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तत्त्वार्थ सूत्र प्रवचन

October 12, 2022स्वाध्याय करेंAlka Jain
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तत्त्वार्थ सूत्र प्रवचन ( प्रथम अध्याय )


प्रवचन कर्त्री -आर्यिका चंदनामती माताजी

मंगलाचरण

सिद्धेर्धाममहारिमोहहननं कीर्ते: परं मंदिरम्।
मिथ्यात्वप्रतिपक्षमक्षयसुखं संशीतिविध्वंसनम्।।
सर्वप्राणिहितं प्रभेन्दुभवनं सिद्धिप्रमालक्षणम्।
संतश्चेतसि चिन्तयंतु सुधिय: श्रीवर्धमानं जिनम्।।

भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित सम्पूर्ण द्वादशांग के सार को अपने में समाहित किए हुए ग्रन्थराज तत्त्वार्थसूत्र अनेकान्त वाणी को प्रतिपादित करने वाला है इसीलिए उसे मोक्षशास्त्र भी कहा जाता है। इस ग्रन्थ के मंगलाचरण का प्रथम पद ही मोक्ष शास्त्र की सार्थकता को बतलाता है। उमास्वामी आचार्य ने सूक्ष्म चिंतनपूर्वक ही इस ग्रंथ में समस्त सार रहस्य को गागर में सागर सदृश भर दिया है। इसके दश अध्यायों में क्रमशः सात तत्त्वों का वर्णन पाया जाता है। उन्हीं में से प्रथम अध्याय का कुछ सार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। सर्वप्रथम ग्रन्थकर्ता आचार्य श्री उमास्वामी द्वारा किए गए मंगलाचरण को आपको जानना है–

मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुण लब्धये।।१।।

अर्थ — जो मोक्षमार्ग के नेता है, कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करने वाले हैं और विश्व के समस्त तत्त्वों के ज्ञाता–जानने वाले हैं, ऐसे किसी परमात्मपद को मैं उनके गुणों की प्राप्ति हेतु नमस्कार करता हूं। देखिए न ! स्वार्थपरता की पराकाष्ठा, भगवान् के नमस्कार में भी भक्त का कितना स्वार्थ छिपा है। शायद स्वार्थ के बिना कोई किसी को पूछता ही नहीं है किन्तु किसी की समूलचूल वस्तु को मांगते हुए नमस्कार करने का तो कोई ढंग नहीं समझ में आता ? यदि किसी सेठ साहूकार के पास जाकर कोई सेवक खूब नमस्कार करे और उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति की माँग करे तो क्या सेठजी उसे अपनी सारी सम्पत्ति देने को राजी हो जायेंगे ? नहीं, वे तो कभी नहीं देने वाले, जिस सम्पत्ति को खून पसीना एक करके उन्होंने कमाया है, अपने प्राणों से अधिक उसकी रक्षा की है, स्वयं के भोगों में तो सोच-सोच कर एक-एक पैसा निकालते हैं तो भला कैसे उस सम्पत्ति को दूसरे के लिए दे देंगे। यदि बहुत उदारता भी दिखाएंगे तो थोड़ा बहुत दानस्वरूप तो दे सकते हैं किन्तु सारी सम्पत्ति न तो वह दे ही सकते हैं और न मांगने वाला स्वयं इतनी हिम्मत ही कर सकता है। लेकिन ध्यान दीजियेगा कि हमारे जिनेन्द्र भगवान अत्यन्त उदार हैं उनसे आप उनकी पूरी सम्पत्ति भी मांग लेवें तो वे प्रतिक्षण देने को तैयार रहते हैं। शर्त यह है कि आपको उन जैसी मुद्रा स्वीकार करनी पड़ेगी और अपना सर्वस्व समर्पण करना पड़ेगा। समर्पण करना कोई कठिन बात भी नहीं है। चाहे गुरु हों या भगवान्, यदि उनके प्रति आप सर्मिपत हो गए तो कोई भी पद या गुण की प्राप्ति दुर्लभ नहीं है अन्यथा कितनी भी ज्ञानाराधना करें, पूजा करें किन्तु समर्पित भावना नहीं है तो आपकी पदोन्नति नहीं हो सकती है।

एक संक्षिप्त उदाहरण आपको बताती हूँ— एक असहाय बालक दर-दर की ठोकरें खाता था। एक दिन किसी सेठ ने उसे देखा तो करुणावश उसको अपने घर लाकर सेठानी को सौंप दिया और बोले कि इसे भी पुत्रवत् स्नेह देकर अपने घर में रखना है। पति की आज्ञावश न चाहते हुए भी सेठानी को उसका पालन पोषण करना पड़ता था। सेठ ने बालक से कहा—आज से हम लोग तुम्हारे माता—पिता हैं और तुम हमारे पुत्र हो। बालक प्रसन्नतापूर्वक सेठ के घर में रहने लगा किन्तु सेठानी अपने कर्कश स्वभाववश उस बालक को बहुत कष्ट देती। उससे दिन भर खूब काम करवाती, फटकारती, मारती तथा रात्रि को सेठजी के समाने प्यार जताती। यही क्रम प्रतिदिन चल रहा था।

तभी एक दिन— प्रात:काल बालक ग्वाले के यहाँ से दूध लेकर आ रहा था अकस्मात् रास्ते में ठोकर खाकर गिरने से सारा दूध गिर गया। बेचारा बालक बहुत सहम गया कि कैसे घर जाऊँ, क्या कहूँ ? सेठानी तो वैसे ही रोज मुझे डाँटती मारती है, आज जाने क्या होगा ? किसी तरह डरते-डरते वह घर आया किन्तु जो सोचा था उससे कहीं ज्यादा अनुभव अया। मार-मार कर सारी चमड़ी लाल कर दी सेठानी ने और घर से बाहर निकालकर दरवाजा बन्द कर लिया। एक वृक्ष के नीचे बेचारा उदास बालक बैठा था। मार्ग से एक बाबाजी निकले, उन्होंने पूछा—रेलवे स्टेशन किधर है? इतना सुनते ही बालक उसके साथ ही स्टेशन की ओर चल दिया। रास्ते में दोनों का वार्तालाप हुआ। बालक को बहुत दुखी देखकर बाबाजी ने उससे पूछा—बेटे! तुम उस सेठानी को क्या कहकर सम्बोधित करते थे ? बालक बोला—वह तो सेठानी है इसलिए मैं उसे सेठानी ही कहता था और वह मुझे नौकर समझकर सारा कार्य कराती थी। बाबा बोले—कभी तुमने प्यार से उसे माँ कहकर पुकारा होता तो वह भी तुम्हें पुत्रवत् स्नेह देती। खैर! जो हुआ उसे जाने दो। मेरी मानो एक बार जाकर तुम उसे माँ कहकर समर्पित हो जाओ वह भी तुम्हें पुत्र ही मानेगी।

बालक के बहुत मना करने पर भी बाबाजी ने उसे घर भेज दिया और बोला—यदि फिर भी तुम वहाँ न रह सको तो वापस आना, मैं तुम्हें अपने साथ ले चलूंगा। मार्ग में अनेकों विचारों में झूलता उतराता है बालक! सोचता है कि सच बात तो है, जब मैने उसे माँ नहीं समझा तो वह भला मुझे पुत्र वैâसे समझती। बस! उसने निर्णय कर लिया और दौड़ा—दौड़ा घर की ओर चल पड़ा। दोनों ओर की भावनाओं का तारतम्य देखिए। इधर सेठानी भी दरवाजे पर खड़ी पुत्र का मानो इन्तजार ही कर रही थी। बालक आते ही सेठानी के पैरों में लिपट गया और बोला—माँ! मुझे माफ कर दो, तुम्हारे सिवाय तो संसार में मेरा कोई नहीं है। अश्रुपूरित नेत्रों से माँ ने बेटे को पुचकारा और नहलाकर भोजन कराया, सुख दुख पूछा। समर्पित भावों से एक असहाय बालक को अपनी माँ मिल गई और सेठानी के अन्दर असली मातृत्त्व भी जाग उठा। वह सोचती है कि मुझसे बड़ी गलती हुई।

यदि मेरे पुत्र से ही दूध गिर जाता तो………… इन उदाहरणों से प्रत्येक मानव को शिक्षा लेनी चाहिए। माता-पिता की सम्पत्ति, गुरु का स्नेह, प्रभु की गुण सम्पत्ति सभी पुत्र, शिष्य और भक्त को सर्मिपत भावनाओं से स्वयं प्राप्त हो जाते हैं। उन्हें मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। यदि उनकी आज्ञा की अवहेलना होती रहे, भक्त के स्थान पर बगुला भगत बनकर मात्र भक्ति ही करते रहे, पीठ पीछे उनके अनादर की प्रबल भावना रही तो सिवाय पाप बन्ध के कोई गुण या सम्पत्ति प्राप्त नहीं होती। आचार्य श्री उमास्वामी ने भी ‘वन्दे तद्गुणलब्धये’ कहकर प्रभु की वंदना की है क्योंकि उन्होंने स्वयं दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण कर स्वयं को प्रभू के हवाले कर दिया था। निरीहवृत्तिपूर्वक अयाचकवृत्ति से इस मोक्षशास्त्र की रचना प्रारम्भ करते हुए अपने से महान व्यक्तित्व के प्रति शीश झुकाया था। उनका यह मंगलाचरण ही इतना महान है कि जिसके ऊपर अनेकों आचार्यों ने बड़ी-बड़ी टीकाएं लिख डालीं। श्री विद्यानन्दि स्वामी ने इस मंगलाचरण के ऊपर ‘आप्तपरीक्षा’ नामक ग्रन्थ लिखकर उसकी स्वोपज्ञ टीका लिखी है। श्री समन्तभद्र स्वामी ने इस मंगलाचरण की टीका करते हुए ‘आप्तमीमांसा’’ नामक स्तोत्र ग्रंथ को ११४ कारिकाओं में रच डाला है। इसी स्तोत्र पर श्री भट्टाकलंक देव ने आठ सौ श्लोक प्रमाण ‘अष्टशती भाष्य’ बनाया है, अनंतर श्री विद्यानन्दि स्वामी ने आप्तमीमांसा की कारिका सहित इस अष्टशती को लेकर आठ हजार श्लोक प्रमाण ‘अष्टसहस्री’ ग्रंथ की रचना कर डाली है; जिसे न्यायदर्शन का उच्चतम ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ के बारे में वर्णन करते हुए स्वयं विद्यानन्दि महोदय ने इसे ‘कष्टसहस्री’ शब्द से सम्बोधित किया है।

अष्टसहस्री के विषय में एक जर्मन के न्यायदर्शनविज्ञ ने कहा है— ‘‘जिसने जैनकुल में जन्म लेकर अष्टसहस्री ग्रंथ नहीं पढ़ा वह जैन नहीं और जो अष्टसहस्री पढ़कर जैन नहीं बना तो समझो उसने अष्टसहस्री पढ़ी ही नहीं।’’ अर्थात् अनेकांत स्याद्वाद का झण्डा फहराने वाला यह एकमात्र ग्रंथ है। इसी अष्टसहस्री ग्रंथ का हिन्दी में अनुवाद किया था वर्तमान की परम विदुषी, सरस्वती की प्रतिमूर्ति, गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने सन् १९७० में, जो प्रकाशित होकर भक्तों को न्याय का उच्च कोटि का विद्वान बनाने में सहायक सिद्ध हो रहा है। कुछ वर्ष पूर्व यह चर्चा उठी थी कि यह मंगलाचरण आचार्य उमास्वामी कृत नहीं है प्रत्युत् सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ के प्रारम्भ में उपलब्ध होने से यह सर्वार्थसिद्धि का मंगलाचरण है। इस पर अनेक विद्वानों ने इसे श्री उमास्वामी कृत घोषित किया है। आचार्य उमास्वामी आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव के पट्टशिष्य थे जिसका वर्णन श्रवलबेलगोला स्थित एक शिलालेख में है कि—

अभूदुमास्वाति मुनि: पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी।
सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन।।
स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृद्धपिच्छान्।
तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छम्।।

आचार्य कुन्दकुन्द की वंश परम्परा में गृद्धपिच्छाचार्य (उमास्वाति आचार्य) हुए जिनके समान इस धरती पर आगम का कोई ज्ञात नहीं था। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण रचकर उसमें बहुत सार भर दिया। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें किसी व्यक्ति विशेष को नमस्कार न करके ऐसे गुणों को नमस्कार किया है जो किसी भी व्यक्ति में घटित हो सकते हैं। यहाँ एक प्रमाण मैं और प्रस्तुत कर रही हूँ। आप्तमीमांसा की ११४ वीं कारिका की टीका में अष्टसहस्री ग्रंथकार श्री विद्यानन्दि स्वामी क्या कहते हैं—

‘‘शास्त्रारम्भेभिष्टुतस्याप्तस्य मोक्षमार्गप्रणेतृतया

कर्मभूमृद्भोत्तृतया विश्वतत्त्वानां ज्ञातृतया च

भगवदर्हत् सर्वज्ञस्यैवान्ययोगव्यवच्छेदेन

व्यवस्था-पनपरा परीक्षेयं विहिता।’’

अर्थात् शास्त्र के प्रारम्भ में स्तुति को प्राप्त जो आप्त हैं, वे मोक्षमार्ग के प्रणेता, कर्म पर्वत के भेत्ता और विश्वतत्त्व के ज्ञाता इन तीन विशेषणों से युक्त भगवान अर्हंत सर्वज्ञ ही हैं, अन्य कोई नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार अन्य योग का व्यवच्छेद करके भगवान् अर्हंत में ही इन विशेषणों की व्यवस्था को करने में तत्पर यह परीक्षा की गई है। यह है सारे अष्टसहस्री ग्रंथ का अन्तिम उपसंहार। यह मंगलाचरण उमास्वामी आचार्यकृत ही है, इस बात को सिद्ध करने के लिए इससे बढ़कर सबल प्रमाण और क्या हो सकता है ? श्लोकवार्तिकालंकार ग्रंथ में भी श्री विद्यानंदि महोदय ने कई स्थलों पर इसी बात को स्पष्ट किया है। जब एक मंगलाचरण के ऊपर आप्तमीमांसा, अष्टशती, अष्टसहस्री जैसे जैनदर्शन के सर्वोपरि ग्रंथ बन गये तब उस ग्रंथ की जितनी भी गौरवगाथाएं गाई जावें, थोड़ी ही हैं। यही कारण है कि आज भी भारतवर्ष में दक्षिण-उत्तर आदि प्रान्तों में सर्वत्र नर-नारी इस तत्त्वार्थसूत्र का पाठ बड़ी भक्ति से करते हैं और एक उपवास करने का फल प्राप्त करते हैं। बहुत सी महिलाओं का तो नियम ही रहता है कि ‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ सुने बिना भोजन नहीं करना। कहा भी है—दशाध्याये परिच्छिन्ने, तत्त्वार्थे पठिते सति।
फलं स्यादुपवासस्य, भासितं मुनिपुंगवै:।।
दश अध्याय से परिपूर्ण इस तत्त्वार्थसूत्र को पढ़ने पर एक उपवास का फल प्राप्त होता है ऐसा श्री मुनियों में श्रेष्ठ मुनियों ने कहा है। इस ग्रंथ का यह मंगलाचरण सच्चे आप्त–देव को सिद्ध करने में सर्वोपरि मान्य अमोघ उपाय है ऐसा समझना चाहिए। अब प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र का अवतार होता है— सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:।।१।।

अर्थ — सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यव्चाचरित्र इन तीनों की एकतारूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है। संसार सागर में डूबते हुए संसारी प्राणियों के उद्धार की पुण्य भावना से मोक्षमार्ग का निरूपण करने वाले इस सूत्र की रचना आचार्य श्री उमास्वामी महाराज ने की है। इन तीन रत्नों की व्याख्या तत्त्वार्थराजर्वाितक के कत्र्ता श्री भट्टाकलंक स्वामी ने निम्न प्रकार से की है— दर्शनमोह कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशम रूप अंतरंग कारण से होने वाले तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादि तत्त्वों का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान कहलाता है।

संसार के कारणभूत राग—द्वेषादि की निवृत्ति के लिए कृतसंकल्प विवेकी पुरुष का शरीर और वचन की बाह्य क्रियाओं से तथा अभ्यंतर मानस क्रियाओं से विरक्त होकर स्वस्वरूप स्थिति का प्राप्त करना सम्यक्चारित्र है। पूर्ण यथाख्यात चारित्र वीतरागी-ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में तथा जीवनमुक्त केवली के होता है। उससे नीचे विविध प्रकार का चारित्र श्रावकों को तथा दसवें गुणस्थान तक के साधुओं को होता है। इसके अतिरिक्त सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवृत्ति आदि अनेकानेक ग्रंथों के अन्दर यही बताया है कि इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन कराने वाली है। केवल सम्यग्दर्शन आपको मोक्ष प्रदान नहीं करेगा। only the right knowledge cannot, Only the right conduct cannot, but the mixture of all will take us to salvation केवल सम्यग्ज्ञान अथवा केवल सम्यक्चारित्र ही आपको मोक्ष प्रदान नहीं कर सकते अपितु इन तीनों का जहाँ पूर्ण रूप से एकीकरण—समावेश हो जाता है वहीं मोक्षमार्ग साकार होता है। यद्यपि मोक्ष साक्षात् रूप में दिखता नहीं है फिर भी उसका कथन किया गया है क्योंकि बहुत सी चीजें प्रत्यक्ष नहीं भी दिखती हैं तो भी उका अस्तित्त्व स्वीकार करना पड़ता है। कर्मोदय की निवृत्ति होने पर चतुर्गति का चक्र रुक जाता है और उसके रुकने से संसार रूपी घटीयन्त्र का परिचलन समाप्त हो जाता है, इसी का नाम मोक्ष है। चूँकि प्राणी अनादिकाल से कर्मों के बन्धन में जकड़ा हुआ है। जैसे जेल में पड़ा हुआ व्यक्ति यदि अपने मुक्त होने का समाचार जान लेता है तो आश्वस्त होकर संसार से मुक्त होने का प्रयास करने लगता है। जैन सिद्धान्त में आचार्यों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इनको रत्न की संज्ञा दी है, जो प्रत्येक प्राणी में विद्यमान रहते हैं। व्यवहार में रत्नों को रखने वाला ‘जौहरी’ कहलाता है इसलिए आप सभी जौहरी हैं ऐसा श्रद्धान रखें। जौहरी अपने रत्नों को खूब संभालकर रखता है। आपने देखा होगा कि जब आप किसी ज्वैलर्स की दुकान पर जाकर किसी रत्न को दिखाने की मांग करते हैं तो वह एक मजबूत अलमारी खोलता है। अलमारी के अन्दर भी लॉकर खोलता है और उसमें से रत्नों का डिब्बा निकालता है। इतना ही नहीं, डिब्बे के अन्दर डिब्बी, डिब्बी में लाल कागज की पुड़िया में रुई में लिपटा नगीना निकाल कर बड़े सुरक्षित ढंग से ग्राहक के समक्ष प्रस्तुत करता है। उसी प्रकार आपकी तिजोरी में भी तीन-तीन अनमोल रत्न बड़े सुरक्षित रखे हैं आप उन्हें प्रगट कर अपने शहर के जौहरी ही नहीं तीन लोक के सर्वोत्तम जौहरी बन सकते हैं। जहां आपके पास मांगने वाले भक्तों (ग्राहकों) की भीड़ लग जाएगी। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने तीनलोक मण्डल विधान पूजन की एक जयमाला में बड़े सुन्दर भाव संजोए हैं

— दोहा—

तीर्थंकर गुणरत्न को, गिनत न पावें पार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनन्तों बार।।

वीतरागी तीर्थंकर भगवान् कुछ देते—लेते नहीं हैं किन्तु भक्त अपनी प्रबल भक्ति के वश उन रत्नाधिपति की स्तुति करके उन वेशकीमती रत्नों को प्राप्त कर लेता है इसीलिए उपर्युक्त पंक्तियों में यह भावना निहित है कि हे भगवन् ! मैं तीन रत्नों को पाने हेतु आपको तीन बार नहीं अनन्त बार नमस्कार करता हूँ। यदि तीनों में से एक की भी कमी रह गई तो मोक्ष नहीं मिल सकता। श्रद्धा, ज्ञान, आचरण ये तीनों अभिन्न रूप से जब आत्मा में प्रगट होंगे तभी मोक्षमार्ग प्रशस्त होगा अन्यथा नहीं। न तो केवल सम्यग्दर्शन मोक्ष दिला सकता है, न ज्ञान और न अकेला चारित्र, अन्यथा वह मोक्ष धरती पर ही साकार हो जाता। मोक्ष तो उस चरम अवस्था का नाम है जहां तीनों इकट्ठे होकर भी आत्मा के एक रूप में पूर्ण हो जाते हैं। इसीलिए तीनों के मिलन का नाम मोक्षमार्ग बताया है न कि मोक्ष। यह रत्नत्रय अग्नि के उष्ण स्वभाव और जल के शीतल स्वभाव की भांति चैतन्य आत्मा का स्वभाव है क्योंकि आत्मा के उष्ण स्वभाव है क्योंकि आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्यों के साथ इसका सम्बन्ध नहीं पाया जाता है। आचार्य श्री उमास्वामी की निर्दोष लेखनी द्वारा द्वितीय सूत्र का अवतार हुआ—

 ‘‘तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्’’।।२।।

अर्थ—तत्त्वार्थ का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।दर्शन शब्द ‘दृष्टि’ धातु से बना है और दृशि धातु का अर्थ देखना है। वैसे एक धातु के अनेक अर्थ भी होते हैं अतः प्रकरण के अनुसार यहां दर्शन का अर्थ श्रद्धान लिया जाएगा ‘‘तस्य भाव: तत्त्वम्’’ तत्त्वार्थ का अर्थ है कि जो पदार्थ जिस रूप से स्थित है उसका उसी रूप से ग्रहण करना। तात्पर्य यह है कि जिसके होने पर तत्त्वार्थ अर्थात् वस्तु का यथार्थ ग्रहण हो उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। राजर्वाितककार ने सम्यग्दर्शन के सराग और वीतराग नाम से दो भेद बताये हैं। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य से जिसका स्वरूप अभिव्यक्त होता है वह सराग सम्यग्दर्शन है। मोहनीय की सात कर्म प्रकृतियों का पूर्ण नाश होने पर आत्मविशुद्धि रूप वीतराग सम्यग्दर्शन है। वीतराग सम्यक्त्व की प्राप्ति में सरागसम्यक्त्व साधन होता है। सम्यग्दर्शन कैसे उत्पन्न होता है ? तीसरे सूत्र में बताते हैं

‘‘तन्निसर्गादधिगमाद्वा’’।।३।।

अर्थ — सम्यग्दर्शन निसर्ग (स्वभाव) और अधिगम (परोपदेश) दो प्रकार से उत्पन्न होता है। दोनों ही सम्यग्दर्शनों में अंतरंग कारण तो दर्शनमोह का उपशम, क्षय या क्षयोपशम समान है। इसके होने पर जो सम्यग्दर्शन बाह्योपदेश के बिना प्रगट होता है वह निसर्गज है तथा जो पर के उपदेश से होता है वह अधिगमज है। जैसे किसी ने पूर्वभव में गुरु का उपदेश ग्रहण किया था अत: आगे जाकर अगले भव में बिना उपदेश के पूर्व संस्कारवश अन्य कोई कारण मिलने से सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है तो उसे निसर्गज कहते हैं। इसमें वर्तमान भव का परोपदेश विवक्षित न होकर पूर्वभव का परोपदेश कार्यकारी माना जाता है। वर्तमान भव में गुरु के उपदेश से ग्रहण किया गया सम्यक्त्व अधिगमज कहलाता है। यह दोनों ही सम्यग्दर्शन देशनालब्धि के बिना किसी को नहीं होते। चाहे देशना इस भव में प्राप्त हो या अगले भव में। वर्तमान युग में इस सम्यग्दर्शन के विषय में ही विवाद चल रहा है, और आश्चर्य इस बात का है कि वह विवाद अपने को दिगम्बर जैन मानने वाले दिगम्बर ‘सम्प्रदाय’ के भीतर ही चल रहा है। इसलिए सम्यग्दर्शन के बारे में ही भली प्रकार से जान लेना आवश्यक हो जाता है। वह सम्यग्दर्शन किसको, कब और कैसे होता है ? ये तीन बातें ही मुख्यतया ज्ञातव्य हैं। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने ‘प्रवचन निर्देशिका’ नामक ग्रंथ में लिखा है— ‘वह भव्य जीव को ही होता है, अभव्य को नहीं। काललब्धि आदि के मिलने पर ही होता है, उसके बिना नहीं और अन्तरंग तथा बहिरंग कारणों से ही होता है बिना कारण के नहीं। हम और आप भव्य हैं या अभव्य ? काललब्धि आई है या नहीं ? इसका निर्णय तो सर्वज्ञ देव के सिवाय अन्य कोई कर नहीं सकता क्योंकि कोई अभव्य जीव ग्यारह अंग का ज्ञानी और निर्दोष-निरतिचार चारित्र का पालन करने वाला महातपस्वी मुनि होकर ही नवमें ग्रैवेयक में जा सकता है। हम और आप जैसे साधारण मनुष्य नहीं। उनमें किस रूप से मिथ्यात्व रहता है उसका निर्णय आप नहीं कर सकते, वह तो सर्वज्ञ गम्य ही है।’ यहाँ एक बात यह विशेष ध्यान देने की है कि जिस प्रकार से हमें श्री कुन्दकुन्द आचार्य के वचन प्रमाण हैं उसी प्रकार से श्री गुणधर आचार्य, श्री पुष्पदन्त भूतबलि आचार्य के वचन भी प्रमाण होने चाहिए। धवला, जयधवला आदि सिद्धान्तग्रंथों की टीका करने वाले आचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने धवला की छठी पुस्तक में सम्यग्दर्शन का लक्षण बताते हुए कहा है—

सम्माइट्ठी जीवो उवइट्ठं पवयणं तु सद्दहदि।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा।।१०।।

इसका अर्थ यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता ही है किन्तु कदाचित् अज्ञानवश सद्भूत अर्थ को स्वयं नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग—निमित्त से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है अर्थात् गुरु यदि अज्ञानी है तो उसके द्वारा बताए गए गलत अर्थ का श्री श्रद्धान शिष्य करता है तो भी वह सम्यग्दृष्टि होता है। उसके आगे की गाथा में भी क्या बताते हैं ?

सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि।
सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी।।

इसका अर्थ यह है कि गुरु के ऊपर श्रद्धान करके गलत अर्थ का जानने वाला जो सम्यग्दृष्टि जीव है वह पुन: सूत्रग्रंथों से सही अर्थ को दिखाने पर भी यदि श्रद्धान नहीं करता है तो उसी समय वह मिथ्यादृष्टि तो है ही। निश्चय सम्यग्दर्शन का थर्मामीटर तो केवली के सिवाय किसी के पास नहीं है। आज के युग में तो व्यवहार सम्यग्दर्शन सही सलामत बना रहे यह महान् पुण्य और सौभाग्य की बात है किन्तु अपने को सम्यग्दर्शन का खिताब देने वाले लोग हमारे गुरुओं की निन्दा करते हैं। वे भला सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं क्या ? यह विचारणीय विषय है। गुरुनिन्दा और सम्यग्दर्शन का आपस में सर्प और नेवला जैसा सम्बन्ध है। हमारा स्याद्वाद जैनधर्म कर्मसिद्धान्त पर टिका हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति अपने—अपने कर्मों के अनुसार फल को भोगता है अत: मुनि को अपने कर्त्तव्य पर छोड़ दीजिए, आप अपने कर्त्तव्य का पालन करिए। आचार्य श्री सोमदेव सूरि ने कहा है—

भुक्तिमात्र प्रदाने तु, का परीक्षा तपस्विनाम्।
ते सन्त: सन्त्वसन्तो वा, गृही दानेन शुद्धयति।।

तपस्वी मुनियों को तो आप श्रावक केवल आहार ही देते हैं उस आहार मात्र को प्रदान करने हेतु उनकी परीक्षा करने का आपको क्या अधिकार है ? वे साधु हों या असाधु अर्थात् सम्यग्दृष्टि हों या नहीं हों, श्रावक तो उन्हें दान देने मात्र से शुद्ध हो जाते हैं। सम्यग्दर्शन कोई साधारण वस्त्र जैसी चीज नहीं है जो बाहर से खरीदकर अपने पास रखी जा सके, वह तो आत्मा का स्वभाव है उसे प्रगट करना अपना धर्म है। यदि परनिन्दा से कलुषित आत्मा के परिणाम हैं तो उसमें सम्यग्दर्शन कैसे प्रगट हो सकता है ? यदि आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के समयसार की दुहाई देते हुए आप उनकी एक निश्चयपरक गाथा को स्वर्णाक्षरों में अंकित करें और एक व्यवहारपरक गाथा को मद्देनजर कर देवें तो उस सम्यग्दर्शन का क्या नाम है ? आगम में यह बात कहीं दृष्टिगत नहीं हुई है। इस विषय में भगवती आराधना में आचार्य श्री शिवकोटि की यह गाथा ध्यान देने योग्य है—

पदमक्खरं च एक्वं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिद्दिट्ठं।
सेसं रोचंतो वि हु मिच्छाइट्ठी मुणेयव्वो।।३९।।

अत्यन्त रहस्योद्घाटित है इस गाथा का अभिप्राय कि जो जीव सूत्रनिर्दिष्ट समस्त वाङ्मय का श्रद्धान करता हुआ भी ‘यदि एक पद का श्रद्धान नहीं करता है जो वह समस्त श्रुत की रुचि करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि है।’’ आप स्वयं सोचें कि एक पद मात्र के प्रति अश्रद्धान करने पर जब आचार्य मिथ्यादृष्टि की डिग्री दे रहे हैं तो अपनी मनमानी गाथाओं को लेकर उसकी शेष गाथाओं को नहीं मानने वाले तो केवल सम्यग्दर्शन का पोपडम रचते हैं किन्तु वास्तविक सम्यग्दर्शन तो उनसे बहुत दूर है। इसका अर्थ यह है कि हमारे लिए जितना उपादेय समयसार है उससे कहीं अधिक उपादेय रयणसार और मूलाचार भी है क्योंकि जब तक मनुष्य का आचरण शुद्ध नहीं होगा तब तक वह समयसार को पढ़ने—सुनने का अधिकारी नहीं हो सकता है। चारों ही गतियों में अपने—अपने कारणों के मिलने पर सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो सकता है। आचार्यों ने सम्यग्दर्शन उत्पत्ति में सर्वाधिक प्रबल कारण ‘‘जिनबिम्बदर्शन’’ को बतलाया है। इस अचेतन बाह्य निमित्त से आत्मा के अन्तरंग दर्शनमोहनीय कर्मों का भी उपशम, क्षय और क्षयोपशम होकर औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक नाम के सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाते हैं किन्तु जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन करने वाले सभी प्राणियों को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति हो जावे यह आवश्यक नहीं है क्योंकि यह निश्चित है कि— ‘‘कार्य की उत्पत्ति कारण से ही होती है किन्तु कारण के होने पर कार्य की उत्पत्ति हो ही जावे यह जरूरी नहीं है।’’ फिर भी जिनबिम्ब दर्शन कभी निरर्थक नहीं हो सकता है। इससे कदाचित् सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं भी होवे तो भी अनंत—अनंत जन्म के संचित पाप कर्म समूह का नाश होकर महान् पुण्य कर्म का संचय तो हो ही जाता है। आचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने धवला पुस्तक ६ के पृष्ठ ४२७ पर कहा है— ‘‘जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप मिथ्यात्व आदि कर्मों का क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिम्ब का दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण होता है। कहा भी है—

‘‘दर्शनेन जिनेन्द्राणां पापसंघातवुंजरम्।
शतधा भेदमायाति गिरिर्वङ्काहतो यथा।।’’

अर्थात् जिनेन्द्र के दर्शन से पापसंघातरूपी वुंजर के सौ टुकड़े हो जाते हैं, जिस प्रकार वङ्का के आघात से पर्वत के सौ टुकड़े हो जाते हैं। चारों ही गतियों के जीवों में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है। जैसे नरक में नारकी जीवों के जातिस्मरण, वेदनानुभव और धर्मोपदेश इन तीन कारणों से सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है। तिर्यञ्चों में एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय इनके सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है तथा सम्मूर्च्छन तिर्यंचों के भी प्रथम उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने की योग्यता नहीं है अत: गर्भ से जन्म लेने वाले पर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच ही इस सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं। वे बहुत से तिर्यंच दिवस पृथक्त्व के व्यतीत हो जाने पर तीन कारणों से सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं। कितने ही जाति स्मरण से, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर और कितने ही जिनबिम्बों के दर्शन करके सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं। मनुष्यगति में भी इन्हीं तीन कारणों से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। देवों में पर्याप्त मिथ्यादृष्टि देव अन्तर्मुहूर्त काल से लेकर ऊपर कभी भी प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं, अन्तर्मुहूर्त से पहले नहीं। देव चार कारणों से सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं—कितने ही जातिस्मरण से, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर, कितने ही जिनमहिमा देखकर और कितने ही देवों की ऋद्धि देखकर सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं। निसर्गज सम्यक्त्व के लिए भी जातिस्मरण अथवा जिनबिम्बदर्शन निमित्त होना ही चाहिये अन्यथा यह सम्यक्त्व भी प्रगट नहीं हो सकता। हाँ ! इसमें केवल धर्मोपदेश की अपेक्षा नहीं है क्योंकि धर्मोपदेश के निमित्त से होने वाला सम्यक्त्व अधिगमज कहलाता है। ये तो बहिरंग निमित्त बताए हैं एवं अंतरंग निमित्त तो दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय और क्षयोपशम होना ही चाहिए। तत्त्वार्थ सूत्र के चतुर्थ सूत्र का अवतरण करते हुए सात तत्त्वों के नाम बताए गए हैं—

जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्।।४।।

अर्थ — जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। तत्त्वार्थराजवार्तिक ग्रन्थ में आचार्य श्री अकलंक देव ने किसी शिष्य की ओर से यह प्रश्न उठाया है कि सभी तत्त्व जीव और अजीव के मिलाप से ही संभव होते हैं अत: केवल इन में ही आस्रव, बंध आदि तत्त्वों का अन्तर्भाव हो जायेगा, इनको अलग से कहने की क्या आवश्यकता थी ? इसका उत्तर स्वयं श्री अकलंकदेव देते हुए कहते हैं— जीव और अजीव का पारस्परिक संश्लेश संसार का प्रधान कारण है और इन दोनों का पृथक्—पृथक् हो जाना मोक्ष का प्रधान कारण है अत: संसार और मोक्ष के प्रधान कारणों के प्रतिपादन के लिए सात तत्त्व का विभाग किया है। जैसे—यहाँ मोक्षमार्ग का प्रकरण है और उसका फल ‘मोक्ष’ है अत: वह मोक्ष किसके होता है ? जीव के होता है इसलिए जीव का ग्रहण उचित है। मोक्ष संसारपूर्वक ही होता है और संसार अजीव के होने पर जीव के होता है इसलिए अजीव का ग्रहण किया है। संसार का प्रधान कारण आस्रव और बंध है तथा मोक्ष का प्रधान कारण संवर और निर्जरा है इसलिए सूत्र में इन सभी का ग्रहण करना परम आवश्यक है क्योंकि इन तत्त्वों के ज्ञान के बिना मोक्ष का ज्ञान भी नहीं हो सकता है। इनका विस्तृत विवरण सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि ग्रन्थों से अवगन्तव्य है। अब इन तत्त्वों को तथा सम्यग्दर्शन आदि के व्यवहार के कारणों को कैसे जानें, उसके लिए आचार्यश्री ने सूत्र बताया—

नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यास:।।५।।

अर्थ — नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से जीवादि पदार्थों का न्यास करना चाहिये। जैसे—तद्रूप गुणों के अभाव में भी किसी व्यक्ति का नाम सम्यग्दर्शन या महावीर आदि रख देना नाम निक्षेप है। किसी वस्तु आदि का किसी में प्रतिनिधित्व करना स्थापना निक्षेप है। जैसे इन्द्राकार प्रतिमा में ‘यह इन्द्र है’ ऐसी स्थापना तदाकार कहलाती है एवं शतरंज की मोहरों में हाथी, घोड़े की कल्पना करना अतदाकार स्थापना होती है। अनागत परिणाम विशेष के प्रति अभिमुख को द्रव्य कहते हैं अर्थात् जो आगामी पर्याय की योग्यता वाला है, उसको वर्तमान में उस रूप कह देना द्रव्यनिक्षेप है। जो होता है वह भाव है अर्थात् वर्तमान की उस—उस पर्याय का ग्रहण करने वाला भाव निक्षेप है। सूत्र में ‘तत् शब्द का ग्रहण इसलिए किया है कि सम्यग्दर्शन और जीव तत्त्व के साथ—साथ अजीवादि तत्त्वों में एवं सम्यग्ज्ञान और चारित्र में भी नामादि निक्षेपों का कथन होना चाहिए। अब आगे प्रमाण, नय, सम्यग्दर्शनादि तथा तत्त्वों को जानने के उपाय का वर्णन करते हैं—

प्रमाणनयैरधिगम:।।६।।

अर्थ — प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादि तत्त्वों का अधिगम—ज्ञान होता है। समुदाय को विषय करने वाला प्रमाण कहलाता है और अवयव को विषय करने वाला नय होता है। राजवार्तिक के अनुसार— ‘‘सकलादेश: प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन:’’ अर्थात् प्रमाण सकलादेशी है और नय विकलादेशी। सकलादेश सम्पूर्ण पदार्थ को जानना प्रमाणाधीन है और विकलादेश एक—एक अंश को जानना नयाधीन है। अनेकान्तमयी स्याद्वाद शासन में वस्तु तत्त्व का कथन सप्तभंगी के द्वारा किया जाता है। सप्तभंगी किसे कहते हैं ?

‘‘प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी’’

प्रश्न के अनुसार एक ही वस्तु में प्रमाण से अविरुद्ध विधिप्रतिषेध (अस्ति, नास्ति आदि) धर्मों की कल्पना करना सप्तभंगी है। जैसे एक ही जीव तत्त्व को सात प्रकार से कह रहे हैं— # स्यात् जीव # स्यात् अजीव # स्यात् उभय—जीव—अजीव # स्यात् अवक्तव्य # स्यात् जीव अवक्तव्य # स्यात् अजीव अवक्तव्य # स्यात् उभय अवक्तव्य—जीव—अजीव अवक्तव्य। यहाँ ‘स्यात्’ शब्द का अर्थ ‘कथंचित्’ है अर्थात् कथञ्चित् जीव तत्त्व स्वात्मा से स्वरूप की अपेक्षा जीव है और पर की अपेक्षा वही जीव कथञ्चित् अजीव भी है क्योंकि अनादिकाल से वह जीव तत्त्व अजीव पुद्गल के साथ संसार में भ्रमण कर रहा है अत: इन सात प्रकार की कथन शैली को स्याद्बाद शब्द से सम्बोधित किया गया है, यही नयव्यवस्था भी कहलाती है। इस प्रमाण के दो भेद हैं—प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण। जिस ज्ञान के द्वारा किसी बाह्य निमित्त की सहायता के बिना ही आत्मा पदार्थों को स्पष्ट रूप से जाने उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं और इन्द्रिय तथा प्रकाश आदि की सहायता से पदार्थों को एकदेशरूप से जाने उसे परोक्ष प्रमाण कहते हैं। जो पदार्थों के एकदेश को विलय करे वह नय है उसके द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो भेद हैं। जो मुख्य रूप से द्रव्य को विषय करे उसे द्रव्यार्थिक तथा जो मुख्य रूप से पर्याय को विषय करे उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं। जैसे बात करने भी अपनी—अपनी शैली है। मान लीजिए कि कोई जीव सूक्ष्म रुचि वाले हैं उन्हें थोड़ी सी बात कहने पर समझ में आ जाता है और जो विस्तार वाले हैं उन्हें नय और छोटे—छोटे वाक्यों के माध्यम से समझाना पड़ता है यही नय प्रणाली कहलाती है। अब जीवादि तत्त्वों को जानने के अन्य और भी उपाय बताते हैं—

निर्देशस्वामित्त्व साधनाधिकरणस्थितिविधानत:।।७।।

अर्थ — निर्देश—सामान्य नाममात्र कथन या स्वरूप का निश्चय, स्वामित्व— अधिकारी, साधन—कारण, अधिकरण—आधार, स्थिति—कालमर्यादा, विधानत:—भेद प्रभेद से भी जीवादि तत्त्वों का ज्ञान होता है। अर्थ के स्वरूप की अवधारणा—निश्चय निर्देश कहलाता है। अधिपति—आधिपत्य को बतलाने वाला स्वामी है। सम्यग्दर्शनादि उत्पत्ति के निमित्त को साधन कहते हैं। सम्यग्दर्शनादि के आधार को अधिकरण कहते हैं। कालकृत व्यवस्था का नाम स्थिति है। सम्यग्दर्शनादि के भेद—प्रभेदों को विधान कहते हैं। यह छह अनुयोग कहलाते हैं। जो शास्त्र रूप हैं वे तो ४ अनुयोग होते हैं जिनके अन्दर द्वादशांग वाणी निबद्ध है लेकिन छह अनुयोग वे हैं जिनके द्वारा जीवादि तत्त्वों का एवं सम्यग्दर्शन आदि का अधिगम होता है। कुछ और उपाय भी बतलाते हैं—

सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्त्वैश्च।।८।।

अर्थ — सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्त्व के द्वारा भी जीवादि का अधिगम होता है। शिष्यों के आशयवश ही तत्त्वज्ञान के इन कारणों का व्याख्यान आचार्यश्री उमास्वामी ने किया है। जितने प्रश्न हैं उन सबका परिहार करने के लिए कहते हैं कि तत्त्वाधिगम के विभिन्न भेदों का कथन शिष्य की योग्यता, अभिप्राय और जिज्ञासा की शान्ति के लिए किया जाता है। कोई शिष्य अति संक्षेप में समझ लेते हैं, कोई विस्तार से और कोई मध्यम रीति से। अन्यथा ‘‘प्रमाण’’ इस संक्षिप्त पद के ग्रहण से ही समस्त आयोजन सिद्ध हो जाते, अन्य उपायों का कथन करने की आवश्यकता ही नहीं थी। देखो ! शिवभूति मुनिराज को ‘‘तुषमास भिन्नं’’ इस अल्पज्ञान से ही केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई थी जबकि वे श्रुत के प्रति बिलकुल अल्पज्ञानी थे फिर भी आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने उनका नाम अपनी गाथा में उल्लेख किया है—

‘‘तुसमासं घोसतो शिवभूदी केवली जादो’’

उनके विषय में ऐसा कथन आता है कि उनकी स्मरण शक्ति बहुत कमजोर थी। गुरु के द्वारा बार—बार बतलाने पर भी शिवभूति मुनिराज को कोई भी पाठ याद नहीं होता था अत: गुरुदेव ने उन्हें समझाया कि तुम तो इतना ध्यान रखो कि ‘मा रुष मा तुष’’ अर्थात् राग मत करो, द्वेष मत करो इतने मात्र से तुम्हारा कल्याण होगा। वे मुनिराज यही वाक्य रटते—रटते एक दिन उसे भी भूल गए, तब उन्हें बड़ा दु:ख हुआ किन्तु ज्ञानावरण कर्म का तीव्र उदय, वे बेचारे कर भी क्या सकते थे, किंकर्तव्यविमूढ़ थे। वे यत्र—तत्र विहार कर रहे थे आखिर एक दिन वह शुभ दिवस भी आया जब वे एक गांव से निकल रहे थे। अकस्मात् उनकी दृष्टि एक महिला पर पड़ी जो अपने घर के बाहर बैठी हुई उड़द की दाल धो—धो कर छिलका अलग कर रही थी इस दृश्य को देखते ही उनकी अन्तरात्मा जागृत हो गई। अज्ञान का आवरण हटा और स्मृतिपटल पर गुरुदेव के शब्द प्रस्फुटित हो गए। चिन्तन चला कि मेरे गुरु ने शायद यही तो बताया था जो महिला कर रही है अर्थात् उन्होंने रटना शुरू कर दिया—‘‘तुषमाषभिन्नं’’ माष का अर्थ होता है—उड़द और तुष का अर्थ—छिलका। उन मुनिराज ने समझ लिया कि जैसे उड़द की दाल से छिलका अलग किया जाता है उसी प्रकार से मैंने अपनी चैतन्य आत्मा से शरीर को पृथक् करने के लिए जैनेश्वरी दीक्षा धारण की है। अनन्तर वही क्रिया उनके आत्मकल्याण में प्रेरणास्रोत बनी और इसी का चिन्तन करते—करते एक दिन वे शुक्लध्यान में आरूढ़ हो गये और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति भी हो गई। इसीलिए कहा जाता है कि आत्मगत श्रुतज्ञान चाहे आत्मार्थी को किञ्चित् ही क्यों न हो किन्तु आत्मगत ज्ञान और चारित्र मोक्षप्राप्ति में प्रबल निमित्त है। इसी प्रकार से कभी—कभी अतिसंक्षिप्त व्याख्यान के द्वारा भी शिष्यों को जीवादि तत्वों एवं सम्यग्दर्शनादि का ज्ञान हो जाता है। अब नवमें सूत्र का अवतार करते हुए ज्ञान के नाम और भेद बताते हैं—

मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम्।।९।। 

अर्थ — मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान ये पाँच सम्यग्ज्ञान के भेद हैं। पाँचों इन्द्रियों और मन के द्वारा पदार्थों का जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ से सम्बन्ध रखने वाले किसी दूसरे पदार्थ के ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। जैसे मतिज्ञान के द्वारा किसी पुस्तक का ज्ञान हो जाने पर अपनी बुद्धि से यह जानना कि यह पुस्तक ज्ञान प्राप्त कराने में साधनभूत है अथवा उसके समान अन्य पुस्तकाकार वस्तु देखकर अन्य बहुत सी पुस्तकों का ज्ञान प्राप्त करना श्रुतज्ञान है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लिए हुए रूपी पदार्थों को जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। प्राणीमात्र के मन में स्थित सरल या जटिल रूपी—मूर्तिक पदार्थों को जानने वाला मन:पर्यय ज्ञान कहलाता है। समस्त द्रव्य की समस्त पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। अब प्रमाण का लक्षण और उनके भेद बताए हैं—

तत्प्रमाणे।।१०।।

अर्थ — ऊपर कहे गए मति आदि ज्ञान ही प्रमाण हैं, अन्य कोई प्रमाण नहीं हैं। सूत्र में द्विवचन का प्रयोग इसलिए किया गया है कि उस प्रमाण के भी दो भेद हैं—प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण। इन पाँच ज्ञानों में कौन से ज्ञान प्रत्यक्ष और कौन से परोक्ष प्रमाण हैं इसको जानने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं—

आद्ये परोक्षम्।।११।। 

अर्थ — इन पाँच ज्ञानों में आदि के दो ज्ञान—मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं। ये ज्ञान इन्द्रिय, मन, उपदेश, प्रकाश आदि पर की सहायता से उत्पन्न होते हैं इसलिए परोक्ष कहलाते हैं। अभी आपके और हमारे दोनों के मति और श्रुत, यह दोनों ही ज्ञान हैं और इन दोनों ज्ञानों को परोक्ष कहा गया है। हम यह पुस्तक देख रहे हैं यह हमारा परोक्ष ज्ञान है। आप कहेंगे—कैसे ? हम तो स्पष्ट देख रहे हैं, प्रत्यक्ष देख रहे हैं तो परोक्ष कैसे हुआ ? इस बात का उत्तर आगे देंगे कि जिसमें किसी का अवलम्बन होता है वह परोक्ष कहलाता है। इस परोक्ष ज्ञान को न्याय की शैली में परीक्षामुख, न्यायदीपिका के अन्दर सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहा है। इस बात को जब शिष्य स्वीकार नहीं करता और कहता है कि—भगवन्! मैं तो सामने देख रहा हूँ कि यह चीज है और आप इसको कहते हैं परोक्ष ज्ञान है तब उन आचार्य ने कहा—परोक्ष आगम वालों की दृष्टि से परोक्ष है क्योंकि इसमें इन्द्रिय और मन की सहायता लेनी पड़ती है और चूँकि हमको व्यवहार में सब प्रत्यक्ष दिख रहा है इसलिये उसका नाम दिया है सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष। अब प्रत्यक्ष प्रमाण के भेद बताते हैं—

प्रत्यक्षमन्यत्।।१२।।

अर्थ — मति, श्रुत ज्ञान के अतिरिक्त शेष अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान ये तीन प्रत्यक्ष ज्ञान होते हैं। अक्ष नाम आत्मा का है। जो ज्ञान आत्मा से ही उत्पन्न होता है, इन्द्रिय आदि पर की अपेक्षा नहीं होती उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष के दो भेद हैं—देश प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष। अवधि और मन:पर्यय ये दो ज्ञान देशप्रत्यक्ष हैं अर्थात् इनकी कुछ सीमा होती है कि इतनी सीमा तक यह रूपी पदार्थों को देखेंगे परन्तु केवलज्ञान रूपी, अरूपी सभी सीमित, असीमित पदार्थों को अर्थात् लोक से सब पदार्थों को देख लेता है इसलिए सकल प्रत्यक्ष कहलाता है। मंतिज्ञान के और भी नाम हैं जिसको बताते हुए आगे सूत्र का अवतार होता है—

मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोधइत्यनर्थान्तरम्।।१३।।

अर्थ — मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध ये मतिज्ञान के ही नामान्तर हैं क्योंकि ये पाँचों ही मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। भावार्थ—मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ये एक—दूसरे के पर्यायवाची ही नाम हैं। इनमें एक का कथन करें तो दूसरे का कथन समझ लेना चाहिये। मन और इन्द्रियों से वर्तमान काल के पदार्थों का जानना मति है। पहले जाने हुये पदार्थों का वर्तमान में स्मरण आना कहलाता है स्मृति। वर्तमान में किसी पदार्थ को देखकर ‘यह वही है’ इस प्रकार स्मरण और प्रत्यक्ष के जोड़रूप ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। इसी का दूसरा नाम ‘प्रत्यभिज्ञान’ है। जहाँ—जहाँ धुआँ है वहाँ—वहाँ अग्नि अवश्य ही होती है, जैसे—रसोईघर में धुएँ को देखकर अग्नि का अनुमान लगाया जाता है इस प्रकार के व्याप्तिज्ञान को चिन्ता कहते हैं। साधन से साध्य का ज्ञान होने को अभिनिबोध कहते हैं। जैसे—‘उस पहाड़ में अग्नि है क्योंकि उस पर धुआँ है’ इसी का दूसरा नाम अनुमान है। मतिज्ञान के कारण और स्वरूप को बताते हैं—

तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।।१४।।

अर्थ — वह मतिज्ञान पाँचों इन्द्रिय और अनिन्द्रिय—मन की सहायता से होता है। इन्द्र अर्थात् आत्मा। आत्मा के चिन्ह विशेष को इन्द्रिय कहते हैं। अभिप्राय यहाँ यह है कि जानने की शक्ति तो आत्मा में स्वभाव से ही है किन्तु ज्ञानावरण कर्म का उदय रहते हुये वह बिना बाह्य सहायता के स्वयं नहीं जान सकता अत: जिन अपने चिह्नों के द्वारा वह पदार्थों को जानता है उन्हें इन्द्रिय कहते हैं। यहाँ मन को अनिन्द्रिय शब्द से सम्बोधित किया गया है, जिसका अर्थ है—ईषत् इन्द्रिय अर्थात् मन पूरी तरह से इन्द्रिय नहीं है क्योंकि इन्द्रियों का तो स्थान भी निश्चित है और विषय भी निश्चित है किन्तु मन का न तो कोई निश्चित स्थान ही है और न कोई निश्चित विषय ही है। मन को अन्त:करण भी कहते हैं क्योंकि एक तो वह आँख वगैरह की तरह बाहर में दिखाई नहीं देता। दूसरी बात मन का प्रधान कार्य गुण दोष का विचार तथा स्मरण आदि है उसमें वह इन्द्रियों की सहायता नहीं लेता अत: उसे अन्त:करण भी कहते हैं। मतिज्ञान में इन्द्रिय और मन की सहायता लेनी पड़ती है, तब जाकर मतिज्ञान होता है। दोनों चीजें इसलिये कही हैं कि एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के प्राणियों के मन नहीं होता लेकिन फिर भी उनके भी मति और श्रुत दोनों ज्ञान मौजूद हैं। जितने भी जीव हैं चाहे वह एक निगोदिया जीव ही क्यों न हों उनके भी यह दोनों ज्ञान मौजूद हैं इसलिए कि उनके आत्मा है और साथ में कम से कम एक इन्द्रिय लगी हुई है, बिना ज्ञान के ये जीव जड़ हो जाता है। मतिज्ञान के भेदों को बताया है—

अवग्रहेहावायधारणा:।।१५।।

अर्थ — अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार मतिज्ञान के भेद हैं। # अवग्रह — सत्तामात्र अवलोकन स्वरूप दर्शन के पश्चात् जो पदार्थ का प्रथम ग्रहण रूप ज्ञान होता है उसे अवग्रह कहते हैं। जैसे—चक्षु से किसी सफेद वस्तु को जानना। # ईहा — अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा का होना ईहा है। जैसे—यह सफेद रूप वाली वस्तु क्या है ? यह बगुलों की पंक्ति है या पताका। # अवाय — विशेष चिन्हों द्वारा यथार्थ वस्तु का निर्णय कर लेना अवाय है। जैसे—पंखों के हिलने से तथा ऊपर—नीचे होने से यह निर्णय हो गया कि यह तो बगुलों की ही पंक्ति है। # धारणा — अवाय से जानी हुई वस्तु को कालान्तर में भी नहीं भूलना धारणा है। मतिज्ञानावरण कर्म का जैसा—जैसा क्षयोपशम आत्मा में होता जाता है वैसी—वैसी धारणा शक्ति वृद्धिंगत हो जाती है। किन्हीं— किन्हीं प्राणी विशेष में यह धारणा शक्ति इतनी मजबूत हो जाती है कि अनेक भवों के पश्चात् भी उन्हें पूर्व जन्मों की बात ज्यों की त्यों स्मृति में आ जाती है। इस अवर्सिपणी काल में मनुष्यों की आयु, बुद्धि आदि सभी का ह्रास होता जा रहा है यही कारण है कि आज कई—कई बार धर्मगुरुओं की प्रेरणा मिलने पर भी मानव आत्मज्ञान से विमुख होता जा रहा है। परम पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी अनेकों बार प्रवचन में कहा करती हैं कि ‘‘गुरु उपदेश जीवन में कभी भी व्यर्थ नहीं जाता’’ आज भले ही आपको वह स्मरण न रहे किन्तु किसी न किसी भव में दु:ख—सुख का अनुभव करते हुए अवश्य याद आवेगा और वह सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में निमित्त भी बन सकता है। देखो! इसी पंचमकाल में श्री अकलंक और निकलंक जैसे एकपाठी और दो पाठी भी हुए हैं जिसमें अकलंक मात्र एक बार गुरुमुख से अध्ययन करके जीवन में कभी नहीं भूलते थे और निकलंक दो बार किसी बात को सुनने के पश्चात् पुन: नहीं भूलते थे यह उनकी धारणा शक्ति की ही विशेषता थी। इसी शताब्दी के महान विद्वान श्रीमद्राजचंद्र, जिनके नाम से आप सभी परिचित हैं वे शतावधानी थे। एक साथ सौ प्रश्नों को सुनकर क्रमश: धारावाहिक उत्तर देते थे। मैंने स्वयं पूज्य ज्ञानमती माताजी के बारे में अनुभव किया है कि उन्होंने आज से ५०—६० वर्ष पूर्व भी जिन ग्रंथों का स्वाध्याय किया था उन ग्रन्थों में कहाँ क्या वर्णन है उन्हें ज्यों का त्यों स्मरण रहता है। ज्ञान तो सभी की आत्मा में विद्यमान है किन्तु बादलों की तरह ज्यों—ज्यों उस पर से आवरण हटता जाता है त्यों—त्यों ज्ञान प्रगट होता है और एक दिन वही ज्ञान पूर्ण निरावरण होकर केवलज्ञान सूर्य को प्रगट कर देता है अत: अपने ज्ञान को समीचीन करने का सतत् प्रयास करना चाहिये। अवग्रह आदि के विषयभूत पदार्थ क्या हैं ? सो ही बताते हैं—

बहुबहुविधक्षिप्रानि:सृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम्।।१६।।

 अर्थ — बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त, ध्रुव और इनके प्रतिपक्षी अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, अनि:सृत, उक्त और अध्रुव इन बारहों के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा चारों ही ज्ञान होते हैं अर्थात् बारह को चार से गुणा करने पर मतिज्ञान के ४८ भेद हो जाते हैं। बहुत वस्तुओं के ग्रहण करने को बहुज्ञान कहते हैं। बहुत तरह की वस्तुओं के ग्रहण करने को बहुविधज्ञान कहते हैं। जैसे—सेना या वन को एक समूह रूप में जानना बहुज्ञान है और हाथी, घोड़े आदि या आम, महुआ आदि भेदों को जानना बहुविध ज्ञान है। वस्तु के एक भाग को देखकर पूरी वस्तु को जान लेना अनि:सृृत ज्ञान है। जैसे—जल में डूबे हुए हाथी की सूंड को देखकर हाथी को जान लेना। शीघ्रता से जाती हुई वस्तु को जानना क्षिप्र ज्ञान है। जैसे—तेज चलती हुई रेलगाड़ी को या उसमें बैठकर बाहर की वस्तुओं को जानना। बिना कहे अभिप्राय से ही जान लेना अनुक्त ज्ञान है। बहुत काल तक जैसा का तैसा निश्चल ज्ञान होना या पर्वत वगैरह स्थिर पदार्थ को जानना ध्रुव ज्ञान है। एक प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान होना एकविध ज्ञान है। धीरे—धीरे चलते हुए घोड़े आदि को जानना अक्षिप्र ज्ञान है। सामने विद्यमान पूरी वस्तु को जानना नि:सृत ज्ञान है। कहने पर जानना उक्त ज्ञान है। चंचल बिजली वगैरह को जानना अध्रुव ज्ञान है। इस प्रकार से बारह प्रकार का अवग्रह, बारह प्रकार की ईहा, बारह प्रकार का अवाय और बारह प्रकार का धारणा ज्ञान होता है तथा इनमें से प्रत्येक ज्ञान पांच इन्द्रिय और मन के द्वारा होता है अत: ४८ को ६ से गुणा करने पर मतिज्ञान के २८८ भेद होते हैं।

अर्थस्य।।१७।। 

अर्थ — यह बहुविध आदि अर्थ—पदार्थ के विशेषण हैं अर्थात् बहुत से पदार्थ और बहुत तरह के पदार्थ इस तरह बारहों भेद पदार्थ के विशेषण हैं। आगे बतलाते हैं कि सभी पदार्थों से अवग्रह आदिक चारों ज्ञान होते हैं या उसमें कुछ अन्तर होता है—

व्यञ्जनस्यावग्रह:।।१८।।

अर्थ — व्यंजन अर्थात् अस्पष्ट शब्द आदि का केवल अवग्रह ही होता है ईहा आदि नहीं होती। व्यञ्जन यानी अस्पष्ट, जैसे—कुछ स्वर होते हैं और कुछ व्यंजन होते हैं क, प, त ये जितने भी व्यंजन हैं उनमें जब तक स्वर नहीं लगता तब तक वह बिल्कुल अस्पष्ट होते हैं क्योंकि खाली व्यंजन का उच्चारण नहीं हो पाता। जैसे खाली व्यंजन का उच्चारण नहीं हो पाता, ऐसे ही अस्पष्ट पदार्थ वगैरह का अर्थात् व्यंजनावग्रह का केवल अवग्रह हो जाता है, ज्ञान हो जाता है ईहा आदिक ज्ञान उनके नहीं होते। अवग्रह के दो भेद होते हैं—अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह। स्पष्ट पदार्थ के अवग्रह को अर्थावग्रह कहते हैं और अस्पष्ट पदार्थ के अवग्रह को व्यंजनावग्रह कहते हैं। जैसे—कान में एक हल्की सी आवाज सुनाई पड़ी उसके बाद फिर कुछ भी नहीं जान पड़ा कि क्या था ? ऐसी अवस्था में केवल व्यंजनावग्रह ही होकर रह जाता है किन्तु यदि धीरे—धीरे वह आवाज स्पष्ट हो जाती है तो व्यंजनावग्रह के बाद अर्थावग्रह और फिर ईहा आदि ज्ञान भी होते हैं अत: अस्पष्ट पदार्थ का केवल अवग्रह ज्ञान ही होता है और स्पष्ट पदार्थ के चारों ज्ञान होते हैं। अब आचार्य श्री उमास्वामी कहते हैं कि—

न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्।।१९।। 

अर्थ — नेत्र और मन से व्यञ्जनावग्रह नहीं होता है। चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता क्योंकि चक्षु और मन पदार्थ को दूर से ही जानते हैं उसको छूकर नहीं। जैसे चक्षु अपने आँख में लगे हुए अंजन को नहीं देख सकता किन्तु दूर के पदार्थों को देख सकता है इसी तरह मन भी जिन पदार्थों का विचार करता है वे उससे दूर ही होते हैं। इसी से जैन सिद्धान्त में चक्षु और मन को अप्राप्यकारी माना है। शेष चारों इन्द्रियाँ अपने विषय को उससे छूकर ही जानती हैं अत: व्यंजनावग्रह चार ही इन्द्रियों से होता है। इस प्रकार से बहु आदि बारह विषयों की अपेक्षा व्यंजनावग्रह के ४८ भेद होते हैं तथा पहले गिनाये हुये २८८ भेदों में इन ४८ भेदों को मिला देने से मतिज्ञान के ३३६ भेद हो जाते हैं। यथाक्रम से जिसमें जिस ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है उसके वह ज्ञान प्रगट हो जाया करता है। इस प्रकार से यहाँ पर मतिज्ञान का स्वरूप और उसके भेद कहे हैं। अब आगे श्रुतज्ञान का लक्षण और उसके भेद कहते हैं—

श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदं।।२०।।

अर्थ — श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। उसके दो भेद हैं—अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य। उनमें से अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं और अंगबाह्य के अनेक भेद हैं। किसी भी जीव के सबसे पहले मतिज्ञान होता है उसके बाद श्रुतज्ञान होता है। बिना मतिज्ञान हुए श्रुतज्ञान कभी नहीं होता। उस श्रुतज्ञान के जो अंगप्रविष्ट नाम का भेद है उसके बारह भेद हैं—आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अंतकृद्दशांग, अनुत्तरोप—पादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवाद अंग। तीर्थंकर भगवान जब चार घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तब लोकालोक के समस्त पदार्थों को जानकर अपनी दिव्यध्वनि द्वारा सारे संसारी प्राणियों को उपदेश देते हैं। उनके उपदेश को गणधर देव अपनी स्मृति में रखकर बारह अंगों में संकलित कर देते हैं। यही ज्ञान अंग प्रविष्ट श्रुतज्ञान कहा जाता है। यह अंगग्रंथ अत्यन्त महान् और गंभीर अर्थ को लिए हुए होते हैं। वर्तमान में द्वादशांग में से कोई भी अंग के पूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं, उनके अंश अवश्य आज शास्त्रों में निबद्ध हैं। आचार्यों ने अल्पबुद्धि शिष्यों पर दया करके उनके आधार पर जो ग्रन्थ रचे हैं वे अंगबाह्य कहलाते हैं। यह सब अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के भेद हैं। आज से लगभग २००० वर्ष पूर्व आचार्य श्री धरसेन स्वामी ने श्रुतज्ञान का ह्रास होते देखा तब उन्हें विशेष चिन्ता हुई कि श्रुत की अविच्छिन्न परम्परा कैसे चलेगी ? अत: उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबलि नाम के दो दिगम्बर मुनि शिष्यों को अपना श्रुतज्ञान वितरित किया जिसके फलस्वरूप आज तक धवल जयधवल, महाधवल आदिक सूत्रग्रन्थ देखे जाते हैं तथा हमारी जिनवाणी जो कि चार अनुयोगों में निबद्ध है उसके भी बहुमात्रा में ग्रन्थ उपलब्ध हैं। आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भी जैन वाङ्मय का बहुत विस्तार किया है। मति और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं और प्रत्यक्ष प्रमाण के तीन भेद हैं—अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। अवधिज्ञान का वर्णन करते हुए कहते हैं—

भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्।।२१।। 

अर्थ — भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियों के होता है। अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होता है और क्षयोपशम व्रत, नियम आदि के आचरण से होता है किन्तु देवों और नारकियों में व्रत, नियम आदि नहीं होते अत: उनमें देव और नारकी का भव पाना ही क्षयोपशम के होने में कारण होता है। इसी से उनमें होने वाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय—जिसके होने में भव ही कारण है, कहा जाता है अर्थात् जो देव और नारकियों में जन्म लेता है उसके अवधि ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हो ही जाता है अत: वहां क्षयोपशम के होने में भव ही मुख्य कारण है। इतना विशेष है कि मिथ्यादृष्टियों के कुअवधि ज्ञान होता है। देव और नारकियों का अवधिज्ञान भवप्रत्यय है क्योंकि यह भव अर्थात् पर्याय के कारण उत्पन्न हुआ है और जो किसी पर्याय विशेष की अपेक्षा न रखकर अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होवे उसको कहते हैं गुणप्रत्यय अवधिज्ञान या क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान। स्मरण रखने योग्य बात यहाँ यह बतायी गयी है कि भवप्रत्यय अवधिज्ञान में भी अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है पर वह क्षयोपशम देव और नरक पर्याय में नियम से प्रकट हो जाता है। तीर्थंकरों के भी भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। अब क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान के भेद एवं स्वामी के बार में बताते हैं—

क्षयोपशमनिमित्त: षड्विकल्प: शेषाणाम्।।२२।। 

अर्थ — क्षयोपशम के निमित्त से होने वाला अवधिज्ञान छ: प्रकार का होता है और वह मनुष्य तथा तिर्यञ्चों के होता है। अवधि ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम जिसमें निमित्त है उसे क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान कहते हैं। यद्यपि सभी अवधिज्ञान क्षयोपशम के निमित्त से होते हैं फिर भी इस अवधिज्ञान का नाम क्षयोपशमनिमित्तक इसलिए रखा गया कि इसके होने में क्षयोपशम ही प्रधान कारण है, भव नहीं। इसी से इसे गुण प्रत्यय भी कहते हैं; इसके छ: भेद हैं—अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित। जो अवधिज्ञान अपने स्वामी—जीव के साथ—साथ जाता है उसे अनुगामी कहते हैं। इसके तीन भेद हैं—क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी और उभयानुगामी। जिस जीव के जिस क्षेत्र में अवधिज्ञान प्रकट हुआ वह जीव यदि दूसरे क्षेत्र में जाय तो उसके साथ जाय और छूटे नहीं, उसे क्षेत्रानुगामी कहते हैं। जो अवधिज्ञान परलोक में भी अपने स्वामी जीव के साथ जाता है वह भवानुगामी है। जो अवधिज्ञान अन्य क्षेत्र में भी साथ जाता है और अन्य भव में भी साथ जाता है वह उभयानुगामी है। जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीव के साथ नहीं जाता है वह अननुगामी है। इसके भी तीन भेद हैं जो पूर्वोक्त तीन भेदों से उल्टे हैं। विशुद्ध परिणामों की वृद्धि होने से जो अवधिज्ञान बढ़ता ही जाता है उसे वर्धमान कहते हैं। संक्लेश परिणामों की वृद्धि होने से जो अवधिज्ञान घटता ही जाता है उसे हीयमान कहते हैं। जो अवधिज्ञान जिस मर्यादा को लेकर उत्पन्न हुआ हो उसी मर्यादा में रहे, न घटे और न बढ़े, उसे अवस्थित कहते हैं और जो घटे—बढ़े उसे अनवस्थित कहते हैं। दूसरी प्रकार से अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ऐसी तीन भेद भी बताये हैं। इनमें देशावधि चारों गतियों में हो सकता है परन्तु परमावधि और सर्वावधि अवधिज्ञान चरमशरीरी मुनियों को ही होता है। मन:पर्ययज्ञान के भेदों को बताते हैं—

ऋजुविपुलमती मन:पर्यय:।।२३।। 

अर्थ — मन:पर्ययज्ञान ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो प्रकार का होता है। मन:पर्यय का मतलब क्या है ? दूसरे के मन में स्थित सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्त्वों को जानने वाला मन:पर्ययज्ञानी कहलाता है और यह नियम है कि यह मन:पर्यय ज्ञान किसी श्रावक को नहीं हो सकता, मुनि को ही होगा। अवधिज्ञान के लिए बताया है कि अवधिज्ञान तो श्रावक को हो सकता है लेकिन मन:पर्ययज्ञान तपस्वी ऋद्धिधारी मुनियों को ही होगा। उस मन:पर्यय ज्ञान के दो भेद हैं—१. ऋजुमति और २. विपुलमति।

दूसरे के मन में सरल रूप में स्थित रूपी पदार्थ को जो ज्ञान प्रत्यक्ष जानता है उसे ऋजुमति मन:पर्यय कहते हैं और दूसरे के मन में सरल अथवा जटिल रूप में स्थित रूपी पदार्थ को जो ज्ञान प्रत्यक्ष जानता है, उसे विपुलमति मन:पर्यय कहते हैं। देव, मनुष्य, तिर्यंच सभी के मन में स्थित विचार को मन:पर्यय ज्ञान जानता है किन्तु वह विचार रूपी पदार्थ अथवा संसारी जीव के विषय में होना चाहिए। अमूर्त्तिक द्रव्यों और मुक्तात्माओं के विषय में जो चिन्तन किया गया होगा, उसे मन:पर्यय नहीं जान सकता तथा उन्हीं जीवों के मन की बात जान सकता है जो मनुष्य लोक की सीमा के अन्दर हों। इतना विशेष है कि मनुष्यलोक तो गोलाकार है किन्तु मन:पर्यय ज्ञान का क्षेत्र गोलाकार न होकर पैंतालिस लाख योजन लम्बा चौड़ा चौकोर है। उसके दो भेदों में से ऋजुमति तो केवल उसी वस्तु को जान सकता है जिसके बारे में सरल रूप से विचार किया गया हो अथवा मन, वचन और काय की चेष्टा के द्वारा जिसे स्पष्ट कर दिया गया हो किन्तु विपुलमति मन:पर्यय चिन्तित और

चिन्तित को भी जान लेता है।।२३।।

 अर्थ —अब मन:पर्यय के दोनों भेदों में विशेषता बतलाते हैं—

विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेष:।।२४।।

 अर्थ — परिणामों की विशुद्धता और अप्रतिपात—केवलज्ञान होने से पहले नहीं छूटना, इन दो बातों से ऋजुमति और विपुलमति ज्ञान में विशेषता है। ऋजुमति और विपुलमति में विशुद्धि और अप्रतिघात की अपेक्षा से विशेषता है। मन:पर्यय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो आत्मा में उज्ज्वलता होती है वह विशुद्धि है और संयम परिणाम की वृद्धि होने से गिरावट का न होना अप्रतिपात है। ऋजुमति से विपुलमति अधिक विशुद्ध होता है तथा ऋजुमति होकर छूट भी जाता है किन्तु विपुलमति वाले का चारित्र वर्धमान ही होता है अत: वह केवलज्ञान उत्पन्न होने तक बराबर बना रहता है।।२४।। आगे अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान में विशेषता बतलाते हैं—

विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमन:पर्ययो:।।२५।।

 अर्थ — अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा से अन्तर है। अवधिज्ञान जिस रूपी द्रव्य को जानता है उसके अनन्तवें भाग सूक्ष्म रूपी द्रव्य को मन:पर्यय ज्ञान वाला जानता है अत: अवधिज्ञान से मन:पर्यय ज्ञान विशुद्ध है। अवधिज्ञान की उत्पत्ति का क्षेत्र समस्त त्रसनाली है किन्तु मन:पर्यय ज्ञान मनुष्य लोक में ही उत्पन्न होता है। अवधिज्ञान के विषय का क्षेत्र समस्त लोक है किन्तु मन:पर्यय ज्ञान के विषय का क्षेत्र पैंतालिस लाख योजन में स्थित मनुष्य या देव के मन में स्थित विषय को जानने का है। इतने क्षेत्र में स्थित अपने योग्य विषय को ही ये ज्ञान जानते हैं तथा अवधिज्ञान चारों गतियों के सैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के होता है किन्तु मन:पर्यय ज्ञान कर्मभूमि के गर्भज मनुष्यों के ही होता है उनमें भी संयमियों के ही होता है, संयमियों में भी वर्धमान चारित्र वालों के ही होता है, हीयमान चारित्र वालों के नहीं होता। वर्धमान चारित्र वालों में भी सात प्रकार की ऋद्धियों में से एक—दो ऋद्धियों के धारी मुनियों के ही होता है और ऋद्धिधारियों में भी किसी के ही होता है, सभी के नहीं होता। इस तरह अवधि और मन:पर्यय ज्ञान में विशुद्धि आदि की अपेक्षा भेद जानना चाहिए। अब ज्ञानों का विषय बतलाते हुए प्रथम मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय बताते हैं—

मतिश्रुतयोर्नबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु।।२६।।

 अर्थ — मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विषय का नियम द्रव्यों की कुछ पर्यायों में है। अर्थात् ये दोनों ज्ञान द्रव्यों की कुछ पर्यायों को जानते हैं, सब पर्यायों को नहीं जानते। इस सूत्र में ‘‘विषय’’ शब्द नहीं है अत: ‘‘विशुद्धि क्षेत्र’’ आदि सूत्र से विषय शब्द ले लेना चाहिए तथा ‘‘द्रव्येषु’’ शब्द बहुवचन का रूप है इसलिए जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सभी द्रव्यों का ग्रहण करना चाहिए। इन द्रव्यों में से एक—एक द्रव्य की अनन्त पर्यायें होती हैं। उनमें से कुछ पर्यायों को ही मति, श्रुत ज्ञान जानते हैं। अब यह शंका हुई कि धर्म, अधर्म आदि द्रव्य तो अमूर्तिक हैं। वे मतिज्ञान के विषय नहीं हो सकते अत: सब द्रव्यों को मतिज्ञान जानता है ऐसा कहना ठीक नहीं है? उसका समाधान करते हुए बताते हैं कि यह आपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि मन की सहायता से होने वाला मतिज्ञान अमूर्तिक द्रव्यों में भी प्रवृत्ति कर सकता है और मनपूर्वक अवग्रह आदि ज्ञान होने पर पीछे श्रुतज्ञान भी अपने योग्य पर्यायों को जान लेता है अत: कोई दोष नहीं है।।२६।। यह दोनों ज्ञान रूपी, अरूपी सभी द्रव्यों को जानते हैं पर उनकी सभी पर्यायों को नहीं जान पाते, कुछ पर्यायों को ही जानते हैं। यहाँ तक कि अपनी पीठ में क्या—क्या है, अपनी पीठ पीछे की वस्तु को हम नहीं जान सकते हैं। अपने शरीर के अवयवों की गणना हम नहीं कर सकते हैं। हमारा ज्ञान इतना स्थूल है कि वह कुछ ही पर्यायों को ग्रहण कर सकता है सारी पर्यायों को नहीं ग्रहण कर सकता। सारी पर्यायों को ग्रहण करने वाला तो केवलज्ञानी ही होता है। अवधिज्ञान का विषय बताते हैं—

रूपिष्ववधे:।।२७।।

 अर्थ — अवधिज्ञान रूपी पदार्थों को जानता है अर्थात् रूप, रस, गन्ध, स्पर्श वाले पुद्गल ही अवधिज्ञान के विषय होते हैं वह क्षायिक भाव तथा धर्म, अधर्म आदि अरूपी द्रव्यों को नहीं जानता। अवधिज्ञान रूपी पदार्थों को ही जानता है। रूपी का मतलब क्या होता है? जिसका रूप है, जिसके अन्दर स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाया जाता है। चाहे रूपी कह लीजिये चाहे र्मूितक कह लीजिये, आत्मा केवल अरूपी है और हमारा शरीर पुद्गल रूपी है। छ: द्रव्य हैं—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल। इनमें से कितने द्रव्य र्मूितक हैं और कितने अर्मूितक हैं ? इनमें एक पुद्गल द्रव्य र्मूितक है बाकी के सभी द्रव्य अर्मूितक हैं। आकाश की कोई र्मूित नहीं दिखती। आप सोचते हैं कि यह नीला—नीला आकाश दिख रहा है, यह आकाश नहीं हैं हर जगह आकाश है, हमारे चारों ओर आकाश है और वह आकाश अर्मूितक है। यह तो पुद्गल के परमाणु हैं जिनको हमने आकाश मान लिया है। यह बादल हैं, आकाश नहीं हैं। शेष पाँच द्रव्य हैं—धर्म, द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य, काल द्रव्य और जीव द्रव्य यह सब अर्मूितक हैं। जिसमें पूरण और गलन स्वभाव होता है वही कहलाता है र्मूितक और र्मूितक या रूपी पदार्थों को जानने वाला ही अवधिज्ञान है। मन:पर्ययज्ञान का विषय बताया है—

तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य।।२८।। 

 अर्थ — सर्वावधिज्ञान के विषयभूत रूपी द्रव्य के सूक्ष्म अनन्तवें भाग में मन:पर्यय ज्ञान की प्रवृत्ति होती है। सारांश यह है कि अवधिज्ञान से मन:पर्ययज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ को जानने की शक्ति रखता है। मन:पर्यय ज्ञान उन रूपी पदार्थों में भी उसके अनन्तवें पदार्थ को भी जान सकता है लेकिन इतनी सब विशेषता होते हुए भी अरूपी पदार्थ को नहीं जान पाता। विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली लेकिन जब इस प्राणी के शरीर से निकलकर आत्मा जाने लगती है तो कोई वैज्ञानिक, कोई मशीनरी उसको पकड़ नहीं पाई, इतनी उपलब्धियाँ हो गयीं लेकिन अर्मूितक आत्मा को कोई भी आज तक देख नहीं पाया, जान नहीं पाया। अगर पकड़ पाये हैं, जान पाये हैं, अनुभव कर पाये हैं तो केवलज्ञानी और ध्यानी आत्मा ही उसका अनुभव कर पाये हैं जिसके बल पर उन्होंने सिद्धशिला को प्राप्त किया है। वह केवल एक केवलज्ञान ही है, केवलदर्शन ही है जिसने उस अरूपी आत्मा को देखा है, जाना है और अनुभव किया है। उस केवलज्ञान का विषय क्या है? यह जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं—

सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।।२९।।

 अर्थ —केवलज्ञान सभी द्रव्यों की समस्त पर्यायों को विषय करता है अर्थात् लोक और अलोक में त्रिकालविषयक जितने अनंतानंत द्रव्य और पर्याय हैं उन सभी में केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है। जितना यह लोक है उतने यदि अनंत भी लोक हों तो उन्हें भी केवलज्ञान जान सकता है। समस्त द्रव्य की समस्त पर्यायों को केवलज्ञान विषय करता है। उससे कोई भी चीज अछूती नहीं रह सकती। चाहे आप कमरे में छिपकर कोई काम कर रहे हों, चाहे आप अंधरी रात में कोई काम कर ले, केवलज्ञानी सब कुछ जानता है, उसकी फिल्म बराबर चल रही है, वह फिल्म कभी रुकती नहीं हैं। केवलज्ञान ऐसा है कि वह बराबर देखता ही रहता है, इसलिये उसकी विशेषता बताई है कि वह सभी द्रव्य की त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों को जानने में सक्षम होता है। इतना सुनते—सुनते जब शिष्य थक गया तो उसने कहा कि महाराज! मेरे हित की बात बताइए। मुझे तो आप यह बताइए कि एक प्राणी एक साथ कितने ज्ञानों को धारण कर सकता है ? आपके मन में भी जिज्ञासा होगी कि क्या मुझे भी केवलज्ञान मिल सकता है ? उस शिष्य ने भी पूछा—महाराज! इतना विस्तारपूर्वक तो आपने बता ही दिया। अब मुझे बताइए कि मैं कितने ज्ञान प्राप्त कर सकता हूँ ? तब आचार्यश्री बताते हैं कि एक जीव के एक साथ कितने ज्ञान हो सकते हैं—

एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुभ्र्य:।।३०।।

 अर्थ —एक साथ एक आत्मा में एक को आदि लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं। एक आत्मा में दो ज्ञान—मति और श्रुत, तीन ज्ञान—मति, श्रुत, अवधि या मति, श्रुत, मन:पर्यय, चार ज्ञान—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय ज्ञान होंगे। पाँच ज्ञान कभी एक साथ नहीं होंगे। केवलज्ञान एक अकेला ही होता है। केवलज्ञान क्षायिक और परम विशुद्ध है अत: सकलज्ञानावरण कर्म के विनाश होने पर ही प्रगट होता है। अब आपको पुरुषार्थ करना है कि आपको दो ज्ञान प्राप्त करना है, एक ज्ञान प्राप्त करना है या चार ज्ञान प्राप्त करने हैं। यह निर्णय मैं आपके ऊपर ही छोड़ देती हूँ। और अब आगे का सूत्र आता है—

मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।।३१।।

 अर्थ —मति, श्रुत, अवधि ये तीनों ज्ञान मिथ्या भी होते हैं और सम्यव्â भी। मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यादर्शन के साथ रहने के कारण इन ज्ञानों में मिथ्यात्व आ जाता है। जैसे—कड़वी तूमड़ी में रखा हुआ दूध कड़वा हो जाता है उसी तरह मिथ्यादृष्टि रूप आधारदोष से ज्ञान में मिथ्यात्व आ जाता है। यहाँ पर यह शंका करना उचित नहीं है कि जैसे—मणि, सुवर्ण आदि मलस्थान में गिरकर भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते वैसे ही ज्ञान को भी नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि पारिणामिक अर्थात् परिणमन कराने वाले की शक्ति के अनुसार वस्तुओं में परिणमन होता है। कड़वी तूमड़ी के समान मिथ्यादर्शन में ज्ञान रूपी दूध को बिगाड़ने की शक्ति है। यद्यपि मलस्थान से मणि आदि में बिगाड़ नहीं होता पर अन्य धातु आदि के सम्बन्ध से सुवर्ण आदि भी विपरिणत हो ही सकते हैं। सम्यग्दर्शन के होते ही मति आदि ज्ञानों का मिथ्याज्ञानत्व हटकर उनमें सम्यग्ज्ञानत्व आ जाता है और मिथ्यादर्शन के उदय से ये ही मति आदि ज्ञान कुमति, कुश्रुत, कुअवधि रूप बन जाते हैं। आज विज्ञान ने कितनी-कितनी उन्नति कर ली लेकिन आज के युग के अन्दर भी जब हमारी भारतीय संस्कृति को अमेरिकन देखते हैं तो इस बात का अनुभव करते हैं कि वास्तव में हमने यन्त्रों की उपलब्धि कर ली, हमने विज्ञान के सहारे न जाने कितने यन्त्र बना लिये, सब कुछ खोज कर ली लेकिन आत्मा की खोज, अध्यात्म की खोज करने में आज भी हम असफल हैं। बैलगाड़ी के युग से यह मानव मिसाइल के युग में, कम्प्यूटर के युग में तो आ गया लेकिन आत्मा की खोज नहीं कर पाया, अध्यात्म की खोज नहीं कर पाया इसलिये वह खोखला का खोखला रह गया। शायद इसीलिये एक कवि ने ऐसे ही

सभा में बैठे हुए अनेक श्रोताओं से कहा—चेहरे पर चेहरे हैं, बड़े-बड़े गहरे हैं। पर त्याग के नाम पर, आप गूंगे और बहरे हैं।।यही कारण है कि हम अध्यात्म की खोज नहीं कर पाते। हम बाह्य चकाचौंध में पड़कर न जाने कितनी-कितनी खोज करने में लगे हुए हैं लेकिन हमें गूंगे और बहरे नहीं बनना है। अगर आप गूंगे और बहरे होते तो न तो मेरी बात का जवाब दे सकते थे और न आप उसको पढ़ ही सकते थे, न मानव पर्याय की सार्थकता को समझ सकते थे। मैं समझती हूँ कि आप लोग बहुत चतुर हैं और आपमें जो अनादिकालीन गूँगा और बहरापन है उसको समाप्त करने का आपने बीड़ा उठाया है यही कारण है कि आप आज यहाँ इस महान ग्रंथराज की वाचना सुनने और गुनने के लिये आये हैं। मोक्षशास्त्र जैसे महान ग्रन्थ को सबका शिरमौर्य कहा जाए कि जो कुछ भी निकला है वह इस तत्त्वार्थ सूत्र से निकला है तो भी कोई बड़ी बात नहीं है। तत्त्वार्थ सूत्र चारों अनुयोगों का प्रतिपादन करने वाला द्वादशांग जिनवाणी का प्रतीक है। आपसे कोई पूछे कि आपके जैनधर्म का मूलग्रन्थ कौन-सा है ? तो आपको बताना चाहिये कि तत्त्वार्थ सूत्र हमारा मूलग्रन्थ है। आपके जैनधर्म का मूलमन्त्र कौन-सा है ? आपको बताना चाहिये कि णमोकार महामन्त्र हमारे जैनधर्म का मूलमन्त्र है। इस सूत्र में बताया है कि यह तीनों ज्ञान संसर्ग की अपेक्षा से, मिथ्यात्व कर्म की अपेक्षा से मिथ्या भी हो सकते हैं, सम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यक् भी हो सकते हैं। अगर आपको सम्यग्दर्शन है तो आप निश्चित मानिये कि आपको मति और श्रुतज्ञान हैं, आज हमारे पास थर्मामीटर नहीं है कि हम आपको बिल्कुल निश्चित रूप से बता सवेंâ कि आप सम्यग्दृष्टि हैं कि मिथ्यादृष्टि हैं। देव, शास्त्र, गुरु के प्रति श्रद्धान है तो नियम से व्यवहार सम्यग्दृष्टि हैं। निश्चय सम्यग्दर्शन की बात तो जाने दीजिये, हमें प्रयास करना है कि अगर हमारे जीवन के अन्दर कभी अवधिज्ञान भी उपज जाये तो वह कुअवधिज्ञान न बनने पावे क्योंकि पंचमकाल के अन्दर अवधिज्ञान का निषेध नहीं किया है।

पंचमकाल के अन्त में भी वीरांगज मुनिराज को अवधिज्ञान होगा और वह जान जाएंगे कि अब धर्म के ह्रास का समय है। मैं एक शास्त्र का उदाहरण आपको बताती हूँ कि किस प्रकार से अवधिज्ञान के अन्दर भी विपरीतता आती है। शास्त्र की पौराणिक कथा है— एक राजा था, उसको एक बार दाह ज्वर हो गया। बहुत दवाइयाँ कीं, बहुत चन्दन लगाया, बहुत सारी शीतल दवाइयाँ भी लीं लेकिन उसका दाह ज्वर शान्त नहीं हुआ, बड़ा परेशान था वह राजा। एक दिन वह कमरे में लेटा हुआ था। दरवाजे से छिपकली की पूंछ कटकर एक बूँद खून उसके शरीर पर पड़ गया। जहाँ हाथ पर आ करके खून की बूँद पड़ी, वहीं पर थोड़ी शांति उसे महसूस हुई। तब राजा को तुरन्त कुअवधि उत्पन्न हो गयी। उसने सोचा कि इस खून की बूँद के गिरने से ही इस जगह का मेरा दाह ज्वर शान्त हुआ है इसका मतलब यह हुआ कि अगर मैं खून की बावड़ी में स्नान कर लूँ तो मेरा दाह ज्वर शान्त हो सकता है। उसने एकदम सोचा—इतने पशु कहाँ पर मिलेंगे ? उनको वैâसे मारा जायेगा ? वैâसे खून की बावड़ी तैयार की जायेगी ? कुअवधिज्ञान का बटन ऑन हो गया और उसको अपने शहर के बाहर का जंगल दिखने लगा। उस जंगल के अन्दर असंख्यातों हिरण थे, गाय थीं, तमाम सारे पशु थे वह दिखने लग गये। वह सोचने लगा कि अगर इतने सारे पशुओं को मारकर इनकी खून की बावड़ी तैयार कर दी जाए, मैं उसके अन्दर डुबकी लगा लूँ तो निश्चित ही मेरा ज्वर शान्त हो जायेगा।

अपने बेटे को बुलाकर वह राजा कहता है कि बेटा! तू मेरा आज्ञाकारी पुत्र है, तू मेरे दीर्घजीवन की कामना करता है, तूने न जाने कितने वैद्यों-हकीमों से मेरी दवा करा ली लेकिन मेरा दाह ज्वर शान्त नहीं हुआ। आज मुझे अनुभूति हुई है कि अगर खून की बावड़ी तैयार कर दी जाए तो मेरा यह दाह ज्वर उसमें डुबकी लगाने से शान्त हो सकता है और तू ही मेरी इच्छा की पूर्ति कर सकता है। बेटा! मेरे शहर के पास में जो जंगल है, जा देख! वहाँ बहुत सारे पशु हैं, उनमें से सारे पशुओं में केवल हिरण को ही ला करके, तू उनको मारकर खून की बावड़ी तैयार कर लेगा तो मेरे दाह ज्वर की उपशांति हो जाएगी। बेटा! मुझे विश्वास है कि तू जरूर मेरी आज्ञा को निभाएगा। बेटा एकदम किंकर्तव्यविमूढ़! मैं क्या करूँ ? पिताजी को क्या हुआ है ? लेकिन बोला कुछ नहीं। जंगल में गया, देखा, वास्तव में यहाँ तो बहुत पशु हैं। जाते-जाते जंगल के एक छोर से दूसरे छोर को नाप आया। तभी उसने वहीं जंगल के बीच में एक शिलातल पर एक दिगम्बर मुनिराज को देखा, वे ध्यान लगाकर बैठे हैं। महाराज के पास गया। नमस्कार करके महाराज से पूछता है कि महाराजश्री! मेरे पिताजी को क्या हो गया है ? मेरे पिताजी ने इस जंगल को देखा है और यह कहा है कि सारे पशुओं को मारकर खून की बावड़ी तैयार कर दो। मुनिवर! मैं क्या करूँ? मुझे कुछ उपाय बताइये कि कत्र्तव्य का निर्वाह भी हो जाए, आज्ञा का पालन भी हो जाए, हिंसा का दोष भी नहीं लगे और पिताजी भी ठीक हो जावें। महाराज ने कहा—बेटा! तेरे पिता को कुअवधिज्ञान उत्पन्न हो गया है। इसकी पहचान क्या है गुरुवर ? उनको यहाँ जो कुछ है, सब दिख रहा है। क्या उन्हें दिव्यज्ञान हो गया है ? पुत्र के ऐसा पूछने पर महाराज बोले कि—बेटा! उनको तो मिथ्याज्ञान हो गया है। अगर तुम्हें विश्वास नहीं है तो जाकर तुम अपने पिता से पूछना कि उस जंगल के अन्दर दिगम्बर मुनिराज भी आपको दिखते हैं क्या ? उस बेटे ने जाकर पिता से पूछा कि—पिताजी! उस जंगल के अन्दर एक सन्त बैठे हुए ध्यान कर रहे हैं, वह भी आपके ज्ञान में दिखते होंगे ? पिता बोले—कोई मुनि नहीं हैं, कोई सन्त नहीं हैं, मुझे तो वहाँ पर सारे पशु दिख रहे हैं। मेरी एक ही आज्ञा है कि उन सबको लाकर मौत के घाट उतारकर उनकी खून की एक बावड़ी तैयार करो। उसने मन्त्रियों से परामर्श किया कि मैं क्या करूँ ? इतना बड़ा धर्म संकट है।

तब एक मन्त्री ने सलाह दी—युवराज! आप ऐसा करें कि पिताजी की आज्ञा का पालन भी हो जाए और हिंसा भी न हो, आप लाख को पिघलाकर जो बावड़ी तैयार करेंगे वह बिल्कुल खून जैसी दिखने लग जाएगी। बहुत अच्छी युक्ति समझ में आ गयी उसको और उस बेटे ने लाख की बावड़ी तैयार की। जब लाख ठण्डा हो गया तब जाकर पिताजी से कहा—पिताजी! बावड़ी तैयार है, आप उसमें डुबकी लगाइए। पिताजी ने उसे कोटि-कोटि आशीर्वाद दिया—बेटा! मुझे तुझसे यही आशा थी। आखिर कौन बेटा होगा जो अपने पिता के दीर्घ जीवन को नहीं चाहता होगा और डुबकी लगाते-लगाते जाने कितने आशीर्वाद अपने बेटे के लिए देता रहा कि मैं तो तुझे ही सारा राज्य वैभव देने वाला हूँ, तुझे ही राजमुकुट देने वाला हूँ, तुझे ही अपार सम्पत्ति देने वाला हूँ, तुझे ही राजा बनाने वाला हूँ और इतना कहते-कहते एकदम बावड़ी के बीच में आ गया। उसकी एकदम इच्छा हुई और उसने आनन्दविभोर होकर मँह में जैसे ही खून का कुल्ला भरा कि कितना सुन्दर खून तैयार किया है बेटे ने, लेकिन मुँह के अन्दर जाते ही वह सारा का सारा प्रेम क्रोध में परिवर्तित हो गया। जो शब्द कोटि-कोटि आशीर्वाद दे रहे थे वे ही शब्द उसे दुराशीष दे रहे थे। तूने मेरे साथ विश्वासघात किया है, तू तो होते ही मर जाता तो अच्छा था। कितना कपूत है, वैâसा है, तूने किस प्रकार से मेरी आज्ञा का पालन किया है? मेरे साथ में इतना बड़ा धोखा किया है। तूने लाख की बावड़ी तैयार की है और एकदम से अपनी कमर से तलवार खींच कर चल पड़ा अपने बेटे को मारने के लिए, लेकिन चूँकि लाख के खून से सराबोर था, अकस्मात् जैसे ही बावड़ी से निकलता है, पैर फिसलता है और उसकी तलवार छूट कर उसको ही लग जाती है और वह मरकर नरक चला जाता है।

मुनिराज ने बता दिया था—बेटा! तेरे पिता के मिथ्यात्व कर्म का उदय आया है, नरक आयु का बन्ध हो गया है यही कारण है कि जंगल में केवल पशु ही पशु दिख रहे हैं। कुअवधिज्ञान का प्रभाव है कि यहाँ बैठे हुए जैन सन्त, उनका यह धर्मध्यान, कुछ भी दिखता नहीं है। यह कुअवधिज्ञान की महिमा है कि जैसे खराब पात्र होता है तो उसमें रखा हुआ दूध भी खराब हो जाता है, ऐसे ही अगर हमारे अन्दर हमारा मनरूपी पात्र खराब है, उसके अन्दर मिथ्यात्व का कचरा लगा है तो हमारा ज्ञान मिथ्याज्ञान हो जाएगा। अवधि कुअवधि हो जाएगी, दर्शन कुदर्शन बन जाएगा इसलिये यह समझना है कि मति, श्रुत और अवधिज्ञान ये मिथ्या और सम्यक् दोनों होते हैं। आपने इन्हीं शास्त्रों में महासती मैनासुन्दरी की कथा पढ़ी होगी कि किस प्रकार उसने कर्मसिद्धान्त को प्रबल मानकर अपने सम्यग्दर्शन में दृढ़ रहते हुए उन्होंने अपने कुष्टी पति राजा श्रीपाल और उनके ५०० कुष्टी साथियों का कुष्ट रोग सिद्धचक्र के पाठ के माहात्म्य से दूर कर दिया, यह सब तो शास्त्रों में लिखित सत्य कथानक और जिनधर्म के चमत्कार हैं परन्तु आज भी अगर आपका सम्यग्दर्शन दृढ़ है तो प्रत्यक्ष चमत्कार देखने में आता है, एक ऐसा ही सम्यग्दर्शन की दृढ़ता का चमत्कार परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के जीवन में घटित हुआ जब बचपन से ही ग्रन्थों के स्वाध्याय के कारण सम्यग्दर्शन में दृढ़ उन ७—८ वर्ष की वय वाली कु. मैना के दो छोटे भाइयों प्रकाश और सुभाष को भयंकर चेचक हो गई, उस समय लोग शीतला माता का प्रकोप मानकर नाना प्रकार के मिथ्यात्व करते थे तब उस छोटी सी कन्या ने भगवान शीतलनाथ की दृढ़ भक्ति कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया और उस गांव से ही नहीं अपितु पूरे अवध प्रांत से मिथ्यात्व को हटाकर जिनधर्म का माहात्म्य पैâला दिया। उस समय की उनके जीवन की वह घटना सुनकर पूरा शरीर रोमांचित हो उठता है कि किस प्रकार उन्होंने सारे गांव का संघर्ष झेलकर भी जिनधर्म पर दृढ़ श्रद्धा रखी, भगवान शीतलनाथ के अभिषेक का गंधोदक लाकर प्रतिदिन उन बच्चों को लगाया और उस भक्ति की शक्ति का चमत्कार हुआ, उनके दोनों भाई स्वस्थ हो गए और मिथ्यात्व को पूजने वालों के बच्चे कालकवलित हो गए। अतएव इन कथानकों के माध्यम से हमें अपने सम्यग्दर्शन को दृढ़ से दृढ़तर बनाना है, हमें यह पुरुषार्थ करना है कि हमारा ज्ञान सम्यक्ज्ञान ही बना रहे, हमारा दर्शन सम्यक्दर्शन ही बना रहे, हमारा चारित्र सम्यक्चारित्र ही बना रहे ताकि हम मोक्षमहल की सीढ़ी चढ़ने में सक्षम हो सवें। सम्यग्दर्शन के बारे में आचार्यों ने कहा है कि—मोक्षमार्ग की परथम सीढ़ी या बिन ज्ञान चरित्ता। आगे का सूत्र बताता है कि ज्ञान मिथ्या क्यों हो जाते हैं—

सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्।।३२।। 

 अर्थ — अपनी इच्छानुसार जैसा-तैसा जानने के कारण सत् और असत् पदार्थों में विशेष ज्ञान न होने से पागल पुरुष के ज्ञान की तरह मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्याज्ञान ही होता है। जैसे हम यह देखते हैं कि यह पुस्तक है, यह सिद्धक्षेत्र है, यह मन्दिर है, यह पार्श्वनाथ भगवान हैं ऐसा का ऐसा ही मिथ्यादृष्टि भी देखता है लेकिन चूँकि अन्दर में उसके मिथ्यात्व कर्म का उदय है इसलिये उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है। जैसे यूँ समझिये कि कोई पागल पुरुष है वह पागल अवस्था में अपनी स्त्री को माता कहने लगता है, माता को स्त्री कहने लगता है लेकिन जब उसका दिमाग सही होता है तो माता को माता, स्त्री को स्त्री, बहन को बहन कितना भी कहता है लेकिन इतना कहने मात्र से ही उसकी पागल संज्ञा खत्म हो जाती है क्या ? नहीं, ना। है तो पागल ही। उसको जो पागलपन की दवाई दी जा रही है वह तो दी ही जाती है, ऐसा ही पागलपन बताया है कि जब इस जीव ने मोह और मिथ्यात्व रूपी मदिरा को पी रखा है, तो यह पागल व्यक्ति सही से सही भी कहेगा तो भी वह पागल के समान मिथ्यादृष्टि ही कहलायेगा। यही बात इसके अन्दर बतलाई है कि चूँकि वस्तुस्वरूप का सच्चा ज्ञान उसको नहीं हो पाता है इसलिये ऊपर से कोई भी भेद न होते हुए भी चूँकि अन्दर से भेद है इसलिये मिथ्याज्ञान और सम्यक्ज्ञान में यह अन्तर होता है। अब इस अध्याय का अन्तिम सूत्र अवतरित करते हुए आचार्यश्री कहते हैं—

नैगमसंग्रह व्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवम्भूता नया:।।३३।। 

 अर्थ — नयो के सात भेद हैं—नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय। प्रमाण के द्वारा प्रकाशित अनेक धर्मात्मक पदार्थ के धर्म विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान नय है। उसके मूल में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो भेद हैं तथा नैगम आदि सात भेद भी हैं।

१. अर्थ के संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नैगमनय है। जैसे—प्रस्थ बनाने के निमित्त जंगल से लकड़ी लेने के लिए जाने वाले फरसाधारी किसी पुरुष से पूछा कि आप कहाँ जा रहे हैं ? तो वह उत्तर देता है कि प्रस्थ के लिए जा रहा हूँ। इस उदाहरण में नैगमनय के अनुसार भविष्य में बनने वाले प्रस्थ का संकल्प निहित है अत: उसे व्यवहार से कह दिया गया है।

२. अपने अविरोधी सामान्य के द्वारा उन—उन पदार्थों का संग्रह करने वाला संग्रह नय है। जैसे—सत् कहने से सत्ता सम्बन्ध के योग्य द्रव्य गुण कर्म आदि सभी शक्तियों का ग्रहण हो जाता है।

