्रधार-यह समाचार पढ़कर संघ में सभी चिंतित हो गये।

माताजी –चूँकि आचार्यदेव सल्लेखना की तैयारी में लगे हुए हैं अत: क्या पता किस दिन इस नश्वर शरीर से विदाई ले लें अत: हमें प्रात: ही यहाँ से जयपुर के लिए विहार कर देना चाहिए। उस समय मुनि शिवसागर, क्षुल्लक सन्मतिसागर और चिदानंद सागर भी संघ के दर्शन हेतु चल पड़े।
(माताजी ने अपने संघ सहित जयपुर के लिए विहार कर दिया)
(आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज ससंघ विराजमान हैं)

माताजी –नमोस्तु महाराज जी, नमोस्तु नमोस्तु।

आचार्यश्री –(आशीर्वाद दे रहे हैं) समाधिरस्तु! (हंसते हुए) तुम लोग इतनी जल्दी क्योंं भागे चले आये।

माताजी –गुरुदेव! आपकी आज्ञानुसार हम लोगों ने चार गाँवों में विहार किया। अब हम आपके चरण सानिध्य में ही रहकर आपके जीवन के अनुभव लाभ लेना चाहते हैं।
(माताजी के समीप कुछ आर्यिकाएं व शिष्याएं भक्तिपाठ पढ़ रही हैं)

प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम:,
शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुति:, संगति: सर्वदार्यै:।
सद्वृत्तानां गुणगणकथा, दोषवादे च मौनम्।।
सर्वस्यापि प्रियहित वचो, भावना चात्मतत्वे।
संपद्यन्तां मम भवभवे, यावदेतेऽपवर्ग:।।

क्षुल्लक सन्मतिसागर महाराज –माताजी! मैं आपसे प्रतिक्रमण का अर्थ सीखना चाहता हूँ। जो पाठ पढ़ते हैं, वह संस्कृत प्राकृत में है इसलिए समझ में नहीं आता।

माताजी –ठीक है आपकी भावनानुसार मैं कल से प्रतिक्रमण के अर्थ को बताना प्रारंभ कऊश्ँगी।

सूत्रधार-क्षु. सन्मतिसागर जी, क्षु. चिदानंदसागर जी, क्षुल्लिका चन्द्रमती, क्षुल्लिका जिनमती, क्षुल्लिका पद्मावती आदि तथा कई वयोवृद्ध आर्यिकाएं तथा ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी आदि ने भी इस कक्षा में भाग
लिया। इस अध्ययन से सभी साधु बड़े प्रसन्न हैं। बीच-बीच में वे सभी अपनी प्रसन्नता को प्रगट भी करते हैं और थोड़ा-थोड़ा शंका-समाधान भी चलता है।

क्षुल्लक सन्मतिसागर –माताजी! इस हिन्दी अनुवाद से भी अब समझ में आया कि हम क्या पढ़ रहे हैं। आप तो संस्कृत जानती हैं इसलिए आपको समझ में आता है। हमें तो हिन्दी को भी समझाना पड़ेगा।

माताजी –आपका कहना ठीक है। जिनको संस्कृत-प्राकृत का ज्ञान नहीं है उनके लिए हिन्दी आवश्यक है। समझकर पढ़ने में बहुत आनंद आता है।

क्षु. चिदानंदसागर जी –माताजी! इस प्रकार हिन्दी अर्थ सहित समझकर विधि पूर्वक क्रिया करने में बहुत अच्छा लगा। इसे पूरा पढ़ा दीजिए।

माताजी –इस अध्ययन के साथ-साथ हमें आचार्य महाराज से भी अधिकाधिक अनुभव ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

क्षु. चिदानंदसागर जी –हाँ माताजी! आपने बहुत ठीक कहा। उनका अनुभव ज्ञान बहुत महान है।

ज्ञानमती माताजी –उनके द्वारा कही जाने वाली एक-एक सूक्तियाँ बहुमूल्य हैं। उदाहरण के ऊश्प में -गुरु जो कहें सो करो, वे जो करते हैं वह मत करो। इसका मतलब यह है कि गुरु ने अन्न का त्याग किया है क्योंकि वह उनकी प्रकृति के अनुवूâल नहीं है। यदि कोई शिष्य भी उनकी देखा देखी अन्न का त्याग करदे तो वह अस्वस्थ हो सकता है।

क्षु. सन्मतिसागर जी –माताजी! इसी प्रकार की एक सूक्ति है न देखा-देखी करे जोग, घटे काया बढ़े रोग। कोई भी कार्य गुरु की आज्ञा लेकर तथा अपनी शक्ति को देखकर ही करना अच्छा होता है।

सूत्रधार-यह तो हुई ज्ञानाराधना की बात, दरअसल ज्ञानमती माताजी से संघ का बच्चा-बच्चा बहुत प्रभावित रहा। उस संघ में एक ब्र. राजमल जी रहते थे, उन्होंने पूज्य माताजी से खूब ज्ञानार्जन किया और उन्हें वे अपनी माँ ही मानते थे, उनकी प्रबल प्रेरणा से राजमल जी ने मुनिदीक्षा लेकर भविष्य में उसी परम्परा के आचार्यश्री अजितसागर महाराज के ऊश्प में संघ का संचालन किया और मुनि अभिनंदनसागर महाराज ने अध्ययन करके इसी परम्परा के वर्तमान पट्टाचार्य पद को संभाला है। इसी तरह आचार्यश्री वर्धमानसागर महाराज को तो युवक यशवन्त के ऊश्प में ज्ञानमती माताजी ने ही घर से निकालकर पढ़ाया- लिखाया और मुनिदीक्षा दिलवाई। अरे भाई! कहाँ तक बताउँâ मैं इनकी प्रतिभा के बारे में। इन्हें इस युग की सरस्वती माता भी कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

(अष्टम दृश्य)


ध्यान की उपलब्धि

(मंच पर माताजी का पिच्छी-कमण्डलु के साथ खड्गासन चित्र एवं श्रावकों की भीड़ दिखावें। कुछ श्रावक हाथ में केशरिया झण्डा लिए हुए आगे-आगे चल रहे हैं–)

बिजली सी फैल गई कीरत, हो गई धन्य जीवन बेला।
अब डगर डगर पर दर्शन को, भक्तों का लगा मिले मेला।।
तब ज्ञानमती जी संघ बना, निकलीं भव पार लगाने को।
सब दुराचार को हटा सदा को, सदाचार चमकाने को।।

सूत्रधार –गुरुवर आचार्यश्री वीरसागर महाराज की समाधि के बाद पूज्य ज्ञानमती माताजी ४-५ वर्षों तक द्वितीय पट्टाधीश आचार्यश्री शिवसागर महाराज के संघ में रहीं और संघ संचालन में इनका बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। आचार्यश्री भी इन्हें अपनी गुरुबहन मानकर पूरा सम्मान देते तथा अनेक व्यवस्थाओं में इनसे सुझाव अवश्य लेते थे। संघ में ये अष्टसहस्री, राजवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, कातंत्र व्याकरण आदि अनेक ग्रंथ मुनि-आर्यिका एवं शिष्य-शिष्याओं को पढ़ातीं थीं अत: सभी लोग इनके ज्ञान से प्रभावित रहते थे।
आगे सन् १९६१ में इनकी तीव्र प्रेरणा पाकर संघस्थ ब्र. राजमल जी ने सीकर (राज.) में मुनिदीक्षा लेकर अजितसागर मुनिराज बने, इनकी दो शिष्याएं भी आर्यिका दीक्षा लेकर पूज्य जिनमती माताजी एवं आदिमती माताजी बनीं। पुन: सन् १९६२ में इन्होंने अपनी पाँच शिष्याओं सहित आर्यिका संघ बनाकर ‘‘सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र’’ यात्रा के लिए मंगलविहार किया तब सन् १९६३ का कलकत्ता में एवं १९६४ का आंध्रप्रदेश के हैदराबाद शहर में अत्यन्त प्रभावनापूर्वक चातुर्मास सम्पन्न हुए और सन् १९६५ में जब दक्षिणभारत के श्रवणबेलगोला तीर्थ पर भगवान बाहुबली के चरण सानिध्य में किया गया चातुर्मास तो पूरी दुनिया के लिए वरदान ही बन गया।
(यहाँ श्रवणबेलगोला में भगवान बाहुबली के चरण सानिध्य में ध्यान करती हुई ज्ञानमती माताजी का चित्र दिखावें। दर्शन करते हुए अनेक स्त्री-पुरुष, कोई-कोई भगवान के चरणों का अभिषेक कर रहे हैं)

सामूहिक स्वर-जय जय जय, बाहुबली भगवान की जय। गोम्मटेश भगवान की जय।

एक महिला-सब लोग चुप हो जाओ, देखो! यहाँ एक माताजी बैठी ध्यान कर रही हैं।

दूसरी महिला -हाँ, हाँ यह ज्ञानमती माताजी हैं। ये कई दिन से यहीं पहाड़ पर रहती हैं और पूरा दिन भगवान के पास ध्यान ही करती रहती हैं।

एक पुरुष -तो क्या ये आहार नहीं करती हैं?

महिला -सुबह केवल आहार के लिए ये माताजी पहाड़ के नीचे जाती हैं और आहार के बाद तुरंत फिर पहाड़ पर ही आ जाती हैं। फिर दिन के ११ बजे से लेकर रात्रि ११ बजे तक भगवान के पास ही सामायिक, स्वाध्याय प्रतिक्रमण और ध्यान करती हैं।

पुरुष -फिर सोती भी यहीं होगी?

महिला -हाँ रात में केवल २-३ घंटे ये सोती हैं, बाकी हर समय ध्यान करके ज्ञानमती माताजी बड़ी खुश होती हैं। यहाँ श्रीक्षेत्र के भट्टारक स्वामी जी इनके परमभक्त हैं, उन्होंने इनकी भावनानुसार गुरुकुल के २-४ बच्चों की और हम लोगों की जिम्मेदारी यहीं पर रहने की लगा दी है।
(कुछ श्रेष्ठी परिवार के लोग माताजी की जयजयकार बोलते हुए ऊपर चढ़कर जाते हैं और भगवान तथा माताजी को नमन करके वहीं बैठ जाते हैं। तब उन्हें गुरुकुल का एक बालक समझाता है)–

बालक -सेठ जी! आप दर्शन कर लीजिए,बस माताजी तो अभी बात करेंगी नहीं।

सेठ जी -क्यों भाई! माताजी बात क्यों नहीं करेंगी। हम तो बड़ी दूर से कलकत्ता से चलकर केवल ज्ञानमती माताजी के दर्शन करने ही आए हैं।

बालक -बाबू जी! बात यह है कि माताजी ने पन्द्रह दिन का अखण्ड मौनव्रत ले लिया है। उसके अभी १० दिन हुए हैं, ५ दिन बाद मौन खुलेगा।
(पूज्य माताजी ध्यान विसर्जित करके उन लोगों को आशीर्वाद प्रदान करती हैं। उनके मौनव्रत एवं ध्यान से प्रभावित एक सज्जन उच्च स्वर में बोलते हैं)

व्यक्ति -धन्य हो धन्य हो, अपने नाम को साकार करने वाली ज्ञानमती माताजी! आप धन्य हो।

सच तो इस नारी की शक्ति, नर ने पहचान न पाई है।
मंदिर में मीरा है तो वह, रण में भी लक्ष्मी बाई है।।
है ज्ञान क्षेत्र में ज्ञानमती, नारी की कला निराली है।
सच पूछो नारी के कारण, यह धरती गौरवशाली है।।

सभी भक्त सामूहिक स्वर में -वंदामि माताजी! हम पुन: आपके दर्शन करने आएंगे।

सूत्रधार –सभी भक्त तो दर्शन करके वापस चले गये और माताजी वहीं पर अपना लेखन करने लगीं। (लिखते हुए चित्र दिखावें) ये इस समय जानते हो क्या लिख रही हैं? भगवान बाहुबली का काव्यचरित।
इसमें बड़े अच्छे भाव संजोये हैं इन्होंने। (पन्ना उठाकर पढ़ने लगता है।)

करना नहीं रहा कुछ बाकी, अत: प्रभो भुजलम्बित हैं।
नहीं भ्रमण करना अब जग में, अत: चरणयुग अचलित हैं।।
देख चुके सब जग की लीला, अन्तरंग अब देख रहे।
सुन सुन करके शांति न पाई, अत: विजन में खड़े हुए।।

सामूहिक स्वर –जय बोलो, बाहुबली भगवान की जय हो। ज्ञानमती माताजी की जय हो।
(माताजी का चित्र ध्यानस्थ मुद्रा में, पास में बैठी शिष्याएं स्वाध्याय कर रही हैं।)

सूत्रधार –मेरे प्यारे भाइयों! मैंने तो यहाँ केवल एक पद्य सुनाया है बाहुबली भगवान के जीवन चरित्र का। यह तो बड़ा अच्छा १११ पद्य वाला काव्यचरित है। आप जानते हैं कि भगवान क्यों अपनी भुजाओं को लटका कर खड़े हैं। यही बात माताजी ने इसमें लिखी है कि -हाथों से भगवान को अब कुछ भी काम करना शेष नहीं रहा, इसलिए हाथ लटका लिया, पैरों से अब कहीं भी भ्रमण करने की इच्छा नहीं है अत: बिल्कुल स्थिरतापूर्वक खड़े हैं। सारे संसार की लीला देखकर वे थक चुके हैं इसलिए आंख बंद करके अपनी आत्मा को देख रहे हैं और सांसारिक बातें अब सुनने की इच्छा नहीं है इसीलिए जंगल में चले गये। अरे! मैं इधर बोले जा रहा हूँ और उधर देखो! माताजी फिर ध्यान में मग्न हो गई हैं। इसलिए मैं भी चुप हो जाता हूँ।
(मंच पर अंधकार, हल्की संगीत ध्वनि, माताजी के चारों ओर प्रकाशमयी आभामण्डल पैâलता हुआ दिखावें)

पास में बैठी शिष्या- अरे, देखो! देखो! अम्मा के मस्तक के चारों ओर वैâसा दिव्य प्रकाश पैâल गया है।

दूसरी शिष्या –हाँ, यह तो कोई ध्यान का चमत्कार जैसा लगता है।

शिष्या –आज अम्मा को पूरे पन्द्रह दिन हो गये हैं। भगवान ने जऊश्र कोई चमत्कार दिखाया होगा।

बालक –स्वामी जी को बुलाऊँ क्या? कोई खतरा तो नहीं लगता है?

शिष्या –ऐसा तो नहीं होना चाहिए। देखो! प्रकाश तो खूब पैâल ही रहा है।

बालक –मुझे लगता है कि ज्ञानमती माताजी को आज कोई दैवी मंत्र सिद्धी तो नहीं हो गई है।

सूत्रधार –मंगल प्रभात की बेला है। बाहर की सभी चर्चाओं से अनभिज्ञ पूज्य आर्यिका माताजी अपना ध्यान विसर्जित करती हैं और आज वे बेहद प्रसन्न मुद्रा में मौन खोलकर सर्वप्रथम बाहुबली के चरणों में
नमन करती हैं पुन: भट्टारक जी को एवं संघस्थ शिष्याओं को बताती हैं।

ज्ञानमती माताजी –ओह! आज तो मैंने ध्यान में मध्यलोक के सभी ४५८ अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन किये हैं। मुझे एक बड़ा सुन्दर प्रकाशपुंज भी दिखा था।

शिष्या –हाँ अम्मा! हमने वह प्रकाश आपके चारों ओर भी पैâलते देखा था।

ज्ञानमती माताजी –अच्छा, क्या वह प्रकाश बाहर भी आ गया था। अरे! मुझे तो अभी भी लग रहा है कि मैं इस धरती पर नहीं हूँ, बल्कि सुमेरुपर्वत, जम्बूद्वीप, नंदीश्वर द्वीप के चैत्यालयों की वंदना कर रही हूँ। वाह! कितने सुन्दर झरने, नदियाँ, पर्वत, उद्यान वहाँ हैं। (कुछ सोचकर)
काश! ऐसी रचना धरती पर साकार हो जावे तो सारे विश्व को जैन भूगोल का ज्ञान हो जावे।

सूत्रधार –देखी आपने इनके ध्यान की महिमा। जरा सब मिलकर बोलें–
तर्ज-काली तेरी चोटी है……………

दुनियां में भगवन्तों के मंदिर अनेक है।
लेकिन जम्बूद्वीप की रचना केवल एक है।।
हस्तिनापुरी में उसका करो दर्शन,
जम्बूद्वीप को नमन।।टेक.।।

एक बार ज्ञानमती माताजी के ध्यान में।
श्रवणबेलगोला बाहुबली जी के पास में।।
सूर्य चांद जैसा इक प्रकाश पुंज आया था।
उसमें जम्बूद्वीप का दर्श दिखाया था।।
शास्त्रों में देखा उसे झूम उठा मन,
जम्बूद्वीप को नमन।।१।।

हाँ, भइया हाँ! वही जम्बूद्वीप की रचना पूज्य माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर में बनी है। जिसे देखने देश-विदेश से तो लोग आते ही हैं। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी ने सन् १९८५ में इसका उद्घाटन किया पुन: उत्तरप्रदेश के पर्यटन विभाग ने भी अपने साहित्य में इसी धरती का स्वर्ग कहा है। जय हो, धरती के स्वर्ग जम्बूद्वीप की जय, शांतिनाथ भगवान की जय।
(यहाँ जम्बूद्वीप की रचना का बड़ा चित्र या मॉडल दिखावें और भारी भीड़ के मध्य नारायणदत्त तिवारी जी को उद्घाटन करते दृश्य दिखावें।)

नारायणदत्त तिवारी -(भाषण देते हुए) हमारे उत्तरप्रदेश का सौभाग्य है कि ज्ञानमती माताजी जैसी महान साध्वी ने इस प्रदेश में जन्मी हैं और उनकी कृपा से यह जो जम्बूद्वीप बना है वह हमारी निधि है, धरोहर है। जब-जब कोई वैज्ञानिक इस पर रिसर्च करने हस्तिनापुर आएंगे तब-तब हमें अपनी भारतीय संस्कृति के प्रति गौरव होगा। देशभर से लाखों की संख्या में यहाँ पधारे आप सभी भाई-बहनों का मैं हार्दिक स्वागत- अभिनंदन करता हूँ और माताजी के चरणों में नमन करके आभार प्रगट करता हूँ। जय हिन्द-जय भारत।

(नवम् दृश्य)


साहित्य लेखन का इतिहास

सूत्रधार –देखो तो सही, ये ज्ञानमती माताजी सारा दिन शिष्य-शिष्याओं को पढ़ाया ही करती हैं। जैसे कोई व्यापारी अपने ग्राहक को पटाने में और माल बेचने में लगा रहता है न, उसी तरह ये भी शिष्यों को पढ़ा-पढ़ाकर समझो अपने धर्म और ज्ञान का व्यापार खूब बढ़ाती रहती हैं। एक दिन ये कक्षा में सबको अष्टसहस्री पढ़ा रही थीं तो मोतीचंद नामक एक ब्रह्मचारी जी बोल पड़े। (यहाँ क्लास का दृश्य जिसमें मुनि, आर्यिका, ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी हैं एवं माताजी को पढ़ाते हुए चित्र दिखावें।)

मोतीचंद –माताजी! अष्टसहस्री के ये सब विषय मुझे बड़े कठिन लगते हैं। याद नहीं हो पाते हैं तो मैं न्यायतीर्थ की परीक्षा वैâसे दूँंगा?

माताजी –(आवाज पीछे से) अच्छा, मोतीचंद! तुम घबराओ मत, मैं तुम्हारे लिए हिन्दी में अष्टसहस्री के सब अध्यायों के सारांश लिख दूँगी। उन्हें याद करके तुम ‘न्यायतीर्थ’ उपाधि की परीक्षा दे देना।

मोतीचंद –फिर तो माताजी! सारा विषय बड़ा आसान हो जाएगा। मैं उन्हीं को पढ़कर पास हो जाऊँगा।

जिनमती माताजी –माताजी! इसमें तो आपको बड़ा परिश्रम करना पड़ेगा। चलो, छोड़ों न अम्मा! अष्टसहस्री सभी को बड़ी कठिन लगती है, इसे छोड़कर कोई दूसरा सरल विषय पढ़ाना शुऊश् कर दीजिए।

माताजी –कोई बात नहीं, ऐसे घबराकर कठिन विषयों को छोड़ा नहीं जाता। समझीं जिनमती! तुम बताओ, खाना बनाना कठिन होता है, तो क्या उसे बनाया नही जाता है।अगर सब लोग ऐसा सोच लें तो सबको भूखे ही रहना पड़ेगा। ऐसे ही कठिन अष्टसहस्री को भी मैं सरल हिन्दी में अनुवाद करके सबके लिए रुचिकर बनाऊँगी।

सूत्रधार –इतना कहकर माताजी तो लिखने बैंठ गर्इं। (माताजी का लिखते हुए चित्र, आसपास में अनेक शास्त्र रखे हैं और शिष्याएं भी बैठीं स्वाध्याय कर रही हैं। लोगों का आवागमन, दर्शन-वंदन चालू है।)
अरे बाबा रे बाबा! मैं तो इनकी महिमा बताते-बताते भी हैरान हो जाता हूँ कि ये कोई साध्वी हैं या फौलादी लौह नारी हैं। बस, रात-दिन मेहनत करके बिना किसी से पढ़े, अष्टसहस्री जैसे अत्यंत कठिन ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद सन् १९६९-७० में डेढ़ साल के अंदर करके राजस्थान के ‘‘टोडारायसिंह’’ नामक नगर में पूरा कर दिया। अब देखो, इनके लिए यह बात सच है न–

जो बतलाते नारी जीवन, लगता मधुरस की लाली है।
वह त्याग तपस्या क्या जाने, कोमल पूâलों की डाली है।।
जो कहते योगों में नारी, नर के समान कब होती है।
ऐसे लोगों को ज्ञानमती का, जीवन एक चुनौती है।।

(यहाँ अनेक पात्र अपने-अपने हाथों में माताजी के एक-एक ग्रंथ लेकर मंच पर उपस्थित होवें।)
सुनो! और भी बताता हूँ कि इन्होंने केवल अष्टसहस्री का ही नहीं, बल्कि अनेक संस्कृत ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद किया तथा सैकड़ों की संख्या में मौलिक ग्रंथों को लिखकर साहित्य जगत में अपना कीर्तिमान
स्थापित करके दिखाया है। तभी तो आप लोग इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र, सिद्धचक्र, जम्बूद्वीप आदि पूजा-विधानों को खूब प्रभावनापूर्वक करते हैं और भगवान के साथ-साथ ज्ञानमती माताजी की जयकारों से वातावरण गुंजायमान कर देते हैं। आजकल तो वे षट्खण्डागम ग्रंथ की बड़ी सुन्दर संस्कृत टीका लिख रही हैं, उसके भी तीन हजार पेज हो गये हैं। तो अब बड़ी श्रद्धा से गुरुचरणों में नमन कीजिए–

इस युग की माँ शारदे, तू धर्म की प्राण है।
ज्ञानमती नाम है, ज्ञान की तू खान है, चारित्र परिधान है।।टेक.।।
महावीर प्रभु के शासन में अब तक,
कोई भी नारी न ऐसी हुई।
साहित्य लेखन करने की शक्ती,
तुझमें न जाने वैâसे हुई।।
शास्त्र पुराणों में, भक्ति विधानों में, तेरा प्रथम नाम है विश्व में,
कलियुग की मॉँ भारती, पूनो का तू चाँद है।
ज्ञानमती नाम है, ज्ञान की तू खान है, चारित्र परिधान है।।१।।

सामूहिक स्वर –बोलो ज्ञानमती माताजी की जय, सरस्वती माता की जय।

(दसवाँ दृश्य)


सूत्रधार -यह देखो! प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी का निवासस्थान है, वहाँ मई सन् १९८२ में जैनसमाज का एक समूह पहुँचा। उसमें ब्र. मोतीचंद जी, ब्र. रवीन्द कुमार जी, ब्र. माधुरी शास्त्री एवं अन्य
श्रेष्ठीगण हैं। ये लोग पूज्य माताजी की प्रेरणा से ‘‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति’’ नाम के एक रथ का प्रवर्तन इन्दिरा जी से उद्घाटित करवाकर देश भर में भ्रमण कराना चाहते हैं। इस जैन समाज के ग्रुप से इन्दिरा जी बड़े स्नेहपूर्वक मिलीं, तब क्या होता है–

मोतीचंद -(हाथ में श्रीफल देते हुए) हमारे जैन समाज की सबसे बड़ीसाध्वी पूज्य ज्ञानमती माताजी ने आपके लिए आशीर्वादस्वऊश्प यह श्रीफल भेजा है।

इन्दिरागांधी -(श्रद्धा से ग्रहणकर मेज पर रखते हुए) आप सभी को नमस्कार, कहिए आप लोगों के आने का उद्देश्य क्या है और मैं आप लोगों की क्या मदद कर सकती हूँ।

रवीन्द्र जी -एक रथ के प्रवर्तन का हम लोग आपसे उद्घाटन कराना चाहते हैं। उसी में पधारने की अनुमति लेने आए हैं।

इन्दिरा जी -उस प्रवर्तन का उद्देश्य क्या है और रथ में क्या चीज आप रखेंगे?

डॉ. वैâलाशचंद -जी मैडम! हमारी ज्ञानमती माताजी हस्तिनापुर में भूगोल की रचना बना रही हैं जिसका नाम है जम्बूद्वीप। उसी जम्बूद्वीप का एक मॉडल बनाकर रथ में रखा गया है। आप उसे देखकर बड़ी खुश होंगी।

मोतीचंद -वह रथ जब नगर-नगर में जाएगा तो सभी लोग जम्बूद्वीप के बारे में जानेंगे और इस रथभ्रमण का प्रमुख लक्ष्य रहेगा देश में व्यसनमुक्ति का पाठ पढ़ाना। तमाम लोगों को हम शराब, नशाबाजी, मांसाहार आदि का त्याग करवाकर सदाचारी बनायेंगे।

इन्दिरा जी -लक्ष्य तो आप लोगों का बड़ा सुन्दर है किन्तु मुझे जम्बूद्वीप का मतलब ठीक से नहीं समझ में आया है।

रवीन्द्र जी -(जैन कॉस्मोलॉजी ग्रंथ दिखाते हुए) देखिए जी! यह किताब इटली से प्रकाशित है। इसके अन्दर जैन एवं हिन्दू ग्रंथों के आधार से हमारे विशालतम ब्रह्माण्ड जम्बूद्वीप के अलग-अलग पार्ट के चित्र भी हैं और उनका विस्तृत वर्णन भी है। इन्हीं सब विषयों को तो हमें इस माध्यम से लोगों को बताना है।

इन्दिरा जी -(रुचि से पुस्तक देखते हुए) हाँ, अब बात समझ में आ गई। यूँ तो मैंने भी अनेक मंगल अवसरों पर जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यावर्ते आदि मंत्रों को पढ़ा-सुना तो है किन्तु साक्षात् ऊश्प में उनके चित्र आज ही देखें हैं।

डॉ. वैâलाशचंद -मैडम! ये तो चित्र ही हैं। जब आप माताजी के पास चलकर इसका मॉडल देखेंगी तब तो लगेगा कि हम साक्षात्जम्बूद्वीप में ही पहुँच गये हैं।

इन्दिरा जी -(कुछ सोचकर अपनी डायरी देखते हुए) वैसे तो इस समय गर्मी बहुत है। चलो ठीक है, मैं ४ जून को आधा घंटे के लिए आ सकती हूँ। अच्छा, यह बताओ कि आप लोग यह कार्यक्रम कहाँ आयोजित करेंगे।

डॉ. वैâलाशचंद -लालकिला मैदान में यह उद्घाटन समारोह रहेगा।

इन्दिरा जी -ठीक है, ४ जून १९८२ को दिन में २ बजे मैं आऊँगी और सबसे पहले ज्ञानमती माताजी से आशीर्वाद लेकर उनसे बात कऊश्ँगी।

सूत्रधार -यह निर्णय होते ही आयोजक गण तो आयोजन की तैयारी में लग गये। पूरी दिल्ली ही क्या, देशभर में जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति रथ के उद्घाटन का समाचार पहुँच गया।
(कहीं पोस्टर लगाते हुए, कहीं पेम्पलेट बांटते हुए लोगों को दिखावें। एक व्यक्ति को माइक पर बोलकर सूचना देते हुए भी दिखावें) और देखते ही देखते ४ जून १९८२ का दिन आ गया। दिल्ली के लालकिला मैदान में विशाज नसभा चल रही है।
(मंच से संबोधन)

संचालक -अभी कुछ ही देर में यहाँ जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ प्रवर्तन का शुभारंभ करने हेतु भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी पधारने वाली हैं, आप सभी लोग शांतिपूर्वक पंडित जी का प्रवचन सुनिये।

पण्डित जी -सभा में उपस्थित धर्मप्रेमी बंधुओं! हमारा भारतदेश एक महकती पुâलवाड़ी के समान है, जहां विभिन्न सम्प्रदायऊश्पी पुष्प खिलकर अपनी मिली-जुली सुगंधि पैâलाते हैं। अनेकता में एकता का संदेश प्रसारित करने वाला यह एक मात्र देश माना जाता है। इसीलिए भारतदेश को विश्वभर में सोने की चिड़िया कहा जाता है। (बीच में ही इन्दिरा जी तेज-तेज कदमों से आकर सर्वप्रथम एक कमरे में विराजमान पूज्य ज्ञानमती माताजी के पास पहुँच जाती हैं। साथ में कुछ और लोग भी हैं।) (यहाँ माताजी का चित्र और पास में बैठी इन्दिरा जी को दिखावें बूंटी वाली सपेâद साड़ी पहने हुए)

इन्दिरा जी –(झुककर) नमस्कार माताजी! आपकी प्रशंसा मैंने बहुत सुनी थी, इसीलिए आज आपके दर्शन करने आ गई।

माताजी –(आशीर्वाद मुद्रा में हाथ वाला चित्र, आवाज पीछे से) कल्याणमस्तु कमलाभिमुखी सदास्तु, दीर्घायुरस्तु कुलगोत्रसमृद्धिरस्तु। बैठिये, अब बताइये! राजनीति में वैâसा चल रहा है और आपके व्यक्तिगत
जीवन में भी धर्म की वैâसी प्रक्रिया चलती है।

इन्दिरा जी –बस, आप जैसी तपस्वी साध्वियों का आशीर्वाद ही हमारा सम्बल है। (कुछ सोचकर) माताजी! आपके पास आज मुझे लग रहा है कि जैसे मैं अपनी माँ के पास ही बैठी हूँ। पता नहीं क्यों, आपसे मुझे मातृत्व जैसा स्नेहिलसुख मिल रहा है और मैं धन्य-धन्य हुई जा रही हूँ।

माताजी –(प्रेम से सिर पर हाथ पेâरते हुए) ठीक तो है, मैं साध्वी बनकर आप सभी को अपनी सन्तान के ऊश्प में ही मानती हूँ। आपके मन में कोई भी कष्ट हो, मुझे नि:संकोच कह सकती हो।

सूत्रधार –फिर तो एक माँ-बेटी के समान ही दोनों में थोड़ी देर गुप्त वार्ता हुई। बाहर पाण्डाल में जनता जय-जयकार पूर्वक कोलाहल कर रही है किन्तु इन्दिरा जी जाने क्यों, माताजी को छोड़ना नहीं चाहती थीं। चलो-चलो! अब सभी शांत हो जाओ। मंच पर हमारी पूज्य ज्ञानमती माताजी संघ सहित पधार गई हैं और प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी भी मंचपर अनेक मंत्रियों एवं समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बैठ गर्इं।
(माताजी का चित्र दो-तीन साध्वियों के संघ सहित एवं मंच पर गृहमंत्री प्रकाशचंद जैन सेठी, सांसद जे.के. जैन, अनेक श्रेष्ठीगण, ब्र. मोतीचंद, रवीन्द्र जी आदि हैं पांडाल के अंदर ही मंच के पास ज्योतिरथ खड़ा है।

गृहमंत्री –(बहुत मोटी माला लेकर इंदिरा जी को पहनाते हुए) आपका सम्पूर्ण जैनसमाज की ओर से मैं अभिनंदन करता हूँ।)
(मोतीचंद और रवीन्द्र जी इन्दिरा जी के करकमलों में अभिनंदन पत्र भेंट करते हुए दिखावें)

संचालक –आज के इस पावन प्रसंग पर पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी का देश के नाम एवं प्रधानमंत्री जी के नाम संदेश और आशीर्वाद प्राप्त हो, इस निवेदन के साथ माताजी के प्रति दो शब्द प्रस्तुत करता हूँ–

नैराश्य मद में डूबते, नर के लिए नव आस हो।
कोई अलौकिक शक्ति हो, अभिव्यक्ति हो विश्वास हो।।
तुम ज्ञानमति के ऊश्प में, माँ सरस्वती का वास हो।
मानो न मानो सत्य ही, तुम स्वयं इक इतिहास हो।।

(तालियों की गड़गड़ाहट और जयकार का सामूहिक स्वर पुन: माताजी का उद्बोधन प्रारंभ)

ज्ञानमती माताजी –दूर-दूर से पधारे श्रद्धालु भक्तों, मंच पर आसीन राजनेतागण एवं रथप्रवर्तन का सौभाग्य प्राप्त करने वाली प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा जी! भारत की इस पवित्र धरा पर सदा-सदा से महापुरुषों ने जन्म लेकर इसका गौरव बढ़ाया है। उनमें से ही जैनधर्म के वर्तमानकालीन चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हैं। उनके अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन सर्वोदयी सिद्धान्तों का पालन करके ही यह देश सन् १९४७ में आजाद हुआ है।
इन्दिरा जी एक ब्राह्मण परिवार में जन्मीं धर्मनिष्ठ महिला हैं मेरी आज के अवसर पर उनके लिए यही प्रेरणा है कि वे केन्द्र सरकार के माध्यम से देश-विदेश में अपनी अहिंसक भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार करें और सदैव साधु-साध्वियों का आशीर्वाद लेते हुए जीवन में उन्नति करें यही शुभाशीर्वाद है।

