जैन समाज के सभी आम्नाओं के लिए एक जैन ध्वज हो, ऐसा एक प्रस्ताव सभी जैन सम्प्रदायों के लिए लम्बे अरसे से विचारणीय था। अत वर्ष 1971 ई में आचार्य श्री विद्यानन्दजी मुनि श्री कान्तिसागरजी मुनि श्री सुशीलकुमारजी मुनि श्री महेन्द्रकुमारजी जैन समाज के इन चारों मुनिराजों ने दिल्ली स्थित वैद्यवाडा, श्री दिगम्बर जैन धर्मशाला में जैन शासन ध्वज के सम्बन्ध में विचार विमर्श करते हुए ऐतिहासिक एवं धार्मिक प्रामाणिकता के आधार पर पांच रंगों के ध्वज को सर्वसम्मति से अनुमोदित कर ऐतिहासिक निर्णय के साथ विश्व जैन समाज को ध्वज प्रदान किया, जिसका भगवान् महावीर स्वामी के 2500 वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर वर्ष 1974 75ई में व्यापक प्रचार प्रसार हुआ।
यह ध्वज आकार में आयताकार है तथा इसकी लम्बाई व चौड़ाई का अनुपात 3:2 है।
इस ध्वज में पाँच रंग हैं- लाल, पीला, सफेद, हरा और गहरा नीला। लाल, पीले, हरे, नीले रंग की पट्टियाँ चौड़ाई में समान हैं तथा सफेद रंग की पट्टी अन्य रंगों की पट्टी से चौड़ाई में दुगुनी होती है।
ध्वज के बीच में जो स्वस्तिक है, उसका रंग केसरिया है। जैन समाज के इस सर्वमान्य ध्वज में पाँच रंगों को अपनाया गया है। ये पाँच रंग पंच परमेष्ठी के प्रतीक माने गए हैं।
श्वेत रंग – अर्हन्त परमेष्ठी
लाल रंग – सिद्ध परमेष्ठी
पीला रंग – आचार्य परमेष्ठी
हरा रंग – उपाध्याय परमेष्ठी
नीला रंग – साधु परमेष्ठी
स्फटिकं श्वेतं रक्तं च पीत-श्यामनिभं तथा ।।
एतत्पञ्चपरमेष्ठिनः पञ्चवर्णं यथाक्रमम्।
जैन ध्वज पञ्च परमेष्ठी के प्रतीक के साथ साथ विश्व धर्म विश्वप्रेम , विश्व शान्ति का भी उद्घोषक है ध्वज चेतना, श्रद्धा,समर्पण का प्रतीक है। ध्वज गौरव और गरिमा से मण्डित उज्जवल आदर्शों संकल्पों के साथ साथ एकता अखण्डता का प्राण है। ध्वज को जिनशासन की प्रभावना का प्रतीक माना जाता है।
जैन ध्वज की मध्य पट्टिका पर अंकित स्वस्तिक जहाँ प्राचीनता को दर्शाता है, वही प्राणी के लक्ष्य को भी दर्शाता है तथा चतुर्गति का भी प्रतीक है।