३. संग्रह नय के द्वारा संग्रहीत पदार्थों में विधिपूर्वक विभाजन करना व्यवहार नय है। जैसे—सर्व संग्रहनय ने ‘सत्’ ऐसा सामान्य ग्रहण किया था पर इससे तो व्यवहार नहीं चल सकता था अत: भेद किया जाता है कि जो सत् है वह द्रव्य है या गुण ? द्रव्य भी जीव है या अजीव ? जीव और अजीव सामान्य से भी व्यवहार नहीं चलता था अत: उसके भी देव, नारक, मनुष्य आदि और घट—पट आदि भेद लोकव्यवहार के लिए किये जाते हैं।

४. जिस प्रकार सरल सूत डाला जाता है उसी तरह ऋजुसूत्र नय एक समयवर्ती वर्तमान पर्याय को विषय करता है। अतीत और अनागत चूँकि विनष्ट और अनुत्पन्न हैं अत: उनसे व्यवहार नहीं हो सकता। इस ऋजुसूत्र नय का विषय एक क्षणवर्ती वर्तमान पर्याय है।

५. जिस व्यक्ति ने संकेत ग्रहण किया है उसे अर्थबोध कराने वाला शब्दनय होता है।

६. अनेक ग्रंथों को छोड़कर किसी एक अर्थ में मुख्यता से रूढ़ होने का समभिरूढ़ नय कहते हैं। जैसे किसी ने पूछा कि ‘आप कहाँ हैं ? तो समभिरूढ़ नय उत्तर देगा—अपने स्वरूप में।’ क्योंकि अन्य पदार्थ की अन्यत्र वृत्ति नहीं हो सकती अन्यथा ज्ञानादि और रूपादि की भी आकाश में वृत्ति होनी चाहिए।

७. जिस समय जो पर्याय या क्रिया हो उस समय तद्वाची शब्द के प्रयोग को ही एवंभूतनय स्वीकार करता है।

जैसे—गौ जिस समय चलती है उसी समय गौ है, न तो बैठने की अवस्था में और न सोने की अवस्था में। पूर्व और उत्तर अवस्थाओं में वह पर्याय नहीं रहती अत: उस शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है। ये नय उत्तरोत्तर सूक्ष्मविषयक तथा पूर्वहेतुक हैं अत: इनका कथन क्रम के अनुसार किया है। गौण मुख्य विवक्षा से परस्पर सापेक्ष होकर ये नय सम्यग्दर्शन के कारण होते हैं और पुरुषार्थ क्रिया में समर्थ होते हैं। इस प्रकार तत्त्वार्थ सूत्र की प्रथम अध्याय के अन्दर आचार्य श्री उमास्वामी ने रत्नत्रय का सुन्दर वर्णन करते हुए प्रमाण और नयों का वर्णन किया है। उसी का समापन करते हुए मुझे एकमात्र यही बात कहना हैज्ञान के लिये, सच्चा ग्रन्थ चाहिये।


सिद्धि के लिये, सच्चा पंथ चाहिये।।
भटके हैं संसार में, अनादि से हम।


अब तिरने के लिए, सच्चा सन्त चाहिये।।
वही ग्रन्थ, वही पंथ, वही संत आपको प्राप्त हुए हैं, उन सन्तों की वाणी को सुनकर दस धर्मों को अपने जीवन में उतारें तथा इनकी अमृतवाणी सदैव आपको प्राप्त होती रहे जिसके द्वारा आप सब अपने इस अमूल्य मानव जीवन को सार्थक कर सवें यही मंगल भावना है।।

इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे प्रथमोऽध्याय: समाप्त:।।

तत्त्वार्थ सूत्र प्रवचन (द्वितीय अध्याय)


प्रवचन कर्त्री -आर्यिका चंदनामती माताजी

मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्।

ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुण लब्धये।।१||

महानुभावों ! आज दशलक्षण पर्व का दूसरा दिन है, आज हम सब मार्दव धर्म की आराधना करेंगे। मार्दव का अर्थ है नम्रता। जैसे—जैसे हमारे भावों में नम्रता आएगी, विनय गुण प्रगट होगा,  हम अपनी वास्तविक पहचान करने में सक्षम हो सकेंगे। विनय गुण से युक्त होकर जब हम आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित इस मोक्षशास्त्र ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय पर दृष्टिपात करते हैं  तो वास्तव में ज्ञात होता है कि भगवान महावीर ने अनेकान्त की एक माला बनाई और उसका नाम दिया— स्याद्वाद, अनेकांत, सप्तभंगी, पुन: इन नामों से उसे सम्बोधित करके संसार में किसी एक बात को लेकर संघर्ष उत्पन्न न हो ऐसी एकता करने हेतु प्रयत्न किया। जैसे—एक वस्त्र है उसको काटकर कमीज बना ली जाती है तो कहते हैं कमीज है। टोपी, साड़ी, शर्ट, पैजामा आदि अलग—अलग आकार देकर अनेक संज्ञाओं में परिवर्तित कर दिया तो हम उसको उसी—उसी रूप से संज्ञा देने लगते हैं, लेकिन वह वास्तव में क्या है ? कपड़ा है। एक मील से निकलने के बाद कपड़े के टुकड़े—टुकड़े होकर अनेक वस्त्र रूप में, अनेक संज्ञाओं से परिवर्तित हो जाते हैं लेकिन सबके अन्दर एक कपड़ा नाम की चीज तो मौजूद ही रहता है। ऐसे ही संसार की चौरासी लाख योनियों के अन्दर कोई चींटी है, कोई हाथी है, बैल है, मकोड़ा है, मनुष्य है, पक्षी है, नारकी है, देव है, तिर्यंच है लेकिन उन सबके अन्दर एक जीवात्मा आत्मतत्त्व मौजूद है और बाहर के व्यवहार में सबकी स्वतन्त्र सत्ता है। अलग—अलग सत्ता को लिए हुए प्रत्येक जीवात्मा अपनी—अपनी अलग—अलग सत्ता को बताने का अधिकारी होता है लेकिन जीवात्मा में कोई अन्तर नहीं है, जीवात्मा सब एक समान हैं। जो शक्ति महावीर स्वामी में थी वही हममें है, वही शक्ति चींटी में है, वही शक्ति एक पेड़—पौधों के अन्दर है और वही शक्ति एक हाथी के अन्दर है। जरूरत है बस पुरुषार्थ करने की और मानव तन प्राप्त करने की। पुरुषार्थपूर्वक वही जीव भगवान, परमेश्वर इन नामों से पुकारा जाने लगता है उसके अन्दर विशेषता आ जाती है। उसी अनेकान्त का आश्रय ले कर आचार्य उमास्वामी ने उन आचार्यों की परम्परा के अनुसार भगवान महावीर की दिव्यध्वनि का जो पान किया, उसी को भव्यों को सुनाने के लिए, अपने और पर के उपकार के लिये इस ग्रंथ के अन्दर निबद्ध कर दिया और यह बात कही कि हे भव्यात्मन्! अनेकांत की इस माला को यदि आप हृदय में धारण कर लेंगे तो निश्चित रूप से आपका भी कल्याण हो जायेगा।

प्रथमत: इस द्वितीय अध्याय के प्रथम सूत्र में आचार्य उमास्वामी ने कहा—

औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्व मौदयिकपारिणामिकौ च।।१।।

अर्थ — औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये जीव के पाँच स्वतत्त्व हैं। ये भाव जीव द्रव्य को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं पाए जाते हैं इसलिए इन्हें जीव के स्वतत्त्व कहा है।

(१) जैसे—कतक (फिटकरी) आदि द्रव्य के डाल देने से गन्दे जल का कीचड़ नीचे बैठ जाता है, उपशम हो जाता है उसी प्रकार आत्मा में कर्म की निज शक्ति का किसी कारण से प्रगट न होना उपशम है उपशम से होने वाले भाव औपशमिक कहलाते हैं।

(२) जैसे उसी जल को दूसरे साफ बर्तन में बदल लेने पर कीचड़ का अत्यन्त अभाव हो जाता है उसी प्रकार आत्मा से कर्मों का पूर्ण रूप से क्षय होने का नाम ही क्षायिक है।

(३) जिस प्रकार उसी जल में फिटकरी आदि द्रव्य के सम्बन्ध से कुछ कीचड़ बना रहता है उसी प्रकार आत्मा में जब कुछ कर्मों का अभाव हो जाता है और कुछ कर्म विद्यमान रहते हैं उस समय के मिश्रित परिणाम क्षायोपशमिक भाव कहलाते हैं।

(४)  द्रव्यादि चतुष्टय के निमित्त से कर्म का फल प्राप्त होना उदय है, उदय से होने वाले भाव औदयिक होते हैं।

(५)  जिसके होने में द्रव्य का स्वरूप लाभ मात्र कारण है वह परिणाम है, परिणामों से होने वाले भाव पारिणामिक कहलाते हैं। उपर्युक्त पाँच भावों में प्रारम्भ के चार भाव निमित्त की प्रधानता से कहे गये हैं और अन्तिम पारिणामिक भाव योग्यता की प्रधानता से बताया है। संसार में जितने भी कार्य होते हैं उनमें कुछ निमित्त की मुख्यता से होते हैं तथा कुछ व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर। वैसे तो प्रत्येक कार्य अपनी अन्तरंग की योग्यता से ही होता है किन्तु जिसके बिना जो कार्य नहीं होता वह उसका सुनिश्चित निमित्त कहा जाता है। इस शैली से विचार करने पर औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक ये चार नैमित्तिक भाव ठहराते हैं। इन सभी भावों के भेद बतलाते हैं—

द्विनवाष्टादशैकिंवशतित्रिभेदा यथाक्रमम्।।२।।

अर्थ — ऊपर कहे हुए पाँचों भाव क्रम से दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद वाले हैं। अर्थात् औपशमिक भाव के दो भेद, क्षायिक के नौ भेद, क्षायोपशमिक के अठारह भेद, औदयिक के इक्कीस भेद और पारिणामिक के तीन भेद होते हैं। इनके अलग—अलग कितने—कितने भेद और क्या—क्या नाम हैं उसका दिग्दर्शन कराते हैं—

सम्यक्त्वचारित्रे।।३।।

अर्थ — औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दो औपशमिक भाव के भेद हैं। औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र, दोनों ही चीजें आत्मा में होती हैं लेकिन अन्तर यह है कि जब उन सात प्रकृतियों के उपशम से सम्यग्दर्शन हुआ तो वह कहलाया औपशमिक सम्यक्त्व और उन सात प्रकृतियों के उपशम के बाद हमने चारित्र को ग्रहण कर लिया तो वह कहलाता है औपशमिक चारित्र। मोहनीय के दो भेद हैं—दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। सात प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व होता है वह औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है और चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियाँ होती हैं, वे क्रमश: इस प्रकार हैं—अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन।

इनके चार—चार भेद होते हैं—क्रोध, मान, माया व लोभ इस प्रकार यह १२ हुर्इं। अप्रत्याख्यानावरण कषाय छह महीने तक चली जाती है। प्रत्याख्यानावरण कषाय १५ दिन तक रहती है और संज्वलन कषाय का काल अंतर्मुहूर्त होता है।

९ नोकषाय—हास्य, रति, अरति, शोक, भय,जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद। इस प्रकार जब १२ और ९ को जोड़ा तो इक्कीस हो गयीं। इन्हीं इक्कीस प्रकृतियों के उपशम से जो चारित्र प्रगट होता है उसको औपशमिक चारित्र कहते हैं इस प्रकार ये औपशमिक भाव के दो भेद हुए। क्षायिक भाव के नौ भेद बताते हैं—

ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च।।४।।

अर्थ — क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र ये क्षायिक भावों के नौ भेद हैं। घातिया कर्मों के चार भेद हैं—ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय। इनमें से ज्ञानावरण के क्षय से क्षायिकज्ञान, दर्शनावरण के क्षय से क्षायिकदर्शन, मोहनीय के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिकचारित्र तथा अन्तराय कर्म के अभाव से क्षायिकदानादि पांच लब्धियाँ प्रकट होती हैं। जैसे—समस्त दानान्तराय कर्म के क्षय से अनन्त प्राणियों को अभय और अिंहसा का उपदेश रूप अनन्तदान ‘‘क्षायिक दान’’ है। सम्पूर्ण लाभान्तराय कर्म के क्षय हो जाने पर कवलाहार न करने वाले केवली को शरीर की स्थिति में कारणभूत परम शुभ सूक्ष्म दिव्य अनन्त पुद्गलों का प्रतिसमय शरीर में सम्बन्धित होना ‘‘क्षायिक लाभ’’ है अत: ‘‘कवलाहार के बिना कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक औदारिक शरीर की स्थिति कैसे रह सकती है ?’’ यह शंका निराधार हो जाती है। दिगम्बर जैन परम्परा में केवली भगवान को कवलाहारी नहीं माना गया है। सम्पूर्ण भोगान्तराय के नाश से उत्पन्न होने वाला सातिशय भोग ‘‘क्षायिक भोग’’ है। इसी से गन्धोदकवृष्टि, पदकमलरचना, सुगन्धित शीत वायु, सह्यधूप आदि अतिशय होते हैं। समस्त उपभोगान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला सातिशय उपभोग ‘‘क्षायिक उपभोग’’ है। इसी से सिंहासन, छत्र—त्रय, चमर, अशोकवृक्ष, भामण्डल, दिव्यध्वनि, देवदुन्दुभि आदि होते हैं। समस्त वीर्यान्तराय के क्षय से प्रगट होने वाला अनन्तबल ‘‘क्षायिकवीर्य’’ है। सिद्धों में ये सभी लब्धियाँ अव्याबाध अनन्त सुख रूप से रहती हैं जैसे कि केवलज्ञान रूप में अनन्तवीर्य। जिस प्रकार पोरों के पृथव्â निर्देश से अंगुली सामान्य का कथन हो जाता है उसी प्रकार सभी क्षायिक भावों में व्यापक सिद्धत्व का कथन उन विशेष क्षायिक भावों के कथन से हो ही गया है उसके पृथक कथन की आवश्यकता नहीं है। क्षायोपशमिक भाव के १८ भेद बताते हैं—

ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदा: सम्यक्त्वचारित्र—संयमासंयमाश्च।।५।।

अर्थ — चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पाँच लब्धियाँ, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ये १८ क्षायोपशमिक भाव हैं। उदय प्राप्त सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होने पर अनुदय प्राप्त सर्वघाति स्पर्धकों का सद्वस्थारूप उपशम होने पर तथा देशघाति स्पर्धकों के उदय होने पर क्षायोपशमिक भाव होते हैं। मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ये चारों ज्ञान क्षायोपशमिक कहलाते हैं क्योंकि इनके आवरण कर्मों में से कुछ स्पर्धकों का क्षय और कुछ स्पर्धकों का सद्वस्था रूप उपशम होता है तब ये प्रगट होते हैं। मिथ्यात्व कर्म के उदय से मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान ये तीनों मिथ्याज्ञान होते हैं। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीन दर्शन अपने—अपने आवरणों के क्षयोपशम से होते हैं। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये उपलब्धियाँ दानान्तराय आदि के क्षयोपशम से होती हैं। अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण की आठ कषायों का उदयक्षय और सद्वस्था उपशम प्रत्याख्यान का उदय होने पर विरत और अविरत परिणाम उत्पन्न कराने वाला संयमासंयम नामक क्षायोपशमिक भाव होता है। इसे वेदक सम्यक्त्व भी कहा है और अनंतानुबंधी आदि १२ कषायों का उदयाभावी क्षय तथा उन्हीं के निषेकों का सदवस्थारूप उपशम और संज्वलन तथा नोकषाय का यथासम्भव उदय होने पर जो चारित्र होता है उसे क्षायोपशमिक चारित्र कहते हैं। इसी का दूसरा नाम सरागसंयम है। अनन्तानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण इन ८ प्रकार की प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय और उन्हीं के निषेकों का सदवस्थारूप उपशम तथा प्रत्याख्यानावरण आदि १७ प्रकृतियों का यथासम्भव उदय होने पर आत्मा की जो विरताविरत अवस्था है वह संयामासंयम कहलाती है। ऐसे ही औदयिक भाव के २१ भेद हैं—

गतिकषायिंलगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतु—चतुश्त्र्यैकैकैकषड्भेदा:।।६।।

अर्थ — चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व और छह लेश्याएँ ये इक्कीस औदयिक भाव हैं। जिस कर्म के उदय से आत्मा नारक आदि भावों को प्राप्त हो वह गति है। गति के चार भेद हैं—नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव। कषाय नामक चारित्रमोह के उदय से होने वाली क्रोधादिरूप कलुषता कषाय कहलाती है। आत्मा के स्वाभाविक रूप को कसने से—हिंसा करने से इसका ‘कषाय’ यह नाम सार्थक है। क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से कषाय के चार भेद हैं । द्रव्य और भाव के भेद से लिंग दो प्रकार का है। यहाँ पर नामकर्म के उदय से होने वाले द्रव्यलिंग का कथन नहीं है, आत्मा के स्वतत्त्व का प्रकरण होने से भाविंलग का ग्रहण किया गया है। स्त्री, पुरुष और नपुंसक आदि वेदों के उदय से उस—उस जन्य अभिलाषा का उत्पन्न होना वेद कहलाता है । दर्शन मोह के उदय से तत्त्वार्थ में अरुचि या अश्रद्धान मिथ्यात्व कहलाता है। जैसे प्रकाशमान सूर्य का तेज सघन बादलों के द्वारा तिरोहित हो जाता है वैसे ही ज्ञानावरण कर्म के उदय से ज्ञानस्वरूप आत्मा के ज्ञानगुण का ढक जाना अज्ञान है। अज्ञान के तीन भेद हैं—कुमति, कुश्रुत और कुअवधिज्ञान। चारित्र मोह के उदय से होने वाली हिंसादि और इन्द्रियविषयों में प्रवृत्ति का नाम असंयम है । अनादि कर्मबद्ध आत्मा के सामान्यत: सभी कर्मों के उदय से असिद्ध पर्याय होती है। केवली भगवान के भी चार अघातिया कर्म शेष होने से असिद्धपना रहता है। कषाय के उदय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है। लेश्या के छह भेद हैं—कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ।

यह तो मैंने आपको शास्त्रानुसार औदयिक भाव के भेद बताए हैं अब मैं आपको और सरल रूप में उदाहरणों के माध्यम से बताती हूँ। चार गतियों के बारें में आपने जान ही लिया और इन्हीं चारों गतियों में हम परिभ्रमण कर रहे हैं। विषापहार स्तोत्र में श्री धन्नजय कवि ने एक स्थान पर कहा कि भगवन्! आज अपनी भुजाओं को लटकाकर, नासाग्र दृष्टि करके ऐसा न सोचें कि मैं बहुत बड़ा हो गया हूँ। आप बड़े किस प्रकार हुए ? आपने तो केवल एक सिद्धगति देखी है किन्तु मैंने तो ‘‘चतुर्गतीनां गहनं परेण’’ चारों गतियों का गहन मार्ग देख रखा है। अब आप ही बताइए कि बड़े आप हुए या हम ? यथार्थ में ऐसा है नहीं किन्तु भक्त निन्दास्तुति अलंकार का प्रयोग करते हुए भगवान से ऐसा कह रहा है। अलंकार के अनेक भेद हैं जैसे—श्लेष, यमक, रूपक, विरोधाभास, निन्दास्तुति अलंकार आदि। भक्त भगवान की स्तुति करते हुए प्राय: अनेकों अलंकारों का प्रयोग करता है। इसी अलंकार का ही प्रयोग करते हुए कवि ने यह बता कही लेकिन वास्तविकता यह है कि चार गतियाँ ही हमें संसार के चक्कर लगवा रही हैं, पंचमगति—सिद्धगति को तो हम मात्र शास्त्रों में पढ़ते हैं किन्तु उसका अनुमान नहीं लगा सकते हैं।

इसी प्रकार कषाय के बारे में आपने जाना, सरल रूप में जो आत्मा को कषे वह कषाय है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसंक वेद ये तीन लिंग हुए , एक मिथ्यादर्शन, एक असंयम और असिद्धत्व की परिभाषा भी आपने जानी, आगे लेश्याओं का वर्णन है। इन छ: लेश्याओं में प्रारम्भ की तीन लेश्या अशुभ और आगे की तीन शुभ लेश्या हैं। हमारे परिणामों को परिर्वितत कराने वाली लेश्याएँ ही हैं जो द्रव्य और भाव दोनों रूप होती हैं। शारीरिक स्थिति, रंग—रूप को बताने वाली द्रव्य लेश्या है और परिणामों की गति एवं विचित्रता को बताने वाली भाव लेश्या है। ये २१ प्रकार के औदयिक भाव कर्मोदय से ही होते हैं अर्थात् हमने मनुष्य गति पाई तो कैसे ? मनुष्य नाम कर्म के उदय से। ऐसे ही कषाय, लिंग आदि में समझना चाहिए । इन लेश्याओं द्वारा ही हमारा आभामण्डल बनता है । यह अंतरंग में भले ही परिणति करे किन्तु उसके भाव बाहर भी आते हैं जिसे आज के विज्ञान ने विचार तरंगों और सूक्ष्मदर्शी कैमरे के आधार पर सिद्ध किया है। उन्होंने जीव के आभामण्डल को खींचने का प्रयत्न किया है। एक बार एक अमेरिकन लेडी डॉक्टर ने सूक्ष्मदर्शी कैमरे के आधार पर जब व्यक्तियों के आभामण्डल को खींचना प्रारम्भ किया तो एक रिपोर्ट में उसने बताया कि जो व्यक्ति ऊपर से तो साफ सुधरे रहते हैं लेकिन अन्दर से उनमें मलिनता, क्रोध, ईर्ष्या, झगडालू प्रवृत्ति रहती है उनका आभामण्डल बहुत ही गन्दा और विकृत आया है और एक सच्चे मुनि का आभामण्डल खींचा गया जो शरीर से तो मलिन थे किन्तु उनका मन बिल्कुल निर्मल था, उनका आभामण्डल एकदम स्वच्छ, निर्मल और स्पष्ट आया। शायद इसीलिए कहा गया है कि ‘‘वक्त्रं वक्ति हि मानसं’’ अर्थात् मन के अन्दर जो प्रक्रिया है कभी—कभी चेहरा उसे बता देता है । मन के अन्दर दुध्र्यान, गलत भावना आदि हैं तो परिणाम या आकृति सौम्य नहीं हो सकती है। ‘भा’ ‘प्रभा’ कान्ति को दर्शाने वाला प्रभामण्डल कहलाता है। तीर्थंकर भगवान के चारों ओर प्रभामण्डल बन जाता है।

उनमें और साधारण मानव में क्या अन्तर है ? उनकी कान्ति के जो परमाणु सर्वत्र बिखरते हैं उस परमाणु के आधार पर चारों ओर उनकी शान्तता, क्षमा, धैर्य, तपस्या आदि के दिग्दर्शन हेतु वह प्रभामण्डल प्रतीक रूप होता है। आप देखें कि जहाँ कोई क्रोधी व्यक्ति बैठा है वहां जाकर आप कभी शान्ति की अनुभूति करना चाहें तो वह आपको नहीं मिल सकती अपितु वहाँ जरूर एक प्रकार की घुटन सी महसूस होगी और ऐसा लगेगा कि कैसे मैं यहां से दूर चला जाऊँ। कभी आप उस स्थान पर जाएं जहां कोई साधु—सन्त तपस्या कर रहे हों, अगर आप जल्दी में भी हैं तो कुछ देर वहाँ बैठने की इच्छा होती है क्योंकि उनका आभामण्डल चारों ओर उनकी तपस्या की किरणों को बिखेर रहा है। यही कारण है कि जहाँ पर तीर्थंकर भगवान तप करते हैं वहाँ असमय में भी फल—पूâल खिल जाते हैं, जंगल हरा—भरा हो जाता है उस शान्त वातावरण में ऐसी शक्ति है तथा जो क्रोधी व्यक्ति है उसके पास जाकर व्यक्ति भी अशान्त हो जाता है, उससे अन्दर क्रोध के परमाणु प्रवेश कर जाते हैं। एक उदाहरण के माध्यम से आपको यह बताती हूँ—एक वैज्ञानिक ने क्रोध का परीक्षण एक चूहे पर किया कि क्रोधी व्यक्ति का खून किस प्रकार विषाक्त हो जाता है। उसने जब एक व्यक्ति का खून अपनी सिरिंज में उस समय लिया जब वह अत्यन्त क्रोध की अवस्था में था । उस खून को उसने एक शान्त चूहे के भीतर ‘इन्जेक्ट’ कर दिया। उसको इन्जेक्ट करके चूहे को एक कमरे के अन्दर रखकर जब वह उसकी स्थिति को देखता है तो उस क्रोधी व्यक्ति के खून के शरीर में जाते ही चूहा थोड़ी देर में छटपटाने लगा और उसके बाद वह काटने के लिये इधर-उधर दौड़ता रहा लेकिन कमरा तो खाली था। इतना करते-करते उसकी अनेक प्रकार की परिणति आधे घण्टे के अन्दर हुई और पौन घण्टे के अन्दर-अन्दर उसने सिर पटक-पटक कर अपनी जान दे दी। तब उस वैज्ञानिक ने अपनी रिपोर्ट दी कि जब एक क्रोधी व्यक्ति का खून दूसरे जीव को इतना विषाक्त कर सकता है, उस खून ने शान्त परमाणुओं में घुलकर उसको इतना विषाक्त कर दिया कि थोड़ी देर में वह अपने प्राण तजने के लिए मजबूर हो गया तो हम इस बात को जान सकते हैं कि हमारे रक्त के अन्दर जो परमाणु घुले जा रहे हैं, जैसे—क्रोध के परमाणु, मान के परमाणु, माया के परमाणु, लोभ के परमाणु। उन परमाणुओं के द्वारा हमारा मन शुद्ध नहीं हो सकता और जब मन शुद्ध नहीं है तो भगवान की वाणी, जिनेन्द्रदेव की वाणी, आचार्यों की वाणी हम भला कैसे अपने मस्तिष्क में रख सकते हैं, और रख भले ही लें लेकिन थोड़ी देर के बाद वह हमेें कूड़े-कचरे के समान प्रतीत होने लगेगी और हम उसको अपने से अलग करने लगेंगे। उस अमेरिकन डॉक्टर ने भी आभामण्डल के फोटो निकाले तो वह कहने लगी कि जैसा आज का मानव साफ-सुधरे कपड़ों को पहनकर अपने शरीर की ओर ध्यान देता है उतना ध्यान अगर वह अपने मन की ओर देने लगे तो आज हम बहुत सफल हो जाएं और हमारे इस कैमरे के द्वारा जो बहुत सारे सूक्ष्मदर्शी परमाणु आपके शरीर से निकालकर हम वैमरे के अन्दर बन्द कर सकते हैं, आपके आभामण्डल को बना सकते हैं उसमें हमको बहुत सफलता मिल सकती है।

बन्धुओं! बहुत सारी चीजें हैं जैसे कि हमारा आचरण हमारा पसीना भी बता सकता है। पसीने का परीक्षण करते हैं। जिस व्यक्ति के पसीने में बहुत ज्यादा दुर्गंध आती है तो समझिये कि वह बहुत बड़ा झगड़ालू व ईष्र्यालु होगा। किसी की बड़ाई, किसी का बड़प्पन, किसी का ज्ञान सहन नहीं कर पाता होगा या फिर उसके अन्दर क्रोध, मान, माया, लोभ के बहुत ज्यादा परमाणु घुले हुये हैं और जो शान्त रहते हैं उनके पसीने में एक अजीब सी सुगन्ध आती है। जैन मान्यता है कि तीर्थंकर के शरीर से ऐसी सुगन्धि आती है कि लोगों को ऐसा लगता है कि वहीं बैठे रहें। उस सुगन्धि के अन्दर हम आनन्द की प्राप्ति करते हैं, विशेष अनुभूति करते हैं। जब माताजी के कमरे के अन्दर कोई प्रवेश करता है तो मैंने कितने बार सुना है कि लोग कहते हैं वहाँ अजीब-सी सुगन्धि आती है। मेरठ के एक सज्जन आये और वह कहने लगे कि मैं इस कमरे के अन्दर घुसा तो मुझे अजीब-सी सुगंध आ रही थी, आपको क्यों नहीं आती ? जब उन्होंने दोबारा कहा तो हमने कहा कि हम तो उसी में रोज रहते हैं हमको क्या पता लगे। वह बोले—ऐसी गन्ध, ऐसी सुगन्ध हमने आज तक नहीं अनुभव की थी। वास्तव में महापुरुषों की तपस्या के द्वारा उनके शरीर से जो गन्ध निकलती है, वह बहुत ही अलग, बहुत ही सुगन्धित लगती है। इन्दौर की घटना है। एक बार एक डॉक्टर आया और माताजी की नाड़ी देखने लगा। थोड़ी सी अस्वस्थ थीं, जब उसको हमने बताया कि जैन साधु स्नान नहीं करते, जैन साधु साबुन आदि चीजों का कभी प्रयोग नहीं करते हैं बस ऐसे ही हाथ-पैर धोते हैं और ज्यादा से ज्यादा मिट्टी का उपयोग करते हैं तथा उसी में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। तब उस डॉक्टर ने कहा—इतना साफ शरीर है, इतना कोमल शरीर है, ऐसा कैसे सम्भव है ? हमने कहा—यह तो तपस्या का प्रभाव होता है। अरे! चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज के पैर के धुले हुए कीचड़ की जब एक व्यक्ति ने अपने शरीर पर मालिश कर ली तो उसका कुष्ट रोग दूर हो गया। माताजी बताती हैं कि यह मेरे सामने की घटना है। उस व्यक्ति ने माताजी को बताया कि मैंने आचार्य शान्तिसागर जी महाराज के चरण की कीचड़ को, चरण में धुले जल को अपने शरीर पर लगाया तो मेरा कुष्ट रोग दूर हो गया, यह तपस्या का प्रभाव होता है, जो कि लेश्या का परिणाम है। पारिणामिक भाव के भेद बताए हैं—

जीवभव्याभव्यत्वानि च।।७।।

अर्थ — जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भाव हैं। जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व—ये तीन चीजें हैं जिनको कोई बदल नहीं सकता। जीव को कोई अजीव नहीं बना सकता, भव्य को कोई अभव्य नहीं बना सकता और अभव्य को कोई भव्य नहीं बना सकता। सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि बन सकता है, मिथ्यादृष्टि सम्यग्दृष्टि बन सकता है लेकिन यह भव्यत्व और अभव्यत्व नाम का जो पारिणामिक गुण है यह स्वभावत: होता है इसको कभी भी कोई परिवर्तित नहीं कर सकता है। ‘‘भवितुं योग्य: भव्य: न भवितुं योग्य: अभव्य:’’ जो सिद्ध बनने के योग्य है, जो मोक्ष जाने के योग्य है वह कहलाता है भव्य और जिसमें मोक्ष जाने की कभी भी पात्रता नहीं आती है वह कहलाता है अभव्य। अभव्य की संख्या भी अनन्त है, भव्य भी अनन्त हैं, यह संख्या आपको सिद्धान्तग्रन्थों से जानना है लेकिन यहाँ पर पारिणामिक भावों की चर्चा चल रही है कि अभव्य को भव्य नहीं बनाया जा सकता और भव्य को अभव्य नहीं बनाया जा सकता। जीव को पुद्गल नहीं बनाया जा सकता, पुद्गल को जीव नहीं बनाया जा सकता। इस प्रकार इन पाँचों भावों का विस्तार से वर्णन और उनके नाम आदि इसमें बताये हैं। आगे के सूत्र में जीव का लक्षण बताते हुए कहते हैं—

उपयोगो लक्षणम्।।८।।

अर्थ — जीव का लक्षण है—उपयोग। उपयोग—समीप में है योग जिनके अर्थात् ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगमय आत्मा जीव कहलाती है। कभी भी सोते में, मूर्छित अवस्था में, विग्रहगति आदि किसी भी अवस्था में उपयोग से रहित जीव नहीं होता। जीव के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में उपयोग नहीं पाया जाता है। उपयोग को ज्ञान, दर्शन भी कहते हैं। जैसे—सोने, चांदी का एक पिण्ड होने पर भी उसमें सोना अपने पीलेपन आदि लक्षण के द्वारा और चांदी अपने शुक्ल आदि लक्षण द्वारा भिन्न-भिन्न जाने जा सकते हैं। इसी प्रकार जीव शरीर के एक क्षेत्र में होने पर भी अपने-अपने लक्षणों द्वारा भिन्न-भिन्न जाने जा सकते हैं। उपयोग के भेद बताते हैं—

स द्विविधोऽष्टचतुर्भेद:।।९।।

अर्थ — आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन इस प्रकार उपयोग दो प्रकार का है। उस उपयोग के दो भेद भी होते हैं, आठ भेद और चार भेद भी होते हैं। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेद से इस उपयोग के दो भेद किये और उसके बाद में जो आठ और चार भेद बताये हैं वे ज्ञानोपयोग के आठ भेद और दर्शनोपयोग के चार भेद हैं। ज्ञानोपयोग के आठ भेद कौन-कौन से हैं ? मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान, कुमति, कुश्रुत और कुअवधि। यह जो आठ ज्ञान हैं इन आठ ज्ञानमय उपयोग है जिनका वह ज्ञानोपयोग है तथा चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन यह चार दर्शनोपयोग हैं। आपको केवल सुनना ही नहीं है थोड़ा-थोड़ा हृदय के अन्दर उतारना है क्योंकि आपकी आत्मा भी ज्ञान और दर्शन उपयोग से सहित है। अन्तर सिर्फ इतना है कि हमारे अन्दर केवल मति और श्रुत दो ज्ञान हैं, चक्षु और अचक्षु दो दर्शन हैं और जिनके अवधिज्ञान होता है उनके अवधिदर्शन भी हो जाता है तथा केवलज्ञानी के केवलज्ञान, केवलदर्शन एक साथ हुआ करता है। साकार और अनाकार के भेद से ही उपयोग दो प्रकार का होता है। ज्ञान साकार उपयोग है और दर्शन निराकार—अनाकार होता है। केवली भगवान के ये दोनों उपयोग युगपत—एक साथ होते हैं और शेष संसारी जीवों के क्रमश: होते हैं। जीव के भेद बताते हैं—

संसारिणो मुक्ताश्च।।१०।।

अर्थ — संसारी और मुक्त के भेद से जीव दो प्रकार के होते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव और भव इस पंच—परिवर्तन रूप संसार में जो संसरण—भ्रमण करते हैं वे संसारी जीव कहलाते हैं, जो इस परिवर्तनशील संसार बन्धन से छूटकर सिद्धशिला पर विराजमान हो जाते हैं वे मुक्त जीव कहलाते हैं। मोक्षपद की प्राप्ति संसारपूर्वक ही होती है अत: सूत्र में संसारी शब्द का ग्रहण प्रथमत: किया है। आप मुक्त हैं कि संसारी ? हम और आप सबके सब संसारी हैं। अब मैं दूसरा प्रश्न आपसे पूछती हूँ कि जब केवलज्ञानी अर्हंत भगवान जिनेन्द्र होते हैं तो वे संसारी हैं कि मुक्त हैं ? वे ईषत् मुक्त हैं, उन्हें जीवनमुक्त तथा ईषत् संसारी भी कहते हैं अर्थात् उन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया इसलिये तो मुक्त हो गये और अभी चार अघातिया कर्म उनके शेष हैं इस अपेक्षा से वे संसारी हैं यह बात विशेष रूप से ध्यान रखना है, वस्तुत: कर्म सहित जीवों को संसारी और कर्मरहित जीवों को मुक्त कहते हैं। संसारी जीवों के भेद बताए हैं—

समनस्काऽमनस्का:।।११।।

अर्थ — समनस्क—संज्ञी और अमनस्क—असंज्ञी ये दो प्रकार के संसारी जीव होते हैं। मनसहित जीव समनस्क कहलाते हैं और मनरहित जीव अमनस्क कहलाते हैं। एक इन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय जीवों में किसी के भी मन नहीं होता। ये नियम से असंज्ञी ही होते हैं। शेष तीन गतियों—देवगति, मनुष्यगति और नरकगति के जीव नियम से संज्ञी होते हैं। चींटी मीठे की ओर दौड़ती है, आपके मन के अन्दर शंका होगी कि इसके मन नहीं है तो मीठे की ओर ही क्यों दौड़ती है ? यह घ्राण इन्द्रिय का विषय है, उसके घ्राण इन्द्रिय इतनी तीक्ष्ण होती है कि वह मीठे की ओर दौड़ती है लेकिन उसके मन नहीं होता। भौंरा पुष्प पराग की ओर दौड़ता है लेकिन उसके मन नहीं होता। वह अपनी चक्षु इन्द्रिय के कारण उसका लोलुपी होकर दौड़ता है। जिनके मन होता है उन पंचेन्द्रिय जीवों के संज्ञी और असंज्ञी ऐसे दो भेद हैं। कोई-कोई पानी में रहने वाले सर्प असंज्ञी होते हैं बाकी सब संज्ञी होते हैं। ऐसे ही कोई—कोई तोते संज्ञी भी होते हैं, कोई तोते असंज्ञी भी होते हैं। आप तोते को सिखाइये—बोलो राम-राम, वह राम-राम बोलने लगता है, आप ‘ॐ नम:’ बुलवाओ, वह ‘ॐ नम:’ बोलने लगता है। ऐसे ही पशु-पक्षियों के भी मन हुआ करता है, हाथी ने भी अणुव्रत धारण किये थे, शेर ने भी व्रतों को धारण किया और अपने जीवन का उत्थान किया था, ऐसे अनेक उदाहरण हमारे शास्त्रों में आते हैं। लेकिन समनस्क व अमनस्क नाम के ये दो भेद संसारियों में ही होते हैं। संसारी जीवों के अन्य प्रकार से भेद बताते हैं—

संसारिणस्त्रसस्थावरा:।।१२।।

अर्थ — त्रस और स्थावर के भेद से भी संसारी जीवों में दो भेद हैं। जिनके एक इन्द्रिय होती है वह कहलाते हैं स्थावर जीव और दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों को त्रस कहते हैं। स्थावर जीवों के भेद बताए हैं—

पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्थावरा:।।१३।।

अर्थ — पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच स्थावर है। पृथ्वीकाय आदि स्थावर नामकर्म के उदय से जीवों की पृथ्वी आदि संज्ञाएं होती हैं। आर्ष ग्रंथों में पृथ्वी आदि के चार भेद हैं। जैसे—पृथ्वी, पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक और पृथ्वी जीव। जल, जलकाय, जलकायिक, जलजीव। अग्नि, अग्निकाय, अग्निकायिक, अग्नि जीव। वायु, वायुकाय, वायुकायिक, वायुजीव। वनस्पति, वनस्पतिकाय, वनस्पतिकायिक, वनस्पति जीव। इनमें से पृथ्वीकाय के चारों भेदों का संक्षिप्त लक्षण निम्न प्रकार है—

१. पृथ्वी स्वाभाविक पुद्गल परिणमनरूप, कठिनता आदि गुणों वाली और अचेतन है फिर भी पृथन क्रिया के कारण इसका नाम पृथ्वी है।

२. पृथ्वीकायिक जीव के द्वारा छोड़ा गया पृथ्वी शरीर पृथ्वी अर्थात् मुर्दा शरीर की तरह अचेतन पृथ्वीकाय है।

३. पृथ्वीकाय नामकर्म का उदय जिस जीव को है और जो जीव पृथ्वी को शरीर रूप से स्वीकार किए हुए है वह पृथ्वीकायिक है।

४. जिसके पृथ्वीकाय नामकर्म का उदय तो हो गया है पर अभी तक जिसने पृथ्वी—शरीर को धारण नहीं किया वह विग्रहगति प्राप्त जीव पृथ्वी जीव है। इसी तरह जल, अग्नि, वायु, और वनस्पति के चारों भेदों को भी समझ लेना चाहिए। यहाँ यह बात ध्यान रखना है कि पेड़ से टूटने के बाद वनस्पति अचेतन बन जाती है, वनस्पतिकायिक नहीं कहलाती है। खान से निकलने के बाद सोना पृथ्वीकायिक नहीं कहलाता, अचेतन हो जाता है, ऐसे ही सबमें समझना चाहिये। इन स्थावर जीवों के ४ प्राण होते हैं—स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास। त्रस जीव के भेद बताए हैं—

द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:।।१४।।

अर्थ — दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पांच इन्द्रिय वाले जीव त्रस हैं। द्वीन्द्रिय जीव के स्पर्शन, रसना ये दो इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और स्वासोच्छ्वास ये छह प्राण होते हैं। त्रीन्द्रिय जीव के घ्राणेन्द्रिय के साथ सात प्राण, पंचेन्द्रिय असंज्ञी तिर्यंचों के श्रोतृ इन्द्रिय के साथ नौ प्राण और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य, देव और नारकियों के मनोबल के साथ दस प्राण होते हैं। त्रस नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई जीव की अवस्था विशेष को त्रस कहते हैं। अब आचार्यश्री इन्द्रियों के भेद के बारे में बताते हैं—

पंचेन्द्रियाणि।।१५।।

अर्थ — इन्द्रियाँ पाँच होती हैं। अन्य कोई लोग छह और ग्यारह इन्द्रियाँ भी मानते हैं किन्तु जैन सिद्धान्त में इन्द्रियाँ पाँच ही मानी गई हैं। जिससे जीव की पहचान हो उसे इन्द्रिय कहते हैं। मालूम है आप सबको इन्द्रियाँ ? आज यही हालत हो रही है कि जब हम गति पूछते हैं, इन्द्रिय पूछते हैं, काय पूछते हैं, भगवान के नाम पूछते हैं तो नहीं मालूम। ऐसे ही जब हमने शिविर लगाए, तो वहाँ पूछने पर भगवान के २४ नाम बताने वाले कुल दो लोग मिले और इन्द्रियों के नाम बताने वाले एक भी नहीं। जब हमने पूछा कि आपके कितनी इन्द्रियाँ हैं तो बेचारे काँपने लग गये। फिर हमने एक छोटे-से बच्चे को उठाकर पूछा कि आप कहाँ रहते हैं तो उस ढाई साल के बच्चे ने अपना पूरा पता बता दिया कि किस गाँव में रहता हूँ, किस कॉलोनी में रहता हूँ, किस गली में रहता हूँ, मेरे मम्मी-पापा का क्या नाम है ? अर्थात् उसे यह सब मालूम है। मैंने पूछा—क्यों, ये सारी बातें कैसे मालूम हैं ? बच्चा बोला—माताजी! इसीलिये, क्योंकि हमको बताया जाता है कि यदि कहीं हम भटक जाएं तो इस पते को बताकर अपने घर तक वापस जा सवेंâ। आपका बच्चा गुम जाए और आपके घर तक वापस आ सके इसलिये आप बच्चे को इतना सब रटाकर रखते हैं लेकिन संसार के पंच परावर्तन में जो हम और आप सब गुम रहे हैं। क्या हम आवश्यकता नहीं समझते कि आरम्भ से ही बच्चों को गतियों के बारे में बताया जाए, इन्द्रियों के बारे में बताया जाए, उन महापुरुषों के बारे में बताया जाए, पंच परमेष्ठियों के बारे में बताया जाए ? यह आवश्यकता है और इसकी जिम्मेदारी आप लोगों के ऊपर रहती है। इसके लिए पहले आपको स्वयं जानना होगा उसके बाद आपको आगे आने वाली पीढ़ी को भी बताना होगा। इन्द्रियों के मूल भेद कितने हैं, इस बात को बताने के लिए आचार्यश्री ने सूत्र का अवतरण किया है—

द्विविधानि।।१६।।

अर्थ — ये पाँचों इन्द्रियाँ दो-दो प्रकार की हैं। इन्द्रियों के मूल भेद दो हैं—द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। अन्दर की अर्थात् आत्मा की क्षयोपशमरूप शक्ति तो भावेन्द्रिय कहलाती है ऊपर से जो इन्द्रियाँ दिखती हैं वे द्रव्येन्द्रिय कहलाती हैं। द्रव्य इन्द्रिय का स्वरूप क्या है ? सो ही बताते हैं—

निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्।।१७।।

अर्थ — निर्वृत्ति और उपकरण को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। नामकर्म के उदय से होने वाली रचना विशेष को निर्वृत्ति कहते हैं। निर्वृत्ति के दो भेद हैं—आभ्यन्तर निर्वृत्ति और बाह्य निर्वृत्ति। प्रतिनियत स्थान में होने वाली इन्द्रिय रूप पुद्गल के परमाणुओं की रचना होना—आकार होना बाह्य निर्वृत्ति है और उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण आत्मा के प्रदेशों का चक्षु आदि इन्द्रियाकार होना आभ्यन्तर निर्वृत्ति है। जैसे—कर्णेन्द्रिय के आत्मप्रदेश जौ की नाली के समान और नेत्रेन्द्रिय के आत्मप्रदेश मसूर के आकार के होते हैं और पुद्गल समूह भी उसी नेत्रादि इन्द्रियों के आकार के होते हैं। निर्वृत्ति में सहायक को उपकरण कहते हैं जैसे कि नेत्रों के अन्दर जो काला मण्डल है वह कहलाता है आभ्यंतर उपकरण और आपकी जो पलक हैं, भौंहें हैं, यह बाह्य उपकरण कहलाती हैं। एक सन्त से एक व्यक्ति ने पूछा कि हम मन पर संयम कैसे करें ? उस सन्त ने उसी से पूछा कि मैं आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ कि आप आँख से देखते हैं क्या ? बोले—हाँ। कान से सुनते हैं ? बोले—हाँ। जीभ से चखते हैं ? बोले—हाँ। मैं इसको नहीं मानता, यह तो आपकी खिड़की है। आप अपने मकान की खिड़की लगाते हैं, जब जरूरत हुई बन्द कर लेते हैं, जब जरूरत हुई खोल लेते हैं ऐसे ही यह खिड़की है। आप आँख से नहीं देखते हैं, आप मन से देखते हैं। आप कान से नहीं सुनते हैं, आप मन से सुनते हैं। आप जीभ से नहीं चखते हैं, आप मन से चखते हैं। पं. टोडरमल जी जितने दिन तक लिखते रहे, ग्रन्थ की रचना करते रहे, स्वाद ही नहीं आया कि बिना नमक का भोजन मिल रहा है। छह महीने के बाद जब ग्रन्थ पूरा हो गया, माँ ने जब भोजन दिया, बोले—माँ, आज आप नमक डालना भूल गयीं क्या ? माँ बोलीं—बेटा! मैं तो तुझे छह महीने से बिना नमक का भोजन दे रही हूँ। इसका मतलब क्या कि उपयोग नहीं था, मन नहीं था और यह जो बाह्य इन्द्रियाँ हैं, उपकरण हैं, वह हमारी खिड़की है। कान जो दिखता है वह कान नहीं है अगर कान के अन्दर के आवरण का क्षयोपशम नहीं हो तो आप सुन नहीं सकते हैं, जो जन्म से अन्धे-बहरे होते हैं उनके भी तो आँख-कान का निशान होता है परन्तु दिखाई या सुनाई नहीं देता है। यह खिड़की तो बनी हुई है लेकिन आभ्यन्तर कर्म के आवरण का क्षयोपशम उनके नहीं हुआ इसलिये कितना भी उपचार करने पर वह सुन नहीं पाते, बोल नहीं पाते, देख नहीं पाते, ऐसा क्षयोपशम होता है। भाव इन्द्रिय का स्वरूप बताया है—

लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्।।१८।।

अर्थ — भावेन्द्रिय के दो भेद हैं—लब्धि और उपयोग। जिस ज्ञानावरण क्षयोपशम के रहने पर आत्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना के लिए व्यापार करता है उसे लब्धि कहते हैं। लब्धि के अनुसार होने वाला आत्मा का ज्ञानादि व्यापार उपयोग है। लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। आप कहते हैं हमारे उपयोग नहीं है। आपके सामने से कोई निकल जाए आप थोड़ी देर के बाद कहेंगे मैंने तो देखा ही नहीं। कारण क्या था ? निकलने वाला बार-बार कहता है मैं तो आपके सामने से निकलकर गया हूँ लेकिन आपका उपयोग नहीं था। लब्धि के निमित्त से आत्मा में जो परिणमन होता है, उसी को उपयोग कहते हैं। जब ज्ञानावरण कर्म का क्षायोपशमक विशेष होता है अर्थात् ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हुआ, हमको ज्ञान की प्राप्ति हो गयी उसको कहते हैं लब्धि और उस लब्धि के निमित्त से जो आत्मा का परिणाम हुआ, हमने एक-दूसरे को जाना, शास्त्र में हमने पढ़ा फिर उसके निमित्त से हमने जाना उसी को कहते हैं उपयोग। अब पाँच इन्द्रियों के नाम और परिभाषा बताते हैं— ठण्डा, गरम, रूखा, चिकना आदि छूकर जानना स्पर्शन इन्द्रिय का कार्य है, वस्तु के स्वाद को जानना जिह्वा (रसना) इन्द्रिय का कार्य है, दुर्गन्ध और सुगन्ध को सूंघकर जानना घ्राण इन्द्रिय का कार्य है, संसार की वस्तुओं को देखने का कार्य चक्षु इन्द्रिय करती है और शब्दों को सुनना श्रोत्र इन्द्रिय का कार्य है। मन का विषय बताते हैं—

स्पर्शनरसनाघ्राणचक्षु:श्रोत्राणि।।१९।।

अर्थ — स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। ये इन्द्रियाँ जीवों के क्रमश: होती हैं। इनमें श्रोत्रेन्द्रिय का आकार जौ के बीच की नाली के समान है, नेत्र का आकार मसूर जैसा है, नाक का आकार तिल के फूल जैसा है, रसना का आकार चन्द्रमा जैसा है और स्पर्शनेन्द्रिय का आकार शरीराकार है क्योंकि यह सारे शरीर में होती है। इन्द्रियों के विषय क्या हैं ? इस बात को बताते हैं—

स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्धा:।।२०।।

अर्थ — स्पर्श, रस, गन्ध वर्ण और शब्द ये पाँच क्रम से ऊपर कही हुई पंचेन्द्रियों के विषय हैं ठण्डा, गरम, रूखा, चिकना आदि छूकर जानना स्पर्शन इन्द्रिय का कार्य है, वस्तु के स्वाद को जानना जिह्वा (रसना) इन्द्रिय का कार्य है, दुर्गन्ध और सुगन्ध को सूघंकर जानना घ्राण इन्द्रिय का कार्य है, संसार की वस्तुओं को देखने का कार्य चक्षु इन्द्रिय करती है और शब्दों को सुनना श्रोत्र इन्द्रिय का कार्य है। मन का विषय बताते हैं—

