उन्नीस प्रकार के नाथाध्ययन हैं। ये धर्मकथाऐं हैं।
अथवा—गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा और चौदह मार्गणा ये उन्नीस नाथाध्ययन हैं।
इन १९ प्ररूपणाओं द्वारा अथवा इन १९ प्रकरणों का आश्रय लेकर यहाँ जीवद्रव्य का प्ररूपण किया जाता है। ‘‘जीवट्ठाण’’ नामक सिद्धांतशास्त्र में अशुद्ध जीव के १४ गुणस्थान, १४ मार्गणा और १४ जीवसमास स्थानों का जो वर्णन है वही इसका आधार है। संक्षेप रुचि वाले शिष्यों की अपेक्षा से इन बीस प्ररूपणाओं का गुणस्थान और मार्गणा इन दो ही प्ररूपणाओं में अंतर्भाव हो जाता है अतएव संग्रहनय से दो ही प्ररूपणा हैं अर्थात् गुणस्थान यह एक प्ररूपणा हुई और चौदह मार्गणाओं में जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण और संज्ञा इन प्ररूपणाओं का अंतर्भाव हो जाता है। जैसे— इंद्रिय-मार्गणा और कायमार्गणा में जीवसमास गर्भित हो जाते हैं इत्यादि। इसलिये अभेद विवक्षा से गुणस्थान और मार्गणा ये दो ही प्ररूपणा हैं किन्तु भेद विवक्षा से यहाँ १९ प्ररूपणाएँ होती हैं।
‘‘संक्षेप’’ और ‘‘ओघ’’ ये गुणस्थान के पर्यायवाची नाम हैं तथा ‘‘विस्तार’’ और ‘‘आदेश’’ ये मार्गणा के पर्यायवाची नाम हैं। मोह तथा योग के निमित्त से होने वाले आत्मा के परिणामों का नाम गुणस्थान है और अपने-अपने कर्म के उदय से होने वाली मार्गणाएं हैं।
गुणस्थान का सामान्य लक्षण—दर्शनमोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्था के होने पर होने वाले जीव के परिणाम गुणस्थान कहलाते हैं। गुणस्थान के १४ भेद हैं।
उनके नाम—मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली। गुणस्थानों का संक्षिप्त लक्षण—
१. मिथ्यात्व के उदय से होने वाले तत्त्वार्थ के अश्रद्धान को मिथ्यात्व कहते हैंं। इसके पाँच भेद हैं—एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान अथवा गृहीत और अगृहीत के भेद से मिथ्यात्व के दो भेद भी होते हैं। इन्हीं में संशय को मिला देने से तीन भेद भी हो जाते हैं। विशेष रूप से ३६३ भेद होते हैं यथा—क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादियों के ६७ और वैनयिकवादियों के ३२, मिथ्यादृष्टि जीव के परिणामों की अपेक्षा विस्तार से मिथ्यात्व के असंख्यात लोकप्रमाण तक भेद हो जाते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव को सच्चा धर्म नहीं रुचता है। वह सच्चे गुरुओं के उपदेश का श्रद्धान नहीं करता है किन्तु आचार्याभासों से उपदिष्ट वचनों का श्रद्धान कर लेता है। इस गुणस्थान का काल संख्यात, असंख्यात या अनंत भव होता है।
२. उपशम सम्यक्त्व का जघन्य और उत्कृष्ट काल अंतर्मुहूर्त है। किसी सम्यग्दृष्टि के इस अंतर्मुहूर्त काल में से जब जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट छ: आवली प्रमाण काल शेष रहे और उसी काल में अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक के उदय आ जाने से सम्यक्त्व की विराधना होने पर जो अव्यक्तरूप अतत्त्व श्रद्धान की परिणति है उसे सासादन गुणस्थान कहते हैं। इसका काल अति अल्प होने से हम और आप के द्वारा जाना नहीं जाता है। यह जीव सम्यक्त्वरूपी रत्नपर्वत से गिरा और मिथ्यात्वरूपी भूमि पर नहीं पहुँचा, मध्य के काल का नाम सासादन है। इसका काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट ६ आवली मात्र है।
३. दर्शनमोहनीय की सम्यक्त्वमिथ्यात्व नामक प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व या मिथ्यात्वरूप परिणाम न होकर जो मिश्र परिणाम होते हैं, उसे मिश्र गुणस्थान कहते हैं। जैसे—दही और गुड़ के मिश्रण का स्वाद मिश्ररूप है वैसे ही यहाँ मिश्र श्रद्धान है। इस गुणस्थान में संयम, देशव्रत और मारणांतिक समुद्घात नहीं होता है तथा मृत्यु भी नहीं है। पहले जिस गुणस्थान में आयु बाँधी थी, उसी गुणस्थान में जाकर मरण करता है। इस गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त मात्र है।
४. अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व, क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व एवं सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से वेदक सम्यक्त्व होता है। इस वेदक सम्यक्त्व में चल, मलिन और अगाढ़ दोष होते रहते हैं। यह सम्यक्त्व भी नित्य ही अर्थात् जघन्य अंतर्मुहूर्त से लेकर उत्कृष्ट छ्यासठ सागर पर्यंत कर्मों की निर्जरा का कारण है। शंका आदि पच्चीस मल दोषों को दूर करने वाला सम्यग्दृष्टि जिनेन्द्र भगवान के वचनों पर श्रद्धान करता है। कदाचित् अज्ञानी आदि गुरु के वचनों को अर्हंत के वचन समझकर श्रद्धान कर लेता है फिर भी सम्यग्दृष्टि है। यदि पुन: किसी गुरु ने उसे सूत्रादि ग्रंथ दिखाकर कहा कि यह गलत है और वह हठ को नहीं छोड़ता है तो उसी समय से वह मिथ्यादृष्टि बन जाता है। यह जीव इंद्रियों के विषयों से, त्रस-स्थावर की िंहसा से विरत नहीं है फिर भी अनर्गलरूप से इंद्रिय विषयों का सेवन या िंहसादि कार्य नहीं कर सकता है अत: जिनेन्द्र भगवान के वचनों पर श्रद्धान करने से अविरत सम्यग्दृष्टि कहलाता है। उपशमसम्यक्त्व का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल अंतर्मुहूर्त है। वेदक का जघन्य अंतर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट छ्यासठ सागर प्रमाण है और क्षायिक का अनंतकाल है। यह सम्यक्त्व केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही होता है और तीन या चार भव में जीवों को मोक्ष पहुँचाकर वहाँ शाश्वत विद्यमान रहता है।
५. यहाँ पर प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहने से पूर्ण संयम नहीं होता किन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहने से एकदेशव्रत होते हैं अत: इस पंचम गुणस्थान का नाम देशसंयम है। इसमें त्रसवध से विरति और स्थावर वध से अविरति ऐसे विरताविरत परिणाम एक समय में रहते हैं अत: यह संयमासंयम गुणस्थान है। इसका उत्कृष्ट काल कुछ अधिक आठ वर्ष कम एक कोटि पूर्व वर्ष प्रमाण है।
६. यहाँ सकल संयम घातक प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से पूर्ण संयम हो चुका है किन्तु संज्वलन और नोकषाय के उदय से मल को उत्पन्न करने वाले प्रमाद के होने से इसे प्रमत्तविरत कहते हैं। यह साधु सम्पूर्ण मूलगुण और शीलों से सहित, व्यक्त, अव्यक्त प्रमाद के निमित्त से चित्रल आचरण वाला होता है। स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा, अवनिपालकथा, ४ कषाय, पंचेन्द्रिय विषय, निद्रा और स्नेह ये १५ प्रमाद हैं। इन्हें परस्पर में गुणा करने से प्रमाद के ८० भेद हो जाते हैं।
यथा—४²४²५²१²१·८०
७. संज्वलन और नोकषाय के मंद उदय से सकल संयमी मुनि के प्रमाद नहीं है अत: ये अप्रमत्तविरत कहलाते हैं। इसके दो भेद हैं—स्वस्थान अप्रमत्त, सातिशय अप्रमत्त। जब तक चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों का उपशमन, क्षपण कार्य नहीं है किन्तु ध्यानावस्था है तब तक स्वस्थान अप्रमत्त हैं। जब २१ प्रकृतियों का उपशमन या क्षपण करने के लिए मुनि होते हैं तब वे सातिशय अप्रमत्त कहलाते हैं। ये श्रेणी चढ़ने के सम्मुख होते हैं। इस गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त है। चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों का उपशम या क्षय करने के लिए तीन प्रकार के विशुद्ध परिणाम होते हैं—अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। करण नाम परिणामों का है। ये सातिशय अप्रमत्त मुनि अध:प्रवृत्तकरण को करते हैं।
८. अध:प्रवृत्तकरण में अंतर्मुहूर्त रहकर ये मुनि प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि को प्राप्त होते हुए एवं पूर्व में कभी भी नहीं प्राप्त हुए ऐसे अपूर्वकरण जाति के परिणामों को प्राप्त होते हैं। यहाँ पर एक समयवर्ती मुनियों के परिणामों में सदृशता और विसदृशता दोनों ही होती है। इसका काल भी अंतर्मुहूर्त है।
९. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ध्यान में स्थित एक समयवर्ती अनेकों मुनियों के परिणामों में होने वाली विशुद्धि में परस्पर में निवृत्ति अर्थात् भेद नहीं पाया जाता है इसलिये इसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इसका काल भी अंतर्मुहूर्त है।
१०. उपशमक या क्षपक मुनि सूक्ष्मलोभ का अनुभव करते हुए सूक्ष्मसांपराय कहलाते हैं। यहाँ यथाख्यातचारित्र से िंकचिन्नयूून अवस्था रहती है।
११. इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म की सम्पूर्ण प्रकृतियों का उपशम हो जाने से परिणाम पूर्णतया निर्मल हो जाते हैं और यथाख्यात चारित्र प्रगट हो जाता है अतएव यहाँ उपशांत वीतरागछद्मस्थ कहलाते हैं।
१२. मोहनीय कर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने से क्षीणकषाय मुनि निर्ग्रंथ वीतराग कहलाते हैं।
भावार्थ—सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान वाले कोई मुनि उपशम श्रेणी में चढ़ते हुये २१ प्रकृतियों को उपशम करते हुए आठवें, नवमें, दशवें और ग्यारहवें तक जाते हैं वहाँ से गुणस्थान का अंतर्मुहूर्त काल पूर्ण कर नियम से नीचे गिरते हैं क्योंकि उपशम की गई २१ कषाय प्रकृतियों में से किसी का उदय आ जाता है अथवा मरण हो जाता है। जो मुनि २१ प्रकृतियों का नाश करते हुये क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं वे नियम से ग्यारहवें में न जाकर बारहवें में जाते हैं और वहाँ अंत समय में ज्ञानावरणादि का नाश कर केवली बन जाते हैं।
१३. यहाँ तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान प्रगट हो जाता है और क्षायिक भावरूप नवकेवललब्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। ये परमात्मा अर्हंत परमेष्ठी कहलाते हैं। कुछ अधिक आठ वर्ष कम एक कोटिपूर्व वर्ष तक इस गुणस्थान में केवली भगवान रह सकते हैंं।
१४. सयोगकेवली योग निरोध कर चौदहवें गुणस्थान में अयोगी-केवली कहलाते हैं।
पहले, दूसरे, तीसरे गुणस्थान तक बहिरात्मा, चौथे से बारहवें तक अंतरात्मा एवं तेरहवें, चौदहवें में परमात्मा कहलाते हैं।
आयु कर्म के बिना शेष सात कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा का क्रम—सातिशयमिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनंतानुबंधी के विसंयोजक, दर्शनमोह के क्षपक, कषायों के उपशामक, उपशांत कषाय, कषायों के क्षपक, क्षीणमोह, सयोगी और अयोगी इन ग्यारह स्थानों में कर्मों की निर्जरा क्रम से असंख्यातगुणी-असंख्यातगुणी अधिक-अधिक होती जाती है।
चौदहवें गुणस्थान के अंत में सम्पूर्ण कर्मों से रहित होकर सिद्ध परमेष्ठी हो जाते हैं। वे नित्य, निरंजन, अष्टगुण सहित, कृतकृत्य हैं और लोक के अग्रभाग में विराजमान हो जाते हैं। आत्मा से सम्पूर्ण कर्मों का छूट जाना ही मोक्ष है। ये सिद्ध परमेष्ठी गुणस्थानातीत कहलाते हैं।
इनमें अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती, पहली प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक अणुव्रतों का पालन करने वाले देशव्रती पंचमगुणस्थानवर्ती एवं सर्व आरंभ-परिग्रह त्यागी मुनिराज महाव्रती षष्ठ गुणस्थानवर्ती होते हैं।
जीवसमास—जिनके द्वारा अनेक जीव अथवा जीव की अनेक जातियों का संग्रह किया जावे, उन्हें जीवसमास कहते हैं।
चौदह जीवसमास—एकेन्द्रिय के दो भेद हैं—बादर और सूक्ष्म तथा विकलेन्द्रिय के तीन भेद हैं—दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय। पंचेन्द्रिय के दो भेद हैं—संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय। इस तरह ये सातों ही जीवसमास पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों तरह के होते हैं इसलिये जीवसमास के सामान्यतया चौदह भेद होते हैं। सत्तावन जीवसमास—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, नित्यनिगोद, इतरनिगोद। इन छह के बादर और सूक्ष्म से १२ भेद हुए। प्रत्येक वनस्पति के दो भेद हैं—सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित। त्रस के ५ भेद हैं—दो इंद्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञि पंचेन्द्रिय और संज्ञि पंचेन्द्रिय। ये सब मिला कर उन्नीस भेद हुए। यथा—१२ ± २ ± ५ · १९। ये सभी भेद पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त एवं लब्ध्यपर्याप्त के भेद से तीन-तीन प्रकार के होते हैं।
इसलिये १९ का ३ के साथ गुणा करने पर ५७ भेद हो जाते हैं। यथा १९ ² ३ · ५७।
अट्ठानवे जीवसमास—जीवसमास के उक्त ५७ भेदों से पंचेन्द्रिय के ६ भेद निकाल दीजिये अर्थात् पंचेन्द्रिय के संज्ञी, असंज्ञी दो में पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त से गुणा कर दीजिये तो २ ² ३ · ६ भेद होते हैं। ५७ में से ६ के निकल जाने से ५७ – ६ · ५१ बचे हैं।
कर्मभूमि पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के गर्भज और सम्मूर्च्छन दो भेद होते हैं। गर्भज के जलचर, स्थलचर, नभचर ऐसे तीन भेद हैं और इनमें संज्ञी, असंज्ञी से दो भेद होने से २ ² ३ · ६ भेद हो गये, पुन: इनके पर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्त दो भेद करने से ६ ² २ · १२ भेद हो जाते हैं। पंचेन्द्रिय सम्मूर्च्छन के जलचर, स्थलचर, नभश्चर। इनके संज्ञी-असंज्ञी दो भेद किये तो ३ ² २ · ६। इन ६ को पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त इन तीन से गुणा करने पर ६ ² ३ · १८ भेद हो गये ऐसे कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के १२ ± १८ · ३० भेद हो गये।