संचालक –अब हमारी मुख्य अतिथि श्रीमती गांधी का ओजस्वी वक्तव्य आप सब शांतिपूर्वक श्रवण करें।

इन्दिरा जी –(खड़े होकर सबको हाथ जोड़कर प्रणाम, पुन: वक्तव्य प्रारंभ) आज मैं अपने लिए सबसे अधिक खुशी और सौभाग्य का दिन मानती हूँ क्योंकि एक पवित्र रथ का उद्घाटन करने के लिए आप सभी जैन समाज के लोगों ने मुझे बुलाया है। इसके साथ ही देवीस्वऊश्पा पूज्या ज्ञानमती माताजी से आशीर्वाद और अपनत्व पाकर तो मैं निहाल ही हो गई हूँ। माताजी के पास बैठी इनकी माँ को मैं सचमुच एक स्वतंत्रता
सेनानी की वीर माँ के समान मानकर श्रद्धापूर्वक नमन करती हूँ जिन्होंने ज्ञानमती माताजी जैसी साध्वी तो देश के लिए दिया ही है, साथ ही स्वयं भी उन्हीं के समान दीक्षा लेकर धर्म और समाज के लिए खुद को समर्पित कर दिया है।
यह जम्बूद्वीप का रथ जहाँ-जहाँ जाएगा, विश्वशांति और पारस्परिक प्रेम का संदेश देगा, ऐसा मेरा विश्वास है। जब इसकी रचना हस्तिनापुर में पूरी बन जावे, तब वहाँ भी मुझे आप लोग बुलावें। मैं जऊश्र आकर इस अलौकिक कृति का दर्शन कऊश्ँगी। आप सभी को मेरा धन्यवाद, माताजी को नमस्कार।
(सभी लोग रथ के ऊपर पहुँचकर धार्मिक विधि कर रहे हैं)

सूत्रधार –पूज्य माताजी के साथ ही इन्दिरा जी रथ पर चढ़ गर्इं, वहाँ ब्रह्मचारिणी दीदी ने उनके हाथ में रक्षासूत्र बांधा। फिर शुद्ध केशर की कटोरी हाथ में लेकर इन्दिरा जी ने रथ पर स्वस्तिक बनाया, पुष्पांजलि डाली और माताजी ने मंत्र पढ़ा। इस प्रकार रथ प्रवर्तन का उद्घाटन हो गया और प्रधानमंत्री इन्दिरा जी पुन: माताजी का आशीर्वाद लेकर अपने निवास के लिए प्रस्थान कर गर्इं।
(रथ का जुलूस, जनसमूह और बाजों की आवाज से पूरा दिल्ली का चाँदनीचौक गुंजायमान हो रहा है)

सूत्रधार –अब यहाँ प्रस्तुत है कुछ बहनों की वार्ता। ये आपस में क्या चर्चा कर रही हैं जरा ध्यान से सुनिये –

त्रिशला –कामनी जीजी! आज कितना मजा आया न सब देखकर, इन्दिरा जी देखो! अपनी माताजी से मिलकर कितनी खुश हुर्इं।

कामनी –हाँ त्रिशला! आखिर वह भी नेता के साथ-साथ एक नारी भी तो हैं और एक नारी अपने मन की बात जिस तरह से खुलकर किसीनारी से या साध्वी माताजी से कर सकती हैं, उतना और किसी से नहीं कह सकती। इसीलिए आज इन्द्रा जी को अन्तरंग से प्रसन्नता महसूस हुई है।

शांती देवी –अरे बहनों! माताजी की तपस्या का तो कहना ही क्या है? इनके पास तो आये दिन ऐसी सभाएं हुआ करती हैं। हम लोग भी लखनऊ से आकर जब बड़े-बड़े समारोह में भाग लेते हैं तो बड़े गौरव का अनुभव होता है कि हमें इनकी बहन होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

कुमुदनी –अगर अपने पिताजी जीवित होते तो इनकी प्रभावना और कार्यकलाप देख-देखकर वे तो पूâले न समाते।

मालती –लेकिन पिताजी तो स्वर्ग से ही इनके पुण्य प्रभाव को देखकर खुश होते होंगे। वे तो इनके शिष्य-शिष्याओं को देखकर, इन्हें मुनियों को पढ़ाते देखकर भी खूब प्रसन्न होते थे और कभी-कभी कहते भी थे कि ये एक बार ऊश्खा-सूखा खाकर इतनी मेहनत करती हैं। बहुत थक जाती होंगी।

श्रीमती –देखो मालती! यह सब मोह की बातें हम लोग आपस में कर लेते हैं। लेकिन ज्ञानमती माताजी ने तो दीक्षा लेकर हम सभी को गृहस्थ में रहकर भी धर्म करने की जो प्रेरणा दी है उससे पूरे परिवार का कल्याण हुआ और टिवैâतनगर का नाम पूरे संसार में प्रसिद्ध हो गया।

त्रिशला –मेरी सभी जीजियों! ये सब बातें छोड़ों और मेरी बात सुनो। यहाँ समय ज्यादा हो जाने के कारण माताजी की प्रेरणा से प्रवर्तित समवसरण रथ, महावीर ज्योति रथ और मांगीतुंगी रथ की बात नाटक के ऊश्प में दिखाना तो कठिन है, फिर भी मैं संक्षेप में थोड़ा सा आप सभी को बताती हूँ कि पहले तो उस ज्योतिरथ का पूरे देश में १०४५ दिन तक भ्रमण हुआ पुन:२८ अप्रैल १९८५ को हस्तिनापुर में केन्द्रीय रक्षामंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव ने पधारकर जम्बूद्वीप रचना के ठीक सामने अखण्ड ज्योति के ऊश्प में उसकी स्थापना कर दी। (ज्ञानज्योति के सामने मंत्री जी को स्विच दबाते दिखावें, साथ में जनता है और माताजी मंत्री जी को आशीर्वाद दे रही हैं।)

कामनी –हाँ बाद में एक समवसरण का रथ भी तो निकला था।

त्रिशला –उसकी बात ही कह रही हूँ मैं, कि सन् १९९८ में माताजी के पास दूसरे प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी आये। उन्होंने भी आशीर्वाद प्राप्त करके ‘‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’’ नामक रथ का प्रवर्तन किया। (समवसरण रथ का चित्र और उस पर स्वस्तिक बनाते हुए प्रधानमंत्री जी एवं उनके साथ श्रेष्ठीगण, विशाल जनसमूह दिखावें।) इसके बाद फिर हम लोग सन् २००० में भी तो ४ फरवरी को दिल्ली गये थे न, तब भी तो भगवान ऋषभदेव का ही महोत्सव था।

कामनी –हाँ, कितना सुन्दर वैâलाशपर्वत था। जिसके ऊपर बहत्तर रत्न प्रतिमाएँ विराजमान थीं। बाप रे! उस समय तो बेशुमार भीड़ थी।

त्रिशला –उस महोत्सव का नाम था -भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव। उसमें १००८ निर्वाणलाडू चढ़ाए गए थे। तब भी अपने श्री वी. धनंजय कुमार जैन (वित्त मंत्री) जी प्रधानमंत्री अटल बिहारी जी को लेकर आए थे उन्होंने इन्द्र बनकर लड्डू चढ़ाया था। (वैâलाशपर्वत का बड़ा चित्र, उसके सामने भीड़ और प्रधानमंत्री के हाथ में लाडू थाल दिखावें।) कितना अच्छा भाषण दिया था उस समय वाजपेयी जी ने।
भाषण देते हुए अटल जी -पूज्य माताजी! आज मैं फिर से दो साल के बाद आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ। देश में चल रही विषम परिस्थिति से निपटने हेतु आपका आशीर्वाद आवश्यक है। आज यहाँ जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की बात मैं सुन रहा हूँ। कौन कहता है भगवान महावीर जैनधर्म के संस्थापक थे। जबकि उनसे पहले २३ तीर्थंकर और हो चुके हैं। मेरे प्रधानमंत्री कार्यालय में आज भी २३वें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ की प्रतिमा स्थापित है। उनका परिचय मैं धनंजय जी से ही लोगों को कराता हूँ। यहाँ आकर मुझे बहुत खुशी है। आप सभी के प्रति मैं आभार प्रगट करता हूँ। जय भारत-जय हिन्द।

सामूहिक जनता का स्वर –ऋषभदेव भगवान की जय, ज्ञानमती माताजी की जय, वैâलाशपर्वत की जय।

सूत्रधार –आप सभी मिलकर बोलिए–

निर्वाण उत्सव विशाल बाबा।
जिसे लाया है दो हजार साल बाबा।।
ज्ञानमती जी, माता ज्ञानमती जी।।टेक।।
माँ का इरादा अटल है तभी तो, आकर अटल जी ने दर्शन किये।
माँ की कृपा से दिल्ली में सबने, वैâलाशपर्वत के दर्शन किये।।
राजधानी में हो गया कमाल बाबा।
जिसे लाया है दो हजार साल बाबा।।
ज्ञानमती जी, माता ज्ञानमती जी।।१।।

अरे! एक बात तो मैं बताना ही भूल गया कि इस निर्वाण महोत्सव को एक वर्ष तक देश-विदेश में खूब अच्छी तरह से सबने मनाया। जिसमें जम्बूद्वीप के अध्यक्ष-कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र जी ने अगस्त सन्
२००० में अमेरिका के विश्वशांति शिखरसम्मेलन में भारतदेश से जैनधर्माचार्य के ऊश्प में भाग लिया। (यहाँ भगवा वस्त्र में अनेक धर्माचार्य दिखावें, अमेरिका का दृश्य है वहाँ सपेâद धोती-दुपट्टे में मेंरवीन्द्र जी माइक पर बोलते हुए) पुन: अक्टूबर २००० में सात दिन तक प्रीतविहार-दिल्ली को जैन समाज द्वारा विशाल वैâलाशपर्वत बनाकर मानसरोवर यात्रा का दृश्य उपस्थित किया गया, जिसमें लाखों लोगों ने पर्वत यात्रा का लाभ लिया। उसके बाद फरवरी २००१ में इस महोत्सव का समापन तीर्थराज प्रयाग-इलाहाबाद में एक नूतन तीर्थ के लोकार्पणपूर्वक हुआ। (इलाहाबाद में तपस्थली तीर्थ के बड़े चित्र दिखावें और माताजी संघ सहित वहाँ विराजमान हैं।)
सामूहिक भजन पूर्वक दृश्य का समापन

गहरी गहरी नदियां, संगम की धारा है।
ज्ञानमती माता को, प्रयाग ने पुकारा है।।
तीरथ प्रयाग तो युग-युग पुराना है।
ऋषभदेव जिनवर का त्याग धाम माना है।। त्याग………..
वही तीर्थ देखो आज फिर से संवारा है।
ज्ञानमती माता को प्रयाग ने पुकारा है।।

(ग्यारहवाँ दृश्य)


राजधानी दिल्ली में चौबीस कल्पद्रुम विधान

सूत्रधार -सन् १९९७ में ४ अक्टूबर से १३ अक्टूबर का दिल्ली में रिंगरोड पर पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान के द्वारा भक्ति का जो महावुंâभ मेला सम्पन्न
हुआ, वह तो वास्तव में अवर्णनीय है।
(२४ समवसरणों का दृश्य, उन सभी के सामने पूजा करते हजारों इन्द्र-इन्द्राणी केशरिया ड्रेस में दिखावें मंच पर माताजी संघ सहित का चित्र, पास में राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा, मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह। साहू अशोक कुमार जी, माइक पर बोलते हुए, रमेशचंद जैन पी.एस. मोटर्स, राजेन्द्र प्रसाद कम्मोजी आदि अनेक गणमान्य श्रावकगण हैं)
साहू अशोक जी -आज मैं जीवन में पहली बार पूजन विधान का इतना भारी आयोजन देखकर अपने को सौभाग्यशाली मानता हूँ और पूज्य माताजी से करबद्ध निवेदन करता हूँ कि एक बार आप सम्मेदशिखर चलकर वहाँ ऐसा आयोजन करवा दें तो मुझे विश्वास है कि वहाँ का खोया अतिशय पुन: प्रगट होगा।
(अनेक इन्द्र-इन्द्राणी नृत्य कर रहे हैं संगीत चल रहा है। एक ओर सदार्वत भोजन चलता दिखावें, जिसमें हजारों स्त्री-पुरुष जाकर भोजन कर रहे है। कुछ लोग समवसरण की प्रदक्षिणा लगा रहे हैं और तमाम लोग बीचों-बीच मंच पर विराजमान माताजी के दर्शन कर रहे हैं।)

सूत्रधार -इसी महायज्ञ में भाग लेने वाले बहुत सारे लोगों के साथ अनेक चमत्कारिक घटनाएं भी घटीं-

एक महिला -अरी बहन! मेरे सिर में माइग्रेन का भयंकर दर्द था, सोचती कि वैâसे ८-८ घंटा पूजा में बैठूंगी, लेकिन हिम्मत करके बैठ गई, तो मेरा दर्द कहाँ भाग गया, पता ही नहीं चला।

दूसरी महिला -इसीलिए तो साधु लोग कहते हैं कि भक्ति में अचिंत्य शक्ति होती है। सामने ही तो फल दिखता है।

तीसरी महिला-मेरे पैरों में तो इतना दर्द था कि चार कदम भी चलना मुश्किल था और यहाँ देखो! मैं रोज पूजन में खूब नृत्य करती हूँ, खूब जमीन पर बैठती हूँ कोई तकलीफ नहीं होती है।

एक युवक -अम्मा जी! मैंने इधर बाहर से निकलते हुए दो दिन पहले पूजन की आवाज सुनी तो अकस्मात् अन्दर आ गया। यहाँ दर्शन करके बाहर गया तो कई वर्षों पहले की समस्या हल हो गई, कोर्ट में मेरे विरुद्ध केश चल रहा था। उसका भी कल मेरे पक्ष में निर्णय हो गया। अब तो भगवान के साथ-साथ ज्ञानमती माताजी का भी मैं पक्का भक्त बन गया हूँ।

महिला -देखो बाबू! तुम्हारे जेसे नवयुवकों का कितना पुण्य उदय आया है कि वे इस महायज्ञ में चक्रवर्ती बनकर समवसरण में सपरिवार पूजा का लाभ ले रहे हैं।

युवक -हाँ, अब तो ये लोग अगले भव में चक्रवर्ती जऊश्र बनेंगे।

सामूहिक स्वर -कल्पद्रुम महामण्डल विधान की जय, भगवान के समवसरण की जय, ज्ञानमती माताजी की जय।

सूत्रधार -भाइयो-बहनों! आप में से तो तमाम लोगों ने उस विधान में भाग लिया होगा न। इसीलिए यहाँ बहुत संक्षिप्त ऊश्प में उस आयोजन का ऊश्पक दिखाया गया है। जानते हो, इसी प्रकार का एक
वृहत् आयोजन सन् २००१ में भी दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में हुआ था। उसका नाम था -विश्वशांति महावीर विधान। एक ही पाण्डाल में उसके २६ मण्डल बने थे। सभी में सुमेरु पर्वत का आकार था और सभी पर अलग-अलग २६००-२६०० रतन इन्द्र- इन्द्राणियों ने चढ़ाए थे।

(बारहवाँ दृश्य)


(इण्डिया गेट का दृश्य, माताजी के संघ के साथ अनेक भक्तगण केशरिया झण्डा लेकर जयकार बोलते हुए चल रहे हैं। खड़े हुए माताजी का कट आउट दिखावें, देश के नाम उनका संदेश (पीछे से आवाज)

माताजी –जैन समाज के श्रद्धालु भक्तों। इस समय पूरे देश में सरकार और समाज के द्वारा भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव मनाया जा रहा है। इसलिए सबसे पहले महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर तीर्थ जो बिहार प्रान्त में नालंदा के पास है उसका विकास करके उसे विश्व के मानस पटल पर लाना हम सभी का प्रमुख कर्तव्य है। मेरी आप सबके लिए मंगल प्रेरणा है कि उस ओर ध्यान देकर कुण्डलपुर के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करें। आज २० फरवरी सन् २००२ के दिन मैं अपने संघ के साथ दिल्ली से कुण्डलपुर के लिए प्रस्थान कर रही हूँ। सो आप सबके लिए मेरा खूब जिनधर्म प्रभावना हेतु मंगल आशीर्वाद है।
(पुन: जय-जयकार के साथ विहार प्रारंभ। साथ में हैं ब्र. रवीन्द्र जी, सभी ब्रह्मचारिणी बहनें, संघपति महावीर प्रसाद जैन, प्रेमचंद जैन, अनिल जैन एवं तमाम पुरुष-महिलाएं)
ब्रह्मचारिणियों द्वारा सामूहिक गीत–

तेरी चंदन जी रज में, हम उपवन खिलायेंगे।
कुण्डलपुर के महावीरा, तेरा महल बनायेंगे।।टेक.।।
सोने का नंद्यावर्त महल, सिद्धारथ जी का था।
मणियों के पलंग पर, त्रिशला ने सपनों को देखा था।।
उन सपनों को सच्चे करके, फिर से दिखाएंगे।
कुण्डलपुर के महावीरा, तेरा महल बनाएंगे।।१।।

(तालियों की गड़गड़ाहट, जय-जयकार के स्वर)

सूत्रधार -सुनो वीरो! ज्ञानमती माताजी के इस ऐतिहासिक विहार ने पूरे देश की जनता को जागृत कर दिया और मथुरा, आगरा, फिरोजाबाद, इटावा आदि नगरों में सबको संप्रेरित करते हुए माताजी २००२ का चातुर्मास प्रयाग तीर्थ पर करके २९ दिसम्बर २००२ को कुण्डलपुर पहुँच गर्इं। बीच- बीच में भक्तों ने असीम उत्साह का परिचय दिया।

एक श्रावक – -सब मिलकर बोलें -आधी रोटी खाएंगे, कुण्डलपुर बनाएंगे। (३ बार)

दूसरा श्रावक – -देखो! माताजी की यह यात्रा महात्मा गांधी के दांडी मार्च से कम नहीं है। इनके साथ हम लोग भी कुण्डलपुर के विकास में अपना तन-मन-धन समर्पित करेंगे।

अन्य श्रावक – -भैय्या! आप सभी लोग २६०१ रुपये की राशि दान करें, कुण्डलपुर के विकास में आपका यह सहयोग बूंद-बूंद से घड़ा भरने के समान उपयोगी होगा।

एक वीरांगना –(नारा लगवाती है) तुम हमें सहयोग दो, हम तुम्हें तीर्थ देंगे। (तीन बार)

दूसरी वीरांगना –तीरथ विकास क्रम जारी है, अब कुण्डलपुर की बारी है। (तीन बार)

सूत्रधार -इसी जोश-खरोश ने शीघ्र ही ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा को साकार कर दिया कुण्डलपुर में। तभी तो वहाँ मात्र २ महीने की तैयारी में भी फरवरी २००३ के अंदर भगवान महावीर की आदम
कद सात हाथ अर्थात् साढ़े दस पुâट की एकदम सपेâद संगमरमर की प्रतिमा विराजमान हो गर्इं और विशाल पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के साथ महावुंâभ मस्तकाभिषेक महोत्सव बड़े धूम-धाम से सम्पन्न हुआ।
(कुण्डलपुर का दृश्य, चारों ओर भीड़-भाड़, भगवान का मस्तकाभिषेक करते इन्द्र-इन्द्राणी।)

पण्डित जी –(मंत्र बोलते हुए) ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं…….पवित्रतरजलेन महाकुम्भाभिषेवंâ करोमि स्वाहा।
(कई इन्द्र-इन्द्राणी क्रम-क्रम से अभिषेक कर रहे हैंं। संगीत चल रहा है।)

सूत्रधार -इस महोत्सव के बाद कुण्डलपुर में खूब तेजी से निर्माण चलता रहा और पूज्य ज्ञानमती माताजी ने सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र के लिए संघ सहित विहार कर दिया। वहाँ भी मार्च २००३ में भक्तों ने
माताजी के साथ पर्वतवंदना आदि का लाभ लिया। विशाल श्रावक सम्मेलन हुआ और वापस संघ अप्रैल में कुण्डलपुर आ गया। सन् २००३- २००४ के दो चातुर्मास माताजी ने कुण्डलपुर में किये। उनके इस प्रवास में सम्पूर्ण देशवासियों के सहयोग से वहाँ ‘‘नंद्यावर्त महल’’ नामक तीर्थ परिसर में अनेक मंदिरों के साथ-साथ सात मंजिल वाला विशाल नंद्यावर्त महल बन गया। (कुण्डलपुर के सभी चित्र दिखावें।)

एक महिला -भाई साहब! आपने यदि कुण्डलपुर के दर्शन न किये हों तो एक बार जऊश्र जाकर करना। जो कहीं भी नहीं देखने को मिला है, वह भी वहाँ मिलेगा।
जय बोलो महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर तीर्थ की जय। महावीर भगवान की जय, ज्ञानमती माताजी की जय। देखो! जैसे हिमालय की ऊँचाई, क्षीर समुद्र की गहराई, नील नदी की लम्बाई यदि कोई बालक अपनी नन्हीं-नन्हीं भुजाओं को उठा और पैâलाकर बताना चाहे तो वह सक्षम नहीं हो सकता। वैसे ही यहाँ हम लोग भी ज्ञानमती माताजी के अपरिमित व्यक्तित्व और कृतित्व को शब्दों में या मंचन के द्वारा नहीं पूर्ण कर सकते हैं। अत: इतना ही कहकर हम लोग आगे चलते हैं–

श्री ज्ञानमती माता द्वारा, जग ने प्रकाश जो पाया है।
जिनकी वाणी ने प्राणी के, अन्तस का अलख जगाया है।
उनका यश वर्णन चन्द शब्द, बोलो वैâसे कर सकते हैं।
शबनम की बूंदों के द्वारा, क्या सागर को भर सकते हैं।।१।।
यह सत्य अहिंसा की मूरत, युग युग तक ज्ञान प्रकाश करे।
जिस जगह आप डेरा डालें, शिवपुर सा वहीं निवास करें।।
है अभिलाषा सबके मन की, यह प्रभा सदा दिन दूनी हो।
भारत माता की गोदी, इस माता से कभी न सूनी हो।।२।।

जन-जन करते चर्चा जिनके, अनुपम कार्यकलापों की

भारत का नक्शा और उसके बीच में भारतमाता के ऊश्प में तिरंगा झण्डा लेकर सपेâद साड़ी पहने हुई लड़की, साथ में लगभग १५-२० स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ हाथों में तिरंगा और केशरिया ध्वज लेकर संगीत ध्वनि के साथ मंच पर सामूहिक प्रवेश करते हैं। बीच में भारतमाता एवं चारों तरफ सभी लोग खड़े हो जाते हैं पुन: सामूहिक नृत्य शुऊश् होता है।

सामूहिक गान –(इसमें हाव-भाव के द्वारा गीत के सभी भावों को अलग-अलग पात्र प्रदर्शित करें)

मेरे देश की धरती ज्ञानमती माता से धन्य हुई है
मेरे देश की धरती…….।।टेक.।।
यह कृषि प्रधान है देश यहाँ, ऋषियों की तपस्या चलती है। ऋषियों…..
यहाँ संस्कारों के उपवन में, मानवता छिप-छिप पलती है।।मानवता…..
जहाँ सत्य, अहिंसा पालन की पावनता मान्य हुई है,
मेरे देश की धरती……….।।१।।
जब तीर्थ अयोध्या की वसुधा, सुख शान्ति अमन थी चाह रही।सुख…..
तब ज्ञानमती माँ को पाकर, जनता को खुशी अपार हुई।।जनता……..
प्रभु आदिनाथ के महामहोत्सव, से वह धन्य हुई है,
मेरे देश की धरती…………।।२।।
हस्तिनापुरी में जम्बूद्वीप, रचना तुमने साकार किया । रचना………
इन्दिराजी को आशीर्वाद दे, ज्योति प्रवर्तन करा दिया। हां ज्योति प्रवर्तन….
उसके स्वागत में हर प्रदेश की, जनता धन्य हुई है,
मेरे देश की धरती…………।।३।।
साहित्य रचा शिष्यों को बना, चेतन निर्माण किया तुमने। चेतन…….
‘‘चन्दनामती’’ तव कृतियों की, यशसुरभी पैâल रही जग में।।यश…….
युग-युग तक अमर रहेगी तू, ब्राह्मी माँ सदृश हुई है,
मेरे देश की धरती………..।।४।।

सूत्रधार -देखो! यह भारतमाता अपनी अनमोल निधि ज्ञानमती माताजी के प्रति वैâसी कृतज्ञता प्रगट कर रही है। करे भी क्यों न, इन्होंने अपने दीर्घकालीन दीक्षित जीवन में अपने अनोखे कार्यकलापों द्वारा
भारतमाता का जो सम्मान बढ़ाया है, उससे उसे अपनी पुत्री पर गर्व है। पूरे देश में विहार कर-करके जो धर्मप्रभावना, निर्माण प्रेरणा, तीर्थ विकास, शिष्य निर्माण, चारित्र निर्माण आदि के द्वारा इन्होंने जो अमिट छाप डाली है, उसी वात्सल्य का प्रतीक है कि यहाँ सभी प्रदेशों के लोग इनकी दीक्षा स्वर्ण जयंती मनाने आए हैं।
ये दिल्ली के लोग हैं न, ये माताजी को सबसे ज्यादा अपना समझते हैं तभी तो भारतमाता के सामने अपनी बात कहने के लिए बड़ी उत्सुकता से आगे आ रहे हैं। चलिए, आइए! आप क्या कह रहे हैं?

एक श्रेष्ठी -हम दिल्ली वाले तो आज ३४ वर्ष से इनके कार्यकलापों को देख रहे हैं। इनकी लेखनी और ज्ञान का लोहा तो अच्छे-अच्छे विद्वान भी मानते हैं।

अन्य श्रावक – -अरे! इनकी कृपा से ही तो हम लोगों को दिल्ली में पूज्य आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के संघ का दर्शन करने का सौभाग्य मिला। वे तो अलवर से वापस राजस्थान जा रहे थे, तब ज्ञानमती माताजी ने ही हम लोगों को आचार्यश्री के पास श्रीफल चढ़ाने भेजा था।

श्राविका –इसीलिए तो सन् १९७४ में महावीर स्वामी का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव बड़े धूमधाम से मना था। जहाँ साधुओं के संघ का सानिध्य होता है, वहाँ के आयोजन में तो चार-चांँद लग ही जाते हैं।

दूसरे श्रेष्ठी –अरे! यह तो बड़ी पुरानी बातें हो गर्इं। उसके बाद तो इन्होंने अभी सन् १९९७ में चौबीस कल्पद्रुम विधान करवाकर धूम मचा दी थी, दो-दो बार प्रधानमंत्री जी आए, राज्यपाल-मुख्यमंत्री कई बार आए। इतने बड़े-बड़े आयोजन कराना क्या सबके बस की बात है!

महिला –देखो न! महिलाओं में कितनी क्रांति आ गई है इनकी पे्ररणा से। पूरी दिल्ली क्या, देश भर महिलासंगठन की सैकड़ों इकाई समितियों ने धूम मचा रखी है।

श्रावक – -दिल्ली के कनॉटप्लेस क्षेत्र में देखो कितना सुन्दर कीर्तिस्तंभ, पावापुरी की रचना, नजफगढ़ में भरतक्षेत्र की रचना, प्रीतविहार में कमल मंदिर का निर्माण कराया है और हाँ, दिल्ली के पास ही हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना बनने के बाद तो दुनिया के लोग इन्हें जम्बूद्वीप वाली ज्ञानमती माताजी कहते हैं।

सूत्रधार -(दिल्ली वालों की ओर देखते हुए) अभी कितने लोग हैं दिल्ली के। अरे भइया! मुझे पता है कि इन माताजी के उपकारों को तो दो-चार लोगों के द्वारा बताया नहीं जा सकता है किन्तु अब मैं क्या कऊश्ँ? अपनी भारत माता के सामने ये कई प्रदेश से पधारे लोग भी अपनी-अपनी बात कहना चाहते हैं। आइए, आप पश्चिमी उत्तरप्रदेश के गणमान्य महानुभावों! आप लोग अपनी भावना व्यक्त कीजिए।

श्रावक – -हे भारतमाता! मैं ज्यादा नहीं, बस इतना कहना चाहता हूँ कि हमारे हस्तिनापुर तीर्थ को ज्ञानमती माताजी ने विश्वभर में प्रसिद्ध कर दिया है। अगर वे यहाँ जम्बूद्वीप की रचना न बनातीं, तो विदेशी पर्यटक और शोधकर्ता विद्वान् यहाँ भला क्यों आते?

श्रावक – -ये अच्छी-अच्छी सड़वेंâ और रोडवेज बसें तो सन् १९८५ से उत्तरप्रदेश सरकार ने जम्बूद्वीप रचना उद्घाटन के समय से उपलब्ध कराई हैं।

श्राविका –इसीलिए अब यात्रियों को हस्तिनापुर की यात्रा में कोई दिक्कत नहीं होती है। हम लोग तो मेरठ से बैठते हैं और बस से सीधे जम्बूद्वीप गेट पर आकर उतरते हैं।

श्रावक – -अरे भाई! केवल हस्तिनापुर की बात ही आप लोग क्यों कर रहे हो? हमारे खतौली में भी सन् १९७६ में ज्ञानमती माताजी का चातुर्मास हुआ था।

श्राविका –वहाँ तो इन्होंने शिक्षण शिविर, प्रवचन, अध्ययन कक्षा आदि के द्वारा जो सच्चे ज्ञान का अमृत सबको पिलाया था, उसको आज भी लोग याद करते हैं।

श्रावक – -सबसे बड़ा काम तो उस चातुर्मास में इन्द्रध्वज विधान के निर्माण का बना है। हमें याद है कि माताजी २२ घंटे मौन रहकर इन्द्रध्वज विधान को लिखती थीं और शाम ५ बजे जब उनका मौन खुलता था, तब उनकी अमृतवाणी सुनने के लिए नीचे से ऊपर तक भक्तों की भीड़ को लाइन लगाकर दर्शन मिल पाते थे।

श्रावक – -हमारे सरधना नगर में भी सन् १९९१ में इनके संघ का चातुर्मास हुआ था, तब बड़ा भारी सर्वतोभद्र विधान हुआ, कई नेता इनके पास आए और खूब लाभ लिया सरधनावासियों ने।

श्राविक –यूँ तो बड़ौत शहर में भी ज्ञानमती माताजी एक बार आर्इं, डेढ़ महीने सबको इनका सानिध्य भी मिला किन्तु चातुर्मास तो होते-होते रह गया और सरधना वाले बाजी मार ले गये।

श्रावक – -देखो जी! इस बारे में ज्ञानमती माताजी से हम लोगों की एक शिकायत भी है कि हम लोग अनेक वर्षों से मेरठ चातुर्मास के लिए क्यू लाइन में खड़े हैं, हमारा नम्बर ही नहीं आता है, सो अब हमारे मेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर आदि पश्चिमी उत्तरप्रदेश के नगरों में भी इस संघ का भ्रमण होना चाहिए, ताकि हम भी इनकी पवित्र ज्ञानगंगा में स्नान कर सवेंâ।

सूत्रधार -इनकी सुन-सुन करके पूर्वी उत्तरप्रदेश के स्त्री-पुरुष भी शायद कुछ शिकायत करना चाहते हैं। देखो! अब तुम लोग ऐसी बात कहो, जो संभव हो। ज्ञानमती माताजी अब ७२ वर्ष की हो रही हैं, स्वास्थ्य और शारीरिक शक्ति भी तो इनकी देखो कि अब वैâसे जगह-जगह जा सकती हैं?