श्रुतमनिन्द्रियस्य।।२१।।

अर्थ — मन का विषय श्रुतज्ञान के विषयभूत पदार्थ है। श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर आत्मा की श्रुतज्ञान के विषयभूत पदार्थ में मन के निमित्त से प्रवृत्ति होती है अथवा श्रुतज्ञान मन से उत्पन्न होता है। ये पदार्थ इन्द्रिय व्यापार से परे हैं। मतिज्ञान के पश्चात् जो विचार केवल मन से उत्पन्न होता है वह श्रुत है। सरल रूप में आप यह जानें कि मन इन सब चीजों को जानता है उसी के अन्दर यह शक्ति है कि वह हेय-उपादेय का निर्णय कर सके। इसीलिये कहा जाता है कि जब आपको बड़े पुण्ययोग से मन मिला है तो आप उसका सदुपयोग करें, आप मन के वश में नहीं हों प्रत्युत् मन को आप अपने वश में करने की कोशिश करें अन्यथा क्या होता है ? आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने एक बात कही।

उन्होंने कहा—‘‘यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुरुते रतिं।

यो यत्र रमते तस्मात् अन्यत्र स न गच्छति।।बड़ी अच्छी सूक्ति है कि जो जहाँ रहने लग जाता है उसका वहीं प्रेम हो जाता है, उसकी वहीं प्रीति हो जाती है और जो जहाँ प्रीति करने लग जाता है, जो जहाँ रम जाता है उसका वहाँ से निकलने का मन नहीं करता। कौन चाहता है कि मैं अपनी मनुष्य पर्याय को छोड़कर, अपने भरे-पूरे परिवार को छोड़कर जाऊँ, नहीं चाहते ना। अगर नाली का कीड़ा है तो वह भी नाली में ही रहना पसन्द करता है वहाँ से निकलना ही नहीं चाहता। यह संसार की अनादि व्यवस्था है और इसी व्यवस्था को देखकर पूज्यपाद स्वामी ने इसे शब्दों में निबद्ध किया। एक उदाहरण आपको सुनाती हूँ— एक राजा था। उसने बहुत बड़े सन्यासी का नाम सुना और वह सन्यासी के पास गया और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। एक दो दिन लगातार गया, बड़ी शान्ति की अनुभूति हुई उसको। उसने कहा—महाराज! आप थोड़े दिन मेरे महल में चलें वहाँ आपको शान्ति की अनुभूति होगी। महाराज ने कहा—नहीं! मैं महल में नहीं जाऊँगा, वहाँ मुझे सोने की दुर्गन्ध आती है, इसलिये मैं महल में नहीं रह सकता। मेरे लिये तो जंगल ही ठीक है। राजा ने कहा—बड़ी अजीब बात करते हैं आप, सोने में कोई दुर्गन्ध आती है क्या ? अरे! सोने का तो नाम सुनते ही लोग पागलों की तरह उसके पीछे-पीछे दौड़ते हैं कि मुझे कैसे सोना मिल जाये। आप कैसे विचित्र आदमी हैं कि आप सोने के नाम से मेरे राज्य में जाने को मना कर रहे हैं और कह रहे हैं कि मुझे दुर्गन्ध आती है।

आपको आपका यह भ्रम त्याग देना चाहिये। सन्यासी ने कहा—अच्छा चलो। मैं तुमको एक जगह ले चलता हूँ और वह राजा को लेकर चमारों की बस्ती में गया। चमारों की बस्ती में जाते ही राजा सोचने लगा कि महाराज यह कहाँ ले आए मुझे। वह नाक पर जल्दी-जल्दी कपड़ा ढकने लग गया। वहाँ बड़ी दुर्गन्ध आ रही थी। राजा बोले—कहाँ ले आए महाराज हमको ? महाराज बोले—कुछ नहीं, यह बस्ती है। थोड़ी देर में सन्यासी उसको ले गया एक चमार के घर में और वहाँ इतनी बदबू भरी थी, कि राजा से टिका नहीं गया। राजा बोला—महाराज! आप मुझको कहाँ ले आए? कितनी बदबू आ रही है। महाराज बोले—कैसी बदबू? कैसी दुर्गन्ध ? आप घर के मालिक से भी तो पूछिए। उस घर के मालिक चमार को बुलाया गया। सन्यासी ने चमार से कहा—यहाँ तो बहुत बदबू है, तुमको बदबू नहीं आती क्या ? चमार बोला—महाराज! कैसी बदबू ? हम तो ५० वर्षों से यहीं रहते हैं। मुझे कभी भी बदबू नहीं आती, आप कैसी बातें करते हैं। सन्यासी राजा को लेकर उसके महल में गया और वहाँ बोला—जब आपको मैं चमारों की बस्ती में ले गया वहाँ दुर्गन्ध आती थी। मैं आपको एक चमार के घर में ले गया आप वहाँ ठहर नहीं सके ठीक इसी प्रकार हम आज इस राजमहल के अन्दर आए हैं तो आपको यहाँ सोने की दुर्गन्ध नहीं आ रही है परन्तु मुझे यहाँ बड़ी दुर्गन्ध आ रही है। मैं यहाँ नहीं टिक सकता मेरा यहाँ धर्मध्यान नहीं हो सकता। मुझे प्रतिपल-प्रतिक्षण सोने की दुर्गन्ध आ रही है। राजन्! आप यहाँ रहने लगे हैं इसलिये आपको गंध नहीं आती। चमार उसमें रहने लगा उसको दुर्गन्ध नहीं आती। आप तो मुझे जंगल की ओर जाने दीजिये, उस शान्तमय वातावरण के अन्दर ही मेरा निर्वाह हो सकता है। उसी पंक्ति को लेकर इन्हीं अनुभवों के आधार पर आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा—

‘‘यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुरुते रतिं।

यो यत्र रमते तस्मात् अन्यत्र स न गच्छति।।उसी में उस जीव की प्रीति हो जाती है और इतनी प्रीति हो जाती है कि वह वहाँ से चाहे कितना ही कष्ट सहन कर ले लेकिन निकलना नहीं चाहता, यहाँ तो मन की बात है जिसे आचार्यश्री ने बता दिया। मन का विषय यही नहीं है कि बस चखते रहना, सुनते रहना, सूूँघते रहना, देखते रहना, छूते रहना। मन का कार्य है ‘‘श्रुतमनिन्द्रियस्य’’—श्रुत को पढ़ना, शास्त्र का स्वाध्याय करना, उसका लाभ उठाना। अब आपके ऊपर है कि या तो मन का उपयोग पंचेन्द्रिय के विषय भोगों में कर ले या शास्त्र-स्वाध्याय में कर लें। भगवान जिनेन्द्र के दर्शन में कर लें, उनकी भक्ति में कर लें, तीर्थयात्रा में कर लें अथवा विदेशों या हिल स्टेशन पर मौजमस्ती करें। आप कैसे भी करके अपने मन का सदुपयोग भी कर सकते हैं और दुरुपयोग भी कर सकते हैं। इन्द्रियों के स्वामी के बारे में बताया है कि इन इन्द्रियों के स्वामी कौन हैं?—

वनस्पत्यन्तानामेकम्।।२२।।

अर्थ — पृथ्वी आदि वनस्पति पर्यन्त स्थावर जीवों के एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक इन पाँचों स्थावर जीवों की एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। एक इन्द्रिय में से घ्राण, चक्षु आदि कोई भी एक इन्द्रिय का ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि सूत्र में ‘एकम्’ शब्द से पहली स्पर्शन इन्द्रिय को ही लिया गया है। उपर्युक्त पाँचों स्थावरों के एक शरीर मात्र ही होता है उनके जीभ, नाक, कान आदि नहीं होते। उन इन्द्रियों के क्रम को बताते समय उमास्वामी आचार्य ने बहुत ध्यान रखा। जब हम मूलाचार का स्वाध्याय करते हैं तो वहाँ आचार्य उमास्वामी ने इन्द्रियों का क्रम थोड़ा दूसरा लिया है ‘‘चक्खू सोदं घाणं’’ उन्होंने चक्षु इन्द्रिय से शुरुआत की परन्तु वहाँ पर इन्द्रियों के क्रम की विवक्षा नहीं है वहाँ उनको गाथा में ५ इन्द्रियों के नाम बताने थे। उन्हीं को क्रम से करके आचार्य उमास्वामी ने इस बात को प्रदर्शित किया कि दो इन्द्रियों में स्पर्शन, रसना आएगी। तीन इन्द्रिय में स्पर्शन, रसना, घ्राण। चार इन्द्रिय में स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और पंचेन्द्रिय में पाँचों इन्द्रियाँ आएंगी। आपसे कोई पूछे कि वनस्पतिकायिक जीवों के कितनी इन्द्रिय होती हैं तो एक इन्द्रिय। कौन-सी ? स्पर्शन इन्द्रिय। क्यों ? क्योंकि उनके स्पर्शन इन्द्रियावरण कर्म का ही क्षयोपशम होता है।

कृमि पिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेवैकवृद्धानि।।२३।।

अर्थ — कृमि, पिपीलिका, भ्रमर, मनुष्यादि के क्रमश: एक—एक इन्द्रियाँ बढ़ती गई हैं। कृमि, लट, केचुआ आदि जीवों के स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। पिपीलिका—चींटी, बिच्छू आदि जीवों के स्पर्श, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं। भ्रमर—भौंरा, मच्छर आदि जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती हैं तथा मनुष्यादि—मनुष्य, पशु, देव, नारकी इनकी पाँचों ही इन्द्रियाँ होती हैं। समनस्क की परिभाषा बताई है—

संज्ञिन: समनस्का:।।२४।।

अर्थ — मन सहित जीव संज्ञी होते हैं। सम्यक् प्रकारेण ज्ञायते इति संज्ञा’’ और उस संज्ञा से समन्वित, जिन्हें ज्ञान—हेय और उपादेय का विवेक होता है वे प्राणी संज्ञी कहलाते हैं। यह विवेक एकेन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक के जीवों को स्वभावत: नहीं होता अत: वे सभी असंज्ञी—मनरहित जीव कहलाते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों में ही संज्ञी होने की क्षमता रहती है। उनमें भी मनुष्य, देव, नारकी ये तीन गति वाले जीव तो नियम से संज्ञी ही होते हैं तथा तिर्यंचों में कुछ प्राणी असंज्ञी भी होते हैं। इतना बताने के बाद आचार्यश्री के सामने भक्त ने शंका की कि गुरुवर! जब जीवों की हित-अहित में प्रवृत्ति मन की सहायता से होती है तब वे विग्रहगति में मन के बिना भी नवीन शरीर की प्राप्ति के लिए गमन क्यों करते हैं ? इस शंका के समाधान के लिये आचार्यश्री सूत्र बताते हैं—

विग्रहगतौ कर्मयोग:।।२५।।

अर्थ — विग्रहगति में कार्माण काययोग होता है अर्थात् कर्म के परमाणु हर जगह कायम रहते हैं। उसी की सहायता से एक गति से दूसरी गति में यह जीव जाता है। इस प्रक्रिया में अन्तर्मुहूर्त का समय लगता है लेकिन उस अन्तर्मुहूर्त के समय में भी उसको विग्रहगति कहते हैं और उस विग्रहगति में जो कर्मयोग होता है कर्म के परमाणु रहते हैं वह कार्माण कहलाता है। ज्ञानावरणादि कर्मों के समूह को कार्माण कहते हैं। उनके निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो हलन-चलन होता है उसे कर्मयोग अथवा कार्माणयोग कहते हैं। एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर की प्राप्ति के लिये गमन करना विग्रहगति है। इस विग्रहगति में सभी औदारिक आदि शरीरों को उत्पन्न करने वाले कार्मण शरीर के निमित्त से ही आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन होता है इसलिए कार्मणयोग विग्रहगति में भी माना गया है। यह गमन किस प्रकार होता है, उसकी विधि बताते हैं—

अनुश्रेणि गति:।।२६।।

अर्थ — विग्रहगति आकाश प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार होती है। श्री अकलंकदेव ने राजर्वाितक ग्रन्थ में कहा है—जीवों के मरणकाल में नवीन पर्याय धारण करने के समय तथा मुक्त जीवों के ऊध्र्वगमन के समय श्रेणी के अनुसार ही गति होती है। ऊध्र्वलोक से नीचे अधोलोक से ऊपर या तिर्यक्लोक से ऊपर—नीचे जो गति होगी वह अनुश्रेणि होगी। पुद्गलों की जो लोकान्त तक गति होती है वह नियम से अनुश्रेणि ही होती है। मुक्त जीव की गति बताते हैं—

अविग्रहा जीवस्य।।२७।।

अर्थ — मुक्तियुक्त अर्थात् मुक्त जीव की गति वक्रतारहित—सीधी बताई है। अविग्रह अर्थात् जिसमें कोई मोड़ नहीं होता, एकदम सीधी ऊपर चली जाती है वह गति अविग्रह गति कहलाती है। श्रेणि के अनुसार होने वाली गति के दो भेद हैं—विग्रहवती—जिसमें मुड़ना पड़े और अविग्रहा—जिसमें मुड़ना न पड़े। इनमें से कर्मों का क्षय कर सिद्धशिला की ओर गमन करने वाले जीवों के अविग्रह गति होती है। संसारी जीवों की गति और समय क्या है ? इन सबका वर्णन करते हैं—

विग्रहवती च संसारिण: प्राक्चतुभ्र्य:।।२८।।

अर्थ — संसारी जीवों की गति चार समय से पहले-पहले विग्रहवती और अविग्रहवती दोनों प्रकार की होती है। आचार्यश्री अकलंक देव ने राजर्वाितक की टीका में इस विषय को स्पष्ट किया है कि ‘‘चार समय से पहले ही मोड़े वाली गतियाँ होती हैं क्योंकि संसार में ऐसा कोई टेढ़ा—मेढ़ा क्षेत्र ही नहीं है जिसमें तीन मोड़ा से अधिक मोड़ा लेना पड़े। जैसे षष्टिक चावल साठ दिन में नियम से पक जाते हैं उसी तरह विग्रहगति भी तीन समय में समाप्त हो जाती है।’’ ये गतियाँ चार हैं—इषुगति, पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका। इषुगति बिना विग्रह के होती है और शेष तीनों मोड़े वाली गतियाँ हैं। बाण की तरह सीधी सरलगति मुक्त जीवों के तथा किन्हीं संसारी जीवों के भी एक समय वाली बिना मोड़ की गति हो जाती है। हाथ से छोड़े गए जलादि की तरह पाणिमुक्ता गति एक विग्रह वाली और दो समय वाली होती हैं। हल के समान दो मोड़ वाली लांगलिका गति तीन समय में सम्पन्न होती है। गोमूत्र की तरह तीन मोड़े वाली गोमूत्रिका गति चार समय में परिपूर्ण होती है। अब ये सिद्धान्त की बातें सुनकर आपको लगता है कि अमुक व्यक्ति की आत्मा भटक रही है पर आत्मायें भटका नहीं करतीं यह नियम है। एक बार एक शरीर से जो आत्मा निकली दूसरे शरीर को धारण किया तो ज्यादा से ज्यादा समय लगा तो चार समय के अन्दर दूसरे शरीर को धारण कर लेगा, तीन मोड़े से ज्यादा उसकी गति में मोड़े नहीं हो सकते। अविग्रह गति का समय बताते हुए कहते हैं—

एकसमयाऽविग्रहा।।२९।।

अर्थ — बिना मोड़े की ऋजुगति एक समय वाली ही होती है। लोक के अग्रभाग तक जीव पुद्गलों की गति एक ही समय में हो जाती है। एक समय बहुत सूक्ष्म है जैसे उंगली के चारों ओर एक बार उंगली घुमायी, वह आवली हो गयी और एक आवली में असंख्यात समय हो गये। इस समय की सूक्ष्मता को तत्त्वार्थराजवार्तिक में अकलंकदेव ने खोला है कि आप बहुत सारे पान के पत्तों को एक साथ रखकर एक साथ उसमें सुई पिरो दीजिये। आप कहेंगे कि मैंने सौ पत्तों को एक साथ छेद दिया लेकिन एक पत्ते से दूसरे पत्ते को छेदने में ही असंख्यात समय लग गये, समय की इतनी सूक्ष्म परिभाषा है और इसीलिये समय का मूल्यांकन करने के लिये बहुत ही ज्यादा प्रेरणा दी गयी है यहाँ तो कहने में ही इतना समय लग जाता है लेकिन एक-एक क्षण हमारे लिये बहुत ही मूल्यवान रहता है। जो मोड़ारहित अर्थात् सिद्धों की गति होती है वह केवल एक समय मात्र की होती है उसमें एक समय से ज्यादा नहीं लगता है। विग्रहगति में आहारक-अनाहारक की व्यवस्था बताते हैं—

एवं द्वौ त्रीन्वानाहारक:।।३०।।

अर्थ — विग्रहगति में यह जीव एक, दो या तीन समय के लिये अनाहारक रहता है। औदारिक, वैक्रियक और आहारक इन तीन शरीरों के तथा छ: पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करना आहार है। तैजस और कार्मण शरीर के पुद्गल तो मोक्ष जाने से पूर्व तक प्रतिक्षण आते ही रहते हैं। वक्रगति में तीन समय तक अनाहारक रहता है। एक समय वाली इषुगति में नोकर्म पुद्गलों को ग्रहण करता हुआ ही जाता है अत: अनाहारक नहीं होता। दो समय और एक मोड़ा वाली पाणिमुक्ता गति में प्रथम समय में अनाहारक रहता है। तीन समय और दो मोड़ा वाली गोमूत्रिका गति में तीन समय तक अनाहारक रहकर चौथे समय में आहारक हो जाता है। अनाहारक का मतलब यहाँ यह मत सोचना कि खाना नहीं खा पाता। कर्म द्वारा अपने शरीर के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करना आहारक अवस्था है। आहार भी कई तरह का होता है—ओजाहार, लेपाहार, कर्माहार, नोकर्माहार, कवलाहार और इस प्रकार छह प्रकार का आहार होता है। जीव का कितनी देर का समय ऐसा है कि जितनी देर में वह कर्मों को ग्रहण नहीं करता है उसके लिये बताया है कि केवल तीन समय ऐसे निकल सकते हैं कि जब वह जीव अनाहारक हो जावे। आगे जन्म के भेद बताते हैं—

सम्मूच्र्छनगर्भोपपादा जन्म।।३१।।

अर्थ — सम्मूच्र्छन, गर्भ और उपपाद ये जन्म के तीन भेद हैं। तीनों लोकों में ऊपर नीचे तिरछे सभी दिशाओं से पुद्गल परमाणुओं का इकट्ठा होकर शरीर बनना सम्मूच्र्छन जन्म कहलाता है। जैसे—मेढ़क, बिच्छू, कनखजूरे आदि का जन्म। स्त्री के गर्भाशय में शुक्र और शोणित के मिश्रण को गर्भ कहते हैं। उस गर्भ से जन्म लेने वाले जीवों का गर्भजन्म कहलाता है। देव और नारकियों के उत्पत्ति स्थानों को उपपाद कहते हैं। उन उपपाद शय्याओं पर उत्पन्न होने वाले जीवों का उपपाद जन्म कहा है। जन्म की आधारभूत योनियों के बारे में बताते हैं—

सचित्तशीतसंवृता: सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनय:।।३२।।

अर्थ — सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत ये नौ योनियाँ हैं। जो जन्म लेने की उत्पत्ति के स्थान हैं उनको योनि संज्ञा है। नौ ्रप्रकार की योनियाँ बताई गई हैं जिनसे जीवों के जन्म हुआ करते हैं। इन योनियों के चौरासी लाख भेद भी हाते हैं, सूत्र में ‘च’ शब्द से उनका ग्रहण हो जाता है। सर्वज्ञदेव ने तो इन समस्त योनियों को साक्षात् रूप से जाना है और अल्पज्ञानियों को आगम से जानना चाहिए। जीव सहित योनि को सचित्त योनि कहते हैं। जिस योनि का स्पर्श शीत हो वह शीत योनि है। जो किसी के देखने में न आवे, ऐसे जीव के उत्पत्ति स्थान को संवृतयोनि कहते हैं। जीवरहित योनि को अचित्त योनि कहते हैं। जिस योनि का स्पर्श उष्ण हो, वह उष्ण योनि है। जो सबके देखने में आवे उस उत्पत्ति स्थान को विवृतयोनि कहते हैं। जो योनि कुछ भाग में जीवप्रदेशों से अधिष्ठित हो और कुछ भाग में जीवप्रदेशों से अधिष्ठित न हो वह मिश्र योनि है। जिस योनि का कुछ भाग शीत हो और कुछ भाग उष्ण हो वह शीतोष्ण है और संवृत्तविवृत योनि वह है जो कुछ ढकी हो और कुछ खुली हो। विस्तार से योनियाँ ८४ लाख कही हैं जिसमें नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इनकी ७-७ लाख, वनस्पति की १० लाख, विकलेन्द्रिय अर्थात् दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय की २-२ लाख अर्थात् ६ लाख, देव, नारकी और तिर्यंच की ४-४ लाख और मनुष्य की १४ लाख योनियाँ हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर ८४ लाख योनियाँ हैं। देव और नारकी के अचित्त योनि है क्योंकि इनके उपपाद प्रदेशों के पुद्गल अचेतन हैं। गर्भज मनुष्य और तिर्यंच के सचित्ताचित्त योनि है। सम्मूच्र्छन जन्म वाले अर्थात् पाँचों स्थावर, तीनों विकलत्रय तथा सम्मूच्र्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य इनके सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त योनि है। देव, नारकी के शीत और उष्ण योनि है, अग्निकाय के उष्ण योनि है। सभी मनुष्य, चार स्थावर—पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पतिकायिक, विकलत्रय और सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के शीत, उष्ण और शीतोष्ण योनि है। देव, नारकी और एकेन्द्रिय के संवृत, विकलेन्द्रिय व सम्मूच्र्छन के विवृत और गर्भज के संवृत विवृत्त योनि है। योनि के दो भेद भी हैं—गुणयोनि और आकारयोनि। अभी मैंने जो आपको बताया वह गुणयोनि के भेद थे। आकारयोनि के गर्भज की अपेक्षा तीन भेद हैं—शंखावर्त अर्थात् जिसमें शंख जैसे आवृत्त घेरे हों, इसमें गर्भ नहीं ठहरता। वूâर्मोन्नत अर्थात् जो कछुए के आकार जैसी उठी हुई हो इसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती, अर्धचक्री, बलभद्र और उनके भाइयों के सिवाय कोई पैदा नहीं होता तथा वंशपत्र अर्थात् जो बांस के पत्ते के आकार की हो, इसमें सभी गर्भजन्म वाले पैदा होते हैं। गर्भ जन्म किसके होता है, यह बताते हैं—

जरायुजाण्डजपोतानां गर्भ:।।३३।।

अर्थ — गर्भ जन्म के भी तीन भेद हैं—जरायुज जन्म, अण्डज जन्म और पोतज जन्म। जरायुज अर्थात् जिनके ऊपर झिल्ली चढ़ी होती है। जाल की तरह से जिन मनुष्यों के ऊपर रुधिर और माँस की खोल लिपटी रहती है वे जरायु कहलाते हैं। उस जरायु से सहित जन्म लेने वाले जरायुज कहलाते हैं। जैसे—गाय, भैंस, बकरी, बैल, मनुष्य आदि। कबूतर, मुर्गी आदि पक्षी तथा सांप वगैरह के जो अण्डे होते हैं उनसे जीव निकलता है वह अण्डज कहलाता है और पोत जन्म—पैदा होते ही जिस जीव पर कोई आवरण नहीं होता, जैसे हिरण, सिंह आदि, जो पैदा होते ही एकदम उछल-वूâद करना प्रारम्भ कर देते हैं। यह पोत जन्म वाले कहलाते हैं। इस विषय में धवला के अन्दर एक खुलासा आया है कि जैसे—चींटियों के अण्डे देखे जाते हैं, मधुमक्खियों के, ततैयों के अण्डे देखे जाते हैं तो क्या ये भी गर्भ जन्म में आते हैं ? नहीं, इनका सम्मूच्र्छन जन्म है, ये अण्डे सम्मूच्र्छन जन्म वाले अण्डे हैं। बाहर के ही पुद्गल परमाणुओं को इकट्ठा करके ये उसका अण्डा बना देती हैं, वह गर्भ जन्म वाला अण्डा नहीं होता। उपपाद जन्म किसके होता है ? उसके लिए अगला सूत्र अवतार लेता है—

देवनारकाणामुपपाद:।।३४।।

अर्थ — देव और नारकियों का उपपाद जन्म होता है। देव और नारकियों के जन्म में माता-पिता का कोई निमित्त नहीं होता। देवों के यहाँ तो उपपाद शैय्या बनी होती है और वहाँ जाकर वे जन्म ले लेते हैं। बिल्कुल सोलह वर्ष के युवक के समान उनका शरीर होता है और नारकियों का जो उपपाद जन्म होता है उनके बिल बने होते हैं जैसे सर्प की बामी हैं ऐसे बिल बने हुए होते हैं जहाँ वे ऊपर से जाकर नीचे को गिरते हैं, एकदम उछलते हैं और वही उनका उपपाद जन्म कहलाता है, दोनों का उपपाद जन्म होते हुए भी अन्तर यह है कि देवगण तो उपपाद शैय्या पर मानो सोकर उठे हुए नवयुवक की भाँति सुखद जन्म धारण करते हैं और जीवन भर उनकी युवावस्था ही रहती है। आयु पूरी होने के छह मास पूर्व उनके गले में पड़ी मंदार माला मुरझाने लगती है किन्तु नरक में नारकियों का जन्म इससे विपरीत होता है। वे वहाँ के बिलों में औंधे मुंह गिरते हैं और हमेशा मार—काट में लगे रहते हैं, असह्य वेदना सहन करने पर भी उनकी अकालमृत्यु नहीं होती। सम्मूच्र्छन जन्म के स्वामी कौन हैं ? इस बात को बताते हैं—

शेषाणां सम्मूच्र्छनम्।।३५।।

अर्थ — गर्भ और उपपाद जन्म वालों से बाकी बचे हुए जीवों के सम्मूच्र्छन जन्म ही होता है अथवा सम्मूच्र्छन जन्म शेष जीवों के ही होता है। शेष लोगों के सम्मूच्र्छन जन्म होता है अर्थात् मनुष्य और पंचेन्द्रिय पशुओं का गर्भ जन्म हुआ, देव और नारकियों का उपपाद जन्म हुआ। शेष बचे कौन से—एक इन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय। इन जीवों का सम्मूच्र्छन जन्म माना जाता है। तिर्यंचों के गर्भ और सम्मूच्र्छन दोनों जन्म होते हैं। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों का भी सम्मूच्र्छन जन्म होता है। अर्थात् गर्भ और उपपाद जन्म वाले जीवों को छोड़कर शेष सभी जीवों का सम्मूच्र्छन जन्म होता है। एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के तो सभी जीवों का सम्मूच्र्छन जन्म ही रहता है तथा पंचेन्द्रियों में भी कुछ जीव सम्मूच्र्छन होते हैं, जैसे—स्वयंभूरमण समुद्र में रहने वाला महामत्स्य वगैरह। शरीर के भेद कितने हैं ? बताते हुए कहा है—

औदरिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि।।३६।।

अर्थ — औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये पाँच शरीर हैं। उदार अर्थात् स्थूल प्रयोजन वाला शरीर औदारिक कहलाता है। अणिमा आदि आठ प्रकार के ऐश्वर्य के कारण अनेक प्रकार के छोटे—बड़े आकार करने रूप विक्रिया करना जिसका प्रयोजन है वह वैक्रियिक है। प्रमत्तसंयत मुनि के द्वारा सूक्ष्मतत्त्वज्ञान और असंयम के परिहार के लिये जिसकी रचना की जाती है वह आहारक शरीर है। दीप्ति उत्पन्न कराने में निमित्त तैजस शरीर है। कर्मों के समूह को कार्मण कहते हैं। कार्मण शरीर से ही औदारिकादि शरीर उत्पन्न होते हैं अत: कारणकार्य की अपेक्षा भी कार्मण और औदारिकादि भिन्न हैं। जैसे गीले गुड़ पर धूलि आकर जम जाती है उसी तरह कार्मण शरीर पर ही औदारिकादि शरीरों के योग्य परमाणु जिन्हें विस्रसोपचय कहते हैं वे आकर जमा होते हैं। इस दृष्टि से भी कार्मण और औदारिकादि शरीर भिन्न हैं। इन शरीरों को अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार लोग धारण करते हैं। तैजस और कार्मण शरीर प्रत्येक जीव के साथ में रहता है। मनुष्यों के औदारिक शरीर होता है, देवों और नारकियों में वैक्रियिक शरीर होता है। तिर्यंचों के औदारिक शरीर होता है और आहारक शरीर प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के आहारक ऋद्धि के रूप में होता है। आहारक शरीर से तैजस अनंतगुणे प्रदेश वाला है और तैजस से कार्मण शरीर अनन्तगुणे प्रदेश वाला है। यद्यपि तैजस और कार्मण शरीरों से परमाणु अधिक है फिर भी उनका अतिसंघन सयोग और सूक्ष्म परिणमन होने से इन्द्रियों के द्वारा उपलब्धि नहीं हो सकती है। शरीर की सूक्ष्मता का वर्णन करते हुए कहते हैं—

परं परं सूक्ष्मम्।।३७।।

अर्थ — पूर्व से आगे-आगे के शरीर सूक्ष्म होते चले गये हैं अर्थात् औदारिक से वैक्रियिक, वैक्रियिक से आहारक, आहारक से तैजस और तैजस से कार्माण शरीर सूक्ष्म है। औदारिक आदि तीन शरीरों के प्रवेश के बारे में बताते हैं—

प्रदेशतोऽसंख्येगुणं प्रात्तैजसात्।।३८।।

अर्थ — प्रदेशों और परमाणुओं की अपेक्षा तैजस शरीर से पहले-पहले के शरीर संख्यातगुणे-संख्यातगुणे बड़े होते गये हैं। औदारिक शरीर की अपेक्षा असंख्यातगुणे प्रदेश वैक्रियिक में और वैक्रियिक की अपेक्षा असंख्यातगुणे आहारक में हैं।

अनन्तगुणे परे।।३९।।

अर्थ — बाकी के दो शरीर अनन्तगुणे प्रदेश वाले हैं। शेष जो दो शरीर हैं वह अनन्तगुणे परमाणु वाले हैं अर्थात् आहारक शरीर से अनन्तगुणे परमाणु वाला तैजस शरीर और तैजस शरीर से अनन्तगुणे परमाणु वाला कार्माण शरीर होता है। तैजस और कार्माण शरीर की विशेषता बताते हैं—

अप्रतिघाते।।४०।।

अर्थ — तैजस और कार्माण ये दो शरीर किसी के द्वारा बाधित नहीं होते और न ही उनसे किसी को बाधा पहुँचायी जा सकती है। ये दो शरीर किसी भी मूर्तिक पदार्थ से न स्वयं रुकते हैं और न किसी को रोकते हैं जैसे—अग्नि लोहे के पिण्ड में घुस जाती है वैसे ही ये दोनों शरीर भी वङ्कामय पटल से भी नहीं रुकते हैं।

अनादिसम्बन्धे च।।४१।।

अर्थ — ये दोनों शरीर आत्मा के साथ अनादिकाल से सम्बन्ध रखने वाले हैं। ये दोनों शरीर प्रत्येक जीव के साथ में अनादिकाल से हैं और जब तक जीव मोक्ष नहीं जाता है तब तक हर प्राणी के साथ-साथ रहते हैं।

सर्वस्य।।४२।।

अर्थ — ये दोनों शरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं। एक साथ एक जीव के कितने शरीर हो सकते हैं ? इस बात को बताते हैं—

तदादीनि भाजयानि युगपदेकस्मिन्नाचतुभ्र्य:।।४३।।

अर्थ — उन तैजस, कार्माण शरीर को आदि में लेकर एक साथ एक जीव के चार शरीर तक जानना चाहिए। पूर्व सूत्रों में शरीर के पाँच भेद बतलाए गए हैं—औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्मण। इन पाँचों में से प्रत्येक जीव के कम से कम विग्रहगति में तैजस—कार्मण ये दो शरीर होंगे। मनुष्य और तिर्यंचों के औदारिक, तैजस, कार्मण ये तीन शरीर होते हैं तथा देव और नारकियों के वैक्रियक, तैजस, कार्मण ये तीन शरीर होते हैं। चार शरीर किसके हो सकते हैं ? छठे गुणस्थानवर्ती किसी मुनि के (जिनके आहारक ऋद्धि प्रगट हो गई है) औदारिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये चार शरीर होते हैं एवं जिस मुनि के विक्रिया ऋद्धि हो जाती है उनके वैक्रियक शरीर, औदारिक शरीर, तैजस और कार्मण ये चार शरीर होते हैं। वैक्रियक और आहारक ये दो शरीर एक साथ नहीं होते, अत: एक साथ पाँच शरीर किसी के भी नहीं होते हैं। कार्माण शरीर की विशेषता बताते हैं—

निरुपभोगमन्त्यम्।।४४।।

अर्थ — अन्त का जो कार्माण शरीर है वह उपभोगरहित होता है। इन्द्रियों के द्वारा शब्द वगैरह को ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं। इस प्रकार का उपयोग कार्माण शरीर में नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि विग्रहगति में कार्माण शरीर के द्वारा ही योग होता है किन्तु उस समय लब्धिरूप भावेन्द्रिय ही होती है, द्रव्येन्द्रिय नहीं होती इसलिये शब्द आदि विषयों का अनुभव विग्रहगति में नहीं होने से कार्माण शरीर को निरुपभोग कहा है। औदारिक शरीर का लक्षण बताते हैं—

गर्भ सम्मूर्छनजमाद्यम्।।४५।।

अर्थ — गर्भ जन्म और सम्मूर्छन जन्म से उत्पन्न हुआ जो शरीर है उसको औदारिक शरीर कहते हैं। हमारा और आपका शरीर औदारिक शरीर है। वैक्रियिक शरीर का लक्षण क्या है—

औपपादिवं वैक्रियिकम्।।४६।।

अर्थ — उपपाद जन्म से होने वाला देव-नारकियों का शरीर वैक्रियिक कहलाता है। उपपाद से जन्म लेने वाला शरीर देवों और नारकियों का होता है उसमें उनको कोई पुरुषार्थ, कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। किसी मनुष्य को वैक्रियिक शरीर हो तो उसके लिए यह सूत्र कहा है—

लब्धिप्रत्ययं च।।४७।।

अर्थ — वैक्रियिक शरीर लब्धिनिमित्तक भी होता है। लब्धि तपस्या और ऋद्धि के निमित्त से मनुष्यों के भी वह वैक्रियिक शरीर हो सकता है, जैसे—विष्णुकुमार मुनिराज को विक्रिया ऋद्धि थी तो उनके वैक्रियिक शरीर हो गया, उनके उस समय चार शरीर हुए तैजस, कार्माण, औदारिक और वैक्रियिक शरीर। उस ऋद्धि के फलस्वरूप उन्होंने अपने शरीर से वामन का वेष बना लिया और सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर करने हेतु व्यापक शरीर बनाकर तीनों लोकों को वंशपायमान कर दिया था। लब्धि से यहाँ मतलब ऋद्धि से है तपस्या करने से जो ऋद्धि की प्राप्ति होती है उस ऋद्धि के निमित्त से वैक्रियिक शरीर होता है वह मनुष्यों के भी हो सकता है बाकी तो वैक्रियिक शरीर देव और नारकियों के ही होता है। यह औदारिक शरीर का ही एक प्रकार है। देव-नारकियों का वैक्रियिक इससे भिन्न जाति का होता है। एक बार की हुई विक्रिया अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही मिट जाती है, आगे फिर वैसी ही करनी हो तो दूसरी कर ली जाती है यह बात विशेष रूप से समझना है। तैजस शरीर भी लब्धि वाला होता है, इस बात को बताते हैं—

तैजसमपि।।४८।।

अर्थ — तैजस शरीर भी लब्धिनिमित्तक होता है। जैसे—द्वीपायन मुनि के तैजस पुतला निकला, यह तैजस शरीर भी ऋद्धि और तपस्या के निमित्त से किन्हीं-किन्हीं को प्रगट हो जाता है। यह दो प्रकार का होता है एक शरीर में कांति देने वाला शुभ तैजस और दूसरा अशुभ तैजस, जिससे खुद का और दूसरे का भी घात होता है। शुभ तैजस सफेद रंग का होता है, यह दाहिने वंधे से निकलता है और दुखी जीवों का उपकार करता है तथा अशुभ तैजस सिन्दूर के समान लाल रंग का होता है तथा बाएं कन्ध से प्रगट होकर १२ योजन तक के जीवों को भस्म कर देता है अर्थात् शुभ तैजस से १२ योजन तक सुभिक्ष आदि होते हैं और अशुभ तैजस से १२ योजन प्रमाण क्षेत्र भस्म हो जाता है। तैजस के दो भेदों में एक कार्मण शरीर के साथ अभिन्न रहता है और दूसरा ऋद्धि के द्वारा शरीर के बाहर निकलकर अपना प्रभाव दिखाता है। ऋद्धि से प्राप्त तैजस शरीर शुभ—अशुभ दोनों तरह का होता है। अब आहारक शरीर के स्वामी और उनका लक्षण बताते हैं—

शुभं विशुद्धमव्याघातिचाहारवं प्रमत्तसंयतस्यैव।।४९।।

अर्थ — आहारक शरीर शुभ है अर्थात् शुभ कार्य को करता है, विशुद्ध है अर्थात् विशुद्ध कर्म का कार्य है और व्याघात—बाधारहित है तथा प्रमत्तसंयत नामक छठवें गुणस्थानवर्ती मुनियों के ही होता है। आहारक शरीर शुभ कार्य को करने वाला है, विशुद्ध है, अव्याघाती है ऐसा आहारक शरीर छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के ही होता है। यह बहुत शुभ होता है अर्थात् जिनके तपस्या करते-करते मन के अन्दर कोई सूक्ष्म शंका उठी या अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन करने की तीव्र उत्कण्ठा हुई तो उनके शरीर से यह आहारक शरीर निकलकर केवली भगवान के पास जाकर शंका का निवारण करके आता है और फिर आकर अपने शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। अकृत्रिम चैत्यालय की वंदना करके आता है, फिर आकर अपने शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। ‘‘जिण जिण वर अट्ठं च’’ इस आहारक शरीर नामक नामकर्म का बंध सातवें से आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक ही सम्भव है, ऐसा गोम्मटसार के अन्दर वर्णन आया है, यह आहारक शरीर बहुत ही शुभ होता है, अव्याघाती होता है यह जाने लगता है या निकलता है तो किसी को भी उससे आघात नहीं हो सकता है। आहारक शरीर का रंग सपेâद और ऊँचाई एक हाथ होती है। समचतुरस्र संस्थान होता है, धातु—उपधातु से रहित होता है। प्रमत्तसंयत मुनि के मस्तक से उत्पन्न होता है। कभी तो ऋद्धि का सद्भाव जानने हेतु आहारक शरीर की रचना होती है और कभी सूक्ष्म पदार्थ का निर्णय करने के लिए आहारक शरीर उत्पन्न होता है। लिंग अर्थात् वेद के स्वामी कौन हैं ? इसे बताया है—

नारकसम्मूच्र्छनो नपुँसकानि।।५०।।

अर्थ — नारकी जीव और सम्मूच्र्छन जीव नियम से नपुंसक ही होते हैं। देवों के तो स्त्री-पुरुष दोनों वेद होते हैं। तिर्यंचों और मनुष्यों के भी तीनों वेद होते हैं, परन्तु नारकी जीव नपुंसक ही होते हैं, सम्मूच्र्छन जीव नपुंसक ही होते हैं। देवों के भेद बताए हैं—

न देवा:।।५१।।

अर्थ — देव नपुंसकवेदी नहीं होते अर्थात् देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद ये दो ही वेद होते हैं। देव नहीं होते हैं इसका यह अर्थ नहीं हैं। यद्यपि अलग से अर्थ करने से और व्याकरण की दृष्टि से भी यह गलत नहीं है। उसका अर्थ भी यही निकलता है ‘‘न देवा:’’—देव नहीं है लेकिन सूत्रों का अर्थ करने के लिए पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ना पड़ता है। प्रकरण चला आ रहा है वेद का कि ‘‘नारक सम्मूच्र्छनो नपुंसकानि, न देवा:’’ नारकी और सम्मूच्र्छन जीव नपुंसक होते हैं और देव नपुंसक नहीं होते हैं। उनमें केवल दो ही वेद होते हैं—स्त्रीवेद और पुरुषवेद। यह ध्यान रखना है कि जो स्त्रीवेदी देव है वह केवल दो स्वर्ग तक ही जन्म लेते हैं। सौधर्म और ईशान स्वर्ग तक ही देवियाँ जन्म लेती हैं और ऊपर तक जो देवियाँ हैं वह कैसी हैं ? उनका उत्पत्ति स्थान केवल दो स्वर्ग में ही है आगे जो ऊपर के स्वर्ग के देव हैं वह अवधिज्ञान से जान लेते हैं कि मेरी नियोगिनी देवी कहाँ हैं और वह जाकर उनकी खोज करके पहले, दूसरे स्वर्ग से उठाकर उनको अपने स्वर्ग में ले आते हैं किन्तु इतना ध्यान रखना है कि तीसरे से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक कहीं भी देवियाँ जन्म नहीं लेती हैं। सोलहवें से ऊपर के तो सभी देव पुरुषवेदी ही होते हैं। मनुष्य और तिर्यंचों के वेद का वर्णन करते हुए आचार्यश्री उमास्वामी कहते हैं—

शेषास्त्रिवेदा:।।५२।।

अर्थ — शेष बचे हुए मनुष्य और तिर्यंच तीनों वेद वाले होते हैं। तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ और सिद्धान्तग्रन्थ में उनका वर्णन आया है। मनुष्य और तिर्यंचों में तीनों ही वेद आते हैं, इसमें स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी सभी होते हैं और एक विशेष बात बताई है कि यह सारी व्यवस्था कर्मभूमि की है, भोगभूमि में मनुष्य और तिर्यंच होते हैं किन्तु वहाँ नपुंसक नहीं होते, केवल स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी ही होते हैं। पुरुषवेद का विकार सबसे कम घासपूस की अग्नि जैसा होता है, यह प्रगट भी शीघ्र होता है और शांत भी शीघ्र होता है। स्त्रीवेद का विकार बहुत तेज अंगार—कण्डे की अग्नि जैसा है जो प्रगट भी जल्दी नहीं होता और शांत भी जल्दी नहीं होता है। नपुंसकवेद का विकार तपी ईट—अवा की अग्नि जैसा बहुत तेज व अत्यन्त कलुषित होता है। इनकी कामाग्नि बहुत समय तक बनी रहती है। अब इस दूसरी अध्याय के अन्तिम सूत्र का प्रतिपादन करते हुए आचार्यश्री उमास्वामी पूर्ण आयु वाले प्राणियों अर्थात् जिनके अकालमृत्यु नहीं होती है, उन जीवों के बारे में बताते हैं—

औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येय वर्षायुषोऽनपवत्र्या-युष:।।५३।।

अर्थ — औपपादिक जन्म लेने वाले देव और नारकी, चरमोत्तम शरीर वाले यानी तद्भव मोक्षगामी तीर्थंकर, बलभद्र आदि महापुरुष और असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमि के जीव परिपूर्ण आयु वाले होते हैं अर्थात् इन जीवों के असमय में मृत्यु नहीं होती है। असंख्यात वर्ष की आयु कर्मभूमि के मनुष्यों की कभी होती नहीं। भोगभूमि के मनुष्यों की पल्यों में जो आयु होती है वह असंख्यात वर्ष की आयु कहलाती है। इन जीवों का कभी भी अकालमरण नहीं होता यह इसी से सिद्ध हो जाता है। इनसे अतिरिक्त जीवों के अकालमरण भी हो सकता है और इसलिये हरिवंश पुराण के अन्दर वर्णन आया है कि आज से साढ़े छियासी हजार वर्ष पूर्व जो कुरुक्षेत्र के अन्दर महाभारत का युद्ध हुआ उस युद्ध के अन्दर जितनी अकालमृत्यु हुई हैं, उतनी अकालमृत्यु उससे पहले कभी नहीं हुई उसके बाद के इतिहास में तो हम कह सकते हैं कि महायुद्ध हो गये, विश्वयुद्ध हो गये। आज तो तोपों से, मिसाइलों से लड़ाइयाँ होती हैं, इतना-इतना नुकसान होता है कि देश के देश नष्ट हो जाते हैं तो यह अकालमृत्यु भी हमको माननी पड़ेगी जिनके नहीं होती है उनके तो नियम से होती नहीं, जैसे—पाण्डवों के अकालमृत्यु नहीं थी कितना भी कौरवों द्वारा प्रयत्न करने के बाद भी उनके अकालमृत्यु नहीं हुई और उनमें से तीन (युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन) ने उसी भव से मोक्ष प्राप्त किया तथा नकुल और सहदेव द्विचरमशरीरी थे, वे दो भव लेकर आगे आने वाले समय में मोक्ष प्राप्त करेंगे। इन पांचों पाण्डवों में युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तो क्षपक श्रेणी पर चढ़े थे और उन्होंने घातिया कर्मों का नाश कर दिया था लेकिन नकुल और सहदेव, जिस समय उन पर अग्नि का उपसर्ग शुरू हुआ, उस समय उपशम श्रेणी पर चढ़े और उपशम श्रेणी का नियम है कि या तो वह गिराएगा या मार देगा, वहाँ पर उनकी आयु समाप्त हो गई और सर्वार्थसिद्धि में जाकर उन्होंने जन्म ले लिया तथा आने वाले समय में मनुष्य भव को प्राप्त कर वह भी मोक्ष को प्राप्त करेंगे। अकाल मृत्यु कैसे होती है ? इस विषय के प्रतिपादन हेतु आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भावप्राभृत की गाथा नं. २५ में कहा है—

विसवेयणरत्तक्खय भयसत्थग्गहण संकिलेसाणं।
आहारुस्सावसाणं, णिरोहदो छिज्जदे आऊ।।

इसका अर्थ यह है कि विष खा लेने से, तीव्र वेदना के उठ जाने से, शरीर से खून अधिक निकल जाने से, अत्यधिक भय से, शस्त्र लग जाने से, तीव्र संक्लेश से, आहार और स्वासोच्छ्वास के निरोध आदि कारणों से अकाल में ही आयु की उदीरणा हो जाती है। वर्तमान में जो लोग अकालमरण का निषेध करते हैं उन्हें यह गाथा वं ठाग्र कर लेनी चाहिए। इसी प्रकार की गाथा धवला और गोम्मटसार आदि ग्रंथों में भी पाई जाती है। अकालमृत्यु के निवारण हेतु औषधि आदि प्रयोग व चिकित्सा शास्त्र भी माने गए हैं ऐसा तत्त्वार्थ—श्लोकर्वाितक ग्रन्थ में कहा है। जो जीव जितनी आयु का बंध कर लेते हैं उनकी उतनी आयु से अधिक कभी आयु बढ़ती नहीं है। हाँ, घट तो सकती है उसे ही अकालमरण कहा है। वस्तुत: आयुकर्म के निषेकों का क्रम-क्रम से न खिरकर एक साथ खिर जाना अकालमरण कहलाता है। यह अकालमरण कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यंचों के ही सम्भव होता है। देव, नारकी तथा तीर्थंकर आदि तद्भवमोक्षगामी जीव और असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमि के जीव पूर्ण आयु वाले ही होते हैं अर्थात् इनकी किसी भी कारण से अकालमृत्यु नहीं होती है। विषपान, शस्त्र, श्वासोच्छ्वास का अवरोध, रोग आदि के निमित्त से भी इनकी आयु नहीं छिदती, इनके सिवाय शेष जीवों की आयु का कोई नियम नहीं है। आयु के नियतकाल से पहले ही शीघ्र भोग को अर्थात् कर्म की उदीरणा द्वारा फल भोगने को अकालमृत्यु कहते हैं। कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यंचों की भुज्यमान आयु की उदीरणा जहर खाने, भयंकर रोग या शस्त्र प्रहार आदि निमित्तों से हो जाती है। उदीरणा के होने से शेष आयु की स्थिति जल्दी पूरी होकर अन्तर्मुहूर्त में ही खिर जाने से अकाल में ही मरण हो जाता है। इस प्रकार से परिपूर्ण आयु वाले जो जीव होते हैं वे महान पुण्यात्मा कहलाते हैं अत: हम सबको भी यही भावना भानी है कि हे भगवन्! कभी भी हमारी अकालमृत्यु नहीं हो वे और यदि कहीं प्रसंग भी आ जाये तो भावों की विशुद्धि हमेशा बनी रहे, णमोकार मन्त्र का स्मरण सदा चलता रहे।।।

इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे द्वितीयोऽध्याय: समाप्त: ।।

तत्त्वार्थ सूत्र प्रवचन (तृतीय अध्याय)