भोगभूमि में पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के स्थलचर-नभचर दो ही भेद होते हैं, ये दोनों ही पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त ही होते हैं इसलिये २ ² २ · ४। भोगभूमिज के ४ भेद हुये क्योंकि भोगभूमि में जलचर, सम्मूर्च्छन तथा असंज्ञी जीव नहीं होते हैं।
आर्यखंड के मनुष्यों के पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त ये तीन भेद ही होते हैं। म्लेच्छ खंड में लब्ध्यपर्याप्तक को छोड़कर दो ही भेद होते हैं। इसी प्रकार भोगभूमि, कुभोगभूमि के मनुष्यों के पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त दो ही भेद हैं। देव और नारकियों के भी ये ही दो भेद होते हैं। इस तरह सब मिलाकर अट्ठानवे भेद होते हैं। यथा—एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय संबंधी ५१, कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के ३०, भोगभूमिज तिर्यंचों के ४, आर्यखंड के मनुष्यों के ३, म्लेच्छखण्ड के मनुष्यों के २, भोगभूमिज मनुष्यों के २, कुभोगभूमि के २, देवों के २, नारकियों के २ ऐसे—५१±३०±४±३±२±२±२± २±२·९८ जीवसमास होते हैं।
स्थान, योनि, शरीर की अवगाहना और कुलों के भेद इन चार अधिकारों के द्वारा जीवसमास को विशेषरूप से जानना चाहिए।स्थान—एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जाति भेद को अथवा एक, दो, तीन, चार आदि जीव के भेदों को स्थान कहते हैं।
योनि—जीवों की उत्पत्ति के आधार को योनि कहते हैं।
अवगाहना—शरीर के छोटे-बड़े भेदों को अवगाहना कहते हैं।
कुल—भिन्न-भिन्न शरीर की उत्पत्ति के कारणभूत नोकर्मवर्गणा के भेदों को कुल कहते हैं।
जीवस्थान के भेद—सामान्य से जीव का एक ही भेद है क्योंकि ‘‘जीव’’ कहने से जीवमात्र का ग्रहण हो जाता है अत: सामान्य से जीवसमास का एक भेद, त्रस-स्थावर से दो भेद, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय से तीन भेद, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, संज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रिय से चार भेद, पाँच इंद्रियों की अपेक्षा पाँच भेद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ऐसे षट्काय की अपेक्षा से छह भेद, पाँच स्थावर, विकलेन्द्रिय, सकलेन्द्रिय से सात भेद, पाँच स्थावर, विकलेन्द्रिय, संज्ञी, असंज्ञी से आठ भेद, पाँच स्थावर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय से नौ भेद, पाँच स्थावर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रिय से दस भेद ऐसे ही उन्नीस तक भेद करते चलिये।
पूर्वोक्त १९ को पर्याप्त-अपर्याप्त से गुणा करने से १९ ² २ · ३८ भेद एवं १९ को पर्याप्त-निर्वृत्यपर्याप्त एवं लब्ध्यपर्याप्त से गुणा करने पर १९ ² ३ · ५७ भेद होते हैं एवं पूर्वोक्त प्रकार से ९८ तक भेद हो जाते हैं इन्हें जीवसमासों के स्थान कहते हैं।
योनि भेद—योनि के मुख्य दो भेद हैं—आकार योनि, गुण योनि।
आकार योनि के भेद—शंखावर्त, कूर्मोन्नत और वंशपत्र ये तीन भेद हैं।
जिसके भीतर शंख के समान चक्कर पड़े हों उसे शंखावर्त कहते हैं, इसमें नियम से गर्भ वर्जित है। यह योनि चक्रवर्ती की पट्टरानी की होती है।
जो कछुए की पीठ की तरह उठी हो उसे कूर्मोन्नत योनि कहते हैं, इस योनि में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, अर्धचक्री, बलभद्र तथा अन्य भी महान पुरुष उत्पन्न होते हैं अर्थात् इनकी माताओं की यही योनि होती है।
जो बाँस के पत्ते के समान लम्बी हो उसे वंशपत्र योनि कहते हैं। इसमें साधारण जन ही उत्पन्न होते हैं।
जन्म के तीन भेद—सम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद। इन जन्मों के आधारभूत योनि के नौ भेद हैं—सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत्त, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत। सामान्य से योनि के ये नौ भेद हैं एवं विस्तार से ८४,००,००० भेद होते हैं। यथा—नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इनमें से प्रत्येक की सात-सात लाख, वनस्पति की दस लाख, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इनमें से प्रत्येक की दो-दो लाख, देव, नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्रत्येक की चार-चार लाख, मनुष्य की चौदह लाख, सब मिलाकर ६²७·४२±१०±६±१२±१४·८४ लाख योनियाँ होती हैं।
तात्पर्य—अनादिकाल से प्रत्येक प्राणी इन चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है। जब यह जीव रत्नत्रय को प्राप्त करता है तभी चौरासी लाख योनि के चक्कर से छुटकारा पा सकता है अन्यथा नहीं, ऐसा समझकर जल्दी से जल्दी सम्यग्दृष्टि बनकर सम्यक््âचारित्र को ग्रहण कर लेना चाहिए।
देवगति और नरकगति में उपपाद जन्म होता है। मनुष्य तथा तिर्यंचों में यथासंभव गर्भज और सम्मूर्च्छन दोनों ही जन्म होते हैं। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य तथा एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय का नियम से सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है। कर्मभूमियाँ पंचेन्द्रिय तिर्यंच गर्भज, सम्मूर्च्छन दोनों ही होते हैं। उपपाद और गर्भ जन्म वाले नियम से लब्ध्यपर्याप्तक नहीं होते हैं। सम्मूर्च्छन मनुष्य नियम से लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं। चक्रवर्ती की पट्टरानी आदि को छोड़कर शेष आर्यखण्ड की स्त्रियों की योनि, कांख, स्तन, मूत्र, मल आदि में ये लब्ध्यपर्याप्त सम्मूर्च्छन मनुष्य उत्पन्न होते हैं। विषयों में अति आशक्त, परस्त्रीलंपट, वेश्यागामी, निंद्य, पापी जीव मरकर इन सम्मूर्च्छन मनुष्यों में जन्म लेते हैं। इनके मनुष्यायु, मनुष्यगति नामकर्म का उदय है किन्तु पर्याप्तियाँ पूर्ण न होने से शरीर के योग्य परमाणुओं को ग्रहण ही नहीं कर पाते हैं और मर जाते हैं, इनकी आयु लघु अंतर्मुहूर्त प्रमाण है अर्थात् एक श्वांस में अठारहवें भाग प्रमाण है।
उत्पन्न होने से तीसरे समय में सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्त जीव की घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण शरीर की जघन्य अवगाहना कहलाती है अर्थात् ऋजुगति के द्वारा उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म-निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव की उत्पत्ति से तीसरे समय में शरीर की जघन्य अवगाहना होती है और इसका प्रमाण घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उत्कृष्ट अवगाहना स्वयंभूरमण समुद्र के मध्य में होने वाले महामत्स्य की होती है। इस मत्स्य का प्रमाण हजार योजन लम्बा, पाँच सौ योजन चौड़ा, ढाई सौ योजन मोटा है। जघन्य से लेकर उत्कृष्टपर्यंत मध्य में एक-एक प्रदेश की वृद्धि के क्रम से मध्यम अवगाहना के अनेकों भेद होते हैं।
सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग है। पर्याप्त द्वीन्द्रिय की जघन्य अवगाहना अनुन्धरी जीव की घनांगुल के संख्यातवें भाग, त्रीन्द्रिय कुंथु की इससे संख्यातगुणी अधिक, चतुरिन्द्रिय काणमक्षिका की इससे संख्यातगुणी अधिक एवं पंचेन्द्रिय सिक्थक मत्स्य की इससे संख्यातगुणी अधिक है।
उत्कृष्ट अवगाहना एकेन्द्रिय में कमल की कुछ अधिक हजार योजन, द्वीन्द्रिय शंख की बारह योजन, त्रीन्द्रिय चींटी की तीन कोश, चतुरिन्द्रिय भ्रमर की एक योजन, पंचेन्द्रिय महामत्स्य की एक हजार योजन है। पहले जो महामत्स्य की अवगाहना उत्कृष्ट एक हजार योजन बतलाई है और यहाँ कमल की कुछ अधिक एक हजार योजन कहा है उसमें कमल की अपेक्षा महामत्स्य का घनक्षेत्र अधिक होता है इसलिये उसे ही अधिक समझना चाहिए।
इन्द्रिय जीव जघन्य अवगाहना
एक इन्द्रिय सूक्ष्मनिगोदिया घनांगुल के असंख्यातवें भाग
दो इन्द्रिय अनुंधरी घनांगुल के संख्यातवें भाग
तीन इन्द्रिय कुंथु घनांगुल के संख्यातगुणी अधिक
चार इन्द्रिय काणमक्षिका घनांगुल के संख्यातगुणी अधिक
पंचेन्द्रिय सिक्थक मत्स्य घनांगुल के संख्यातगुणी अधिक
इन्द्रिय जीव उत्कृष्ट अवगाहना
१. एक इन्द्रिय कमल कुछ अधिक एक हजार योजन
२. द्वीन्द्रिय शंख बारह योजन
३. त्रीन्द्रिय चींटी तीन कोश
४. चतुरिन्द्रिय भ्रमर एक योजन
५. पंचेन्द्रिय महामत्स्य एक हजार योजन
पृथ्वीकायिक जीवों के कुल २२ लाख कोटि
जलकायिक जीवों के कुल ७ लाख कोटि
अग्निकायिक जीवों के कुल ३ लाख कोटि
वायुकायिक जीवों के कुल ७ लाख कोटि
द्वीन्द्रिय जीवों के कुल ७ लाख कोटि
त्रीन्द्रिय जीवों के कुल ७ लाख कोटि
चतुरिन्द्रिय जीवों के कुल ९ लाख कोटि
वनस्पति जीवों के कुल २८ लाख कोटि
पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों के कुल १२-१/२ लाख कोटि
जलचर
पक्षियों के जीवों के कुल १२ लाख कोटि
पशुओं के जीवों के कुल १० लाख कोटि
छाती के सहारे जीवों के कुल ९ लाख कोटि
चलने वाले दोमुहे
सर्प आदि
देव के जीवों के कुल २६ लाख कोटि
नारकी के जीवों के कुल २५ लाख कोटि
मनुष्य के जीवों के कुल १२ लाख कोटि
इस प्रकार से सब मिलाकर जीवों के कुलों की संख्या—एक कोड़ाकोड़ी, सत्तानवे लाख, पचास हजार कोटि है अर्थात् एक करोड़, सत्तानवे लाख, पचास हजार को एक करोड़ से गुणा करने पर—१,९७,५०,०००²१,००,००,०००· १,९७,५०,००,००,००,००,००० हैं। अन्य ग्रंथों में मनुष्यों के १४ लाख कोटि कुल गिनाये हैं उनकी अपेक्षा से १,९९,५०,००,००,००,००,००० प्रमाण होता है।
भव्य जीवों को इस सिद्धांत शास्त्र के अनुसार जीवों के स्थान, योनि, शरीर, अवगाहना और इन कुल भेदों को अवश्य ही जान लेना चाहिए क्योंकि इनके जाने बिना मोक्षमार्गरूप चारित्र तथा दयामय धर्म का वास्तव में पालन नहीं किया जा सकता है। अतएव अहिंसा व्रत का पूर्णतया पालन करने के लिए अवश्य ही इनका अभ्यास करना चाहिए।
विशेष—तिर्यंचों की उत्कृष्ट अवगाहना अंतिम स्वयंभूरमणद्वीप व अंतिम स्वयंभूरमणसमुद्र में होती है।
पर्याप्ति—ग्रहण किये गये आहार वर्गणा को खल-रस भाग आदि रूप परिणमन कराने की जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को ‘‘पर्याप्ति’’ कहते हैं। ये पर्याप्तियाँ जिनके पाई जाएं उनको पर्याप्त और जिनकी वह शक्ति पूर्ण न हो उन जीवों को अपर्याप्त कहते हैं। जिस प्रकार कि घट, पट आदि द्रव्य बन चुकने पर पूर्ण और उससे पूर्व अपूर्ण कहे जाते हैं।
पर्याप्तियों के भेद—आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये पर्याप्ति के छह भेद हैं। एक शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर के लिए कारणभूत जिन नोकर्म वर्गणाओं को जीव ग्रहण करता है उनको खल-रस भागरूप परिणमाने की शक्ति के पूर्ण हो जाने को ‘‘आहार’’ पर्याप्ति कहते हैं। उनमें से खल भाग को हड्डी आदि कठिन अवयवरूप और रस भाग द्रवभागरूप परिणमाने की शक्ति की पूर्णता हो जाने को शरीर पर्याप्ति कहते हैं, इत्यादि।
पर्याप्ति के स्वामी—एकेन्द्रिय जीवों के प्रारंभ से चार पर्याप्तियाँ होती हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों की मन के बिना पाँच पर्याप्तियाँ एवं सैनी पंचेन्द्रिय जीवों की छहों पर्याप्तियाँ होती हैं।
ये जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों को प्रारंभ युगपत् करते हैं किन्तु उनकी पूर्ति क्रम-क्रम से होती है। सबका अलग-अलग काल भी अंतर्मुहूर्त है और सभी पर्याप्तियों के पूर्ण हो जाने में जितना काल लगता है वह भी अंतर्मुहूर्त ही है। कारण यह कि असंख्यात समय वाले अंतर्मुहूर्त के भी असंख्यात ही भेद हो जाते हैं।
सामान्यतया जिनकी पर्याप्तियाँ नियम से पूर्ण हो जाती हैं वे पर्याप्त एवं जिनकी पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं वे अपर्याप्त कहलाते हैं। अपर्याप्त के दो भेद हैं—निवृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त।
निवृत्यपर्याप्त का लक्षण—पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों से पूर्ण हो जाता है तथापि जब तक उसकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है तब तक उसको निर्वृत्यपर्याप्त कहते हैं अर्थात् इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन पर्याप्तियों के पूर्ण नहीं होने पर भी यदि शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो गई है तो वह जीव पर्याप्त कहलाता है किन्तु उससे पूर्व निर्वृत्यपर्याप्त कहा जाता है। इस निर्वृत्यपर्याप्त जीव के नियम से अपनी-अपनी पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जावेंगी क्योंकि इसके पर्याप्त नाम कर्म का उदय है। यदि एकेन्द्रिय है तो ४, विकलेन्द्रिय जीवों के ५ और संज्ञी जीव के ६ पर्याप्तियाँ पूर्ण अवश्य होती हैं।
अपर्याप्त नामक नामकर्म के उदय से जो जीव अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न करके अंतर्मुहूर्त काल में ही मरण को प्राप्त हो जाय उसे लब्ध्यपर्याप्त कहते हैं। लब्धि—अपने-अपनेयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने की योग्यता की प्राप्ति का होना। वह जिनकी पर्याप्ति पूर्ण नहीं होगी उसे लब्ध्यपर्याप्त कहते हैं। इनकी जघन्य और उत्कृष्ट दोनों की आयु अंतर्मुहूर्त मात्र ही है, यह अंतर्मुहूर्त एक श्वांस के अठारहवें भाग प्रमाण होता है। इस प्रकार के लब्ध्यपर्याप्तक जीव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत सब में ही पाये जाते हैं।
यदि एक जीव एक अंतर्मुहूर्त में लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था में अधिक से अधिक भवों को धारण करे तो कितने कर सकता है ?