श्रावक – -(हँसते हुए) अरे भइया! तुम नहीं जानते हो, इनकी आत्मशक्ति बड़ी प्रबल है। हमारे अवधप्रान्त में ये जन्मी हैं तो हमें बड़ा गौरव है इन पर, लेकिन वहाँ ४० साल के बाद सन् १९९३ में जब गर्इं तो अयोध्या का खूब उद्धार किया, उसे राम जन्मभूमि के समान ही ऋषभ जन्मभूमि के नाम से विश्वविख्यात कर दिया।

सामूहिक स्वर -जैनं जयतु शासनम्-वन्दे ज्ञानमति मातरम् (३ बार)

श्राविका –अयोध्या और टिवैâतनगर में १-१ चातुर्मास भी करके थोड़ी शिकायत तो इन्होंने उधर की दूर की है किन्तु अभी हम लखनऊवासियों को एक चातुर्मास का संयोग और मिलना चाहिए ताकि राजधानी के लोग भी अपनी अमूल्य निधि से निकटतम परिचित हो सवेंâ।

श्रावक – -और हम बाराबंकी वाले जो वर्षों से पीछे लगे हैं तो क्या तुम हमसे आगे निकलने की सोच रहे हो? अरे! बाराबंकी तो इनकी असली जन्मभूमि ही माननी चाहिए, क्योंकि सबसे पहले सन् १९५२ में वहीं पर इन्होंने ब्रह्मचर्यव्रत, सात प्रतिमा और गृहत्याग का व्रत लेकर बाराबंकी को अतिशयक्षेत्र का ऊश्प दिया था। कई साधुओं के वहाँ चातुर्मास हो चुके हैं, अब ज्ञानमती माताजी का एक चातुर्मास मांगना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है इसलिए हे भारत माता! अब सबसे पहले हमारे अधूरेपन को पूरा कीजिए, यही निवेदन लेकर हम लोग आए हैं।
(श्रीफल सहित हाथ जोड़कर निवेदन करते हुए)

सूत्रधार -(चिंताजनक मुद्रा में) वैâसी-वैâसी समस्याएं लोग उपस्थित कर रहे हैं भारत माता के सामने, कहीं माँ घबरा न जाए इन सबकी जिदभारी बातें सुनकर। अच्छा भाई! सीधे-सादे खड़े राजस्थान के भाई-बहनक्या अपील कर रहे हैं, सुनिये–

पगड़ीधारी श्रावक – -म्हारी तो भाई कांई समस्या कोनी। म्हारे राजस्थान में तो पेलां पेलां जयपुर, अजमेर, ब्यावर, लाडनूं, सुजानगढ़, सीकर, प्रतापगढ़ नगरां मां खूब चातुर्मास हुआ इनका। आज तलक भी वहाँ का लोगा माताजी ने याद करे, इन्हीं का खूब विधान रचावें और जब मौका मिले हम सब उठे आर इनका दर्शन कर लेवां। महावीर जी शांतिवीर नगर, खेरवाड़ा, केशरिया जी, केकड़ी, लावा, झालरापाटन, सवाई माधोपुर, माधोराजपुरा आदि अनेक गांवा मां इनकी प्रेरणा से निर्माण भी हुआ है।

लहंगा लुगड़ी वाली श्राविका –आ भी तो विशेष बात बताणूं चाहिए कि इनकी दीक्षा म्हारे राजस्थान में ही हुयी है।

दूसरी श्राविका –और क्या! यह बहन सच तो कह रही है। सबस पहले महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर सन् १९५३ में बीसवीं सदी की पहली वुंâआरी कन्या को दीक्षा देकर आचार्य श्री देशभूषण महाराज ने इन्हें ‘‘क्षुल्लिका वीरमती’’ बनाया। फिर सन् १९५६ में भी राजस्थान का ही माधोराजपुरा नगर है, जहाँ आचार्य वीरसागर जी से आर्यिका दीक्षा लेकर ‘‘ज्ञानमती’’ नाम प्राप्त किया।

श्रावक – -इसका मतलब यही तो है ना, कि राजस्थान वालों को इन पर सबसे ज्यादा अधिकार होना चाहिए। अब हमारे माधोराजपुरा मेंइनका एक चौमासा होना चाहिए। क्योंकि वहाँ तो एक भी चौमासा नहीं हुआ है।

सूत्रधार -देखो! अब मैं तो इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकता। साधुओं का पदार्पण तो बड़े भाग्य से अपने नगर में होता है और आप बार-बार पुरुषार्थ करते रहो तो कुछ असंभव भी नहीं है। क्यों भाई! महाराष्ट्र के भक्तों! आपके यहाँ माताजी का चातुर्मास हो चुका है न, इसीलिए आप लोग इतने भक्त हैं इनके। आपकी क्या मनोभावना है? बताइए।

सामूहिक स्वर –जय बोलो ज्ञानमती माताजी की जय, मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र की जय।

श्रावक – -वास्तव में हम लोग तो बहुत भाग्यशाली हैं क्योंकि हमारे महाराष्ट्र में एक बार तो सन् १९६६ में सोलापुर में इनका चातुर्मास हुआ और दुबारा सन् १९९६ का मांगीतुंगी में हुआ चातुर्मास तो ऐतिहासिक ही रहा है। वहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, सहस्रवूâट कमल मंदिर का निर्माण तो बहुतछोटी बात है लेकिन मांगीतुंगी के पर्वत पर इनकी प्रेरणा से जो विश्व की सबसे ऊँची १०८ पुâट की प्रतिमा बन रही है, वह जब बन जाएगी फिर तो दुनियाभर से इस तीर्थ पर लोगों का आना-जाना हो जाएगा।

सूत्रधार -जय बोलो ऋषभदेव भगवान की जय, ज्ञानमती माताजी की जय। बाप रे बाप! इतनी बड़ी प्रतिमा, अब इसके आगे तो कुछ भी कहना बहुत छोटा लगेगा। इसलिए ‘‘गणिनी ज्ञानमती भक्तमण्डल-महाराष्ट्र’’ के भक्तों! आप तो राष्ट्र क्या महाराष्ट्र में जन्म लेकर सचमुच महा सौभाग्यशाली हो गये हो।
(एक ओर उंगली दिखाकर) वो देखो! कर्नाटक के भाई भी हाथ उठाए खड़े हैं। चलो, आप भी अपनी कह लो।O MISTER! What do you want to tell. Please, tell to BHARAT MATA .

एक व्यक्ति –(दक्षिणी शैली में बोलें) ओ भारतमाता!। हम तुमसे बताना चाहता है कि हमारा श्रवणबेलगोला तीर्थ पर १९६५ में ज्ञानमती अम्मा का चातुर्मास हुआ, तब गोम्मटेश भगवान का पास अम्मा ध्यान किया। उस ध्यान में जम्बूद्वीप मिला। इसलिए अम्मा का साथ-साथ जम्बूद्वीप भी मूल में हमारा बोले तो कोई गल्ती नहीं है।

श्राविका –हमारा पुराना भट्टारक स्वामी जी भी उधर बोलता था कि जम्बूद्वीप रचना हमको इधर भी बनाने का था, लेकिन ज्ञानमती माताजी इधर आ गये इसीलिए रचना इधर बन गया।

श्रावक – -उधर कन्नड़ में ज्ञानमती माताजी का लिखा बारहभावना हम लोग रोज पढ़ते हैं।

सामूहिक स्वर –अरसर वैभव सुरर विमानव, धन यौवन संपद वेल्ला। निरुतवु नेनेदरे इन्द्रिय भोगवु, येन्दु निल्लदु स्थिर वेल्ला।।

सूत्रधार -समझ में आया कि ये कर्नाटक वाले क्या बोल रहे हैं। इन सब लोगों को माताजी की बनाई हुई कन्नड़ बारहभावना देखो! कितनी अच्छी याद है। जय बोलो बाहुबली भगवान की जय।
भाई साहब! यहाँ पर मध्यप्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, आसाम, बंगाल, बिहार, झारखंड सभी तरफ के भक्त कुछ न कुछ भाव व्यक्त करना चाह रहे हैं किन्तु क्या कऊश्ँ? अपने पास समय की बड़ी कमी है।चलो, जल्दी-जल्दी इनके भी एक-एक विचार सुन लें। तो आइए, मध्यप्रदेश के भक्तों।

एक व्यक्ति –हमारे मध्यप्रदेश के सनावद का नाम तो माताजी के साथ छाया के समान जुड़ा है। इन्होंने सन् १९६७ में हमारे यहाँ चातुर्मास करके ब्र. मोतीचंद जी को घर से निकालकर संघ में सम्मिलित किया, उन्होंने प्रमुखऊश्प से जम्बूद्वीप बनाने की जिम्मेदारी ली और आज भी वे माताजी के शिष्य बनकर क्षुल्लक मोतीसागर के ऊश्प में जम्बूद्वीप के पीठाधीश नाम से प्रसिद्ध हैं।

महिला -उसके बाद सन् १९९६ में माताजी मांगीतुंगी जाते समयजब दुबारा सनावद गर्इं तो वहाँ भी इनकी प्रेरणा से ‘‘णमोकार धाम’’ नाम से एक सुन्दर तीर्थ मेनरोड पर बनाया गया है।

सूत्रधार -भइया! मेरा तो सिर चक्कर खाने लगा है इस पर्वतीय व्यक्तित्व के कार्य सुन-सुनकर, कि आखिर इनकी माँ ने इन्हें जन्मघूंटी में कौन सी शक्तिवर्धक दवा पिलाई थी जो नारी की काया में पुरुषों सेभी ज्यादा धर्म का अलख जगा रही हैं। तभी तो कहते हैं–

सच तो इस नारी की शक्ती, नर ने पहचान न पाई है।
मंदिर में मीरा है तो वह, रण में भी लक्ष्मी बाई है।।
है ज्ञानक्षेत्र में ज्ञानमती, नारी की कला निराली है।
सब पूछो नारी के कारण, यह धरती गौरवशाली है।।

(तालियों की गड़गड़ाहट, जयकार का सामूहिक स्वर)

एक व्यक्ति -(बीच में आकर) हम बुन्देलखण्ड से आये हैं। हमारे क्षेत्र में तो माताजी का पदार्पण ही नहींr हुआ है। कब हमारा भाग्य खुलेगा, जब हमारे यहाँ की जनता को ज्ञानमती माताजी के साक्षात्च रण वहाँ की धरती पर पड़ेंगे।

दूसरा व्यक्ति -हम तमिलनाडु के लोग भी यही निवेदन करने आये हैं कि माताजी एक बार तमिलनाडु में जऊश्र पधारें। हमारे तिरुमलय के भट्टारक जी तो इन्हीं से पढ़े हैं, वे इनकी बड़ी तारीफ करते हैं।

तीसरा व्यक्ति -(सिर ठोकते हुए) हम लोग आसाम में इनके प्रवचन रोज टी.वी. पर सुनते हैं क्या करें, जब ये वहाँ जाती ही नहीं हैं। कई बार तो हम टी.वी. मंदिर में लगाकर इनका प्रवचन सामूहिक ऊश्प में सबको दिखाते-सुनाते हैं। आज साक्षात् दर्शन करके बड़ी खुशी हुई है।

सूत्रधार -ये लो! अब तो सब अपने-आप ही भाग-भागकर आ रहे हैं और भारतमाता के सामने गुजारिश करके अपना मन हल्का कर रहे हैं। तो अब, आइए गुजराती बाबू।

श्रावक – -मारा गुजरात मां ज्ञानमती माताजी ना बहु नाम छे।माताजी गुजरात मां सन् १९९७ जनवरी मां पधारीं, तब तेमनी प्रेरणा थी तारंगा जी सिद्धक्षेत्र मां बहु विशाल भगवान ऋषभदेव नी ग्रेनाइट प्रतिमा विराजमान थई ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पण थई गई। एमना चरणकमलमां वधा गुजराती जैन समाज बारम्बार वंदामि अण विनयांजलि अर्पण करवा माटे अइयां आव्या छे।

श्रेष्ठी -(जल्दी से आगे आकर) यह क्या! सभी प्रदेश के लोग अपनी-अपनी बात बता रहे हैं और हम कलकत्ता वाले जो माताजी के सबसे पुराने भक्त हैं, उनको अभी मौका ही नहीं मिला।

सूत्रधार -सॉरी प्लीज! बोलिए आप।

श्रेष्ठी -ज्ञानमती माताजी ने जब आचार्य शिवसागर महाराज के संघ से सम्मेदशिखर और दक्षिण भारत की यात्रा के लिए सन् १९६२ में अपना आर्यिका संघ बनाकर अलग विहार किया था, तो सबसे पहले सन् १९६३ में इनका चातुर्मास कलकत्ता में ही हुआ था।

महिला -माताजी ने याद तो जरुर होसी।

पुरुष -उस समय केवल २९ वर्ष की उम्र में ही ज्ञानमती माताजी ने अपनी ज्ञानदृढ़ता और प्रौढ़ता के बल पर कलकत्ता की पूरी समाज पर जो छाप छोड़ी थी, वह वास्तव में ऐतिहासिक है। हम लोग चाहते हैं कि एक बार इस संघ का पुन: चातुर्मास कलकत्ता में हो जाए तो नवयुवकों में नई प्रेरणा जग जाने से भारी धर्मप्रभावना हो जाएगी।

श्रावक – -अब तो मैं भी जऊश्र बोलूँगा, क्योेंकि इसके बाद श्रवणबेलगोला की ओर जाते हुए माताजी ने सन् १९६४ का चातुर्मास हैदराबाद-आंध्रप्रदेश में किया था। हम उस समय नये-नये युवक के ऊश्प में देखते थे कि माताजी के द्वारा वहाँ सबसे बड़ी संख्या में पूजा-विधान के आयोजन कराये गये थे, और भी न जाने कितने प्रभावना के कार्य हुए थे। अभयमती माताजी की क्षुल्लिका दीक्षा तो वहाँ के लिए एक नया इतिहास ही था।

श्राविका –तब से लेकर आज तक हम लोगों का कट्टर नियम है कि माताजी कहीं भी हों, हम साल में कम से कम एक बार इनके जऊश्र दर्शन करने जाते हैं और माताजी का हमारे परिवार पर खूब आशीर्वाद रहता है।

सूत्रधार –

यह केवल घर का दीप नहीं, यह तो दुनिया का दीपक हैं।
इनसे आलोकित नगर हमारे, जन मानस आलोकित हैं।।
हम केवल शब्दों के द्वारा, क्या अभिनंदन कर सकते हैं।
बस श्रद्धा के पुष्पों द्वारा, भावांजलि अर्पण करते हैं।

(तालियों की गड़गड़ाहट और जय-जयकार की ध्वनि)
अब आप सुनें बिहार प्रदेश के भक्तों की बात।

श्रावक – -हमारे बिहार की तो काया ही पलट दी ज्ञानमती माताजी ने। हम तो सोच भी नहीं सकते थे कि केवल दो सालों में इतना भारी काम बिहार के तीर्थों पर हो जाएगा।

श्राविका –अरे बहनों! हमने तो इनका खूब चमत्कार देखा है कुण्डलपुर में। वहाँ शुऊश्-शुऊश् में ऐसे जंगली काले-काले बड़े-बड़े बिच्छू, गोह, सांप और कानखजूरे निकलते थे कि लोग देखकर ही डर जाते थे। लेकिन माताजी ने सबसे पहले तो वहाँ काम करने वाले कर्मचारियों को नियम दे दिया कि कोई किसी जीव को मारने की कोशिश नहीं करेंंगे, फिर उन्होंने सरसों मंत्रित करके पूरे परिसर में डलवा दी। तब तो चमत्कार ही हो गया कि जीव ही निकलने बंद हो गये।

श्रावक – -कुण्डलपुर तीर्थ पर नंद्यावर्त महल, महावीर मंदिर, ऋषभदेव मंदिर, नवग्रह मंदिर और त्रिकाल चौबीसी का विशाल मंदिर बनाना भी तो क्या किसी चमत्कार से कम है!

दूसरा श्रावक – -इनके साथ-साथ वहाँ सुन्दर धर्मशाला, भोजनालय आदि सब कुछ सुविधाएँ तो हो गई हैं वहाँ, इसीलिए तो अब यात्री वहाँ ठहरकर बड़े खुश होते हैं।

तीसरा श्रावक – -भाई साहब! इसी कुण्डलपुर यात्रा के बीच में माताजी सन् २००३ में सम्मेदशिखर भी तो गई थीं। पूरे ४० साल के बाद सम्मेदशिखर में उनका पदार्पण हुआ था।

श्राविका –तब हम भी बनारस से शिखर जी गये थे और माताजी के साथ पहाड़ की वंदना करके बड़ा आनंद आया था।

दूसरी महिला हम लोग भी उनकी वजह से ही आरा से गये थे। गुरुओं के साथ यात्रा करने में मजा तो आता ही है, पुण्य भी ज्यादा मिलता है।

श्रावक – -इन सबके साथ-साथ शिखर जी में माताजी की प्रेरणा से एक पर्मानेंट उपलब्धि हुई उस तीर्थ पर।

श्राविका –अच्छा समझ गई! वही न, जो बाहुबली चौबीस टोंक रचना के पास मैदान में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का मंदिर बना है। उसका तो पंचकल्याणक भी सन् २००५ दिसम्बर में हो चुका है।

श्रावक – -वह विशाल प्रतिमा ऋषभदेव की बड़ी सुन्दर है। उनके दर्शन करके सभी को जैनधर्म की प्राचीनता का ज्ञान होगा।

सूत्रधार -ये देखो! हिन्दुस्तान के तमाम लोगों की बातें सुन-सुनकर अमेरिका से भी कुछ भक्त लोग ज्ञानमती माताजी के गुणगान करने आ गये हैं। आओ भाई! आप भी माताजी से परिचित हैं क्या?

महिला (विदेशी ऊश्प वाली) भारतवासियों! आप तो ज्ञानमती माताजी को बाहर-बाहर से जानते होंगे, लेकिन (थोड़ा रुक-रुक कर) मैंने तो प्रâांस यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च स्कॉलर के ऊश्प में इनसे सन् १९७६-७७ में बहुत गहराई से ज्ञान प्राप्त किया है और इनकी पूरी साध्वी चर्या देखकर अपनी थिसिस में उस बात को लिखा भी है।

सूत्रधार -अच्छा! तो क्या आप प्रâांस की एन.शांता जी हैं?

महिला -यश यश! थैंक यू-थैंक यू।

दूसरी विदेशी महिला I am also a research scholar of Verzinia University. I had come to Gyanmati Mataji in 1998 for taking guidance of my research work about Jain Sadhvi.

सूत्रधार -अरे वाह! तब तो आपने भी अपनी थिसिस में कुछ न कुछ लिखा होगा। यहाँ तो और भी रिसर्च स्कॉलर हैं जिन्होंने ज्ञानमती माताजी के ज्ञान से लाभ प्राप्त किया है, लेकिन अब मैं अमेरिका से आए एक महानुभाव को प्रस्तुत कर रहा हूँ, देखिए! ये क्या कह रहे हैं?

पुरुष -जय हो भारत माता की जय हो। हे माँ! मैं हूँ तो हिन्दुस्तानी ही, बस अमेरिका में रहकर थोड़ा बहुत धर्म का भी काम कर लेता हूँ। अमेरिका में सन् २००० अगस्त में संयुक्तराष्ट्र संघ ने सहस्राब्दि के एक अद्वितीय ‘विश्वशांति शिखर सम्मेलन’ का आयोजन किया था। उस समय वहाँ ७० देशों से हिन्दू एवं अन्य सभी धर्मों के लगभग १५०० धर्मगुरुओं ने भाग लिया था, तब ज्ञानमती माताजी ने भी अपने शिष्य कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जैन को वहाँ जैनधर्माचार्य के ऊश्प में भेजा था। तब वहाँ इनके भाषण से लोगों ने जैनधर्म के साथ-साथ भगवान ऋषभदेव के बारे में भी जाना था।

सूत्रधार -मेरे प्यारे देशवासियों! आप सभी ने अनेक प्रदेश के लोगों से ज्ञानमती माताजी के कार्यकलापों को सुना है। वास्तव में इनका जीवन एक सूर्य के समान है जो स्वयं तपकर संसार को प्रकाश देता है, एक पेड़ की तरह है जो निष्पक्ष ऊश्प से सबको सुखद छाया प्रदान करता है और मिश्री की भांति है जो सभी को मिठास अर्थात् हित का मार्ग प्रदान करती है। भारत माता-मुझे गौरव है कि मेरी जिस गोद में आज से करोड़ों, लाखों और हजारों वर्ष पहले अनेक तीर्थंकर आदि महापुरुषों के साथ ब्राह्मी, सुन्दरी, सुलोचना, सीता, अनंतमती और चंदना जैसी महान सती आर्यिकाएँ खेली हैं, उसी गोद का गौरव बीसवीं सदी में ज्ञानमती माताजी ने वृद्धिंगत किया है। अब वह क्वांरी कन्याओं की आर्यिका परम्परा पंचमकाल के अंत तक निर्बाधऊश्प से चलती रहेगी। यही ज्ञानमती माताजी के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हमारे देश के लिए है।

सब मिलकर बोलो-जैनं जयतु शासनम्, वन्दे ज्ञानमति मातरम्।
अंत में सामूहिक नृत्यगान के साथ समापन करें।

+ Part 1

गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के जीवन पर आधारित

नाटक


सच्चा वैराग्य – बना इतिहास

लेखिका – आर्यिका श्री चंदनामती माताजी

मंच पर सामूहिक गान के साथ डांडिया नृत्य –

तर्ज-पंखिड़ा……………..

वन्दना करूँ मैं गणिनी ज्ञानमती की।
बीसवीं सदी की पहली बालसती की।। वंदना……..।।टेक.।।
इनके मात-पिता का, गुणानुवाद मैं करूँ,
इनकी जन्मभूमि का भी, साधुवाद मैं करूँ।।
मिल के आओ, मिल के गाओ, मिल के करो जी।
वन्दना चरण मेें करके, पुण्य भरो जी।।वंदना………….।।१।।
वीर के युग की ये, लेखिका पहली हैं,
ढ़ाई सौ ग्रंथों की, लेखिका साध्वी हैं।।
मिल के आओ, मिल के गाओ, मिल के करो जी,
वन्दना चरण में करके, पुण्य भरो जी।।वंदना…………..।।२।।
इनके वात्सल्य में, माँ की ममता भरी,
इनके सानिध्य में, मुझको समता मिली।।
मिल के आओ, मिल के गाओ, मिल के करो जी,
वन्दना चरण में करके, पुण्य भरो जी।।वंदना………….।।३।।
इनके तप त्याग से, लाभ लेते सभी,
‘‘चन्दना’’ भाग्य से, भक्ति करते सभी।
मिल के आओ, मिल के गाओ, मिल के करो जी,
वन्दना चरण में करके, पुण्य भरो जी।।वंदना……………..।।४।।

 

(प्रथम दृश्य)


उत्तरप्रदेश के सीतापुर जिले में ‘‘महमूदाबाद’’ नामक नगर है। वहाँ जैन समाज के एक श्रेष्ठी सुखपालदास जैन के घर में दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हैं। उनमें से छोटी पुत्री मोहिनी के विवाह का दृश्य प्रस्तुत है –
(बारातियों की धूम मची है, शोरगुल चल रहा है, विदाई की बेला निकट है।)
मोहिनी –  (रोती हुई माँ के गले से लिपट जाती है) माँ! मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं ससुराल में आपकी शिक्षाओं का पालन कर सवूँâ। मुझे जल्दी- जल्दी बुला लेना माँ, यह अपना घर छोड़कर मैं पराये घर में वैâसे रह पाऊँगी माँ।

माता मत्तोदेवी-(रोते हुए बेटी को समझाती है) नहीं बेटी मोहिनी! तुम अपना मन इतना छोटा न करो। तुम जहाँ जा रही हो, टिवैâतनगर के उस परिवार में सभी बहुत अच्छे लोग हैं, वे सब तुम्हें बहुत अच्छी तरह से रखेंगे। (सिर पर हाथ पेâरते हुए) मेरी बच्ची पर मुझे पूरा भरोसा है कि ससुराल में जाते ही वहाँ अपने मधुर व्यवहार से सबका मन मोह लेगी। बेटी! तुम्हारा नाम‘‘मोहिनी’’ है न, देखो मेरी ओर (बेटी का चेहरा अपने हाथों से ऊपर उठाकर)जैसा नाम-वैसा काम। ठीक है न, अब रोना नहीं है, वर्ना आंखें सूज जाएंगी और मेरी रानी सबको मुँह वैâसे दिखाएगी।

(कृत्रिम हंसी के साथ पुत्री को अपने से अलग कर विदा करने लगती है)
मोहिनी –  (पास में खड़े पिताजी के चरण स्पर्श करती है) पिताजी!आप मुझे बहुत प्यार करते थे न, फिर क्यों मुझे अपने से दूर भेज रहे हैं? अब आपको जल्दी-जल्दी मेरे पास आना पड़ेगा। आएंगे न? बोलो।
पिता सुखपालदास-  (रुंधे वंâठ से) हाँ बेटी! क्यों नहीं? अपनी लाडली के पास तो मैं बहुत जल्दी-जल्दी आया कऊश्ँगा। क्या कऊश्ँ पुत्री! यह मेरी नहीं, हर माता-पिता की मजबूरी होती है कि बेटी को पराये घर भेजना और पराये घर की बेटी लाकर पुत्रवधू के ऊश्प में अपने घर की शोभा बढ़ाना।
भाई महिपालदास –हाँ जीजी! यही इस सृष्टि की प्राचीन परम्परा है।

बड़ी बहन रामदुलारी –मोहिनी! देखो, मुझे भी तो तुम सभी ने  मिलकर पराये घर भेजा था। अब मुझे वही ससुराल अपना घर लगता है और वहीं के सब लोग अपने माता-पिता, भाई-बहन के ऊश्प में प्रिय लगते हैं। इसी तरह तुम भी थोड़े दिन में अपने घर में रम जाओगी।
मोहिनी –(आँसू पोंछती हुई) ठीक है, ठीक है। अब मैं आप सबसे विदा लेकर एक संस्कारित कन्या के ऊश्प में ससुराल के प्रति अपने कर्तव्य को निभाऊँगी और हमेशा अपने पीहर का नाम ऊँचा रखूँगी।

(पति के साथ जाते-जाते पुन: एक बार माता-पिता की ओर देखकर मोहिनी भावुक होती हुई)
मोहिनी –पिताजी! माँ! मुझे और कोई शिक्षाऊश्पी उपहार दीजिए ताकि मेरी भावी जिंदगी बिल्कुल धर्ममयी बने।

पिताजी –हॉँ हाँ, अच्छी याद दिलाई बेटी! अरे महिपाल की माँ! लाओ न वह शास्त्र, वह तो मैं देना ही भूल गया था। जल्दी लाओ, यही तो अमूल्य उपहार है एक पिता द्वारा अपनी पुत्री के लिए।

(ग्रंथ देते हुए) ले बेटी! यह पद्मनंदिपंचविंशतिका ग्रंथ अपने घर में बड़े पुराने समय से पढ़ने की परम्परा रही है। इसका तुम भी रोजस्वाध्याय करना। बस, पुत्री! मेरा यही तेरे लिए अमूल्य उपहार है।
(बेटी के सिर पर हाथ पेâरते हुए) जा बेटी! तू सदा सुहागिन रहे, सुखी रहे, यही मेरा आशीर्वाद है।
सूत्रधार –

मानव समाज की दुनिया में, अब ऐसी नई लहर आयी।
इस ग्रंथ को पढ़कर जीवन में, जिनधर्म की बगिया लहराई।।
इसका ही चमत्कार प्रियवर, मुझको अब तुम्हें बताना है।
बस ज्ञानमती पैदा करने को, तत्पर हुआ जमाना है।।

+ Part 2

(द्वितीय दृश्य)


(इस प्रकार इधर महमूदाबाद से बारात विदा हो जाती है और अब टिकैतनगर में नई बहू के आगमन के उपलक्ष्य में खुशियाँ छाई हैं। बाजे बज रहे हैं, महिलाएँ मंगलाचार गा रही हैं।)

लाला धन्यकुमार का घर, बहू को मंदिर ले जाती महिलाएँ। मंदिर दर्शन करने के बाद घर आकर सभी नित्य क्रियाओं में निमग्न हो जाते हैं पुन: एकदिन मोहिनी को स्वाध्याय करते देखकर सासू माँ अपनी बेटियों से कहती हैं-

(मोहिनी को पद्मनंदिपंचविंशतिका शास्त्र का स्वाध्याय करते दिखावें।)

सासू माँ –देखो मुन्नी! मेरे घर में वैसी धर्मात्मा बहू आई है, इसने तो आते ही घर का वातावरण ही बदल दिया है।

मुन्नी-हाँ, माँ! धर्मात्मा तो बहुत दिख रही है किन्तु खाने-खेलने, सजने-संवरने के सुनहरे दिनों में भाभी के लिए इतना धर्मध्यान करना क्या उचित है? माँ! मुझे यह सब देखकर कुछ डर लगता है कि कहीं इस घर में कभी वैरागी बाजे न बजने लग जाएं।

सासू माँ – नहीं नहीं मुन्नी! ऐसी कोई बात नहीं है अरे! तुम इतनी आगे तक कहाँ सोचने लग गर्इं। (कुछ चिन्तन मुद्रा में) अच्छा देखो, मैं बहू से पूछती हूँ कि इस शास्त्र में गृहस्थ धर्म का वर्णन है या वैराग्य भावना का?
बहू ओ बहू! यह शास्त्र तुम्हें बहुत अच्छा लगता है। बताओ, इसमें क्या लिखा है?

मोहिनी –माँ जी! यह वही शास्त्र तो है जो मुझे विदाई के समय दहेज के ऊश्प में मेरे बापू जी ने दिया था।
(हाथ जोड़कर विनम्रता से सासू के पास आकर) इस शास्त्र में गृहस्थों के लिए बड़ी अच्छी-अच्छी बातें लिखी हैं।

सासू माँ –मेरी प्यारी बहू! मुझे भी तो कुछ बताओं कि कौन सी अच्छी-अच्छी बातें हैं?

मोहिनी –(शास्त्र उठाकर पास में लाती है) देखिए माँ जी! इसमेंलिखा है कि श्रावक-श्राविकाओं को घर में रहते हुए भी देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छह कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। इससे वे भी मोक्षमार्गी माने जाते हैं।

सासू माँ –किन्तु मेरी पूâल जैसी बहू को अभी से पूजा, संयम, तप इन सबको जानने की क्या जरुरत है। बेटी! तुम तो अभी मेरे लड़के को खूब खुश रखो। गृहस्थ नारी के लिए अपना पति ही परमेश्वर होता है और उसकी सेवा ही परमात्मा की पूजा समझना चाहिए। समझीं बहू! हाँ, दर्शन तो तुम रोज करती ही हो, दान भी जो इच्छा हो कर लिया करो, लेकिन संयम-तप की बात अभी बिल्कुल मत किया करो।

मोहिनी –(सासू माँ के पैर पकड़कर) माँ जी! मैं कहाँ दीक्षा लियेले रही हूँ। लेकिन घर में रहकर भी भोगों की तृष्णा थोड़ी कम की जाए तो भी संयम का पालन हो जाता है और पुण्य का बंध होता है।

सासू माँ –मैं समझी नहीं, मेरी बहू क्या कह रही है?

