चौबीस तीर्थंकरों के ३४ अतिशय, ८ प्रातिहार्य व ४ अनंत चतुष्टय ऐसे ४६ गुण होते हैं। वे समवसरण में िंसहासन पर चार अंगुल अधर विराजमान रहते हैं।
लोक और अलोक को प्रकाशित करने के लिये सूर्य के समान भगवान् अरहन्त देव उन िंसहासनों के ऊपर आकाश मार्ग में चार अंगुल के अन्तराल से स्थित रहते हैं।।८९५।।१
स्वेद रहितता, निर्मलशरीरता, दूध के समान धवल रुधिर, वङ्कार्षभनाराचसंहनन, समचतुरस्ररूप शरीरसंस्थान, अनुपमरूप, नवचम्पक की उत्तम गन्ध के समान गन्ध का धारण करना, एक हजार आठ उत्तम लक्षणों का धारण करना, अनंत बल—वीर्य और हित-मित एवं मधुर भाषण, ये स्वाभाविक जन्म के अतिशय के दश भेद हैं। यह दशभेदरूप अतिशय तीर्थंकरों के जन्म से ही उत्पन्न हो जाते हैं।
अपने पास से चारों दिशाओं में एक सौ योजन तक सुभिक्षता, आकाशगमन, िंहसा का अभाव, भोजन का अभाव, उपसर्ग का अभाव, सब की ओर मुखकर के स्थित होना, छायारहितता, निर्निमेष दृष्टि, विद्याओं की ईशता, सजीव होते हुए भी नख और रोमों का समान रहना, अठारह महाभाषा, सात सौ क्षुद्रभाषा तथा और भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षरानक्षरात्मक भाषायें हैं उनमें तालु, दांत, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर एक ही समय भव्य जनों को दिव्य उपदेश देना। भगवान जिनेन्द्र की स्वभावत: अस्खलित और अनुपम दिव्यध्वनि तीनों संध्या कालाओं में नव मुहूर्तों तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इसके अतिरिक्त गणधरदेव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। यह दिव्यध्वनि भव्य जीवों को छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है। इस प्रकार घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए ये महान् आश्चर्यजनक ग्यारह अतिशय तीर्थंकरों को केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर प्रगट होते हैं।।८९९-९०६।।
तीर्थंकरों के माहात्म्य से संख्यात योजनों तक वन असमय में ही पत्र, फूल और फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाता है; कंटक और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती है, जीव पूर्व बैर को छोड़कर मैत्रीभाव से रहने लगते हैं, उतनी भूमि दर्पणतल के सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है, सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देव सुगन्धित जल की वर्षा करता है, देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्य को रचते हैं, सब जीवों को नित्य आनन्द उत्पन्न होता है, वायुकुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलाता है, कूप और तालाब आदिक निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं, आकाश धुंआ और उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है, सम्पूर्ण जीवों को रोगादि की बाधायें नहीं होती है, यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्मचक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है, तीर्थंकरों के चारों दिशाओं में (विदिशाओं सहित) छप्पन सुवर्णकमल, एक पादपीठ और दिव्य एवं विविध प्रकार के पूजन द्रव्य होते हैं।।९०७-९१४।।
चौंतीस अतिशयों का वर्णन पूर्ण हुआ।
ऋषभादि तीर्थंकरों को जिन वृक्षों के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है वे ही अशोक वृक्ष हैं।।९१५।। न्यग्रोध, सप्तपर्ण, शाल, सरल, प्रियंगु, फिर वही (प्रियंगु) शिरीष, नागवृक्ष, अक्ष (बहेड़ा), धूली (मालिवृक्ष), पलाश, तेंदू, पाटल, पीपल, दधिपर्ण, नन्दी, तिलक, आम्र, कंकेलि (अशोक), चम्पक, बकुल, मेषशृङ्ग, धव और शाल, ये अशोकवृक्ष लटकती हुई मालाओं से युक्त और घंटा समूहादिक से रमणीय होते हुए पल्लव एवं पुष्पों से झुकी हुई शाखाओं से शोभायमान होते हैं।।९१६-९१८।।
ऋषभादिक तीर्थंकरों के उपर्युक्त चौबीस अशोकवृक्ष बारह से गुणित अपने अपने जिन की ऊँचाई से युक्त होते हुए शोभायमान हैं।।९१९।। बहुत वर्णन से क्या ? इन अशोक वृक्षों को देखकर इन्द्र का भी चित्त अपने उद्यानवनों में नहीं रमता है।।९२०।।