अंतुर्मुहूर्त काल में यदि यह जीव निरंतर जन्म-मरण करे तो छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस (६६,३३६) बार कर सकता है, इन भवों को ही क्षुद्रभव कहते हैं। इनको क्षुद्रभव इसलिये कहते हैं कि इनसे अल्प आयु वाला अन्य कोई भी भव नहीं हो सकता है। इन भवों में से प्रत्येक के काल का प्रमाण श्वांस के अठारहवें भाग प्रमाण है। फलत: त्रैराशिक के अनुसार ६६,३३६ भवों के श्वासों का प्रमाण-३,६८५-१/३ होता है। इतने उच्छ्वासों के समूह प्रमाण अंतुर्मुहूर्त में पृथ्वीकायिक से लेकर पंचेन्द्रिय तक लब्ध्यपर्याप्त जीवों के क्षुद्रभव ६६,३३६ हो जाते हैं। ध्यान रहे ३,७७३ उच्छ्वासों का एक मुहूर्त होता है।
एकेन्द्रियों के पृथक्-पृथक् क्षुद्रभव—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और साधारण वनस्पति इन पाँच के बादर-सूक्ष्म से दो-दो भेद कर देने से दश हो गये और इनमें प्रत्येक वनस्पति मिलाने से ग्यारह भेद हो गये। मतलब प्रत्येक वनस्पति में बादर-सूक्ष्म दो भेद नहीं हैं केवल बादर ही एक भेद है। इनके प्रत्येक के ६०१२ भेद होते हैं अत: ११ को ६०१२ से गुणा करने पर ११²६०१२·६६,१३२ भेद हो जाते हैं।
सभी लब्ध्यपर्याप्तक के पृथक् क्षुद्रभव—एकेन्द्रियों के ६६,१३२, द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के ८० भव, त्रीन्द्रिय के ६०, चतुरिन्द्रिय के ४०, पंचेन्द्रिय के २४ ऐसे सभी मिलकर ६६,१२३±८०±६०±४०±२४·६६,३३६ हो जाते हैं।
लब्ध्यपर्याप्त जीवों के एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है। निर्वृत्यपर्याप्त में मिथ्यात्व, सासादन, असंयत, अप्रमत्तविरत और सयोगिकेवली ऐसे पाँच गुणस्थान हो सकते हैं और पर्याप्तक जीवों के सभी गुणस्थान हो सकते हैं।
छठे गुणस्थान में निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था आहारक ऋद्धिधारी मुनि के आहारक पुतला निकलते समय आहारक काययोग में होती है उसी अपेक्षा से कहा है। सयोगकेवली के समुद्घात अवस्था में कपाट, प्रतर और लोकपूरण ऐसे तीनों समुद्घातों में योग पूर्ण नहीं हैं अत: उस समय वहाँ गौणता से निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था कही गई है।द्वितीयादि छह नरक, ज्योतिष, व्यंतर और भवनवासी देव तथा सम्पूर्ण स्त्रियाँ, इनको अपर्याप्त अवस्था में सम्यक्त्व नहीं होता मतलब सम्यग्दृष्टि मरकर इन उपर्युक्त पर्यायों में जन्म नहीं लेता है और सासादन सम्यग्दृष्टि मरकर नरक में नहीं जाता है अत: नरक में अपर्र्याप्त अवस्था में सासादन गुणस्थान नहीं होता है।
इस पर्याप्ति प्रकरण को पढ़कर लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था के क्षुद्रभवों में जन्म लेने से डरना चाहिए और हमें जो पर्र्याप्त अवस्था प्राप्त हुई है, इसमें रत्नत्रय को पूर्ण करने का प्रयत्न करना चाहिये।
बाह्य उच्छ्वास आदि बाह्य प्राणों से तथा इंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम आदि अभ्यन्तर प्राणों से जिनमें जीवितपने का व्यवहार होता है वे जीव हैं अर्थात् जिनके सद्भाव में जीव में जीवितपने का और वियोग होने पर मरणपने का व्यवहार हो, उनको प्राण कहते हैं। पर्याप्ति कारण है और प्राण कार्य है।
प्राणों के भेद—पाँच इंद्रिय—स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र। तीन बल—मनोबल, वचनबल, कायबल, एक श्वासोच्छ्वास तथा एक आयु इस प्रकार ये दश प्राण हैं।
प्राणों के स्वामी—एकेन्द्रिय के ४ प्राण—स्पर्शन इंद्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास।
द्वीन्द्रिय के ६—उपर्युक्त चार प्राण, रसना इंद्रिय और वचनबल।
त्रीन्द्रिय के ७—उपर्युक्त ६ और घ्राणेन्द्रिय।
चतुरिन्द्रिय के ८—उपर्युक्त ७ और चक्षुरिन्द्रिय।
असंज्ञी पंचेन्द्रिय के ९—उपर्युक्त ८ और कर्णेन्द्रिय।
संज्ञी पंचेन्द्रिय के १०—मनोबल सहित सभी हैं।
अपर्याप्त जीवों में कुछ अंतर है—एकेन्द्रिय के ३ प्राण—स्पर्शन इंद्रिय, कायबल, आयु।
द्वीन्द्रिय के—उपर्युक्त ३ में एक रसना इंद्रिय होने से ४।
त्रीन्द्रिय के—उपर्युक्त चार में घ्राण इंद्रिय होने से ५।
चतुरिन्द्रिय के—उपर्युक्त ५ में चक्षुरिन्द्रिय मिलने से ६।
असंज्ञी और संज्ञी के—उपर्युक्त ६ में कर्णेन्द्रिय मिलने से ७ प्राण होते हैं अर्थात् अपर्याप्त अवस्था में श्वासोच्छ्वास, मनोबल और वचनबल नहीं होता है।
ये बाह्यप्राण और अभ्यंतर प्राण पौद्गलिक हैं। द्रव्यसंग्रह में जीव के दस प्राणों को व्यवहार नय से प्राण माना है एवं निश्चय से चेतना लक्षण को प्राण माना है।
संज्ञा—जिनके द्वारा संक्लेश को प्राप्त होकर जीव इस लोक में दु:ख को प्राप्त करते हैं और जिनका सेवन करके दोनों ही भवों में दारुण दु:खों को प्राप्त होते हैं उनको ‘‘संज्ञा’’ कहते हैं।
संज्ञा नाम वाञ्छा का है। जिसके निमित्त से दोनों ही भवों में दारुण दु:ख की प्राप्ति होती है उस वाञ्छा को संज्ञा कहते हैं। उसके चार भेद हैं—आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। इन आहार आदि चारों ही विषयों को प्राप्त करके और न प्राप्त करके भी दोनों ही अवस्थाओं में यह जीव संक्लेश और पीड़ा को प्राप्त होते रहते हैं। इस भव में भी दु:खों का अनुभव करते हैं और उसके द्वारा अर्जित पाप कर्म के उदय से परभव में सांसारिक दु:खों को भोगते हैं इसलिये ये संज्ञायें दु:खदाई हैं।
आहार संज्ञा—आहार के देखने से अथवा उसके उपयोग से और पेट के खाली होने से अथवा असातावेदनीय कर्म का तीव्र उदय एवं उदीरणा होने से आहार संज्ञा अर्थात् आहार की वाञ्छा उत्पन्न होती है। इस तरह आहार संज्ञा के चार कारण हैं जिनमें अंतिम एक असातावेदनीय की उदीरणा अथवा तीव्र उदय अंतरंग कारण है और तीन बाह्य कारण हैं।
भय संज्ञा—अत्यंत भयंकर पदार्थ के देखने से अथवा पहले देखे हुए भयंकर पदार्थ के स्मरण आदि से अथवा शक्ति के न होने पर और अंतरंग में भयकर्म का तीव्र उदय, उदीरणा होने पर भयसंज्ञा उत्पन्न हुआ करती है। इसके चार कारणों में भी भय कर्म की उदीरणा अंतरंग कारण है और शेष तीन बाह्य कारण हैं।
मैथुन संज्ञा—कामोद्रेक, स्वादिष्ट और गरिष्ठ रसयुक्त पदार्थों का भोजन करने से, कामकथा, नाटक आदि के सुनने एवं पहले के भुक्त विषयों का स्मरण आदि करने से तथा कुशील का सेवन, बिट आदि कुशीली पुरुषों की संगति, गोष्ठी आदि करने से और वेद कर्म की उदय या उदीरणा आदि से मैथुन संज्ञा होती है। इसमें भी चार कारणों में वेद कर्म का उदय या उदीरणा अंतरंग कारण है और शेष तीन बाह्य कारण हैं।
परिग्रह संज्ञा—उत्तम वस्त्र, स्त्री, धन, धान्य आदि बाह्य पदार्थों के देखने से अथवा पहले के भुक्त पदार्थों का स्मरण या उनकी कथा श्रवण आदि करने से, परिग्रह अर्जन के तीव्र ममत्व भाव होने से एवं लोभ कर्म का तीव्र उदय या उदीरणा होने से, इन चार कारणों से परिग्रह संज्ञा उत्पन्न होती है। इनमें से लोभ कर्म का तीव्र उदय या उदीरणा अंतरंग कारण है, शेष तीन बाह्य कारण हैं।
संज्ञाओं के स्वामी—छठे गुणस्थान तक आहारसंज्ञा है, आगे सातवें से ऊपर के गुणस्थानों में नहीं होती है क्योंकि छठे से आगे असाता वेदनीय का तीव्र उदय अथवा उदीरणा नहीं है। भयसंज्ञाऔर मैथुनसंज्ञा भी छठे से आगे नवमें तक उपचार से ही है क्योंकि वहाँ ध्यान अवस्था है। परिग्रह संज्ञा दशवें तक उपचार से ही है क्योंकि वहाँ तक लोभ कषाय का सूक्ष्म उदय पाया जाता है। छठे से आगे इन संज्ञाओं की प्रवृत्ति मानने पर ध्यान अवस्था नहीं बन सकती है अत: मात्र कर्मों के उदय आदि के अस्तित्व से ही इनका अस्तित्व आगे माना गया है।
मार्गणा—जिनके द्वारा अथवा जिनमें जीवों का मार्गण्—अन्वेषण किया जाता है उन्हें मार्गणा कहते हैं। मार्गणा के १४ भेद हैं।
गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार ये चौदह मार्गणा हैं।
मार्गणा के दो भेद भी हैं—सान्तर और निरंतर। उपर्युक्त चौदह मार्गणायें निरंतर मार्गणा कहलाती हैं जिनमें अंतर—विच्छेद नहीं पड़ता उनको निरंतर मार्गणा कहते हैं। संसारी जीवों के उपर्युक्त १४ मार्गणाओं में से किसी का विच्छेद नहीं पड़ता वे सभी जीवों के और सदा ही पाई जाती हैं इसलिए निरंतर मार्गणा कही जाती हैं और जिनमें अंतर—विच्छेद पड़ जाता है उन्हें सान्तर मार्गणा कहते हैं अर्थात् कुछ मार्गणा ऐसी भी हैं कि जिनमें समय के एक नियत प्रमाण तक विच्छेद पाया जाता है, उन्हीं को सांतर मार्गणा कहते हैं।
ये सांतर मार्गणाएँ आठ हैं—उपशम सम्यक्त्व, सूक्ष्मसांपराय संयम, आहारककाययोग, आहारकमिश्र काययोग, वैक्रियकमिश्र काययोग, लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, सासादन सम्यक्त्व और मिश्र ये आठ सांतर मार्गणाएँ हैं। उपशम सम्यक्त्व का उत्कृष्ट विरहकाल ७ दिन का है। सूक्ष्म सांपराय का महीना, आहारक योग का पृथक्त्व वर्ष, आहारक मिश्र का पृथक्त्व वर्ष, वैक्रियक मिश्र का १२ मुहूर्त, अपर्याप्त मनुष्य का पल्य से असंख्यातवें भाग, सासादन सम्यक्त्व और मिश्र का पल्य के असंख्यातवें भाग है और सबका जघन्य अंतरकाल एक समय है। मतलब यह है कि यदि तीन लोक में कोई भी उपशम सम्यग्दृष्टि न रहे तो ऐसा अंतर सात दिन के लिए पड़ सकता है। उसके बाद कोई न कोई उपशम सम्यग्दृष्टि अवश्य ही होता है।
गति नामकर्म के उदय से होने वाली जीव की पर्याय विशेष को अथवा चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते हैं। गति शब्द के निरुक्ति के अनुसार तीन तरह के अर्थ संभव हैं— गम्यते इति गति:, गमनं वा गति: और गम्यते अनेन सा गति:। इन निरुक्ति अर्थों में गति नामकर्म के उदय से होने वाली जीव की नर, नारक आदि पर्याय विशेष को ही ग्रहण करना चाहिए। गति के चार भेद हैं—नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति।
नरक गति—जो द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते हैं उनको ‘नारत’ कहते है अर्थात् जो किसी भी अवस्था में स्वयं या परस्पर में प्रीति को प्राप्त न हों वे नारत—नारकी कहलाते हैंैं अथवा जो ‘नरान् कायंति’ मनुष्यों को क्लेश पहुँचावें, उनको नारक कहते हैं क्योंकि नीचे सातों ही भूमियों में रहने वाले नारकी निरंतर ही स्वाभाविक, शारीरिक, मानसिक, आगंतुक तथा क्षेत्रजन्य इन पाँच प्रकार के दु:खों से दु:खी रहते हैं। नरकगति नामकर्म के उदय से जीव नरक में आयु पर्यंत महान् कष्टों का अनुभव करते रहते हैं। न रमन्ते इति नारता—नारका—इस व्युत्पत्ति के अनुसार नारकी आपस में कभी भी प्रेम नहीं करते हैं।
तिर्यग्गति—जो मन-वचन-काय की कुटिलता को प्राप्त हों अथवा जिनकी आहारादि संज्ञायें दूसरों को स्पष्ट दिखें और जो निकृष्ट अज्ञानी हों, जिनमें पाप की बहुलता हो वे तिर्यंच कहलाते हैं। निरुक्ति के अनुसार ‘तिर: तिर्यग्भावं-कुटिल परिणामं अन्वति इति तिर्यंच’ जो कुटिल-मायाचार परिणामों को प्राप्त करें वे तिर्यंच कहलाते हैं। इससे तिर्यंचगति में मायाचार की बहुलता जानी जाती है।
मनुष्यगति—जो नित्य ही तत्त्व-अतत्त्व, आप्त-अनाप्त आदि का विचार करें, जो मन के द्वारा गुण-दोषादि का विचार, स्मरण आदि कर सकें, जो मन के विषय में उत्कृष्ट हों, शिल्प कलादि में कुशल हों तथा युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हुये हों, वे मनुष्य कहलाते हैं। ‘मनु अवबोधने’ मनु धातु से मनु शब्द बनता है और जो मनु की संतान हैं उसे मनुष्य कहते हैं। यहाँ निरुक्ति के अनुसार अर्थ किया गया है।
देवगति—जो देवगति में होने वाली अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियों से सुखी होें, सदा रूप, यौवन आदि में दीप्ति को प्राप्त हों, वे देव कहलाते हैं। ‘दीव्यंति इति देव:’ दिव् धातु क्रीड़ा, विजिगीषा, दीप्ति, मोद आदि अर्थ में है, उससे देव शब्द निष्पन्न हुआ है।