मोहिनी –नहीं माँ जी! कुछ नहीं, बस मैं यही कह रही थी कि
अष्टमी-चौदश, अष्टान्हिका-दशलक्षण आदि पर्वों में गृहस्थ भी संयम का पालन करके पाप कर्मों को नष्ट कर सकते हैं।

सासू माँ –अच्छा-अच्छा बस, चलो बहू! शास्त्र बंद करो और मेरे लिए नाश्ता लगाओ, सुनो! तुम भी मेरे साथ बैठकर नाश्ता किया करो। देखो बेटा! शास्त्र तो रोज चार-चार लाइन पढ़ा जाता है, बस यही स्वाध्याय है। (मोहिनी उठकर काम मे लग जाती है और देखते-देखते दिन, महीने, वर्ष निकल जाते हैं। फिर एक दिन गर्भवती मोहिनी प्रसव
वेदना से कराहने लगती है। कुछ ही देर में समाचार ज्ञात होता है कि प्रथम पुष्प के ऊश्प में कुलवधू ने कन्यारत्न को जन्म दिया है। अन्दर से धाय की आवाज आती है।
धाय -देखो, देखो मालकिन, अरे देखो तो सही! यहाँ प्रसूतिगृह में वैâसा उजाला छा गया है। ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे घर में कोई देवी का अवतार हुआ हो? लेकिन यह क्या, यह बिटिया तो रो ही नहीं रही है।

सासू माँ –हे भगवान्! मेरी बहू का पहला पूल है, कुम्हलाने न पाए। प्रभो! इसकी रक्षा करना। (इस प्रकार सभी की मंगल कामना और खुशियों के साथ कन्या का जन्म उस घर के लिए वरदान बन गया। धीरे-धीरे बालिका सबकी गोद का खिलौना बन गई। उसका नाम पड़ा-मैना। धीरे-धीरे मैना बड़ी होने लगी और ७-८ साल की होते-होते उसमें ज्ञान की किरणें प्रस्पुâटित होने लगीं, उस पर माँ मोहिनी ने उसे और भी ज्यादा संस्कारित होने का मौका दे दिया। होता क्या है एक दिन-

मैना –(यहाँ ७ साल की बालिका को प्रक पहने हुए दिखावें) माँ! मैं सहेलियों के साथ बाहर खेलने जा रही हूँ।

माँ –अरी मैना! कहाँ जाओगी खेलने, क्या रखा है खेल-वेल में। मुझे यह शास्त्र पढ़कर सुनाओ। देखो! इसमें कितनी अच्छी-अच्छी बातें लिखी हैं।

मैना –(माँ के पास बैठकर शास्त्र पढ़ती है) सती मनोवती ने क्वाँरीअवस्था में ही गजमोती चढ़ाकर भगवान के दर्शन करने की प्रतिज्ञा ले ली। पुन: विवाह के बाद अनेकों संकट आने के बाद भी वह अपने नियम में अडिग रही, तो देवता भी उसके सामने नतमस्तक हो गये और उसकी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए जंगल में भी एक तलघर के अंदर मंदिर प्रगट हो गया एवं चढ़ाने हेतु गजमोती भी रख दिए। (इतना पढ़कर कहती है) ओ हो! कितनी रोमांचक कहानी है। मेरी प्यारी माँ! ऐसी सुन्दर कहानियाँ तो मुझे रोज पढ़ने को दिया करो।

माँ –ठीक है बिटिया! ऐसी कहानी पढ़ने में जो आनंद मिलता है वह भला खेल में मिलेगा क्य। चलो, अब मेरे साथ थोड़ा रसोई का काम करो, जिससे तुम बहुत जल्दी एक होशियार लड़की बन जाओगी। (मैना माँ के साथ काम में लग जाती है किन्तु काम करते-करते भी वह पुस्तक खोलकर आलोचना पाठ विनती आदि याद करने लगती है)

मैना –(याद करती हुई गुनगुनाती है) द्रौपदि को चीर बढ़ाया, सीता प्रति कमल रचाया। अंजन सों कियो अकामी, दुख मेटो अन्तर्यामी।। (माँ से कहती है) माँ! देखो मैंने यह आलोचना पाठ पूरा याद कर लिया है।

माँ –(बेटी के सिर पर हाथ पेâरती है) मैना! तुम इतनी छोटी होकर भी बहुत होशियार हो गई हो। अरे! मेरी गुड़िया को किसी की नजर न लग जाए। बिटिया! अब मैं तुम्हें वह शास्त्र भी दिखाऊँगी जिसे तुम्हारे नाना जी ने मुझे दहेज में दिया था। उसका नाम है-पद्मनंदिपंचविंशतिका। अर्थात् आचार्य श्री पद्मनंदि ने इसे लिखा है, इसमें पच्चीस अध्याय हैं जो एक से एक अच्छे हैं।

मैना –मुझे जल्दी दिखाओ वह शास्त्र। नानाजी की धरोहर, मैं उसका एक-एक शब्द पढूंगी और उसे याद भी कर लूँगी। ठीक है न माँ। (जाकर माँ के गले से लग जाती है। माँ अपनी उस देवी सी पुत्री को कलेजे से लगाकर असीम सुख का अनुभव करने लगती है। अगले दिन पुन:) –

माँ –बिटिया मैना! लो पहले दूध पियो (गिलास देती हुई) फिर मैं रसोई में खाना बनाने जा रही हूँ। तुम अपने छोटे भाई-बहनों को संभाल लेना। वैâलाश को तैयार करके स्वूâल भेज देना, श्रीमती-मनोवती और प्रकाश-सुभाष को नहला-धुलाकर मंदिर भेज दो,फिर सबको नाश्ता करवाकर नौकर के साथ बाहर खेलने भेज देना।

मैना –ठीक है माँ! मैं अब आपके हर काम में सहयोग कऊश्ँंगी। बड़ी हो गई हूँ ना, इसलिए दादी-बाबा का भी ध्यान रखूँगी। आप अकेली सब काम करती-करती थक जाती हो ना। (बच्चों को जल्दी-जल्दी तैयार करके स्कूल और मंदिर भेजती है पुन: दादी से कहती है)
दादी जी! आप नाश्ता कर लीजिए, माँ ने यह नाश्ता आपके लिए भेजा है।

दादी माँ-जुग जुग जिये मेरी पोती रानी, मैं तो निहाल हो गई हूँ। ऐसी सुन्दर और सुयोग्य पोती पाकर। (फिर वे मैना के सिर पर हाथ फिराती है) भगवान्! इसे अच्छी सी ससुराल दे, खूब सुखी रहे मेरी
लाडली। (मैना के बाबा से कहने लगती हैं) अजी! सुनो तो सही, देखो! अपनी मैना अब मेरी कितनी सेवा करने लगी है। इस भोली सी बच्ची को तुम पैसे-वैसे तो दिया करो, यह तो बेचारी कभी कुछ मांगती ही नहीं है।

बाबाजी-आ जा बेटी मेरे पास। यह तो मेरी सबसे दुलारी पोती है। (मैना बाबा के पास चली जाती है) अरे मैना की दादी! तुम इसे पैसे देनेकी बात करती हो, मेरा सब कुछ तो इसी का है। मेरा बेटा छोटेलाल देखो कितना होशियार है। उससे कहकर मैं इसकी खूब अच्छी शादीकराऊँगा, फिर तो मेरी बच्ची दूधों नहायेगी। (मैना के सिर पर हाथ फेरते हैं, मैना शर्माई सी सिर नीचा करके माँ के पास चली जाती है)

मैना -माँ!माँ! दादी-बाबा तो बस सीधे मेरी शादी के ही सपने संजोने लगे। क्या एक बेटी की यही नियति होती है कि उसे पाल-पोस कर शादी करके ससुराल भेज दिया जाए। बस, इससे ज्यादा यहाँ मेरी कोई अहमियत नहीं है। ये शादी-वादी की बात मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती है।

माँ –नहीं बेटी! ऐसी बात नहीं है। तुम सबकी बहुत लाडली बेटी हो ना, इसीलिए सब तुम्हारे भविष्य की चिंता करते हैं। लेकिन अभी मेरी बच्ची की उमर ही क्या है। अच्छा जाओ मैना! तुम थोड़ी देर सहेलियों के साथ कोई खेल खेल आओ, मूड बदल जाएगा।

मैना-नहीं, मुझे खेलने नहीं जाना है। आज तो मैं वो आपका वाला शास्त्र पढ़ूंगी उसी से मन बदल जाएगा।
(शास्त्र उठाकर बड़ी विनय से चौकी पर रखती है, पास में माँ और दादी दोनों बैठकर सुनने लगती हैं)

दादी-बिटिया! सुनाओ, आज तुमरे मुंह से हमहू शास्तर सुने खातिर बइठी हन। जानत हौ, ई शास्तर तुमरी महतारी का तुमरे नाना दिहिन हैं। ईका का नाम है? जरा बताव।

मैना -दादी! इस शास्त्र का नाम है -पद्मनंदिपंचविंशतिका। (ॐकांर बिंदु संयुत्तं की दो लाइनें पढ़कर शास्त्र पढ़ती है) अब आप लोग ध्यानपूर्वक इसको सुनिये-देखो! इसमें लिखा है कि ‘संसार की चारों
गतियों में मनुष्य गति सबसे अच्छी गति है, क्योकि मनुष्य के अन्दर विवेक होता है और मोक्ष जाने के लिए प्रबल पुरुषार्थ कर सकता है। अनादिकाल से यह जीव संसार में मिथ्यात्व और अज्ञान के कारण
चौरासी लाख योनियों में घूम रहा है। (मैना आगे कहती है)-
समझी माँ! संसार में मिथ्यात्व और अज्ञान सबसे ज्यादा खराब होता है। देखो! आगे क्या लिखा है? ‘‘इन्द्रत्वं च निगोदतां च बहुधा मध्ये तथा योनय:’’……….ओ हो! कितनी सुन्दर बात आचार्यदेव लिख रहे हैं कि ‘‘हे आत्मन्! तूने संसार में न जाने कितनी बार स्वर्गों में इन्द्र का पद पाया, कितनी ही बार एकेन्द्रिय की निगोद पर्याय पाई, जहाँ किसी के द्वारा कभी संबोधन भी नहीं मिल सकता है तथा तरह-तरह के पशु-पक्षी, नारकी आदि जन्मों को धारण कर दु:ख उठाये हैं……………..।
(कुछ चिंतन मुद्रा में कहती है)–
देखो तो माँ! इस अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य जनम को पाकर भी केवल विषय-भोगों में प्राणी रम जाता है और अपने अंदर छिपी भगवान् आत्मा को पाने का कोई पुरुषार्थ ही नहीं हो पाता है।

दादी –(मोहिनी से) अरी बहू! ई लड़की का तुम यू सब का पढ़ाय रही है। ई वैराग की बात पढ़-पढ़के, कहूँ हमरी मैना घर से उड़ ना जाय। हमका तो बड़ी चिंता है। अब शास्तर इससे न पढवाव, नाही तो वैराग ईके सिर चढके बोले वोले लगि है।

मोहिनी –ठीक है माँ जी! अब हम खुद शास्त्र पढ़ा करेंगे, इससे नहीं पढ़ायेंगे। (कुछ सोचकर) लेकिन माँ जी! इस लड़की में तो स्वयं ही न जाने कहाँ से ज्ञान भर गया है, इसने तो मुझे समझा-समझाकर कई मिथ्यात्व क्रियाओं का त्याग करा दिया है। अब मुझे भी समझ में आ गया है कि पुरानी परम्परा से चली आर्इं कुरीतियाँ हैं उन्हें छोड़कर केवल भगवान की भक्ति में ही दृढ़ श्रद्धान करना चाहिए। ठीक है न माँ जी?

दादी माँ-अरे वाह! र्इं तो महतारी खुदै बिटिया का धरम पढ़ाय- पढ़ाय चापर किये हैं। ऊका अपनी गुरु बनयिहौ बहू, फिर तो यू समझौ गई हाथ से। जहाँ ब्याहके जइहै, हुआं यही मेल राग फैलइहैं । अरे भगवान्! हमका तो ई लड़की की बड़ी चिन्ता है। सुनौ, मैना के बाबा! ओ बेटा छोटेलाल! ईके खातिर बड़ा धर्मात्मा घर देखेव, नाई तो या जहाँ जइहै रोज लड़ाई होइहै सास-नन्द से। (हांफती हुई दादी अंदर जाने लगती हैं) रक्षा करौ रक्षा करौ भगवान्! हमरी पोती की बुद्धी ठीक कर देव।

छोटे लाल-(माँ को रोककर) अरे अम्मा! तुम चिंता न करो। मैना अभी छोटी है, थोड़ी बड़ी हो जाएगी तो सारा लोक व्यवहार समझ जाएगी।

बाबाजी-हाँ हाँ! मैना की दादी! तुम बेकार घबड़ात हौ, अपनी मैना तो बड़ी अच्छी लड़की है। वा ससुराल जायके तुमरी बदनामी न होय देहै। बस थोड़ी धर्मात्मा ही तो है तो हम लोग अपने नगर के आसैपास मा कोई धर्मात्मा परिवार देख लेबै। ईका बड़ी तो होय देव, सब चिंता दूर अपने आपय होइ जइहै।

छोटे लाल-अरे पिताजी! सभी संतान अपना-अपना भाग्य लेकर ही जनमते हैं। इसके भाग्य में जैसा वर लिखा होगा, वही तो मिलेगा। हम लोग तो केवल निमित्त मात्र बनकर इनका लालन-पालन करते हैं और फिर यह लड़की तो हमारे लिए पुत्री नहीं पुत्र के समान है। अम्मा! जानती हो, हमारे व्यापार में भी इससे पूरा सहयोग मिलता है, मेरे कमाए हुए नोटो को, पैसों को यही तो संभालकर रखती है, फिर मुझे
सबकी अलग-अलग गड्डियाँ लगाकर देती है।

दादी-अच्छा भैय्या! अब समझ मा आवा कि या बिटेवा तुमरी तिजोड़ी संभाले है। फिर तो हमका कौनो चिन्ता नाई है ।
(इस प्रकार आपसी वार्ता में विषय यहीं समाप्त होजाता है)

सूत्रधार-अरे भैय्या! मेरी बहना! सब सुन रहे हो न ध्यान से उस मैना की कहानी, जिन्होंने अपने विलक्षण कार्यकलापों से ज्ञानमती नाम को प्राप्त किया है। अर्थात् साधारण कन्याओं की तरह से इनका बचपन नहीं बीता, बल्कि बचपन से ही अपने क्षण-क्षण का सदुपयोग किया था। तभी तो इनके लिए लिखा गया है–

जब बाल्यकाल देखा सबने, मैना का बड़ा निराला है।
उस नगरी में इस बाला सा, कोई ना प्रतिभा वाला है।।
प्रारंभिक बेसिक शिक्षा पर, थी ऐसी कड़ी नजर डाली।
कुल आठ बरस में मैना ने, यह शिक्षा पूरी कर डाली।।१।।

था आगे और नहीं साधन, पर साध न पूरी हो पाई।
फिर गई जैन शाला पढ़ने, मच गई वहाँ हलचल भाई।।
मैना इस तरह वहाँ जाकर, मेधा को और निखार चली।
जो आगे पढ़ने वाली थी, हर बाला इनसे हार चली।।२।।

उस शाला में इस बाला का,पढ़ने का अलग तरीका था।
तोता-मैना की तरह न इस, मैना ने रटना सीखा था।।
जो उसको सबक मिला करता, आ चरणों से कर दिखलाया।
अर्जुन सम एक लक्ष्य सिद्धी, करने का मानो युग आया।।३।।

सूत्रधार-चलो भाई चलो! आगे देखें कि अब क्या होता है? मैना देवी अब क्या गुल खिलाती हैं?–

+ Part 3

(तृतीय दृश्य)


जिनेन्द्र भक्ति का चमत्कार

(टिकैतनगर में घर का दृश्य है, दो बच्चे एक पलंग पर लेटे हैं (एक बच्चा ३ वर्ष का, दूसरा ५ वर्ष का है)
पास में बैठी माँ उनके पंखा कर रही है। घर में सभी लोग अपने-अपने काम में लगे हैं। १-२ बच्चे आ-आकर थोड़ा परेशान करते हैं तो माँ उन्हें गुस्सा करके वहाँ से भगाती है। तभी मैना (१२ वर्ष की लड़की दिखावें) वहाँ आ जाती है–

मैना- माँ! इन दोनों भाइयों को क्या हो गया है? आप तो आज बड़ी दु:खी दिख रही हो।

माँ –दु:ख की तो बात ही है बेटी। देखो! सुभाष और प्रकाश दोनों तुम्हारे छोटे भाइयों को बड़ी भयंकर चेचक निकल आई हैं।

मैना कोई बात नहीं माँ! यह बीमारी आई है, दवा देने से धीरे-धीरे ठीक हो जाएगी।

माँ –नहीं मैना! तुम इस बीमारी की गंभीरता नहीं समझती हो। इस समय अपने पूरे नगर में यह रोग खूब पैला है। रोज सुनने में आ रहा
है कि उसका बच्चा मर गया, उनकी लड़की बच नहीं पाई। लोग कहते हैं कि यह बीमारी नहीं, दैवी प्रकोप है। इसमें बचना मुश्किल ही रहता है।

मैना- आप घबराओ मत मेरी माँ! सब समय से ठीक हो जाएगा। आप जाकर काम देख लो, मैं इन बच्चों की देख-भाल कर लूँगी। (माँ को भेजकर खुद भाइयों को खोलकर देखती है तो थोड़ा घबड़ा जाती है।) हे भगवान्! वैसे ठीक होंगे मेरे भाई। (इतनी देर में ही कई पुरुष घर में घुस आते हैं और छोटेलाल जी से कहते हैं)

एक व्यक्ति-अरे भइया, सुनो! यह भयंकर दैवी प्रकोप बड़ी जोर से पैला है, मेरे घर में भी एक बच्ची को चेचक हो गई है, वह तो बिल्कुल संसार से विदाई ही लेने को तैयार है। तुम्हारे बच्चों के क्या हाल हैं भाई।

छोटेलाल –हालत तो इनकी भी ठीक नहीं है। बस मेरी बिटिया मैना दिन भर इनकी सेवा में लगी रहती है। देखो! भगवान् को क्या मंजूर है।

दूसरा व्यक्ति-अरे भाई छोटे! सुनो, हम सब मिलकर कल शीतला माता के मंदिर में चलकर पूजा करें, वर्ना हमारे बच्चे ठीक नहीं होंगे। सभी लोग यही कहते हैं कि यह बीमारी नहीं है, देवी माता का प्रकोप है, इसीलिए शीतल माता को ही खुश करना पड़ेगा। तो ठीक है, कल सुबह हम सब लोग साथ चलकर प्रसाद चढ़ायेंगे। (यह सारी वार्ता वहाँ खड़ी मैना सुन रही है, उन लोगों के जाने के बाद वह अपने माता-पिता से कहती है)-

मैना –(हंसकर) पिताजी! आप इन लोगों के साथ किसी देवी को प्रसाद चढ़ाने नहीं जाएंगे। माँ! आपका तो मिथ्यात्व करने का त्याग ही है।

छोटेलाल –क्यों बेटी! इसमें क्या आपत्ति है। अरे! ये सब तो बेचारे हमारे अच्छे के लिए ही कह रहे थे। यह देवी माता केवल हमारे घर में ही नहीं, सारे गांव को परेशान किए हुए हैं, तो इनको तो शांत
करना ही चाहिए।

मैना –यही तो भ्रांति पैâली है मेरे पिताश्री! जो आप लोगों ने इसे देवी का प्रकोप समझ रखा है। अरे! आप यह क्यों नहीं समझते कि यह केवल बीमारी है और बीमारी तो दवाई एवं भगवान के गंधोदक लगाने से चली जाएगी। सुनो माँ! इस घर में ऐसी रुढ़िवादिता अब आप एकदम समाप्त करो और मेरी बात मानकर आप तो भगवान शीतलनाथ के अभिषेक का गंधोदक लाकर बच्चों को लगाओ। मुझे विश्वास है कि जिस गंधोदक से सती मैना सुन्दरी ने राजा श्रीपाल सहित सात सौ कुष्टियों का कुष्ट रोग मिटा दिया था, उस गंधोदक से मेरे भाइयों की चेचक जरुरत ठीक हो जाएगी।

मोहिनी –(पति से) देखो जी! मेरे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए। मैना इतनी जिद कर रही है तो आप न जाकर किसी और से माता की शांति का उपाय कर दीजिए। अपने बच्चों को कुछ होना नहीं चाहिए। बड़ी भयंकर माता निकली हैं इन्हें देखों! अब तो इन्हें उठाना-संभालना भी मुश्किल हो रहा है।

मैना –नहीं माँ! यह भी नहीं होगा। बस, आप मंदिर में जाकर शीतलनाथ भगवान के अभिषेक का गंधोदक लाओ, इन्हें लगाओ, यदि इनकी आयु शेष होगी तो इन्हें हमसे कोई छीन नहीं सकता है।
(अगले दिन सुबह फिर कुछ लोग घर के पास आकर बोलते हैं)।
सामूहिक स्वर -अरे ओ भाई छोटेलाल! जल्दी आओ, चलो/ सब लोग सामान लेकर तैयार खड़े हैं। शीतला माता के पास चलना है।

छोटेलाल –(सकुचाते हुए घर से बाहर निकलकर) भैय्या! मैं आप लोगों के साथ जाने में मजबूर हूँ।

एक व्यक्ति –क्या बात है छोटे! क्या घर में कुछ ज्यादा समस्या है।

छोटेलाल –नहीं, ऐसा कुछ नहीं, बस! हमारी मैना बिटिया है न, वह इसको ढकोसला मानती है। उसने तो अपनी माँ को मंदिर से गंधोदक लाने भेजा है।

दूसरा व्यक्ति-अरे यार! तुम भी एक लड़की के कहने से बच्चों की जान पर खेल रहे हो। इसमें भला गंधोदक क्या काम करेगा। (यह वार्ता सुनते ही मैना बाहर निकलकर बड़ी नम्रता से सबको
समझाती है)

मैना –चाचा जी! आप लोग चेचक को माता का प्रकोप न मानकर इसे बीमारी समझिये और मेरा सभी से निवेदन है कि अपने मंदिर के भगवन्तों में बड़ा चमत्कार है, उनमें एक शीतलनाथ भगवान भी हैं। आप लोग भक्तिपूर्वक उनका अभिषेक कीजिए और श्रद्धा के साथ अपने-अपने बीमार बच्चों को गंधोदक लगाइए, वे जरुरतठीक हो जायेंगे।

एक व्यक्ति –मैना! तुम बहुत गलती पर हो। बिटिया! हर चीज का अपना-अपना महत्त्व होता है। इस समय तो माता की शांति ही इसका उपाय है, वर्ना तुम्हारे भाइयों की जान भी जा सकती है। थोड़ा समझदारी से काम लो बेटा।

मैना –देखो चाचा! किसी की आयु तो कोई बढ़ा नहीं सकता है। आप लोग भी रोज बारहभावना में पढ़ते हैं–

दल बल देवी देवता, मात-पिता परिवार।
मरती बिरिया जीव को, कोई न राखनहार।।

(वहाँ खड़े सभी लोग एक-दूसरे का मुँह देखकर कहने लगते हैं)-

एक व्यक्ति-चलो भाई यहाँ से चलो! यह लड़की तो हम लोगों को ही उपदेश देने लगी। चलो! हम तो चलें भैय्या, इन्हें इनके भाग्य पर छोड़ो, हम लोग तो अपने-अपने बच्चों की भलाई देखें। ये अपनी जानें, इनकी लड़की बड़ी धर्मात्मा बनती है न, उसी ने इन्हें गुमराह कर रखा है। चलो चलो, जल्दी चलो।
(सभी लोग बड़बड़ाते हुए चले जाते हैं, उधर से मोहिनी मंदिर से कलशी में गंधोदक लेकर आती है और बच्चों के शरीर पर बड़ी श्रद्धा से लगाती है।) (यहाँ मंत्र पढ़कर गंधोदक लगाने कादृश्य दिखावें)

सूत्रधार-बंधुओें! देखी न एक कन्या की दृढ़ता। गांव के बड़े- बुजुर्ग तो ऊश्ढिवादी परम्परा निभाने को शीतला माता के पास चले गए, लेकिन मैना ने अपने माता-पिता को वहाँ नहीं जाने दिया और भगवान
की भक्ति का सहारा लेकर ही उसने भाइयों को स्वस्थ करने का निर्णय ले लिया। फिर वह इस नाजुक क्षण में मंदिर जाकर भगवान से प्रार्थना करती है)–

मैना –(मंदिर मेंं भगवान के सामने हाथ जोड़कर) हे प्रभो! मेरे प्यारे भाइयों को स्वस्थ जऊश्र कर देना। मैंने सबकुछ छोड़कर भगवन्! आपका ही सहारा लिया है। नाथ! यदि मेरे भाइयों को जरा भी कुछ हो गया तो सारे नगरवासियों की श्रद्धा भगवान की भक्ति से हट जाएगी। भगवन्! मेरी लाज अब आपके हाथ में है, रक्षा करना। (गवासन से बैठकर नमस्कार करके वापस घर चली आती है)।

सूत्रधार-ओ हो मैं तो धन्य हो गया, ऐसी दृढ़ श्रद्धा-भक्ति देखकर। देखो ना! मैना ने भगवान के पास अपनी सारी बात कहकर उन्हीं के भरोसे अपनी नैया डाल दी। जरा आप लोग भी मेरे साथ बोलिए –
मैंने तेरे ही भरोसे भगवान्! भंवर में नैया डाल दई। (तीन बार) तो भाइयों, बहनों! अब आगे देखो क्या होता है? मैना के भाइयों के साथ-साथ पूरे नगर में पैâली चेचक की बीमारी ने अपना क्या ऊश्प ले रखा है?
(घर में मोहिनी प्रतिदिन गंधोदक लाकर बच्चों को लगाती हैं और मैना दिनभर भाइयों की साज-संभाल करती है, पुन: एक दिन)–

मैना –(माँ से) देखो माँ! इनके दाने तो एकदम सूख गए हैं। अब ये ठीक से आंखे खोलकर देख भी रहे हैं। (भाइयों को पुचकराते हुए) बेटा! हँसो-हँसो। सुभाष! अब तुम बिल्कुल ठीक हो। मेरे भइया प्रकाश! आओ जल्दी जीजी की गोद में। (दोनों बच्चे जल्दी से जीजी की गोद में पहुँचकर हंसने लगते हैं)
(इधर मैना के घर में बच्चों की किलकारियाँ छूट रही हैं, उधर बाहर से कई लोगों के रोने की आवाज आती है। लोग कह रहे हैं कि अरे भाई! मेरा बच्चा मर गया, मेरी लड़की मर गई। हमने इतना सब कुछ किया, शीतला माता की खूब पूजा की, उन्होंने भी हमारी रक्षा नहीं की।)

सूत्रधार-(खुशी से उछलता हुआ) चमत्कार हो गया, चमत्कार हो गया। मैना की भक्ती का सपना साकार हो गया। अरे भैय्या! जैसे उस मैना ने गंधोदक से पति का कुष्ट रोग दूर किया था, तो उसके बारे
में पढ़ते है–
‘‘फल पायो मैना रानी’’। अब इस मैना का साक्षात् चमत्कार भी देख लिया न, अब भी तो बोलो–
गंधोदक से हुई काया स्वर्ण समानी, फल पायो मैना रानी।
फिर जानते हो क्या हुआ?–
मैना की इस भक्ति का चमत्कार देखकर सारे नगर निवासी शीतलनाथ भगवान का जयजयकार करते हैं और समाज में व्याप्त कुरीतियाँ वहाँ से भगा दी जाती हैं। मैना को सभी लोग खूब साधुवाद देते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं।
स्त्री-पुरुषों का सामूहिक स्वर–
जय हो, शीतलनाथ भगवान की जय, चौबीसों भगवान की जय, सच्चे जैनधर्म की जय, मैना देवी की जय।

+ Part 4

(चौथा दृश्य)


नाटक का मैना पर पड़ा प्रभाव

सूत्रधार-टिकैतनगर में वार्षिकोत्सव के अवसर पर अनेक प्रकार के रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन था। उसी में एक नाटक मण्डली द्वारा ‘अकलंक-निकलंक’ नाटक का मंचन चल रहा था। सारी समाज के साथ, साथ १५ वर्ष की कन्या मैना भी बैठी देख रही थी। उसमें एक
दृश्य प्रस्तुत होता है-
(एक पति-पत्नी अपने दो पुत्रों के (लगभग १५ वर्ष के) साथ मंदिर में दर्शन करके वहाँ विराजमान एक दिगम्बर मुनिराज के पास मस्तक झुकाकर कहते हैं)। (यहाँ मुनि का चित्र दिखावें)

दम्पत्ति-गुरुदेव! हम लोग को अष्टान्हिका पर्व तक ब्रह्मचर्य व्रत दे दीजिए।

मुनिराज –मंत्र पढ़कर व्रत देते हैं) जीवन में खूब धर्म की वृद्धि करो, यही मेरा मंगल आशीर्वाद है।

दोनों बालक –(सिर झुकाकर) पिताजी! हम लोग भी यही वाला व्रत लेंगे।

पिताजी –ठीक है बच्चों! तुम भी ले लो |

दोनों बालक –(सिर झुकाकर मुनि से) गुरु जी! हम लोगों को भी वही ब्रह्मचर्यव्रत प्रदान कीजिए, जो हमारे माता-पिता ने लिया है।

मुनिराज –(मंत्र पढ़कर व्रत देते हैं) बच्चों! तुम लोग भी जीवन में महान बनो और धर्म की खूब प्रभावना करो, यही मेरा शुभाशीर्वाद है।

सूत्रधार-इसके बाद वे सभी खुशी-खुशी घर चले जाते हैं। प्रसन्नतापूर्वक जीवन के दिन व्यतीत हो रहे हैं। पुन: कुछ वर्षों के बाद बालकों की तरुणावस्था देखकर माता-पिता उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखते हैं-

माता –(बच्चों को पास में बैठाकर प्यार से) अब मेरे बच्चे सयाने हो गये हैं, जल्दी से इनकी शादी करके घर में बहू लाना है। तभी तो घर में असली रौनक आएगी।

पिताजी –हाँ! मैं भी इन दिनों यही सोच रहा था कि अब अच्छी सी दो सुन्दर लड़कियाँ देखकर अकलंक-निकलंक का विवाह रचाना है।
(माता-पिता की इस चर्चा को सुनकर अकलंक विनयपूर्वक कहते हैं)

अकलंक –पिताजी! हम लोगों का तो ब्रह्मचर्य व्रत है, फिर विवाह की बात कैसे ?

निकलंक –हाँ पिताजी! आपके सामने ही तो हम लोगों ने मुनिवर से ब्रह्मचर्य व्रत लिया था तो अब शादी की बात कहाँ से आ गई?

पिताजी –अरे बेटे! यह तुम लोग क्या कह रहे हो।

माता –(हंसकर) मेरे भोले भाले बच्चों! वह तो केवल अष्टान्हिका पर्व में आठ दिन की बात थी। क्या उसको तुमने आजीवन समझ लिया है।

अकलंक –नहीं माँ! हमने व्रत लेते समय ऐसी कोई समय सीमा नहीं कही थी, अत: हम तो उसे जीवन भर ही निभाएंगे और आगे मुनिव्रत धारणकर आत्मकल्याण करेंगे। आप बिल्कुल चिंता न करें, हम लोग पूरे जीवन जिनधर्म की प्रभावना करके आपका नाम रोशन करेंगे।

पिताजी –(भावुक होकर) नहीं बेटा! ऐसा मत कहो। हम लोगों ने अपने बच्चों से बहुत सारी आशाएँ संजोई है। हमारी भावनाओं को मत ठुकराओ बच्चे।

माता –सुनो बेटे! मेरी बात मानो, तुम पहले शादी करो, जैसा कि धरती की प्राचीन परम्परा रही है, गृहस्थधर्म का पालन करो फिर कर्तव्य निर्वाह के बाद दीक्षा लेना।

अकलंक –पूज्य पिताजी! कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर नहीं रखना ही ज्यादा अच्छा है। अर्थात् पहले विवाह करके गृहस्थ कीचड़ में फसना पुन: उससे छूटने का पुरुषार्थ करना कीचड़ में पैर रखकर धोने के समान है किन्तु इसकी अपेक्षा विवाह नहीं करना ज्यादा ठीक है।

‘‘प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्’’

अर्थात् अब हमारा पक्का निर्णय है कि हम विवाह नहीं करेंगे।

सूत्रधार-जय हो, अकलंक-निकलंक की जय हो, असिधारा व्रत की जय हो।
कितना मार्मिक दृश्य है न भाइयों! आप लोगों के यह सब देख- सुनकर होश ही उड़ गए होंगे कि जिस घर में केवल दो ही बच्चे हों और दोनों दीक्षा लेने की ठान लें तो उनके माता-पिता पर क्या बीतेगी। वे ही घड़ियाँ अकलंक-निकलंक के माता-पिता पर बीतीं। किन्तु देखो मेरी माताओं-बहनों! उनके माता-पिता ने मात्र समझा-बुझाकर अपने बालकों की गृहस्थी बसाने का पुरुषार्थ किया, लेकिन उनकी दृढ़ प्रतिज्ञा देखकर उन्हें किसी कमरे में बंद नहीं कर दिया, मारा-पीटा भी नहीं।
और हाँ, अगर आपका बेटा ऐसा हो जाए, तो क्या आप भी ऐसे उदार बनोगे? (थोड़ा सा हंसकर) नहीं ना, तभी तो अब आपके घरों में अकलंक-निकलंक जैसे महापुरुष पैदा होना बंद हो गया है। लेकिन मेरे भाई! कभी-कभी कलियुग में भी सतयुग जैसा वातावरण दिखने लगता है। तब यह धरती वीरों एवं वीरांगनाओं से सनाथ हो जाती है।
यहाँ मैं आपको बताता हूँ कि इस ऐतिहासिक नाटक को टिकैतनगर की सारी जनता तो रोमांच से देख ही रही थी, उनके साथ बैठी यहाँ की देवी स्वऊश्पा मैना चूँकि अपने जीवन निर्माण के ताने-बाने बुन रही थी, उसके हृदय पर अकलंक की पंक्तियाँ एवं उनकी दृढ़ता ने महल बनाने जैसा असर दिखाया और फिर क्या हुआ सो सुनिये–

नाटक का अति चित्ताकर्षक, जब एक सीन ऐसा आया।
अकलंक करो शादी जल्दी, था उन्हें पिता ने समझाया।
कीचड़ में पग रख कर धोना, यह काम पिता न सच्चा है।
इससे तो सुन्दर कीचड़ में, पग ही न रखूँ यह अच्छा है।।१।।

बस इसी वाक्य ने मैना के, मन को मक्खन सा मथ डाला।
उसने अकलंक समान तभी, दृढ़ होकर निश्चय कर डाला।।
बोली परिणय के बाद में, दीक्षा सफल नहीं हो पाएगी।
अब मैना क्वांरी दीक्षित हो, जिनमत का अलख जगाएगी।।२।।

(यहाँ मैना को माँ के कान में कुछ कहते हुए दृश्य दिखावें)

जब पता चला यह माता को, उसने समझा यह बचपन है।
सब ठीक ठाक हो जाएगा, आने तो दो नव यौवन है।।
जब आँखों में होगा खुमार, यौवन अपना रंग लाएगा।
तब यह भोलापन बालापन, सब स्वयं भंग हो जाएगा।।३।।

+ Part 5

(पंचम दृश्य)


त्याग की दृढ़ता

(घर का दृश्य, बच्चे शोर मचाते हुए माँ-बेटी (१६ वर्ष की) अपने-अपने काम में लगी हैं, तभी एक ग्वालन मटका सिर पर लिए हुए घर में प्रवेश करती है)–

ग्वालन –(घर में घुसते हुए) मालकिन, ओ मालकिन! घी ले लो, ताजा घी लाई हूँ।

मोहिनी –ठीक है,दे दो। कितना घी है इसमें?

ग्वालन –पूरा दस किलो है, बहू जी!

मोहिनी –(मैना से) बिटिया! ग्वालन दादी घी लेकर आई हैं, इनका घी ले लो और पैसे दे दो।

मैना-(पैसे देकर) दादी लाओ घी, अच्छा बढ़िया है न। (लेकर कोठरी में रख दिया)

सूत्रधार-ग्वालन दादी तो हमेशा की तरह मटकी में छन्ना बांधकर घी देकर चली गर्इं, फिर तीन-चार दिन बाद माँ के कहने से मैना देवी ने घी को गरम करके छानने के लिए मटकी का कपड़ा खोला तो उसमें चिपकी तमाम लाल चीटियाँ देखकर एकदम कांप गई और कहने लगी-

मैना-(घबराकर) अरे माँ! देखो तो सही अनर्थ हो गया। इस घी
को फेक दो।

मोहिनी –क्या हुआ बेटी! ऐसे क्यों घबरा रही हो?

मैना-माँ देखो! इसमें कितनी सारी मरी हुई चीटियाँ हैं। क्या यह घी अपने घर में काम आ सकता है?