तृतीय अध्याय

प्रवचन कर्त्री -आर्यिका चंदनामती माताजी

—मंगलाचरण—

मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुण लब्धये।।
अर्हंत भगवान के नमस्कार स्वरूप मंगलाचरण के कथन के द्वारा आचार्य उमास्वामी ने जहाँ दो अध्यायों में जीवतत्त्व का विशेष प्रतिपादन किया वहीं तृतीय अध्याय के माध्यम से वे भव्यात्माओं को बतलाना चाहते हैं, उन्हें चिन्तन का एक विषय देना चाहते हैं कि हे प्राणी! तू समझ कि तू कौन है ? कहाँ से आया है ? तुझे क्या करना है और तू क्या कर रहा है ? इस तृतीय अध्याय के अन्दर ऊध्र्वलोक और मध्यलोक का वर्णन किया जाएगा अर्थात् तीन लोक में सम्पूर्ण सृष्टि मानी गयी है, उस तीन लोक के आकार को बहुत सारी जगह आप लोगों ने देखा होगा। नीचे अधोलोक है, बीच में मध्यलोक है और ऊपर स्वर्ग और सिद्धशिला आदि को बतलाने वाला ऊध्र्वलोक है। इनमें से जीव तत्त्व की अवस्थिति कहाँ-कहाँ है ? उसको बताने के लिए तृतीय अध्याय में दो लोकों का वर्णन करेंगे, पुन: चतुर्थ अध्याय में ऊध्र्वलोक का वर्णन किया जायेगा। जिस प्रकार जब कोई व्यक्ति अपने घर से बाहर उसी शहर में निकलता है तब उससे अगर प्रश्न होता है कि—आप कहाँ से आये हैं ? तो वह अपना परिचय देते हुए कहता है कि मैं इस गली नं. से आया हूँ, क्योंकि शहर के अन्दर उस गली का परिचय ही पर्याप्त होता है। जब वही व्यक्ति किसी दूसरे शहर-गाँव में पहुँचता है तो उससे पूछा जाता है कि आप कहाँ से आये हैं ? उसे बताना पड़ता है कि मैं अमुक गाँव से अथवा अमुक शहर से आया हूँ। उसके बाद जब आप और आगे बढ़ते हैं, दूसरे प्रदेश में जाते हैं तो आपकी दृष्टि में वह गली, वह शहर भी गौण हो जाता है, आपको बताना होता है कि मैं अमुक राज्य से आया हूँ। अभी आप राजस्थान से, मध्यप्रदेश से, उत्तरप्रदेश से यहाँ आये हैं। आपसे यहाँ कोई पूछता है, आपका परिचय लेता है तो आप कहते हैं कि हम उत्तरप्रदेश से आये हैं, हम राजस्थान से आये हैं। उस समय आपके लखनऊ और उदयपुर आदि स्थान गौण हो जाते हैं और उसके बाद आप अपने को छोड़कर और आगे बढ़ते हैं अर्थात् अपने भारत देश को छोड़कर विदेश में जाते हैं और आपसे परिचय पूछा जाता है कि आप कहाँ से आये हैं ? तो गली की बात तो बहुत दूर की हो गयी, गाँव, शहर भी छूट गया। तब आप बोलते हैं कि मैं भारत से आया हूँ। कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते गये, जैसे-जैसे आपका दायरा बढ़ता गया वैसे-वैसे ही आपका मन भी उदार होता चला गया। आप सोचें कि मैं अपनी गली नं. में ही बँधा रहूँगा तो यह भ्रांति होगी क्योंकि जैसे-जैसे सीमा रेखा बढ़ती जाएगी वैसे-वैसे ही आपकी दृष्टि महान बनती चली जाएगी। आचार्यों ने इसी उदाहरण के माध्यम से यह बात बताई कि तू तीनों लोकों की अवस्थिति को पहले समझ ले और उसके बाद जान कि मैं कहाँ से आया हूँ, कहाँ रह रहा हूँ, मुझे क्या करना था और मैं क्या कर रहा हूँ और इस करनी के द्वारा भी कर्मसिद्धान्त के दर्पण में देखना कि मुझे आगे कहाँ जाना पड़ेगा। इसीलिये सात तत्त्वों में इन अध्यायों का विभाजन किया है कि हर प्राणी इस बात को जरूर जाने कि मैं किस कर्म को करूँगा तो कौन सी गति की प्राप्ति होगी। पहले करणानुयोग के विषय का प्रतिपादन करने वाले इस तृतीय अध्याय के प्रारम्भ में अधोलोक का वर्णन करते हुए प्रथम सूत्र के अन्दर आचार्य उमास्वामी ने सात नरकों की बात बताई है—

अधोलोक का वर्णन—सात नरक पृथ्वियाँ

रत्नशर्कराबालुकापंकधूमतमोमहातम:प्रभाभूमयो घनाम्बु-वाताकाशप्रतिष्ठा: सप्ताऽधोऽध:।।१।।

अर्थ — रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातम:प्रभा ये सात भूमियाँ हैं और क्रम से नीचे-नीचे घनोदधिवातवलय, घनवातवलय, तनुवातवलय और आकाश के आधार हैं। अधोलोक में सात पृथ्वियाँ हैं, उनके नाम हैं—रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातम:प्रभा। जो एक के नीचे एक, ऐसे अध:—अध: मतलब नीचे-नीचे हैं। सबसे पहले पहला नरक, इसके नीचे दूसरा नरक, पुन: क्रम—क्रम से सातवाँ नरक सबसे नीचे है और उसके नीचे एक नित्य निगोद नाम का स्थान है जहाँ पर निगोदिया जीवों की खानि है, उसी अवस्था का वर्णन छहढालाकार ने किया है—‘‘एक श्वांस में अठ-दस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:खभार’’। निगोदिया जीव एक श्वांस में अठारह बार जनम-मरण करते हैं अर्थात् केवल जनम-मरण करना ही उनका कार्य होता है और वह गति केवल मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिलती है। कोई कषाय कर ले, विषयभोग कर ले, कितना भी कुछ कर ले उसे नरकगति में या तिर्यंचगति में जाना पड़ेगा, लेकिन निगोद पर्याय मिथ्यात्व के कारण ही मिलती है। सच को झूठ कहना, जो विद्यमान है उसे अविद्यमान कहना, ऐसी कितनी मिथ्या धारणाएँ इस जीव ने बना रखी हैं और इसी मिथ्यात्व के फलस्वरूप उसे निगोद में जाना पड़ता है। निगोदिया जीवों की बात अवधिज्ञानी को दिखती नहीं, इसलिए हे भव्यात्मन्! इस निगोद में अपने को नहीं जाना है, निगोदिया जीव की पर्याय को नहीं धारण करना है। वहाँ न तो कोई सम्बोधन है और न ही, किसी प्रकार का कोई उपदेश मिल सकता है। जब स्वयं में कर्म मन्द पड़ेंगे तब वहाँ से जीव निकलता है। जो सात पृथ्वियाँ बताई हैं वह बहुत बड़े—बड़े देश और उसके अन्दर स्थित अलग—अलग राज्यों के समान हैं। उन पृथ्वियों के अन्दर बिल के समान नरकों की संख्या बताई है जहाँ नारकी औंधे मुँह जाकर गिरते हैं। उन नरकों के बिलों की संख्या बताते हैं—

तासु त्रिशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनैकनरकशत-सहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम्।।२।।

अर्थ — उन पृथ्वियों में क्रम से पहली पृथ्वी में तीस लाख बिल हैं, दूसरी पृथ्वी में पच्चीस लाख, तीसरी पृथ्वी में पन्द्रह लाख, चौथी पृथ्वी में दस लाख, पाँचवीं पृथ्वी में तीन लाख, छठी पृथ्वी में ५ कम १ लाख और सातवीं पृथ्वी में केवल ५ बिल हैं। ये बिल जमीन में गड़े हुए ढोल की पोल के समान होते हैं। इस प्रकार इन सात नरकों की संख्या बताई गयी है जिसमें सातवीं पृथ्वी में बहुत हिंसक या व्रूâरकर्मा प्राणी ही जाते हैं। पंचमकाल में इस भरतक्षेत्र में जन्म लिया हुआ कोई भी प्राणी अर्थात् कोई भी मनुष्य या तिर्यंच इस सातवें नरक को प्राप्त नहीं कर सकता है क्योंकि उत्तम संहनन के द्वारा ही यह सम्भव है। जिस संहनन से मोक्ष की प्राप्ति होती है उसी संहनन से सातवें नर्वâ की प्राप्ति होती है अर्थात् अगर उस संहनन को प्राप्त कर तपस्या की तो मोक्ष की प्राप्ति और उसी संहनन से व्रूर कर्म किये तो सातवें नरक में जाना पड़ेगा। आज के मनुष्य छठे नरक तक तो जा सकते हैं पर सातवें नरक तक जाने की उनकी योग्यता नहीं है। उन नारकियों के दु:खों का वर्णन करते हुए आचार्यश्री उमास्वामी कहते हैं—

नारका नित्याशुभतरलेश्या परिणामदेहवेदना विक्रिया:।।३।।

अर्थ — नारकी जीव हमेशा ही अत्यन्त अशुभ लेश्या, परिणाम, शरीर, वेदना और विक्रिया के धारक होते हैं। नारकी जीव नित्य ही अशुभ लेश्या वाले हैं अर्थात् उनके अशुभ ही परिणाम रहते हैं, अशुभ ही लेश्या रहती है, उनके शरीर का रंग एकदम काला-काला रहता है और अशुभ वेदना—तीव्र वेदना है, अशुभ ही विक्रिया करते हैं, शुभ विक्रिया नहीं कर सकते कि कोई राजकुमार अथवा देव का रूप धारण कर लें, वे तो भाला, बरछी, नदी, पेड़, तलवार इन्हीं चीजों के रूपों को धारण करते हैं अर्थात् वहाँ सब कुछ अशुभ ही अशुभ होता है। यहाँ लेश्याओं से द्रव्य लेश्याओं का वर्णन है जो कि आयु पर्यन्त रहती हैं। भाव लेश्याएँ अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती हैं परन्तु वह परिवर्तन अपने ही अवान्तर भेद में होता है। पहली और दूसरी पृथ्वी के नारकियों के कापोत लेश्या होती है, तीसरी में ऊपर के बिलों में कापोत और नीचे के बिलों में नील लेश्या होती है। चौथी में नील लेश्या ही होती है। पाँचवीं में ऊपर के बिलों में नील और नीचे के बिलों में कृष्ण लेश्या होती है। छठी में कृष्ण लेश्या ही है और सातवीं में परम कृष्ण लेश्या है। इस तरह नीचे-नीचे अधिक-अधिक अशुभ लेश्या होती है। स्पर्श, गंध, वर्ण और शब्द को परिणमन कहते हैं। स्पर्श, रस, वर्ण, गन्ध, शब्द, संस्थान आदि अनेक प्रकार के पौद्गलिक परिणमन वहाँ के क्षेत्र की विशेषता के निमित्त से नीचे-नीचे अधिक-अधिक दु:ख के कारण होते गये हैं। पहली पृथ्वी में देह की ऊँचाई ७ धनुष, ३ हाथ और ६ अंगुल है। नीचे के नरकों में क्रम-क्रम से दूनी-दूनी ऊँचाई होती है। सातवें नरक में ऊँचाई ५०० धनुष होती है। पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी पृथ्वी में सिर्पâ उष्ण वेदना, पाँचवीं पृथ्वी के ऊपरी भाग में उष्ण और निचले भाग में शीत तथा छठी और सातवीं पृथ्वी में महाशीत की वेदना है। भूख-प्यास की वेदना अकथनीय है। वहाँ खाने को एक दाना भी नहीं है तथा पीने को एक बूँद पानी भी नहीं मिलता है, वहाँ उन्हें केवल वहाँ की महादुर्गन्धयुक्त मिट्टी ही खाकर रहना पड़ता है। भूमि के स्पर्श आदि की वेदना महादु:खदायी है। यह तो वहाँ क्षेत्रजनित वेदना है, वहाँ की पारस्परिक वेदना तथा असुर कुमारों द्वारा दी हुई वेदना अलग है। नारकी जीवों की विक्रिया नीचे अधिक-अधिक खोटी है। वे चाहते तो हैं करना शुभ विक्रिया, किन्तु उनके अशुभ कर्मोदय के कारण वह उनके तथा दूसरे नारकियों के लिए दुख:दायी है। छठे नरक तक तो अनेक प्रकार की विक्रिया हैं, वहाँ के नारकी अपने ही शरीर को नाना हथियार, जानवर रूप से बना लेते हैं किन्तु सातवें नरक में केवल एक गाय जैसे जानवर के समान ही पुन: विक्रिया कर सकते हैं। पुन: नारकियों के पारस्परिक दु:खों को बताते हुए सूत्र का अवतार होता है—

परस्परोदीरितदु:खा:।।४।।

अर्थ — वे नारकी जीव परस्पर में एक-दूसरे को दु:खों को उत्पन कराते हैं। नारकी जीव न तो स्वयं शांति से बैठते हैं और न ही दूसरों को शांति से बैठने देते हैं। बन्धुओं! इस अध्याय को एकाग्रचित्त होकर आपको सुनना है कि वहाँ पर कैसा दु:ख है ? कैसे वे एक दूसरे को दु:खी करते रहते हैं ? कहते रहते हैं कि मैं अगर दु:खी हूँ तो कोई भी सुखी न रहने पाये। आपस में वे कुअवधिज्ञान द्वारा एक दूसरे के वैर को याद करके कुत्तों के समान लड़ते हैं। वे बिल्ली-चूहा, सांप-नेवला की तरह एक दूसरे के जन्मजात शत्रु हैं। अपने शरीर से ही विक्रिया के द्वारा बनाए गए तलवार, वसूला, फरसा और बरछी आदि से तथा अपने हाथ-पाँव और दाँतों से छेदना, भेदना, छीलना और काटना आदि के द्वारा परस्पर अति तीव्र दु:ख को उत्पन्न करते हैं। एक-दूसरे के टुकड़े-टुकड़े कर डालने पर भी उनका अकालमरण नहीं होता है, वे पुन: पारे के समान जुड़ जाते हैं और लड़ते रहते हैं, दु:खी होते रहते हैं। नरकों में असुरकृत दु:ख भी है, उसका वर्णन करते हुए कहते हैं—

संक्लिष्टाऽसुरोदीरितदु:खाश्चप्राक् चतुथ्र्या:।।५।।

अर्थ — वे नारकी चौथी पृथ्वी से पहले-पहले अर्थात् तीसरी पृथ्वी पर्यंत अत्यन्त संक्लिष्ट परिणामों के धारक अम्बावरीष जाति के असुर कुमार देवों के द्वारा उत्पन्न दु:ख से सहित होते हैं। उनके इसी प्रकार की कषाय का उदय रहता है। इस सूत्र के द्वारा आचार्यश्री ने एक और विशेष बात बताई कि नारकी बेचारे स्वयं में दु:खी तो हैं ही पृथ्वी का असर ही ऐसा है लेकिन असुरकुमार जाति के देव उस तीसरी पृथ्वी तक जाकर—तीसरे नरक तक जाकर उन नारकियों को पूर्व भव की बातें याद दिला-दिला कर उन्हें संक्लिष्ट किया करते हैं, उन्हें और भी ज्यादा दु:खी किया करते हैं। देवता भी अगर चाहें तो उपकार के निमित्त से वहाँ पर सम्बोधन करने जा सकते हैं, जैसे—सीता का जीव रावण को संबोधित करने गया। आज भी इस पृथ्वीतल पर कोई लड़ाई लगवाता है तो उससे कहते हैं तुम असुरकुमार जाति के देव हो। वह असुरकुमार जिनका कार्य ही होता है लड़ाने का, वह नरक में भी पहुँच जाते हैं और वहां नारकियों से कहते हैं— अरे! इसने तो तेरी आँख में सुरमा अथवा काजल नहीं लगाया था बल्कि इसने तो सलाई चुभा दी थी, ऐसा कहकर उन्हें वैर भाव याद दिलाते हैं जिससे कि उनका वैर और बढ़ता चला जाता है और वे दु:खी ही दु:खी होते चले जाते हैं। नारकियों की उत्कृष्ट आयु बताई है—

तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वािंवशतित्रयिंस्त्रशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थिति:।।६।।

अर्थ — उन नरकों में नारकी जीवों की उत्कृष्ट स्थिति क्रम से एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दश सागर, सत्रह सागर, बाईस सागर और तेतीस सागर है। प्रश्न यह हुआ कि हे प्रभो! उन नरकों में कितने-कितने दिनों तक दु:खों को भोगना पड़ता है तो उस आयु के बारे में आचार्य श्री कहते हैं कि प्रथम नरक में नारकियों की उत्कृष्ट आयु एक सागर की है। सागर बहुत बड़ा होता है अगर आप छोटी-सी परिभाषा के रूप में भी उसको समझ लें तो दो लाख योजन का लवण समुद्र है उस समुद्र के पास में यदि कोई व्यक्ति बैठ जाये और सुई की नोक के अग्रभाग से लवण समुद्र का जल निकालने में लग जाये तो कितने दिन में वह जल निकलेगा लवण समुद्र का जल ? वह यहाँ के समुद्र का जल नहीं यहाँ तो पम्प खोल देते हैं थोड़ी देर में जल निकल जाता है और वहाँ सुई की नोंक के अग्रभाग से दो लाख योजन (अस्सी करोड़ मील) विस्तार वाला लवण समुद्र का जल कोई निकालने लगे। जितने समय में वह जल निकलेगा उतने समय का एक सागर है और उस सागर की उत्कृष्ट आयु को पहले नरक में भोगना पड़ता है। किसी ने वहाँ जाते समय उत्कृष्ट आयु का बंध कर लिया तो वहाँ से वह जीव नाना प्रयत्न करके भी किसी तरह से अकालमरण नहीं कर सकता, पूरी आयु उसको भोगनी ही पड़ेगी। दूसरे नरक में ३ सागर की आयु, तीसरे में ७ सागर, चौथे में १० सागर, पाँचवें में १७ सागर, छठे में २२ सागर और सातवें नरक की उत्कृष्ट आयु ३३ सागर है। नारकी ज्यादा से ज्यादा इतनी उत्कृष्ट आयु भोग सकता है। चूँकि नरक गति का प्रकरण चल रहा है अत: यहाँ यह बात आपको विशेष रूप से जानना है कि कौन-कौन से जीव मरकर किन-किन नरकों में जा सकते हैं और किन नरकों से निकलकर किस-किस गति को प्राप्त कर सकते हैं ? असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव पहले नरक तक जा सकता है। दूसरे में सरीसृप (एक विशेष जाति का सर्प), पक्षी तीसरे नरक तक, सर्प चौथे नरक तक, िंसह पाँचवें नरक तक, स्त्री छठे नरक तक, मनुष्यों में पुरुष, स्वयंभूरमण द्वीप में रहने वाला महामत्स्य तथा उसके कान में रहने वाला तंदुल मत्स्य सातवें नरक तक जा सकते हैं परन्तु वर्तमान में चूँकि उत्तम संहनन का अभाव है अत: सातवें नरक में कोई भी जीव नहीं जा सकते हैं। नारकी मरकर न तो पुन: नारकी होता है और न ही देवगति में जाता है, वह मरकर नियम से कर्मभूमि का पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य ही होता है, उसमें भी पहले के तीन नरकों से आकर तीर्थंकर भी हो सकते हैं। चौथे नरक से निकले जीव मनुष्य होकर निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। पाँचवें नरक से निकलकर मनुष्य हुए तो मुनि तक हो सकते हैं। छठे नरक से निकलकर मनुष्य हों या पशु, देशव्रती तक हो सकते हैं और सातवें नरक से निकले हुए जीव नियम से क्रूर पंचेन्द्रिय तिर्यंच होते हैं और वह पुन: नरक अवश्य जाते हैं। विशेषतय: किसी भी नरक से आए हुए जीव चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण अथवा प्रतिनारायण नहीं हो सकते, ऐसा नियम है। मध्यलोक का वर्णन अब मध्यलोक का वर्णन किया गया है। मध्यलोक की उस रचना के साक्षात् दर्शन आपको हस्तिनापुर में सुलभ हैं जिसे जम्बूद्वीप कहा जाता है उसके दर्शन कर आप उसे और अच्छी तरह से समझ सकते हैं। सर्वप्रथम कुछ द्वीप और समुद्रों के नाम बताते हैं—

जम्बूद्वीपलवणोदादय: शुभनामानोद्वीपसमुद्रा:।।७।।

अर्थ — इस मध्यलोक में अच्छे-अच्छे नाम वाले जम्बूद्वीप आदि द्वीप और लवण समुद्र आदि समुद्र हैं। इस मध्यलोक में जम्बूद्वीप आदिक नाम वाले अच्छे-अच्छे द्वीप हैं और लवण आदि नाम वाले अनेक समुद्र हैं। पहला द्वीप चूँकि जम्बूद्वीप है और पहला समुद्र लवण समुद्र है इसलिये उसका नाम लिया है कि ऐसे नाम वाले असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र मध्यलोक के अन्दर हैं। चित्रा पृथ्वी पर बीचोंबीच में थाली के आकार का एक लाख योजन व्यास वाला पहला द्वीप जम्बूद्वीप है। उसके चारों ओर पहला समुद्र लवण समुद्र है। उसके चारों ओर धातकीखण्ड द्वीप है। उसके चारों ओर कालोदधि समुद्र है। उसके चारों ओर पुष्करवर द्वीप, उसके चारों ओर पुष्करवर समुद्र है। पुष्करवर द्वीप के आधे के परे मानुषोत्तर पर्वत है। मानुषोत्तर पर्वत के पहले-पहले ढाई द्वीप कहलाता है जिसका विस्तार ४५ लाख योजन है। मनुष्य के आने-जाने की सीमा यहीं तक है, इसके आगे नहीं है। पुष्करवर समुद्र को घेरे हुए वारुणीवर द्वीप तथा वारुणीवर समुद्र है। फिर क्षीरवर द्वीप-क्षीरवर समुद्र है, इसी समुद्र के जल से देवगण भगवान का अभिषेक करते हैं और इसी में भगवान के केश विसर्जित करते हैं। छठा द्वीप घृतवर तथा छठा समुद्र घृतवर है, सातवां इक्षुवर द्वीप, इक्षुवर समुद्र, आठवाँ नन्दीश्वर द्वीप है, यहीं पर चारों दिशाओं में कुल ५२ अकृत्रिम चैत्यालय हैं, प्रत्येक आष्टान्हिक पर्व में देवगण जहाँ पूजा करते हैं। आगे नन्दीश्वर समुद्र, नवमां अरुणवर द्वीप, अरुणवर समुद्र, दसवाँ अरुणाभासवर द्वीप तथा अरुणाभासवर समुद्र है। ग्यारहवाँ कुण्डलवर द्वीप, कुण्डलवर समुद्र है। बारहवाँ शंखवर द्वीप तथा शंखवर समुद्र है। तेरहवाँ रुचकवर द्वीप है जिसके बीच में रुचक पर्वत है। इस पर्वत की निवासिनी ४८ देवियाँ तीर्थंकर माता की सेवा के लिए आती हैं। इस प्रकार एक-दूसरे को घेरे हुए असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं। सबसे अन्त में स्वयंभूरमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र है। मनुष्य क्षेत्र के बाहर सभी द्वीपों में जघन्य भोगभूमि की रचना है परन्तु स्वयंभूरमण द्वीप के उत्तरार्ध में, स्वयंभूरमण समुद्र की और चारों कोनों की रचना कर्मभूमि जैसी है क्योंकि विकलत्रय जीव कर्मभूमि में ही हैं, भोगभूमि में नहीं हैं। द्वीप और समुद्रों के विस्तार तथा आकार के बारे में बताते हैं—

द्विद्र्विर्विष्कम्भा: पूर्व-पूर्वपरिक्षेपिणोवलयाकृतय:।।८।।

अर्थ — प्रत्येक द्वीप दूने-दूने विस्तार वाले, पहले-पहले के द्वीप समुद्र को घेरे हुए तथा चूड़ी के आकार वाले हैं। इन द्वीप और समुद्रों का आकार बताया है। गोलाकार, वलयाकार मतलब चूड़ी, थाली के समान गोल ये द्वीप-समुद्र एक-दूसरे को घेरे हुए हैं अर्थात् सबसे पहले द्वीप फिर उसको घेरकर समुद्र फिर उसको घेरकर द्वीप, फिर उसको घेरकर समुद्र ऐसे द्वीप-समुद्र असंख्यात समुद्र तक चले जाते हैं। पहले द्वीप का जितना विस्तार है उससे दूना विस्तार दूसरे द्वीप का है और उससे दूना विस्तार दूसरे समुद्र का है। इसी प्रकार आगे-आगे दूने-दूने होते चले गये हैं। सर्वप्रथम जम्बूद्वीप का विस्तार तथा आकार बताते हैं—

तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तोयोजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीप:।।९।।

अर्थ — उन सब द्वीप—समुद्रों के बीच में सुदर्शन मेरू रूप नाभि से युक्त थाली के समान गोल और एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बूद्वीप है। उन सभी द्वीप—समुद्रों के बीच में जो पहला द्वीप जम्बूद्वीप है उस जम्बूद्वीप के मध्य भाग में जैसे शरीर के बीचों-बीच में नाभि है ऐसे ही ‘‘मेरोर्नाभिर्वृत्तो’’ बिल्कुल बीच में सुमेरु पर्वत है जिसकी ऊँचाई ‘‘योजन शतसहस्राणि’’ अर्थात् एक लाख योजन है और उसमें जो सुमेरु पर्वत है वह भी एक लाख योजन है अर्थात् जब उसका विस्तार मील में निकाला तो ४० करोड़ मील विस्तार वाला जम्बूद्वीप है और उसके बीच में जो सुमेरु पर्वत है वह भी इतनी ऊँचाई वाला है। हस्तिनापुर में केवल उस सुमेरु पर्वत को १०१ पुâट ऊँचा बनाया गया है। उस जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र हैं, जिसका वर्णन इस प्रकार है—

भरत-हैमवत-हरि-विदेह-रम्यक-हैरण्यवतैरावतवर्षा:-क्षेत्राणि।।१०।।

 अर्थ — इस जम्बूद्वीप में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये क्षेत्र सात हैं। उनके नाम हैं—भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत। ये सात क्षेत्र क्रम से हैं, बीचोंबीच में सुमेरु पर्वत है। अभी जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के सुमेरु पर्वत को आप आधार मान करके चलें। सुमेरु पर्वत में सारी रचना दक्षिण से शुरु होती है, दक्षिण में सबसे पहला भरतक्षेत्र, फिर हैमवत, फिर हरि क्षेत्र इस प्रकार तीन क्षेत्र तो सुमेरु पर्वत के दक्षिण में आ जाते हैं। सुमेरु पर्वत के पूरब और पश्चिम में विदेह क्षेत्र है उसके बाद उत्तर में तीन क्षेत्र आ जाते हैं—रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत, इस प्रकार ये सात क्षेत्र हुए। अब मैं अकृत्रिम सुमेरु के बारे में आपको बताती हूँ—भरतक्षेत्र के उत्तर में हिमवान् पर्वत है। पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण में लवण समुद्र है। भरतक्षेत्र के बीच में विजयार्ध पर्वत है वह पूर्व-पश्चिम लम्बा, २५ योजन ऊँचा तथा ५० योजन चौड़ा है। भूमि से १० योजन ऊपर जाने पर उस विजयार्ध पर्वत के दक्षिण तथा उत्तर में दो श्रेणियाँ हैं जिसमें विद्याधरों के नगर बसे हुए हैं। आगे १० योजन और जाने पर पर्वत के ऊपर दोनों ओर पुन: दो श्रेणियाँ हैं जिनमें व्यंतरदेव रहते हैं। वहाँ से ५ योजन ऊपर जाने पर विजयार्ध पर्वत का शिखरतल है जिस पर अनेक कूट बने हुए हैं। इस पर्वत में दो गुफाएँ हैं, हिमवान पर्वत से गिरकर गंगा-सिन्धु नदियाँ इन्हीं गुफाओं के नीचे से निकलकर दक्षिण भरत में आती हैं। विजयार्ध पर्वत तथा इन दोनों नदियों के कारण ही भरतक्षेत्र के छह खण्ड हो गये हैं जिसमें तीन खण्ड विजयार्ध के उत्तर में और तीन दक्षिण में हैं। दक्षिण के तीन खण्डों के बीच का खण्ड आर्यखण्ड कहलाता है, शेष ५ म्लेच्छ खण्ड हैं।
इन्हीं गुफाओं के द्वारा ही चक्रवर्ती उत्तर के तीन खण्डों को जीतने जाते हैं और वहीं से वापस आते हैं, इसी से इस पर्वत का नाम विजयार्ध सार्थक हैं क्योंकि यहाँ पहुँचने पर चक्रवर्ती की आधी विजय हो जाती है। उत्तर के तीन खण्डों के बीच के खण्ड में वृषभाचल पर्वत है, उस पर चक्रवर्ती पूर्ण दिग्विजय कर अपनी प्रशस्ति लिखते हैं। भरतक्षेत्र की भांति ही ऐरावत क्षेत्र की व्यवस्था हैं वहाँ विजयार्ध पर्वत और रक्ता-रक्तोदा नदी के कारण उसके भी सात खण्ड हो गये हैं। सभी क्षेत्रों के बीच में विदेह क्षेत्र है, जहाँ मनुष्य आत्मध्यान करके कर्मों को नष्ट कर सदैव देह के बन्धन से छूटकर देवालय—सिद्धालय में विराजमान हो जाते हैं इसीलिए इसका ‘विदेह’ यह सार्थक नाम है। यह निषध और नील के बीच में स्थित है, इसी विदेह क्षेत्र के बीचोंबीच में सुमेरु पर्वत है। सुमेरु के पूर्व दिशा भाग को पूर्व विदेह और पश्चिम दिशा भाग को पश्चिम विदेह कहते हैं। नील पर्वत से निकलकर सीता नदी पूर्व विदेह के मध्य तथा निषध पर्वत से निकलकर सीतोदा नदी पश्चिम विदेह के मध्य बहती है। इन्हीं नदियों के कारण पूर्व विदेह के २ एवं पश्चिम विदेह के २ ऐसे ४ भाग हो गये हैं और ८-८ उपविभाग हो गये हैं। प्रत्येक उपविभाग एक-एक स्वतन्त्र देश की तरह हैं अत: विदेह क्षेत्र के ३२ भाग हो गए, विदेह क्षेत्र के २० विहरमाण तीर्थंकरों में से जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में सीमन्धर और युगमन्धर ऐसे दो तीर्थंकर और पश्चिम विदेह में बाहु-सुबाहु नाम के दो तीर्थंकर आज विद्यमान हैं। जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में सम्पूर्ण विश्व है, जिसमें अयोध्या नगरी बिल्कुल मध्य में है। हैमवत, हरि, रम्यक और हैरण्यवत क्षेत्र मेेंं भोगभूमि हैं जिसमें हैमवत और हैरण्यवत में जघन्य भोगभूमि, हरि और रम्यक में मध्यम तथा विदेह के देवकुरु और उत्तरकुरु में उत्तम भोगभूमि है। तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ में वर्णन आया है कि भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में पृथ्वी ५ हजार मील ऊँची उठी हुई है, उसका क्षेत्र आधी गेंद के समान है जो छठे काल के अन्त में बिखर जाता है, आज के वैज्ञानिक पृथ्वी को गेंद के समान गोल कहते हैं किन्तु जैन सिद्धान्त के अनुसार यह सही नहीं है। अब षट् कुलाचलों के बारे में बताते हैं—

तद्विभाजिन: पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनील-रुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वता:।।११।।

अर्थ — उन सात क्षेत्रों को विभक्त करने वाले छह वर्षधर अर्थात् कुलाचल पर्वत हैं—हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये उनके नाम हैं। क्षेत्रों के विभाग को बनाये रखने के कारण इनको वर्षधर कहा है। भरत और हैमवत क्षेत्र के बीच में हिमवान् पर्वत है जो १०० योजन ऊँचा है, हैमवत-हरि के बीच में महाहिमवान् है जो २०० योजन ऊँचा है। हरि और विदेह के मध्य निषध पर्वत ४०० योजन ऊँचा है। पुन: विदेह और रम्यक् क्षेत्र के बीच में नील पर्वत ४०० योजन ऊँचा है। रम्यक् और हैरण्यवत के मध्य रुक्मी पर्वत २०० योजन ऊँचा है तथा हैरण्यवत और ऐरावत क्षेत्र के बीच में शिखरी पर्वत १०० योजन ऊँचा है। ये सभी पर्वत पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक लम्बे हैं, जिसे हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप के अन्दर दर्शाया गया है। कुलाचलों के वर्ण बताते हैं—

हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममया:।।१२।।

अर्थ — उन पर्वतों के रंग क्रम से सोने के समान, चाँदी के समान, तपाये हुए स्वर्ण के समान, वैडूर्यमणि अर्थात् नीलमणि के समान और उसके बाद चाँदी और स्वर्ण के समान वर्ण वाले हैं। उन पर्वतों की क्या विशेषता है सो ही बताते हैं—

मणि-विचित्र-पाश्र्वा उपरि मूले च तुल्य विस्तारा:।।१३।।

अर्थ — वह पर्वत अगल-बगल से अर्थात् दोनों ओर से अनेक प्रकार की विचित्र और सुन्दर-सुन्दर मणियों से बने हुए ऊपर, नीचे और मध्य में एक समान विस्तार वाले हैं। उन कुलाचलों पर स्थित सरोवरों के नाम क्या हैं—

पद्ममहापद्मतिगिञ्छकेसरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका हृदास्तेषामुपरि।।१४।।

अर्थ — उन पर्वतों पर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिञ्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक नाम के हृद—सरोवर हैं। हिमवान पर्वत पर पद्म सरोवर, महाहिमवान पर्वत पर महापद्म, निषध पर तिगिञ्छ, नील पर केसरी, रुक्मि पर्वत पर महापुण्डरीक सरोवर तथा शिखरी पर्वत पर पुण्डरीक सरोवर है। प्रथम सरोवर की लम्बाई-चौड़ाई बताई है—

प्रथमो योजन-सहस्रायामस्तदद्र्धविष्कम्भो हृद:।।१५।।

 अर्थ — पहला सरोवर एक हजार योजन लम्बा और ५०० योजन चौड़ा है। हिमवान पर्वत पर जो पद्म नाम का सरोवर है उसकी लम्बाई और चौड़ाई इसमें बताई है। इसकी गहराई कितनी है, इस प्रश्न के उत्तर में बताया है—

दशयोजनावगाह:।।१६।।

अर्थ — इस पद्म सरोवर की गहराई दस योजन है। उसके मध्य में क्या है ? सो ही बताते हैं—

तन्मध्ये योजनं पुष्करम्।।१७।।

अर्थ — उसके बीच में एक योजन विस्तार वाला कमल है। तालाब की शोभा कमल से होती है, बिना कमल के तालाब की शोभा नहीं होती। उन अकृत्रिम रचनाओं के अन्दर जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं के साथ-साथ प्राकृतिक सौन्दर्य भरपूर है। कोई चीज ऐसी नहीं है कि जो उन अकृत्रिम रचनाओं में नहीं हो। उस सरोवर में किसी इन्द्र ने आकर उस कमल की रचना नहीं की वह तो अकृत्रिम है, अनादिनिधन है न तो उसको किसी ने बनाया है और न ही उसको कोई नष्ट कर सकता है। वह कमल वनस्पतिकायिक नहीं हैं पृथ्वीकायिक हैं, पद्म सरोवर के बीच में जो कमल है वह एक योजन लम्बा-चौड़ा है। इसमें कमल के एक हजार पत्ते हैं। महापद्म आदि सरोवर तथा उसमें स्थित कमलों का प्रमाण बताया है—

तद्द्विगुणद्विगुणा हृदा: पुष्कराणि च।।१८।।

अर्थ — आगे के सरोवर और कमल क्रम से प्रथम सरोवर तथा उसके कमल से दूने-दूने विस्तार वाले हैं। अर्थात् आगे-आगे जो पर्वत हैं, उन पर्वतों पर बने सरोवर में जो कमल हैं वह सबके द्विगुण-द्विगुण अर्थात् पहले तालाब से आगे के तालाब के कमल दूने विस्तार वाले हैं। तालाबों की लम्बाई-चौड़ाई भी दूने-दूने विस्तार वाली है ऐसा जानना। सुमेरु पर्वत से आगे-आगे जितनी लम्बाई-चौड़ाई आदि का विस्तार बढ़ गया है वहीं तक बढ़ेगा उसके बाद उत्तर में ठीक वैसे ही दक्षिण के समान रचना हो जायेगी अर्थात् यह दूने-दूने का क्रम तिगिञ्छ नामक तीसरे सरोवर तक ही है। उसके आगे तीन सरोवर और कमल दक्षिण सरोवर के कमलों के समान विस्तार वाले हैं। उन कमलों में रहने वाली देवियों के बारे में बताया है—

तन्निवासिन्यो देव्य: श्रीह्रीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्य: पल्योपम स्थितय: ससामानिक परिषत्का:।।१९।।

अर्थ — एक पल्य की आयु वाली तथा सामानिक और पारिषद जाति के देवों से सहित श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नाम की देवियाँ क्रम से उन सरोवरों के कमलों पर निवास करती हैं। उन कमलों की कर्णिका के मध्य भाग में एक कोस लम्बे, आधा कोस चौड़े और कुछ कम एक कोस ऊँचे सपेâद रंग के महल हैं। उन भवनों के अन्दर यह व्यंतर जाति की देवियाँ निवास करती हैं। उनके नाम हैं—श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी। इन देवियों की आयु एक पल्य की है और वे सामानिक और पारिषद जाति के देवों के साथ उन कमलों के ऊपर निवास करती हैं। इन्हीं सरोवरों में जो अन्य छोटे परिवार कमल हैं, उन पर सामानिक और पारिषद देव रहते हैं। यह वही देवियाँ हैं जिन्हें सौधर्म इन्द्र भगवान के पंचकल्याणक में गर्भकल्याणक से लेकर जन्मकल्याणक तक दिक्कुमारियों के रूप में माता की सेवा करने के लिये लाते हैं। चौदह महानदियों के नाम बताते हैं—

गंगासिन्धुरोहिद्रोरोहितास्याहरिद्धहरिकान्तासीतासीतोदानारी-

नरकान्तासुवर्णरुप्यवूâलारक्तारक्तोदा: सरितस्तन्मध्यगा:।।२०।।

अर्थ — गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकांता, सुवर्णवूâला-रुप्यवूâला, और रक्ता-रक्तोदा ये चौदह नदियाँ जम्बूद्वीप के पूर्वोक्त ७ क्षेत्रों के बीच में बहती हैं। जब हम कहीं पिकनिक स्पॉट पर जाते हैं, वहां हरियाली, फल-पूâल, अच्छे-अच्छे लॉन दिख जाते हैं, तो हम खुश हो जाते हैं लेकिन उसके साथ एक बार दृष्टि दौड़ जाती है कि कहीं स्विमिंग पुल बना है क्या ? कहीं कोई झरना बना है क्या ? वह आँखें उस सुन्दरता को और भी अच्छी तरह से देखना चाहती हैं उसी प्रकार इन अकृत्रिम चैत्यालयों को भी इनसे अछूता नहीं रखा गया। पर्वतों से भी नदियाँ निकलती हैं, जम्बूद्वीप के अन्दर चौदह नदियाँ बहती हैं जिनके नाम बताये हैं—गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णवूâला-रूप्यकूला, रक्ता-रक्तोदा। आप हस्तिनापुर के जम्बूद्वीप में भी देखेंगे कि बराबर इन नदियों के नाम लिखे हुए हैं। जब भरतक्षेत्र के पास आते हैं जहाँ से नाव में बैठना शुरू करते हैं उस जगह से खड़े होकर आप देखें तो अन्दर की ओर सुन्दर सा नक्शा रखा हुआ है जो विश्व का नक्शा है, आर्यखण्ड की सृष्टि को दर्शाता है। वहाँ से हिमवन पर्वत दिखता है जहाँ से दो नदियाँ निकलती हैं वहाँ लिखा हुआ है गंगा नदी-सिन्धु नदी। हिमवन पर्वत से जाने वाली नदी जो पूर्व की ओर जा रही है वह गंगा नदी है, पश्चिम लवण समुद्र की ओर निकलने वाली सिन्धु नदी है और उसी सरोवर के पीछे की ओर जो नदी निकलती है वह रोहित नदी है, इस प्रकार इस पर्वत से ये तीन नदियाँ निकलती हैं। इसी प्रकार पुण्डरीक नामक सरोवर से रक्ता-रक्तोदा और सुवर्णवूâला ये तीन नदियाँ निकलती हैं तथा शेष सरोवरों से क्रमश: दो-दो नदियाँ निकलती हैं। इनमें से जो नदियाँ पूर्व की ओर बहती हैं, उनके बारे में बताते हैं—

द्वयो द्र्वयो: पूर्वा: पूर्वगा:।।२१।।

अर्थ — गंगा-सिन्धु इत्यादि दो-दो नदियों में से पहली-पहली नदी पूर्व समुद्र की ओर जाती है अर्थात् गंगा, रोहित, हरित, सीता, नारी, सुवर्णवूâला और रक्ता ये सात नदियाँ पूर्व समुद्र में जाकर मिलती हैं। इन दो-दो नदियों का जोड़ा है गंगा-सिन्धु का जोड़ा है, रोहित-रोहितास्या का जोड़ा है इत्यादि, इन युगल में से पूर्वा पूर्वगा:—जो पहले-पहले की नदी है जैसे—गंगा नदी है, रोहित नदी है वह पूर्व की ओर बहती है और जो लवण समुद्र में पूर्व की ओर से जाकर मिलती है। पश्चिम की ओर बहने वाली नदियों के बारे में बताते हैं—

शेषास्त्वपरगा:।।२२।।

अर्थ — बाकी बची हुई सात नदियाँ पश्चिम की ओर जाती हैं। जैसे—गंगा-सिन्धु में सिन्धु आदि। इस सूत्र में कहा है कि जो दूसरी-दूसरी नदियाँ हैं—सिन्धु, रोहितास्या, हरिकान्ता, सीतोदा, नरकान्ता, रूप्यवूâला और रक्तोदा नदी, ये पश्चिम समुद्र की ओर आती हैं। मिलती तो सारी लवण समुद्र में ही हैं लेकिन इनके बहने का केवल क्रम बताया है कि एक पूरब की ओर जाती है तो एक पश्चिम की ओर जाती है। इन महानदियों की सहायक नदियाँ कितनी हैं, सो ही बताते हैं—

चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृतागंगासिन्ध्वादयो नद्य:।।२३।।

अर्थ — गंगा, सिन्धु आदि नदियों के युगल चौदह हजार सहायक नदियों से घिरे हुए हैं। चौदह महानदियाँ हैं और इन दो-दो युगल अर्थात् गंगा-सिन्धु आदि चौदह नदियों की चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ हैं जो छोटी-छोटी नदियों के रूप में बहती हैं। इन सहायक नदियों की संख्या का क्रम भी विदेह क्षेत्र तक आगे-आगे के युगलों में पहले युगलों से दूना-दूना है और उत्तर के तीन क्षेत्रों में दक्षिण के तीन क्षेत्रों के समान है। जैसे—गंगा-सिन्धु की १४ हजार, रोहित-रोहितास्या की २८ हजार, हरित-हरिकान्ता की ५६ हजार, सीता-सीतोदा की १ लाख १२ हजार, नारी-नरकांता की ५६ हजार, सुवर्णकूला-रुप्यकूला की २८ हजार तथा रक्ता-रक्तोदा की १४ हजार। अब भरतक्षेत्र का विस्तार बताते हैं—

भरत: षड्विंशतिपंचयोजनशतविस्तार:षट्चैकोनविंशति-भागा: योजनस्य।।२४।।

अर्थ — भरतक्षेत्र ५२६ योजन विस्तार वाला और एक योजन के उन्नीसवें भागों में से छह भाग अधिक है। इतनी सारी रचना के बीच में अपना भरत क्षेत्र कहाँ हैं ? हम लोग कहाँ रहते हैं ? इस बात को बताने के लिये यह सूत्र मुख्य रूप से कहा है कि जम्बूद्वीप के बीचों-बीच में जो सुमेरु पर्वत है उसके ठीक दक्षिण में भरतक्षेत्र है अर्थात् यह भरतक्षेत्र ५२६—६/१९ योजन विस्तार वाला है और सुमेरु पर्वत के दक्षिण में स्थित है। पूरे जम्बूद्वीप के बहुत छोटे से हिस्से में भरतक्षेत्र है जिसके अन्दर छह खण्ड हैं—पाँच म्लेच्छखण्ड तथा एक आर्यखण्ड। उसी आर्यखण्ड में आज का सारा उपलब्ध विश्व है। हम सभी से यदि पूछा जाये कि हम कहाँ रहते हैं ? तो हम भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में रहते हैं, यह आपको बताना पड़ेगा। जो छह महाद्वीप हैं सबके सब जैन आगम के अनुसार इसी आर्यखण्ड के अन्दर हैं।

तद्द्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ता:।।२५।।

अर्थ — विदेह क्षेत्र पर्यन्त यह सारे पर्वत और क्षेत्र भरत क्षेत्र से दूने-दूने विस्तार वाले हैं। जैसे भरतक्षेत्र का जो विस्तार बताया है, हैमवत क्षेत्र उससे दूने विस्तार वाला है, हैमवत के बाद हरि क्षेत्र उससे दूने विस्तार वाला है और ‘‘तद्द्विगुण द्विगुण विस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ता:’’ अर्थात् विदेह क्षेत्र तक यह दूने विस्तार वाले हैं। विदेह क्षेत्र के आगे के पर्वत और क्षेत्रों का विस्तार कितना-कितना है, यह बताने के लिये आगे का सूत्र कहा है—

उत्तरा दक्षिण तुल्या:।।२६।।

अर्थ — विदेह क्षेत्र के उत्तर के तीन पर्वत व तीन क्षेत्र दक्षिण के पर्वत और क्षेत्रों के समान विस्तार वाले हैं। इधर के समान ही जितना भरत क्षेत्र का विस्तार है उतना ऐरावत क्षेत्र का विस्तार है, ऐसे दक्षिण के समान उत्तर की रचना हो जाती है। भरत और ऐरावत क्षेत्र में कालचक्र के परिवर्तन के बारे में बताते हुए आचार्यश्री सूत्र कहते हैं—

भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यव-सर्पिणीभ्याम्।।२७।।

अर्थ — छह कालों से युक्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के द्वारा भरत और ऐरावत क्षेत्र में जीवों के अनुभव आदि की वृद्धि और न्यूनता होती रहती है। भरत और ऐरावत यह जो दो क्षेत्र हैं उनमें वृद्धि और ह्रास चला करता है। ‘षट्समयाभ्याम्’’ अर्थात् षट्काल परिवर्तन, वह कैसे? उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के विभाजन से उसमें षट्काल का परिवर्तन चलता है। आज उसी काल परिवर्तन के अनुसार आपके इस भरतक्षेत्र में पंचमकाल चल रहा है। इस काल का नाम क्या है ? ‘‘दु:षमाकाल’’। एक अवसर्पिणी काल होता है तथा एक उत्सर्पिणी काल होता है। उत्सर्पिणी काल में मनुष्य की आयु, शरीर और सभी चीजें वृद्धि को प्राप्त होती चली जाती हैं और जिसमें यह सब चीजें ह्रास को प्राप्त होती चली जाती है वह अपसर्पिणी काल है। अवर्सिपणी काल में भी असंख्यात अवसर्पिणी के बीत जाने पर एक हुण्डावसर्पिणी काल आता है जो अत्यन्त खराब माना जाता है। उसी हुण्डावसर्पिणी काल का यह पंचमकाल अभी प्रवर्तन कर रहा है। इस बात को हमें विशेष रूप से जानना पड़ेगा कि यह काल २१ हजार वर्ष का है और अभी इसमें केवल ढ़ाई हजार साल बीते हैं। भगवान महावीर को मोक्ष गए हुए लगभग २५३९ वर्ष हुए बाकी लगभग साढ़े अठारह हजार साल इस पंचम काल में अभी शेष रहे हैं तब तक बराबर धर्म चलता रहेगा। कई बार लोग हस्तिनापुर में आकर जम्बूद्वीप की रचना देखकर माताजी से पूछते हैं कि माताजी! यह जम्बूद्वीप कहाँ की रचना है ? यह स्वर्ग में बनी है क्या ? विदेह क्षेत्र में बनी है क्या ? उनके प्रश्नों को सुनकर मुझे हंसी आ जाती है लेकिन माताजी कहती हैं कि स्वाध्याय के अभाव में ऐसा प्रश्न निकलता है। जम्बूद्वीप का वर्णन तो बहुत दिनों से सुनते थे चाहे वह जैन ग्रन्थ हों या वैदिक परम्परा के ग्रन्थ, आज भी अगर छोटा-सा भी काम हुआ तो भी मंत्र पढ़ा जाता है ‘‘अथाद्ये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे भारतदेशे अमुक प्रदेशे अमुकस्य ग्रामे एतत कार्यम् करोम्यहम्’’, लेकिन दृष्टि नहीं जाती है कि क्या है जम्बूद्वीप ? उसमें कहाँ है भरतक्षेत्र ? कहाँ है आर्यखण्ड ? अगर हम स्वाध्याय करने लग जाएं और इस तीसरी अध्याय को पूरी तरह से वंठस्थ कर लें और पूरी तरह से आँखों के सामने प्रत्यक्ष रूप से उसका ध्यान कर लें तो हमारा प्रश्न बदल जायेगा फिर हम पूछेंगे माताजी! जम्बूद्वीप में हमारा प्रदेश कहाँ हैं और प्रदेश के अन्दर शहर कहाँ है ? जम्बूद्वीप तो विशाल सृष्टि का नाम है।
श्रीमती इन्दिरा गाँधी जी से सन् १९८२ में ‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति’ का प्रवर्तन कराना था। पूज्य माताजी की इच्छा थी कि देश के प्रधानमन्त्री द्वारा इसका उद्घाटन कराया जाये, हम लोग डेपुटेशन लेकर इंदिरा गाँधी के पास गये कि आपको ‘‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति’’ नाम के एक रथ का उद्घाटन करना है। उन्होंने जम्बूद्वीप का स्वरूप समझा कि यह क्या है ? हमने कहा कि जम्बूद्वीप बहुत बड़े भूमण्डल का नाम है। वह सोचने लगीं कि कहीं ऐसा न हो कि जैनी लोग भूमण्डल पर अधिकार जमाने के लिये ऐसा कह रहे हों, वे बोलीं कि हमें सोचने दीजिये। उसके बाद दूसरी बार हम लोग उनसे मिलने के लिये गये और इटली से प्रकाशित एक पुस्तक उनको दिखाई जो अभी भी हस्तिनापुर की लाइब्रेरी में है ‘‘जैन कॉस्मोलॉजी’’, इसके लेखक रवि जैन हैं। उन्होंने बहुत ही पौराणिक ग्रन्थों का आधार लेकर उसमें बहुत सारे चित्र दिये हैं और रंगीन चित्रों के माध्यम से जम्बूद्वीप के एक-एक पार्ट की बात बताई है। उस पुस्तक को देख इन्दिरा जी खुश होकर कहने लगीं—अरे! मैं स्वयं ब्राह्मण कुल में पैदा हुई हूँ और मैंने तो जन्म से ही इस मन्त्र को सुना है। क्या यह वही जम्बूद्वीप है ? हमने कहा—हाँ, यह वही जम्बूद्वीप है। फिर उन्होंने कुछ भी नहीं सोचा और बोलीं मैं ४ जून को आऊँगी, लाल किला मैदान से इसका उद्घाटन होगा, पुन: ४ जून को चिलचिलाती धूप के अन्दर इन्दिरा जी आर्इं और उस ज्ञानज्योति का उद्घाटन करते हुए उन्होंने बहुत ही अच्छे उद्गार व्यक्त किये कि मेरी मंगल कामना है कि जहाँ-जहाँ यह ज्योति जाएगी, जम्बूद्वीप के बारे में सबको ज्ञान का प्रकाश प्रदान करेगी। बन्धुओं! मुख्य बात यह है कि जब तक हम किसी बात से अनभिज्ञ रहते हैं, तब तक ऐसी ही विचारधाराएँ बनी रहती हैं। मैं स्वयं बताती हूँ कि आज से ३०-३५ साल पहले जब चर्चायें चलती थीं, माताजी मोतीचंद जी और रवीन्द्र जी को जम्बूद्वीप की बात बताती थीं कि ऐसे नक्शा बनाना है, ऐसे यहाँ पर यह नदी देनी है, यह पर्वत देना है, यह चैत्यालय देना है, मैं सोचती थी कि पता नहीं यह क्या है ? बैठने का मन भी नहीं करता था, कोई रुचि भी नहीं लेती थी लेकिन जब धीरे-धीरे वह धरती पर उतरने लगा और उसके बारे में ज्ञान हो गया तो असीम आनन्द की अनुभूति हुई। अब जब मैं आपको इस अध्याय का पारायण करके सुना रही हूँ तो पारायण यहाँ हो रहा है लेकिन मेरी अन्तर्दृष्टि सारी की सारी वहाँ पहुँच जाती है इसलिये कि हमने उसको हृदयंगम किया है कि कहाँ है हिमवान पर्वत, कहाँ है भरत क्षेत्र, कहाँ है ऐरावत क्षेत्र, सारी की सारी चीज यहाँ बैठे हुए भी मन के अन्दर दिख जाती है। मैं चाहती हूँ कि आप लोग इस अध्याय का अध्ययन करने के बाद जम्बूद्वीप में जाएँ, एक-एक पार्ट को सूक्ष्मता से देखें ताकि आप अपने बच्चों को बता सवेंâ कि हमने जम्बूद्वीप में क्या-क्या देखा, यह अध्याय केवल शास्त्रों में सीमित नहीं है बल्कि वह धरती पर साकार हो गयी है और उसका ज्ञान हम लोगों को प्राप्त हो गया है।
एक लेखक ने अज्ञानता के बारे में लिखा है कि— ” जब आकाश में तारे भी नहीं हों, चाँद भी नहीं हो तो वह बिल्कुल अंधियारी रात कही जाती है, उस मस्तिष्क को भी अंधियारी रात की उपमा दी है कि अज्ञानता मन की वह अंधेरी रात है जिसमें न चाँद है और न तारे।’ वास्तव में देखा जाए तो जितना-जितना ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है उतना-उतना अज्ञान छंटने लग जाता है और उतना-उतना प्रकाश हमारे मन के अन्दर प्रगटित होने लग जाता है। अब मैं आपको कालचक्र के बारे में विस्तार से बताती हूँ— बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है, उसके अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी ऐसे दो भेद हैं। जिस काल में जीवों के अनुभव, उपयोग, आयु और शरीर आदि की उत्तरोत्तर उन्नति हो वह उत्सर्पिणी और जिसमें जीवों के ज्ञान, आयु आदि का ह्रास होता है वह अवसर्पिणी है। अवसर्पिणी के छह भेद हैं # सुषमासुषमा # सुषमा # सुषमादु:षमा # दु:षमासुषमा # दु:षमा # अतिदु:षमा और उत्सर्पिणी अतिदु:षमा के क्रम से छह प्रकार की है। अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी दोनों ही १० कोड़ाकोड़ी सागर की होती है। इस प्रकार २० कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। इन छ: भेदों के काल का नियम इस प्रकार है— # सुषमासुषमा—४ कोड़ाकोड़ी सागर # सुषमा—३ कोड़ाकोड़ी सागर # सुषमादु:षमा—२ कोड़ाकोड़ी सागर # दु:षमासुषमा—४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर # दु:षमा—२१ हजार वर्ष # अतिदु:षमा—२१ हजार वर्ष। इसमें पहले काल में उत्तम भोगभूमि, दूसरे काल में मध्यम भोगभूमि और तीसरे काल में जघन्य भोगभूमि होती है। चौथे काल में केवल आर्यखण्ड में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण आदि शलाका पुरुष होते हैं। इनके प्रारम्भ में मनुष्य विदेह क्षेत्र के समान होते हैं। वर्तमान में पंचमकाल चल रहा है फिर २१ हजार वर्ष का छठा काल आयेगा जिसमें मुनि, श्रावक तथा धर्म का अभाव रहता है। इस छठे काल के अन्त में भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में प्रलयकाल आता है, इसमें ७-७ दिन तक होने वाली ७ प्रकार की वर्षा के वेग से पहाड़ तक चूर-चूर हो जाते हैं, मनुष्य मर जाते हैं। बहुत से मनुष्य युगल पर्वतों की गुफाओं में छिपकर अपनी रक्षा कर लेते हैं। विष और आग की वर्षा से तो एक योजन नीचे तक भूमि चूर्ण हो जाती है। इसके बाद उत्सर्पिणी अतिदु:षमा काल से प्रारम्भ होती है उसके आरम्भ में सात सप्ताह तक सात-सात प्रकार की सुवृष्टि होती है, उससे पृथ्वी की गर्मी शान्त हो जाती है और लता-वृक्ष आदि उगने लगते हैं। तब तक वे छिपे हुए मनुष्य युगल अपने-अपने स्थानों से निकलकर पृथ्वी पर बसने लगते हैं।
दूसरे दुषमाकाल में २० हजार वर्ष बीतने पर जब एक हजार वर्ष शेष रहते हैं तो कुलकर पैदा होते हैं जो मनुष्यों को अनेक प्रकार के कुलाचार, भोजन पकाने आदि की शिक्षा प्रदान करते हैं। पुन: तीसरा दु:षमा-सुषमा काल आता है इसमें ६३ श्लाका पुरुष उत्पन्न होते हैं। इसके पश्चात् चौथे सुषमा-दु:षमा काल में जघन्य भोगभूमि, पाँचवें सुषमाकाल में मध्यम भोगभूमि और सुषमा-सुषमा काल में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। उत्सर्पिणी काल समाप्त होने पर पुन: अवसर्पिणी काल प्रारम्भ हो जाता है। असंख्यात अवसर्पिणी बीत जाने पर एक हुण्डावसर्पिणी काल आता है जो अभी चल रहा है। इसमें असम्भव घटनायें जैसे—तीर्थंकर पर उपसर्ग, चक्रवर्ती का अपमान आदि अघटित घटनायें घटती रहती हैं। यह जो काल परिवर्तन है यह मात्र भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में होता है और प्रलय आदि भी यहीं होती है, विदेह क्षेत्र के आर्यखण्डों में नहीं। भरत और ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी म्लेच्छखण्डों तथा विजयार्ध पर्वत की श्रेणियों में अवसर्पिणी काल के समय चतुर्थकाल के आदि से लेकर अन्त तक परिवर्तन होता है और उत्सर्पिणी काल के समय तृतीय काल के अन्त से लेकर आदि तक परिवर्तन होता है और इनमें प्रलयकाल भी नहीं होता। विशेष बात यह है कि मोक्षमार्ग केवल आर्यखण्डों में है, म्लेच्छखण्डों में नहीं है। अन्य भूमियों की व्यवस्था बताते हैं—

ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिता:।।२८।।

अर्थ — भरत और ऐरावत के सिवाय अन्य क्षेत्रों में एक समान व्यवस्था रहती है—उनमें काल का परिवर्तन नहीं होता है। उन भरत और ऐरावत से अतिरिक्त अन्य जो क्षेत्र हैं वहाँ पर आयु आदि घटती-बढ़तीरहित होती है। केवल इन दो ही क्षेत्रों में षट्काल का परिवर्तन होता है बाकी कहीं भी परिवर्तन नहीं होता। हैमवत आदि क्षेत्रों में आयु की व्यवस्था बताई है—

एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहारिवर्षकदैव-कुरवका:।।२९।।

अर्थ — हैमवत, हरि और देवकुरु के निवासी मनुष्य, तिर्यंच क्रम से एक पल्य, दो पल्य और तीन पल्य की आयु वाले हैं। हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप में सुमेरू पर्वत के आजू-बाजू में दो वृक्ष हैं—जम्बूवक्ष और शाल्मलि वृक्ष। जम्बूवृक्ष में जामुन लटक रहे हैं कई बार लोग आते हैं उन्हें तोड़ लेते हैं। बहुत सारे जामुन कम हो गये, लोग तोड़ करके ले गये, लेकिन करेंगे क्या ? खाया नहीं जायेगा क्योंकि वह तो धातु के बने हैं लेकिन बिल्कुल सचमुच के जामुन की तरह दिखते हैं। बन्दर भी सचमुच के जामुन समझकर तोड़कर ले जाते हैं। वहाँ जो पेड़ लगे हुए हैं उसमें एक ओर देवकुरू और एक ओर उत्तरकुरू है जहाँ उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है उसी भोगभूमि की व्यवस्था बताते हुये कहा है कि वहाँ के निवासी मनुष्य और तिर्यंच एक पल्य, दो पल्य और तीन पल्य की आयु वाले हैं। जघन्य भोगभूमि में एक पल्य की, मध्यम में दो पल्य की और उत्तम भोगभूमि में तीन पल्य की आयु होती है। इसी भोगभूमि के बारे में आदिपुराण में कथानक आता है कि राजा वङ्काजंघ और रानी श्रीमती कमरे में सोते हुए मर गये थे, सिर्पâ आहारदान के प्रभाव से उन्होंने जो पुण्यकर्म संचित किया था उसके पुण्यफल से वह जाकर इसी भोगभूमि में उत्पन्न हुए वस्तुत: त्यागियों को दिया हुआ दान कभी भी बेकार नहीं जाता, उत्कृष्ट भोगभूमि के अन्दर उन्होंने तीन पल्य की आयु व्यतीत की थी। भोगभूमि की यह विशेषता है कि वहाँ के मनुष्य युवा, रोगरहित, वेदनारहित हैं। मरते समय पुरुषों को जम्भाई और स्त्री को छींक आती है जिससे उनका मरण हो जाता है और शरीर कपूर की भांति उड़ जाता है। यहाँ पुण्य-पाप विशेष नहीं हैं, सम्यक्त्व किसी-किसी को होता है। मरने पर मिथ्यादृष्टि भवनत्रिक में और सम्यग्दृष्टि सौधर्म-ईशान स्वर्ग में जन्म लेते हैं। भोगभूमि में सभी कल्पवृक्षों द्वारा अपना जीवन सानन्द व्यतीत करते हैं।

तथोत्तरा:।।३०।।

अर्थ — उत्तर के क्षेत्रों में मनुष्यों तथा तिर्यंचों की आयु हैमवत आदि क्षेत्रों के मनुष्यों व तिर्यंचों के समान होती है। जैसे इधर के तीन क्षेत्र बताये हैं कि उनमें उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है ऐसे ही सुमेरू पर्वत की उत्तर दिशा में भी उत्तरकुरू, हरिक्षेत्र और रम्यकक्षेत्र हैं। उनमें भी दक्षिण की व्यवस्था के समान ही उत्तम भोगभूमि, मध्यम भोगभूमि और जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। विदेह क्षेत्र में आयु कितनी है, इस बात को बताया है—

विदेहेषु संख्येयकाला:।।३१।।

अर्थ — विदेह क्षेत्र में मनुष्य और तिर्यंच संख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं। अर्थात् विदेह क्षेत्र में संख्यात वर्ष की आयु होती है वहाँ भोगभूमि नहीं है अपितु शाश्वत कर्मभूमि है। वहाँ पर आदि से अन्त तक चतुर्थकाल की सारी व्यवस्था रहती है, कभी परिवर्तन नहीं होता है। वहाँ के मनुष्यों की आयु संख्यात वर्ष की ही रहती है। जिस समय इस धरती पर तृतीयकाल के अन्त में भोगभूमि समाप्त होने लगी, कर्मभूमि का प्रादुर्भाव हुआ तब भगवान ऋषभदेव ने अपने अवधिज्ञान से उसी विदेहक्षेत्र की सारी व्यवस्था को जाना और इन्द्र को आज्ञा दी कि उस विदेहक्षेत्र के समान ही इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में कर्मभूमि की व्यवस्था कर दी जाए। उस समय आर्यखण्ड में नगर, ग्राम, पत्तन, द्रोणमुख इन सब की व्यवस्था करके यहाँ ग्राम आदि बसाए गए और तब से ही यहाँ पर विदेहक्षेत्र के समान कर्मभूमि चल रही है। पाँच महाविदेह सम्बन्धी १६० नगरियाँ हुर्इं जहाँ सदैव चतुर्थकाल ही है। यहाँ के मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष होती है, जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु एक कोटिपूर्व की होती है। अब प्रश्न आया कि पूर्व किसे कहते हैं ? ८४ लाख वर्ष का एक पूर्वांग होता है और ८४ लाख पूर्वांग का एक पूर्व होता है। अत: ८४ लाख को ८४ लाख से गुणा करने पर ७०५६०००००००००० संख्या आती है, इतने वर्षों का एक पूर्व हुआ। भरतक्षेत्र का दूसरी तरह से विस्तार बताते हैं—

भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभाग:।।३२।।

अर्थ — भरतक्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप के १९०वाँ भाग है। जम्बूद्वीप के १९०वें भाग में भरत क्षेत्र है। जम्बूद्वीप एक लाख योजन का है उसका १९०वाँ भाग केवल भरत क्षेत्र को मिला है जो कि बहुत छोटा-सा भाग है। चूँकि जम्बूद्वीप ७ क्षेत्र और ६ पर्वतों में बँटा हुआ है, उसमें भरत क्षेत्र का एक भाग, हिमवान के २ भाग, हैमवत के ४ भाग, महाहिमवान के ८ भाग, हरिवर्ष के १६ भाग, निषध पर्वत के ३२ भाग, विदेह के ६४ भाग, नील पर्वत के ३२ भाग, रम्यक् के १६ भाग, रुक्मी पर्वत के ८ भाग, हैरण्यवत क्षेत्र के ४ भाग, शिखरी पर्वत के २ भाग और ऐरावत का एक भाग है, इन सबका जोड़ १९० होता है। धातकीखण्ड का वर्णन करते हैं—

द्विर्धातकी खण्डे।।३३।।

अर्थ — धातकीखण्ड नामक दूसरे द्वीप में क्षेत्र, कुलाचल, मेरु, नदी आदि समस्त पदार्थों की रचना जम्बूद्वीप से दूनी-दूनी है। धातकीखण्ड नामक जो दूसरा द्वीप है उसके अन्दर जितनी रचना है वह जम्बूद्वीप से दूनी-दूनी है। जैसे जम्बूद्वीप में एक भरतक्षेत्र है वहाँ दो भरत क्षेत्र हैं, इसलिये कि धातकीखण्ड के दो टुकड़े हो जाते हैं पूर्व धातकीखण्ड और पश्चिम धातकीखण्ड। दोनों में ही जम्बूद्वीप के समान पूरी-पूरी रचना होती है। धातकीखण्ड द्वीप में दो मेरु, २८ नदी, १२ ह्रद आदि हैं। इन सबमें नाम भी वे ही हैं जो जम्बूद्वीप में बतलाये हैं केवल मेरु के नाम विजय और अचल भिन्न हैं। धातकीखण्ड द्वीप वलयाकृति है। इसके पूर्वाद्र्ध और पश्चिमाद्र्ध इस प्रकार दो विभाग हैं। यह विभाग इष्वाकार नाम वाले दो पर्वत करते हैं। प्रत्येक भाग में एक मेरु, ७ क्षेत्र, ६ पर्वत, १४ नदियाँ आदि हैं। इस प्रकार ये सब दूने हो जाते हैंं। इस द्वीप की यह विशेषता है कि यहाँ के पर्वत आरे के समान हैं और क्षेत्र आरों के बीच में स्थित विवर के समान है। जम्बूद्वीप के जिस स्थान पर जामुन का वृक्ष है धातकीखण्ड में उसी स्थान पर धातकी—आंवले का एक विशाल वृक्ष है, उसके कारण इस द्वीप का नाम धातकीखण्ड पड़ा है। पुष्कर द्वीप का वर्णन करते हुए आचार्यश्री कहते हैं—

पुष्करार्धे च।।३४।।

अर्थ — पुष्कर द्वीप में भी जम्बूद्वीप की अपेक्षा सब रचना दूनी-दूनी है। पुष्कर द्वीप में भी जो आधा पुष्कर द्वीप है उसके अन्दर एक इष्वाकार पर्वत पड़ने से पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध ऐसे दो भेद हो जाते हैं, वहाँ पर भी जम्बूद्वीप से दूनी-दूनी सारी रचना बताई गई है। पुष्करवर द्वीप का विस्तार १६ लाख योजन है, उसके ठीक बीच में चूड़ी के आकार का मानुषोत्तर पर्वत है जिससे इस द्वीप के दो हिस्से हो गए हैं। पूर्वाद्र्ध में सब रचना धातकीखण्ड के समान है और जम्बूद्वीप से दूनी-दूनी है। इस द्वीप के उत्तरकुरु में एक पुष्कर—कमल है, उसके संयोग से ही इसका नाम पुष्करवर द्वीप पड़ा है। मनुष्य क्षेत्र की सीमा के बारे में बताते हैं—

प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्या:।।३५।।

अर्थ — मानुषोत्तर पर्वत के पहले अर्थात् ढाईद्वीप में ही मनुष्य होते हैं। मानुषोत्तर पर्वत के आगे ऋद्धिधारी मुनि व विद्याधर भी नहीं जा सकते। अब आपको अपनी स्थिति जाननी है कि मनुष्य कहाँ तक जा सकते हैं? ढाई द्वीप की सीमा बताने वाला एक गोलाकार पर्वत है,उसे कहते हैं—मानुषोत्तर पर्वत। जैसे जम्बूद्वीप है, जम्बूद्वीप के बाद लवण समुद्र, उसके बाद धातकीखण्ड द्वीप, धातकीखण्ड के बाद कालोदधि समुद्र और कालोदधि समुद्र के बाद पुष्करार्ध द्वीप आया तो आधे पुष्कर द्वीप में एक मानुषोत्तर पर्वत है इसलिये पुष्कर द्वीप को आधा लिया तो दो तथा आधा मिलकर ढ़ाई द्वीप हो गये और उस ढाई द्वीप तक ही मनुष्यों का आवागमन रहता है उसके बाहर न तो मनुष्य उत्पन्न होते हैं और न ही मनुष्य जा सकते हैं इसलिये आप नन्दीश्वर द्वीप की पूजा में पढ़ते हैं—‘‘हमें शक्ति सो नाहिं इहां करि थापना’’ अर्थात् उस नन्दीश्वर द्वीप तक जाने की हमारी शक्ति नहीं है इसलिये हम यहाँ पर उनको स्थापित करके नन्दीश्वर द्वीप के बावन जिनालयों की पूजा कर लेते हैं। मानुषोत्तर पर्वत मनुष्यलोक की सीमा पर स्थित है इसीलिए इसका ‘‘मानुषोत्तर’’ यह नाम सार्थक है। इस ढाई द्वीप में १५ कर्मभूमि और ३० भोगभूमि हैं तथा १७० आर्यखण्ड हैं। मनुष्यों के भेद बताते हुए कहा है—

आर्या म्लेच्छाश्च।।३६।।

अर्थ — मनुष्य के दो भेद हैं—आर्य और म्लेच्छ। जो आचार-विचार से सहित होते हैं, विवेक बुद्धि से सहित होते हैं उन्हें तो आर्य कहा है और जिनका आचार-विचार भ्रष्ट होता है, धर्म-कर्म का कोई विवेक नहीं होता वह म्लेच्छ कहलाते हैं, ऐसे दो प्रकार के मनुष्यों का विभाजन किया है। आर्य मनुष्य दो प्रकार के होते हैं—एक ऋद्धिधारी और दूसरे बिना ऋद्धि वाले। जो अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा आदि आठ प्रकार की ऋद्धियों में से किसी एक ऋद्धि के धारी होते हैं उन्हें ऋद्धिप्राप्त आर्य कहते हैं और जिन्हें कोई भी ऋद्धि नहीं प्राप्त है वे बिना ऋद्धि वाले आर्य हैं। उनके भी पाँच भेद हैं—क्षेत्र आर्य, जाति आर्य, कर्म आर्य, चारित्र आर्य और दर्शन आर्य। काशी, कोशल आदि क्षेत्रों में जन्म लेने वाले मनुष्य क्षेत्र आर्य हैं। इक्ष्वाकु, नाथ आदि वंशों में जन्म लेने वाले मनुष्य जाति आर्य हैं। कर्म आर्य तीन प्रकार के हैं—सावद्यकर्म आर्य, अल्पसावद्यकर्म आर्य और असावद्यकर्म आर्य। सावद्यकर्म आर्य असि, मसि आदि के भेद से छह प्रकार के हैं। उनमें जो अणुव्रती श्रावक हैं वे अल्प सावद्यकर्म आर्य और पूर्ण संयमी साधु असावद्यकर्म आर्य हैं। चारित्र आर्य—एक जो बिना उपदेश के स्वयं ही चारित्र पालन करते हैं और दूसरे जो पर के उपदेश से चारित्र का पालन करते हैं, यह दो भेद चारित्र आर्य के हैं। ऋद्धिप्राप्त आर्यों के भी आठ प्रकार की ऋद्धि तथा अवान्तर भेद की अपेक्षा बहुत भेद हैं। म्लेच्छ दो प्रकार के हैं—अन्तद्र्वीपज और कर्मभूमिज। लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र के भीतर ९६ कुभोगभूमि हैं। उनमें रहने वाले मनुष्य अन्तद्र्वीपज म्लेच्छ हैं तथा म्लेच्छ खण्डों में रहने वाले मनुष्य कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं। इनके एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है। भरत क्षेत्र के ५ म्लेच्छ खण्ड, ऐरावत क्षेत्र के ५ म्लेच्छ खण्ड और विदेह के ८०० म्लेच्छ खण्ड, इस प्रकार ८१० म्लेच्छ खण्ड हैं। उनमें उत्पन्न मनुष्य कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं। अब कर्मभूमि के विभाग के बारे में बताया है—

भरतैरावत-विदेहा: कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरुत्तर-कुरुभ्य:।।३७।।

अर्थ — पाँचों मेरु सम्बन्धी ५ भरत क्षेत्र, ५ ऐरावत क्षेत्र, देवकुरू और उत्तरकुरू को छोड़कर पाँच विदेह क्षेत्र आ जाते हैं। इस प्रकार से ढाई द्वीप के अन्दर १५ कर्मभूमियाँ बताई हैं। यह अभेद विवक्षा से हैं वैसे जब विदेहक्षेत्र में ३२ विदेह के भेद करेंगे तो १८० कर्मभूमियाँ हो जायेंगी और अभेद विवक्षा से ढ़ाई द्वीप के अन्दर १५ कर्मभूमियाँ होती हैं। कर्मभूमि किसे कहते हैं ? जहाँ सातवें नरक तक ले जाने वाले अशुभ कर्म और सर्वार्थसिद्धि तक ले जाने वाले शुभकर्म का अर्जन होता है, जहाँ असि, मसि, कृषि आदि षट्कर्म और दानादि की व्यवस्था है और जहाँ मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति आज भी विद्यमान है वह कर्मभूमि है। मनुष्यों की उत्कृष्ट और जघन्य आयु के बारे में बताया है—

नृस्थिति पराऽवरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते।।३८।।

 अर्थ — मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। नारकियों की तो उत्कृष्ट आयु बतायी थी अब यहाँ मनुष्यों और तिर्यंचों की जघन्य आयु का वर्णन करते हैं। नृस्थिति—नृ अर्थात् मनुष्य, स्थिति अर्थात् आयु, मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य है और जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। गर्भ में जाते ही मर जाते हैं वह अन्तर्मुहूर्त की आयु हुई तथा जो तीन पल्य की पूरी आयु भोगते हैं वह उत्कृष्ट आयु है। देवकुरू उत्तरकुरू नाम की भोगभूमि में उत्कृष्ट आयु तीन पल्य है। स्थिति दो प्रकार की होती है—भवस्थिति और कायस्थिति। एक पर्याय में रहने में जितना काल लगे वह भवस्थिति है तथा पुन:-पुन: उसी पर्याय में निरन्तर उत्पन्न होना, दूसरी जाति में नहीं जाना, इस प्रकार जितना काल प्राप्त हो वह कायस्थिति है। सूत्र में अवस्थिति बताई गई है। तिर्यञ्चों की आयु बताते हुए अन्तिम सूत्र अवतार लेता है—

तिर्यग्योनिजानां च।।३९।।

अर्थ — तिर्यंचों की भी आयु उत्कृष्ट और जघन्यस्थितिक्रम से तीन पल्य और अन्तर्मुहूर्त की है। मनुष्यों के समान ही तिर्यंचों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य और जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। इस प्रकार से इन मनुष्यों और नारकियों का वर्णन करने वाला यह तृतीय अध्याय पूर्ण हुआ है। वास्तव में देखा जाए तो इन अध्यायों को पढ़कर हमें अपनी ही अवस्थिति के बारे में ज्ञात करना है कि मध्यलोक के अन्दर जो प्रथम जम्बूद्वीप है उसमें भरतक्षेत्र है, भरतक्षेत्र के अन्दर आर्यखण्ड और आर्यखण्ड के अन्दर जो छह महाद्वीपों में हमारा भारत देश है उस भारत देश के अलग-अलग प्रदेशों में हम लोग निवास करते हैं। यही समझ करके इन अध्यायों के माध्यम से हमें अपने कर्म की स्थिति को जानकर, कर्मों से डरकर अपने मनुष्य जीवन को सार्थक करना चाहिये।।।

इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे तृतीयोऽध्याय: समाप्त:।।

तत्त्वार्थ सूत्र प्रवचन (चतुर्थ अध्याय)

चतुर्थ अध्याय

प्रवचन कर्त्री -आर्यिका चंदनामती माताजी

—मंगलाचरण—

धर्म: सर्व सुखाकरो हितकरो, धर्मं बुधाश्चिन्वते।
धर्मेणैव समाप्यते शिवसुखं, धर्माय तस्मै नम:।।
धर्मान्नास्त्यपर: सुहृद्भवभृतां, धर्मस्य मूलं दया।
धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिन, हे धर्म! मां पालय।।
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये।।
भव्यात्माओं! स्वयं में विलक्षण रूप से दशलक्षण पर्व को आप सभी मना रहे हैं। जब हम गुरुओं के सान्निध्य में पर्व को मनाते हैं तो वे आचरण का रूप धारण कर लेते हैं। आज आप ऊध्र्वलोक की ओर गमन कर रहे हैं। आपने एक कहावत सुनी होगी—गागर में सागर। आचार्य उमास्वामी ने ऊध्र्वलोक का वर्णन करते हुए एक-एक सूत्र में ऐसा सुन्दर वर्णन किया है जैसे राई में छेद करके उसमें सागर को ही भर दिया हो। उन्होंने हमारे ऊपर जो उपकार किया है उसे हम भूल नहीं सकते। जैसे कोई बन्ध्या स्त्री पुत्र की वेदना नहीं जान सकती, जन्म देने वाली माता ही उस पीड़ा को समझ सकती है उसी प्रकार एक विद्वान ही दूसरे विद्वान की विद्वत्ता, उसकी लगन और मेहनत को जान सकता है।
गतियाँ चार हैं—मनुष्यगति, तिर्यंचगति, देवगति और नरकगति। इनमें से दो गतियों को हमने देखा है अब हमें जानना है कि स्वर्ग कैसा है ? जहाँ बहुत सुख है वह कहलाता है स्वर्ग, लेकिन वहाँ मानसिक दु:ख है, अपने से वैभवशाली देव को देखकर द्वेष करके एकेन्द्रिय तक बन सकते हैं और इन सबको हम द्वादशांगमयी जिनवाणी के माध्यम से जान सकते हैं। मनुष्यगति में तो हम हैं ही, तिर्यंचगति के बन्ध-बन्धन को देख रहे हैं और अन्य दो गतियों को जानने हेतु शास्त्रों पर दृढ़ श्रद्धान करना होगा। हम सरस्वती माता की आराधना करते हुए कहते हैं—‘‘विचित्रालोक यात्रेयं यत्प्रसादात् प्रवर्तते।’’ यह सब द्वादशांगमय जिनवाणी माता का प्रभाव है जो चार अनुयोगों में निबद्ध है। हम आज मति और श्रुत ज्ञान के बल पर इसका आलोढ़न कर सकते हैं। आचार्य उमास्वामी के पास भी दो ही ज्ञान थे, इन्हीं दोनों ज्ञान के बल पर उन्होंने गागर में सागर के समान यह ग्रन्थ हमें प्रदान कर दिया। ज्ञान के बारे में एक घटना सुनने में आती है, उसे ही मैं आपको बताती हूँ— एक बार की बात है चार सूरदास थे जो कि आपस में परम मित्र थे, परन्तु चारों ही निर्धन थे। अत: चारों एक बार मन्त्रणा करते हैं कि हम ज्ञानी हैं, हम चारों मिलकर अपनी आजीविका हेतु शहर चलेंगे। पैसे न होने से वे पैदल ही चल पड़े। एक शहर में पहुँचे, जब भूखे होने से आगे जाने की हिम्मत नहीं पड़ी तो वहाँ यह सुनकर कि यहाँ का राजा बड़ा दयालु है, वहाँ गए। राजा ने उनकी सारी बात जानकर कहा कि आज तो तुम खा लोगे कल क्या होगा ? उन्होंने कहा कि कल की हमारे ऊपर छोड़ दें। उनमें से एक रत्नपारखी था, एक अश्वपारखी, तीसरा नर परीक्षक और चौथा नारी पारखी। राजा ने उनकी परीक्षा लेनी चाही, लेकिन वह बोले—महाराज! क्षमा करें लेकिन पहले भोजन करवाइये। राजा ने कहा कि ठीक है, उन्हें अच्छा भोजन कराओ और एक-एक कटोरी घी भी देवो। बाद में उनकी परीक्षा ली गई। पहले रत्नपारखी ने रत्नों के ढेर से सारे असली रत्न निकाल दिये। दूसरे को अश्वशाला में भेजा, वहाँ एक घोड़ा पानी में बैठा था। सिपहसालार ने कहा—पता नहीं क्यों, यह पानी में ही बैठता है जबकि इसकी इतनी मालिश वगैरह होती है। मात्र छूने भर से ही उसने जान लिया और कहा—यह भैंस का दूध पीता था इसलिये यह पानी में बैठता है। तब सिपहसालार ने सारी घटना राजा को बताई। तीसरे से राजा ने अपने विषय में पूछा, वह नरपारखी था। उसने राजा को छूते ही कहा कि महाराज! पहले मुझे अभयदान दीजिये, फिर बताऊँगा। राजा के अभयदान देने पर उसने कहा—आप बनिये के पुत्र हैं। ऐसी बात आने पर राजमाता से पूछा गया तो राजमाता ने बताया कि मेरा पुत्र तो जन्म लेते ही मर गया था इसलिये मैंने बनिये से दत्तक पुत्र लिया और इस बात को किसी को भी नहीं बताया। इसी प्रकार चौथे की भी परीक्षा ली गयी। उन चारों को परीक्षा में उत्तीर्ण देख राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला कि आपको यात्रा करने की कोई जरूरत नहीं है। आप यहीं रहें, मैं आपको आदर से रखूँगा। बन्धुओं! ज्ञान राजा में भी था और उन सूरदासों में भी यही दो ज्ञान थे। जब दो ज्ञान वाला इतना धीमान हो सकता है तो जो चार ज्ञान के धारी हैं उनके बारे में तो कहना ही क्या ? आचार्य उमास्वामी ने तो कुन्दकुन्दाचार्य की बात को शास्त्र में निबद्ध कर हम सभी को बताया। आपको जानना है कि स्वर्ग किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है ? हम और आप सभी स्वर्ग जा सकते हैं, केवल नारकी जीव मरकर स्वर्ग नहीं जा सकता और देव मरकर नर्व नहीं जाता, भले ही एकेन्द्रिय हो जाये। साथ ही नारकी देव नहीं हो सकता यह सिद्धान्त का नियम है। वस्तुत: यह सिद्धान्त हीरे का काँटा है। काँटे दो प्रकार के होते हैं—एक सब्जी का काँटा, जिसमें अन्तर हो सकता है, दूसरा हीरे का काँटा जिसमें कोई अन्तर नहीं हो सकता। हमें तो हीरे के काँटे के समान स्वर्गलोक की ओर जाने की कला सीखनी है और उसमें भी ऊध्र्वलोक की ओर ही नहीं अपितु सिद्धशिला की ओर जाने की कला सीखना है। प्रथम अध्याय में आपने जीवादिक पदार्थ का वर्णन सुना, द्वितीय अध्याय में आपने जीव व तत्त्वों के बारे में सुना, नारकी, मनुष्य और तिर्यंचों की व्यवस्था तृतीय अध्याय में सुनी, अब चतुर्थ अध्याय में देव और इन्द्रों के बारे में जानेंगे। देवादि का वर्णन करने वाली इस चतुर्थ अध्याय में प्रथम सूत्र का अवतार करते हुए आचार्यश्री उमास्वामी कहते हैं—

देवाश्चतुर्णिकाया:।।१।।

 अर्थ — देवों के चार भेद हैं- भवनवासी व्यन्तर ज्योतिष्क वैमानिक। जो देवगति नामकर्म के उदय से जिन-जिन देवों में जन्म लेकर द्वीप, समुद्र तथा पर्वतादि रमणीय स्थानों में क्रीड़ा करें उन्हें देव कहते हैं। दिव धातु क्रीड़ा करने अर्थ में है, व्याकरण में दिव धातु आती है जिससे देव शब्द बना है। रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। उसकी मोटाई के तीन भाग हैं—खरभाग, पंकभाग, अब्बहुल भाग। भवनवासी देव रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम खरभाग की चित्रा पृथ्वी के अतिरिक्त शेष में तथा दूसरे पंक भाग में स्थित भवनों में रहते हैं। व्यन्तर देव रत्नप्रभा पृथ्वी के खर व पंक भाग में स्थित स्थानों के अतिरिक्त पहाड़ों, सरोवरों, नदियों तथा विविध देश-देशान्तरों में भी रहते हैं। ज्योतिष्क देव विशेष ज्योति—चमक सहित होते हैं, इनके विमान भी चमकदार रहते हैं जैसे—सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि, ये मध्यलोक में रहते हैं। विमानों में जो देव रहते हैं वे वैमानिक कहलाते हैं। ये चारों प्रकार के देव उत्तम, सुन्दर, मनोहर शरीर वाले, माँस, मल-मूत्रादि से रहित, सुगन्धित वैक्रियिक शरीर वाले, अणिमा, महिमा आदि से सहित, रोग, पसीना, बुढ़ापा से रहित होते हैं अर्थात् जन्म से मरण तक एक ही समान रहते हैं। आहार की इच्छा मन में आते ही कण्ठ से अमृत झरता है उससे तत्काल उनकी तृप्ति हो जाती है। इनका आहार मानसिक होता है। भवनत्रिक देवों में लेश्या का विभाग करते हैं—

आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या:।।२।।

अर्थ — पहले के तीन निकाय के देवों में कृष्ण, नील, कापोत और पीत ये चार लेश्याएँ होती हैं। ये देव भवनत्रिक कहलाते हैं। इनके अन्य ३ लेश्याओं के साथ कृष्ण लेश्या भी होती है जैसे—असुरकुमार जाति के देव जाकर नर्वâ में आपस में लड़ाते हैं। कषाय से अनुरंजित मन, वचन, काय की प्रवृत्ति का नाम लेश्या है अथवा जिन भावों के द्वारा जीव अपने को पुण्य और पाप से लिप्त करे अर्थात् पुण्य पाप के अधीन करे उसे लेश्या कहते हैं। लेश्याएँ छह होती हैं—  कृष्ण  नील  कापोत  पीत  पद्म  शुक्ल।
१. कृष्ण लेश्या—तीव्र क्रोध करने वाला हो, बैर न छोड़े, युद्ध करने का/लड़ने का जिसका स्वभाव हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट हो, जो किसी के भी वश में न हो ऐसे परिणामों को कृष्ण लेश्या कहते हैं।
२. नील लेश्या—काम करने में मंद हो अथवा स्वच्छंद हो, वर्तमान कार्य करने में विवेकरहित हो, कला चातुर्य से रहित हो, स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों के विषयों में लम्पट हो, मानी हो, मायाचारी हो, आलसी हो, दूसरे लोग जिसके अभिप्राय को सहसा न जान सकें, जो अतिनिद्रालु हो, दूसरों को ठगने में अतिदक्ष हो और धन—धान्य के विषय में जिसकी अतितीव्र लालसा हो ऐसे परिणामों को नील लेश्या कहते हैं।
३. कापोत लेश्या—दूसरे के ऊपर क्रोध करना, दूसरे की निन्दा करना, अनेक प्रकार से दूसरों को दु:ख देना अथवा औरों से वैर करना, अधिकतर शोकाकुलित रहना तथा भयग्रस्त रहना या हो जाना, दूसरों के ऐश्वर्यादि को सहन न कर सकना, दूसरे का तिरस्कार करना, अपनी नाना प्रकार से प्रशंसा करना, दूसरे के ऊपर विश्वास न करना, अपने समान दूसरों को भी मानना, स्तुति करने वाले पर संतुष्ट हो जाना, अपनी हानि वृद्धि को कुछ भी न समझना, रण में मरने की प्रार्थना करना, स्तुति करने वाले को खूब धन दे डालना, अपने कार्य— अकार्य की कुछ भी गणना न करना ऐसे परिणामों को कापोत लेश्या कहते हैं।
४. पीत लेश्या—अपने कार्य—अकार्य, सेव्य—असेव्य को समझने वाला हो, सबके विषय में समदर्शी हो, दया और दान में तत्पर हो, मन, वचन, काय के विषय में कोमल परिणामी हो ऐसे परिणामों को पीत लेश्या कहते हैं।
५. पद्म लेश्या—दान देने वाला हो, भद्र परिणामी हो, जिसका उत्तम कार्य करने का स्वभाव हो, कष्ट रूप और अनिष्ट रूप उपद्रवों को सहन करने वाला हो, मुनिजन—गुरुजन आदि की पूजा में प्रीतियुक्त हो ऐसे परिणामों को पद्म लेश्या कहते हैं।
६.शुक्ल लेश्या—पक्षपात न करना, निदान को न बांधना, सब जीवों में समदर्शी होना, इष्ट से राग और अनिष्ट से द्वेष न करना, स्त्री, पुत्र—मित्र आदि में स्नेहरहित होना, ऐसे परिणामों को शुक्ल लेश्या कहते हैं। एक उदाहरण के माध्यम से आपको लेश्या के बारे में बताती हूँ—कृष्ण आदि छह लेश्या वाले कोई छह व्यक्ति फल खाने की इच्छा से एक जामुन के वृक्ष के पास पहुंचते हैं।
कृष्ण लेश्या वाला व्यक्ति जड़ सहित वृक्ष को उखाड़ कर फल खाने के लिए तत्पर होता है। इतने में नील लेश्या वाला व्यक्ति आगे बढ़कर कहता है अरे भाई! पेड़ को जड़ से उखाड़ने से क्या लाभ? तने को काटकर भी फल प्राप्त हो सकते हैं। इस पर कापोत लेश्या वाला सज्जन कहने लगा कि वृक्ष की बड़ी—बड़ी शाखाओं को काटकर ही क्यों न फल खा लिये जावें ? पीत लेश्या वाला विचारता है और कहता है कि मैं तो इसकी छोटी—छोटी शाखाओं को ही तोड़कर फल खा लूंगा। पद्म लेश्या वाला कहने लगा कि हमें तो फल चाहिये बस वह ही तोड़ कर खा लें। शुक्ल लेश्या वाले महानुभाव अत्यन्त संतोषपूर्वक विचार करने लगे कि मैं इस वृक्ष से स्वयं टूटकर गिरे हुए फलों को खाऊँगा। फल खाने के तो छहों व्यक्ति इच्छुक थे किन्तु पाने की प्रक्रिया में तो बड़ा अंतर है। एक वह व्यक्ति है जो पेड़ को ही जड़ से काटकर फल पाना चाहता है और एक वह व्यक्ति है जो कि फलों को तोड़ना भी नहीं चाहता प्रत्युत स्वयं गिरे हुए फलों में ही संतुष्ट हो जाता है। अन्य व्यक्ति भी अपने—अपने भावों के अनुसार वृक्ष के विभिन्न भागों को काटकर फल प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित करते हैं। यह तो उदाहरण है। इसी प्रकार के परिणामों से लेश्याओं का निर्धारण होता है और लेश्याओं के अनुरूप ही कर्मों का बंध होता है। भवनत्रिक देवों के अपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएं बताई हैं और पर्याप्त अवस्था में पीत लेश्या का जघन्य अंश बताया है। अब आपको कृष्ण लेश्या का एक उदाहरण सुनाऊँ—जब हमारा देश आजाद नहीं हुआ था, ब्रिटिश गवर्नमेन्ट यहाँ शासन कर रही थी, ब्रिटिश मन्त्री चिंबरलेन हिटलर के पास गए और बोले—बन्द करो इतनी हिंसा, इतना नरसंहार मत करो। जब उसने उनकी एक न सुनी तो वह प्रेमपूर्वक पूछता है कि क्या अभी भी आपके पास इतनी ताकत है कि आप किसी की भी जान ले सकते हैं ? तब हिटलर ने एक नौकर को बुलाकर कहा कि पाँचवीं मंजिल से कूद जाओ। बस वह नौकर भय से वूâदकर मर गया। बन्धुओं! यह कृष्ण लेश्या नहीं महाकृष्ण लेश्या का उदाहरण है। एक उदाहरण करुणा का है महामहिम श्री राजेन्द्र कुमार जी एक बार अपने ऑफिस जा रहे थे मार्ग में एक गरीब असहाय को ठण्ड से ठिठुरते हुये देखा तो अपना कीमती कोट उसे पहना दिया। यह आत्मिक परिणाम, यह प्यार, यह अपनापन पीतलेश्या में ही होता है। चार निकाय के देवों के भेद बताते हैं—

दशाष्टपंचद्वादशविकल्पा: कल्पोपन्नपर्यन्ता:।।३।।

अर्थ — कल्पोपपन्न अर्थात् सोलह स्वर्ग तक के देवों के क्रम से दस, आठ, पाँच और बारह भेद हैं। भवनवासी देवों के दश भेद हैं, व्यन्तरों के ८ भेद हैं, ज्योतिषी देवों के ५ भेद हैं और वैमानिक देवों में से जो कल्पोपपन्न अर्थात् १६ स्वर्ग तक के देव हैं उनके १२ भेद हैं। कल्पवासियों के १२ भेद वहाँ के इन्द्रों की अपेक्षा इस प्रकार हैं—पहले स्वर्ग का सौधर्म, दूसरे स्वर्ग का ईशान, तीसरे का सानत्कुमार, चौथे स्वर्ग का माहेन्द्र, पाँचवें-छठे स्वर्ग का एक ब्रह्म, सातवें-आठवें में से एक—लान्तव, नवमें-दशमें में से एक—महाशुक्र, ग्यारहवें-बारहवें में से एक—सहस्रार, तेरहवें-चौदहवें का प्राणत, पंद्रहवें का आरण और सोलहवें का अच्युत। इनमें सौधर्म, सानत्कुमार, ब्रह्म, शुक्र, आनत और आरण ये छह दक्षिणेन्द्र हैं और ऐशान, माहेन्द्र, लांतव, शतार, प्राणत और अच्युत ये ७ उत्तरेन्द्र हैं किन्तु इन्हीं कल्पवासियों के इनके निवासस्थान की अपेक्षा १६ भेद हैं। चार प्रकार के देवों के सामान्य भेद बतलाते हैं—

इन्द्रसामानिकत्रायिंंस्त्रशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभि-योग्यकिल्विषिकाश्चैकश:।।४।।

 अर्थ — चारों निकाय के देव में प्रत्येक के इन्द्र, सामानिक, त्रायिंत्रश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक ये १० भेद होते हैं। 
इन्द्र — दूसरे देवों में नहीं रहने वाली अणिमा आदि ऋद्धियों से परम ऐश्वर्य को प्राप्त देवों के स्वामी को इन्द्र कहते हैं।
सामानिक — आयु, शक्ति, परिवार, भोग, उपभोग आदि में तो इन्द्र के समान होते हैं किन्तु जिनकी आज्ञा नहीं चलती वे सामानिक देव कहलाते हैं।
त्रायिंस्त्रश — जो देव पिता, मंत्री, पुरोहित या गुरु के समान होते हैं उन्हें त्रायिंस्त्रश कहते हैं। ये एक इन्द्र की सभा में तेतीस होते हैं इसलिए इनका त्रायिंस्त्रश नाम है। 
पारिषद — इन्द्र सभा के सदस्य देवों को पारिषद कहते हैं।
आत्मरक्ष — अंगरक्षक के समान देवों को आत्मरक्ष कहते हैं।
लोकपाल — कोतवाल के समान देवों को लोकपाल कहते हैं।
अनीक — पैदल आदि सात प्रकार की सेना में विभक्त देवों को अनीक कहते हैं।
प्रकीर्णक — नगरनिवासी जनता के समान देवों को प्रकीर्णक कहते हैं। 
आभियोग्य — हाथी, घोड़ा आदि बनकर दासों के समान सवारी आदि के काम में आने वाले देवों को आभियोग्य कहते हैं।
किल्विषिक — चांडालादि की तरह दूर रहने वाले पापी देवों को किल्विषिक कहते हैं। ये सभी इन्द्र के ऐश्वर्य के द्योतक हैं। मूल शरीर से तो ये देव अपने—अपने पुण्य के अनुरूप सुखों का उपभोग करते हैं किन्तु अपने—अपने पद के अनुरूप इन्द्र की आज्ञा से नियोग र्पूित हेतु विक्रिया से भिन्न शरीरों का निर्माण करके उन—उन कार्यों को सम्पन्न करते हैं। व्यंतर और ज्योतिषी देवों में इन्द्र आदि भेदों की विशेषता बताते हैं—

त्रायस्त्रिंश-लोकपालवज्र्या व्यन्तरज्योतिष्का:।।५।।

अर्थ — व्यन्तर और ज्योतिष्क देव में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल ये दो भेद नहीं होते। इनके ८-८ भेद होते हैं। शायद इसलिये कि ये तो मकान, खण्डहर आदि में घूमते ही रहते हैं। देवों में इन्द्र की व्यवस्था बताते हुए कहते हैं—

पूर्वयोर्द्वीन्द्रा:।।६।।

अर्थ — देवों के चार भेदों में से प्रारम्भ के दो भेदों में—भवनवासी और व्यंतरों के प्रत्येक भेद में दो—दो इन्द्र होते हैं। भवनवासियों के दश भेदों में बीस तथा व्यंतरों के आठ भेदों में सोलह इन्द्र होते हैं तथा दोनों में इतने ही प्रतीन्द्र होते हैं। असुरकुमार नामक भवनवासी देवों में चमर और वैरोचन ये दो इन्द्र हैं। नागकुमार देवों में धरण और भूतानंद, विद्युतकुमारों के हरििंसह और हरिकांत, सुपर्णकुमार देवों के वेणुदेव व वेणुधारी, अग्निकुमार देवों के अग्निशिख और अग्निमाणव, वातकुमारों के वैलम्ब और प्रभञ्जन, स्ननितकुमारों के सुघोष और महाघोष, उदधिकुमारों के जलकान्त और जलप्रभ, द्वीपकुमारों के पूर्ण और वशिष्ट एवं दिक्कुमारों के अमितगति और अमितवाहन ये दो—दो इन्द्र हैं। व्यंतर जाति के देवों में भी किन्नर जाति के देवों में किन्नर और किम्पुरुष, किम्पुरुषों के सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगों के अतिकाय और महाकाय, गंधर्व के गीतरति और गीतयश, यक्षों के पूर्णभद्र और मणिभद्र, राक्षस व्यंतरों के भीम और महाभीम, पिशाचों के काल और महाकाल एवं भूत व्यंतरों के प्रतिरूप और अप्रतिरूप नामक इन्द्र होते हैं। सभी देव मूल शरीर से अपने उत्पत्ति स्थान पर ही रहते हैं। पृथक विक्रिया से अन्य शरीर बनाकर एक साथ कई प्रकार के कार्य विभिन्न स्थानों पर कर सकते हैं। देवों में कामसुख का वर्णन करते हुए कहते हैं—

कायप्रवीचारा आ ऐशानात्।।७।।

अर्थ — ऐशान स्वर्ग पर्यन्त के देव अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और पहले-दूसरे स्वर्ग के देव मनुष्यों के समान शरीर से कामसेवन करते हैं। मैथुन सेवन को प्रवीचार कहते हैं अर्थात् स्त्री—पुरुष के संयोग से उत्पन्न सुखरूप कार्य का नाम प्रवीचार—मैथुन है। काय में या काय से जिनके प्रवीचार होता है वे काय प्रवीचार कहलाते हैं। सौधर्म व ऐशान स्वर्ग तक के अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी इन भवनत्रिक तथा सौधर्म-ईशान इन दो कल्पवासी देवों में अपनी-अपनी देवियों के साथ शरीर से ही कामसेवन होता है किन्तु यह विशेष ध्यान रखना है कि देवों की उत्पत्ति गर्भ द्वारा नहीं होती, इन सबका उपपाद जन्म होता है। इनका वैक्रियिक शरीर वीर्य आदि धातु, उपधातु से रहित होता है। ये केवल मन की कामभोगरूप वासना को शांत करने के लिये मैथुन करते हैं। शेष स्वर्गों के देवों में कामसेवन की विधि बतलाते हैं—

शेषा: स्पर्शरूपशब्दमन: प्रवीचारा:।।८।।

अर्थ — शेष ऊपर के स्वर्गों के देवों में कामसेवन की इच्छा मात्र स्पर्श करने, रूप देखने, शब्द सुनने तथा मन में विचार करने से ही शान्त हो जाती है। इसमें तीसरे, चौथे स्वर्ग में देव-देवियों की कामवासना मात्र परस्पर स्पर्श से, पाँचवें से आठवें तक में केवल मनोहर रूप देखने से, नवमें से बारहवें स्वर्ग तक मधुर गीतादि शब्द सुनने से और तेरहवें से १६वें स्वर्ग के देवों की मात्र स्मरण से तृप्ति हो जाती है। देवियों का जन्म मात्र दो स्वर्ग तक ही है। इससे ऊपर के स्वर्गों के देव अपनी-अपनी नियोगिनी देवियों को पहले दूसरे स्वर्गों से उत्पन्न होते ही ले जाते हैं। कल्पातीत देवों में मैथुन का निषेध करते हुए कहते हैं—