इन चारों गतियों के अर्थ में निरुक्ति अर्थ प्रधान है किन्तु यह सर्वथा लागू नहीं होता है। मुख्यत: जो उन-उन गति नामकर्म के उदय से उस-उस भव को प्राप्त करते हैं, वे उस गति वाले कहलाते हैं।
सिद्धगति—एकेन्द्रिय आदि जाति, वृद्धावस्था, मरण, भय, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, इनसे होने वाले दु:ख, आहारादि वाञ्छायें, रोग आदि जिस गति में नहीं पाये जायें वह ‘सिद्धगति’ कहलाती है। इसे पंचम गति भी कहते हैं। यह सिद्धगति मार्गणातीत है, सभी कर्मों के क्षय से प्रकट होती है।
विशेष—तिर्यंचों के पाँच भेद हैं—सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पर्याप्त तिर्यंच, योनिमती (भावस्त्री वेदी) तिर्यंच और अपर्याप्त तिर्यंच। मनुष्यों के चार भेद हैं—सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, योनिमती (भावस्त्री वेदी) मनुष्य और लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य। इनमें पंचेन्द्रिय भेद इसलिये पृथक््â नहीं हैं क्योंकि मनुष्यों में पंचेन्द्रिय मनुष्य ही होते हैं, एकेन्द्रिय आदि नहीं होते हैं।
पर्याप्त मनुष्यों की संख्या—७ ९ २ २ ८ १ ६ २ ५ १ ४ २ ६ ४ ३ ३ ७ ५ ९ ३ ५ ४ ३ ९ ५ ० ३ ३ ६ ।
इन चारों गतियों में एक मनुष्यगति ही ऐसी गति है कि जिसमें आठों कर्मों का नाश कर यह जीव सिद्धपद को प्राप्त कर सकता है अतएव इस दुर्लभ मनुष्य पर्याय को प्राप्त करके संयम को धारण करके संसार परम्परा को समाप्त करना चाहिये।
जो इंद्र के समान हों उसे इंद्रिय कहते हैं। जिस प्रकार नव ग्रैवेयक आदि में रहने वाले इंद्र, सामानिक, त्रायिंस्त्रश आदि भेदों तथा स्वामी, भृत्य आदि विशेष भेदों से रहित होने के कारण किसी के वशवर्ती नहीं हैं, स्वतंत्र हैं उसी प्रकार स्पर्शन आदि इंद्रियाँ भी अपने-अपने स्पर्श आदि विषयों में दूसरी रसना आदि की अपेक्षा रखकर स्वतंत्र हैं। यही कारण है कि इन्हें इंद्रों-अहमिन्द्रों के समान होने से इंद्रिय कहते हैं।
इंद्रियों के दो भेद—भावेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय।
भावेन्द्रिय के दो भेद—लब्धि और उपयोग। मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्रकट हुई अर्थ ग्रहण की शक्तिरूप विशुद्धि को ‘लब्धि’ कहते हैं और उसके होने पर अर्थ—विषय के ग्रहण करने रूप जो व्यापार होता है। उसे ‘उपयोग’ कहते हैं।
द्रव्येन्द्रिय के दो भेद—निर्वृत्ति और उपकरण। आत्म प्रदेशों तथा आत्म सम्बद्ध शरीर प्रदेशों की रचना को निर्वृत्ति कहते हैं। निर्वृत्ति आदि की रक्षा में सहायकों को उपकरण कहते हैं।
जिन जीवों के बाह्य चिन्ह और उनके द्वारा होने वाला स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द इन पाँच विषयों का ज्ञान हो उनको क्रम से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। इनके भी अवान्तर भेद अनेक हैं।
एकेन्द्रिय जीव के केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, त्रीन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चतुरिन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और पंचेन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र।
इंद्रियों का विषय—एकेन्द्रिय के स्पर्शनेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र चार सौ धनुष है और द्वीन्द्रिय आदि के वह दूना-दूना है। सभी इंद्रियों का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र आगे चार्ट में दिखलाया गया है। चक्षु इंद्रिय के उत्कृष्ट विषय में विशेषता—सूर्य का भ्रमण क्षेत्र ५१०-४८/११ योजन चौड़ा है। यह पृथ्वी तल से ८०० योजन ऊपर जाकर है। वह इस जम्बूद्वीप के भीतर १८० योजन एवं लवण समुद्र में ३३०-४८/६१ योजन है अर्थात् समस्त गमन क्षेत्र ५१०-४८/६१ योजन या २०, ४३, १४७-१३/६१ मील है। इतने प्रमाण गमन क्षेत्र में सूर्य की १८४ गलियाँ हैं। इन गलियों में सूर्य क्रमश: एक-एक गली में संचार करते हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप में दो सूर्य तथा दो चंद्रमा हैं।
चक्रवर्ती के चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय—जब सूर्य पहली गली में आता है तब अयोध्या नगरी के भीतर अपने भवन के ऊपर स्थित चक्रवर्ती सूर्य विमान में स्थित जिनबिम्ब का दर्शन करते हैं। इस समय सूर्य अभ्यंतर गली की ३,१५,०८९ योजन परिधि को ६० मुहूर्त में पूरा करता है। इस गली में सूर्य निषध पर्वत पर उदित होता है, वहाँ से उसे अयोध्या नगरी के ऊपर आने में ९ मुहूर्त लगते हैं। जब वह ३,१५,०८९ योजन प्रमाण उस वीथी को ६० मुहूर्त में पूर्ण करता है तब वह ९ मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पूरा करेगा इस प्रकार त्रैराशिक करने पर योजन अर्थात् १ योजन को ४००० मील से गुणा करने पर १,८९,०५,३४,००० मील होता है।
तात्पर्य यह हुआ कि चक्रवर्ती की दृष्टि का विषय ४७,२६३-७/२० योजन प्रमाण है यह चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र है।
इंद्रियों का आकार—मसूर के समान चक्षु का, जव की नली के समान श्रोत्र का, तिल के फूल के समान घ्राण का तथा खुरपा के समान जिह्वा का आकार है। स्पर्शनेन्द्रिय के अनेक आकार हैं।
एकेन्द्रियादि जीवों का प्रमाण—स्थावर एकेन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, शंख आदि द्वीन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, चिंउटी आदि त्रींद्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, भ्रमर आदि चतुिंरद्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, मनुष्य आदि पंचेन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं और निगोदिया जीव अनंतानंत हैं अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक वनस्पति ये पाँच स्थावर और त्रस जीव असंख्यातासंख्यात हैं और जो वनस्पति के भेदों का दूसरा भेद साधारण है, वे साधारण वनस्पति जीव अनंतानंत प्रमाण हैं।
इंद्रियातीत—अर्हंत और सिद्ध जीव इंद्रियों के व्यापार से युक्त नहीं है। अवग्रह, ईहा आदि क्षयोपशम ज्ञान से रहित, इंद्रिय सुखों से रहित अतीन्द्रिय ज्ञान और अनंत सुख से युक्त हैं। इंद्रियों के बिना भी आत्मोत्थ निराकुल सुख का अनुभव करने से वे पूर्णतया सुखी हैं।
इन्द्रिय /एकेन्द्रिय धनुष वि.क्षे./ द्वीन्द्रिय धनुष वि.क्षे./ त्रीन्द्रिय धनुष वि.क्षे./चतुरिन्द्रि / असं.पं.वि.क्षे./ सं.पंचे. योजन वि. क्षे./ विषय / योग्यता / आकृति
धनुष /योजन धनुष/योजन
स्पर्शन ४०० ८०० १६०० ३२०० ० ६४०० ० ९ ८ प्रकार का स्पर्श बद्धस्पृष्ट अनेक अनियत
रसना ० ६४ १२८ २५६ ० ५१२ ० ९ ५ विध रस बद्धस्पृष्ट खुरपा
घ्राण ० ० १०० २०० ० ४०० ० ४७२६३ द्विविध गंध बद्धस्पृष्ट तिलपुष्प
१
चक्षु ० ० ० ० २९५४ ० ५९०८ ७÷२० पंच प्रकार रूप अस्पृष्ट मसूर अन्न
श्रोत्र ० ० ० ० ० ८०० ० १२ शब्द तथा ७ स्वर स्पृष्ट यवनाली
जाति नामकर्म के अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से आत्मा की जो पर्याय होती है उसे काय कहते हैं। उसके छह भेद हैं—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय।
पृथ्वी आदि नामकर्म के उदय से जीव का पृथ्वी आदि शरीर में जन्म होता है।
पाँच स्थावर काय के बादर और सूक्ष्म की अपेक्षा दो-दो भेद हो जाते हैंं। विशेष यह है कि वनस्पतिकाय के साधारण और प्रत्येक ये दो भेद होते हैं उसमें साधारण के बादर, सूक्ष्म दो भेद होते हैं, प्रत्येक वनस्पति के नहीं होते।
बादर नामकर्म के उदय से होने वाला शरीर बादर है। यह शरीर दूसरे का घात करता है और दूसरे से बाधित होता है।
सूक्ष्म नामकर्म के उदय से होने वाला शरीर सूक्ष्म है। यह न स्वयं दूसरे से बाधित होता है और न दूसरे का घात करता है। इन दोनों के शरीर की अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इनमें बादर जीव आधार से रहते हैं और सूक्ष्म जीव सर्वत्र तिल में तेल की तरह व्याप्त हैं अर्थात् सारे तीन लोक में भरे हुए हैं, ये अनंतानंत प्रमाण हैं।
वनस्पतिकाय के विशेष भेद—वनस्पतिकाय के दो भेद हैं—प्रत्येक और साधारण। प्रत्येक के भी दो भेद हैं—सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित।
जिनकी शिरा, संधि और पर्व अप्रगट होें, तोड़ने पर समान भंग हों, तन्तु न लगा रहे, छेदन करने पर भी पुन: वृद्धि हो जावे वे सप्रतिष्ठित वनस्पति हैं। सप्रतिष्ठित वनस्पति के आश्रित अनंत निगोदिया जीव रहते हैं। जिनमें से निगोदिया जीव निकल गये हैं वे वनस्पति अप्रतिष्ठित कहलाती हैं। आलू, अदरक, तुच्छ फल, कोंपल आदि सप्रतिष्ठित हैं। आम, नारियल, ककड़ी आदि अप्रतिष्ठित हैं अर्थात् प्रत्येक वनस्पति का स्वामी एक जीव रहता है किन्तु उसके आश्रित जीवों से सप्रतिष्ठित जीवों का आश्रय न रहने से अप्रतिष्ठित कहलाती है।
साधारण वनस्पति—साधारण नामकर्म के उदय से जिस शरीर के स्वामी अनेक जीव होते हैं उसे साधारण वनस्पति कहते हैं। इन साधारण जीवों का साधारण ही आहार, साधारण ही श्वासोच्छ्वास होता है, इस साधारण शरीर में अनंतानंत जीव रहते हैं। इनमें जहाँ एक जीव मरता है वहाँ अनंतानंत जीवों का मरण हो जाता है और जहाँ एक जीव का जन्म होता है वहाँ अनंतानंत जीवों का जन्म होता है। एक निगोद शरीर में जीव द्रव्य की अपेक्षा सिद्धराशि से अनन्तगुणी हैं१ और निगोद शरीर की अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण (सुई की नोंक के असंख्यातवें भाग) है।निगोद के भेद—निगोद के नित्य निगोद और इतर निगोद से दो भेद हैं। जिसने अभी तक त्रस पर्याय नहीं पाई है अथवा भविष्य में भी नहीं पाएंगे वे नित्य निगोद हैं। किन्हीं के मत से अभी तक त्रस पर्याय नहीं पाई है किन्तु आगे पा सकते हैं अत: छह महीने आठ समय में उसमें से ही छह सौ आठ जीव निकलते हैं और यहाँ से इतने ही समय में इतने ही जीव मोक्ष चले जाते हैं। जो निगोद से निकलकर चतुर्गति में घूम पुन: निगोद में गये हैं वे इतर या चतुर्गति निगोद हैं।
त्रस जीव—द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव त्रस हैं। उपपाद जन्म वाले और मारणांतिक समुद्घात वाले त्रस को छोड़कर बाकी के त्रस जीव त्रस१ नाली के बाहर नहीं रहते हैं।
किन-किन शरीर में निगोदिया जीव रहते हैं—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुकायिक, केवली, आहारक, देव और नारकियों के शरीर में बादर निगोदिया जीव नहीं रहते हैं। शेष वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों के शरीर में निगोदिया जीव भरे रहते हैं।
षट्कायिक जीवों का आकार—पृथ्वीकायिक का शरीर मसूर के समान, जलकायिक का जलबिन्दु सदृश, अग्निकायिक जीव का सुइयों के समूह सदृश, वायुकायिक का ध्वजा सदृश होता है। वनस्पति और त्रसों का शरीर अनेक प्रकार का होता है।
जिस प्रकार कोई भारवाही पुरुष कावड़ी के द्वारा भार ढोता है उसी प्रकार यह जीव कायरूपी कावड़ी के द्वारा कर्मभार को ढो रहा है।
यथा—मलिन स्वर्ण अग्नि द्वारा सुसंस्कृत होकर बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के मल से रहित हो जाता है तथैव ध्यान के द्वारा यह जीव भी शरीर और कर्मबंध दोनों मल से रहित होकर सिद्ध हो जाता है।
यद्यपि यह काय अर्थात् शरीर मल का बीज और मल की योनि स्वरूप अत्यंत निंद्य है, कृतघ्न सदृश है फिर भी इसी काय से रत्नत्रयरूपी निधि प्राप्त की जा सकती है अत: इस काय को संयमरूपी भूमि में बो करके मोक्ष फल को प्राप्त कर लेना चाहिए। स्वर्गादि अभ्युदय तो भूसे के सदृश स्वयं ही मिल जाते हैं। इसलिये संयम के बिना एक क्षण भी नहीं रहना चाहिए।
४. योग मार्गणा
प्रश्न—योग किसे कहते हैं ?