मोहिनी –(पास में जाकर देखते हुए) नहीं, नहीं, यह घी काम नहीं आएगा। इसके बंद करके रख दो, ग्वालन को बुलाकर इसे वापस कर देंगे।

सूत्रधार-देखा भइया! ओ मेरी बहना! मैना की बात उनकी माँ कितना मानती हैं। उन्होंने चीटियाँ देखकर पुत्री के कहने से वह पूरा घी वापस करने के लिए रखवा दिया। अरे केवल लड़की की बात ही नहीं मानी, ये तो माता मोहिनी के विरासती धार्मिक संस्कार हैं कि उन्हें खाने-पीने की वस्तुओं में पूरी शुद्धि का विवेक शुऊश् से रहा है। वे एक-एक धनिया का दाना, हल्दी की गांठ, जीरा-सौंफ आदि सभी मसाले तक को खूब देख-शोध कर, धोकर ही चौके में प्रयोग करने देती हैं। बाजार का पिसा मसाला इनके घर में कभी आ ही नहीं सकता है। खैर! अब उस घी का क्या हुआ और मैना ने आगे क्या निर्णय लिया यह देखिएगा। कुछ दिन बाद वही ग्वालन पुन: घर में आती है-

ग्वालन –बहू जी, ओ बहू जी! यह बताओ कि अब कितना घी लाना है। तुम्हारे घर के लिए, उसी हिसाब से घी तैयार किया जाए।

मोहिनी –सुनो-सुनो ग्वालन चाची! तुम अपना यह घी वापस ले जाओ। मैना! इन्हें मटकी में चींटी दिखाकर वापस कर दो।
(मैना कोठरी से मटकी लाकर ग्वालन को दिखाती है)

मैना-ग्वालन दादी! यह अपना घी देखो तो सही, इतनी सारी चीटियाँ इसमें मरी हुई हैं। मैं तो देखकर ही घबड़ा गई।

ग्वालन –(ठीक से मटके का घी देखते हुए) हाँ बेटी! कुछ असावधानी से लगता है इसमें चीटियाँ भर गर्इं और मैं बिना देखे ही कपड़ा बांधकर ले आई। चलो, अब आगे से ध्यान रखूँगी और यह घी छानकर और किसी को दे दूँगी।

मैना-अरे भगवान्! यह घी तुम और किसी को मत देना, वर्ना बड़ा पाप लगेगा।

ग्वालन –तो बिटिया! क्या इतना सारा घी हम पेंâक देंगे? देखो! अगर हम खुद ही इसे गरम करके छानकर ले आते, तो तुम क्या जान पातीं और हमारा घी क्यों बर्बाद होता? चलो, अब तो हम खुद इसके बारे में सोचेंगे, तुम्हें क्या लेना-देना। (मटकी लेकर चली जाती हैं)

सूत्रधार-ओ मटके वाली! ओ रे बुढ़िया! तू तो अपना मटका लेकर जा रही है लेकिन इस लड़की की तरफ भी तो देख, यह बिचारी तेरी बातें सुनकर कितनी दुखी हो गई है। (ग्वालन चलती चली गई,
रुकती नहीं है)
(जनता की ओर देखकर) आप लोक भी तो देख रहे हैं न इन मैना देवी को,ये अब कितनी चिन्तामगन हो गई पता नहीं क्या सोच रहीं है ये? चलो, अब इनकी भी बात सुनते हैं कि ये अपनी माँ से क्या कहने जा रही हैं –

मैना-माँ! मैंने बाजार के घी का आज से त्याग कर दिया है। अब घर में मेरे लिए बिना घी का खाना बनेगा।

मोहिनी –नहीं, ऐसा तुम्हारा कोई निर्णय नहीं माना जाएगा। (नाराज होकर) घर में रहकर इस तरह के अनाप-शनाप नियम नहीं लिये जाते हैं। अरे, हमने वह घी वापस तो कर दिया, अब जब फिर ऐसा कुछ देखना तो वह चीज मत लेना।

मैना-मेरी भी तो सुनो मेरी प्यारी माँ! वह ग्वालन दादी कह रही थी कि मैं घर से ही छानकर ले आती तो तुम क्या जान पातीं और मेरा घी क्यों बर्बाद होता। इसका मतलब यही है कि बाजार की सब चीजों में इसी तरह की अशुद्धि रहती है। व्यापार करने वाले लोग यदि इतनी शुद्धि देखेंगे तो भला कमाएंगे कैसे ? इसीलिए मैंने तो यही सोचा है कि बाजार की बनी कोई चीज ही न खाई जाए, अपने घर में कमी ही क्या है?

मोहिनी –(तेज गुस्से में) यह तमाशा नहीं चलेगा घर में। मैना! तुम बिल्कुल नहीं समझती हो, आखिर तुम्हें पराये घर जाना है तो क्या ससुराल में यह सब चल पाएगा? तुम इतनी ही त्याग की बात करो,
जितना चल सके। बाकी फालतू बहमबाजी में कोई दम नहीं है। चलो अच्छा, अब उस ग्वालन से मैं कभी घी नहीं मंगाऊँगी।

मैना-तुम चाहे कुछ भी कहो माँ, मैंने बाजार के घी का आजीवन त्याग कर दिया है। मैं आराम से गरम-गरम रोटी दूध से खाऊँगी और चावल तो मुझे गुड़ के साथ अच्छा लगता है। तुम चिन्ता न करो। रही बात ससुराल जाने की, तो मुझे शादी करनी ही नहीं है इसलिए वह चिन्ता भी छोड़ दो।

मोहिनी –(दुखी होकर) हे प्रभो! मेरे घर में तो यह मैना बिल्कुल साध्वी बनी जा रही है। मैं कैसे इसे गृहस्थी के कर्तव्य सिखाऊँ। (मैना की ओर देखकर) बेटी! तुम यह क्यों नहीं सोचतीं कि घर में हम सभी घी का सरस भोजन करेंगे तो तुम्हें हम नीरस भोजन करते कैसे देख पाएंगे?

मैना-माँ, आखिर तो मुझे अभी से त्याग का अभ्यास करना पड़ेगा, क्योंकि भविष्य में दीक्षा तो लेनी ही है।

छोटी बहन शांतिदेवी –(चौके के अंदर से) आओ! भोजन तैयार है। मैना जीजी को भी साथ में लेती आओ, जल्दी-जल्दी सब लोग खाना खाकर एक साथ बैठेंगे, तब आराम से बात करेंगे।
(दोनों जाकर भोजन करने बैठ जाती हैं और माँ की आँखों से आंसू गिर रहे हैं।)

सूत्रधार-कैसा वैराग्य का दृश्य देख रहे हैं आप लोग! देखो, बेटी तो बड़े प्रेम से बिना घी का भोजन कर रही है और माँ उसके त्याग को देखकर दुखी हो रही है। लेकिन एक विशेषता है कि इनमें कि जहाँ मैना में त्याग के प्रति असीम दृढ़ता है, वहीं उनकी माँ अपनी सुकुमारी को देखकर दुखी होने के बावजूद भी नियम को तुड़वाती नहीं है। बल्कि स्वयं भी त्याग की भावना भाती हुई गृहस्थी के प्रति कर्तव्य का निर्वाह करती है।

सामूहिक स्वर –जैनधर्म की जय, जैनसाध्वी देख लो-त्याग करना सीख लो (३ बार नारा लगाते हैं)

सूत्रधार-जैनी वीरों! कुछ त्याग करोगे -क्या जी क्या! रात्रि का भोजन-हाँ जी हाँ। (सबके हाथ उठवाएं) अरे मेरे भाई, ओ बच्चों! माताओं-बहनों! देखा न आपने, एक छोटा सा निमित्त कन्या मैना ने
बाजार के घी का तो त्याग किया ही, बाजार की बनी सभी मिठाई-नमकीन, चाट, पकौड़े आदि सब कुछ छोड़ दिया। यह सब इनकी होनहार बताने के लिए निमित्तऊश्प हैं। तब से लेकर आज तक इन्होंने कभी छहों रस का सरस भोजन नहीं किया और दीक्षा के बाद से तो केवल दो रस, एक रस का या नीरस भोजन का आहार लेकर त्याग-तपस्या के चरम शिखर पर पहुँची हैं।
हम और आप इतना त्याग नहीं कर सकते हैं तो कम से कम कोल्ड ड्रिंक, अण्डा, शराब, पान मसाला, बीड़ी-सिगरेट आदि नशीली चीजों का तो त्याग तुरंत कर दीजिए, तभी यह नाटक देखना आपके जीवन के लिए सार्थक हो पाएगा–

इनका कहना हम ज्ञान रखें, लेकिन चारित्र न खो डालें।
आचरण छूट जाए जिससे, हम ऐसा बीज न बो डालें।।
चारित्रहीन यदि ज्ञान मिलना, तो बेड़ा पार नहीं होगा।
केवल कोरी इन बातों से, जग का उद्धार नहीं होगा।।

+ Part 6

(छठा दृश्य)


स्वप्न भी आया होनी को बताने

घर का दृश्य, रात्रि में सोती हुई एक १६ वर्ष की लड़की (मैना) सबेरा होते ही वह उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त होती है पुन: अपने छोटे भाई कैलाश (११ वर्ष के हैं) से कहती हैं–

मैना-अरे कैलाश! ओ मेरा भइया!

मैना-हाँ कैलाश! आज मैंने बड़ा सुन्दर सपना देखा है।

कैलाश – -वह सपना मुझे भी तो बताओ जीजी।

मैना-तुमको बताने के लिए ही तो बुलाया है मैंने। सुनो वह सपना क्या देखा–
मैं पूजन की थाली लेकर मंदिर जा रही हूँ आकाश में चन्द्रमा मेरे साथ-साथ चल रहा है और चन्द्रमा की चाँदनी मेरे पीछे भामण्डल की तरह चलरही है,चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश पैâला है। यह सपना मैंने सुबह ४ बजे देखा है, तब से मुझे मन में बड़ा आल्हाद है।

कैलाश – -अरे वाह! मजा आ गया। जीजी! मैं बताऊँ, इस सपने का क्या फल हो सकता है?

मैना-अच्छा बताओ, (हंसकर) तुम बड़े होशियार हो गये हो न। अब तो मेरे सपने का फल भी बताने की तुम्हें अकल आ गई है।

कैलाश –मुझे तो इस सपने से ऐसा लगता है कि जीजी! तुम एक दिन कोई महान साध्वी बनोगी और तुम्हारे गुणों की यशचांदनी संसार भर में फैलेगी।

मैना-अरे भाई कैलाश! तुमको इतना ज्ञान कैसे हो गया। भगवान्क रे तुम्हारी बात फलित हो जाए (मन में) हे प्रभो! कब मेरी दीक्षा की घड़ियाँ आएंगी, कब मेरा सपना फलित होगा।

सूत्रधार-क्या आप लोग भी सपना देखने लग गए मेरे भाई- बहनों! अरे, मैं तो सचमुच ही सपने में खो गया था कि अगर मुझे चाँदनी दिखती सपने में, तो मैं जऊश्र जाता बम्बई में अमिताभ बच्चन के पास (ठहाका मारकर हंसी) आप भी हंसने लगे न, मैंने इसीलिए तो कहा था कि आज तो सबसे ज्यादा प्रसिद्धि फिल्मी कलाकारों को ही मिलती है, तभी तो लोग फिल्म जगत में जाने को आतुर रहते हैं। (फिर एकदम सीरियस मूड में आकर)
लेकिन भैय्या! मैना नामकी इस लौह बाला ने अपने सपने का अर्थ निकाला काटों से भरा वैराग्यमयी जीवन भविष्य में प्राप्त करने हेतु। यह सब पूर्व जन्मों के संस्कारों के साथ-साथ अपनी माँ मोहिनी से मिले ज्ञान और शास्त्र-स्वाध्याय के संस्कार ही मानना पड़ेगा। तभी तो उस देवीस्वऊश्पा नारी मोहिनी जी के लिए कहा है–

एक नहीं कितनी गाथाएं, इतिहासों में छिपी हुई हैं।
वीर शहीदों की स्मृतियाँ, स्वर्णाक्षर में लिखी हुई हैं।।
नहीं पुरुष की पौरुषता से, केवल देश का मस्तक ऊँचा।
बल्कि नारियों ने हँस हँस कर, मांगों के सिंदूर को पोंछा।।१।।

यह भारत आज नहीं युग से, नारी से रहा न खाली है।
नारी के ही कारण इसकी, गौरव गरिमा बलशाली है।।
जहाँ ब्राह्मी और सुन्दरी को, जनने वाली मरुदेवी हैं।
वहीं मैना सी कन्या को पाकर, धन्य मोहिनी देवी हैं।।

(तालियों की गड़गड़ाहट और जैनधर्म की जय-जयकार के सामूहिक स्वर)
पुन: एक दिन की बात है मैना (१२ वर्ष की कन्या, ड्रेस-साड़ी) अपनी माँ से कहती हैं–

मैना-देखो माँ! मैं विवाह कदापि नहीं कऊश्ँगी। आप मेरी बात पर गंभीरतापूर्वक ध्यान दो और पिताजी को समझाओ कि वे मेरे लिए किसी वर की खोज न करें।

मोहिनी –बेटी! तुम जितनी सहजता से इस बात को सोचती हो, यह कार्य उतना सरल नहीं है। आखिर तुम घर छोड़कर कहाँ रहोगी? तुम्हारी रक्षा कौन करेगा? देखो मैना! पुरातन परम्परा के अनुसार तुम्हें
भी शादी तो करनी पड़ेगी, फिर मेरी तरह से तुम भी घर में रहकर खूब पूजा-पाठ-स्वाध्याय-दान सब कुछ करते रहना।

मैना-माँ! तुम कुछ भी कहो, मैं शादी नहीं कऊश्ँगी। मैनें सुना है कि बाराबंकी मैं आचार्य श्री देशभूषण महाराज आए हैं मैं उन्हीं के पास जाकर दीक्षा लूँगी। इसलिए मेरी बात मान जाओ।
(वह मन में सोचती है)–

सूत्रधार-

वह मन में बोली रही यहाँ, माँ ऐसी रोज सुनाएगी। जब बांस नही होगा किससे, फिर बजा बांसुरी पाएगी।।
वाणी पर अब देकर विराम, घर से किस तरह निकल जाऊँ।

मोहिनी –(दयनीय मुद्रा में) बेटी! मैं जानती हूँ कि तुम्हारे मन में सच्चा वैराग्य है, तुम शादी न करके दीक्षा लेना चाहती हो, लेकिन सोचो तो सही कि घर में तुम्हारे पिताजी क्या यह सहन कर पाएंगे। वे तो मुझे ही सारा दोष देकर घर में रहना भी मुश्किल कर देंगे, मैना! फिर इन छोटे-छोटे बच्चों को मैं तुम्हारे बिना अकेली कैसे संभाल पाऊंगी। (थोड़ा रुककर आँसू पोंछती हुई फिर बोलती है)–

क्या कमी बताओ इस घर में, जो ऐसा तुमको भाता है।
देखो तो यह छोटा रवीन्द्र, किस तरह बिलखता जाता है।।
इसकी आयु एक बरस सिर्पâ, क्या सोचेगा कल भाई है।
इसने तो बड़ी बहन अपनी, अच्छी विध देख न पाई है।।

(मैना के पास रवीन्द्र को खड़ा कर देती है, तब मैना भी उसे गोद में लेकर उसके कान में वैरागी शिक्षा देती है)
दो -चार दिन बाद मैना फिर माँ से कहती है-

मैना-माँ! मैं एक-दो दिन के लिए बाराबंकी जाना चाहती हूँ।

मोहिनी –क्यो बेटी! बाराबंकी किसलिए जाना चाहती हो।

मैना-सुना है वहाँ विराजमान देशभूषण महाराज के दर्शनकर आऊँगी और महाराज ने मुझे रत्नकरंडश्रावकाचार याद करने को कहा था, उसे याद कर लिया है, अत: महाराज को वह पाठ भी सुना दूँगी।

मोहिनी –(मन में आशंकित होकर) कहीं ऐसा न हो कि यह फिर वापस न आवे। (फिर कुछ सोचकर) अच्छा ठीक है, तुम १-२ दिन के लिए चली जाओ, तुम्हारा मन थोड़ा बदल जाएगा। सुनो! बाराबंकी में तुम्हारे पिताजी की बुआजी का परिवार वहाँ है।उनके घर में ही रहना, वहाँ खाने-पीने की व्यवस्था ठीक हो जायेगी।

मैना-ठीक है, ठीक है। चलो वैâलाश! जल्दी चलो, वर्ना बस नहीं मिलेगी।

सूत्रधार-जल्दी-जल्दी तैयारी करके मैना अपने छोटे भाई वैâलाश के साथ बाराबंकी के लिए प्रस्थान कर गई। बस, यही समझो कि मैना पिंजड़े से उड़ गई और पुन: घर वापस नहीं आई। यह सन् १९५२ की घटना है। बाराबंकी में ये लगभग २ माह रहीं पुन: एक दिन आचार्य श्री का केशलोंच चल रहा था कि सामने सभा में बैठी मैना ने भी अपने केश उखाड़ने शुऊश्क र दिये, तभी सभा मेें हलचल मच गई। एक बुजुर्ग पुरुष ने मैना को जबर्दस्ती रोका। तब मैना ने सबके सामने अपना निर्णय सुना दिया।
(सभा में मैना के बोलने का दृश्य दिखावें)–

मैना-मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया है कि मैं शादी नहीं कऊश्ँगी, दीक्षा लेकर साध्वी बनकर आत्मा का कल्याण कऊश्ँगी।

सामूहिक स्वर –नहीं, नहीं यहाँ तुम ऐसा कुछ नहीं कर सकतीं। आचार्यश्री! यह टिवैâतनगर के छोटेलाल जी की लड़की है, इसे कोई व्रत मत दीजिएगा।
महिलाएं -(मैना का हाथ पकड़कर) -चलो मैना घर चलो। तुम्हारे जैसी कोमल कलियाँ दीक्षा नहीं ले सकती हैं। यह दीक्षा बड़ी कठिन तलवार की धार पर चलने के समान है।

मैना-आचार्यश्री! मुझे व्रत देकर मेरी रक्षा कीजिए। मैं घर नहीं जाऊँगी।

सामूहिक स्वर –बुलाओ, भैय्या! पुलिस को बुलाओ! यह लड़की ऐसे नहीं मानेगी।

सूत्रधार-उत्तरप्रदेश की उस धरती पर प्रथमबार बाराबंकी में राग और वैराग्य का यह रोमांचक दृश्य चल रहा है। समाज का विरोध और आक्रोश देखकर न जाने क्यों, एक बार तो आचार्यश्री भी थोड़ा सा डर गये और मैना को घर जाने का आदेश दे दिया। उस समय सभी तरफ से असहाय मैना के मन में लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगना के समान वीरत्व जागृत हो गया और वह सबको छोड़कर मंदिर में भगवान चन्द्रप्रभ की वेदी के पास जाकर ध्यानस्थमुद्रा में बैठ गई। इधर बाहर खूब शोरगुल चलता रहा और मैना भगवान से प्रार्थना करती रही।
देखो भैय्या! सच ही तो कहा है –

वे क्या जाने इसका महत्त्व, जो चाहा करते भोगों को।
पर समझा सका नहीं कोई, उस दिन ऐसे उन लोगों को।।
कामना काम की करना ही, दुनियां में दुख का कारण है।
जो इससे खुद को बचा सका, वह पर के लिए उदाहरण है।।१।।

चाहे नर हो या नारी हो, वैराग्य जिसे भा जाता है।
उसको इस जग का आकर्षण, फिर जरा न सहला पाता है।।
वह है स्वतंत्र घर हो या वन, उसको कब क्रन्दन होता है।
जो मुक्ति पथ का पथिक उसे, कब वय का बंधन होता है।।२।।

(अब देखो भाई! आगे क्या होता है। बाराबंकी का यह समाचार टिवैâतनगर में मैना के माँ और पिता प्रात: आये हुए थे। सायं तक सारा परिवार भी वहाँ आ गया। तब मैना के पास जाकर माँ मोहिनी जी
समझाती हैं।)

मोहिनी –चलो बेटी! अब घर चलो, रात हो गई है। माली यहाँ वेदी का दरवाजा बंद करने को खड़ा है।

मैना-नहीं माँ! मैं घर नहीं जाऊँगी। अब मैंने अन्न-जल का त्याग कर दिया है। जब तक मुझे आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत या दीक्षा नहीं मिल जाएगी, तब तक भोजन-पानी कुछ नहीं लेना है।

मोहिनी –अच्छा चलो, मैं तुम्हारा साथ दूँगी। तुम यहाँ बाराबंकी में ही कपूरचंद भैय्या के घर चलो, फिर कल सुबह आकर मैं आचार्यश्री से बात कऊश्ँगी। बेटी! मैं तुम्हारी माँ हूँ, तुम्हारे वैराग्य और दृढ़ संकल्प को केवल मैं ही समझ सकती हूँ। बाकी तो सभी लोग इसे देखकर बेहद नाराज हैं, सबने पुलिस तक बुला लिया है अत: मैं तुम्हारी रक्षा करके तुम्हें सहयोग करने का आश्वासन देती हूँ।

सूत्रधार-माँ किसी तरह मैना को समझा-बुझाकर फूलचंद-कपूरचंद जी (मैना के पिता की बुआ के पुत्र) के घर ले गर्इं, वहाँ पूरी रात माँ-बेटी का संवाद होता है, उसे भी देखें–
यहाँ एक ओर सूत्रधार खड़ा है और दूसरी ओर मंच पर माता-पुत्री को वार्ता करते हुए दिखावें।

तर्ज-बार-बार तोहे क्या समझाऊँ…….

मोहिनी माता –बार-बार समझाऊँ बेटी, मान ले मेरी बात।
तेरे जैसी सुकुमारी की, दीक्षा का युग है न आज।।टेक.।।

मैना –भोली भाली माता मेरी, सुन तो मेरी बात।
हम और तुम मिलकर ही, युग को बदल सकते आज।।टेक.।।

माता –तूने तो बेटी अब तक, संसार न कुछ देखा है।
फिर भी मान लिया क्यों इसको, यह सब कुछ धोखा है।।
खाने और खेलने के दिन, क्यों करती बर्बाद।
तेरे जैसी सुकुमारी की, दीक्षा का युग है न आज।।१।।

मैना –प्यारी माँ इस नश्वर जग में, कुछ भी नया नहीं है।
जो कुछ भोगा भव भव में, बस दिखती कथा वही है।।
ग्रन्थों से पाया मैंने, हे माता ज्ञान का स्वाद।
हम और तुम मिलकर ही, युग को बदल सकते आज।।१।।

माता – -ये सुन्दर गहने मैना, मैं तुझको पहनाऊँगी।
अपनी गुड़िया सी पुत्री की, शादी रचवाऊँगी।।
सजधज कर जब बनेगी दुलहन, शरमाएगा चाँद।
तेरे जैसी सुकुमारी की, दीक्षा का युग है न आज।।२।।

मैना –तेरी प्यारी बातों में माँ, मैंना नहिं आयेगी।
सोने चाँदी के गहनों को, वह न पहन पाएगी।।
रत्नत्रय का अलंकार बस, मुझे पहनना मात।
हम और तुम मिलकर ही, युग को बदल सकते आज।।२।।

माता – मेरी बात न मान तो अपने, पिता का ख्याल तो करले।
पुत्रऊश्प में माना तुझको, उनसे कुछ तो समझ ले।।
वे नहिं सह पाएंगे तेरे, कठिन त्याग की बात।
तेरे जैसी सुकुमारी की, दीक्षा का युग है न आज।।३।।

मैना –मैंने अपने पिता का सचमुच, प्रेम अथाह है पाया।
तेरी ममता की मुझ पर तो, सदा रही है छाया।।
फिर भी तू ही समझा सकती है, पितु को सब बात।
हम और तुम मिलकर ही, युग को बदल सकते आज।।३।।

माता – मेरे बस की बात नहीं, तेरे भाई-बहन समझाना।
सब रोकर बोले हैं जीजी, को लेकर ही आना।।
तू ही मेरे घर की रौनक, तू मेरी सौगात।
तेरे जैसी सुकुमारी की, दीक्षा का युग है न आज।।४।।

मैना –मोह की बातें कर करके माँ, मुझे न अब भरमाओ।
मेरे भाई बहनों को अब, प्यार से तुम समझाओ।।
माता की गोदी में उन्हें, जीजी की रहे न याद।
हम और तुम मिलकर ही, युग को बदल सकते आज।।४।।

माता –तेरी वैरागी बातों से, मैं तो पिघल जाती हूँ।
पर तेरे बिन घर वैâसे, जाऊँ न समझ पाती हूँ।।
मेरी मैना मुझे छोड़ क्या, रह लेगी दिन-रात।
तेरी जैसी सुकुमारी की, दीक्षा का युग है न आज।।५।।

मैना –माँ मैंने अपने मन में, दृढ़ निश्चय यही किया है।
गृह पिंजड़े से उड़ने का, मैंने संकल्प लिया है।।
तू प्यारी माँ देगी आज्ञा, मुझे है यह विश्वास।
हम और तुम मिलकर ही, युग को बदल सकते आज।।५।।

माता –आज है पुत्री शरदपूर्णिमा, तेरा जनमदिन आया।
आज के दिन तूने अपना, यह निर्णय मुझे सुनाया।।
पत्थर दिल करके बेटी मैं, देती आज्ञा आज।
सुखी रहे मैना मेरी, यह ही है आशीर्वाद।।६।।

(कागज पर स्वीकृति लिखकर मैना को देती है)

मैना –जनम जनम के पुण्य से मैंने, तुझ जैसी माँ पाई।
तेरे ही संस्कारों की तो, मुझ पर है परछार्इं।।
ग्रन्थ दहेज में मिला तुझे जो, मैंने चखा वह स्वाद।
उस ग्रंथ के अध्यन से, मुझको हुआ है वैराग।।६।।

माता –तूने जम्बूस्वामी जैसा, मुझे आज समझाया।
बालब्रह्मचारिणी प्रथम हो, सफल तेरी यह काया।।
युगयुग यश पैâलेगा तेरा, मुझे है यह विश्वास।
मुझको भी इक दिन लेना, गृहबन्धन से निकाल।।७।।

मैना –आज ही सच्चा जनम हुआ है, मेरा मैंने माना।
शरदपूर्णिमा का महत्त्व अब, ठीक से मैंने जाना।।
ब्रह्मचर्य सप्तम प्रतिमा ले, मैंने किया गृह त्याग।
दीक्षा ग्रहण कर मुझको, असली मिलेगा साम्राज।।७।।

सूत्रधार –जनम से जिनके धन्य हुई है, शरदपूर्णिमा रात।
संयम के द्वारा उसी, पूनो का सार्थक प्रभात।।
जग वालों देखो वही कन्या, ज्ञानमती कहलाई।
आज उन्हीं के त्याग की, स्वर्णिम दीक्षा तिथि भी आई।।
सदी बीसवीं के ये गणिनी, प्रमुख हुई विख्यात।
हम सब मनाएं दीक्षा स्वर्ण जयंती आज।।८।।

पुन: अगले दिन सबेरे माँ के द्वारा लिखित स्वीकृति पत्र को लेकर मैना आचार्य श्री देशभूषण महाराज के पास पहुँचती है, पीछे-पीछे माँ भी आ जाती हैं–

मैना –(बैठकर गवासन से) नमोस्तु महाराज! नमोस्तु!

आचार्यश्री –(आशीर्वाद मुद्रा में यहॉँ चित्र दिखावें और आवाज पीछे से) सद्धर्मवृद्धिरस्तु! बेटी मैना! क्या अब तुम घर जा रही हो?,

मैना –नहीं गुरुदेव! मैं अब घर कभी नहीं जाऊँगी।

आचार्यश्री –(देशभूषण महाराज का चित्र, आवाज पीछे से) लेकिन मैना! यहाँ का माहौल बड़ा खराब हो गया है, इसीलिए जब तक तुम्हारे माता-पिता या किसी एक की भी आज्ञा नहीं मिले तो मैं तुम्हें ब्रह्मचर्यव्रत या दीक्षा नहीं दे सकता हूँ।

मैना –मुझे पता है गुरुदेव! कि सभी लोग आपको मुझे व्रत देने को मना कर रहे हैं। इसीलिए मैं अपनी माँ से यह स्वीकृति पत्र लिखाकर लाई हूँ।

आचार्यश्री –(आश्चर्य से) अच्छा! तब तो तुम्हारी माँ वास्तव में बड़ी वीरांगना नारी है।
(तभी माँ स्वयं आचार्यश्री के हाथ में पत्र दे देती है, वे उसे पढ़ते हैं)–

आचार्यश्री –‘पूज्य आचार्यश्री! मेरी बेटी मैना जो भी व्रत चाहती है आप दे दीजिए। मुझे उसके ऊपर अटल विश्वास है कि वह पूरी दृढ़ता के साथ अपने व्रतों का पालन करेगी।’’
मैना! यह मेरे लिए दस्तावेज है। अब तुम श्रीफल लेकर व्रत ग्रहण कर सकती हो। लेकिन इस समय की परिस्थिति देखकर मैं चाहता हूँ कि तुम अभी घर त्याग करके सप्तम प्रतिमाऊश्प ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लो। दीक्षा थोड़े दिन बाद दे दूँगा।

मैना –जो आज्ञा गुरुदेव! मेरे लिए वह भी किसी दीक्षा से कम नहीं है। (व्रत लेते हुए)

सूत्रधार-गुरु के सामने श्रीफल चढ़ाकर मैना ने सात प्रतिमा के व्रत लेकर घर त्याग कर दिया। चारों ओर से बालब्रह्मचारिणी मैना देवी की जयकारों से गूंज होने लगी और मैना एक सुकुमार साध्वी के समान सफेद साड़ी पहनकर गुरु के चरणसानिध्य में बैठ गई, माँ और छोटे मामा ये दृश्य देख रहे थे पुन: तभी रोती हुई माँ कहती हैं –

मोहिनी –पुत्री! आज शरदपूर्णिमा है। आज तुम पूरे अठारह वर्ष की हुई हो। बेटी! मुझे क्या मालूम था कि शरदपूर्णिमा को जन्मी मेरी मासूम बच्ची शरदपूर्णिमा को ही मुझसे अलग हो जायेगी। (माँ सिसक-
सिसक कर रोने लगती है)

मैना –(माँ के आसू पोंछते हुए) मेरी प्यारी माँ! मैं जानती हूँ कि मेरे बिना तुम बहुत अकेली हो जाओगी। किन्तु माँ! जरा मेरी ओर देखो तो सही, तुम तो मुझे निश्चित अपने से दूर करके पराये घर भेज ही देतीं, इसीलिए अब दु:ख छोड़ो और यही सोचकर संतोष करो कि मेरी बेटी एक अच्छे मार्ग पर चल पड़ी है। आज तुमने वास्तव में एक सच्ची माँ का कर्तव्य निभाकर अपना नाम अमर कर लिया है।

मोहिनी –(बेटी को कलेजे से चिपका लेती है) मेरी प्यारी पुत्री! मेरे घर की रौनक! मैना! तुम सफलता के उच्चतम शिखर को प्राप्त करो, अब तो मेरा तुम्हारे लिए यही आशीर्वाद है। (कुछ क्षण रुककर) सुनो बेटी! मेरी एक बात सुनो! जैसे आज मैंने तुम्हें मोक्षमार्ग में चलने में सहयोग प्रदान किया है, उसी प्रकार तुम भी मुझे एक दिन संसार समुद्र से निकलने में सहयोग जऊश्र देना कि जिससे मैं भी स्त्रीपर्याय के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर आत्मकल्याण कर सकू ।

मैना –(माँ के चरणस्पर्श करते हुए) ओह माँ! मैं सचमुच धन्य हो गई हूँ तुम जैसी परमोपकारी और वैरागी माँ को पाकर। माँ! मैं आपको पूरा आश्वासन देती हूँ कि समय आने पर मैं तुम्हें घर से निकालकर मोक्षमार्ग में जऊश्र लगाऊँगी।

मोहिनी –बेटी! अब हम लोग घर जाएंगे,वहाँ तुम्हारे छोटे भााई- बहनों की देखभाल करना है और तुम्हारे पिताजी को भी संभालना है। देखो! वे वैâसे इस सदमे को सहन कर पाते हैं। (सिर पर हाथ
फेरते हुए) खैर! कोई बात नहीं, अब तुम किसी की चिंता मत करना, केवल अपने ज्ञान-चारित्र का लक्ष्य सिद्ध करना और हाँ! किसी प्रकार की कोई आवश्यकता हो तो अपनी माँ से दु:ख को मत छिपाना, बस मेरा इतना ही कहना है।

सूत्रधार-जय हो, माता मोहिनी देवी की जय हो, महावीर भगवान की जय हो।
क्या हुआ बहनों! क्या आप रोने लगीं, तब मैं भी रोने लग जाऊँगा (रोने का दृश्य) अरे भाई! उस समय भी मैना और उनकी माँ की वीरता देखकर, सारी जनता रोने लगी थी। लेकिन भैय्या! हमारे-तुम्हारे रोने से होना क्या है? वह वीरांगना मैना तो अब गुरुसंघ के साथ महावीर की अतिशयभूमि चांदनपुर महावीर जी की ओर चल देती है–
संयोग देखिए कर्मों का, वैâसा आ मिला निराला था।

यह भी दिन था आसोज सुदी, पूनम का परम उजाला था।।
थे ठीक अठारह वर्ष सुखद, इस दिन मैना ने पूर्ण किये।
जब चातुर्मास समाप्त हुआ, चल पड़ी गुरु का साथ लिये।।१।।

मैना के जीवन का तो अब, वैराग्य बन चुका छाया था।
जब संवत् दो हजार नौ थी, सचमुच कमाल दिखलाया था।।
महावीर क्षेत्र पर चैत्र सुदी, जब एकम की बेला आई।
पा गई क्षुल्लिका पद मैना, थी सारी जनता हरषाई।।२।।

(यहाँ महावीर जी तीर्थ का चित्र और भीड़ के सामने मंच पर मैना की दीक्षा का दृश्य दिखावें। केशलोंच करके पिच्छी कमण्डलु सहित छोटी सी क्षुल्लिका माता को बैठी दिखावें)

वैराग्य जगत में बेमिसाल, यह सबसे कठिन परीक्षा थी।
सबसे कम आयू में प्रियवर, यह सबसे पहली दीक्षा थी।।
हो गया दंग था हर दर्शक, जिसने स्वऊश्प था आन लखा।
तब गुऊश् देशभूषण जी ने, क्षुल्लिका वीरमती नाम रखा।।३।।

सामूहिक स्वर –जय हो, क्षुल्लिका वीरमती माताजी की जय हो, आचार्य श्री देशभूषण महाराज की जय हो, महावीर जी अतिशय क्षेत्र की जय हो।
(क्षुल्लिका वीरमती जी भगवान को और गुरु को पिच्छी लेकर नमस्कार करती हुई गदगद स्वर में बोल रही हैं)–

वीरमती –

हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गई।
बस तीन रत्न से ही मालामाल हो गई।।टेक.।।
मैंने चतुर्गती के दुखों को सहन किया।
कर्मों का भार बहुत ही मैंने वहन किया।।
अब मनुष जन्म पाय मैं निहाल हो गई।
बस तीन रत्न पाय मालामाल हो गई।।१।।हे नाथ.।।

(संघ में क्षुल्लिका वीरमती बैठी अध्ययन कर रही हैं, श्रावक-श्राविका आकर बड़ी भक्तिपूर्वक दर्शन कर रहे हैं।)

