क्या मुसीबतों, विषमताओं और क्रूरताओं से परिपूर्ण यह जगत् एक भद्र परमात्मा की कृति हो सकता है ? जबकि हजारों मस्तिष्कहीन विचार तथा विवेकशून्य, अनैतिक, निर्दयी, अत्याचारी, जालिम, लुटेरे, स्वार्थी मनुष्य विलासताओं का जीवन बिता रहे हैं और अपने अधीन व्यक्तियों को हर तरह से अपमानित, पददलित करते हैं और मिट्टी में मिलाते हैं। इतना ही नहीं चिड़ाते भी हैं, दुखी लोग अवर्णनीय कष्ट सहते हैं। फिर भी ये अपने जीवन की | आवश्यक वस्तुएँ क्यों नहीं पाते ? भला ये सब विषमताएँ क्यों ? क्या ये न्यायशील ईश्वर के कर्तव्य हो सकते हैं? मुझे बताओ तुम्हारा ईश्वर कहाँ है ? मैं तो इस निस्सार जगत् में कहीं भी उसका नामोनिशान नहीं पाता ।