उत्तर—पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने की कारणभूत शक्ति है उसको योग कहते हैं अर्थात् आत्मा की अनंत शक्तियों में से एक योग शक्ति भी है, उसके दो भेद हैं—भावयोग और द्रव्ययोग।
कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत जीव की शक्ति भावयोग और जीव के प्रदेशों का परिस्पंदन द्रव्ययोग है। प्रश्न—योग के कितने भेद हैं ?
उत्तर—सत्य, असत्य, उभय और अनुभय के निमित्त से चार मन के और चार वचन के ऐसे आठ योग हुए और औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण ये सात काय के, ऐसे मन, वचन, काय संबंधी पंद्रह योग होते हैं। सत्य के दश भेद हैं—
जनपद—जो व्यवहार में रूढ़ हों जैसे—भक्त, भात, चोरु आदि, सम्मति सत्य जैसे—साधारण स्त्री को देवी कहना, स्थापना—प्रतिमा को चंद्रप्रभ कहना, नाम—जिनदत्त कहना, रूपसत्य—बगुले को सफेद कहना, प्रतीत्यसत्य—बेल को बड़ा कहना, व्यवहार—सामग्री संचय करते समय भात पकाता हूँ, ऐसा कहना, सम्भावना—इंद्र जम्बूद्वीप को पलट सकता है ऐसा कहना। भावसत्य—शुष्क, पक्व आदि को प्रासुक कहना, उपमा सत्य—पल्योपम आदि से प्रमाण बताना। ये दस प्रकार के सत्य वचन हैं। इनसे विपरीत असत्य वचन हैं। जिनमें दोनों मिश्र हों वे उभय वचन हैं एवं जो न सत्य हों न मृषा हों वे अनुभय वचन हैं। अनुभय वचन के नव भेद हैं—
आमंत्रणी—यहाँ आओ, आज्ञापनी—यह काम करो, याचनी—यह मुझको दो, आपृच्छनी—यह क्या है? प्रज्ञापनी—मैं क्या करूँ? प्रत्याख्यानी—मैं यह छोड़ता हूँ, संशयवचनी—यह बलाका है या पताका, इच्छानुलोम्नी—मुझको ऐसा होना चाहिए और अनक्षरगता—जिसमें अक्षर स्पष्ट न हों, क्योंकि इनके सुनने से व्यक्त और अव्यक्त दोनों अंशों का ज्ञान होता है। द्वीन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय तक अनक्षर भाषा है और सैनी पंचेन्द्रिय की आमंत्रणी आदि भाषाएँ होती हैं।
केवली भगवान के सत्य मनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्यवचनयोग, अनुभयवचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मण ये सात योग होते हैं। शेष संसारी जीवों में यथासम्भव योग होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में योगरहित अयोगी होते हैं।
औदारिक, औदारिकमिश्र योग तिर्यंच व मनुष्यों के होते हैं। वैक्रियकमिश्र देव तथा नारकियों के होते हैं। आहारक, आहारकमिश्र छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि के ही कदाचित् किन्हीं के हो सकता है। प्रमत्तविरत मुनि को किसी सूक्ष्म विषय में शंका होने पर या अकृत्रिम जिनालय की वंदना के लिए असंयम के परिहार करने हेतु आहारक पुतला निकलता है और यहाँ पर केवली के अभाव में अन्य क्षेत्र में केवली या श्रुतकेवली के निकट जाकर आता है और मुनि को समाधान हो जाता है।
आहारक ऋद्धि और विक्रियाऋद्धि का कार्य एक साथ नहीं हो सकता है, बादर अग्निकायिक, वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भी विक्रिया हो सकती है। देव, भोगभूमिज, चक्रवर्ती पृथक््â विक्रिया से शरीर आदि बना लेते हैं किन्तु नारकियों में अपृथक् विक्रिया ही है। वे अपने शरीर को ही आयुध, पशु आदि रूप बनाया करते हैं। देव मूल शरीर को वहीं अपने स्थान पर छोड़कर विक्रिया शरीर से ही जन्मकल्याणक आदि में आते हैं, मूल शरीर से कभी नहीं आते हैं। कार्मणयोग विग्रहगति में एक, दो या तीन समय तक होता है और समुद्घात केवली के होता है। जो योग रहित, अयोगीजिन अनुपम और अनंत बल से युक्त हैं वे अ इ उ ऋ ऌ इन पंच ह्रस्व अक्षर के उच्चारण मात्र काल में सिद्ध होने वाले हैं, उन्हें मेरा नमस्कार होवे।
प्रश्न—वेद किसे कहते हैं ?
उत्तर—पुरुषादि के उस रूप परिणाम को या शरीर चिन्ह को वेद कहते हैं। वेदों के दो भेद हैं—भाववेद, द्रव्यवेद।
मोहनीय कर्म के अंतर्गत वेद नामक नोकषाय के उदय से जीवों के भाववेद होता है और निर्माण नामकर्म सहित आंगोपांग नामकर्म के उदय से द्रव्यवेद होता है अर्थात् तद्रूप परिणाम को भाववेद और शरीर की रचना को द्रव्यवेद कहते हैं। ये दोनों वेद कहीं समान होते हैं और कहीं विषम भी होते हैं।
वेद के तीन भेद होते हैं—पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेद। नरकगति में द्रव्य और भाव दोनोें वेद नपुंसक ही हैं। देवगति में पुरुष, स्त्री रूप दो वेद हैं जिनके जो द्रव्यवेद है वही भाववेद रहता है यही बात भोगभूमिजों में भी है।
कर्मभूमि के तिर्यंच और मनुष्य में विषमता पाई जाती है। किसी का द्रव्यवेद पुरुष है तो भाववेद पुरुष, स्त्री या नपुंसक कोई भी रह सकता है, हाँ! जन्म से लेकर मरण तक एक ही वेद का उदय रहता है, बदलता नहीं है। द्रव्य से पुरुषवेदी आदि भाव से स्त्रीवेदी या नपुंसकवेदी है फिर भी मुनि बनकर छठे-सातवें आदि गुणस्थानों को प्राप्त कर मोक्ष जा सकते हैं। किन्तु यदि द्रव्य से स्त्रीवेद है और भाव से पुरुषवेद है तो भी उसके पंचम गुणस्थान के ऊपर नहीं हो सकता है। अतएव दिगम्बर आम्नाय में स्त्री मुक्ति का निषेध है।
पुरुष वेद—जो उत्कृष्ट गुण या भोगों के स्वामी हैं, लोक में उत्कृष्ट कर्म को करते हैं, स्वयं उत्तम हैं वे पुरुष हैं।
स्त्रीवेद—जो मिथ्यात्व, असंयम आदि से अपने को दोषों से ढके और मृदु भाषण आदि से पर के दोषों को ढके वह स्त्री है।
नपुंसकवेद—जो स्त्री और पुरुष इन दोनों लिंगों से रहित हैं, ईंट के भट्टे की अग्नि के समान कषाय वाले हैं वे नपुंसक हैं।
स्त्री और पुरुष का यह सामान्य लक्षण है, वास्तव में रावण आदि अनेक पुरुष भी दोषी देखे जाते हैं और भगवान की माता, आर्यिका महासती सीता आदि अनेक स्त्रियाँ महान् श्रेष्ठ देखी जाती हैं। अत: सर्वथा एकान्त नहीं समझना चाहिए। जो तृण की अग्निवत् पुरुषवेद की कषाय, कंडे की अग्निवत् स्त्रीवेद की कषाय और अवे की अग्नि के समान नपुंसकवेद की कषाय से रहित अपगतवेदी हैं, वे अपनी आत्मा से ही उत्पन्न अनंत सुख को भोगते रहते हैं।
जीव के सुख-दु:ख आदि रूप अनेक प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसाररूप मर्यादा अत्यन्त दूर है, ऐसे कर्मरूपी क्षेत्र (खेत) का यह कर्षण करता है, इसलिए इसको कषाय कहते हैं।
‘‘सम्यक्त्वादिविशुद्धात्मपरिणामान् कषति हिनस्ति इति कषाय:’’ सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्ररूपी परिणामों को जो कषे-घाते, न होने दे उसको कषाय कहते हैं। इसके अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन इस प्रकार चार भेद हैं। अनंतानुबंधी आदि चारों के क्रोध, मान, माया, लोभ इस तरह चार-चार भेद होने से कषाय के उत्तर भेद सोलह होते हैं किन्तु कषाय के उदयस्थानों की अपेक्षा से असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं। जो सम्यक्त्व को रोके उसको अनंतानुबंधी, जो देशचारित्र को रोके उसको अप्रत्याख्यानावरण, जो सकलचारित्र को रोके उसको प्रत्याख्यानावरण और जो यथाख्यातचारित्र को रोके उसको संज्वलन कषाय कहते हैं।
क्रोध चार प्रकार का होता है-एक पत्थर की रेखा के समान, दूसरा पृथ्वी की रेखा के समान, तीसरा धूलि रेखा के समान और चौथा जलरेखा के समान। ये चारों प्रकार के क्रोध क्रम से नरक, तिर्यक्, मनुष्य तथा देवगति में उत्पन्न करने वाले हैं।
मान भी चार प्रकार का होता है-पत्थर के समान, हड्डी के समान, काठ के समान तथा बेंत के समान। ये चार प्रकार के मान भी क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति के उत्पादक हैं।
माया भी चार प्रकार की होती है-बांस की जड़ के समान, मेढे के सींग के समान, गोमूत्र के समान, खुरपा के समान। यह चार तरह की माया भी क्रम से जीव को नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में ले जाती है।
लोभ कषाय भी चार प्रकार की होती है-क्रिमिराग के समान, चक्रमल अर्थात् रथ आदिक के पहियों के भीतर के ओंगन के समान, शरीर के मल के समान, हल्दी के रंग के समान। यह भी क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवगति की उत्पादक है।
जिनके स्वयं को, दूसरे को तथा दोनों को ही बाधा देने और बंधन करने तथा असंयम करने में निमित्तभूत क्रोधादिक कषाय नहीं है तथा जो बाह्य और अभ्यंतर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय कहते हैं। शक्ति, लेश्या तथा आयु के बंधाबंधगत भेदों की अपेक्षा से क्रोधादि कषायों के क्रम से चार, चौदह और बीस स्थान होते हैं।
यह चारों ही कषाय जीव को चारों गतियों में परिभ्रमण कराने वाली एवं महान दुख को उत्पन्न करने वाली हैं अत: इनका सर्वथा त्याग कर अपनी आत्मा को भगवान आत्मा बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक भूत, भविष्यत्, वर्तमान संबंधी समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक पर्यायों को जाने उसको ज्ञान कहते हैं।
ज्ञान के पाँच भेद हैं—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय तथा केवल। इनमें से आदि के चार ज्ञान क्षायोपशमिक और केवलज्ञान क्षायिक है तथा मति, श्रुत दो ज्ञान परोक्ष और शेष तीन प्रत्यक्ष हैं।
आदि के तीन ज्ञान मिथ्या भी होते हैं।
मति अज्ञान—दूसरे के उपदेश के बिना ही विष, यन्त्र, कूट, पंजर तथा बंध आदि के विषय में जो बुद्धि प्रवृत्त होती है उसको मति अज्ञान कहते हैं।
श्रुत अज्ञान—चोर शास्त्र, िंहसा शास्त्र, भारत, रामायण आदि परमार्थ-शून्य शास्त्र और उनका उपदेश कुश्रुतज्ञान है।
विभंग ज्ञान—विपरीत अवधिज्ञान को विभंगज्ञान या कुअवधि ज्ञान कहते हैं।
मतिज्ञान—इंद्रिय और मन के द्वारा होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। उसके अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ये चार भेद हैं। इनको पाँच इंद्रिय और मन से गुणा करके बहु आदि बारह भेदों से गुणा कर देने से २८८ भेद होते हैं तथा व्यंजनावग्रह को चक्षु और मन बिना चार इंद्रिय से और बहु आदि बारह भेद से गुणा करने से ४८ ऐसे २८८±४८·३३६ भेद होते हैं।
श्रुतज्ञान—मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थ से भिन्न पदार्थ का ज्ञान श्रुतज्ञान है।
इस श्रुतज्ञान के अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक अथवा शब्दजन्य और लिंगजन्य ऐसे दो भेद हैं। इनमें शब्दजन्य श्रुतज्ञान मुख्य हैं।
दूसरी तरह से श्रुतज्ञान के भेद हैं—पर्याय, पर्याय समास, अक्षर, अक्षर समास, पद, पद समास, संघात, संघात समास, प्रतिपत्तिक, प्रतिपत्तिक समास, अनुयोग, अनुयोग समास, प्राभृत प्राभृत, प्राभृत प्राभृत समास, प्राभृत, प्राभृत समास, वस्तु, वस्तु समास, पूर्व, पूर्व समास इस तरह श्रुतज्ञान के बीस भेद हैंं।
प्रश्न—पर्याय ज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर—सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के जो सबसे जघन्य ज्ञान होता है उसको पर्याय ज्ञान कहते हैंं। इनको ढकने वाले आवरण कर्म का फल इस ज्ञान में नहीं होता अन्यथा ज्ञानोपयोग का अभाव होकर जीव का ही अभाव हो जावेगा। वह हमेशा प्रकाशमान, निरावरण रहता है अर्थात् इतना ज्ञान का अंश सदैव प्रगट रहता है।
इसके आगे पर्यायसमास के बाद अक्षर ज्ञान आता है यह अर्थाक्षर सम्पूर्ण श्रुत केवलरूप है। इसमें एक कम एकट्ठी का भाग देने से जो लब्ध आया उतना ही अर्थाक्षर ज्ञान का प्रमाण है।
प्रश्न—श्रुत निबद्ध विषय कितना है ?