महिला सूत्रधार-बीसवीं शताब्दी में पहली बार सन् १९५३ में
किसी क्वांरी कन्या की दीक्षा हुई। चैत्र कृ. एकम को श्री महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर, इसीलिए तो खूब अतिशय-चमत्कार आ गया इनमें। अब ये रात-दिन खूब ज्ञान-ध्यान में मगन रहने लगीं। पुन: सन् १९५३ का इनका पहला चौमासा आचार्य श्री के साथ जन्मभूमि टिवैâतनगर में हुआ तो वहाँ की समाज द्वारा इनका सम्मान किया गया। (समाज के वरिष्ठ लोगों द्वारा मंच पर अभिनंदन पत्र द्वारा सम्मान, सामने भीड़ दिखावें) सन् १९५४ में जयपुर (राज.) में चातुर्मास हुआ पुन: सन् १९५५ में दक्षिण भारत की एक क्षुल्लिका श्री विशालमती माताजी के साथ इन्होंने म्हसवड़ (महा.) में जाकर चातुर्मास किया और कुंथलगिरी पर सल्लेखनारत बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज से अनेक प्रेरणास्पद सम्बोधन प्राप्त कर उनसे आर्यिका दीक्षा प्रदान करने का निवेदन किया। (शांतिसागर जी का चित्र, पास में नमस्कार मुद्रा में बैठी माताजी का चित्र दिखावें, पास में मंच पर अनेक श्रावक-श्राविकाओं को आते-जाते, नमस्कार करते दिखावें।)

क्षु. वीरमती –(केवल आवाज) परमपूज्य गुरुवर! आपके दर्शन करके मेरा जन्म धन्य हो गया है। आप कृपा करके मुझे आर्यिका दीक्षा देकर कृतार्थ कीजिए।

आचार्य शांतिसागर जी –<(आवाज पीछे से) उत्तर की अम्मा, वीरमती! तुम्हारी तो अभी बहुत छोटी सी उम्र दिख रही है।

वीरमती –हाँ महाराज! मैं इक्कीस वर्ष की हूँ। तीन वर्ष पूर्व मैंने श्री देशभूषणजी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा ली थी। इस समय उनकी आज्ञा से ही म्हसवड़ में चातुर्मास किया है, उसी के बीच में भगवन्! मैं आपके दर्शन करने आई हूँ।

शांतिसागर जी –वीरमती! देखो अम्मा! मैंने यम सल्लेखना ले ली है और अपना आचार्यपट्ट मैं अपने प्रथम शिष्य वीरसागर को लिखकर भेज दिया है। वे जयपुर-राजस्थान में हैं तुम उनसे जाकर आर्यिका
दीक्षा लेना। मैं अपने संघपति से उन्हें तुम्हें दीक्षा देने हेतु आज्ञा भिजवा दूँगा। समझीं वीरमती! वहाँ उनका चतुर्विध संघ है सो तुम्हें वहाँ कोई परेशानी नहीं होगी।

वीरमती –(हाथ जोड़कर) जो आज्ञा गुरुदेव की। मैं आपकी सल्लेखना देखकर चातुर्मास के बाद निश्चितऊश्प से जयपुर जाकर संघ में दीक्षा लेकर रत्नत्रय की साधना कऊश्ँगी। नमोस्तु भगवन् (तीन बार)

शांतिसागर जी –अम्मा! मैंने सुना है कि तुम्हारा ज्ञान और वैराग्य दोनों बहुत अच्छे हैं। तुम ४० वर्ष की उम्र तक अकेली नहीं रहना। समयसार, भगवती आराधना और अनगार धर्माम्ृत का खूब स्वाध्याय करना। तुम खूब उन्नति करो, जैनधर्म की प्रभावना करो अपने जन्म को सफल करो, यही मेरा मंगल आशीर्वाद है। ॐ शांति ॐ शांति ॐ शांति।

सूत्रधार- कुंथलगिरी में उस समय आचार्य श्री की सल्लेखना देखने हेतु दूर-दूर से आने वाले भक्तों की अपार भीड़ लगी रहती थी। क्षुल्लिका वीरमती जी ने यहाँ तीसरी बार आचार्यश्री शांतिसागर महाराज
के दर्शन किये और यम सल्लेखनापूर्वक उनका समाधिमरण देखा, उसके बाद म्हसवड़ में चातुर्मास सम्पन्न करके क्षुल्लिका विशालमती अम्मा के साथ वे जयपुर में प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर महाराज के
संघ में पहुँच गई। साथ में म्हसवड़ से ही निकली उनकी एक शिष्या हैं कु. प्रभावती एवं सौ. सोनू बाई जो आगे चलकर आर्यिका जिनमती माताजी एवं आर्यिका पद्मावती माताजी के नाम से दीक्षित हुई हैं।

मेरे भाई –बहनों! आप मेरी बात सुनते-सुनते बोर तो नहीं हो गये।
चलो! तब तक एक चुटकुला तुम्हें इनसे सुनवाता हूँ–
(दूसरा व्यक्ति सुनाता है)–
एक दामाद जी एक बार अपनी ससुराल गये। वहाँ दामाद जी को घर में सभी कुवर साहब कहकर पुकारते थे। सो वे दिन भर कुवर साहब शब्द सुनते-सुनते झुंझला गये तो बोले-आप लोग जानते नहीं है कि ‘कु’ का अर्थ होता है-खराब। क्या मैं खराब वर अर्थात् दूल्हा हूँ। I don`t like this word. वे बड़े गुस्से में थे तो बड़ी विनय से साले साहब ने पूछा कि फिर जीजाजी! अच्छा से अच्छा विशेषण बताने के लिए कौन सा शब्द होता है तो जीजाजी बोले -अरे बैवकुफ साले। ‘‘कु’’ माने खराब और ‘‘सु’’ माने अच्छा यह पाठ भी तुम राजस्थानी ग्रामवासियों को नहीं आता। बताओ भला, वैâसी ससुराल मिली है मुझे, सब निरे बुद्धू ही हैं। मुझे तो जल्दी यहाँ से विदा करो।
डर के मारे बेचारे सभी कापंते हुए बोले -नहीं-नहीं, ऐसा मत कहिए सुवर साहब। फिर तो सबके द्वारा सुवर साहब कहे जाने पर उनकी हालत देखने लायक थी। सब लोग भी हंसते-हंसते लोटपोट हो गये।

सूत्रधार-समझ गये न आप (हंसते हुए)। हर जगह एक शब्द का अर्थ एक जैसा ही नहीं रहता है तो आप सब वुंâवर साहब सुअर साहब मत बनना। यह तो केवल थोड़ा सा मनोरंजन था, आपको तो आना है अमने मूल कथानक पर। कि वह मैना देवी क्षुल्लिका वीरमती जी के ऊश्प में आचार्यसंघ में पहुँच गर्इं। (यहाँ संघ का चित्र दिखावें, जिसमें कई मुनि एवं आर्यिकाएं हैं।) यहाँ भी इनके ज्ञान, वैराग्य और निर्दोष चर्या की सभी में खूब प्रशंसा हुई।
फिर एक दिन आचार्य श्री वीरसागर महाराज ने सन् १९५६ में वैशाख कृष्णा दूज तिथि का शुभ मुहूर्त इनकी आर्यिका दीक्षा के लिए घोषित कर दिया, फिर तो इनकी खुशी का पार नहीं रहा। अब आगे चलते हैं। जयपुर से पदमपुरा अतिशयक्षेत्र के मध्य ‘‘माधोराजपुरा’’ नामक नगर में, जहाँ सदी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी की आर्यिका दीक्षा होने वाली है आचार्य श्री वीरसागर महाराज के करकमलों से।

+ Part 7

(सप्तम दृश्य)


क्षुल्लिका वीरमती की आर्यिका दीक्षा

सन् १९५६ –वैशाख कृष्णा दूज

स्थान –माधोराजपुरा (जयपुर) राज.
(आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज ससंघ मंच पर विराजमान हैं। क्षुल्लिका वीरमती जी भी मंच पर विराजमान हैं।)

क्षुल्लिका वीरमती –हे गुरुदेव! मुझे आर्यिका दीक्षा प्रदान करके कृतार्थ कीजिए।
(गुरु के आदेश से क्षुल्लिका वीरमती चांवलों से पूरे हुए स्वस्तिक के चौक पर बैठ जाती है तथा केशलोंच करने लग जाती है)
क्षु. वीरमती की दीक्षा की तैयारी चल रही है। सभा में जनता खचाखच भरी हुई है। तभी एक सांड सभा के बीच से दौड़ता हुआ आता है। जिससे सभा में हा-हाकार मच जाता है।

जनता –यह सांड भागकर आ रहा है, देखो! यह किसी को कुचल न दे।
(हल्ले-गुल्ले के मध्य सांड मंच के सामने आकर शांतिपूर्वक माथा टेककर खड़ा हो जाता है)

ब्र. सूरजमल –(मंच पर माइक से बोलते हुए) सब लोग शांत हो जावें। यह सांड कोई भव्य जीव लगता है। यह दीक्षा देखने आया है। यह चुपचाप शांत भाव से खड़ा है। कोई भी किसी प्रकार की चिंता न करें। दीक्षा के पश्चात् आचार्य श्री ने सभा के मध्य क्षु. वीरमती का नाम परिवर्तित करके ‘‘आर्यिका ज्ञानमती’’ घोषित किया।

जनता –आर्यिका ज्ञानमती माताजी की जय-२।
(दीक्षा सम्पन्न होने तक वह सांड वहीं खड़ा रहा। दीक्षा होते ही वह चुपचाप चला गया।) बाहर श्रावकों ने उसे लड्डू खिलाये। (लड्डू खिलातें श्रावक दिखावें)

आचार्यश्री –अब तुम आर्यिका बन गई हो। तुम्हारे लिए हमारी एक ही शिक्षा है। हमने तुम्हारा नाम ज्ञानमती रखा है। तुम सदैव अपने नाम का ध्यान रखना।

आर्यिका ज्ञानमती जी –जी गुरुदेव! मैं आपके द्वारा दी गई शिक्षा का सदैव स्मरण रखूँगी। अपनी मति को ज्ञानमय बनाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहूँगी।

अन्य आर्यिका –महाराज जी! आपने हमें तो अनेक शिक्षाएं दी थीं। इन्हें केवल एक ही शिक्षा दी।

आचार्यश्री –इनके लिए केवल एक ही शिक्षा पर्याप्त है।
(समस्त संघ मंच से मंदिर के लिए प्रस्थान कर देता है, साथ में श्रावक-श्राविकाएं भी जय-जयकार करते हुए जाते है।।)

एक श्रावक –(मार्ग में आपस में चर्चा करते हुए)-इतनी छोटी उम्र में इन माताजी ने आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। ये बहुत ज्ञानवान हैं। किसी से फालतू बात नहीं करतीं। दिनभर स्वाध्याय करने में लगी रहती हैं। संघ में साधु-साध्वियों को एवं अपनी शिष्याओं को पढ़ाती रहती हैं।

दूसरा श्रावक –हाँ भाई! इन्होंने हमारे इस छोटे से नगर में दीक्षा लेकर हमारे ग्राम माधोराजपुरा का नाम अमर कर दिया।

एक श्राविका –इन माताजी की दीक्षा में इनके पूर्व अवस्था के परिवार के कोई भी व्यक्ति दिखाई नहीं दिये।

दूसरी श्राविका –सुनने में आया है कि इनका परिवार तो बहुत बड़ा है किन्तु इनका परिवार के प्रति ममत्व नहीं होने से इन्होंने किसी को बुलाने के लिए नहीं कहा।

तीसरी श्राविका –तभी तो हमारे रांवका परिवार वालों को दीक्षा के समय इनके माता-पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
(आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी संघस्थ कतिपय मुनियों को आर्यिकाओं, क्षुल्लिकाओं, ब्रह्मचारिणियों को शास्त्रों का अध्ययन करा रही हैं)।

आर्यिका ज्ञानमती माताजी-(तत्त्वार्थ सूत्र ग्रंथ पढ़ाते हुए)–

मोक्ष मार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्व तत्त्वानाम्, वंदे तद्गुण लब्धये।।

यह इस महान ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण है। इसे आ.श्री उमास्वामी ने बनाया है। इसमें सात तत्त्वों का सूत्रऊश्प से दस अध्यायों में विवेचन किया हैं। समझीं जिनमती जी। दोपहर में कातंत्र व्याकरण
तथा परीक्षामुख ग्रंथ का अध्ययन चलेगा। जितना आज पढ़ाया गया,कल उतना सुना देना।

क्षु. जिनमती जी –जी माताजी! हम सब समय से उपस्थित हो जायेंगे।

ज्ञानमती माताजी –आचार्यश्री की इस दी हुई शिक्षा को सदैव याद रखना चाहिए। सुई का काम करो, वैंâची का नहीं।

क्षु. जिनमती जी –इसका क्या मतलब है?

ज्ञानमती माताजी –सुई जोड़ने का काम करती है, वैंâची काटने का काम करती है। इसीलिए सुई उच्च स्थान को प्राप्त करती है। दर्जी उसे सिर की टोपी में लगाकर रखता है तथा वैंâची को नीचे डाल देता है।

एक माताजी –बिल्कुल ठीक है। जो समाज को, संघ को जोड़ने का काम करता है। वह सम्मान पाता है, तथा जो तोड़ने का काम करता है, फूट डालता है वह अनादार का पात्र बनता है।
(अध्ययन कक्षा का विसर्जन)

सूत्रधार –कुछ दिनों में आचार्य श्री की आज्ञा से ज्ञानमती माताजी ने जयपुर के आसपास बगऊश् आदि नगरों में भ्रमण कर प्रवचनों के द्वारा धर्म की प्रभावना की। साथ में दोनों शिष्याएं क्षुल्लिका जिनमती जी व क्षुल्लिका पद्मावती भी थीं।
(संघ चोऊश् ग्राम में विद्यमान है, शांति भक्ति का पाठ चल रहा है)
भगवन! सब जन तव पद युग की, शरण प्रेम से नहीं आते।
उसमें हेतु विविध दु:खों से भरित घोर भव वारिधि है।
(एक श्रावक आकर माताजी के हाथ में एक पत्र देता है)

श्रावक –वंदामि माताजी! बड़े संघ से ब्रह्मचारी श्री लाड़मल जी ने यह पत्र आपको देने के लिए मुझे भेजा है। (पत्र माताजी के हाथ में देता है)

माताजी –सद्धर्मवृद्धिरस्तु आशीर्वाद! भैय्या! संघ में सब कुशलमंगल तो है न?

श्रावक –हाँ माताजी! सब ठीक है।

माताजी –भैय्या! पत्र खोलो। देखें क्या समाचार है।
(माताजी से पत्र श्रावक अपने हाथ में लेकर खोलकर माताजी के हाथ में देता है)

माताजी –(माताजी पत्र पढ़ना प्रारंभ कर देती हैं)
पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी, सादर त्रिबार वंदामि। आपके रत्नत्रय की कुशलता होगी। यहाँ जयपुर में आचार्य महाराज को दो दिन से अतिसार के कारण कमजोरी आ गई है अत: आप शीघ्र ही संघ सहित आचार्य श्री के पास आ जावें।

ब्र. लाड़मल

सूत्रधार-यह समाचार पढ़कर संघ में सभी चिंतित हो गये।

माताजी –चूँकि आचार्यदेव सल्लेखना की तैयारी में लगे हुए हैं अत: क्या पता किस दिन इस नश्वर शरीर से विदाई ले लें अत: हमें प्रात: ही यहाँ से जयपुर के लिए विहार कर देना चाहिए। उस समय मुनि शिवसागर, क्षुल्लक सन्मतिसागर और चिदानंद सागर भी संघ के दर्शन हेतु चल पड़े।
(माताजी ने अपने संघ सहित जयपुर के लिए विहार कर दिया)
(आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज ससंघ विराजमान हैं)

माताजी –नमोस्तु महाराज जी, नमोस्तु नमोस्तु।

आचार्यश्री –(आशीर्वाद दे रहे हैं) समाधिरस्तु! (हंसते हुए) तुम लोग इतनी जल्दी क्योंं भागे चले आये।

माताजी –गुरुदेव! आपकी आज्ञानुसार हम लोगों ने चार गाँवों में विहार किया। अब हम आपके चरण सानिध्य में ही रहकर आपके जीवन के अनुभव लाभ लेना चाहते हैं।
(माताजी के समीप कुछ आर्यिकाएं व शिष्याएं भक्तिपाठ पढ़ रही हैं)

प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम:,
शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुति:, संगति: सर्वदार्यै:।
सद्वृत्तानां गुणगणकथा, दोषवादे च मौनम्।।
सर्वस्यापि प्रियहित वचो, भावना चात्मतत्वे।
संपद्यन्तां मम भवभवे, यावदेतेऽपवर्ग:।।

क्षुल्लक सन्मतिसागर महाराज –माताजी! मैं आपसे प्रतिक्रमण का अर्थ सीखना चाहता हूँ। जो पाठ पढ़ते हैं, वह संस्कृत प्राकृत में है इसलिए समझ में नहीं आता।

माताजी –ठीक है आपकी भावनानुसार मैं कल से प्रतिक्रमण के अर्थ को बताना प्रारंभ कऊश्ँगी।

सूत्रधार-क्षु. सन्मतिसागर जी, क्षु. चिदानंदसागर जी, क्षुल्लिका चन्द्रमती, क्षुल्लिका जिनमती, क्षुल्लिका पद्मावती आदि तथा कई वयोवृद्ध आर्यिकाएं तथा ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी आदि ने भी इस कक्षा में भाग
लिया। इस अध्ययन से सभी साधु बड़े प्रसन्न हैं। बीच-बीच में वे सभी अपनी प्रसन्नता को प्रगट भी करते हैं और थोड़ा-थोड़ा शंका-समाधान भी चलता है।

क्षुल्लक सन्मतिसागर –माताजी! इस हिन्दी अनुवाद से भी अब समझ में आया कि हम क्या पढ़ रहे हैं। आप तो संस्कृत जानती हैं इसलिए आपको समझ में आता है। हमें तो हिन्दी को भी समझाना पड़ेगा।

माताजी –आपका कहना ठीक है। जिनको संस्कृत-प्राकृत का ज्ञान नहीं है उनके लिए हिन्दी आवश्यक है। समझकर पढ़ने में बहुत आनंद आता है।

क्षु. चिदानंदसागर जी –माताजी! इस प्रकार हिन्दी अर्थ सहित समझकर विधि पूर्वक क्रिया करने में बहुत अच्छा लगा। इसे पूरा पढ़ा दीजिए।

माताजी –इस अध्ययन के साथ-साथ हमें आचार्य महाराज से भी अधिकाधिक अनुभव ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

क्षु. चिदानंदसागर जी –हाँ माताजी! आपने बहुत ठीक कहा। उनका अनुभव ज्ञान बहुत महान है।

ज्ञानमती माताजी –उनके द्वारा कही जाने वाली एक-एक सूक्तियाँ बहुमूल्य हैं। उदाहरण के ऊश्प में -गुरु जो कहें सो करो, वे जो करते हैं वह मत करो। इसका मतलब यह है कि गुरु ने अन्न का त्याग किया है क्योंकि वह उनकी प्रकृति के अनुवूâल नहीं है। यदि कोई शिष्य भी उनकी देखा देखी अन्न का त्याग करदे तो वह अस्वस्थ हो सकता है।

क्षु. सन्मतिसागर जी –माताजी! इसी प्रकार की एक सूक्ति है न देखा-देखी करे जोग, घटे काया बढ़े रोग। कोई भी कार्य गुरु की आज्ञा लेकर तथा अपनी शक्ति को देखकर ही करना अच्छा होता है।

सूत्रधार-यह तो हुई ज्ञानाराधना की बात, दरअसल ज्ञानमती माताजी से संघ का बच्चा-बच्चा बहुत प्रभावित रहा। उस संघ में एक ब्र. राजमल जी रहते थे, उन्होंने पूज्य माताजी से खूब ज्ञानार्जन किया और उन्हें वे अपनी माँ ही मानते थे, उनकी प्रबल प्रेरणा से राजमल जी ने मुनिदीक्षा लेकर भविष्य में उसी परम्परा के आचार्यश्री अजितसागर महाराज के ऊश्प में संघ का संचालन किया और मुनि अभिनंदनसागर महाराज ने अध्ययन करके इसी परम्परा के वर्तमान पट्टाचार्य पद को संभाला है। इसी तरह आचार्यश्री वर्धमानसागर महाराज को तो युवक यशवन्त के ऊश्प में ज्ञानमती माताजी ने ही घर से निकालकर पढ़ाया- लिखाया और मुनिदीक्षा दिलवाई। अरे भाई! कहाँ तक बताउँâ मैं इनकी प्रतिभा के बारे में। इन्हें इस युग की सरस्वती माता भी कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

+ Part 8

(अष्टम दृश्य)


ध्यान की उपलब्धि

(मंच पर माताजी का पिच्छी-कमण्डलु के साथ खड्गासन चित्र एवं श्रावकों की भीड़ दिखावें। कुछ श्रावक हाथ में केशरिया झण्डा लिए हुए आगे-आगे चल रहे हैं–)

बिजली सी फैल गई कीरत, हो गई धन्य जीवन बेला।
अब डगर डगर पर दर्शन को, भक्तों का लगा मिले मेला।।
तब ज्ञानमती जी संघ बना, निकलीं भव पार लगाने को।
सब दुराचार को हटा सदा को, सदाचार चमकाने को।।

सूत्रधार –गुरुवर आचार्यश्री वीरसागर महाराज की समाधि के बाद पूज्य ज्ञानमती माताजी ४-५ वर्षों तक द्वितीय पट्टाधीश आचार्यश्री शिवसागर महाराज के संघ में रहीं और संघ संचालन में इनका बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। आचार्यश्री भी इन्हें अपनी गुरुबहन मानकर पूरा सम्मान देते तथा अनेक व्यवस्थाओं में इनसे सुझाव अवश्य लेते थे। संघ में ये अष्टसहस्री, राजवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, कातंत्र व्याकरण आदि अनेक ग्रंथ मुनि-आर्यिका एवं शिष्य-शिष्याओं को पढ़ातीं थीं अत: सभी लोग इनके ज्ञान से प्रभावित रहते थे।
आगे सन् १९६१ में इनकी तीव्र प्रेरणा पाकर संघस्थ ब्र. राजमल जी ने सीकर (राज.) में मुनिदीक्षा लेकर अजितसागर मुनिराज बने, इनकी दो शिष्याएं भी आर्यिका दीक्षा लेकर पूज्य जिनमती माताजी एवं आदिमती माताजी बनीं। पुन: सन् १९६२ में इन्होंने अपनी पाँच शिष्याओं सहित आर्यिका संघ बनाकर ‘‘सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र’’ यात्रा के लिए मंगलविहार किया तब सन् १९६३ का कलकत्ता में एवं १९६४ का आंध्रप्रदेश के हैदराबाद शहर में अत्यन्त प्रभावनापूर्वक चातुर्मास सम्पन्न हुए और सन् १९६५ में जब दक्षिणभारत के श्रवणबेलगोला तीर्थ पर भगवान बाहुबली के चरण सानिध्य में किया गया चातुर्मास तो पूरी दुनिया के लिए वरदान ही बन गया।
(यहाँ श्रवणबेलगोला में भगवान बाहुबली के चरण सानिध्य में ध्यान करती हुई ज्ञानमती माताजी का चित्र दिखावें। दर्शन करते हुए अनेक स्त्री-पुरुष, कोई-कोई भगवान के चरणों का अभिषेक कर रहे हैं)

सामूहिक स्वर-जय जय जय, बाहुबली भगवान की जय। गोम्मटेश भगवान की जय।

एक महिला-सब लोग चुप हो जाओ, देखो! यहाँ एक माताजी बैठी ध्यान कर रही हैं।

दूसरी महिला -हाँ, हाँ यह ज्ञानमती माताजी हैं। ये कई दिन से यहीं पहाड़ पर रहती हैं और पूरा दिन भगवान के पास ध्यान ही करती रहती हैं।

एक पुरुष -तो क्या ये आहार नहीं करती हैं?

महिला -सुबह केवल आहार के लिए ये माताजी पहाड़ के नीचे जाती हैं और आहार के बाद तुरंत फिर पहाड़ पर ही आ जाती हैं। फिर दिन के ११ बजे से लेकर रात्रि ११ बजे तक भगवान के पास ही सामायिक, स्वाध्याय प्रतिक्रमण और ध्यान करती हैं।

पुरुष -फिर सोती भी यहीं होगी?

महिला -हाँ रात में केवल २-३ घंटे ये सोती हैं, बाकी हर समय ध्यान करके ज्ञानमती माताजी बड़ी खुश होती हैं। यहाँ श्रीक्षेत्र के भट्टारक स्वामी जी इनके परमभक्त हैं, उन्होंने इनकी भावनानुसार गुरुकुल के २-४ बच्चों की और हम लोगों की जिम्मेदारी यहीं पर रहने की लगा दी है।
(कुछ श्रेष्ठी परिवार के लोग माताजी की जयजयकार बोलते हुए ऊपर चढ़कर जाते हैं और भगवान तथा माताजी को नमन करके वहीं बैठ जाते हैं। तब उन्हें गुरुकुल का एक बालक समझाता है)–

बालक -सेठ जी! आप दर्शन कर लीजिए,बस माताजी तो अभी बात करेंगी नहीं।

सेठ जी -क्यों भाई! माताजी बात क्यों नहीं करेंगी। हम तो बड़ी दूर से कलकत्ता से चलकर केवल ज्ञानमती माताजी के दर्शन करने ही आए हैं।

बालक -बाबू जी! बात यह है कि माताजी ने पन्द्रह दिन का अखण्ड मौनव्रत ले लिया है। उसके अभी १० दिन हुए हैं, ५ दिन बाद मौन खुलेगा।
(पूज्य माताजी ध्यान विसर्जित करके उन लोगों को आशीर्वाद प्रदान करती हैं। उनके मौनव्रत एवं ध्यान से प्रभावित एक सज्जन उच्च स्वर में बोलते हैं)

व्यक्ति -धन्य हो धन्य हो, अपने नाम को साकार करने वाली ज्ञानमती माताजी! आप धन्य हो।

सच तो इस नारी की शक्ति, नर ने पहचान न पाई है।
मंदिर में मीरा है तो वह, रण में भी लक्ष्मी बाई है।।
है ज्ञान क्षेत्र में ज्ञानमती, नारी की कला निराली है।
सच पूछो नारी के कारण, यह धरती गौरवशाली है।।

सभी भक्त सामूहिक स्वर में -वंदामि माताजी! हम पुन: आपके दर्शन करने आएंगे।

सूत्रधार –सभी भक्त तो दर्शन करके वापस चले गये और माताजी वहीं पर अपना लेखन करने लगीं। (लिखते हुए चित्र दिखावें) ये इस समय जानते हो क्या लिख रही हैं? भगवान बाहुबली का काव्यचरित।
इसमें बड़े अच्छे भाव संजोये हैं इन्होंने। (पन्ना उठाकर पढ़ने लगता है।)

करना नहीं रहा कुछ बाकी, अत: प्रभो भुजलम्बित हैं।
नहीं भ्रमण करना अब जग में, अत: चरणयुग अचलित हैं।।
देख चुके सब जग की लीला, अन्तरंग अब देख रहे।
सुन सुन करके शांति न पाई, अत: विजन में खड़े हुए।।

सामूहिक स्वर –जय बोलो, बाहुबली भगवान की जय हो। ज्ञानमती माताजी की जय हो।
(माताजी का चित्र ध्यानस्थ मुद्रा में, पास में बैठी शिष्याएं स्वाध्याय कर रही हैं।)

सूत्रधार –मेरे प्यारे भाइयों! मैंने तो यहाँ केवल एक पद्य सुनाया है बाहुबली भगवान के जीवन चरित्र का। यह तो बड़ा अच्छा १११ पद्य वाला काव्यचरित है। आप जानते हैं कि भगवान क्यों अपनी भुजाओं को लटका कर खड़े हैं। यही बात माताजी ने इसमें लिखी है कि -हाथों से भगवान को अब कुछ भी काम करना शेष नहीं रहा, इसलिए हाथ लटका लिया, पैरों से अब कहीं भी भ्रमण करने की इच्छा नहीं है अत: बिल्कुल स्थिरतापूर्वक खड़े हैं। सारे संसार की लीला देखकर वे थक चुके हैं इसलिए आंख बंद करके अपनी आत्मा को देख रहे हैं और सांसारिक बातें अब सुनने की इच्छा नहीं है इसीलिए जंगल में चले गये। अरे! मैं इधर बोले जा रहा हूँ और उधर देखो! माताजी फिर ध्यान में मग्न हो गई हैं। इसलिए मैं भी चुप हो जाता हूँ।
(मंच पर अंधकार, हल्की संगीत ध्वनि, माताजी के चारों ओर प्रकाशमयी आभामण्डल पैâलता हुआ दिखावें)

पास में बैठी शिष्या- अरे, देखो! देखो! अम्मा के मस्तक के चारों ओर वैâसा दिव्य प्रकाश पैâल गया है।

दूसरी शिष्या –हाँ, यह तो कोई ध्यान का चमत्कार जैसा लगता है।

शिष्या –आज अम्मा को पूरे पन्द्रह दिन हो गये हैं। भगवान ने जऊश्र कोई चमत्कार दिखाया होगा।

बालक –स्वामी जी को बुलाऊँ क्या? कोई खतरा तो नहीं लगता है?

शिष्या –ऐसा तो नहीं होना चाहिए। देखो! प्रकाश तो खूब पैâल ही रहा है।

बालक –मुझे लगता है कि ज्ञानमती माताजी को आज कोई दैवी मंत्र सिद्धी तो नहीं हो गई है।

सूत्रधार –मंगल प्रभात की बेला है। बाहर की सभी चर्चाओं से अनभिज्ञ पूज्य आर्यिका माताजी अपना ध्यान विसर्जित करती हैं और आज वे बेहद प्रसन्न मुद्रा में मौन खोलकर सर्वप्रथम बाहुबली के चरणों में
नमन करती हैं पुन: भट्टारक जी को एवं संघस्थ शिष्याओं को बताती हैं।

ज्ञानमती माताजी –ओह! आज तो मैंने ध्यान में मध्यलोक के सभी ४५८ अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन किये हैं। मुझे एक बड़ा सुन्दर प्रकाशपुंज भी दिखा था।

शिष्या –हाँ अम्मा! हमने वह प्रकाश आपके चारों ओर भी पैâलते देखा था।

ज्ञानमती माताजी –अच्छा, क्या वह प्रकाश बाहर भी आ गया था। अरे! मुझे तो अभी भी लग रहा है कि मैं इस धरती पर नहीं हूँ, बल्कि सुमेरुपर्वत, जम्बूद्वीप, नंदीश्वर द्वीप के चैत्यालयों की वंदना कर रही हूँ। वाह! कितने सुन्दर झरने, नदियाँ, पर्वत, उद्यान वहाँ हैं। (कुछ सोचकर)
काश! ऐसी रचना धरती पर साकार हो जावे तो सारे विश्व को जैन भूगोल का ज्ञान हो जावे।

सूत्रधार –देखी आपने इनके ध्यान की महिमा। जरा सब मिलकर बोलें–
तर्ज-काली तेरी चोटी है……………

दुनियां में भगवन्तों के मंदिर अनेक है।
लेकिन जम्बूद्वीप की रचना केवल एक है।।
हस्तिनापुरी में उसका करो दर्शन,
जम्बूद्वीप को नमन।।टेक.।।

एक बार ज्ञानमती माताजी के ध्यान में।
श्रवणबेलगोला बाहुबली जी के पास में।।
सूर्य चांद जैसा इक प्रकाश पुंज आया था।
उसमें जम्बूद्वीप का दर्श दिखाया था।।
शास्त्रों में देखा उसे झूम उठा मन,
जम्बूद्वीप को नमन।।१।।

हाँ, भइया हाँ! वही जम्बूद्वीप की रचना पूज्य माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर में बनी है। जिसे देखने देश-विदेश से तो लोग आते ही हैं। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी ने सन् १९८५ में इसका उद्घाटन किया पुन: उत्तरप्रदेश के पर्यटन विभाग ने भी अपने साहित्य में इसी धरती का स्वर्ग कहा है। जय हो, धरती के स्वर्ग जम्बूद्वीप की जय, शांतिनाथ भगवान की जय।
(यहाँ जम्बूद्वीप की रचना का बड़ा चित्र या मॉडल दिखावें और भारी भीड़ के मध्य नारायणदत्त तिवारी जी को उद्घाटन करते दृश्य दिखावें।)

नारायणदत्त तिवारी -(भाषण देते हुए) हमारे उत्तरप्रदेश का सौभाग्य है कि ज्ञानमती माताजी जैसी महान साध्वी ने इस प्रदेश में जन्मी हैं और उनकी कृपा से यह जो जम्बूद्वीप बना है वह हमारी निधि है, धरोहर है। जब-जब कोई वैज्ञानिक इस पर रिसर्च करने हस्तिनापुर आएंगे तब-तब हमें अपनी भारतीय संस्कृति के प्रति गौरव होगा। देशभर से लाखों की संख्या में यहाँ पधारे आप सभी भाई-बहनों का मैं हार्दिक स्वागत- अभिनंदन करता हूँ और माताजी के चरणों में नमन करके आभार प्रगट करता हूँ। जय हिन्द-जय भारत।

+ Part 9

(नवम् दृश्य)


साहित्य लेखन का इतिहास

सूत्रधार –देखो तो सही, ये ज्ञानमती माताजी सारा दिन शिष्य-शिष्याओं को पढ़ाया ही करती हैं। जैसे कोई व्यापारी अपने ग्राहक को पटाने में और माल बेचने में लगा रहता है न, उसी तरह ये भी शिष्यों को पढ़ा-पढ़ाकर समझो अपने धर्म और ज्ञान का व्यापार खूब बढ़ाती रहती हैं। एक दिन ये कक्षा में सबको अष्टसहस्री पढ़ा रही थीं तो मोतीचंद नामक एक ब्रह्मचारी जी बोल पड़े। (यहाँ क्लास का दृश्य जिसमें मुनि, आर्यिका, ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी हैं एवं माताजी को पढ़ाते हुए चित्र दिखावें।)

मोतीचंद –माताजी! अष्टसहस्री के ये सब विषय मुझे बड़े कठिन लगते हैं। याद नहीं हो पाते हैं तो मैं न्यायतीर्थ की परीक्षा वैâसे दूँंगा?

