अमृतवर्षिणी टीका— चौबीस तीर्थंकर भगवंतों की यथाकाल वन्दना आदि करना।
सभी तीर्थंकरों ने पूर्वभवों में मनुष्य गति में सोलहकारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। अत: यहाँ पर सर्वप्रथम सोलहकारण भावना का वर्णन धवला पुस्तक-८ से दे रहे हैं—
मनुष्यगति में ही तीर्थंकर कर्म के बंध का प्रारंभ होता है, अन्यत्र नहीं, इस बात के ज्ञापनार्थ सूत्र में ‘वहाँ’ ऐसा कहा गया है।
शंका-मनुष्यगति के सिवाय अन्य गतियों में उसके बंध का प्रारंभ क्यों नहीं होता ?
समाधान-इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि अन्य गतियों में उसके बंध का प्रारंभ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्म के बंध के प्रारंभ का सहकारी कारण केवलज्ञान से उपलक्षित जीव द्रव्य है, अतएव मनुष्यगति के बिना उसके बंध प्रारंभ की उत्पत्ति का विरोध है। अथवा, उनमें तीर्थंकरनामकर्म के बंध के कारणों को कहते हैं, यह अभिप्राय है। ‘सोलह’ इस प्रकार कारणों की संख्या का निर्देश किया गया है। पर्यायार्थिक नय का अवलम्बन करने पर एक भी कारण होता है, दो भी होते हैं। इसलिए यहाँ सोलह ही कारण होते हैं, ऐसा अवधारण नहीं करना चाहिए। इसके निर्णयार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं-
सूत्रार्थ-दर्शनविशुद्धता, विनयसम्पन्नता, शीलव्रतों में निरतिचारता, छह आवश्यकों में अपरिहीनता, क्षण-लवप्रतिबोधनता, लब्धि-संवेगसम्पन्नता, यथाशक्ति तप, साधुओं को प्रासुकपरित्यागता, साधुओं की समाधिसंधारणता, साधुओं की वैयावृत्ययोगयुक्तता, अरहंतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावनता और अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता, इन सोलह कारणों से जीव तीर्थंकर नाम-गोत्रकर्म को बांधते हैं।।४१।।
तीर्थंकर प्रकृति का चूँकि उच्च गोत्र के साथ अविनाभाव पाया जाता है, इसीलिए उसे यहाँ ‘गोत्र’ नाम से कहा गया है।
(१) दर्शन से यहाँ अभिप्राय सम्यग्दर्शन का है। तीन मूढ़ता, आठ शंकादि दोष, छह अनायतन और आठ मद इन पच्चीस दोषों से रहित निर्मल सम्यग्दर्शन का नाम दर्शनविशुद्धता है।
(२) विनय के तीन भेद हैं—ज्ञान विनय, दर्शन विनय और चारित्र विनय। ज्ञान के विषय में उपयोगयुक्त रहना, उपाध्याय, श्रुत आदि की भक्ति है। निर्दोष शीलव्रतों को पालते हुये आवश्यकों में दोष न लगाना चारित्र विनय है। इन तीनों विनय की परिपूर्णता ही विनयसम्पन्नता है।
(३) हिंसा आदि पाँचों पापों के त्याग को व्रत और उनके रक्षण को शील कहा जाता है। मद्यपान आदि करने एवं कषायादि के त्याग न करने को अतिचार कहते हैं। अतिचारों से रहित शील और व्रतों का पालन करना शीलव्रतेषु अनतिचारता है।
(४) समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग ये छह आवश्यक हैं। शत्रु—मित्र आदि इष्ट—अनिष्ट विषयों में राग—द्वेष का परित्याग समता है। त्रैकालिक पाँच परमेष्ठियों में भेद न करके ‘‘णमो अरिहंताणं, णमो जिणाणं’’ आदि उच्चारणपूर्वक नमस्कार करना स्तव है। ऋषभ आदि तीर्थंकर, भरत आदि केवली, आचार्य तथा चैत्यालय आदि में भेद करके उनके गुण स्मरणपूर्वक नमस्कार करना वंदना है। चौरासी लाख उत्तर गुणों से सहित महाव्रतों में उत्पन्न हुये मल को धोने का नाम प्रतिक्रमण है। महाव्रतों में मलोत्पादन के कारण जिस प्रकार न होंगे ऐसा मैं करता हूँ ऐसी मन से आलोचना करके चौरासी लाख व्रतों की शुद्धि को ग्रहण करना प्रत्याख्यान है। एकाग्रतापूर्वक ध्येय वस्तु की ओर मन को रोकना व्युत्सर्ग है। इन छह आवश्यकों की अखंडता अर्थात् परिपूर्णता का नाम आवश्यक-अपरिहीनता है।
(५) क्षण और लव ये काल विशेष के नाम हैं। सम्यक्त्व व्रतादि को उज्ज्वल करने, मन को धोने अथवा जलाने का नाम प्रतिबोधन है। प्रत्येक क्षण में व लव में होने वाले प्रतिबोध को क्षणलव-प्रतिबोधनता कहते हैं।
(६) रत्नत्रय का लाभ लब्धि है। उसमें हर्ष होना संवेग है। इस लब्धि संवेग की पूर्णता का नाम लब्धिसंवेगसम्पन्नता है।