उत्तर—जो केवलज्ञान से जाने जाएँ किन्तु जिनका वचन से कथन न हो सके ऐसे पदार्थ अनंतानंत हैं। उनके अनंतवें भाग प्रमाण पदार्थ वचन से कहे जा सकते हैं, उन्हें प्रज्ञापनीय भाव कहते हैं। जितने प्रज्ञापनीय पदार्थ हैं उनका भी अनंतवां भाग श्रुत निरूपित है।
अक्षर ज्ञान के ऊपर वृद्धि होते-होते अक्षर समास, पद, पद समास आदि बीस भेद तक पूर्ण होते हैं। इनमें जो उन्नीसवां ‘‘पूर्व’’ भेद है उसी के उत्पाद पूर्व आदि चौदह भेद होते हैं।
इन बीस भेदों में प्रथम के पर्याय, पर्याय समास ये दो ज्ञान अनक्षरात्मक हैं और अक्षर से लेकर अठारह भेद तक ज्ञान अक्षरात्मक हैं। ये अठारह भेद द्रव्य श्रुत के हैं। श्रुतज्ञान के दो भेद हैं—द्रव्यश्रुत और भाव श्रुत। उसमें शब्दरूप और ग्रंथरूप द्रव्यश्रुत हैं और ज्ञानरूप सभी भावश्रुत हैंं।
ग्रंथरूप श्रुत की विवक्षा से आचारांग आदि द्वादश अंग और उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्वरूप भेद होते हैं अथवा अंग बाह्य और अंग प्रविष्ट ऐसे दो भेद करने से अंग प्रविष्ट के बारह और अंग बाह्य के सामायिक आदि चौदह प्रकीर्णक होते हैं।
द्वादशांग के नाम—आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, धर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अंत:कृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवादांग ऐसे बारह अंग हैं।
बारहवें दृष्टिवाद के पाँच भेद हैं—परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत, चूलिका। परिकर्म के पाँच भेद हैं—चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति। सूत्र और प्रथमानुयोग में भेद नहीं हैं। पूर्वगत के चौदह भेद हैं। चूलिका के पाँच भेद हैं—जलगता, स्थलगता, मायागता, आकाशगता, रूपगता।
चौदह पूर्वों के नाम—उत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यप्रवाद, अस्ति-नास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणवाद, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार ये चौदह भेद हैं।
द्वादशांग के समस्त पद एक सौ बारह करोड़, तिरासी लाख, अट्ठावन हजार पाँच होते हंैं। १,१२,८३,५८,००५ हैं। अंगबाह्यश्रुत के भेद—सामायिक, चतुा\वशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प्य, महाकल्प्य, पुंडरीक, महापुंडरीक, निषिद्धिका ये अंगबाह्यश्रुत के चौदह भेद हैं।
‘‘ज्ञान१ की अपेक्षा श्रुतज्ञान तथा केवलज्ञान दोनों ही सदृश हैं। दोनों में अंतर यही है श्रुतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है।’’
अवधिज्ञान—द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से जिसका विषय सीमित हो वह अवधिज्ञान है। उसके भवप्रत्यय, गुणप्रत्यय यह दो भेद हैं। प्रथम भवप्रत्यय देव, नारकी और तीर्थंकरों के होता है तथा द्वितीय गुण-प्रत्यय मनुष्य और तिर्यंचों के भी हो सकता है।
मन:पर्यय ज्ञान—चिंतित, अचिंतित और अर्धचिंतित इत्यादि अनेक भेदरूप दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को मन:पर्यय ज्ञान जान लेता हैै। यह ज्ञान वृद्धिंगत चारित्र वाले किन्हीं महामुनि के ही होता है। इसके ऋजुमति, विपुलमति नाम के दो भेद हैं। यह ज्ञान मनुष्य क्षेत्र में ही उत्पन्न होता है, बाहर नहीं।
केवलज्ञान—यह ज्ञान सम्पूर्ण, समग्र, केवल, सम्पूर्ण द्रव्य की त्रैकालिक सम्पूर्ण पर्यायों को विषय करने वाला युगपत् लोकालोक प्रकाशी होता है। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये ही सारे पुरुषार्थ किये जाते हैं।
(आज मति, श्रुत ये दो ही ज्ञान हम और आपको हैं। इनमें भी श्रुतज्ञान में द्वादशांग का वर्तमान में अभाव हो चुका है। हाँ, मात्र बारहवें अंग में किंचित् अंशरूप से षट्खंडागम ग्रंथराज विद्यमान है तथा आज जितने भी शास्त्र हैं वे सब उस द्वादशांग के अंशभूत होने से उसी के साररूप हैं। जैसे कि गंगानदी का जल एक कटोरी में निकालने पर भी वह गंगा जल ही है। अत: श्री कुंंदकुंददेव आदि सभी के वचन सर्वज्ञतुल्य प्रमाणभूत२ हैं। ऐसा समझकर द्वादशांग की पूजा करते हुए उपलब्ध श्रुत का पूर्णतया आदर, श्रद्धान और अभ्यास करके, तदनुकूल प्रवृत्ति करके संसार की स्थिति को कम कर लेना चाहिए।
संयममार्गणा का लक्षण—अिंहसादि पंचमहाव्रतों को धारण करना, पाँच समितियों का पालना, क्रोधादि चार कषायों का निग्रह करना, मन वचन, कायरूप दण्ड का त्याग तथा पाँच इंद्रियों का जय इसको संयम कहते हैं।
संयम के पाँच भेद हैं—सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात। इसी में संयमासंयम और असंयम के मिलाने से संयममार्गणा के सात भेद हो जाते हैं।
प्रश्न—संयममार्गणा में देशसंयम और असंयम को क्यों लिया ?
उत्तर—उस-उस मार्गणा में उसके प्रतिपक्षी को भी ले लिया जाता है अथवा जैसे—वन में आम्र की प्रधानता होने से आम्रवन कहलाता है किन्तु उसमें नींबू आदि के वृक्ष भी रहते हैं।
जो संयम की विरोधी नहीं है ऐसी संज्वलन बादर कषाय के उदय से आरंभ के तीन संयम होते हैं। सूक्ष्मसंज्वलन लोभ के उदय से सूक्ष्मसांपराय संयम और सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से यथाख्यात संयम होता है। तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से संयमासंयम और दूसरी अप्रत्याख्यानावरण के उदय से असंयम भाव होता है।
सामायिक—‘‘मैं सर्व सावद्य का त्यागी हूँ’’ इस तरह अभेदरूप से जो सम्पूर्ण सावद्य का त्याग करता है वह अनुपम दुर्लभ सामायिक संयम का धारी है।
छेदोपस्थापना—प्रमाद के योग से सामायिकादि से च्युत होकर उसका विधिवत् छेदन करके अपनी आत्मा को पंच प्रकार के व्रतों में स्थापन करना।
परिहारविशुद्धि—जन्म से लेकर तीस वर्ष तक सुखी रहकर पुन: दीक्षा ग्रहण कर तीर्थंकर के पादमूल में आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक नवमें पूर्व का अध्ययन करने वाले मुनि के यह संयम प्रगट होता है। इससे वे मुनि तीन संध्याकाल को छोड़कर प्रतिदिन दो कोस गमन करते हैं। इस संयम में वर्षाकाल में विहार का निषेध नहीं है। इसमें प्राणी पीड़ा का परिहार—त्याग होने से विशुद्धि है अत: ये संयमी जीवराशि में विहार करते हुए भी जल से भिन्न कमलवत् िंहसा से अलिप्त रहते हैं।
सूक्ष्मसांपराय—सूक्ष्म लोभ के उदय से दसवें गुणस्थान में सूक्ष्मसांपराय संयम होता है।
यथाख्यात—मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम या क्षय से यह संयम होता है। ग्यारहवें में उपशम से होता है और बारहवें, तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में कषाय के क्षय से होता है।
संयमासंयम—जो सम्यग्दृष्टि पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह व्रतों से युक्त हैं वे देशव्रती अथवा संयमासंयमी हैं। इस देशव्रत से भी जीवों के असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती है।
इस देशव्रत में दर्शन प्रतिमा से लेकर उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा तक ग्यारह भेद भी होते हैं।
असंयम—चौदह प्रकार के जीवसमास और अट्ठाईस प्रकार के इंद्रियों से जो विरत नहीं हैं उनको असंयम कहते हैं। पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध, आठ स्पर्श और षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद ये सात स्वर तथा एक मन इस तरह इंद्रियों के अट्ठाईस विषय हैं अर्थात् संयम के प्राणिसंयम, इंद्रियसंयम की अपेक्षा दो भेद हैं। जीवसमासगत प्राणििंहसा से विरत होना प्राणिसंयम और इंद्रिय विषयों से विरत होना इंद्रिय संयम है। असंयम में दोनों प्रकार की विरति नहीं है। संयम के पाँच भेद हैं—सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात। इसी में संयमासंयम और असंयम के मिलाने से संयममार्गणा के सात भेद हो जाते हैं।
प्रश्न—संयममार्गणा में देशसंयम और असंयम को क्यों लिया ?