माताजी –(आवाज पीछे से) अच्छा, मोतीचंद! तुम घबराओ मत, मैं तुम्हारे लिए हिन्दी में अष्टसहस्री के सब अध्यायों के सारांश लिख दूँगी। उन्हें याद करके तुम ‘न्यायतीर्थ’ उपाधि की परीक्षा दे देना।

मोतीचंद –फिर तो माताजी! सारा विषय बड़ा आसान हो जाएगा। मैं उन्हीं को पढ़कर पास हो जाऊँगा।

जिनमती माताजी –माताजी! इसमें तो आपको बड़ा परिश्रम करना पड़ेगा। चलो, छोड़ों न अम्मा! अष्टसहस्री सभी को बड़ी कठिन लगती है, इसे छोड़कर कोई दूसरा सरल विषय पढ़ाना शुऊश् कर दीजिए।

माताजी –कोई बात नहीं, ऐसे घबराकर कठिन विषयों को छोड़ा नहीं जाता। समझीं जिनमती! तुम बताओ, खाना बनाना कठिन होता है, तो क्या उसे बनाया नही जाता है।अगर सब लोग ऐसा सोच लें तो सबको भूखे ही रहना पड़ेगा। ऐसे ही कठिन अष्टसहस्री को भी मैं सरल हिन्दी में अनुवाद करके सबके लिए रुचिकर बनाऊँगी।

सूत्रधार –इतना कहकर माताजी तो लिखने बैंठ गर्इं। (माताजी का लिखते हुए चित्र, आसपास में अनेक शास्त्र रखे हैं और शिष्याएं भी बैठीं स्वाध्याय कर रही हैं। लोगों का आवागमन, दर्शन-वंदन चालू है।)
अरे बाबा रे बाबा! मैं तो इनकी महिमा बताते-बताते भी हैरान हो जाता हूँ कि ये कोई साध्वी हैं या फौलादी लौह नारी हैं। बस, रात-दिन मेहनत करके बिना किसी से पढ़े, अष्टसहस्री जैसे अत्यंत कठिन ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद सन् १९६९-७० में डेढ़ साल के अंदर करके राजस्थान के ‘‘टोडारायसिंह’’ नामक नगर में पूरा कर दिया। अब देखो, इनके लिए यह बात सच है न–

जो बतलाते नारी जीवन, लगता मधुरस की लाली है।
वह त्याग तपस्या क्या जाने, कोमल पूâलों की डाली है।।
जो कहते योगों में नारी, नर के समान कब होती है।
ऐसे लोगों को ज्ञानमती का, जीवन एक चुनौती है।।

(यहाँ अनेक पात्र अपने-अपने हाथों में माताजी के एक-एक ग्रंथ लेकर मंच पर उपस्थित होवें।)
सुनो! और भी बताता हूँ कि इन्होंने केवल अष्टसहस्री का ही नहीं, बल्कि अनेक संस्कृत ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद किया तथा सैकड़ों की संख्या में मौलिक ग्रंथों को लिखकर साहित्य जगत में अपना कीर्तिमान
स्थापित करके दिखाया है। तभी तो आप लोग इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र, सिद्धचक्र, जम्बूद्वीप आदि पूजा-विधानों को खूब प्रभावनापूर्वक करते हैं और भगवान के साथ-साथ ज्ञानमती माताजी की जयकारों से वातावरण गुंजायमान कर देते हैं। आजकल तो वे षट्खण्डागम ग्रंथ की बड़ी सुन्दर संस्कृत टीका लिख रही हैं, उसके भी तीन हजार पेज हो गये हैं। तो अब बड़ी श्रद्धा से गुरुचरणों में नमन कीजिए–

इस युग की माँ शारदे, तू धर्म की प्राण है।
ज्ञानमती नाम है, ज्ञान की तू खान है, चारित्र परिधान है।।टेक.।।
महावीर प्रभु के शासन में अब तक,
कोई भी नारी न ऐसी हुई।
साहित्य लेखन करने की शक्ती,
तुझमें न जाने वैâसे हुई।।
शास्त्र पुराणों में, भक्ति विधानों में, तेरा प्रथम नाम है विश्व में,
कलियुग की मॉँ भारती, पूनो का तू चाँद है।
ज्ञानमती नाम है, ज्ञान की तू खान है, चारित्र परिधान है।।१।।

सामूहिक स्वर –बोलो ज्ञानमती माताजी की जय, सरस्वती माता की जय।

+ Part 10

(दसवाँ दृश्य)


सूत्रधार -यह देखो! प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी का निवासस्थान है, वहाँ मई सन् १९८२ में जैनसमाज का एक समूह पहुँचा। उसमें ब्र. मोतीचंद जी, ब्र. रवीन्द कुमार जी, ब्र. माधुरी शास्त्री एवं अन्य
श्रेष्ठीगण हैं। ये लोग पूज्य माताजी की प्रेरणा से ‘‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति’’ नाम के एक रथ का प्रवर्तन इन्दिरा जी से उद्घाटित करवाकर देश भर में भ्रमण कराना चाहते हैं। इस जैन समाज के ग्रुप से इन्दिरा जी बड़े स्नेहपूर्वक मिलीं, तब क्या होता है–

मोतीचंद -(हाथ में श्रीफल देते हुए) हमारे जैन समाज की सबसे बड़ीसाध्वी पूज्य ज्ञानमती माताजी ने आपके लिए आशीर्वादस्वऊश्प यह श्रीफल भेजा है।

इन्दिरागांधी -(श्रद्धा से ग्रहणकर मेज पर रखते हुए) आप सभी को नमस्कार, कहिए आप लोगों के आने का उद्देश्य क्या है और मैं आप लोगों की क्या मदद कर सकती हूँ।

रवीन्द्र जी -एक रथ के प्रवर्तन का हम लोग आपसे उद्घाटन कराना चाहते हैं। उसी में पधारने की अनुमति लेने आए हैं।

इन्दिरा जी -उस प्रवर्तन का उद्देश्य क्या है और रथ में क्या चीज आप रखेंगे?

डॉ. वैâलाशचंद -जी मैडम! हमारी ज्ञानमती माताजी हस्तिनापुर में भूगोल की रचना बना रही हैं जिसका नाम है जम्बूद्वीप। उसी जम्बूद्वीप का एक मॉडल बनाकर रथ में रखा गया है। आप उसे देखकर बड़ी खुश होंगी।

मोतीचंद -वह रथ जब नगर-नगर में जाएगा तो सभी लोग जम्बूद्वीप के बारे में जानेंगे और इस रथभ्रमण का प्रमुख लक्ष्य रहेगा देश में व्यसनमुक्ति का पाठ पढ़ाना। तमाम लोगों को हम शराब, नशाबाजी, मांसाहार आदि का त्याग करवाकर सदाचारी बनायेंगे।

इन्दिरा जी -लक्ष्य तो आप लोगों का बड़ा सुन्दर है किन्तु मुझे जम्बूद्वीप का मतलब ठीक से नहीं समझ में आया है।

रवीन्द्र जी -(जैन कॉस्मोलॉजी ग्रंथ दिखाते हुए) देखिए जी! यह किताब इटली से प्रकाशित है। इसके अन्दर जैन एवं हिन्दू ग्रंथों के आधार से हमारे विशालतम ब्रह्माण्ड जम्बूद्वीप के अलग-अलग पार्ट के चित्र भी हैं और उनका विस्तृत वर्णन भी है। इन्हीं सब विषयों को तो हमें इस माध्यम से लोगों को बताना है।

इन्दिरा जी -(रुचि से पुस्तक देखते हुए) हाँ, अब बात समझ में आ गई। यूँ तो मैंने भी अनेक मंगल अवसरों पर जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यावर्ते आदि मंत्रों को पढ़ा-सुना तो है किन्तु साक्षात् ऊश्प में उनके चित्र आज ही देखें हैं।

डॉ. वैâलाशचंद -मैडम! ये तो चित्र ही हैं। जब आप माताजी के पास चलकर इसका मॉडल देखेंगी तब तो लगेगा कि हम साक्षात्जम्बूद्वीप में ही पहुँच गये हैं।

इन्दिरा जी -(कुछ सोचकर अपनी डायरी देखते हुए) वैसे तो इस समय गर्मी बहुत है। चलो ठीक है, मैं ४ जून को आधा घंटे के लिए आ सकती हूँ। अच्छा, यह बताओ कि आप लोग यह कार्यक्रम कहाँ आयोजित करेंगे।

डॉ. वैâलाशचंद -लालकिला मैदान में यह उद्घाटन समारोह रहेगा।

इन्दिरा जी -ठीक है, ४ जून १९८२ को दिन में २ बजे मैं आऊँगी और सबसे पहले ज्ञानमती माताजी से आशीर्वाद लेकर उनसे बात कऊश्ँगी।

सूत्रधार -यह निर्णय होते ही आयोजक गण तो आयोजन की तैयारी में लग गये। पूरी दिल्ली ही क्या, देशभर में जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति रथ के उद्घाटन का समाचार पहुँच गया।
(कहीं पोस्टर लगाते हुए, कहीं पेम्पलेट बांटते हुए लोगों को दिखावें। एक व्यक्ति को माइक पर बोलकर सूचना देते हुए भी दिखावें) और देखते ही देखते ४ जून १९८२ का दिन आ गया। दिल्ली के लालकिला मैदान में विशाज नसभा चल रही है।
(मंच से संबोधन)

संचालक -अभी कुछ ही देर में यहाँ जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ प्रवर्तन का शुभारंभ करने हेतु भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी पधारने वाली हैं, आप सभी लोग शांतिपूर्वक पंडित जी का प्रवचन सुनिये।

पण्डित जी -सभा में उपस्थित धर्मप्रेमी बंधुओं! हमारा भारतदेश एक महकती पुâलवाड़ी के समान है, जहां विभिन्न सम्प्रदायऊश्पी पुष्प खिलकर अपनी मिली-जुली सुगंधि पैâलाते हैं। अनेकता में एकता का संदेश प्रसारित करने वाला यह एक मात्र देश माना जाता है। इसीलिए भारतदेश को विश्वभर में सोने की चिड़िया कहा जाता है। (बीच में ही इन्दिरा जी तेज-तेज कदमों से आकर सर्वप्रथम एक कमरे में विराजमान पूज्य ज्ञानमती माताजी के पास पहुँच जाती हैं। साथ में कुछ और लोग भी हैं।) (यहाँ माताजी का चित्र और पास में बैठी इन्दिरा जी को दिखावें बूंटी वाली सपेâद साड़ी पहने हुए)

इन्दिरा जी –(झुककर) नमस्कार माताजी! आपकी प्रशंसा मैंने बहुत सुनी थी, इसीलिए आज आपके दर्शन करने आ गई।

माताजी –(आशीर्वाद मुद्रा में हाथ वाला चित्र, आवाज पीछे से) कल्याणमस्तु कमलाभिमुखी सदास्तु, दीर्घायुरस्तु कुलगोत्रसमृद्धिरस्तु। बैठिये, अब बताइये! राजनीति में वैâसा चल रहा है और आपके व्यक्तिगत
जीवन में भी धर्म की वैâसी प्रक्रिया चलती है।

इन्दिरा जी –बस, आप जैसी तपस्वी साध्वियों का आशीर्वाद ही हमारा सम्बल है। (कुछ सोचकर) माताजी! आपके पास आज मुझे लग रहा है कि जैसे मैं अपनी माँ के पास ही बैठी हूँ। पता नहीं क्यों, आपसे मुझे मातृत्व जैसा स्नेहिलसुख मिल रहा है और मैं धन्य-धन्य हुई जा रही हूँ।

माताजी –(प्रेम से सिर पर हाथ पेâरते हुए) ठीक तो है, मैं साध्वी बनकर आप सभी को अपनी सन्तान के ऊश्प में ही मानती हूँ। आपके मन में कोई भी कष्ट हो, मुझे नि:संकोच कह सकती हो।

सूत्रधार –फिर तो एक माँ-बेटी के समान ही दोनों में थोड़ी देर गुप्त वार्ता हुई। बाहर पाण्डाल में जनता जय-जयकार पूर्वक कोलाहल कर रही है किन्तु इन्दिरा जी जाने क्यों, माताजी को छोड़ना नहीं चाहती थीं। चलो-चलो! अब सभी शांत हो जाओ। मंच पर हमारी पूज्य ज्ञानमती माताजी संघ सहित पधार गई हैं और प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी भी मंचपर अनेक मंत्रियों एवं समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बैठ गर्इं।
(माताजी का चित्र दो-तीन साध्वियों के संघ सहित एवं मंच पर गृहमंत्री प्रकाशचंद जैन सेठी, सांसद जे.के. जैन, अनेक श्रेष्ठीगण, ब्र. मोतीचंद, रवीन्द्र जी आदि हैं पांडाल के अंदर ही मंच के पास ज्योतिरथ खड़ा है।

गृहमंत्री –(बहुत मोटी माला लेकर इंदिरा जी को पहनाते हुए) आपका सम्पूर्ण जैनसमाज की ओर से मैं अभिनंदन करता हूँ।)
(मोतीचंद और रवीन्द्र जी इन्दिरा जी के करकमलों में अभिनंदन पत्र भेंट करते हुए दिखावें)

संचालक –आज के इस पावन प्रसंग पर पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी का देश के नाम एवं प्रधानमंत्री जी के नाम संदेश और आशीर्वाद प्राप्त हो, इस निवेदन के साथ माताजी के प्रति दो शब्द प्रस्तुत करता हूँ–

नैराश्य मद में डूबते, नर के लिए नव आस हो।
कोई अलौकिक शक्ति हो, अभिव्यक्ति हो विश्वास हो।।
तुम ज्ञानमति के ऊश्प में, माँ सरस्वती का वास हो।
मानो न मानो सत्य ही, तुम स्वयं इक इतिहास हो।।

(तालियों की गड़गड़ाहट और जयकार का सामूहिक स्वर पुन: माताजी का उद्बोधन प्रारंभ)

ज्ञानमती माताजी –दूर-दूर से पधारे श्रद्धालु भक्तों, मंच पर आसीन राजनेतागण एवं रथप्रवर्तन का सौभाग्य प्राप्त करने वाली प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा जी! भारत की इस पवित्र धरा पर सदा-सदा से महापुरुषों ने जन्म लेकर इसका गौरव बढ़ाया है। उनमें से ही जैनधर्म के वर्तमानकालीन चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हैं। उनके अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन सर्वोदयी सिद्धान्तों का पालन करके ही यह देश सन् १९४७ में आजाद हुआ है।
इन्दिरा जी एक ब्राह्मण परिवार में जन्मीं धर्मनिष्ठ महिला हैं मेरी आज के अवसर पर उनके लिए यही प्रेरणा है कि वे केन्द्र सरकार के माध्यम से देश-विदेश में अपनी अहिंसक भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार करें और सदैव साधु-साध्वियों का आशीर्वाद लेते हुए जीवन में उन्नति करें यही शुभाशीर्वाद है।

संचालक –अब हमारी मुख्य अतिथि श्रीमती गांधी का ओजस्वी वक्तव्य आप सब शांतिपूर्वक श्रवण करें।

इन्दिरा जी –(खड़े होकर सबको हाथ जोड़कर प्रणाम, पुन: वक्तव्य प्रारंभ) आज मैं अपने लिए सबसे अधिक खुशी और सौभाग्य का दिन मानती हूँ क्योंकि एक पवित्र रथ का उद्घाटन करने के लिए आप सभी जैन समाज के लोगों ने मुझे बुलाया है। इसके साथ ही देवीस्वऊश्पा पूज्या ज्ञानमती माताजी से आशीर्वाद और अपनत्व पाकर तो मैं निहाल ही हो गई हूँ। माताजी के पास बैठी इनकी माँ को मैं सचमुच एक स्वतंत्रता
सेनानी की वीर माँ के समान मानकर श्रद्धापूर्वक नमन करती हूँ जिन्होंने ज्ञानमती माताजी जैसी साध्वी तो देश के लिए दिया ही है, साथ ही स्वयं भी उन्हीं के समान दीक्षा लेकर धर्म और समाज के लिए खुद को समर्पित कर दिया है।
यह जम्बूद्वीप का रथ जहाँ-जहाँ जाएगा, विश्वशांति और पारस्परिक प्रेम का संदेश देगा, ऐसा मेरा विश्वास है। जब इसकी रचना हस्तिनापुर में पूरी बन जावे, तब वहाँ भी मुझे आप लोग बुलावें। मैं जऊश्र आकर इस अलौकिक कृति का दर्शन कऊश्ँगी। आप सभी को मेरा धन्यवाद, माताजी को नमस्कार।
(सभी लोग रथ के ऊपर पहुँचकर धार्मिक विधि कर रहे हैं)

सूत्रधार –पूज्य माताजी के साथ ही इन्दिरा जी रथ पर चढ़ गर्इं, वहाँ ब्रह्मचारिणी दीदी ने उनके हाथ में रक्षासूत्र बांधा। फिर शुद्ध केशर की कटोरी हाथ में लेकर इन्दिरा जी ने रथ पर स्वस्तिक बनाया, पुष्पांजलि डाली और माताजी ने मंत्र पढ़ा। इस प्रकार रथ प्रवर्तन का उद्घाटन हो गया और प्रधानमंत्री इन्दिरा जी पुन: माताजी का आशीर्वाद लेकर अपने निवास के लिए प्रस्थान कर गर्इं।
(रथ का जुलूस, जनसमूह और बाजों की आवाज से पूरा दिल्ली का चाँदनीचौक गुंजायमान हो रहा है)

सूत्रधार –अब यहाँ प्रस्तुत है कुछ बहनों की वार्ता। ये आपस में क्या चर्चा कर रही हैं जरा ध्यान से सुनिये –

त्रिशला –कामनी जीजी! आज कितना मजा आया न सब देखकर, इन्दिरा जी देखो! अपनी माताजी से मिलकर कितनी खुश हुर्इं।

कामनी –हाँ त्रिशला! आखिर वह भी नेता के साथ-साथ एक नारी भी तो हैं और एक नारी अपने मन की बात जिस तरह से खुलकर किसीनारी से या साध्वी माताजी से कर सकती हैं, उतना और किसी से नहीं कह सकती। इसीलिए आज इन्द्रा जी को अन्तरंग से प्रसन्नता महसूस हुई है।

शांती देवी –अरे बहनों! माताजी की तपस्या का तो कहना ही क्या है? इनके पास तो आये दिन ऐसी सभाएं हुआ करती हैं। हम लोग भी लखनऊ से आकर जब बड़े-बड़े समारोह में भाग लेते हैं तो बड़े गौरव का अनुभव होता है कि हमें इनकी बहन होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

कुमुदनी –अगर अपने पिताजी जीवित होते तो इनकी प्रभावना और कार्यकलाप देख-देखकर वे तो पूâले न समाते।

मालती –लेकिन पिताजी तो स्वर्ग से ही इनके पुण्य प्रभाव को देखकर खुश होते होंगे। वे तो इनके शिष्य-शिष्याओं को देखकर, इन्हें मुनियों को पढ़ाते देखकर भी खूब प्रसन्न होते थे और कभी-कभी कहते भी थे कि ये एक बार ऊश्खा-सूखा खाकर इतनी मेहनत करती हैं। बहुत थक जाती होंगी।

श्रीमती –देखो मालती! यह सब मोह की बातें हम लोग आपस में कर लेते हैं। लेकिन ज्ञानमती माताजी ने तो दीक्षा लेकर हम सभी को गृहस्थ में रहकर भी धर्म करने की जो प्रेरणा दी है उससे पूरे परिवार का कल्याण हुआ और टिवैâतनगर का नाम पूरे संसार में प्रसिद्ध हो गया।

त्रिशला –मेरी सभी जीजियों! ये सब बातें छोड़ों और मेरी बात सुनो। यहाँ समय ज्यादा हो जाने के कारण माताजी की प्रेरणा से प्रवर्तित समवसरण रथ, महावीर ज्योति रथ और मांगीतुंगी रथ की बात नाटक के ऊश्प में दिखाना तो कठिन है, फिर भी मैं संक्षेप में थोड़ा सा आप सभी को बताती हूँ कि पहले तो उस ज्योतिरथ का पूरे देश में १०४५ दिन तक भ्रमण हुआ पुन:२८ अप्रैल १९८५ को हस्तिनापुर में केन्द्रीय रक्षामंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव ने पधारकर जम्बूद्वीप रचना के ठीक सामने अखण्ड ज्योति के ऊश्प में उसकी स्थापना कर दी। (ज्ञानज्योति के सामने मंत्री जी को स्विच दबाते दिखावें, साथ में जनता है और माताजी मंत्री जी को आशीर्वाद दे रही हैं।)

कामनी –हाँ बाद में एक समवसरण का रथ भी तो निकला था।

त्रिशला –उसकी बात ही कह रही हूँ मैं, कि सन् १९९८ में माताजी के पास दूसरे प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी आये। उन्होंने भी आशीर्वाद प्राप्त करके ‘‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’’ नामक रथ का प्रवर्तन किया। (समवसरण रथ का चित्र और उस पर स्वस्तिक बनाते हुए प्रधानमंत्री जी एवं उनके साथ श्रेष्ठीगण, विशाल जनसमूह दिखावें।) इसके बाद फिर हम लोग सन् २००० में भी तो ४ फरवरी को दिल्ली गये थे न, तब भी तो भगवान ऋषभदेव का ही महोत्सव था।

कामनी –हाँ, कितना सुन्दर वैâलाशपर्वत था। जिसके ऊपर बहत्तर रत्न प्रतिमाएँ विराजमान थीं। बाप रे! उस समय तो बेशुमार भीड़ थी।

त्रिशला –उस महोत्सव का नाम था -भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव। उसमें १००८ निर्वाणलाडू चढ़ाए गए थे। तब भी अपने श्री वी. धनंजय कुमार जैन (वित्त मंत्री) जी प्रधानमंत्री अटल बिहारी जी को लेकर आए थे उन्होंने इन्द्र बनकर लड्डू चढ़ाया था। (वैâलाशपर्वत का बड़ा चित्र, उसके सामने भीड़ और प्रधानमंत्री के हाथ में लाडू थाल दिखावें।) कितना अच्छा भाषण दिया था उस समय वाजपेयी जी ने।
भाषण देते हुए अटल जी -पूज्य माताजी! आज मैं फिर से दो साल के बाद आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ। देश में चल रही विषम परिस्थिति से निपटने हेतु आपका आशीर्वाद आवश्यक है। आज यहाँ जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की बात मैं सुन रहा हूँ। कौन कहता है भगवान महावीर जैनधर्म के संस्थापक थे। जबकि उनसे पहले २३ तीर्थंकर और हो चुके हैं। मेरे प्रधानमंत्री कार्यालय में आज भी २३वें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ की प्रतिमा स्थापित है। उनका परिचय मैं धनंजय जी से ही लोगों को कराता हूँ। यहाँ आकर मुझे बहुत खुशी है। आप सभी के प्रति मैं आभार प्रगट करता हूँ। जय भारत-जय हिन्द।

सामूहिक जनता का स्वर –ऋषभदेव भगवान की जय, ज्ञानमती माताजी की जय, वैâलाशपर्वत की जय।

सूत्रधार –आप सभी मिलकर बोलिए–

निर्वाण उत्सव विशाल बाबा।
जिसे लाया है दो हजार साल बाबा।।
ज्ञानमती जी, माता ज्ञानमती जी।।टेक।।
माँ का इरादा अटल है तभी तो, आकर अटल जी ने दर्शन किये।
माँ की कृपा से दिल्ली में सबने, वैâलाशपर्वत के दर्शन किये।।
राजधानी में हो गया कमाल बाबा।
जिसे लाया है दो हजार साल बाबा।।
ज्ञानमती जी, माता ज्ञानमती जी।।१।।

अरे! एक बात तो मैं बताना ही भूल गया कि इस निर्वाण महोत्सव को एक वर्ष तक देश-विदेश में खूब अच्छी तरह से सबने मनाया। जिसमें जम्बूद्वीप के अध्यक्ष-कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र जी ने अगस्त सन्
२००० में अमेरिका के विश्वशांति शिखरसम्मेलन में भारतदेश से जैनधर्माचार्य के ऊश्प में भाग लिया। (यहाँ भगवा वस्त्र में अनेक धर्माचार्य दिखावें, अमेरिका का दृश्य है वहाँ सपेâद धोती-दुपट्टे में मेंरवीन्द्र जी माइक पर बोलते हुए) पुन: अक्टूबर २००० में सात दिन तक प्रीतविहार-दिल्ली को जैन समाज द्वारा विशाल वैâलाशपर्वत बनाकर मानसरोवर यात्रा का दृश्य उपस्थित किया गया, जिसमें लाखों लोगों ने पर्वत यात्रा का लाभ लिया। उसके बाद फरवरी २००१ में इस महोत्सव का समापन तीर्थराज प्रयाग-इलाहाबाद में एक नूतन तीर्थ के लोकार्पणपूर्वक हुआ। (इलाहाबाद में तपस्थली तीर्थ के बड़े चित्र दिखावें और माताजी संघ सहित वहाँ विराजमान हैं।)
सामूहिक भजन पूर्वक दृश्य का समापन

गहरी गहरी नदियां, संगम की धारा है।
ज्ञानमती माता को, प्रयाग ने पुकारा है।।
तीरथ प्रयाग तो युग-युग पुराना है।
ऋषभदेव जिनवर का त्याग धाम माना है।। त्याग………..
वही तीर्थ देखो आज फिर से संवारा है।
ज्ञानमती माता को प्रयाग ने पुकारा है।।

+ Part 11

(ग्यारहवाँ दृश्य)


राजधानी दिल्ली में चौबीस कल्पद्रुम विधान

सूत्रधार -सन् १९९७ में ४ अक्टूबर से १३ अक्टूबर का दिल्ली में रिंगरोड पर पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान के द्वारा भक्ति का जो महावुंâभ मेला सम्पन्न
हुआ, वह तो वास्तव में अवर्णनीय है।
(२४ समवसरणों का दृश्य, उन सभी के सामने पूजा करते हजारों इन्द्र-इन्द्राणी केशरिया ड्रेस में दिखावें मंच पर माताजी संघ सहित का चित्र, पास में राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा, मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह। साहू अशोक कुमार जी, माइक पर बोलते हुए, रमेशचंद जैन पी.एस. मोटर्स, राजेन्द्र प्रसाद कम्मोजी आदि अनेक गणमान्य श्रावकगण हैं)
साहू अशोक जी -आज मैं जीवन में पहली बार पूजन विधान का इतना भारी आयोजन देखकर अपने को सौभाग्यशाली मानता हूँ और पूज्य माताजी से करबद्ध निवेदन करता हूँ कि एक बार आप सम्मेदशिखर चलकर वहाँ ऐसा आयोजन करवा दें तो मुझे विश्वास है कि वहाँ का खोया अतिशय पुन: प्रगट होगा।
(अनेक इन्द्र-इन्द्राणी नृत्य कर रहे हैं संगीत चल रहा है। एक ओर सदार्वत भोजन चलता दिखावें, जिसमें हजारों स्त्री-पुरुष जाकर भोजन कर रहे है। कुछ लोग समवसरण की प्रदक्षिणा लगा रहे हैं और तमाम लोग बीचों-बीच मंच पर विराजमान माताजी के दर्शन कर रहे हैं।)

सूत्रधार -इसी महायज्ञ में भाग लेने वाले बहुत सारे लोगों के साथ अनेक चमत्कारिक घटनाएं भी घटीं-

एक महिला -अरी बहन! मेरे सिर में माइग्रेन का भयंकर दर्द था, सोचती कि वैâसे ८-८ घंटा पूजा में बैठूंगी, लेकिन हिम्मत करके बैठ गई, तो मेरा दर्द कहाँ भाग गया, पता ही नहीं चला।

दूसरी महिला -इसीलिए तो साधु लोग कहते हैं कि भक्ति में अचिंत्य शक्ति होती है। सामने ही तो फल दिखता है।

तीसरी महिला-मेरे पैरों में तो इतना दर्द था कि चार कदम भी चलना मुश्किल था और यहाँ देखो! मैं रोज पूजन में खूब नृत्य करती हूँ, खूब जमीन पर बैठती हूँ कोई तकलीफ नहीं होती है।

एक युवक -अम्मा जी! मैंने इधर बाहर से निकलते हुए दो दिन पहले पूजन की आवाज सुनी तो अकस्मात् अन्दर आ गया। यहाँ दर्शन करके बाहर गया तो कई वर्षों पहले की समस्या हल हो गई, कोर्ट में मेरे विरुद्ध केश चल रहा था। उसका भी कल मेरे पक्ष में निर्णय हो गया। अब तो भगवान के साथ-साथ ज्ञानमती माताजी का भी मैं पक्का भक्त बन गया हूँ।

महिला -देखो बाबू! तुम्हारे जेसे नवयुवकों का कितना पुण्य उदय आया है कि वे इस महायज्ञ में चक्रवर्ती बनकर समवसरण में सपरिवार पूजा का लाभ ले रहे हैं।

युवक -हाँ, अब तो ये लोग अगले भव में चक्रवर्ती जऊश्र बनेंगे।

सामूहिक स्वर -कल्पद्रुम महामण्डल विधान की जय, भगवान के समवसरण की जय, ज्ञानमती माताजी की जय।

सूत्रधार -भाइयो-बहनों! आप में से तो तमाम लोगों ने उस विधान में भाग लिया होगा न। इसीलिए यहाँ बहुत संक्षिप्त ऊश्प में उस आयोजन का ऊश्पक दिखाया गया है। जानते हो, इसी प्रकार का एक
वृहत् आयोजन सन् २००१ में भी दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में हुआ था। उसका नाम था -विश्वशांति महावीर विधान। एक ही पाण्डाल में उसके २६ मण्डल बने थे। सभी में सुमेरु पर्वत का आकार था और सभी पर अलग-अलग २६००-२६०० रतन इन्द्र- इन्द्राणियों ने चढ़ाए थे।

+ Part 12

(बारहवाँ दृश्य)


(इण्डिया गेट का दृश्य, माताजी के संघ के साथ अनेक भक्तगण केशरिया झण्डा लेकर जयकार बोलते हुए चल रहे हैं। खड़े हुए माताजी का कट आउट दिखावें, देश के नाम उनका संदेश (पीछे से आवाज)

माताजी –जैन समाज के श्रद्धालु भक्तों। इस समय पूरे देश में सरकार और समाज के द्वारा भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव मनाया जा रहा है। इसलिए सबसे पहले महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर तीर्थ जो बिहार प्रान्त में नालंदा के पास है उसका विकास करके उसे विश्व के मानस पटल पर लाना हम सभी का प्रमुख कर्तव्य है। मेरी आप सबके लिए मंगल प्रेरणा है कि उस ओर ध्यान देकर कुण्डलपुर के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करें। आज २० फरवरी सन् २००२ के दिन मैं अपने संघ के साथ दिल्ली से कुण्डलपुर के लिए प्रस्थान कर रही हूँ। सो आप सबके लिए मेरा खूब जिनधर्म प्रभावना हेतु मंगल आशीर्वाद है।
(पुन: जय-जयकार के साथ विहार प्रारंभ। साथ में हैं ब्र. रवीन्द्र जी, सभी ब्रह्मचारिणी बहनें, संघपति महावीर प्रसाद जैन, प्रेमचंद जैन, अनिल जैन एवं तमाम पुरुष-महिलाएं)
ब्रह्मचारिणियों द्वारा सामूहिक गीत–

तेरी चंदन जी रज में, हम उपवन खिलायेंगे।
कुण्डलपुर के महावीरा, तेरा महल बनायेंगे।।टेक.।।
सोने का नंद्यावर्त महल, सिद्धारथ जी का था।
मणियों के पलंग पर, त्रिशला ने सपनों को देखा था।।
उन सपनों को सच्चे करके, फिर से दिखाएंगे।
कुण्डलपुर के महावीरा, तेरा महल बनाएंगे।।१।।

(तालियों की गड़गड़ाहट, जय-जयकार के स्वर)

सूत्रधार -सुनो वीरो! ज्ञानमती माताजी के इस ऐतिहासिक विहार ने पूरे देश की जनता को जागृत कर दिया और मथुरा, आगरा, फिरोजाबाद, इटावा आदि नगरों में सबको संप्रेरित करते हुए माताजी २००२ का चातुर्मास प्रयाग तीर्थ पर करके २९ दिसम्बर २००२ को कुण्डलपुर पहुँच गर्इं। बीच- बीच में भक्तों ने असीम उत्साह का परिचय दिया।

एक श्रावक – -सब मिलकर बोलें -आधी रोटी खाएंगे, कुण्डलपुर बनाएंगे। (३ बार)

दूसरा श्रावक – -देखो! माताजी की यह यात्रा महात्मा गांधी के दांडी मार्च से कम नहीं है। इनके साथ हम लोग भी कुण्डलपुर के विकास में अपना तन-मन-धन समर्पित करेंगे।

अन्य श्रावक – -भैय्या! आप सभी लोग २६०१ रुपये की राशि दान करें, कुण्डलपुर के विकास में आपका यह सहयोग बूंद-बूंद से घड़ा भरने के समान उपयोगी होगा।

एक वीरांगना –(नारा लगवाती है) तुम हमें सहयोग दो, हम तुम्हें तीर्थ देंगे। (तीन बार)

दूसरी वीरांगना –तीरथ विकास क्रम जारी है, अब कुण्डलपुर की बारी है। (तीन बार)

सूत्रधार -इसी जोश-खरोश ने शीघ्र ही ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा को साकार कर दिया कुण्डलपुर में। तभी तो वहाँ मात्र २ महीने की तैयारी में भी फरवरी २००३ के अंदर भगवान महावीर की आदम
कद सात हाथ अर्थात् साढ़े दस पुâट की एकदम सपेâद संगमरमर की प्रतिमा विराजमान हो गर्इं और विशाल पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के साथ महावुंâभ मस्तकाभिषेक महोत्सव बड़े धूम-धाम से सम्पन्न हुआ।
(कुण्डलपुर का दृश्य, चारों ओर भीड़-भाड़, भगवान का मस्तकाभिषेक करते इन्द्र-इन्द्राणी।)

