सोरठा— मंगल रूप महान्, जग में लोकोत्तम कहा। श्री केवलि भगवान, कथित धर्म सबको शरण।।
—नरेन्द्र छंद—
वस्तु स्वभाव हि धर्म कहाता, जल स्वभाव से शीतल। आत्म स्वभाव ज्ञान दर्शन मय, शुद्ध भाव से निर्मल।। यह स्वभाव है तर्क अगोचर, इसको वंदन करके।
वस्तु स्वभावी शुद्धात्मा को, प्राप्त करूँ जिनवृष से।।१।। सर्व वस्तु में धर्म अनंते, अस्ति नास्ति आदिक हैं। सर्व परस्पर कहे विरोधी, फिर भी रहें युगपत् हैं।। सप्त भंग युत स्याद्वाद ही, इन विरोध परिहारे।
स्यादस्ति वस्तु स्वचतुष्टय से, इसे नमूँ रुचि धारे।।२।। नास्ति धर्म यह सब वस्तू में, अन्य चतुष्टय से निंह। अन्य द्रव्य और क्षेत्र काल औ, अन्य भाव से वह निंह।। इस नास्तित्व धर्म से वस्तू, निज स्वरूप से रहती।
परस्वरूप से नास्ति रूप है, इसे नमूँ बहु भक्ती।।३।। अस्ति नास्ति ये उभय धर्म भी, एक साथ ही रहते। स्वपर चतुष्टय क्रम से कहते, नहीं विरोधी दिखते।। स्यादस्तिनास्ति भंग तीसरा, सब वस्तु में तिष्ठे।
मन वच तन से इसको वंदूं, वस्तु स्वभाव प्रतिष्ठे।।४।। एक साथ निंह कह सकते इन, अस्ति नास्ति दोनों को। चौथा भंग इसी से बनता, अवक्तव्य से समझो। स्वपर चतुष्टय से युगपत् यह, धर्म वस्तु में रहता।
इसको वंदूं यह स्वभाव भी, अलग नहीं हो सकता।।५।। स्वद्रव्यादि से वस्तु अस्ति है, अवक्तव्य उस ही क्षण। स्वपर चतुष्टय एक साथ ले, निंह कह सकते तत्क्षण।। स्यादस्ति सह अवक्तव्य यह, भंग पांचवां माना।
इसे वंदते बने स्वधर्मी, वस्तु स्वभाव सुहाना।।६।। वस्तु नास्ति पर द्रव्यादिक से, अवक्तव्य भी समझो। स्वपर चतुष्टय से कहने में, निंह आवे उस क्षण वो।। भंग छठा स्यान्नस्ति अवक्तव्य इसको वंदूं रुचि से।
वस्तु स्वभाव धर्म यह माना, कहा गया जिनवर से।।७।। स्वपर चतुष्टय से क्रम से, कहने में अस्ति नास्ती। एक साथ निंह कह सकने से, अवक्तव्य होता भी।। भंग सातवां अस्ति नास्ति सह, अवक्तव्य यह आता। इसे नमूँ मैं भक्ति भाव से, वस्तु स्वभाव कहाता।।८।।
दोहा—
वस्तु स्वभावी धर्म के, सात भंग अवदात। स्याद्वादमय धर्म यह, नमूं नमूं नतमाथ।।९।। अनेकांतमय धर्म को, नमत मिले शिवद्वार। ‘ज्ञानमती’ कैवल्य हो, मिले स्वात्म सुखसार।।१०।।