उत्तर—उस-उस मार्गणा में उसके प्रतिपक्षी को भी ले लिया जाता है अथवा जैसे—वन में आम्र की प्रधानता होने से आम्रवन कहलाता है किन्तु उसमें नींबू आदि के वृक्ष भी रहते हैं।
जो संयम की विरोधी नहीं है ऐसी संज्वलन बादर कषाय के उदय से आरंभ के तीन संयम होते हैं। सूक्ष्मसंज्वलन लोभ के उदय से सूक्ष्मसांपराय संयम और सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से यथाख्यात संयम होता है। तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से संयमासंयम और दूसरी अप्रत्याख्यानावरण के उदय से असंयम भाव होता है।
सामायिक—‘‘मैं सर्व सावद्य का त्यागी हूँ’’ इस तरह अभेदरूप से जो सम्पूर्ण सावद्य का त्याग करता है वह अनुपम दुर्लभ सामायिक संयम का धारी है।
छेदोपस्थापना—प्रमाद के योग से सामायिकादि से च्युत होकर उसका विधिवत् छेदन करके अपनी आत्मा को पंच प्रकार के व्रतों में स्थापन करना।
परिहारविशुद्धि—जन्म से लेकर तीस वर्ष तक सुखी रहकर पुन: दीक्षा ग्रहण कर तीर्थंकर के पादमूल में आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक नवमें पूर्व का अध्ययन करने वाले मुनि के यह संयम प्रगट होता है। इससे वे मुनि तीन संध्याकाल को छोड़कर प्रतिदिन दो कोस गमन करते हैं। इस संयम में वर्षाकाल में विहार का निषेध नहीं है। इसमें प्राणी पीड़ा का परिहार—त्याग होने से विशुद्धि है अत: ये संयमी जीवराशि में विहार करते हुए भी जल से भिन्न कमलवत् िंहसा से अलिप्त रहते हैं।
सूक्ष्मसांपराय—सूक्ष्म लोभ के उदय से दसवें गुणस्थान में सूक्ष्मसांपराय संयम होता है।
यथाख्यात—मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम या क्षय से यह संयम होता है। ग्यारहवें में उपशम से होता है और बारहवें, तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में कषाय के क्षय से होता है।
संयमासंयम—जो सम्यग्दृष्टि पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह व्रतों से युक्त हैं वे देशव्रती अथवा संयमासंयमी हैं। इस देशव्रत से भी जीवों के असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती है।
इस देशव्रत में दर्शन प्रतिमा से लेकर उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा तक ग्यारह भेद भी होते हैं।
असंयम—चौदह प्रकार के जीवसमास और अट्ठाईस प्रकार के इंद्रियों से जो विरत नहीं हैं उनको असंयम कहते हैं। पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध, आठ स्पर्श और षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद ये सात स्वर तथा एक मन इस तरह इंद्रियों के अट्ठाईस विषय हैं अर्थात् संयम के प्राणिसंयम, इंद्रियसंयम की अपेक्षा दो भेद हैं। जीवसमासगत प्राणििंहसा से विरत होना प्राणिसंयम और इंद्रिय विषयों से विरत होना इंद्रिय संयम है। असंयम में दोनों प्रकार की विरति नहीं है।
संयमी जीवों की संख्या—छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें तक सब संयमी हैं। उन सबकी संख्या तीन कम नव करोड़ प्रमाण है अर्थात् एक साथ अधिक से अधिक इतने संयमी रह सकते हैं।
प्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीव ५,९३,९८,२०६, अप्रमत्त वाले २,९६,९९,१०३, उपशमश्रेणी वाले चारों गुणस्थानवर्ती १,१९६, क्षपकश्रेणी वाले चारों गुणस्थानवर्ती २,३९२, सयोगीजिन ८,९८,५०२, अयोगीजिन ५९८ इन सबका जोड़ ८,९९,९९,९९७ है। इन सबको मैं हाथ जोड़कर सिर झुकाकर त्रिकरणशुद्धि-पूर्वक नमस्कार करता हूँ।
आज पंचमकाल में मिथ्यात्व से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक असंयमी, देशसंयमी तथा मुनि अवस्था में सामायिक, छेदोपस्थापना संयमधारी मुनि होते हैं और पंचम काल के अंत तक होते रहेंगे इसमें कोई संशय नहीं है, ऐसा श्री कुुंदकुंद भगवान ने कहा है। ऐसा समझकर वर्तमान काल के मुनियों को भी भावलिंगी मानकर नमस्कार, भक्ति, आहारदान आदि करके अपने मनुष्य जीवन को सफल करना चाहिए। हाँ, यदि कोई साधु चारित्रभ्रष्ट हों तो उनका स्थितिकरण, उपगूहन करना चाहिए अन्यथा उनकी उपेक्षा कर देना चाहिए, उनकी निंंदा करके अपने सम्यक्त्व को मलिन नहीं करना चाहिए और स्वयं असंयत जीवन से निकलकर देशसंयत या मुनि बनना चाहिए।
दर्शनोपयोग का लक्षण—प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक है फिर भी उसमें आकार भेदरूप विशेष अंश को ग्रहण करके जो स्व या पर का सत्तारूप सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं। उसके चार भेद हैं—चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन।
चक्षुदर्शन—चक्षुइंद्रिय संबंधी जो सामान्य आभास होता है वह चक्षुदर्शन है।
अचक्षुदर्शन—चक्षु के सिवाय अन्य चार इंद्रियों के द्वारा या मन के द्वारा जो पदार्थ का सामान्यरूप से ग्रहण होता है वह अचक्षुदर्शन है।
अवधिदर्शन—अवधिज्ञान के पूर्व समय में अवधि के विषयभूत पदार्थों का जो सामान्यावलोकन है वह अवधिदर्शन है।
केवलदर्शन—जो लोक और अलोक दोनों जगह प्रकाश करता है ऐसे आत्मा के सामान्य आभासरूप प्रकाश को केवलदर्शन कहते हैं।
तीन इंद्रिय जीवों तक अचक्षुदर्शन ही होता है। चार इंद्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को दोनों दर्शन होते हैं। पंचेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि को ही, किन्हीं अवधिज्ञानी को अवधिदर्शन और केवली भगवान को ही केवलदर्शन होता है। संसारी जीवों के ज्ञान और दर्शन एक साथ नहीं होते हैं किन्तु केवली भगवान के दोनों एक साथ ही होते हैं। अत: दर्शनमार्गणा को समझकर समस्त बाह्य संकल्प विकल्प को छोड़कर अंतर्मुख होकर निर्विकल्प समाधि में स्थिरता प्राप्त कर शुद्धात्मा का अवलोकन करना चाहिए।
लेश्या का लक्षण—जो आत्मा को पुण्य पाप से लिप्त करे ऐसी कषायोदय से अनुरक्त योग (मन, वचन काय) की प्रवृत्ति लेश्या है।
लेश्या के दो भेद हैं—द्रव्यलेश्या, भावलेश्या। द्रव्यलेश्या शरीर के वर्णरूप है और भावलेश्या आत्मा के परिणामस्वरूप है। लेश्या के छह भेद हैं—कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल। इनके अवांतर भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं।
द्रव्यलेश्या का वर्णन—वर्ण नामकर्म के उदय से जीव के शरीर का वर्ण द्रव्यलेश्या है। सम्पूर्ण नारकी कृष्ण वर्ण हैं। कल्पवासी देवों की द्रव्यलेश्या, भावलेश्या सदृश है। भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, मनुष्य, तिर्यंच इनकी द्रव्य लेश्या छहों हैं। विक्रिया से रहित देवों के शरीर छहों वर्ण के हो सकते हैंं। उत्तम भोगभूमियों-उत्तर कुरु के मनुष्य, तिर्यंचों का वर्ण सूर्य के समान, मध्यम भोगभूमि-हरि-रम्यक् वालों का चंद्र के समान, जघन्य भोगभूमि-हैमवत-हैरण्यवत् वालों का हरित वर्ण है।
भावलेश्या का वर्णन—अशुभ तीन लेश्या में तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र ये तीन स्थान होते हैं। शुभ लेश्या में मंद, मन्दतर, मन्दतम ये तीन स्थान होते हैं।
कृष्णलेश्या—तीव्र क्रोधी, वैर न छोड़े, युद्धाभिलाषी, धर्मदया से शून्य, दुष्ट और किसी के वश में न होवे यह कृष्णलेश्या के लक्षण हैं।
नीललेश्या—काम करने में मंद हो, स्वच्छंद हो, विवेक, चतुरता रहित हो, इंद्रियलम्पट, मानी, मायाचारी, आलसी हो, गूढ़ अभिप्रायी, निद्रालु, वंचक, विषयों का लोलुपी हो ये सब नीललेश्या के लक्षण हैं।
कापोतलेश्या—दूसरे पर क्रोध करना, निंदा करना, दु:ख देना, वैर करना, शोकाकुलित रहना, भयग्रस्त होना, दूसरों के ऐश्वर्यादि को न सह सकना, दूसरे का तिरस्कार करना, अपनी प्रशंसा करना, स्तुति में संतुष्ट होना आदि इस लेश्या के लक्षण हैं।
पीतलेश्या—अपने कार्य-अकार्य, सेव्य-असेव्य को समझना, सबके विषय में समदर्शी होना, दया और दान में तत्पर होना, मन-वचन-काय से कोमल परिणामी होना, ये सब पीतलेश्या के चिन्ह हैं।
पद्मलेश्या—दान देने वाला हो, भद्र परिणामी, उत्तम कार्य करने का स्वभावी हो, कष्टरूप व अनिष्ट उपसर्गों का सहन करने वाला हो, मुनिजन, गुरुजन की पूजा में प्रीतियुक्त हो, ये सब पद्मलेश्या के लक्षण हैं। शुक्ललेश्या—पक्षपात न करना, निदान को न बाँधना, सब जीवों में समदर्शी होना, इष्ट से राग अनिष्ट से द्वेष न करना, स्त्री, पुत्र आदि में स्नेह रहित होना ये सब शुक्ललेश्या के लक्षण हैं।
किस लेश्या वाले के कैसे भाव होते हैं ? इसका दृष्टांत से स्पष्टीकरण—
कृष्णादि लेश्या वाले छह पथिक वन में मार्ग भूल जाने से एक फलों के भार से युक्त वृक्ष के पास जाकर इस प्रकार क्रिया करते हैं—
कृष्ण लेश्या वाला इस वृक्ष को जड़ से उखाड़कर फल खाने का इच्छुक होकर वृक्ष को जड़ से काटने लगा। नीललेश्या वाला वृक्ष के स्कंध को काटकर फल खाने का इच्छुक हो स्कंध काटने लगा। कापोतलेश्या वाला बड़ी-बड़ी शाखाओं को काटकर फल खाने लगा। पीतलेश्या वाला छोटी-छोटी शाखाओं को काटकर फल लेकर खाने लगा। पद्मलेश्या वाला फलों को वृक्ष से तोड़कर खाने लगा और शुक्ललेश्या वाला वृक्ष से स्वयं टूट कर पड़े हुए फलों को उठाकर खाने लगा। इस प्रकार से लेश्या के और भी उदाहरण समझना।
लेश्याओं का काल—सभी लेश्याओं का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तैंतीस सागर आदि है।
छहों लेश्याओं के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद की अपेक्षा अठारह भेद होते हैं। इनमें आठ अपकर्षकाल संबंधी अंशों के मिलाने पर छब्बीस भेद हो जाते हैं। जैसे—किसी कर्मभूमियाँ मनुष्य की भुज्यमान१ आयु का प्रमाण ‘‘छह हजार पाँच सौ इकसठ’’ वर्ष है। इसके तीन भाग में से दो भाग के बीतने पर और एक भाग शेष रहने पर, इस एक भाग के प्रथम समय से लेकर अंतर्मुहूर्त पर्यंत प्रथम अपकर्ष काल कहा गया है। इस अपकर्षकाल में परभव संबंधी आयु का बंध होता है। यदि यहाँ आयु न बंधी तो अवशिष्ट आयु के तीन भाग में से एक भाग शेष रहने पर दूसरा अपकर्ष काल आता है। यदि यहाँ भी आयु न बंधी तो शेष आयु के तीन भाग में से शेष एक भाग के रहने पर अपकर्षकाल आता है। यदि यहाँ भी न बंधी तो ऐसे ही चौथे, पाँचवें, छठे, सातवें, आठवें अपकर्ष में से परभव संबंधी आयु का बंध होता है। यदि इन आठ अपकर्ष कालों में से किसी में भी बंध न हुआ तो भुज्यमान आयु के अंतिम आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल से पूर्व के अन्तर्मुहूर्त में अवश्य ही आयु का बंध होता है यह नियम है। अगली आयु के बंध के बिना मरण असंभव है।
इन आठ अपकर्ष काल में से किसी में भी लेश्याओं के आठ मध्यम-अंशों में से जो अंश होगा उसके अनुसार आयु का बंध होगा, अपकर्ष काल में होने वाले लेश्याओं के आठ मध्यम अंशों को छोड़कर बाकी के आठ अंश चारों गतियों के गमन के कारण होते हैं। यह सामान्य कथन है। शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट अंश से संयुक्त जीव मरकर नियम से सर्वार्थसिद्धि को जाते हैं।
विशेष—कर्मभूमियाँ मनुष्य और तिर्यंच के लिये आयु के तीन भाग में से एक भाग शेष रहने पर ही आयु बंध के कारणभूत आठ अपकर्ष काल होते हैं। देव, नारकियों के आयु का छह महिना शेष रहने पर आठ अपकर्ष काल आते हैं। भोगभूमियाँ मनुष्य या तिर्यंच के आयु के नौ महीना शेष रहने पर ये आठ अपकर्ष काल आते हैं। इस प्रकार लेश्याओं के ये आठ अंश आयु बंध के कारण कहे गये हैं।
जो कृष्णादि छहों लेश्याओं से रहित हैं अत: पंचपरिवर्तनरूप संसार समुद्र के पार हो गये हैं, अतीन्द्रिय, अनंतसुख से तृप्त, आत्मोपलब्धिरूप सिद्धपुरी को पहुँच चुके हैं वे अयोगीकेवली या सिद्ध भगवान हैं।
लेश्याओं के प्रकरण को समझकर अशुभ लेश्या से बचकर शुभ लेश्या को धारण करते हुए लेश्यारहित शुद्धात्मा स्वरूप में स्थिर होने के लिये बार-बार प्रयत्न करना चाहिये। यह आत्मा वर्णादि से रहित शुद्ध परम स्वच्छ है, उसी का नित्यप्रति िंचतवन करना चाहिए।
