गुरुवर्य पं. गोपालदासजी वरैया स्याद्वाद वारिधि न्याय वाचस्पति, वादिगज केसरी, बीसवीं शती के जैन शिक्षा एवं जैन विद्यालयों के प्रवर्तक तथा वर्तमान विद्वत्परम्परा के पितामह थे।
लोग आपकी विद्वत्ता, समाज सेवा और प्रखर वकृत्व शक्ति का लोहा मानते थे।
आपने मुरैना में जैन सिद्धान्त विद्यालय की स्थापना के द्वारा गोम्मटसार, त्रिलोकसार और तत्त्वार्थराजवार्तिक जैसे महान् जैन ग्रन्थों के पठन-पाठन की प्रणाली को प्रवर्तित करके दिगम्बर जैन समाज में जैन सिद्धान्त के वेत्ता विद्वानों की परम्परा को जन्म दिया।
वरैयाजी इस युग के महान् पुरुष थे। आपकी सहनशीलता, समयानुकूल बुद्धि, निष्पृहता, निर्भीकता आदि अनेक विशेषताएँ थीं। आपके धार्मिक एवं संस्कृत विद्या गुरु अजमेर में पण्डित मोहनलालजी एवं आगरा में पण्डित बलदेवदासजी रहे। पण्डितजी ने गुरुमुख से अल्प समय में ही अध्ययन किया। फिर भी अपने स्वालम्बन एवं निरंतर अध्यवसाय से अगाध विद्वत्ता प्राप्त कर ली थी।
आपने भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा की स्थापना तथा उसकी प्रगति में असीम परिश्रम किया।
आपने संवत् 1956 में जैन सभा बम्बई की ओर से जैन मित्र पत्र निकालना प्रारम्भ किया, इसमें आपने अच्छी ख्याति प्राप्त की। आपकी कीर्ति का स्तम्भ जैनमित्र ही रहा।
वाद-विवाद करने की शक्ति आपमें विलक्षण थी। सिद्धान्त विषय पर आप लगातार 2-3 घंटे तक प्रवचन किया करते थे। आर्य समाज से शास्त्रार्थों में आपने कई बार विजय प्राप्त की। प्रतिपक्षी भी आपकी विजय को स्वीकार कर आपको सम्मान दिया करते थे।
आप करणानुयोग के उत्कृष्ट विद्वान् थे। पण्डित जी एक अच्छे लेखक, उपन्यासकार थे। आपकी तीन कृतियाँ हैं- जैन सिद्धांत प्रवेशिका, जैन सिद्धान्त दर्पण, सुशीला उपन्यास।
गुरुजी ने जैन विद्वत् की विछिन्न परम्परा को सुदृढ़ बनाया।
जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान् आदिनाथ की पुत्री के नाम पर ही ब्राह्मी लिपि के माध्यम से भारतीय शिक्षा और संस्कृति का विकास हुआ।