(७) थाम का अर्थ बल—वीर्य है। अपनी शक्ति के अनुसार बाह्य और अभ्यंतर तप करना यथानाम तथा तप अर्थात् शक्तितस्तप है।
(८) अनंतज्ञानादि, क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणों के साधक साधु हैं। ज्ञान, दर्शन आदि निरवद्य निर्दोष होने से प्रासुक कहलाते हैं। साधुओं के द्वारा दयापूर्वक जो दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि का त्याग या दान है वह ‘प्रासुक परित्यागता’’ है। यह कारण गृहस्थों में सम्भव नहीं है, क्योंकि उनमें चारित्र का अभाव है। रत्नत्रय का उपदेश भी गृहस्थों में सम्भव नहीं है क्योंकि दृष्टिवाद आदि उपरिम श्रुत का उपदेश देने का उनको अधिकार नहीं है। अतएव यह कारण महर्षियों के ही होता है।
(९) रत्नत्रय में सम्यक् अवस्थान का नाम समाधि है। उसको सम्यक््â प्रकार से धारण या सिद्ध करना समाधि-संधारणता है।
(१०) रोगादि से व्याकुल साधु के विषय में जो उपचार आदि किया जाय वह वैयावृत्य है। जो जीव सम्यक्त्वादि और अर्हंतभक्ति आदि से वैयावृत्य में प्रवृत्त होता है उसके वैयावृत्य-योगयुक्तता होती है।
(११) जो घातिया कर्म या आठों कर्मों को नष्ट कर चुके हैं, वे अरिहंत हैं। उनके गुणों में अनुराग करना, उनके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करना या उक्त अनुष्ठान का स्पर्श करना अरिहंतभक्ति है।
(१२) द्वादशांग के पारगामी बहुश्रुत होते हैं। उनकी भक्ति करना, उनके द्वारा उपदिष्ट आगम अर्थ के अनुकूल प्रवृत्ति करना बहुश्रुतभक्ति है।
(१३) सिद्धान्त या बारह अंगों का नाम प्रवचन है। इसमें होने वाले देशव्रती, महाव्रती और असयंत सम्यग्दृष्टि भी प्रवचन कहे जाते हैं। इनमें जो अनुराग, आकांक्षा अथवा ‘‘ममेदं’’ ये मेरे हैं ऐसी बुद्धि होना प्रवचन-वत्सलता है।
(१५) आगमार्थ का नाम प्रवचन है। उसकी कीर्ति को विस्तृत करना या वृद्धिंगत करना यह प्रवचन-प्रभावनता कहलाती है।
(१६) अभीक्ष्ण—अभीक्ष्ण का अर्थ बहुत बार या बार—बार है। ज्ञानोपयोग से भावश्रुत अथवा द्रव्यश्रुत लिया जाता है। दोनों प्रकार के श्रुत में बार—बार उपयोग लगाते रहना अभीक्ष्ण—अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्तता है।
इन सोलह कारणों के होने पर जीव तीर्थंकर नाम कर्म को बाँधते हैं अथवा सम्यग्दर्शन के होने पर शेष कारणों में से एक, दो आदि कारणों के संयोग से तीर्थंकर नाम कर्म बँधता है।
सूत्र-जस्स इणं तित्थयरणामगोदकम्मस्स उदएण सदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स अच्चणिज्जा पूजणिज्जा वंदणिज्जा णमंसणिज्जा णेदारा धम्म-तित्थयरा जिणा केवलिणो हवंति।।४२।।
सूत्रार्थ-जिन जीवों के तीर्थंकर नाम-गोत्रकर्म का उदय होता है, वे उसके उदय से देव, असुर और मनुष्य लोक के अर्चनीय, पूजनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, नेता और धर्मतीर्थ के कर्ता जिन व केवली होते हैं।।४२।।
सूत्र में ‘तीर्थंकर नामगोत्रकर्म का’ यहाँ ‘उदय’ और ‘उससे’ इन दो पदों का अध्याहार करना चाहिए, अन्यथा अर्थ की उपलब्धि नहीं होती। जिसके अर्थात् जिन जीवों के, यह अर्थात् इस तीर्थंकर नाम गोत्रकर्म का उदय होता है, वे उसके उदय से देव, असुर एवं मनुष्योंं से परिपूर्ण लोक के अर्चनीय होते हैं, ऐसा संबंध करना चाहिए। चरु, बलि, पुष्प, फल, गंध, धूप, दीप आदिकों से अपनी भक्ति प्रकाशित करने का नाम अर्चना है। इनके साथ ऐन्द्रध्वज, कल्पवृक्ष, महामह और सर्वतोभद्र इत्यादि महिमाविधान को पूजा कहते हैं। आप अष्ट कर्मों को नष्ट करने वाले, केवलज्ञान से समस्त पदार्थों को देखने वाले, धर्मोन्मुख शिष्टों की गोष्ठी में अभयदान देने वाले, शिष्टपरिपालक और दुष्टनिग्रहकारी देव हैं, ऐसी प्रशंसा करने का नाम वंदना है। पाँच मुष्टियों अर्थात् पाँच अंगों द्वारा भूमि को स्पर्श करते हुए जिनेन्द्र देव के चरणों में पड़ने को नमस्कार कहते हैं। धर्म का अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। इनसे संसार-सागर को तरते हैं। इसीलिए इन्हें तीर्थ कहा जाता है। इस धर्म-तीर्थ के कर्ता जिन, केवली और नेता होते हैं।