जिन जीवों की अनंतचतुष्टयरूप सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों उनको भव्य कहते हैं। जिनमें इन दोनों में से कोई लक्षण घटित न हो उनको अभव्य कहते हैं अर्थात् कितने ही भव्य ऐसे हैं जो मुक्ति प्राप्ति के योग्य हैं परन्तु कभी भी मुक्त न होंगे। जैसे—विधवा सती स्त्री में पुत्रोत्पत्ति की योग्यता है परन्तु उसके कभी पुत्र उत्पन्न नहीं होगा। कोई भव्य ऐसे हैं जो नियम से मुक्त होंगे। जैसे-बन्ध्यापने से रहित स्त्री के निमित्त मिलने पर नियम से पुत्र उत्पन्न होगा। इस तरह स्वभाव भेद के कारण भव्य दो प्रकार के हैं। इन दोनों स्वभावों से रहित अभव्य हैं जैसे— बन्ध्या स्त्री के निमित्त मिले चाहे न मिले किन्तु पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता है।
जघन्य युक्तानन्त प्रमाण अभव्य राशि है और भव्य राशि इससे बहुत ही अधिक है। काल के अनंत समय हैं फिर भी ऐसा कोई समय नहीं आयेगा कि जब भव्य राशि से संसार खाली हो जाए। अनंतानंत काल के बीत जाने पर भी अनंतानंत भव्यराशि संसार में विद्यमान ही रहेगी क्योंकि यह राशि अक्षय अनंत है।
यद्यपि छह महीना आठ समय में ६०८ जीव मोक्ष चले जाते हैं और छह महीना आठ समय में इतने ही जीव निगोदराशि से निकलते हैं फिर भी कभी संसार का अंत नहीं हो सकता है न निगोद राशि में ही घाटा आ सकता है। जिनका पंचपरिवर्तनरूप अनंत संसार सर्वथा छूट गया है और इसलिये जो मुक्ति सुख के भोक्ता हैं उन जीवों को न तो भव्य समझना और न अभव्य समझना क्योंकि अब उनको कोई नवीन अवस्था प्राप्त करना शेष नहीं रहा इसलिये भव्य नहीं हैं और अनंत चतुष्टय को प्राप्त हो चुके इसलिये अभव्य भी नहीं हैं। ऐसे मुक्त जीव भी अनंतानंत हैं।
सम्यक्त्व का लक्षण—छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, नव पदार्थ इनका जिनेन्द्रदेव के कहे अनुसार श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। इसके दो भेद हैं-आज्ञासम्यक्त्व एवं अधिगम सम्यक्त्व। सूक्ष्मादि तत्त्वों में जिनेन्द्रदेव ने जो कहा सो ठीक है, वे अन्यथावादी नहीं हैं ऐसा श्रद्धान करना आज्ञासम्यक्त्व है और प्रमाण-नयादि से समझकर या परोपदेशपूर्वक श्रद्धान करना अधिगम सम्यक्त्व है।
सम्यक्त्व मार्गणा के छह भेद हैं—क्षायिक, वेदक, उपशमसम्यक्त्व, सासादन, मिश्र और मिथ्यात्व।
क्षायिकसम्यक्त्व—अनंतानुबंधी कषाय की चार और दर्शन मोहनीय की तीन ऐसे सात प्रकृतियों के अत्यंत क्षय से जो निर्मल श्रद्धान होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्व नित्य है और असंख्यात गुणश्रेणीरूप से कर्मों के क्षय में कारण है। क्षायिक सम्यक्त्व होने पर यह जीव उसी भव से मुक्त हो जाता है अथवा देवायु का बंध हो गया है तो तीसरे भव से मुक्त होता है। यदि सम्यक्त्व के पहले मिथ्यात्व अवस्था में मनुष्य या तिर्यंचायु का बंध कर लिया है तो उत्तम भोगभूमि में मनुष्य या तिर्यंच होकर स्वर्ग जाकर पुन: मनुष्य होकर मुक्त होता है। अत: चौथे भव में नियम से सिद्ध हो जाता है उसका उल्लंघन नहीं करता है। सम्यक्त्व के पहले कदाचित् नरकायु का बंध कर ले तो भी श्रेणिक के समान तृतीय भव से ही मोक्ष जायेगा अत: यह सम्यक्त्व सादि अनंत है। कर्मभूमि का मनुष्य केवली के पादमूल में ही दर्शनमोहनीय का क्षय प्रारंभ करता है अन्यत्र नहीं। अत: आजकल वह सम्यक्त्व नहीं है।
वेदकसम्यक्त्व—सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति के उदय से पदार्थों का जो चल-मलिन-अगाढ़- रूप श्रद्धान होता है वह वेदकसम्यक्त्व है यद्यपि सभी तीर्थंकर समान हैं, पार्श्वनाथ संकट हरने वाले हैं, ऐसा जो भाव है वह चलदोष है। कदाचित् अतिचार के लग जाने से मलिन दोष आता है। अपने बनाये हुए मंदिर में ‘‘यह मंदिर मेरा है’’ इत्यादि भावों से अगाढ़ दोष होता है। सम्यक्त्व प्रकृति के निमित्त से दोष हो जाया करते हैं। इसकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति छ्यासठ सागर प्रमाण है।
उपशमसम्यक्त्व—पाँच अथवा सात प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व होता है वह उपशम सम्यक्त्व है। कीचड़ के नीचे बैठ जाने से निर्मल जल के सदृश यह सम्यक्त्व भी निर्मल होता है। इसकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्त है। यह सम्यक्त्व अनादि मिथ्यादृष्टि के पाँच प्रकृतियों के उपशम से (सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति को छोड़कर) और सादि मिथ्यादृष्टि के सात प्रकृतियों के उपशम से होता है।
सम्यक्त्व उत्पत्ति में सामग्री—कोई भी जीव चारों गति में से किसी एक गति में हो, भव्य, संज्ञी, पर्याप्त, मंदकषाय से युक्त, जाग्रत, ज्ञानोपयोग युक्त शुभ लेश्या का धारक होकर करणलब्धिरूप परिणाम को प्राप्त करता है तब सम्यक्त्व को प्राप्त करता है अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए पांच लब्धि हैं-क्षायोपशमिक, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। इनमें पहली चार तो सामान्य हैं, भव्य-अभव्य दोनों के सम्भव है किन्तु करणलब्धि होने पर नियम से सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है। सबसे प्रथम अनादि मिथ्यादृष्टि को उपशम सम्यक्त्व ही होता है। अनंतर वेदक और क्षायिक होते हैं।
सम्यग्दृष्टि जीव की विशेषता—चारों गति सम्बधी आयु के बंध हो जाने पर भी सम्यक्त्व हो सकता है किन्तु देवायु को छोड़कर शेष आयु का बंध होने पर अणुव्रत और महाव्रत नहीं हो सकते हैं।
सासादन सम्यक्त्व—जो जीव सम्यक्त्व से च्युत हो गया है किन्तु मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है वह सासादन गुणस्थान वाला है।
मिश्र—विरताविरत की तरह जिसके तत्त्वों का श्रद्धान और अश्रद्धान दोनों है, वह मिश्रगुणस्थान वाला है।
मिथ्यात्व—जो जिनेन्द्र कथित आप्तादि का श्रद्धान नहीं करता है और कुदेव, कुतत्त्व आदि का श्रद्धान करता है वह मिथ्यादृष्टि है।
पुण्य-पाप जीव—मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थान वाले जीव पाप जीव है। मिश्रगुण स्थान वाले पुण्य पाप के मिश्ररूप हैंं तथा चौथे गुणस्थान के असंयत से लेकर सभी पुण्य जीव हैं।
एक बार जिस जीव को सम्यग्दर्शन हो जाता है वह जीव नियम से मोक्ष को प्राप्त करता है। कम से कम अंतर्मुहूर्त में और अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक वह संसार में रह सकता है। इसलिये करोड़ों उपाय करके सम्यक्त्वरूपी रत्न को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये।
जीव दो प्रकार के होते हैं—संज्ञी और असंज्ञी।
संज्ञी—नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम या उससे उत्पन्न ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। वह जिसके हो वह संज्ञी कहलाता है अर्थात् मन सहित जीव संज्ञी हैं। ये शिक्षा, उपदेश, संकेत ग्रहण कर सकते हैं। असंज्ञी—मन रहित जीव असंज्ञी कहलाते हैं। ये शिक्षा, उपदेश आदि नहीं समझ सकते। हित में प्रवृत्ति और अहित से हटना भी नहीं समझ सकते हैं।
सम्पूर्ण देव, नारकी, मनुष्य और मन सहित पंचेन्द्रिय तिर्यंच संज्ञी हैं। शेष एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सभी जीव असंज्ञी हैं। ये अनंत संसारी जीव असंज्ञी है।
तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव और सिद्ध जीव संज्ञी, असंज्ञी अवस्था से रहित आत्मज्ञान से परिपूर्ण केवलज्ञानी हैं।
जीव के दो भेद हैं—आहारक और अनाहारक।
शरीर नामकर्म के उदय से औदारिक आदि किसी शरीर के योग्य तथा वचन, मन के योग्य वर्गणाओं का यथासम्भव ग्रहण होना आहार है उसको ग्रहण करने वाला जीव आहारक है। इसके विपरीत अर्थात् नोकर्म वर्गणाओं को ग्रहण न करने वाले जीव अनाहारक हैं।
अनाहारक जीव—विग्रहगति वाले जीव, केवली समुद्घात में प्रतर और लोकपूरण समुद्घात वाले सयोगिकेवली जीव तथा अयोगिकेवली और सभी सिद्ध अनाहारक होते हैं।
आहारक जीव—उपर्युक्त अनाहारक से अतिरिक्त शेष सभी जीव आहारक होते हैं। आहारक के छह भेद हैं—कवलाहार, कर्माहार, नोकर्माहार, लेपाहार, ओज आहार और मानसिक आहार।
ग्रास उठाकर खाना कवलाहार है। यह सभी मनुष्य और तिर्यंच आदि में होता है। आठ कर्मयोग्य वर्गणाओं का ग्रहण करना कर्माहार है, यह विग्रहगति में भी होता है। शरीर और पर्याप्ति के योग्य नोकर्म वर्गणाओं का ग्रहण करना नोकर्माहार है यह केवली भगवान के भी होता है, उनके भी शरीर के योग्य वर्गणायें आ रही हैं वे आहारक हैं। फिर भी वे कवलाहार नहीं करते हैं। जो लेप से पोषण होता है वह लेपाहार है, यह वृक्षों में पाया जाता है। जो शरीर की गर्मी से पोषण करता है वह ओजाहार है जैसे—मुर्गी अण्डे को सेकर गर्मी देती है। देवों के मन में इच्छा होते की कंठ से अमृत झर कर तृप्ति हो जाती है यह मानसिक आहार है। देव लोग बलि या माँस भक्षण अथवा सुरापान आदि नहीं करते हैं।
अनाहारक का उत्कृष्ट काल तीन समय और जघन्यकाल एक समय है। आहारक का जघन्यकाल तीन समय कम श्वांस के अठारहवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट काल सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
आहारक मार्गणा को समझकर कवलाहार के त्यागपूर्वक उपवास, तपश्चरण करते हुए कर्म-नोकर्माहार से रहित अनाहारक सिद्धपद प्राप्त करना चाहिए।
बाईस परीषहों के नाम-क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन। मोक्षार्थी पुरुष इन्हें शांतभाव से सहन करते हैं, तब इन्हें भिक्षा (आहार) नहीं मिलने पर या अल्प मिलने पर परीषहजय कहते हैं।
खेद को प्राप्त नहीं होना क्षुधा परीषहजय है।
प्यास की बाधा को समाधिरूपी जल से शांत करना तृषापरीषहजय है।
आवरण (वस्त्र) आदि से रहित खुले स्थान पर बर्फ आदि की ठण्डी को सहन करना शीत परीषहजय है।
ग्रीष्मकालीन सूर्य से संतप्त पृथ्वी पर उष्णता को सहन करना उष्ण परीषहजय है।
दंश, मशक, बिच्छू, सर्प आदि से काटे जाने पर उनकी पीड़ा को सहन करना दंशमशक परीषहजय है।
बालकवत् निर्विकार रहना नग्न परीषहजय है।
शून्य स्थान, गुफा आदि में अरुचि न करके ध्यान, अध्ययन करना अरति परीषहजय है।
स्त्री द्वारा विभ्रम भाव से बाधा पहुँचाने पर भी निश्चल मन रहना स्त्री परीषहजय है।
कंकरीली सड़कों पर चलते समय खेदखिन्न नहीं होना चर्यापरीषहजय है।
नियतकाल तक बैठने पर कष्ट होता है, उसे शांति से सहन करना निषद्या परीषहजय है।
स्वाध्याय आदि से थककर एक करवट, शयन करते समय कंकरीली आदि पृथ्वी के निमित्त से हुए कष्ट को सहन करना शय्या परीषहजय है।
अज्ञानियों द्वारा कठोर, असभ्य, निन्द्य वचन सुनकर भी क्रोध नहीं करना आक्रोश परीषहजय है।
अज्ञानी द्वारा तीक्ष्ण मुद्गर आदि से ताड़ित किये जाने पर भी दु:खी नहीं होना वध परीषहजय है।
शरीर के शुष्क हो जाने पर भी आहार, औषधि आदि नहीं मांगना याचना परीषहजय है।
बहुत काल तक आहार का लाभ न मिलने पर भी ‘‘लाभादलाभो वरं मे’’ लाभ की अपेक्षा अलाभ ही अच्छा है, ऐसा मानना अलाभ परीषहजय है।अनेक रोगों के हो जाने पर भी औषधि उपचार आदि की अपेक्षा नहीं करना रोग परीषहजय है।
तृण, कंकड़, कांटे आदि की बाधा को सहन करते हुए प्राणी पीड़ा को परिहार करने की भावना रखना तृणस्पर्श परीषहजय है।
स्नान त्याग व्रत होने से मल से लिप्त शरीर होते हुए खाज आदि रोग से उत्पन्न पीड़ा की उपेक्षा कर देना, मलिन शरीर से मन में ग्लानि नहीं लाना मलपरीषहजय है।
महातपस्वी, सिद्धान्तवेत्ता, कुशल साधु होने पर भी किसी द्वारा सत्कार पुरस्कार को प्राप्त नहीं होने पर मन में खिन्न नहीं होना सत्कार पुरस्कार परीषहजय है।
मैं बहुत ज्ञानी हूँ इत्यादि रूप से विद्या-बुद्धि का मद नहीं करना प्रज्ञा परीषहजय है।
‘यह मूर्ख है’ इत्यादि शब्दों द्वारा दूसरों से अपमानित होने पर भी और मैंने घोर तपश्चरण आदि किया है, फिर भी मुझमें ज्ञान का अतिशय नहीं होता है इत्यादि रूप से खिन्न नहीं होना अज्ञान परीषहजय है।
मैं शुद्ध परिणामी चिरदीक्षित हूँ फिर भी मेरी देवादिकों द्वारा कोई पूजा आदि नहीं होती है। ‘महोपवासादि से देवों द्वारा अतिशय किया जाता था, यह सब असत्य दिखता है, ऐसा मन में नहीं सोचना अदर्शन परीषहजय है।
साधु, संवर और निर्जरा के लिए इन उत्तरगुणों का पालन भी करते हैं किन्तु यदि इन उत्तरगुणों का पालन न हो सके तो वे मुनि नहीं रहे, ऐसी बात नहीं है।