सब तीर्थंकरों के चन्द्रमण्डल के सदृश और मुक्तासमूहों के प्रकाश से संयुक्त तीन छत्र शोभायमान होते हैं।।९२१।। उन तीर्थंकरों का निर्मल स्फटिक पाषाणों से निर्मित और उत्कृष्ट रत्नों के समूह से खचित जो विशाल िंसहासन होता है, उसका वर्णन करने के लिये कौन समर्थ हो सकता है।।९२२।।।
गाढ़ भक्ति में आसक्त, हाथों को जोड़े हुए और विकसित मुखकमल से संयुक्त, ऐसे सम्पूर्ण गण प्रत्येक तीर्थंकर को घेरकर स्थित रहते हैं।।९२३।। विषय—कषायों में अनासक्त और मोह से रहित होकर जिनप्रभु के शरण में जाओ, ऐसा भव्य जीवों को कहने के लिये ही मानों देवों का दुंदुभी बाजा गम्भीर शब्द करता है।।९२४।।
जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों के मूल में, रुण—रुण शब्द करते हुए भ्रमरों से व्याप्त और उत्तम भक्ति से युक्त देवों के द्वारा छोड़ी गई पुष्पवृष्टि गिरती है।।९२५।।
जो दर्शनमात्र से ही सम्पूर्ण लोगों को अपने सौ (सात ?) भवों के देखने में निमित्त है और करोड़ों सूर्यों के समान उज्ज्वल है ऐसा वह तीर्थंकरों का प्रभामण्डल जयवन्त होता है।।९२६।।
मृणाल, कुन्दपुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान सफेद तथा देवों के हाथों से नचाये गये (ढोरे गये) चौंसठ चामरों से वीज्यमान जिन भगवान् जयवन्त होवें।।९२७।।
जो चौंतीस अतिश्ायों को प्राप्त हैं, आठ महाप्रातिहार्यों से संयुक्त हैं, मोक्ष को करने वाले अर्थात् मोक्षमार्ग के नेता हैं और तीनों लोकों के स्वामी हैं, ऐसे तीर्थंकरों को मैं नमस्कार करता हूँ।।९२८।।
एक एक समवसरण में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण विविध प्रकार के जीव जिनदेव की वन्दना में प्रवृत्त होते हुए स्थित रहते हैं।।९२९।।
कोठों के क्षेत्र से यद्यपि जीवों का क्षेत्रफल असंख्यातगुणा है, तथापि वे सब जीव जिनदेव के माहात्म्य से एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं।।९३०।।
जिन भगवान् के माहात्म्य से बालक प्रभृति जीव प्रवेश करने अथवा निकलने में अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं।।९३१।।
इन कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते तथा अनध्यवसाय से युक्त, सन्देह से संयुक्त और विविध प्रकार की विपरीतताओं से सहित जीव भी नहीं होते हैं।।९३२।।
इसके अतिरिक्त वहां पर जिन भगवान् के माहात्म्य से आतंक, रोग, मरण, उत्पत्ति, वैर, कामबाधा तथा तृष्णा (पिपासा) और क्षुधा की पीड़ायें नहीं होती हैं।।९३३।।
४ अनन्त चतुष्टय—अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य ये चार अनंत चतुष्टय हैं अर्थात् भगवान के ये दर्शन-ज्ञानादि अन्त रहित होते हैं।
गोवदन, महायक्ष, त्रिमुख, यक्षेश्वर, तुम्बुरव, मातंग, विजय, अजित, ब्रह्म, ब्रह्मेश्वर, कुमार, षण्मुख, पाताल, किन्नर, िंकपुरुष, गरुड, गंधर्व, कुबेर, वरुण, भृकुटि, गोमेध, पार्श्व, मातंग और गुह्यक, इस प्रकार ये भक्ति से संयुक्त चौबीस यक्ष ऋषभादिक तीर्थंकरों के पास में स्थित रहते हैं।।९३४-९३६।।
चक्रेश्वरी, रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वङ्काशृंखला, वङ्काांकुशा, अप्रतिचक्रेश्वरी, पुरुषदत्ता, मनोवेगा, काली, ज्वालामालिनी, महाकाली, गौरी, गांधारी, वैरोटी, सोलसा, अनन्तमती, मानसी, महामानसी, जया, विजया, अपराजिता, बहुरूपिणी, कूष्माण्डी, पद्मा और सिद्धायिनी, ये यक्षिणियाँ भी क्रमश: ऋषभादिक चौबीस तीर्थंकरों के समीप में रहा करती हैं।।९३७-९३९।।
जैसे चन्द्रमा से अमृत झरता है उसी प्रकार खिरती हुई जिन भगवान की वाणी को अपने कर्तव्य के बारे में सुनकर वे भिन्न-भिन्न जीवों के बारह गण नित्य अनन्तगुणश्रेणीरूप विशुद्धि से संयुक्त शरीर को धारण करते हुए असंख्यातश्रेणीरूप कर्मपटल को नष्ट करते हैं।।९४०।।
जिनका मन भक्ति में आसक्त है और जिन्होंने जिनेन्द्रदेव के पदारविन्दों में आस्था (विश्वास) को रखा है ऐसे भव्य जीव अतीत, वर्तमान और भावी काल को भी नहीं जानते हैं।।९४१।।
उपर्युक्त प्रभाव से संयुक्त वे सब तीर्थंकर भरतक्षेत्र में उत्कृष्ट धर्मप्रवृत्ति का उपदेश देते हुए उत्तम भव्यसमूह को आत्मा से उत्पन्न हुए मोक्षसुखों को प्रदान करें।।९४२।।