परेऽप्रवीचारा:।।९।।

अर्थ — सोलह स्वर्ग से ऊपर नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तरों में जो कल्पातीत देव हैं उनमें कामसेवन का भाव मात्र भी नहीं है, तब उनके प्रतिकार से क्या प्रयोजन ? उनके मन में ऐसी कोई भी इच्छा जागृत नहीं होती है और वहां देवियां भी नहीं होती हैं। उनका सुख १६ स्वर्ग के देवों से कहीं अधिक है। भवनवासी देवों के १० भेद बताते हैं—

भवनवासिनोऽसुरनागविद्युतसुपर्णाग्निवातस्तनितोदधि-द्वीपदिक्कुमारा:।।१०।।

अर्थ — जो देव भवनों में निवास करते हैं उन्हें भवनवासी कहते हैं। वे देव दस प्रकार के हैं— असुर कुमार नागकुमार  विद्युत्कुमार  सुपर्णकुमार  अग्निकुमार  वातकुमार  स्तनितकुमार  उदधिकुमार  द्वीपकुमार  दिक्कुमार। वैसे तो देवों की अवस्था जन्म से मृत्युपर्यन्त एक ही समान रहती है किन्तु इनका जीवन कुमारों की तरह होता है अतएव इनको कुमार कहते हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी के पंकभाग में असुरकुमार के भवन हैं और खरभाग में शेष ९ देवों के भवन हैं। इनके कुल भवन ७ करोड़ ७२ लाख हैं जो अत्यन्त रमणीक हैं। प्रत्येक भाग में एक-एक जिनचैत्यालय भी है। असुरकुमारों की ऊँचाई २५ धनुष और शेषकुमारों की १० धनुष है। असुरकुमारों की उत्कृष्ट आयु १ सागर, नागकुमारों की ३ पल्य, सुपर्णकुमारों की ढ़ाई पल्य, द्वीपकुमारों की २ पल्य और शेष सभी कुमारों की आयु डेढ़ पल्य है। सभी भवनवासियों की जघन्य आयु १० हजार वर्ष है। इनमें असुरकुमारों की आहार की इच्छा एक हजार वर्ष बाद होती है और वे १५ दिन बाद श्वांस लेते हैं। नागकुमार और द्वीपकुमारों के साढ़े बारह दिन में आहार की इच्छा होती है और साढ़े बारह मुहूर्त में श्वांस लेते हैं। उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार को १२ दिन में आहार की इच्छा होती है तथा १२ मुहूर्त में ये श्वांस लेते हैं। अग्निकुमार और वातकुमार को साढ़े सात दिन में आहार की इच्छा होती है तथा साढ़े सात मुहूर्त में ही श्वांस की प्रक्रिया होती है। ये दस भेद नामकर्म के कारण होते हैं। असुर नामकर्म के उदय से असुरकुमार, नागकुमार इत्यादि होते हैं। इनमें वैर—विरोध के कारण का अभाव है। सौधर्मादि स्वर्गों के देव विशिष्ट नामकर्म के उदय से अनुपम वैभवशाली होते हैं तथा निरन्तर अरहंत भगवान की पूजा करना एवं हमेशा उत्तमोत्तम भोग भोगना ही उनका काम रहता है। रत्नप्रभा पृथ्वी के पंक भाग में असुरकुमार देवों के चौंसठ लाख भवन हैं। इस जम्बूद्वीप से तिरछे दक्षिण दिशा में असंख्यात द्वीप—समुद्रों के बाद पज्र्बहुल भाग में चमर नामक असुरेन्द्र के चौंतीस लाख भवन हैं। इस असुरेन्द्र के चौंसठ हजार सामानिक, तेतीस त्रायिंस्त्रश, तीन सभा, सात प्रकार की सेना, चार लोकपाल, पाँच अग्रमहिषी और चार हजार चौंसठ आत्मरक्षक हैं। इस दिव्य वैभव परिवार के साथ दक्षिणाधिपति चमर नामक असुरेन्द्र दिव्य भोगों का अनुभव करता है। जम्बूद्वीप की उत्तर दिशा में तिरछे असंख्यात द्वीप— समुद्रों के बाद पंकबहुल भाग में वैरोचन नामक असुरेन्द्र के तीस लाख भवन हैं। उसके साठ हजार सामानिक हैं, तेतीस त्रायिंस्त्रश, तीन परिषद, सात अनीक, चार लोकपाल, पांच अग्रमहिषी और चार हजार चौंसठ आत्मरक्ष हैं।
इस प्रकार के वैभव एवं परिवार के साथ उत्तराधिपति वैरोचन नामक असुरेन्द्र त्रिविध प्रकार के दिव्य भोगों का अनुभव करता है। चमरेन्द्र के ३४ लाख व वैरोचन के तीस लाख इस प्रकार दोनों के पंकबहुल भाग में कुल चौंसठ लाख भवन हैं। खर पृथ्वी भाग के ऊपर नीचे एक—एक हजार योजन छोड़कर शेष भागों में शेष नवकुमारों के भवन हैं। यथा—जम्बूद्वीप से तिरछी ओर दक्षिण दिशा में असंख्यात द्वीप—समुद्रों के अन्त में धरण नागराज के चवालीस लाख भवन हैं। इसके साठ हजार सामानिक, तेतीस त्रायिंस्त्रश, तीन परिषद, सात अनीक, चार लोकपाल, छह अग्रमहिषी तथा छह हजार आत्मरक्षक देव हैं। जम्बूद्वीप से तिरछी ओर उत्तर दिशा में असंख्यात द्वीप—समुद्रों का उल्लंघन करके भूतानंद नागेन्द्र के चालीस लाख भवन हैं, इसका शेष वैभव धरणेन्द्र के समान है। ये सब मिलाकर नागकुमारों के चौरासी लाख भवन हैं। सुपर्णकुमारों के बहत्तर लाख भवन हैं। उनमें दक्षिण दिशा के अधिपति वेणुदेव के अड़तालीस लाख एवं उत्तराधिपति वेणुधारी इन्द्र के चौंतीस लाख भवन हैं। इनका वैभव तथा परिवार धरणेन्द्र के तुल्य है। विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार इनमें से प्रत्येक के छियत्तर लाख भवन हैं। इनमें दक्षिणेन्द्र हरििंसह, अग्निशिख, सुघोष, जलकांत, पूर्णभद्र व अमितगति इन प्रत्येक के चालीस—चालीस लाख भवन हैं। हरिकांत, अग्नि माणव, महाघोष, जलप्रभ, वशिष्ट और अमितवाहन इन प्रत्येक उत्तरेन्द्र के छत्तीस—छत्तीस लाख भवन हैं। वातकुमारों के छियानवे लाख भवन हैं और उत्तराधिपति प्रभञ्जन के छियालीस लाख भवन हैं। विद्युत्कुमार आदि सातों भवनवासियों का सामानिक देव आदि परिवार धरणेन्द्र के समान है। इस प्रकार सब मिलाकर भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवन हैं। व्यंतर देवों के आठ भेदों का वर्णन करते हैं—

व्यन्तरा: किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षस-भूतपिशाचा:।।११।।

अर्थ — व्यन्तर देवों में  कन्नर  किम्पुरुष  महोरग  गन्धर्व  यक्ष  राक्षस  भूत  पिशाच ऐसे आठ भेद हैं। ये व्यन्तर देव पहाड़, गुफा, द्वीप, समुद्र, ग्राम, नगर, बाग, वन, उपवन आदि स्थानों पर अपनी-अपनी क्रीड़ा किया करते हैं। यह मध्यलोक और अधोलोक में पाये जाते हैं। जब यह किसी को लग जाते हैं तो उन्हें बाधा पहुँचाते हैं। आज कई लोगों को बीमारी लग जाती है तो सब कहते हैं कि देव लग गये परन्तु ऐसा अक्सर नहीं होता है लेकिन यह भी नहीं कि ऐसा नहीं होता है। आप कहीं भी जाएं, मन्दिर, वसतिका या मल-मूत्र त्याग करने के लिये भी जाएं तो नि:सही-नि:सही करके जाएं और आएं तो असही-असही करके आवें। जैसे क्लॉस में कोई बच्चा जाये तो औपचारिकतावश पूछकर आता है कि ‘श्aब् घ् म्दस ग्ह, एग्r ?’ क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ ? तो अध्यापक उसको अनुमति देते हैं कि हाँ! आ जाओ। जैसे बिना परमीशन जाने पर गुरू नाराज हो सकते हैं वैसे ही यह भी नाराज हो सकते हैं।
यदि हम आगम की इन आज्ञाओं का पालन करें तो सम्भव है कि यह न हो। अधोलोक में राक्षस तो पंकभाग में और शेष व्यन्तर देव खरभाग में रहते हैं। वे अपनी इच्छा अथवा दूसरों की प्रेरणा से भिन्न-भिन्न स्थानों में जाया करते हैं। ये व्यन्तर देव अनेक प्रकार के वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होते हैं। इनके आवासों के सामने मानस्तम्भ आदि चैत्य तरु होते हैं जिनमें जिनप्रतिमा होती हैं। सभी व्यंतरों के शरीर की ऊँचाई १० धनुष, सबकी उत्कृष्ट आयु १ पल्य से कुछ अधिक और जघन्य आयु १० हजार वर्ष है। क्रिया के निमित्त से इनके ये नाम हैं ऐसा नहीं है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि खोटे मनुष्यों को चाहने के कारण किन्नर, कुत्सित पुरुषों की कामना करने के कारण किम्पुरुष, मांस खाने से पिशाच आदि कारणों से यह संज्ञाएं उचित क्यों नहीं मानी जावें ? समाधान यह है कि इन व्यंतर देवों में किम्पुरुष आदि को क्रियानिमित्तक संज्ञा मानने से देवों का अवर्णवाद हो जावेगा। ये देव पवित्र वैक्रियक शरीरधारी होते हैं ये कभी भी अपवित्र औदारिक शरीर वाले मनुष्य आदि की कामना नहीं करते हैं, और न ही मांस—मदिरादि के खाने—पीने में प्रवृत्त होते हैं। लोक में जो व्यन्तरों की मांसादि ग्रहण की प्रवृत्ति सुनी जाती है वह उनकी केवल क्रीडामात्र है। उनके तो मानसिक आहार होता है। जम्बूद्वीप से तिरछे दक्षिण दिशा में असंख्यात द्वीप—समुद्रों के बाद नीचे खर पृथ्वी के ऊपरी भाग में दक्षिणाधिपति किन्नरेन्द्र का निवास है। वहाँ उसके असंख्यात लाख नगर हैं, इसके चार हजार सामानिक देव, तीन परिषद, सात प्रकार की सेना, चार अग्रमहिषियां और सोलह हजार आत्मरक्षक देव हैं। उत्तराधिपति किन्नरेन्द्र किम्पुरुष का भी इतना ही वैभव एवं परिवार है। उसका आवास उत्तर दिशा में है। शेष छह दक्षिणाधिपति—सत्पुरुष, अतिकाय, गीतिरति, पूर्णभद्र, स्वरूप और काल नामक इन्द्रों के आवास दक्षिण दिशा में हैं तथा उत्तराधिपति महापुरुष, महाकाय, गीतयश, मणिभद्र, अप्रतिरूप और महाकाल नामक व्यंतरेन्द्रों के आवास उत्तर दिशा में और रहने के स्थान नगर असंख्यात लाख हैं। दक्षिण दिशा में पंकबहुल भाग में भीम नामक राक्षसेन्द्र के असंख्यात लाख नगर बताए गये हैं और उत्तराधिपति महाभीम नामक राक्षसेन्द्र के उत्तर दिशा में पंकबहुल भाग में असंख्यात लाख नगर हैं। इन सोलह व्यंतर इन्द्रों के सामानिक आदि वैभव तथा परिवार सब समान हैं,अर्थात् प्रत्येक इन्द्र के चार हजार सामानिक, तीन परिषद, सात अनीक, चार अग्रमहिषियां और सोलह हजार आत्मरक्षक देव हैं। भूमितल पर भी द्वीप, समुद्र, पर्वत, देश, ग्राम, नगर, तिराहा, चौराहा, घर, आँगन, गली, जलाशय, उद्यान एवं देवमन्दिर आदि स्थानों में इन व्यन्तर देवों के असंख्यात लाख आवास कहे गए हैं। ज्योतिष्क देवों के ५ भेद बताते हैं—

ज्योतिष्का: सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च।।१२।।

अर्थ — ज्योतिष्क देव पाँच प्रकार के बताये गये हैं—सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे। ये स्वभाव से प्रकाशमान होते हैं इसलिये ज्योतिष्क कहलाते हैं। इनके विमान चमकीले होने से इन्हें ज्योतिष्क देव कहते हैं। ये सभी विमान अर्धगोलक के सदृश हैं तथा मणिमय तोरणों से अलंकृत होते हुये निरन्तर देव—देवियों से एवं जिनमन्दिरों से सुशोभित रहते हैं। अपने को जो सूर्य, चन्द्र, तारे आदि दिखाई देते हैं यह उनके विमानों का नीचे वाला गोलाकार भाग है। ज्योतिष्क देवों का निवास मध्यलोक के सम धरातल से ७९० योजन की ऊँचाई से लेकर ९०० योजन की ऊँचाई तक आकाश में है। इसमें ७९० योजन पर सर्वप्रथम तारे हैं, ८०० योजन की ऊँचाई पर सूर्य के विमान हैं। उनसे ८० योजन की ऊँचाई पर चन्द्र विद्यमान हैं फिर ४ योजन ऊपर जाकर नक्षत्र हैं। इसके बाद चार योजन की ऊँचाई पर बुध ग्रह, बुध ग्रह से ३ योजन ऊपर शुक्र, शुक्र से ३ योजन ऊपर गुरु, गुरु से ३ योजन ऊपर मंगल और मंगल से ३ योजन ऊपर शनि है। एक योजन २००० कोश का होता है। इसमें जो सूर्य का विमान है वह तपाए हुए स्वर्ण के सदृश है, उसकी रचना मणिमयी है, उसकी आकृति आधे गोले की है। सोलह हजार देव इसको वहन करते हैं, ये देव सिंह, हाथी, बैल और घोड़े का आकार धारण किये रहते हैं, जिसमें सिंह के आकार के देवों का मुख पूर्व दिशा की ओर, हाथी के आकार के देवों का दक्षिण की ओर, बैल के आकार के देवों का मुख पश्चिम की ओर और घोड़े के आकार के देवों का मुख उत्तर दिशा की ओर रहता है। इनसे संयुक्त विमान में सूर्य नामक देव अपने परिवारजनों के साथ रहते हैं। सूर्य के मुकुट में सूर्यमण्डल जैसा, चन्द्रमा में चन्द्रमण्डल जैसा तथा तारों में तारामण्डल जैसा चिन्ह होता है। इन ज्योतिष्क देवों का विशेष वर्णन करते हुए आचार्यश्री आगे के सूत्र में कहते हैं—

मेरूप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके।।१३।।

अर्थ — ऊपर कहे हुए ज्योतिष्क देव मनुष्यलोक में मेरू पर्वत की प्रदक्षिणा देते हुए हमेशा गमन करते रहते हैं। ये ज्योतिषी देव मनुष्यलोक में सुदर्शन मेरु पर्वत की परिक्रमा करते हुये निरन्तर घूमते रहते हैं। ढाई द्वीप और दो समुद्र तक मनुष्यलोक है। मनुष्यलोक में जो ज्योतिषी देव हैं वे मेरु से ११२१ योजन दूर रहकर उसके चारों ओर सदा घूमते रहते हैं। जम्बूद्वीप में २ सूर्य-२ चन्द्रमा, लवण समुद्र में ४ सूर्य-४ चन्द्रमा, धातकीखण्ड द्वीप में १२ सूर्य-१२ चन्द्रमा, कालोदधि में ४२ सूर्य-४२ चन्द्रमा और पुष्करार्ध में १३२ सूर्य और १३२ चन्द्रमा हैं। इन दोनों में चन्द्र इन्द्र और सूर्य प्रतीन्द्र है। एक सूर्य, २८ नक्षत्र, ८८ ग्रह और ६६९७५ कोड़ाकोड़ी तारे एक-एक चन्द्रमा के परिवार हैं। ज्योतिष्क देवों में होने वाले काल विभाग को बताते हैं—

तत्कृत: कालविभाग:।।१४।।

अर्थ — इन ज्योतिषी देवों के भ्रमण से ही घड़ी-घण्टा, दिन-रात आदि व्यवहारकाल का विभाग होता है। जम्बूद्वीप सम्बन्धी दो सूर्य विमान हैं इसमें से प्रत्येक सूर्य जम्बूद्वीप के चारों ओर पूर्व से पश्चिम को ४८ घण्टे में घूम आता है। जब पूर्व की ओर से दक्षिण की ओर आता हुआ सूर्य विमान निषध पर्वत के ठीक मध्य को पार करता है तब दूसरा सूर्य विमान पश्चिम की ओर से उत्तर को जाता हुआ नील पर्वत के ठीक मध्य को पार करता है इस समय विदेह क्षेत्रों में सूर्य छिपता है और भरत-ऐरावत क्षेत्रों में सूर्य निकलता है। सूर्य का विमान ४८/६१ योजन का है। यदि १ योजन में ४००० मील के अनुसार गुणा किया जावे तो ३१४७—२३/६१ मील का होता है एवं चन्द्र विमान ५६/६१ योजन अर्थात् ३६७२—८/६१ मील का है। शुक्र का विमान १ कोश का है। यह बड़ा कोश लघु कोश से ५०० गुणा है अत: ५०० को २ मील से गुणा करने पर १००० मील का आता है। इसी प्रकार आगे— ताराओं के विमानों का सबसे जघन्य प्रमाण १/४ कोश अर्थात् २५० मील का है। इन सभी विमानों की बाहल्य (मोटाई) अपने—अपने विमानों के विस्तार के आधी—आधी मानी है। राहु के विमान चन्द्र विमान के नीचे एवं केतु के विमान सूर्य विमान के नीचे रहते हैं अर्थात् ४ प्रमाणांगुल (२००० उत्सेधांगुल) प्रमाण ऊपर चंद्र—सूर्य के विमान स्थित होकर गमन करते रहते हैं। ज्योतिष विमानों के इस भ्रमण में जब-जब सूर्य चन्द्र विमानों के नीचे राहु-केतु के विमान आ जाते हैं तब सूर्यग्रहण व चन्द्रग्रहण कहा जाता है क्योंकि राहु-केतु के विमानों का वर्ण काला होने से सूर्य चन्द्रमा का प्रकाश उनसे छिप जाता है। सूर्य के भ्रमण की १८४ गलियाँ हैं। आषाढ़ मास में सूर्य जब प्रथम गली में अथवा कर्वâ राशि में गमन करते हैं, तब १८ मुहूर्त का दिन और १२ मुहूर्त की रात होती है क्योंकि उस समय सूर्य की गति मन्द होती है, यह गर्मी की ऋतु कहलाती है। जैसे-जैसे सूर्य बाह्य गलियों में दक्षिणायन को चलते हैं उनकी गति, गलियों की लम्बाई बढ़ती जाने से तेज होती जाती है तब दिन छोटा और रात बड़ी होने लगती है। माघ के महीने में जब सूर्य मकर राशि अथवा अन्तिम गली में पहुँचता है तो दिन १२ मुहूर्त तथा रात १८ मुहूर्त की हो जाती है, यह जाड़े का मौसम कहलाता है। यहाँ से सूर्य फिर उत्तरायण को चलता है। यही क्रम बराबर चलता रहता है। प्रथम और अंतिम गली में सूर्य एक वर्ष में एक ही बार गमन करता है और शेष १८२ गलियों में आने-जाने की अपेक्षा १ वर्ष में २-२ बार गमन करता है। इसीलिये एक वर्ष में ३६६ दिन होते हैं जो बारह महीने में विभाजित हैं। उसमें २-२ माह की ऋतुएँ इस प्रकार हैं—ज्येष्ठ आषाढ़ मास में गर्मी रहती है, श्रावण और भाद्रपद मास में वर्षा ऋतु होती है, आश्विन और कार्तिक माह में शरद ऋतु होती है, मगशिर और पौष मास में हेमन्त ऋतु होती है, माघ और फाल्गुन में शिशिर ऋतु होती है तथा चैत्र और बैशाख में बसन्त ऋतु रहती है।
सूर्य एवं चन्द्र की किरणें १२०००—१२००० हैं। शुक्र की किरणें २५०० है। बाकी सभी ग्रह, नक्षत्र एवं तारकाओं की मंद किरणें हैं। गमन में चन्द्रमा सबसे मंद है। सूर्य उसकी अपेक्षा शीघ्रगामी है। सूर्य से शीघ्रतर ग्रह, ग्रहों से शीघ्रतर नक्षत्र एवं नक्षत्रों से भी शीघ्रतर गति वाले तारागण हैं। पृथ्वी के परिणामस्वरूप (पृथ्वीकायिक) चमकीली धातु से सूर्य का विमान बना हुआ है, जो कि अकृत्रिम है। इस सूर्य के बिंब में स्थित पृथ्वीकायिक जीवों के आतप नामकर्म का उदय होने से उसकी किरणें चमकती हैं तथा उसके मूल में उष्णता न होकर सूर्य की किरणों में ही उष्णता होती है इसीलिये सूर्य की किरणें उष्ण हैं। उसी प्रकार चन्द्रमा के बिम्ब में रहने वाले पृथ्वीकायिक जीवों के उद्योत नाम कर्म का उदय है जिसके निमित्त से मूल में तथा किरणों में सर्वत्र ही शीतलता पाई जाती है। इसी प्रकार ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि सभी के बिम्ब—विमानों के पृथ्वीकायिक जीवों के भी उद्योत नामकर्म का उदय पाया जाता है। सूर्य चन्द्र के विमानों में स्थित जिनमंदिर का वर्णन सभी ज्योतिर्देवों के विमानों के बीचोंबीच में एक—एक जिनमंदिर है और चारों ओर ज्योतिर्वासी देवों के निवासस्थान बने हैं। प्रत्येक की तटवेदी चार गोपुरों से युक्त है। उसके बीच में उत्तम वेदी सहित राजांगण है। राजांगण के ठीक बीच में रत्नमय दिव्य कूट है। उस कूट पर वेदी एवं चार तोरण द्वारों से युक्त जिनचैत्यालय (मंदिर) हैं। वे जिनमंदिर मोती व सुवर्ण की मालाओं से रमणीय और उत्तम वङ्कामय किवाड़ों से संयुक्त दिव्य चन्द्रोपकों से सुशोभित हैं। वे जिनभवन देदीप्यमान रत्नदीपकों से सहित अष्ट महामंगल द्रव्यों से परिपूर्ण, वंदनमाला, चमर, क्षुद्र घंटिकाओं के समूह से शोभायमान हैं। उन जिनभवनों में स्थान—स्थान पर विचित्र रत्नों से निर्मित नाट्य सभा, अभिषेक सभा एवं विविध प्रकार की क्रीड़ाशालाएं बनी हुई हैं। वे जिनभवन समुद्र के सदृश गम्भीर शब्द करने वाले, मर्दल, मृदंग, पटह आदि विविध प्रकार के दिव्य वादित्रों से नित्य शब्दायमान हैं। उन जिनभवनों में तीन छत्र, सिंहासन, भामंडल और चामरों से युक्त जिनप्रतिमायें विराजमान हैं। चन्द्र के भवनों का वर्णन इन जिनभवनों के चारों ओर समचतुष्कोण लम्बे और नाना प्रकार के विन्यास से रमणीय चन्द्र के प्रासाद होते हैं। इनमें कितने ही प्रासाद मर्कत वर्ण के, कितने ही कुन्द पुष्प, चन्द्रहार एवं बर्पâ जैसे वर्ण वाले, कोई सुवर्ण सदृश वर्ण वाले व कोई मूंगा जैसे वर्ण वाले हैं। इन भवनों में उपपाद मन्दिर, स्नानगृह, भूषणगृह, मैथुनशाला, क्रीड़ाशाला, मन्त्रशाला एवं आस्थानशालायें (सभाभवन) स्थित हैं। वे सब प्रासाद उत्तम परकोटों से सहित, विचित्र गोपुरों से संयुक्त, मणिमय तोरणों से रमणीय, विविध चित्रमयी दीवालों से युक्त, विचित्र—विचित्र उपवन वापिकाओं से शोभायमान, सुवर्णमय विशाल खम्भों से सहित और शयनासन आदि से परिपूर्ण हैं। वे दिव्य प्रासाद धूप की गन्ध से व्याप्त होते हुए अनुपम एवं शुद्ध रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से विविध प्रकार के सुखों को देते हैं तथा इन भवनों में कूटों से विभूषित और प्रकाशमान रत्नकिरण—पंक्ति से संयुक्त ७—८ आदि भूमियां (मंजिल) शोभायमान होती हैं। इन चन्द्रभवनों में सिंहासन पर चन्द्रदेव रहते हैं। एक चन्द्रदेव की ४ अग्रमहिषी (प्रधान देवियां) होती हैं। चन्द्राभा, सुसीमा, प्रभंकरा, र्अिचमालिनी—इन प्रत्येक देवी के ४—४ हजार परिवार देवियां हैं। अग्रदेवियां विक्रिया से ४—४ हजार प्रमाण रूप बना सकती हैं। एक—एक चन्द्र के परिवार देव—प्रतीन्द्र (सूर्य), सामानिक, तनुरक्ष, तीनों परिषद्, सात अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक, इस प्रकार ८ भेद हैं। इनमें प्रतीन्द्र १ तथा सामानिक आदि संख्यात प्रमाण देव होते हैं। ये देवगण भगवान के कल्याणकों में आया करते हैं। राजांगण के बाहर विविध प्रकार के उत्तम रत्नों से रचित और विचित्र विन्यास रूप विभूति से सहित परिवार देवों के प्रासाद होते हैं।
चन्द्रदेव की उत्कृष्ट आयु — १ पल्य और १ लाख वर्ष की है। सूर्यदेव की उत्कृष्ट आयु — १ पल्य १ हजार वर्ष की है। शुक्रदेव की उत्कृष्ट आयु — १ पल्य १०० वर्ष की है। वृहस्पतिदेव की ,, ,, — १ पल्य की है। बुध, मंगल आदि देवों की ,, — आधा पल्य की है। ताराओं की ,, — पाव पल्य की है। तथा ज्योतिष्क देवांगनाओं की आयु अपने—अपने पति की आयु से आधे प्रमाण होती है। इन सबकी ऊँचाई ७ धनुष है। सूर्य के विमान ३१४७—३३/६१ मील के हैं एवं इससे आधे मोटाई लिये हैं तथा अन्य वर्णन उपर्युक्त प्रकार के चन्द्र के विमानों के सदृश ही है। सूर्य की देवियों के नाम—द्युतिश्रुति, प्रभंकरा, सूर्यप्रभा, अर्चिमालिनी ये चार अग्रमहिषी हैं। इन एक—एक देवियों के चार—चार हजार परिवार देवियां हैं एवं एक—एक अग्रमहिषी विक्रिया से चार—चार हजार प्रमाण रूप बना सकती हैं। बुध के विमान स्वर्णमय चमकीले हैं। शीतल एवं मंद किरणों से युक्त हैं। कुछ कम ५०० मील के विस्तार वाले हैं तथा उससे आधे मोटाई वाले हैं। पूर्वोक्त चन्द्र, सूर्य विमानों के सदृश ही इनके विमानों में भी जिनमन्दिर, वेदी, प्रासाद आदि रचनाएं हैं। देवी एवं परिवार देव आदि तथा वैभव उनसे कम अर्थात् अपने—अपने अनुरूप हैं। २—२ हजार आभियोग्य जाति के देव इन विमानों को ढोते हैं। शुक्र के विमान उत्तम चांदी से र्नििमत २५०० किरणों से युक्त हैं। विमान का विस्तार १००० मील का एवं बाहल्य (मोटाई) ५०० मील की है। अन्य सभी वर्णन पूर्वोक्त प्रकार ही है। वृहस्पति के विमान स्फटिक मणि से निर्मित सुन्दर मंद किरणों से युक्त कुछ कम १००० मील विस्तृत एवं इससे आधे मोटाई वाले हैं। देवी एवं परिवार आदि का वर्णन अपने—अपने अनुरूप तथा बाकी मन्दिर, प्रासाद आदि का वर्णन पूर्वोक्त ही है। मंगल के विमान पद्मराग मणि से र्नििमत लाल वर्ण वाले हैं। मंद किरणों से युक्त, ५०० मील विस्तृत, २५० मील बाहल्ययुक्त है। अन्य वर्णन पूर्ववत् है। शनि के विमान स्वर्णमय, ५०० मील विस्तृत एवं २५० मील मोटे हैं। अन्य वर्णन पूर्ववत् है। नक्षत्रों के नगर विविध—विविध रत्नों से र्नििमत रमणीय मंद किरणों से युक्त हैं। १००० मील विस्तृत व ५०० मील मोटे हैं, ४—४ हजार वाहन जाति के देव इनके विमानों को ढोते हैं। शेष वर्णन पूर्ववत् है। ताराओं के विमान उत्तम—उत्तम रत्नों से र्नििमत मंद—मंद किरणों से युक्त, १००० मील विस्तृत, ५०० मील मोटाई वाले हैं। इनके सबसे छोटे से छोटे विमान २५० मील विस्तृत एवं इससे आधे बाहल्य वाले हैं। यह तो आप जान ही गए हैं कि जम्बूद्वीप १ लाख योजन (१००००० ² ४००० · ४०००००००० मील) व्यास वाला है एवं वलयाकार (गोलाकार) है। सूर्य का गमनक्षेत्र पृथ्वीतल से ८०० योजन (८०० ² ४००० · ३२००००० मील) ऊपर जाकर है। वह इस जम्बूद्वीप के भीतर १८० योजन एवं लवण समुद्र में ३३०—४८/६१ योजन है अर्थात् समस्त गमन क्षेत्र ५१०—४८/६१ योजन या २०४३१४—४८/६१ मील है। इतने प्रमाण गमन क्षेत्र में १८४ गलियाँ हैं। इन गलियों में सूर्य क्रमश: एक—एक गली में संचार करते हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप में दो सूर्य तथा दो चन्द्रमा हैं।
इस ५१०—४८/६१ योजन के गमन क्षेत्र में सूर्य बिम्ब की १—१ गली ४८/६१ योजन प्रमाण वाली है। एक गली से दूसरी गली का अन्तराल २—२ योजन का है अत: १८४ गलियों का प्रमाण ४८/६१ ² १८४ · १४४—४८/६१ योजन हुआ। इस प्रमाण को ५१०—४८/६१ योजन गमन क्षेत्र में से घटाने पर ५१०—४८/६१—१४४—४८/६१ · ३६६ योजन कुल गलियों का अंतराल क्षेत्र रहा। ३६६ योजन में एक कम गलियों का अर्थात् गलियों के अन्तर १८३ हैं, उसका भाग देने से गलियों के अन्तर का प्रमाण ३६६ ´ १८३ · २ योजन (८००० मील) का आता है। इस अन्तर में सूर्य की १ गली का प्रमाण ४८/६१ योजन को मिलाने से सूर्य के प्रतिदिन के गमन क्षेत्र का प्रमाण २—४८/६१ योजन (१११४७ —३३/६१ मील) का हो जाता है। इन गलियों में एक—एक गली में दोनों सूर्य आमने—सामने रहते हुये १ दिन- रात्रि (३० मुहूर्त) में एक गली के भ्रमण को पूरा करते हैं। प्रथम गली में सूर्य के रहने पर उस गली की परिधि (३१५०८९ योजन) के १० भाग कीजिये। एक—एक गली में २—२ सूर्य भ्रमण करते हैं अत: एक सूर्य के गमन सम्बन्धी ५ भाग हुये। उस ५ भाग में से २ भागों में अंधकार (रात्रि) एवं ३ भागों में प्रकाश (दिन) होता है। यथा—३१५०८९ ´ १० · ३१५०८—९/१० योजन दशवां भाग (१२६०३५६०० मील) प्रमाण हुआ। एक सूर्य सम्बन्धी ५ भाग परिधि का आधा ३१५०८९ ´ २ · १५७५४४ — १/२ योजन है। उसमें दो भाग में अंधकार एवं ३ भागों में प्रकाश है। इसी प्रकार से क्रमश: आगे—आगे की वीथियों में प्रकाश घटते—घटते एवं रात्रि बढ़ते—बढ़ते मध्य की गली में दोनों ही (दिन रात्रि) २—१/२—२—१/२ भाग में समान रूप से हो जाते हैं। पुन: आगे—आगे की गलियों में प्रकाश घटते—घटते तथा अंधकार बढ़ते—बढ़ते अंतिम बाह्य गली में सूर्य के पहुँचने पर ३ भागों में रात्रि एवं २ भागों में दिन हो जाता है अर्थात् प्रथम गली में सूर्य के रहने से दिन बड़ा एवं अंतिम गली में रहने से छोटा होता है। इस प्रकार सूर्य के गमन के अनुसार ही भरत—ऐरावत क्षेत्रों में और पूर्व—पश्चिम विदेह क्षेत्रों में दिन रात्रि का विभाग होता रहता है। श्रावण मास में जब सूर्य पहली गली में रहता है उस समय दिन १८ मुहूर्त (१४ घण्टे २४ मिनट) का एवं रात्रि १२ मुहूर्त (९ घन्टे ३६ मिनट) की होती है। जब सूर्य प्रथम गली का परिभ्रमण पूर्ण करके दो योजन प्रमाण अंतराल के मार्ग को उल्लंघन कर दूसरी गली में जाता है तब दूसरे दिन दूसरी गली में जाने पर परिधि का प्रमाण बढ़ जाने से एवं मेरू से सूर्य का अन्तराल बढ़ जाने से दो मुहूर्त का ६१ वां भाग (१—३५/६१ मिनट) दिन घट जाता है एवं रात्रि बढ़ जाती है। इसी तरह प्रतिदिन दो मुहूर्त के ६१ वें भाग प्रमाण घटते—घटते मध्यम गली में सूर्य के पहुँचने पर १५ मुहूर्त (१२ घन्टे) का दिन एवं १५ मुहूर्त की रात्रि हो जाती है। इस प्रकार प्रतिदिन २ मुहूर्त के ६१ वें भाग घटते—घटते अंतिम गली में पहुंचने पर १२ मुहूर्त (९ घन्टे ३६ मिनट) का दिन एवं १८ मुहूर्त (१४ घन्टे २४ मिनट) की रात्रि हो जाती है। जब सूर्य कर्वट राशि में आता है तब अभ्यन्तर गली में भ्रमण करता है और जब सूर्य मकर राशि में आता है तब बाह्य गली में भ्रमण करता है।
श्रावण मास में जब सूर्य प्रथम गली में रहता है तब १८ मुहूर्त का दिन एवं १२ मुहूर्त की रात्रि होती है। बैसाख एवं र्काितक मास में जब सूर्य बीचों—बीच की गली में रहता है तब दिन एवं रात्रि १५—१५ मुहूर्त (१२ घंटे) के होते हैं। इस प्रकार माघ मास में सूर्य जब अन्तिम गली में रहता है तब १२ मुहूर्त का दिन एवं १८ मुहूर्त की रात्रि होती है। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन जब सूर्य अभ्यन्तर मार्ग (गली) में रहता है, तक दक्षिणायन का प्रारम्भ होता है एवं जब १८४ वीं (अन्तिम गली) में पहुंचता है तब उत्तरायण का प्रारम्भ होता है। अतएव ६ महीने में दक्षिणायन एवं ६ महीने में उत्तरायण होता है। जब दोनों ही सूर्य अन्तिम गली में पहुँचते हैं तब दोनों सूर्यों का परस्पर में अन्तर अर्थात् एक सूर्य से दूसरे सूर्य के बीच का अन्तराल—१००६६० योजन (४०२६४०००० मील) का रहता है अर्थात् जम्बूद्वीप १ लाख योजन है तथा लवण समुद्र में सूर्य का गमन क्षेत्र ३३० योजन है उसे दोनों तरफ का लेकर मिलाने पर १००००० ± ३३० ± ३३० · १००६६० योजन होता है। अन्तिम गली से अन्तिम गली का यही अन्तर है। जब सूर्य प्रथम गली में रहता है तब एक मुहूर्त में ५२५१—२९/६० योजन (२१००५९४३३—१/३ मील) गमन करता है अर्थात्—प्रथम गली की परिधि का प्रमाण ३१५०८९ योजन हैं उनमें ६० मुहूर्त का भाग देने से उपर्युक्त संख्या आती है क्योंकि २ सूर्यों के द्वारा ३० मुहूर्त में १ परिधि पूर्ण होती है अत: एक परिधि के भ्रमण में कुल ६० मुहूर्त लगते हैं अतएव ६० का भाग दिया जाता है। उसी प्रकार जब सूर्य बाह्य गली में रहता है। तब बाह्य परिधि में ६० का भाग देने से—३१८३१४ ´ ६० · ५३०५—१४/६० योजन (२१२२०९३३—१/३ मील) प्रमाण एक मुहूर्त में गमन करता है। एक मिनट में सूर्य की गति ४४७६२३—१/३ मील प्रमाण है अर्थात् १ मुहूर्त की गति में ४८ मिनट का भाग देने से १ मिनट की गति का प्रमाण आता है। यथा २१२२०९३३—१/३ ´ ४८ · ४४७६२३—११/१८ योजन ? जब सूर्य एक पथ से दूसरे पथ में प्रवेश करता है तब मध्य के अन्तराल २ योजन (८००० मील) को पार करते हुए ही जाता है।
अतएव इस निमित्त से १ दिन में १ मुहूर्त की वृद्धि होने से १ मास में ३० मुहूर्त (१ अहोरात्र) की वृद्धि होती है अर्थात् यदि १ पथ के लांघने में दिन का इकसठवां भाग (१/६१) उपलब्ध होता है तो १८४ पथों के १८३ अन्तरालों को लांघने में कितना समय लगेगा—१/६१ ² १८३ ´ १ · ३ दिन तथा २ सूर्य सम्बन्धी ६ दिन हुए। इस प्रकार प्रतिदिन १ मुहूर्त (४८ मिनट) की वृद्धि होने से १ मास में १ दिन तथा १ वर्ष में १२ दिन की वृद्धि हुई एवं इसी क्रम से २ वर्ष में २४ दिन तथा ढाई वर्ष में ३० दिन (१ मास) की वृद्धि होती है तथा ५ वर्ष (१ युग) में २ मास अधिक हो जाते हैं। जब सूर्य पहली गली में आता है तब अयोध्या नगरी के भीतर अपने भवन के ऊपर स्थित चक्रवर्ती सूर्य विमान में स्थित जिनिंबब का दर्शन करते हैं। इस समय सूर्य अभ्यंतर गली की परिधि ३१५०८९ योजन को ६० मुहूर्त में पूरा करता है। इस गली में सूर्य निषध पर्वत पर उदित होता है। वहां से उसे अयोध्या नगरी के ऊपर आने में ९ मुहूर्त लगते हैं। अब जब वह ३१५०८९ योजन प्रमाण उस वीथी को ६० मुहूर्त में पूर्ण करता है तब वह ९ मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पूरा करेगा। इस प्रकार त्रैराशिक करने पर ३०५०८९/६० ² ९ · ४७२६३—७/२० योजन अर्थात् १८९०५३४००० मील होता है। इस प्रकार ६ मास में र्पूिणमा के दिन चन्द्र विमान पूर्ण आच्छादित हो जाता है उसे चन्द्रग्रहण कहते हैं तथैव छह मास में सूर्य के विमान को अमावस्या के दिन केतु का विमान ढक देता है उसे सूर्य ग्रहण कहते हैं। यहां विशेष रूप से यह ध्यान रखना है कि ग्रहण के समय दीक्षा, विवाह आदि शुभ कार्य र्विजत माने हैं तथा सिद्धान्त ग्रन्थों के स्वाध्याय का भी निषेध किया है। इन ज्योतिषी देवों में चन्द्रमा इन्द्र है तथा सूर्य प्रतीन्द्र है अत: एक चन्द्र (इन्द्र) के—१ सूर्य (प्रतीन्द्र), ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र, ६६ हजार ९७५ कोड़ाकोड़ी तारे ये सब परिवार देव हैं। १ करोड़ को १ करोड़ से गुणा करने पर कोड़ाकोड़ी संख्या आती है। १००००००० ² १००००००० · १०,०००००००००००००० मनुष्यलोक से बाहर ज्योतिष्क देवों की स्थिति बताते हैं—

बहिरवस्थिता:।।१५।।

अर्थ — ढाई द्वीप के बाहर जो ज्योतिषी देव हैं वह स्थिर हैं। ये ज्योतिष्क देव यहाँ की भांति घूमते नहीं हैं। ढाई द्वीप के बाहर जिस प्रदेश में सूर्य का प्रकाश पहुँचता है वहाँ का सदा ही एक सा बना रहता है और जहाँ नहीं पहुँचता है वहाँ सूर्य के प्रकाश का अभाव बना रहता है। वैमानिक देवों का वर्णन करते हुए कहते हैं—

वैमानिका:।।१६।।

अर्थ — अब यहाँ से वैमानिक देवों का वर्णन शुरु होता है। विमानेषु भव: वैमानिका:। ऊध्र्वलोक के स्वर्गों के विमानों में रहने वाले देव ‘‘वैमानिक’’ कहलाते हैं। ये विशेष पुण्यशाली माने जाते हैं। ये विमान स्थिति की अपेक्षा तीन प्रकार के हैं—१. इन्द्रक—ये सब विमानों के मध्य में स्थित हैं, २. श्रेणीबद्ध—इन्द्रकों की चारों दिशाओं के कतारबद्ध विमान, ३. प्रकीर्णक—विदिशाओं में जहाँ, तहाँ स्थित विमान प्रकीर्णक हैं। इनके विमानों में उत्तम मन्दिर, कल्पवृक्ष, वन, बाग, बावड़ियाँ और अनेक प्रकार की रचनाएँ हैं। इन विमानों की संख्या ८४ लाख ९७ हजार २३ है। वैमानिक देवों के भेदों को बताते हैं—

कल्पोपपन्ना: कल्पातीताश्च।।१७।।

अर्थ — वैमानिक देव दो प्रकार के हैं—१. कल्पोपपन्न, २. कल्पातीत। जहाँ इन्द्र आदि दश भेदों की कल्पना हो वह कल्प कहलाता है ऐसे १६ स्वर्गों को कल्प कहते हैं, उनमें जो पैदा होते हैं वह कल्पोपपन्न हैं और १६ स्वर्ग के आगे पैदा होने वाले कल्पातीत होते हैं। वहां इन्द्र आदि की कल्पना नहीं है, वे सब अहमिन्द्र होते हैं। अब विमानों की स्थिति का क्रम बताते हैं—

उपर्युपरि।।१८।।

अर्थ — सोलह स्वर्गों के आठ युगल, नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर ये सभी विमान क्रम से ऊपर-ऊपर हैं। यहाँ जो उपरि—उपरि शब्द दो बार आया है वह व्याकरण के नियम को सार्थक कर रहा है। समीपता बताने के लिये अधो ध:, उपरि—उपरि ऐसा द्वित्व हो जाता है। यहाँ यह स्पष्ट है कि न तो देव एक दूसरे के ऊपर रहते हैं न विमान एक दूसरे के ऊपर रहते हैं क्योंकि श्रेणीबद्ध विमान और पुष्प प्रकीर्णक विमान, प्रतीन्द्रक विमान की चारों दिशाओं व चारों विदिशाओं में तिरछे—तिरछे स्थित हैं। १६ स्वर्गों के ८ युगलों में ५२ पटल, नव ग्रैवेयक के ९, नौ अनुदिश का एक तथा ५ अनुत्तर का एक पटल इस प्रकार ६३ स्थानों में कुल ६३ पटलों में विमान क्रम से ऊपर-ऊपर हैं। १६ स्वर्गों के ८ युगलों में ५२ पटल हैं उनमें से प्रत्येक पटल में एक-एक इन्द्रक विमान, कुछ श्रेणीबद्ध व कुछ प्रकीर्णक नाम के विमान हैं।
ऊपर-ऊपर की जाति के देव अपने-अपने स्वर्गों में रहते हैं, ज्यादा आवागमन नहीं करते। देव पर्याय पुण्य परिणामों की बहुलता से मिलती है। इसमें भी भवनत्रिक पर्याय से वैमानिक देव बनना विशेष पुण्य की बात है। जो प्राणी अपने परिणाम सरल और शुभ रखता है, सुपात्रों को भक्ति से दान देता है, दीन-दुखियों को दया भाव से दान देता है, देव-शास्त्र-गुरु की पूजा-भक्ति में तत्पर रहता है, पाँच इन्द्रियों के विषयों को रोककर मन को वश में कर लेता है, जीवों पर दया करता है, दु:खों में समताभाव रखता है, बारह प्रकार का तपश्चरण करता है, परोपकार करता है, दूसरों की पीड़ा को दूर करता है, बाह्य और भौतिक पदार्थों से मूच्र्छा और ममता त्यागकर आत्मा में उपयोग लगाता है। उत्तम क्षमादि १० धर्मों को स्वयं में अवतरित करता है वही जीव स्वर्गों में जाता है परन्तु वर्तमान में देखा जाता है कि प्राणी भौतिक चकाचौंध में डूब गया है, सदैव अशुभ प्रवृत्ति करता रहता है अतएव अगर आपको स्वर्ग जाना है तो शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करनी होगी। सांसारिक मोह, माया, राग, द्वेष, ईष्र्या, मत्सरभाव आदि का त्याग कर शुभ परिणाम रखने होंगे। वैमानिक देवों के रहने के स्थानों के नाम बताते हैं—

सौधर्मैशान-सानत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर-लान्तव-कापिष्ठ-शुक्र-महाशुक्र-शतार-सहस्रारेष्वानत-

प्राणतयोरा-रणाच्युतयोर्नवसु-ग्रैवेयकेषु विजय-वैजयन्त-जयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च।।१९।।

