जैनधर्म के विभिन्न ग्रंथों से ग्रहण की गई गाथाओं का संकलन समणसुत्तं के नाम से क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी द्वारा किया गया था। इस ग्रन्थ की रचना को भगवान् महावीर के 2500 वें निर्वाण वर्ष के अवसर पर एक बड़ी उपलब्धि के रूप में स्वीकार किया गया। आचार्य विनोबा भावे की प्रेरणा के फलस्वरूप दिनांक 29 30 नवम्बर, 1974 को दिल्ली में वाचना हुई, जिसमें ग्रन्थ का पारायण किया गया।
ग्रन्थ के पारायण के लिए चार बैठक हुई, जिसमें चारों बैठकों को आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज आचार्यश्री तुलसीजी, आचार्य श्री विजय समुद्रसूरिजी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
चारों बैठकों की अध्यक्षता चारों आम्नायों के प्रमुख उपाध्याय मुनि श्री विद्यानंदजी मुनि श्री सुशीलकुमारजी, मुनि श्री नथमलजी एवं मुनि श्री जनकविजय जी ने की।
जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों के मुनियों तथा श्रावकों का यह सम्मिलन विगत 2000 वर्षों के पश्चात् पहली बार देखने में आया था।
‘श्रमण सूक्तम्’- जिसे अर्धमागधी में समणसुत्तं कहते हैं। इसमें 756 गाथाएँ हैं। 7 का आंकड़ा जैनों को बहुत प्रिय है। 7 और 108 को गुणा करने पर 756 बनता है। सर्वसम्मति से इतनी गाथाएँ लीं। इस ग्रन्थ में चार खण्ड हैं- 1. ज्योतिर्मुख, मोक्षमार्ग, 3. तत्त्वदर्शन, 4. स्याद्वाद । इसमें 44 प्रकरण हैं।
इसमें जैन धर्म और दर्शन के सभी महत्वपूर्ण विषयों को एक ही ग्रन्थ में उपलब्धि होने से आचार्य विनोबा भावे ने समणसुत्तं ग्रंथ को जैन धर्म का सार माना है। जिस प्रकार अन्य धर्मों के बाइबिल,गीता, क़ुरान आदि ग्रंथ हैं,उसी प्रकार जैनों का समणसुत्तं है।
श्रमण शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने इसका पद्यानुवाद जैन गीता के रुप में करके इसे सरल सुग्राह्य बनाया है।पं कैलाश चंद्रजी सिध्दान्ताचार्य ने इस ग्रंथ का गद्यानुवाद किया है। अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करने का श्रेय श्री दशरथलालजी जैन, छतरपुर पूर्व गृहमंत्री विंध्यप्रदेश ने प्राप्त किया हैं |