बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न एवं राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित पण्डित का जन्म पारगुवां (सागर) में 5 मार्च, 1911 को हुआ। बाल्यकाल से ही आप विलक्षण प्रतिभा के धनी थे।अर्थाभाव के कारण आपने बाल्यकाल से संघर्ष किया, किन्तु आप अपनी लगन एवं परिश्रम के कारण प्रत्येक क्षेत्र में पूर्ण रूप से सफल हुए।
डॉ पन्नालालजी साहित्याचार्य की गणना जैन समाज के प्रथम पंक्ति के विद्वानों में की जाती है। पण्डित जी अपने शान्त स्वभाव सरल व्यक्तित्व और व्रती आचरण से जन जन की श्रद्धा के पात्र थे। आपके व्यक्तित्व में श्रद्धा ज्ञान चारित्र की त्रिवेणी के दर्शन होते थे।
पंडितजी देश के उन ख्याति प्राप्त विद्वानों में से एक थे, जिनकी लेखनी लगभग 50 वर्ष तक अनवरत चलती रही। आपने लगभग ६५ ग्रन्थों का सम्पादन और अनुवाद किया। आपने कुछ ग्रन्थ संस्कृत में मौलिक रूप से लिखे। 25 ग्रन्थ प्रथमानुयोग, 7 ग्रंथ करणानुयोग,१९ग्रंथ चरणानुयोग तथा 14 ग्रन्थ द्रव्यानुयोग के हैं। स्तोत्रादि के ग्रन्थ के अतिरिक्त आपके द्वारा अन्य सम्पादित और संयोजित स्मृति ग्रन्थ व स्मारिकाएं भी है।
आपको महाकवि हरिचन्द्र एक अनुशीलन ग्रन्थ पर पी एच.डी उपाधि प्राप्त हुई।
आपने जीवन में जितनी साहित्य सेवा की है, उसका मूल्यांकन सामाजिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर हुआ। भारत सरकार, मध्यप्रदेश सरकार एवं अन्य सामाजिक संस्थाओं की ओर से पंडित जी को अनेक बार सम्मानित किया गया।
आपके विद्यार्जन का प्रमुख केन्द्र सागर एवं विद्वानों की जननी काशी रही है, आध्यात्मिक संत प्रवर पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी के सान्निध्य में आप बहुत समय तक रहे हैं। जीवन के अंतिम १५वर्ष तक वर्णों जी द्वारा स्थापित श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल, जबलपुर में मूल ग्रंथों का पठन पाठन कराकर लगभग 21 ब्रहाचारी भाइयों को जैन चिंतक विचारक एवं विद्या में निष्णात बनाया।
आप संस्कृत भाषा के सुप्रसिद्ध लेखक, कवि, सफल टीकाकार,चिन्तक, विचारक एवं आदर्श शिक्षक के रूप में रहे।
आपकी साहित्यिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक सेवाओं की सूची बहुत लम्बी है जिस पर एक स्वतंत्र पुस्तक लिखी जा सकती है।