अनादिकाल से ही सराक क्षेत्र तीर्थङ्करों की जन्मभूमि, विहार स्थली, तपोभूमि एवं निर्वाणभूमि के रूप में पूज्य रहा है। इस क्षेत्र के नगरों के नाम भगवान् महावीर की कीर्ति गाथा के प्रत्यक्ष साक्षी हैं।
सराक मूलतः जैन थे, सराक तीर्थङ्करों द्वारा प्रवर्तित श्रावकधर्म को मानने वाले थे। प्राचीनकाल से लेकर आज तक सराकों के आचार विचार, सभ्यता-संस्कृति में जैनधर्म की छाप अभी तक नहीं मिटी है।
हजारों हिंसक माँसाहारी वन्य पशुओं के बीच रहते हुए भी हिरण अपने को तृण भोजी बनाकर रखता है। उसी प्रकार आज लगभग ढाई तीन हजार वर्ष से जंगल में माँसाहारी पड़ोसियों के बीच रहते हुए भी जैनधर्म के प्रति अगाध श्रद्धा तथा भक्ति रहने के कारण यह सराक जाति आज तक अपनी सभ्यता-संस्कृति से स्खलित नहीं हुई है। इसी 9. 10 और 13 दिन का सूतक पातक मानते हैं। कारण अपने प्राचीन सराक भाईयों को सामाजिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक विकास हेतु संरक्षण मिल रहा है।
वे दिगम्बर आम्नाय के अनुसार पूजा-पाठ, णमोकार मंत्र का जाप आदि करते हैं। इनके कुलदेवता आराध्य भगवान् पार्श्वनाथ हैं ।
सराक जाति के विशेषताएँ –
1. अष्ट मूलगुणों का पालन करते हैं।
2. शादी, विवाह अपने समाज में ही करते हैं।
3. बाहर जाने पर घर का ही भोजन करते हैं।
4.जीव दया का पूरा विचार किया जाता है।
5. सरल स्वाभावी हैं तथा अतिथि सत्कार बड़े ही उत्साह के साथ करते हैं।
6. बिना स्नान किए वे भोजन नहीं बनाते और न ही बिना स्नान के भोजन करते हैं।
7. उनमें आज तक किसी ने ऐसा कार्य नहीं किया या कोई भी अपराध नहीं किया जिससे उन्हें जेल जाना पड़े।
8. दैनिक व्यवहारों में काटो, मारो शब्दों का प्रयोग नहीं करते।
10. इनके पूर्वज होटल में भोजन नहीं करते थे, अगर कोई होटल में या बाहर कहीं भी भोजन करता था, तो सराक पंचायत उसे दण्ड देती है।
11. दूज, पंचमी, अष्टमी, ग्यारस, चतुर्दशी आदि तिथियों को हरी सब्जी चौके में नहीं बनती है।
परम पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने इनके उद्धार का संकल्प लिया। उनका यह संकल्प समानता, , मानवता, सहिष्णुता और संस्कृति संरक्षण का संकल्प है। सराक क्षेत्र के पुरजनों ने भी पीछे-पीछे चलकर पुनः श्रावकधर्म ध्वजा को अपने हाथों में लेकर पूज्य श्री के सपने को साकार करने का आश्वासन देकर स्वयं को पुनः धर्म मार्ग पर आरूढ़ कर लिया।