विद्याष्टकम् युगश्रेष्ठ आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की स्तुतिपरक संस्कृत भाषा में लिपि बद्ध एक अनूठा काव्य ग्रन्थ है।
आचार्यश्री के अन्तेवासी शिष्य पूज्य मुनि श्री नियमसागरजी महाराज ने विश्व को दिगम्बर अवस्था की सुयोग्यता प्रदर्शित करते हुए जैन संस्कृति एवं धर्म पताका को चिरंजीवी करने हेतु सम्पूर्ण मानव जगत पर करुणा कर इस कृति की रचना की है।
विद्याष्टकम में संस्कृत की सबसे क्लिष्ट विधा चित्रालंकार तथा उसमें में भी अत्यन्त गूढ सर्वतोभद्र बंध में मूल काव्य की रचना की गयी। इस कृति में केवल 8 अक्षर एवं तीन मात्राओं का ही उपयोग किया गया।
प्रथम श्लोक इस प्रकार है-
वाराधारर,धारावा,राक्षलाक्ष क्षलाक्षरा।
धालायनो नोयलाधा रक्षनोऽज ज्ञनोऽक्षर ।।
शेष सात काव्य विभिन्न बन्धों के द्वारा इसी एक काव्य में से निकाले गए हैं।
सर्वतोभद्र बंध में काव्य सृजन संस्कृत साहित्य के इतिहास में मात्र दो ही कृतियों में मिलता है। सर्वप्रथम आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व दिगम्बर जैनाचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी ने ‘जिनस्तुति शतक’ में सर्वतोभद्र बंध में श्लोक लिखा था । उसके बाद एक मात्र मुनिश्री ही ऐसे हैं, जिन्होंने विद्याष्टकम् में इस बंध को सृजन का माध्यम बनाया।
विद्याष्टकम् ग्रन्थ का सम्पादन विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के पूर्व कुलपति मूर्धन्य विद्वान् डॉ. प्रभाकर नारायण कवठेकर द्वारा किया गया।
1995 में तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा द्वारा विमोचन किया गया।
कृति का हिन्दी पद्यानुवाद स्व. ऐलक श्री सम्यक्त्वसागरजी महाराज द्वारा किया गया ।
भक्ति के शिखर पर दैदीप्यमान कृति विद्याष्टकम् आधुनिक युग की अनन्यतम कृति है ।