पण्डित जी –(मंत्र बोलते हुए) ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं…….पवित्रतरजलेन महाकुम्भाभिषेवंâ करोमि स्वाहा।
(कई इन्द्र-इन्द्राणी क्रम-क्रम से अभिषेक कर रहे हैंं। संगीत चल रहा है।)

सूत्रधार -इस महोत्सव के बाद कुण्डलपुर में खूब तेजी से निर्माण चलता रहा और पूज्य ज्ञानमती माताजी ने सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र के लिए संघ सहित विहार कर दिया। वहाँ भी मार्च २००३ में भक्तों ने
माताजी के साथ पर्वतवंदना आदि का लाभ लिया। विशाल श्रावक सम्मेलन हुआ और वापस संघ अप्रैल में कुण्डलपुर आ गया। सन् २००३- २००४ के दो चातुर्मास माताजी ने कुण्डलपुर में किये। उनके इस प्रवास में सम्पूर्ण देशवासियों के सहयोग से वहाँ ‘‘नंद्यावर्त महल’’ नामक तीर्थ परिसर में अनेक मंदिरों के साथ-साथ सात मंजिल वाला विशाल नंद्यावर्त महल बन गया। (कुण्डलपुर के सभी चित्र दिखावें।)

एक महिला -भाई साहब! आपने यदि कुण्डलपुर के दर्शन न किये हों तो एक बार जऊश्र जाकर करना। जो कहीं भी नहीं देखने को मिला है, वह भी वहाँ मिलेगा।
जय बोलो महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर तीर्थ की जय। महावीर भगवान की जय, ज्ञानमती माताजी की जय। देखो! जैसे हिमालय की ऊँचाई, क्षीर समुद्र की गहराई, नील नदी की लम्बाई यदि कोई बालक अपनी नन्हीं-नन्हीं भुजाओं को उठा और पैâलाकर बताना चाहे तो वह सक्षम नहीं हो सकता। वैसे ही यहाँ हम लोग भी ज्ञानमती माताजी के अपरिमित व्यक्तित्व और कृतित्व को शब्दों में या मंचन के द्वारा नहीं पूर्ण कर सकते हैं। अत: इतना ही कहकर हम लोग आगे चलते हैं–

श्री ज्ञानमती माता द्वारा, जग ने प्रकाश जो पाया है।
जिनकी वाणी ने प्राणी के, अन्तस का अलख जगाया है।
उनका यश वर्णन चन्द शब्द, बोलो वैâसे कर सकते हैं।
शबनम की बूंदों के द्वारा, क्या सागर को भर सकते हैं।।१।।
यह सत्य अहिंसा की मूरत, युग युग तक ज्ञान प्रकाश करे।
जिस जगह आप डेरा डालें, शिवपुर सा वहीं निवास करें।।
है अभिलाषा सबके मन की, यह प्रभा सदा दिन दूनी हो।
भारत माता की गोदी, इस माता से कभी न सूनी हो।।२।।

जन-जन करते चर्चा जिनके, अनुपम कार्यकलापों की

भारत का नक्शा और उसके बीच में भारतमाता के ऊश्प में तिरंगा झण्डा लेकर सपेâद साड़ी पहने हुई लड़की, साथ में लगभग १५-२० स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ हाथों में तिरंगा और केशरिया ध्वज लेकर संगीत ध्वनि के साथ मंच पर सामूहिक प्रवेश करते हैं। बीच में भारतमाता एवं चारों तरफ सभी लोग खड़े हो जाते हैं पुन: सामूहिक नृत्य शुऊश् होता है।

सामूहिक गान –(इसमें हाव-भाव के द्वारा गीत के सभी भावों को अलग-अलग पात्र प्रदर्शित करें)

मेरे देश की धरती ज्ञानमती माता से धन्य हुई है
मेरे देश की धरती…….।।टेक.।।
यह कृषि प्रधान है देश यहाँ, ऋषियों की तपस्या चलती है। ऋषियों…..
यहाँ संस्कारों के उपवन में, मानवता छिप-छिप पलती है।।मानवता…..
जहाँ सत्य, अहिंसा पालन की पावनता मान्य हुई है,
मेरे देश की धरती……….।।१।।
जब तीर्थ अयोध्या की वसुधा, सुख शान्ति अमन थी चाह रही।सुख…..
तब ज्ञानमती माँ को पाकर, जनता को खुशी अपार हुई।।जनता……..
प्रभु आदिनाथ के महामहोत्सव, से वह धन्य हुई है,
मेरे देश की धरती…………।।२।।
हस्तिनापुरी में जम्बूद्वीप, रचना तुमने साकार किया । रचना………
इन्दिराजी को आशीर्वाद दे, ज्योति प्रवर्तन करा दिया। हां ज्योति प्रवर्तन….
उसके स्वागत में हर प्रदेश की, जनता धन्य हुई है,
मेरे देश की धरती…………।।३।।
साहित्य रचा शिष्यों को बना, चेतन निर्माण किया तुमने। चेतन…….
‘‘चन्दनामती’’ तव कृतियों की, यशसुरभी पैâल रही जग में।।यश…….
युग-युग तक अमर रहेगी तू, ब्राह्मी माँ सदृश हुई है,
मेरे देश की धरती………..।।४।।

सूत्रधार -देखो! यह भारतमाता अपनी अनमोल निधि ज्ञानमती माताजी के प्रति वैâसी कृतज्ञता प्रगट कर रही है। करे भी क्यों न, इन्होंने अपने दीर्घकालीन दीक्षित जीवन में अपने अनोखे कार्यकलापों द्वारा
भारतमाता का जो सम्मान बढ़ाया है, उससे उसे अपनी पुत्री पर गर्व है। पूरे देश में विहार कर-करके जो धर्मप्रभावना, निर्माण प्रेरणा, तीर्थ विकास, शिष्य निर्माण, चारित्र निर्माण आदि के द्वारा इन्होंने जो अमिट छाप डाली है, उसी वात्सल्य का प्रतीक है कि यहाँ सभी प्रदेशों के लोग इनकी दीक्षा स्वर्ण जयंती मनाने आए हैं।
ये दिल्ली के लोग हैं न, ये माताजी को सबसे ज्यादा अपना समझते हैं तभी तो भारतमाता के सामने अपनी बात कहने के लिए बड़ी उत्सुकता से आगे आ रहे हैं। चलिए, आइए! आप क्या कह रहे हैं?

एक श्रेष्ठी -हम दिल्ली वाले तो आज ३४ वर्ष से इनके कार्यकलापों को देख रहे हैं। इनकी लेखनी और ज्ञान का लोहा तो अच्छे-अच्छे विद्वान भी मानते हैं।

अन्य श्रावक – -अरे! इनकी कृपा से ही तो हम लोगों को दिल्ली में पूज्य आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के संघ का दर्शन करने का सौभाग्य मिला। वे तो अलवर से वापस राजस्थान जा रहे थे, तब ज्ञानमती माताजी ने ही हम लोगों को आचार्यश्री के पास श्रीफल चढ़ाने भेजा था।

श्राविका –इसीलिए तो सन् १९७४ में महावीर स्वामी का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव बड़े धूमधाम से मना था। जहाँ साधुओं के संघ का सानिध्य होता है, वहाँ के आयोजन में तो चार-चांँद लग ही जाते हैं।

दूसरे श्रेष्ठी –अरे! यह तो बड़ी पुरानी बातें हो गर्इं। उसके बाद तो इन्होंने अभी सन् १९९७ में चौबीस कल्पद्रुम विधान करवाकर धूम मचा दी थी, दो-दो बार प्रधानमंत्री जी आए, राज्यपाल-मुख्यमंत्री कई बार आए। इतने बड़े-बड़े आयोजन कराना क्या सबके बस की बात है!

महिला –देखो न! महिलाओं में कितनी क्रांति आ गई है इनकी पे्ररणा से। पूरी दिल्ली क्या, देश भर महिलासंगठन की सैकड़ों इकाई समितियों ने धूम मचा रखी है।

श्रावक – -दिल्ली के कनॉटप्लेस क्षेत्र में देखो कितना सुन्दर कीर्तिस्तंभ, पावापुरी की रचना, नजफगढ़ में भरतक्षेत्र की रचना, प्रीतविहार में कमल मंदिर का निर्माण कराया है और हाँ, दिल्ली के पास ही हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना बनने के बाद तो दुनिया के लोग इन्हें जम्बूद्वीप वाली ज्ञानमती माताजी कहते हैं।

सूत्रधार -(दिल्ली वालों की ओर देखते हुए) अभी कितने लोग हैं दिल्ली के। अरे भइया! मुझे पता है कि इन माताजी के उपकारों को तो दो-चार लोगों के द्वारा बताया नहीं जा सकता है किन्तु अब मैं क्या कऊश्ँ? अपनी भारत माता के सामने ये कई प्रदेश से पधारे लोग भी अपनी-अपनी बात कहना चाहते हैं। आइए, आप पश्चिमी उत्तरप्रदेश के गणमान्य महानुभावों! आप लोग अपनी भावना व्यक्त कीजिए।

श्रावक – -हे भारतमाता! मैं ज्यादा नहीं, बस इतना कहना चाहता हूँ कि हमारे हस्तिनापुर तीर्थ को ज्ञानमती माताजी ने विश्वभर में प्रसिद्ध कर दिया है। अगर वे यहाँ जम्बूद्वीप की रचना न बनातीं, तो विदेशी पर्यटक और शोधकर्ता विद्वान् यहाँ भला क्यों आते?

श्रावक – -ये अच्छी-अच्छी सड़वेंâ और रोडवेज बसें तो सन् १९८५ से उत्तरप्रदेश सरकार ने जम्बूद्वीप रचना उद्घाटन के समय से उपलब्ध कराई हैं।

श्राविका –इसीलिए अब यात्रियों को हस्तिनापुर की यात्रा में कोई दिक्कत नहीं होती है। हम लोग तो मेरठ से बैठते हैं और बस से सीधे जम्बूद्वीप गेट पर आकर उतरते हैं।

श्रावक – -अरे भाई! केवल हस्तिनापुर की बात ही आप लोग क्यों कर रहे हो? हमारे खतौली में भी सन् १९७६ में ज्ञानमती माताजी का चातुर्मास हुआ था।

श्राविका –वहाँ तो इन्होंने शिक्षण शिविर, प्रवचन, अध्ययन कक्षा आदि के द्वारा जो सच्चे ज्ञान का अमृत सबको पिलाया था, उसको आज भी लोग याद करते हैं।

श्रावक – -सबसे बड़ा काम तो उस चातुर्मास में इन्द्रध्वज विधान के निर्माण का बना है। हमें याद है कि माताजी २२ घंटे मौन रहकर इन्द्रध्वज विधान को लिखती थीं और शाम ५ बजे जब उनका मौन खुलता था, तब उनकी अमृतवाणी सुनने के लिए नीचे से ऊपर तक भक्तों की भीड़ को लाइन लगाकर दर्शन मिल पाते थे।

श्रावक – -हमारे सरधना नगर में भी सन् १९९१ में इनके संघ का चातुर्मास हुआ था, तब बड़ा भारी सर्वतोभद्र विधान हुआ, कई नेता इनके पास आए और खूब लाभ लिया सरधनावासियों ने।

श्राविक –यूँ तो बड़ौत शहर में भी ज्ञानमती माताजी एक बार आर्इं, डेढ़ महीने सबको इनका सानिध्य भी मिला किन्तु चातुर्मास तो होते-होते रह गया और सरधना वाले बाजी मार ले गये।

श्रावक – -देखो जी! इस बारे में ज्ञानमती माताजी से हम लोगों की एक शिकायत भी है कि हम लोग अनेक वर्षों से मेरठ चातुर्मास के लिए क्यू लाइन में खड़े हैं, हमारा नम्बर ही नहीं आता है, सो अब हमारे मेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर आदि पश्चिमी उत्तरप्रदेश के नगरों में भी इस संघ का भ्रमण होना चाहिए, ताकि हम भी इनकी पवित्र ज्ञानगंगा में स्नान कर सवेंâ।

सूत्रधार -इनकी सुन-सुन करके पूर्वी उत्तरप्रदेश के स्त्री-पुरुष भी शायद कुछ शिकायत करना चाहते हैं। देखो! अब तुम लोग ऐसी बात कहो, जो संभव हो। ज्ञानमती माताजी अब ७२ वर्ष की हो रही हैं, स्वास्थ्य और शारीरिक शक्ति भी तो इनकी देखो कि अब वैâसे जगह-जगह जा सकती हैं?

श्रावक – -(हँसते हुए) अरे भइया! तुम नहीं जानते हो, इनकी आत्मशक्ति बड़ी प्रबल है। हमारे अवधप्रान्त में ये जन्मी हैं तो हमें बड़ा गौरव है इन पर, लेकिन वहाँ ४० साल के बाद सन् १९९३ में जब गर्इं तो अयोध्या का खूब उद्धार किया, उसे राम जन्मभूमि के समान ही ऋषभ जन्मभूमि के नाम से विश्वविख्यात कर दिया।

सामूहिक स्वर -जैनं जयतु शासनम्-वन्दे ज्ञानमति मातरम् (३ बार)

श्राविका –अयोध्या और टिवैâतनगर में १-१ चातुर्मास भी करके थोड़ी शिकायत तो इन्होंने उधर की दूर की है किन्तु अभी हम लखनऊवासियों को एक चातुर्मास का संयोग और मिलना चाहिए ताकि राजधानी के लोग भी अपनी अमूल्य निधि से निकटतम परिचित हो सवेंâ।

श्रावक – -और हम बाराबंकी वाले जो वर्षों से पीछे लगे हैं तो क्या तुम हमसे आगे निकलने की सोच रहे हो? अरे! बाराबंकी तो इनकी असली जन्मभूमि ही माननी चाहिए, क्योंकि सबसे पहले सन् १९५२ में वहीं पर इन्होंने ब्रह्मचर्यव्रत, सात प्रतिमा और गृहत्याग का व्रत लेकर बाराबंकी को अतिशयक्षेत्र का ऊश्प दिया था। कई साधुओं के वहाँ चातुर्मास हो चुके हैं, अब ज्ञानमती माताजी का एक चातुर्मास मांगना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है इसलिए हे भारत माता! अब सबसे पहले हमारे अधूरेपन को पूरा कीजिए, यही निवेदन लेकर हम लोग आए हैं।
(श्रीफल सहित हाथ जोड़कर निवेदन करते हुए)

सूत्रधार -(चिंताजनक मुद्रा में) वैâसी-वैâसी समस्याएं लोग उपस्थित कर रहे हैं भारत माता के सामने, कहीं माँ घबरा न जाए इन सबकी जिदभारी बातें सुनकर। अच्छा भाई! सीधे-सादे खड़े राजस्थान के भाई-बहनक्या अपील कर रहे हैं, सुनिये–

पगड़ीधारी श्रावक – -म्हारी तो भाई कांई समस्या कोनी। म्हारे राजस्थान में तो पेलां पेलां जयपुर, अजमेर, ब्यावर, लाडनूं, सुजानगढ़, सीकर, प्रतापगढ़ नगरां मां खूब चातुर्मास हुआ इनका। आज तलक भी वहाँ का लोगा माताजी ने याद करे, इन्हीं का खूब विधान रचावें और जब मौका मिले हम सब उठे आर इनका दर्शन कर लेवां। महावीर जी शांतिवीर नगर, खेरवाड़ा, केशरिया जी, केकड़ी, लावा, झालरापाटन, सवाई माधोपुर, माधोराजपुरा आदि अनेक गांवा मां इनकी प्रेरणा से निर्माण भी हुआ है।

लहंगा लुगड़ी वाली श्राविका –आ भी तो विशेष बात बताणूं चाहिए कि इनकी दीक्षा म्हारे राजस्थान में ही हुयी है।

दूसरी श्राविका –और क्या! यह बहन सच तो कह रही है। सबस पहले महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर सन् १९५३ में बीसवीं सदी की पहली वुंâआरी कन्या को दीक्षा देकर आचार्य श्री देशभूषण महाराज ने इन्हें ‘‘क्षुल्लिका वीरमती’’ बनाया। फिर सन् १९५६ में भी राजस्थान का ही माधोराजपुरा नगर है, जहाँ आचार्य वीरसागर जी से आर्यिका दीक्षा लेकर ‘‘ज्ञानमती’’ नाम प्राप्त किया।

श्रावक – -इसका मतलब यही तो है ना, कि राजस्थान वालों को इन पर सबसे ज्यादा अधिकार होना चाहिए। अब हमारे माधोराजपुरा मेंइनका एक चौमासा होना चाहिए। क्योंकि वहाँ तो एक भी चौमासा नहीं हुआ है।

सूत्रधार -देखो! अब मैं तो इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकता। साधुओं का पदार्पण तो बड़े भाग्य से अपने नगर में होता है और आप बार-बार पुरुषार्थ करते रहो तो कुछ असंभव भी नहीं है। क्यों भाई! महाराष्ट्र के भक्तों! आपके यहाँ माताजी का चातुर्मास हो चुका है न, इसीलिए आप लोग इतने भक्त हैं इनके। आपकी क्या मनोभावना है? बताइए।

सामूहिक स्वर –जय बोलो ज्ञानमती माताजी की जय, मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र की जय।

श्रावक – -वास्तव में हम लोग तो बहुत भाग्यशाली हैं क्योंकि हमारे महाराष्ट्र में एक बार तो सन् १९६६ में सोलापुर में इनका चातुर्मास हुआ और दुबारा सन् १९९६ का मांगीतुंगी में हुआ चातुर्मास तो ऐतिहासिक ही रहा है। वहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, सहस्रवूâट कमल मंदिर का निर्माण तो बहुतछोटी बात है लेकिन मांगीतुंगी के पर्वत पर इनकी प्रेरणा से जो विश्व की सबसे ऊँची १०८ पुâट की प्रतिमा बन रही है, वह जब बन जाएगी फिर तो दुनियाभर से इस तीर्थ पर लोगों का आना-जाना हो जाएगा।

सूत्रधार -जय बोलो ऋषभदेव भगवान की जय, ज्ञानमती माताजी की जय। बाप रे बाप! इतनी बड़ी प्रतिमा, अब इसके आगे तो कुछ भी कहना बहुत छोटा लगेगा। इसलिए ‘‘गणिनी ज्ञानमती भक्तमण्डल-महाराष्ट्र’’ के भक्तों! आप तो राष्ट्र क्या महाराष्ट्र में जन्म लेकर सचमुच महा सौभाग्यशाली हो गये हो।
(एक ओर उंगली दिखाकर) वो देखो! कर्नाटक के भाई भी हाथ उठाए खड़े हैं। चलो, आप भी अपनी कह लो।O MISTER! What do you want to tell. Please, tell to BHARAT MATA .

एक व्यक्ति –(दक्षिणी शैली में बोलें) ओ भारतमाता!। हम तुमसे बताना चाहता है कि हमारा श्रवणबेलगोला तीर्थ पर १९६५ में ज्ञानमती अम्मा का चातुर्मास हुआ, तब गोम्मटेश भगवान का पास अम्मा ध्यान किया। उस ध्यान में जम्बूद्वीप मिला। इसलिए अम्मा का साथ-साथ जम्बूद्वीप भी मूल में हमारा बोले तो कोई गल्ती नहीं है।

श्राविका –हमारा पुराना भट्टारक स्वामी जी भी उधर बोलता था कि जम्बूद्वीप रचना हमको इधर भी बनाने का था, लेकिन ज्ञानमती माताजी इधर आ गये इसीलिए रचना इधर बन गया।

श्रावक – -उधर कन्नड़ में ज्ञानमती माताजी का लिखा बारहभावना हम लोग रोज पढ़ते हैं।

सामूहिक स्वर –अरसर वैभव सुरर विमानव, धन यौवन संपद वेल्ला। निरुतवु नेनेदरे इन्द्रिय भोगवु, येन्दु निल्लदु स्थिर वेल्ला।।

सूत्रधार -समझ में आया कि ये कर्नाटक वाले क्या बोल रहे हैं। इन सब लोगों को माताजी की बनाई हुई कन्नड़ बारहभावना देखो! कितनी अच्छी याद है। जय बोलो बाहुबली भगवान की जय।
भाई साहब! यहाँ पर मध्यप्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, आसाम, बंगाल, बिहार, झारखंड सभी तरफ के भक्त कुछ न कुछ भाव व्यक्त करना चाह रहे हैं किन्तु क्या कऊश्ँ? अपने पास समय की बड़ी कमी है।चलो, जल्दी-जल्दी इनके भी एक-एक विचार सुन लें। तो आइए, मध्यप्रदेश के भक्तों।

एक व्यक्ति –हमारे मध्यप्रदेश के सनावद का नाम तो माताजी के साथ छाया के समान जुड़ा है। इन्होंने सन् १९६७ में हमारे यहाँ चातुर्मास करके ब्र. मोतीचंद जी को घर से निकालकर संघ में सम्मिलित किया, उन्होंने प्रमुखऊश्प से जम्बूद्वीप बनाने की जिम्मेदारी ली और आज भी वे माताजी के शिष्य बनकर क्षुल्लक मोतीसागर के ऊश्प में जम्बूद्वीप के पीठाधीश नाम से प्रसिद्ध हैं।

महिला -उसके बाद सन् १९९६ में माताजी मांगीतुंगी जाते समयजब दुबारा सनावद गर्इं तो वहाँ भी इनकी प्रेरणा से ‘‘णमोकार धाम’’ नाम से एक सुन्दर तीर्थ मेनरोड पर बनाया गया है।

सूत्रधार -भइया! मेरा तो सिर चक्कर खाने लगा है इस पर्वतीय व्यक्तित्व के कार्य सुन-सुनकर, कि आखिर इनकी माँ ने इन्हें जन्मघूंटी में कौन सी शक्तिवर्धक दवा पिलाई थी जो नारी की काया में पुरुषों सेभी ज्यादा धर्म का अलख जगा रही हैं। तभी तो कहते हैं–

सच तो इस नारी की शक्ती, नर ने पहचान न पाई है।
मंदिर में मीरा है तो वह, रण में भी लक्ष्मी बाई है।।
है ज्ञानक्षेत्र में ज्ञानमती, नारी की कला निराली है।
सब पूछो नारी के कारण, यह धरती गौरवशाली है।।

(तालियों की गड़गड़ाहट, जयकार का सामूहिक स्वर)

एक व्यक्ति -(बीच में आकर) हम बुन्देलखण्ड से आये हैं। हमारे क्षेत्र में तो माताजी का पदार्पण ही नहींr हुआ है। कब हमारा भाग्य खुलेगा, जब हमारे यहाँ की जनता को ज्ञानमती माताजी के साक्षात्च रण वहाँ की धरती पर पड़ेंगे।

दूसरा व्यक्ति -हम तमिलनाडु के लोग भी यही निवेदन करने आये हैं कि माताजी एक बार तमिलनाडु में जऊश्र पधारें। हमारे तिरुमलय के भट्टारक जी तो इन्हीं से पढ़े हैं, वे इनकी बड़ी तारीफ करते हैं।

तीसरा व्यक्ति -(सिर ठोकते हुए) हम लोग आसाम में इनके प्रवचन रोज टी.वी. पर सुनते हैं क्या करें, जब ये वहाँ जाती ही नहीं हैं। कई बार तो हम टी.वी. मंदिर में लगाकर इनका प्रवचन सामूहिक ऊश्प में सबको दिखाते-सुनाते हैं। आज साक्षात् दर्शन करके बड़ी खुशी हुई है।

सूत्रधार -ये लो! अब तो सब अपने-आप ही भाग-भागकर आ रहे हैं और भारतमाता के सामने गुजारिश करके अपना मन हल्का कर रहे हैं। तो अब, आइए गुजराती बाबू।

श्रावक – -मारा गुजरात मां ज्ञानमती माताजी ना बहु नाम छे।माताजी गुजरात मां सन् १९९७ जनवरी मां पधारीं, तब तेमनी प्रेरणा थी तारंगा जी सिद्धक्षेत्र मां बहु विशाल भगवान ऋषभदेव नी ग्रेनाइट प्रतिमा विराजमान थई ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पण थई गई। एमना चरणकमलमां वधा गुजराती जैन समाज बारम्बार वंदामि अण विनयांजलि अर्पण करवा माटे अइयां आव्या छे।

श्रेष्ठी -(जल्दी से आगे आकर) यह क्या! सभी प्रदेश के लोग अपनी-अपनी बात बता रहे हैं और हम कलकत्ता वाले जो माताजी के सबसे पुराने भक्त हैं, उनको अभी मौका ही नहीं मिला।

सूत्रधार -सॉरी प्लीज! बोलिए आप।

श्रेष्ठी -ज्ञानमती माताजी ने जब आचार्य शिवसागर महाराज के संघ से सम्मेदशिखर और दक्षिण भारत की यात्रा के लिए सन् १९६२ में अपना आर्यिका संघ बनाकर अलग विहार किया था, तो सबसे पहले सन् १९६३ में इनका चातुर्मास कलकत्ता में ही हुआ था।

महिला -माताजी ने याद तो जरुर होसी।

पुरुष -उस समय केवल २९ वर्ष की उम्र में ही ज्ञानमती माताजी ने अपनी ज्ञानदृढ़ता और प्रौढ़ता के बल पर कलकत्ता की पूरी समाज पर जो छाप छोड़ी थी, वह वास्तव में ऐतिहासिक है। हम लोग चाहते हैं कि एक बार इस संघ का पुन: चातुर्मास कलकत्ता में हो जाए तो नवयुवकों में नई प्रेरणा जग जाने से भारी धर्मप्रभावना हो जाएगी।

श्रावक – -अब तो मैं भी जऊश्र बोलूँगा, क्योेंकि इसके बाद श्रवणबेलगोला की ओर जाते हुए माताजी ने सन् १९६४ का चातुर्मास हैदराबाद-आंध्रप्रदेश में किया था। हम उस समय नये-नये युवक के ऊश्प में देखते थे कि माताजी के द्वारा वहाँ सबसे बड़ी संख्या में पूजा-विधान के आयोजन कराये गये थे, और भी न जाने कितने प्रभावना के कार्य हुए थे। अभयमती माताजी की क्षुल्लिका दीक्षा तो वहाँ के लिए एक नया इतिहास ही था।

श्राविका –तब से लेकर आज तक हम लोगों का कट्टर नियम है कि माताजी कहीं भी हों, हम साल में कम से कम एक बार इनके जऊश्र दर्शन करने जाते हैं और माताजी का हमारे परिवार पर खूब आशीर्वाद रहता है।

सूत्रधार –

यह केवल घर का दीप नहीं, यह तो दुनिया का दीपक हैं।
इनसे आलोकित नगर हमारे, जन मानस आलोकित हैं।।
हम केवल शब्दों के द्वारा, क्या अभिनंदन कर सकते हैं।
बस श्रद्धा के पुष्पों द्वारा, भावांजलि अर्पण करते हैं।

(तालियों की गड़गड़ाहट और जय-जयकार की ध्वनि)
अब आप सुनें बिहार प्रदेश के भक्तों की बात।

श्रावक – -हमारे बिहार की तो काया ही पलट दी ज्ञानमती माताजी ने। हम तो सोच भी नहीं सकते थे कि केवल दो सालों में इतना भारी काम बिहार के तीर्थों पर हो जाएगा।

श्राविका –अरे बहनों! हमने तो इनका खूब चमत्कार देखा है कुण्डलपुर में। वहाँ शुऊश्-शुऊश् में ऐसे जंगली काले-काले बड़े-बड़े बिच्छू, गोह, सांप और कानखजूरे निकलते थे कि लोग देखकर ही डर जाते थे। लेकिन माताजी ने सबसे पहले तो वहाँ काम करने वाले कर्मचारियों को नियम दे दिया कि कोई किसी जीव को मारने की कोशिश नहीं करेंंगे, फिर उन्होंने सरसों मंत्रित करके पूरे परिसर में डलवा दी। तब तो चमत्कार ही हो गया कि जीव ही निकलने बंद हो गये।

श्रावक – -कुण्डलपुर तीर्थ पर नंद्यावर्त महल, महावीर मंदिर, ऋषभदेव मंदिर, नवग्रह मंदिर और त्रिकाल चौबीसी का विशाल मंदिर बनाना भी तो क्या किसी चमत्कार से कम है!

दूसरा श्रावक – -इनके साथ-साथ वहाँ सुन्दर धर्मशाला, भोजनालय आदि सब कुछ सुविधाएँ तो हो गई हैं वहाँ, इसीलिए तो अब यात्री वहाँ ठहरकर बड़े खुश होते हैं।

तीसरा श्रावक – -भाई साहब! इसी कुण्डलपुर यात्रा के बीच में माताजी सन् २००३ में सम्मेदशिखर भी तो गई थीं। पूरे ४० साल के बाद सम्मेदशिखर में उनका पदार्पण हुआ था।

श्राविका –तब हम भी बनारस से शिखर जी गये थे और माताजी के साथ पहाड़ की वंदना करके बड़ा आनंद आया था।

दूसरी महिला हम लोग भी उनकी वजह से ही आरा से गये थे। गुरुओं के साथ यात्रा करने में मजा तो आता ही है, पुण्य भी ज्यादा मिलता है।

श्रावक – -इन सबके साथ-साथ शिखर जी में माताजी की प्रेरणा से एक पर्मानेंट उपलब्धि हुई उस तीर्थ पर।

श्राविका –अच्छा समझ गई! वही न, जो बाहुबली चौबीस टोंक रचना के पास मैदान में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का मंदिर बना है। उसका तो पंचकल्याणक भी सन् २००५ दिसम्बर में हो चुका है।

श्रावक – -वह विशाल प्रतिमा ऋषभदेव की बड़ी सुन्दर है। उनके दर्शन करके सभी को जैनधर्म की प्राचीनता का ज्ञान होगा।

सूत्रधार -ये देखो! हिन्दुस्तान के तमाम लोगों की बातें सुन-सुनकर अमेरिका से भी कुछ भक्त लोग ज्ञानमती माताजी के गुणगान करने आ गये हैं। आओ भाई! आप भी माताजी से परिचित हैं क्या?

महिला (विदेशी ऊश्प वाली) भारतवासियों! आप तो ज्ञानमती माताजी को बाहर-बाहर से जानते होंगे, लेकिन (थोड़ा रुक-रुक कर) मैंने तो प्रâांस यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च स्कॉलर के ऊश्प में इनसे सन् १९७६-७७ में बहुत गहराई से ज्ञान प्राप्त किया है और इनकी पूरी साध्वी चर्या देखकर अपनी थिसिस में उस बात को लिखा भी है।

सूत्रधार -अच्छा! तो क्या आप प्रâांस की एन.शांता जी हैं?

महिला -यश यश! थैंक यू-थैंक यू।

दूसरी विदेशी महिला I am also a research scholar of Verzinia University. I had come to Gyanmati Mataji in 1998 for taking guidance of my research work about Jain Sadhvi.

सूत्रधार -अरे वाह! तब तो आपने भी अपनी थिसिस में कुछ न कुछ लिखा होगा। यहाँ तो और भी रिसर्च स्कॉलर हैं जिन्होंने ज्ञानमती माताजी के ज्ञान से लाभ प्राप्त किया है, लेकिन अब मैं अमेरिका से आए एक महानुभाव को प्रस्तुत कर रहा हूँ, देखिए! ये क्या कह रहे हैं?

पुरुष -जय हो भारत माता की जय हो। हे माँ! मैं हूँ तो हिन्दुस्तानी ही, बस अमेरिका में रहकर थोड़ा बहुत धर्म का भी काम कर लेता हूँ। अमेरिका में सन् २००० अगस्त में संयुक्तराष्ट्र संघ ने सहस्राब्दि के एक अद्वितीय ‘विश्वशांति शिखर सम्मेलन’ का आयोजन किया था। उस समय वहाँ ७० देशों से हिन्दू एवं अन्य सभी धर्मों के लगभग १५०० धर्मगुरुओं ने भाग लिया था, तब ज्ञानमती माताजी ने भी अपने शिष्य कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जैन को वहाँ जैनधर्माचार्य के ऊश्प में भेजा था। तब वहाँ इनके भाषण से लोगों ने जैनधर्म के साथ-साथ भगवान ऋषभदेव के बारे में भी जाना था।

सूत्रधार -मेरे प्यारे देशवासियों! आप सभी ने अनेक प्रदेश के लोगों से ज्ञानमती माताजी के कार्यकलापों को सुना है। वास्तव में इनका जीवन एक सूर्य के समान है जो स्वयं तपकर संसार को प्रकाश देता है, एक पेड़ की तरह है जो निष्पक्ष ऊश्प से सबको सुखद छाया प्रदान करता है और मिश्री की भांति है जो सभी को मिठास अर्थात् हित का मार्ग प्रदान करती है। भारत माता-मुझे गौरव है कि मेरी जिस गोद में आज से करोड़ों, लाखों और हजारों वर्ष पहले अनेक तीर्थंकर आदि महापुरुषों के साथ ब्राह्मी, सुन्दरी, सुलोचना, सीता, अनंतमती और चंदना जैसी महान सती आर्यिकाएँ खेली हैं, उसी गोद का गौरव बीसवीं सदी में ज्ञानमती माताजी ने वृद्धिंगत किया है। अब वह क्वांरी कन्याओं की आर्यिका परम्परा पंचमकाल के अंत तक निर्बाधऊश्प से चलती रहेगी। यही ज्ञानमती माताजी के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हमारे देश के लिए है।

सब मिलकर बोलो-जैनं जयतु शासनम्, वन्दे ज्ञानमति मातरम्।
अंत में सामूहिक नृत्यगान के साथ समापन करें।

Tags: Gyanmati mata ji
Previous post उत्तम आकिंचन धर्म नाटिका Next post कुण्डलपुर के राजकुमार महावीर

Related Articles

सुनते हैं चन्दा की शीतल, किरणों से अमृत झरता है!

June 16, 2020jambudweep

ज्ञानमती माँ को वंदन कर लो!

June 15, 2020jambudweep

तव चरणों में नमन हमारा करो मात स्वीकार!

June 15, 2020jambudweep
Privacy Policy