अर्थ — वैमानिक देव सौधर्म-ईशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत, आरण-अच्युत इन आठ युगलों में, नौ ग्रैवेयक विमानों में, नव अनुदिश विमानों में, पाँच अनुत्तर (विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि) विमानों में रहते हैं। स्वर्गों के नाम पर इन्द्रों के भी नाम हैं। सुधर्मा नाम की सभा उसमें है अत: उसे सौधर्म कल्प संज्ञा प्राप्त हुई। वैसे स्वर्गों के ये नाम अनादिअनिधन हैं। लोकाकाश पुरुषाकार है। शरीर में ग्रीवा के समान लोक की आकृति पुरुषाकार होने से ग्रीवा के स्थान पर स्थिति को प्राप्त कर ग्रैवेयक नाम सार्थक हो गया और वहां के इन्द्र भी ग्रैवेयक कहलाते हैं। सुदर्शन, अमोघ, सुबुद्ध,सुभद्र, सुविशाल, सौमनस और प्रियंकर नाम वाले ये नव अनुदिश भी एक के ऊपर एक स्थित हैं। जहाँ के सुखों में बीच में कोई विघ्न नहीं आता—विघ्न के कारणों को जीत लेने से विजयादि नाम भी सार्थक है अर्थात् विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित वाले दो, तीन भव से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करेंगे। ये सभी सम्यग्दृष्टि है अत: संसार पर विजय प्राप्त कर लेने से अथवा कर्मों द्वारा जीते नहीं जाने से इनका यह नाम स्वयं सिद्ध ही है। सर्व अर्थों की सिद्धि हो गई इसमें रहने वाले देव एक भवावतारी हैं इसलिए इनका नाम सर्वार्थसिद्धि है। विजयादि चार विमानों में जघन्य स्थिति आयु बत्तीस सागर से कुछ अधिक है और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है किन्तु सर्वार्थसिद्धि में जघन्य और उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरोपम है। जो प्रभाव सर्वार्थसिद्धि के एक देव का है वैसा प्रभाव विजयादि के सब देवों का भी नहीं है। यही सर्वार्थसिद्धि की विशेषता है। सौधर्मादि अच्युत पर्यंत बारह कल्प हैं उनके अतिरिक्त अन्य स्वर्ग कल्पातीत हैं। प्रत्येक स्वर्ग में एक—एक इन्द्र है किन्तु मध्य के आठ स्वर्गों में दो—दो स्वर्गों में एक—एक इन्द्र है। यथा सौधर्म ऐशान स्वर्ग में दो इन्द्र हैं। सौधर्म एक, ऐशान का एक। इसी प्रकार सानत्कुमार व माहेन्द्र स्वर्ग में भी उसी उसी नाम वाले एक एक—एक अलग इन्द्र है। ब्रह्म—ब्रह्मोत्तर में ब्रह्मा, लांतव—कापिष्ठ में लांतव, शुक—महाशुक्र में शुक्र, शतरा—सहस्रार में शतार, आनत स्वर्ग में आनत तथा प्राणत में प्राणत नाम वाला इन्द्र है। आरण अच्युत में आरण और अच्युत नाम वाले एक—एक इन्द्र है। भूतल से निन्यानवे हजार चालीस योजन ऊपर जाकर सौधर्म ऐशान कल्प है। इनमें ३१ विमानों के प्रस्तार है; जिनके नाम इस प्रकार हैं— १—ऋजु २—चन्द्र ३—वमल ४—वत्गू ५—वीर ६—अरुण ७—नान्दन ८—नालिन ९—लोहित १०—कांचन ११—वंचत १२—मारुत १३—ऋद्धीश १४—वंड्र्य १५—रुचक १६—रुचिर १७—अंक १८—स्फटिक १९—तपनीय २०—मेघ २१—हारिद्र २२—पद्म २३—लोहिताक्ष २४—वङ्का २५—नान्द्यावर्त २६—प्रभंकर २७—पिष्टक २८—गज २९—मस्तक ३०—चत्र और ३१—संज्ञक। (सुदर्शन मेरु की चूलिका के ठीक ऊपर ऋजु विमान है। चूलिका के ऊपरी भाग में और विमान के तल भाग में एक बाल मात्र का अन्तर है।) ऋजु विमान की चारों दिशाओं में चार—चार विमान श्रेणियाँ हैं। प्रत्येक श्रेणी में बासठ—बासठ विमान है। विदिशाओं में पुष्प प्रकीर्णक विमान है तथा अन्त के प्रभा नामक विमान तक एक—एक श्रेणीबद्ध विमान की हानि होती चली गई है। एक—एक प्रस्तार में असंख्यात—असंख्यात लाख योजन का अन्तर है। उनमें प्रभा नामक इन्द्रक विमान की दक्षिण दिशा में बत्तीस श्रेणीबद्ध विमान हैं उनमें अठारहवां विमान ‘कल्प’ है। यही सौधर्म इन्द्र का निवास स्थान है। इस कल्प विमान के स्वस्तिक, वर्धमान और विश्रुत नाम के तीन परकोटे हैं। बाह्य प्राकार में अनीक और पारिषद देवों का निवास है। मध्यम प्राकार में त्रायस्त्रिंश सचिव हैं और अभ्यन्तर प्राकार में स्वयं सौधर्म देवराज इन्द्र निवास करता है। प्रत्येक स्वर्ग इस कल्प विमान की चारों दिशाओं में कांचन, अशोक मन्दिर, मसार और गल्ब नामक चार नगर हैं। सौधर्म इन्द्र के बत्तीस लाख विमान है। तेंतीस त्रायिंस्त्रश, चौरासी हजार आत्मरक्ष और तीन परिषद (सभा) हैं। प्रभा नामक इन्द्रक उसके सात अनीक, चौरासी हजार सामानिक देव और चार लोकपाल है। पद्मा, शिवा, सुजाता, सुलसा, अंजुका, कालिंदी, श्यामा और भानु ये आठ सौधर्म इन्द्र की महादेवियाँ हैं। चालीस हजार वल्लभिकाएँ हैं। वे सभी अग्रमहिषियाँ और वल्लभिकाएँ सोलह—सोलह हजार देवियों से घिरी रहती हैं। प्रत्येक वल्लभा एवं अग्रमहिषी की आयु पांच पल्य की होती है। एक—एक अग्रमहिषी और वल्लभिका सोलह—सोलह हजार देवियों के रूप बना सकने में समर्थ होती हैं। इन्द्र की अभ्यंतर सभा का नाम ‘समिता’ है। इसके बारह हजार सभासद देव हैं इन सभासद देवों की आयु पाँच पल्य की मानी गई है। ‘चन्द्रा’ नाम की मध्यम सभा में चौदह हजार देव तथा ‘जातु’ नामक बाह्य सभा में सोलह हजार देव होते हैं। मध्यम सभा के देव की आयु चार पल्य तथा बाह्य सभा के देव की आयु तीन पल्य प्रमाण कही गई है। आभ्यंतर परिषद के प्रत्येक देव ढाई पल्य की आयु वाली सात सौ देवियाँ, मध्यम परिषद में प्रत्येक देव की दो पल्य प्रमाण आयु वाली छह सौ देवियाँ तथा बाह्य परिषद के प्रत्येक देव की डेढ़ पल्य प्रमाण आयु वाली पाँच सौ देवियाँ होती हैं। एक देव की जितनी देवियाँ हैं उतने ही प्रमाण एक देवी विक्रिया करने में सक्षम हैं। सौधर्मेन्द्र की आठों अग्रमहिषियों की तीन सभाएँ हैं।
उनकी अभ्यंतर सभा में सात सौ, मध्यम में छह सौ तथा बाह्य में पाँच सौ देवियाँ होती हैं। तीनों सभाओं की प्रत्येक देवी की आयु ढाई पल्य प्रमाण है। सौधर्म इन्द्र की सात प्रकार की सेना है। जिनके नाम हैं—पदाति, अश्व, गज, वृषभ, रथ, नर्तकी और गंधर्व। सातों प्रकार की सेना के देवों की आयु एक—एक पल्य की होती है। इन सात प्रकार की सेनाओं में एक—एक महत्तर प्रधान भी हैं, उनकी प्रत्येक की एक पल्य प्रमाण आयु है। इनमें वायु नामक पदाति सेना का महत्तर प्रधान सात कक्षाओं से वेष्टित है। प्रथम कक्षा में चौरासी लाख पदाति हैं। इससे आगे—आगे की कक्षा में दूने—दूने अर्थात् पदाति सेना में पदाति चौरासी लाख हैं तथा अश्व नामक अनीक सेना पदाति इससे दूने हैं इस प्रकार सातवीं सेना तक दूना—दूना समझना चाहिए। स्वर्ग में हाथी, घोड़े नहीं हैं यह तो अनीक जाति के देवों की विक्रिया है। इन्द्र के वैभव को दिखाने के लिये उन्हें विक्रिया से ऐसा करने का नियोग ही है। यह अनीकों की संख्या विक्रियाजनित है। स्वाभाविक देव तो एक—एक सेना में छह सौ—छह सौ हैं। इनमें से प्रत्येक देव की छह सौ देवियाँ होती हैं, एक—एक देवी छह सौ विक्रिया करने में समर्थ है। इन देवियों की आयु अर्ध पल्य की होती है। सौधर्म इन्द्र के आत्मरक्ष चौरासी हजार है। इनकी आयु एक पल्य प्रमाण मानी गई। प्रत्येक आत्मरक्ष देव की दो सौ देवियाँ हैं। प्रत्येक देवी छह—छह विक्रिया रूप बनाने में समर्थ है। इन देवियों की आयु आधा पल्य है। इन्द्र का बालक नाम का एक आभियोग्य देव है उसकी आयु पल्य प्रमाण है। वह विक्रिया के द्वारा जम्बूद्वीप प्रमाण लम्बे चौड़े विमान स्वरूप होने की विशिष्ट क्षमता रखता है। इस देव की छह सौ देवियाँ है। प्रत्येक देवी विक्रिया से छह शरीर बनाने की योग्यता वाली है। इनकी आयु १/२ पल्य प्रमाण है। सौधर्म स्वर्ग के इन्द्रक विमान ३१ हैं। चार हजार तीन सौ इकहत्तर श्रेणीबद्ध विमान हैं तथा ३१ लाख पन्चानवे हजार पाँच सौ अट्ठानवे पुष्प प्रकीर्णक विमान हैं। श्रेणीबद्ध और पुष्प प्रकीर्णक सब मिलकर बत्तीस लाख विमान सौधर्म स्वर्ग में हैं। प्रभा नामक इकतीसवें इन्द्रक विमान से उत्तर दिशा में बत्तीस श्रेणीबद्ध विमानों में से अठारहवें विमान की संज्ञा कल्प है। उस अठारहवें कल्प का कुल परिवार वर्णन पूर्वोक्त सौधर्म इन्द्र के समान है। उसका अधिपति ऐशान इन्द्र है। उसके २८ लाख विमान हैं, तेतीस त्रायिंस्त्रश देव हैं, अस्सी हजार सामानिक देव हैं, तीन परिषदें हैं, सात प्रकार की सेना है, अस्सी हजार आत्मरक्ष देव हैं, चार लोकपाल हैं। १. श्रीमती २. सुसीमा ३. वसुमित्रा ४. वसुन्धा ५. जया ६. जयसेना ७. अमला ८. प्रभा ये आठ उसकी अग्रमहिषियां हैं। इनमें से प्रत्येक की सात पल्य की आयु वाली बत्तीस हजार वल्लभिकाएँ हैं। ऐशान इन्द्र का पुष्पक नामक आभियोग्य देव सौधर्म इन्द्र के बालक आभियोग्य के समान है। वह जम्बूद्वीप प्रमाण पुष्पक यान या विमान रूप विक्रिया करने में समर्थ है, शेष वर्णन सौधर्म इन्द्र के समान ही है। सौधर्म स्वर्ग के अंतिम प्रभा नामक विमान के ऊपर कई लाख योजन जाने पर सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग है।
उन दोनों के अंजन, वनमाल, नाग, गरुड़, लांगल, बलभद्र और चक्र नामक सात विमान प्रस्तार हैं। उनमें अंजन विमान से चारों दिशाओं में चार विमान श्रेणियां निकली हैं। विदिशाओं में पुष्प प्रकीर्ण विमान है। वहां एक—एक विमान श्रेणी में ३१ विमान हैं अर्थात् प्रत्येक दिशा में इकतीस—इकतीस हैं। उनमें चक्र नामक विमान तक एक—एक हीन करना चाहिए। इनका अन्तर कई लाख योजनों का है। चक्र नामक अंतिम विमान से दक्षिण दिशा में पच्चीस विमानों से विराजित पन्द्रहवां कल्प विमान के समान है उसका अधिपति सानत्कुमार इन्द्र है उसके बारह लाख विमान हैं। सानत्कुमार स्वर्ग के अन्तिम चक्र विमान की उत्तर दिशा में पच्चीस—पच्चीस श्रेणिविमानों से अभिमंडित पन्द्रहवें श्रेणीबद्ध विमान की कल्प संज्ञा है। उस कल्प का स्वामी माहेन्द्र नाम का इन्द्र है। उसके आठ लाख विमान हैं। चक्र विमान से कई लाख योजन ऊपर जाने पर ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग है। उन दोनों में चार प्रस्तार हैं—१. अरिष्ट, २. देवसमित, ३. ब्रह्म और ४. ब्रह्मोत्तर। अरिष्ट विमान से चारों दिशाओं में विमानश्रेणियाँ निकली हैं। उन विमान श्रेणी की एक दिशा के विमानों की गणना चौबीस है। विदिशाओं में पुष्पप्रकीर्णक है। इस प्रकार ब्रह्मोत्तर पर्यन्त श्रेणिविमानों में एक—एक विमान कम करने से ब्रह्मोत्तर प्रस्तार में श्रेणिविमान इक्कीस रह जाते हैं। इन प्रस्तारों में कई लाख योजनों का अन्तर है। ब्रह्मोत्तर विमान की इक्कीस विमान श्रेणी से विराजित दक्षिण श्रेणी में पूर्वोक्त वर्णन वाला बारहवां कल्प विमान है, इस कल्प विमान का अधिपति ब्रह्मेन्द्र है—इसके दो अधिक दो लाख विमान हैं। ब्रह्मोत्तर प्रस्तार से उत्तर दिशा के इक्कीस श्रेणीबद्ध विमानों में बारहवें विमान का नाम कल्प है। इसका अधिपति ब्रह्मोत्तर इन्द्र है। इसके दो कम दो लाख (१९९९९८) विमान हैं। ब्रह्मोत्तर नामक इन्द्रक विमान के ऊपर लाखों योजनों के बाद लान्तव और कापिष्ठ नामक दो स्वर्ग हैं, जिनके ब्रह्महृदय और लान्तव नामक दो प्रस्तार हैं। लान्तव विमान की दक्षिण श्रेणी में उन्नीस विमानों से विरचित पूर्वोक्त परिवार वाला नवां कल्प विमान है। उसका अधिपति लान्तव नामक देवराज है, जिसके कुछ अधिक (तीन अधिक) पच्चीस हजार विमान है। लान्तव विमान की उत्तर श्रेणी में उन्नीस विमानों में से नवम विमान कल्प विमान है। उसका वर्णन पूर्वोक्त कल्प विमानों के समान है। इसका अधिपति कापिष्ठ नामक इन्द्र है। इसके विमानों की संख्या कुछ कम (तीन कम) पच्चीस हजार है। लान्तव नामक विमान से लाखों योजनों के अन्तर के बाद महाशुक्र नामक पटल है और शुक्र महाशुक्र नामक विमान हैं।
महाशुक्र विमान से दक्षिण श्रेणी में अठारह श्रेणीबद्ध विमानों से परिमंडित बारहवां कल्प विमान है, इसका अधिपति शुक्र नाम का देवराज है जिसके कुछ अधिक (तीन अधिक) बीस हजार विमान हैं। महाशुक्र विमान से उत्तरश्रेणी में अठारह विमानों से शोभित बारहवां कल्प विमान है। उसका अधिपति महाशुक्र इन्द्र है। उसके तीन कम बीस हजार विमान हैं। महाशुक्र विमान के ऊध्र्व में कई लाख योजन ऊपर जाकर सहस्रार नामक स्वर्ग है। उसमें एक ही प्रस्तार है। उसके दक्षिण और उत्तरी भाग में शतार और सहस्रार ये दो स्वर्ग हैं। उनमें सहस्रार विमान की दक्षिण श्रेणी में सत्रह विमानों से मंडित नवमा कल्प विमान है। उसका अधिपति शतार नामक देवराज है, जिसके तीन अधिक तीन हजार विमान हैं। सहस्रार नामक इन्द्रक विमानों की उत्तरश्रेणी के सत्रह विमानों में से नवें श्रेणिबद्ध विमान का नाम कल्प है। उसका अधिपति सहस्रार इन्द्र है। उसके तीन कम तीन हजार विमान हैं। सहस्रार स्वर्ग विमान से लाखों योजन ऊपर जाने के बाद आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्ग हैं। उनमें छह इन्द्रक विमान हैं। आनत, प्राणत, पुष्पक, सातक, आरण और अच्युत ये उनके नाम हैं। उनमें आनत विमान की चारों दिशाओं में चार विमान श्रेणियाँ हैं। विदिशाओं में पुष्प—प्रकीर्णक विमान है। दिशाओं में जो चार विमान श्रेणियाँ कही गई हैं उनमें प्रत्येक विमान श्रेणी में सोलह—सोलह विमान हैं। इसी प्रकार आगे के पांच इन्द्रक विमानों की दिशाओं में भी श्रेणिबद्ध विमान और हर एक इन्द्रक विमान की अपेक्षा एक—एक श्रेणिबद्ध विमान कम होता गया है अर्थात् दूसरे प्रस्तार में श्रेणिबद्ध विमान पन्द्रह, तीसरे में १४, चौथे में १३ और पांचवें में १२ श्रेणिबद्ध विमान हैं और अच्युत नामक इन्द्रक विमान की चारों दिशाओं में ग्यारह—ग्यारह श्रेणिबद्ध विमान हैं। आरण और अच्युत विमान की ग्यारह विमानों से मंडित दक्षिणश्रेणी में छटा कल्प विमान है। उसका अधिपति आरण नाम का देवराज है, जिसके तीन अधिक साढ़े तीन सौ विमान हैं। आरण अच्युत विमान की उत्तरश्रेणी के ग्यारह विमानों में से छठे विमान की कल्प संज्ञा है। उसका अधिपति अच्युत नामक इन्द्र है। इसके तीन कम साढ़े तीन सौ विमान हैं। लोकानुयोग के उपदेशानुसार यहां चौदह इन्द्र कहे गये हैं, परन्तु यहां बारह विवक्षित हैं क्योंकि ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, महाशुक्र और सहस्रार ये चार अपने दक्षिणेन्द्र के अनुवर्ती है। आनत और प्राणत स्वर्ग में एक—एक इन्द्र स्वतन्त्र है अर्थात् सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में प्रत्येक में एक—एक इन्द्र है—ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लांतव कापिष्ठ, शुक्र महाशुक्र, शतार सहस्रार इन चार युगलों के चार इन्द्र और आनत, प्राणत, आरण एवं अच्युत इनमें प्रत्येक के एक—एक इन्द्र ऐसे १२ इन्द्र कहे हैं। सौधर्म स्वर्ग में बत्तीस लाख विमान हैं। ऐशान स्वर्ग में २८ लाख विमान हैं। सानत्कुमार स्वर्ग में बारह लाख विमान हैं, माहेन्द्र स्वर्ग में आठ लाख विमान हैं। ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में चार लाख विमान हैं। लान्तव और कापिष्ठ स्वर्गों में पचास हजार विमान हैं।
शुक्र और महाशुक्र स्वर्गों में चालीस हजार विमान हैं। शतार और सहस्रार कल्पों में छह हजार विमान हैं। इन चौदह कल्पों (सोलह स्वर्गों) में सर्व विमानों की संख्या चौरासी लाख छियानवे हजार सात सौ (८४,९६,७००) है। आरण और अच्युत विमान से लाखों योजन ऊपर अधोग्रैवेयक विमान है। ये अधोग्रैवेयक के सर्व विमान मिलकर एक सौ ग्यारह (१११) होते हैं। सर्व मिलकर एक सौ सात विमान मध्यग्रैवेयक में है। सुविशाल पटल से लाखों योजन ऊपर उपरिम ग्रैवेयक के विमान हैं। उनमें भी सुमन, सौमन और प्रीतिंकर ये तीन प्रस्तार हैं। सब मिलकर इक्यानवे (९१) विमान उपरिम ग्रैवेयक में हैं। प्रीतिंकर विमान से लाखों योजन ऊपर नव अनुदिश विमान हैं। अनुदिशों में आदित्य नाम एक ही प्रस्तार है। उसकी चारों दिशाओं में चार—चार श्रेणिबद्ध विमान हैं। उनमें पूर्व दिशा में र्अिच, दक्षिण में र्अिचमाली, पश्चिम में वैरोचन और उत्तर में प्रभास नाम का विमान है। मध्य में आदित्य नाम का विमान है। विदिशाओं में चार पुष्प प्रकीर्णक हैं। पूर्व और दक्षिण के मध्य में र्अिचप्रभा, दक्षिण और पश्चिम दिशा के मध्य में र्अिचमध्य, पश्चिम और उत्तर दिशा के मध्य में र्अिचरावत और उत्तर पूर्व दिशा के मध्य में र्अिचविशिष्ट विमान हैं। ये कुल नौ विमान हैं। आदित्य विमान से लाखों योजन ऊपर अनुत्तर विमान है। वहां सर्वार्थसिद्धि नामक एक ही प्रस्तार है। वहां विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार दिशाओं में चार विमान है। मध्य में सर्वार्थसिद्धि नामक विमान है। यहां पुष्प प्रकीर्णक विमान नहीं हैं। सौधर्म—ऐशान स्वर्ग के कल्प विमान एक सौ सत्ताइस योजन मोटे और पांच सौ योजन ऊँचे हैं। सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, नवग्रैवेयक, अनुदिश और अनुत्तर विमानों की मोटाई एक—एक योजन कम और ऊँचाई सौ—सौ योजन अधिक समझनी चाहिए। ये सर्व श्रेणिबद्ध, इन्द्रक और प्रकीर्णक विमान कोई संख्यात सौ योजन विस्तार वाले हैं और कोई असंख्यात सौ योजन विस्तार वाले हैं। जो संख्यात योजन विस्तार वाले विमान हैं वे संख्यात लाख योजन विस्तार वाले हैं और जो विमान असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं वे असंख्यात लाख योजन विस्तार वाले हैं। सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के विमान पांच वर्ण के हैं—कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल। सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के विमान कृष्ण वर्ण के बिना चार वर्ण के हैं। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ स्वर्ग में कृष्ण और नील के बिना तीन वर्ण के विमान हैं। शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन आठ स्वर्गों के विमान पीले और शुक्लवर्ण के हैं। नव ग्रैवेयक, नवअनुदिश और चार अनुत्तरों के विमान केवल श्वेत वर्ण के हैं और सर्वार्थसिद्धि विमान परम शुक्लवर्ण का है।
नौ ग्रैवेयक के नाम हैं—सुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, सुभद्र, सुविशाल, सुमनस, सौमनस और प्रीतिकर। आदित्य, अर्चि, अर्चिमालिनी, वैर, वैरोचन, सोम, सोमरूप, अर्वâ, स्फटिक यह ९ अनुदिश हैं। प्रत्येक विमान में बहुत विभूतियुक्त एक-एक जिनमन्दिर होता है। इन्द्र के नगर के बाहर अशोकवन, आम्रवन आदि होते हैं, उन वनों में एक हजार योजन ऊँचा और ५०० योजन पैâलाव का एक चैत्यवृक्ष है। उसकी चारों दिशाओं में पल्यंकासन जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाएँ हैं। इन्द्र के इस स्थानमंडप के अग्रभाग में एक मानस्तम्भ है। इस स्तम्भ में एक रत्नमय पिटारा होता है जिसमें तीर्थंकर के गृहस्थ अवस्था के पहनने वाले वस्त्राभूषण होते हैं। इसी में से निकालकर इन्द्र उन्हें मध्यलोक में भेजता है। सौधर्म इन्द्र के मानस्तम्भ के पिटारे में भरत क्षेत्र के तीर्थंकरों के, ईशान के मानस्तम्भ के पिटारे में ऐरावत क्षेत्रों के तीर्थंकरों के, सानत्कुमार के मानस्तम्भ के पिटारे में पूर्व विदेहों के तीर्थंकरों के तथा माहेन्द्र के मानस्तम्भ के पिटारे में पश्चिम विदेहों के तीर्थंकरों के वस्त्राभूषण होते हैं। इसी से यह मानस्तम्भ देवों के द्वारा पूज्य हैं। इन मानस्तम्भों के समीप ही उपपादग्रह है जिसमें दो रत्न शैय्या हैं, यही इन्द्र का जन्मस्थान है। इस उपपादग्रह के पास ही शिखर वाले अनेक जिनमंदिर हैं। सुमेरू की ४० योजन प्रमाण चूलिका के ऊपर १ बाल के अन्तर से सौधर्म स्वर्ग का ऋजु नामक इन्द्रक विमान है यह ढ़ाईद्वीप के बराबर ४५ लाख योजन है। वैमानिक देवों में उत्तरोत्तर अधिकता को बताते हैं—

स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधि विषय—तोऽधिका:।।२०।।

अर्थ — वैमानिक देवों में आगे-आगे के इन्द्रों की आयु (एक भव में रहने का काल), प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या की विशुद्धता, इन्द्रिय विषय और अवधिज्ञान का विषय ऊपर-ऊपर क्रम से बढ़ते गये हैं। अपने उर्पािजत देव आयु कर्म के उदय से उस भव में, उस वैक्रियिक शरीर के साथ रहने की मर्यादा स्थिति कहलाती है। अनिष्ट वचनों का उच्चारण शाप है। इष्ट प्रतिपादन को अनुग्रह कहते हैं। शाप या अनुग्रह करने की शक्ति को प्रभाव कहते कहते हैं, जो बढ़ा हुआ भाव हो, उसका नाम प्रभाव है। मूल कारण साता वेदनीय कर्म के उदय होने पर और बाह्य में इष्ट विषयों की प्राप्ति होने पर उन इष्ट विषयों का अनुभव करना सुख है। शरीर, वस्त्र, आभूषण आदि की कान्ति को द्युति कहते हैं क्योंकि दीप्ति, द्युति, कान्ति ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। जो कर्मों से आत्मा को लिप्त करती है अथवा कषाय के उदय से रंजित मन वचन काय की प्रवृत्ति लेश्या है। लेश्या की विशुद्धि—निर्मलता लेश्या विशुद्धि है। इन्द्रिय और अवधिज्ञान के साथ है विषय का सम्बन्ध लगाना चाहिए। विषय शब्द का सम्बन्ध इन्द्रिय और अवधिज्ञान के साथ है अत: इन्द्रिय के विषय और अवधि के विषय ग्रहण करना चाहिये। यह अहमिन्द्र आदि ३३ सागर तक तत्त्वचर्चा किया करते हैं किन्तु सम्यग्दर्शन नहीं धारण कर सकते अत: चतुर्थगुणस्थानवर्ती होते हैं, पंचमगुणस्थानवर्ती नहीं हो सकते हैं। यही कारण था कि भगवान को वैराग्य होने पर जब पालकी उठाने को मनुष्य आगे आए तो देवों और मनुष्यों का झगड़ा हो गया। देव अड़ गए कि जब दो कल्याणक हमने मनाए हैं तो तपकल्याणक भी हम मनाएंगे, प्रथम पालकी हम उठाएंगे तब बात नाभिराज महाराजा तक पहुँची तो उन्होंने निर्णय दिया कि आप देवता हैं वैक्रियिक शरीर धारण कर सकते हैं परन्तु संयम नहीं धारण कर सकते। जो संयम धारण कर सके प्रथमत: पालकी उठाने का अधिकार उसे ही प्राप्त है। जो ऊपर-ऊपर के देवों में अधिक-अधिक पाया जाता है, वह शक्ति की अपेक्षा से है क्योंकि ऊपर-ऊपर अल्प संक्लेश तथा मन्द अभिमान होने से उसके प्रयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है चूँकि ऊपर के देवों में नदी, पर्वत आदि में विहार करना अत्यन्त अल्प हो जाता है। देवियों की संख्या तथा परिग्रह आदि भी कम हो जाता है फिर भी उनकी सुख की मात्रा वृद्धिंगत होती जाती है। वास्तव में देखा जाए तो सातावेदनीय के उदय से इन्द्रियों को इष्ट लगने वाले सारे विषयसुख की प्राप्ति सुख है। चूँकि ऊपर-ऊपर के देवों का शरीर छोटा होता जाता है, वस्त्राभूषण भी कम होते जाते हैं अत: इन सबकी द्युति उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होती जाती है। लेश्या की अपेक्षा भी विशुद्धि अधिक है, समान लेश्या वालों में भी नीचे पटलों के देवों से ऊपर के देवों की लेश्या विशुद्ध है। इन्द्रिय विषय की सामथ्र्य ऊपर के देवों में क्रमश: अधिक-अधिक होती जाती है। प्रथम और द्वितीय स्वर्ग के देव अपने अवधिज्ञान से पहली नरकभूमि तक जानते हैं, तीसरे और चौथे स्वर्ग के देव दूसरे नरक तक जानते हैं, पाँचवें से लेकर आठवें स्वर्ग तक के देव अवधिज्ञान द्वारा तीसरे नरक तक की बातें जान लेते हैं। नवमें से बारहवें स्वर्ग तक के देव चौथे नरक तक की बात जानते हैं, तेरहवें से सोलहवें स्वर्ग पयन्त तक के देव पांचवें नरक तक की बात जानते हैं। नौ ग्रैवेयक के देव छठी नरकभूमि तक जान जाते हैं और नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर के देव पूरे लोक की बात जानते हैं। वैमानिक देवों में उत्तरोत्तर हीनता के बारे में बताते हैं—

गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीना:।।२१।।

अर्थ — ऊपर-ऊपर के देव गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान की अपेक्षा हीन-हीन हैं। अन्तरंग और बाह्य कारणों से उत्पद्यमान काय परिस्पन्द गति कहलाती है। लोभ कषाय के उदय से होने वाले मूच्र्छा संकल्प (यह मेरा है ऐसे) परिणाम को परिग्रह कहते हैं। मान कषाय के उदय से होने वाला अहंकार अभिमान कहलाता है। गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान ऊपर—ऊपर देवों में हीन—हीन होते हैं। सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के देवों के शरीरों की ऊँचाई सात अरत्नि प्रमाण है। सानत्कुमार और माहेन्द्र के शरीर की ऊँचाई छह अरत्नि प्रमाण है। ब्रह्मलोक, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ में पाँच अरत्नि प्रमाण है। शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार में देवों के शरीर की ऊँचाई चार अरत्नि प्रमाण है। आनत और प्राणत में साढ़े तीन हाथ और आरण—अच्युत में तीन हाथ की ऊँचाई है। अधो ग्रैवेयक में ढाई हाथ, मध्यम ग्रैवेयक में दो हाथ और उपरिम ग्रैवेयक में शरीर की ऊँचाई डेढ़ हाथ प्रमाण है। नव अनुदिशों में देवों के शरीर की ऊँचाई डेढ़ हाथ प्रमाण है तथा पांच अनुत्तरों में एक हाथ प्रमाण शरीर की ऊँचाई है। विमान, परिवार, लक्षण, परिग्रह भी ऊपर—ऊपर के देवों में कम होते हैं। अब प्रश्न उठा कि ऊपर—ऊपर परिग्रह और अभिमान की हीनता क्यों होती है ? और तो उसका समाधान करते हुए आचार्यश्री ने बताया कि कौन—कौन से जीव किस—किस देवगति में जाते हैं ? जैसे असंख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिया असैनी, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, तिर्यंच थोड़े शुभ परिणामों से पुण्यबन्ध करके भवनवासी और व्यन्तरों में उत्पन्न हो सकते हैं। वे ही कर्मभूमिज सैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच, मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी में और पहले से बारहवें स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते हैं। सम्यग्दृष्टि सैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच सौधर्म स्वर्ग को आदि लेकर सोलहवें अच्युत स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते हैं। असंख्यात वर्ष की आयु वाले (भोगभूमिया) मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होते हैं। उत्कृष्ट कुतप तपने वाले तापसी ज्योतिषी देवों तक उत्पन्न होते हैं। सम्यग्दृष्टि भोगभूमिया मानव और तिर्यंच, सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में जन्म लेकर दिव्य सुखों का अनुभव करते हैं। परिव्राजक ब्रह्म स्वर्ग तक और आजीवक सहस्रार स्वर्ग तक होते हैं। बारहवें स्वर्ग के ऊपर अन्य िंलगियों की उत्पत्ति नहीं होती। उत्कृष्ट तपो अनुष्ठान द्वारा पुण्यबन्ध करने वाले निग्र्रन्थ िंलगधारी मिथ्यादृष्टि मुनियों का अन्तिम ग्रैवेयक तक उत्पाद होता है। नौ ग्रैवेयकों के ऊपर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और उत्कृष्ट चारित्र के धारी महामुनियों का ही उत्पाद होता है, अन्य मिथ्यादृष्टि द्रव्यिंलगी मुनि नौ ग्रैवेयक के ऊपर जन्म नहीं ले सकते।
सम्यग्दृष्टि व्रतधारी श्रावक—श्राविका और र्आियका का उत्पाद सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युत स्वर्ग तक है। परिणामविशुद्धि के उत्कृष्ट योग एवं सम्यग्दर्शन सहित होने से नीचे भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में भी उनका उत्पाद नहीं है और वस्त्रधारी होने से सोलहवें स्वर्ग के ऊपर भी जन्म नहीं ले सकते। वैमानिक देवों में गमन, शरीर की ऊँचाई, परिग्रह और अभिमान नीचे के देवों की अपेक्षा ऊपर में हीन (कम) है अर्थात् उनमें किसी अपेक्षा से उत्तरोत्तर वृद्धि है और किसी अपेक्षा से हीनता है। यद्यपि ऊपर के देवों में गमन करने की शक्ति अधिक है, सर्वार्थसिद्धि के देव तो सातवें नरक तक जा सकते हैं परन्तु वह वहीं तृप्त रहते हैं, उन्हें वहाँ से जाने की इच्छा ही नहीं होती है। १६ स्वर्ग तक के देव तीसरे नर्वâ तक जा सकते हैं उसके आगे नहीं। ऊपर के देवों के शरीर की ऊँचाई भी कम है, उनका परिग्रह भी कम होता है, वह अधिक घूमना पसन्द नहीं करते, विमान आदि भी कम होते हैं, शांतिपूर्वक वहीं रहते हैं, नव ग्रैवेयक में तो यह व्यवस्था बिल्कुल सूक्ष्म है, उनके अभिमान भी नहीं है। ‘‘अधजल गगरी छलकत जाए’’, जो गुणों से परिपूर्ण रहते हैं उनके अन्दर अहंकार नहीं रहता है अथवा यूँ कहें कि ऊपर तक निरभिमानी होने से उनमें अहंकार की जगह ही नहीं रहती है किन्तु गुणों में अल्पज्ञ अवश्यमेव अहंकारी होते हैं। वैमानिक देवों में लेश्या का वर्णन करते हैं—

पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु।।२२।।

अर्थ — दो युगलों में, तीन युगलों में तथा शेष के समस्त विमानों में क्रम से पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या होती है। सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के देवों में पीत लेश्या है। सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के देवों में पीत और पद्म लेश्या है। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ स्वर्ग में पद्म लेश्या है। शुक्र-महाशुक्र, शतार और सहस्रार में पद्म और शुक्ल लेश्या है। शेष आनत आदि कल्पों में शुक्ल लेश्या है और ग्रैवेयक, अनुदिश और अनुत्तर पटलों में परम शुक्ल लेश्या है। कल्प संज्ञा कहाँ तक है ? इस बात को बताने के लिये अगला सूत्र अवतार लेता है—

प्राग्ग्रैवेयकेभ्य: कल्पा:।।२३।।

अर्थ — ग्रैवेयकों से पहले-पहले के १६ स्वर्गों को कल्प कहते हैं उनसे आगे के विमान कल्पातीत हैं। सौधर्म स्वर्ग से लेकर नव ग्रैवेयक के पहले कल्पोपपन्न हैं—ऐसा कहने पर परिशेष न्याय से नव ग्रैवेयक से लेकर अनुत्तर विमानों के अन्त तक (सर्वार्थसिद्ध तक) कल्पातीत हैं, यह सिद्ध ही हो जाता है। नव ग्रैवेयक आदि के देव एक समान वैभव के धारक होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं। वहाँ इन्द्र-सामानिक आदि भेद नहीं है सभी समान हैं, वहाँ का प्रत्येक देव इन्द्र के समान ऐश्वर्य को भोगने वाला होता है। लौकांतिक देवों का वर्णन करते हुए कहते हैं—

ब्रह्मलोकालया लौकान्तिका:।।२४।।

अर्थ — ब्रह्मलोक—पांचवें स्वर्ग के अन्त में लौकांतिक देव रहते हैं। जिसमें प्राणी आकर रहते हैं—लीन होते हैं, उसे आलय एवं निवास कहते हैं। ब्रह्मलोक जिनका आलय है वे ब्रह्मलोकालया: कहलाते हैं। ब्रह्मलोक स्वर्ग में निवास करने वाले सभी देव लौकान्तिक हों ऐसी बात नहीं है क्योंकि ब्रह्मलोक का अंत लोकांत है और उसमें रहने वाले देव ही लौकांतिक संज्ञा को प्राप्त होते हैं। वे लौकांतिक निकट संसारी हैं क्योंकि वहां से च्युत होकर मनुष्य भव प्राप्त कर नियम से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं अत: इस लौकांतिक पद का फलितार्थ यही निकलता है कि जन्म—जरा—मरण से व्याप्त जो संसार है उस संसारलोक का अन्त करना जिनका प्रयोजन है वे लौकांतिक हैं। यह ब्रह्मचारी, द्वादशांग के पाठी होते हैं, तीर्थंकर भगवन्तों के तपकल्याणक के अवसर पर ही आते हैं, नित्यप्रति तत्त्वचर्चा करते रहते हैं, ये ‘देवर्षि’ भी कहे जाते हैं और अन्य देवों के द्वारा पूज्य होते हैं। यह एक भवावतारी होते हैं, पंचमकाल में आज भी इस पद को प्राप्त किया जा सकता है। इन लौकान्तिक देवों का यहाँ विशेष रूप से वर्णन इसलिये किया गया है कि यदि पाँचवें स्वर्ग में भी चले गये और लौकान्तिक देव बन गये तो एक भवावतारी होकर मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। भावसंग्रह में श्री देवसेनाचार्य कहते हैं— आज भी इस पंचमकाल के—कलिकाल के अन्दर भी जो तीन रत्नों से युक्त होकर तपस्या करते हैं वह इन्द्र पद प्राप्त कर लेते हैं। मुझसे एक व्यक्ति ने पूछा कि आपने इतनी छोटी उम्र में दीक्षा क्यों ली ? मैंने चिन्तन किया, पुन: उनसे पूछा कि आपको यदि कहीं जाना होता है तो टिकट खिड़की बन्द होती है फिर भी खड़े रहते हैं, क्यों ? इसीलिये कि खिड़की खुलते ही आपको सबसे पहले टिकट मिल जायेगा, उसी प्रकार आज पंचमकाल है, आज भले ही मोक्ष नहीं है परन्तु मोक्षव्यवस्था चालू है, हम भी उस पंक्ति में खड़े हैं, जब काल आयेगा, कर्मशृंखला कटेगी तब मुक्तिपद की प्राप्ति हो जायेगी। लौकांतिक देवों के नाम बताते हैं—

सारस्वतादित्यवह्नयरूणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च।।२५।।

अर्थ — सारस्वत, आदित्य, वन्हि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट ये लौकान्तिक देव के आठ भेद हैं। ये देव ब्रह्मलोक की ईशान आदि आठ दिशाओं में रहते हैं। इनमें से सारस्वत ईशान कोण में, आदित्य पूर्व दिशा में, वन्हि आग्नेय दिशा में, अरुण दक्षिण दिशा में, गर्दतोय नैऋत्य कोण में, तुषित पश्चिम दिशा में, अव्याबाध वायव्य कोण में तथा अरिष्ट उत्तर दिशा में रहते हैं। इनके अतिरिक्त १६ प्रकार के लौकान्तिक देव और हैं जो इन आठों के मध्य में रहते हैं। इस प्रकार ब्रह्मलोक स्वर्ग में आठों दिशाओं में यथाक्रमपूर्वक ये सारस्वत आदि देव निवास करते हैं। सूत्र में जो ‘‘च’’ शब्द है उससे अन्तरालवर्ती विमानों का संग्रह हो जाता है क्योंकि उन विमानों में रहने वाले देवों को भी लौकांतिक कहते हैं। जैसे— अग्न्याभ, सूर्याभ, चन्द्राभ, सत्याभ, श्रेयस्कर, क्षेमकर, वृषभेष्ट, कामचर, निर्माणरज, दिगन्तरक्षित, आत्मरक्षित, सर्वरक्षित, मरूत, वसु, अश्व और विश्व इन नामों के विमान हैं। ये अग्न्याभ आदि षोडश देवगण लौकान्तिक देवों के ही भेद कहे जाते हैं। सारस्वत और आदित्य के बीच में अग्न्याभ और सूर्याभ, आदित्य और बन्हि के बीच में चन्द्राभ और सत्याभ, बन्हि और अरुण विमान के अन्तराल में श्रेयस्कर और क्षेमंकर, अरुण और गर्दतोय के अन्तराल में वृषभेष्ट और कामचर, गर्दतोय और तुषित के मध्य में निर्माणरज और दिगन्तरक्षित, तुषित और अव्याबाध के अन्तराल में आत्मरक्षित और सर्वरक्षित, अव्याबाध और अरिष्ट के अन्तराल में मरुत् और वसु तथा अरिष्ट और सारस्वत के अन्तराल में अश्व और विश्व नामक विमान हैं, इन विमानों में रहने के कारण इन लौकान्तिक देवों का भी यही नाम होता है। इनकी संख्या इस प्रकार है—सारस्वत देव सात सौ, आदित्य सात सौ, अग्निदेव सात हजार सात, अरुणदेव सात हजार सात, गर्दतोयदेव नौ हजार नौ (९००९), तुषितदेव नौ हजार नौ (९००९), अव्याबाधदेव ग्यारह हजार ग्यारह (११०११), अरिष्टदेव ग्यारह हजार ग्यारह (११०११) हैं और ‘‘च’’ शब्द से कथित अग्न्याभ आदि देवों की संख्या कहते हैं। अग्न्याभ देव सात हजार सात हैं। सूर्याभ देव नव हजार नौ (९००९) हैं, चन्द्राभ देव ग्यारह हजार ग्यारह (११०११) हैं। सत्याभ देव तेरह हजार तेरह (१३०१३) हैं। श्रेयस्कर देव पन्द्रह हजार पन्द्रह (१५०१५) हैं। क्षेमंकर देव सत्रह हजार सत्रह (१७०१७) हैं। वृषभेष्ट देव उन्नीस हजार उन्नीस (१९०१९) हैं। कामचर देव इक्कीस हजार इक्कीस (२१०२१) हैं। निर्माणरज देव तेईस हजार तेईस (२३०२३) हैं। दिगन्तरक्षित देव पच्चीस हजार पच्चीस (२५०२५) हैं।
आत्मरक्षित देव सत्ताईस हजार सत्ताईस (२७०२७) हैं। सर्वरक्षित देव उनतीस हजार उनतीस (२९०२९) हैं। मारुति देव इकतीस हजार इकतीस (३१०३१) हैं। वसु देव तेतीस हजार तेतीस (३३०३३) हैं। अश्वदेव पैंतीस हजार पैंतीस (३५०२५) हैं। विश्वदेव सैंतीस हजार सैंतीस (३७०३७) हैं। इस प्रकार इन चतुा\वशति लौकान्तिकों की समग्र संख्या चार लाख सात हजार आठ सौ छह (४०७८०६) है। हीनाधिकता का अभाव होने से ये सभी स्वतन्त्र हैं अर्थात् कोई किसी के आधीन नहीं हैं। ये लौकान्तिक देव विषयों से विरक्त होने से देव—ऋषि कहलाते हैं तथा सर्व देवों के द्वारा अर्चनीय होते हैं। ये चौदह पूर्व के पाठी, सतत ज्ञानोपयोगी, सतत ज्ञानभावना से अविहित मन वाले, संसार से नित्य उद्विग्न, अनित्य, अशरण आदि बारह अनुप्रेक्षाओं का निरन्तर चिन्तन करने वाले और अति विशुद्ध सम्यग्दृष्टि होते हैं। ये लौकान्तिक देव तीर्थंकरों की दीक्षा के समय उन्हें प्रतिबोधन देने आते हैं। नामकर्म की असंख्यात उत्तरोत्तर प्रकृति होने से संसारी जीवों की अनेक प्रकार की शुभ—अशुभ संज्ञाएं होती हैं अर्थात् देव सामान्य की अपेक्षा एक होते हुए भी नामकर्म की अपेक्षा अनेक भेद हैं, ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार कार्माण शरीर रूप प्रणालिका द्वारा आस्रव की अपेक्षा से प्राप्त है सुख—दु:ख जिनको ऐसे भव्य, अभव्य के भेद से दो प्रकार के जीवों (प्राणियों) की अपेक्षा यह संसार अनादि अनन्त है अर्थात् यह अष्ट कर्ममय संसार सामान्यतया भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकार के जीवों के अनादि अनन्त है। जो मोह का उपशम और क्षय करने के लिए उद्यत हैं उन सम्यग्दृष्टियों के अधिक से अधिक सात—आठ भव और जघन्य से दो—तीन भवों में संसार का उच्छेद हो जाता है परन्तु जो सम्यक्त्व से च्युत हो गए हैं उनका कोई नियम नहीं है कि वे कितने काल में मोक्ष जाएंगे, वह शास्त्रों से जानना चाहिये अर्थात् अर्धपुद्गल परिवर्तन के भीतर वे अवश्य मोक्ष में जाएंगे। अनुदिश तथा अनुत्तरवासी देवों में अवतार का नियम बताते हुए अगले सूत्र में कहते हैं—

विजयादिषु द्विचरमा:।।२६।।

अर्थ — विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और नौ अनुदिश विमानों के अहमिन्द्र देव द्विचरम अर्थात् मनुष्य के दो भव लेकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं किन्तु सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र एक भवावतारी होते हैं। इन विमानों से चयकर ये सभी देव मनुष्य होते हैं फिर संयम धारण करके पुन: विजय आदि में जन्म लेते हैं पुन: मनुष्य हो तपस्या कर मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। चूँकि मनुष्य भव से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिये इसे चरम देह कहते हैं और दो बार चरम देह को धारण करते हैं इसलिये द्विचरम कहे जाते हैं। सर्वार्थसिद्धि के देव एक भव धारण करके मोक्ष चले जाते हैं। यहाँ इतना विशेष जानना है कि अनुदिश तथा चार अनुत्तरों के देव एक भव धारण करके भी मोक्ष जा सकते हैं, यहाँ अधिक से अधिक दो भव बताए हैं। सर्वार्थसिद्धि के देव अत्यन्त उत्कृष्ट हैं, उनके विमान का नाम ‘सर्वार्थसिद्धि’ सार्थक ही है अत: यह एक ही भव धारण कर मोक्ष चले जाते हैं। सौधर्म इन्द्रादि छह दक्षिणेन्द्र, शचि इन्द्राणी, सौधर्म इन्द्र के सोम, यम, वरुण और कुबेर नाम के लोकपाल, सभी लौकान्तिक देव और सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र नियम से एक भवावतारी होते हैं। तिर्यंच कौन हैं ? इस बात को बताते हैं—

औपपादिक-मनुष्येभ्य: शेषास्तिर्यग्योनय:।।२७।।

अर्थ — देव, नारकी और मनुष्यों से अतिरिक्त शेष सभी संसारी जीव तिर्यंच योनि वाले ही हैं। औपपादिक जन्म वाले अर्थात् देव तथा नारकी एवं मनुष्य को छोड़कर सभी तिर्यंच कहलाते हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय सभी तिर्यंच हैं। एकेन्द्रिय जीव सिर्फ स्पर्शन इन्द्रियजन्य हैं, आत्माजन्य हैं लेकिन इनके मन नहीं है। जिस प्रकार हमें सुख-दु:ख का अनुभव होता है उन्हें नहीं है। उनके स्पर्शन इन्द्रिय है, वेदना शक्ति होने से कष्ट तो होता है परन्तु मन नहीं है। तिर्यंच समस्त संसार में व्याप्त हैं, परन्तु त्रसनाली में ही रहते हैं। आज भी दक्षिण अफ्रीका के अन्दर एक ऐसा वृक्ष है जिसमें सुई चुभाने से रोने की आवाज आती है। है उसमें एक बड़ा-सा फल लगता है उसे काटकर उसका गूदा निकालकर रोटी की तरह आग पर सेंकने से वह फूल जाती है और वह फल रोटी कहलाती है। एक ऐसा पेड़ है जिससे दूध निकलता है जिसके लिये वैज्ञानिक आज भी खोज में लगे हुए हैं। एक ऐसा वृक्ष है जिससे मीलों दूर प्रकाश ही प्रकाश रहता है, वहाँ पेड़ में मोमबत्ती के आकार की चीज लगी है जो दूर-दूर तक प्रकाश देती है। यह सब तिर्यंचगति में आते हैं। घास- फूस वगैरह की गति तिर्यंचगति है। गतियाँ केवल चार ही होती हैं। मोह और मिथ्यात्व के फलस्वरूप ही यह जीव तिर्यंचगति प्राप्त कर नाना प्रकार के दु:ख उठाता है। भवनवासी देवों की उत्कृष्ट आयु बताते हैं—

स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमाद्र्ध-हीनमिता:।।२८।।

अर्थ — भवनवासियों में असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार और शेष छह कुमारों की उत्कृष्ट आयु क्रम से एक सागर, तीन पल्य, ढाई पल्य, दो पल्य और एक पल्य है अर्थात् असुरकुमार की एक सागर, नागकुमार की तीन पल्य, सुपर्ण की ढाई पल्य, द्वीपकुमारों की दो पल्य और बाकी छह कुमारों की डेढ़ पल्य है। वैमानिक देवों में कल्पोपपन्नों की उत्कृष्ट आयु बताते हैं—

सौधर्मैशानयो: सागरोपमेऽधिके।।२९।।

अर्थ — सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के देवों की उत्कृष्ट आयु दो सागर से कुछ अधिक है। वैसे तो सौधर्म—ऐशान स्वर्ग में दो सागर की ही उत्कृष्ट आयु है किन्तु घातायुष्क सम्यग्दृष्टि के दो सागर से करीब आधा सागर अधिक आयु होती है अर्थात् जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य अथवा तिर्यंच विशुद्ध परिणामों से ऊपर के स्वर्गों की आयु बाँधकर पीछे संक्लेश परिणाम से आयु का घात कर लेता है उसे घातायुष्क सम्यग्दृष्टि कहते हैं जैसे किसी मनुष्य ने दसवें स्वर्ग की आयु बांध ली पीछे उसके संक्लेश परिणाम हो गये तो वह बँधी हुई आयु को घटाकर दूसरे स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। उसके दूसरे देवों की अपेक्षा स्वर्ग की उत्कृष्ट आयु दो सागर से अन्तर्मुहूर्त कम आधा सागर अधिक होती है। ऐसा घातायुष्कपना पूर्व भव में मनुष्य या तिर्यंच भव में होता है। ऐसे घातायुष्क जीव १२वें स्वर्ग तक ही उत्पन्न होते हैं अत: वहीं तक की आयु बताई गयी है। ऊपर के वैमानिक देवों में शुक्ल लेश्या है अत: उन स्वर्गों में आयु घात करने वाले उत्पन्न नहीं हो सकते। सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के देवों की उत्कृष्ट आयु बताते हैं—

सानत्कुमारमाहेन्द्रयो: सप्त:।।३०।।

अर्थ — सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में देवों की उत्कृष्ट आयु सात सागर से अधिक है। शेष कल्पोपपन्न देवों की आयु बताई है—

त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपंचदशभिरधिकानि तु।।३१।।

अर्थ — सात सागर में क्रम से ३ सागर, ७ सागर, ९ सागर, ११ सागर, १३ सागर और १५ सागर जोड़ देने से आगे के छह कल्प युगलों में देवों की उत्कृष्ट आयु होती है। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर में १० सागर से कुछ अधिक, लांतव कापिष्ठ में १४ सागर से कुछ अधिक, शुक्र-महाशुक्र में १६ सागर से कुछ अधिक, शतार-सहस्रार में १८ सागर से कुछ अधिक, आनत-प्राणत में २० सागर की और आरण-अच्युत में २२ सागर की उत्कृष्ट आयु है। देवियों की जघन्य आयु सौधर्म ईशान में कुछ अधिक पल्य प्रमाण है व उत्कृष्ट ५ पल्य और सोलहवें स्वर्ग में ५५ पल्य प्रमाण है। कल्पातीत देवों की आयु बताते हैं—

आरणाच्युतादूध्र्वमेवैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च।।३२।।

अर्थ — आरण और अच्युत स्वर्ग से ऊपर ९ ग्रैवेयक में एक-एक सागर आयु बढ़ती जाती है। पहले ग्रैवेयक में २३ सागर, दूसरे में २४ सागर, तीसरे में २५ सागर, चौथे में २६ सागर, पाँचवें में २७ सागर, छठे में २८ सागर, सातवें में २९ सागर, आठवें में ३० सागर और नवमें में ३१ सागर है। नव अनुदिश में प्रत्येक की ३२ सागर और ५ अनुत्तर में ३३ सागर की आयु है। सर्वार्थसिद्धि में मात्र उत्कृष्ट ही आयु है। स्वर्गों में जघन्य आयु का वर्णन करते हैं—

अपरा पल्योपमधिकम्।।३३।।

अर्थ — सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में देवों की जघन्य आयु एक पल्य से कुछ अधिक है। शेष स्वर्गों, ग्रैवेयकों, अनुदिशों और अनुत्तरों में जघन्य आयु के बारे में बताया है—

परत: परत: पूर्वापूर्वाऽनन्तरा:।।३४।।

अर्थ — पहले-पहले के स्वर्गों में जो उत्कृष्ट आयु है वही उसके ऊपर के स्वर्गों में जघन्य आयु है। सौधर्म और ईशान में जो दो सागर से कुछ अधिक आयु है वह सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में जघन्य आयु है। सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग में जो सात सागर से कुछ अधिक उत्कृष्ट आयु है वही ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर में जघन्य है। इसी तरह ऊपर के सभी स्वर्गों में और आगे ग्रैवेयकादि में जानना चाहिये। नारकियों की जघन्य आयु के बारे में बताने के लिए सूत्र अवतरित होता है—

नारकाणां च द्वितीयादिषु।।३५।।

अर्थ — दूसरे आदि नरकों में नारकियों की जघन्य आयु भी देवों के समान है। पहले नरक में जितनी उत्कृष्ट आयु है उतनी ही दूसरे नरक में जघन्य आयु है जैसे रत्नप्रभा में एक सागर की उत्कृष्ट आयु है वही शर्कराप्रभा में जघन्य है। शर्कराप्रभा में जो ३ सागर की उत्कृष्ट आयु है वही बालुकाप्रभा में जघन्य आयु है। इसी तरह सातवें नरक तक जानना चाहिये। अब प्रथम नरक में जघन्य आयु बताते हैं—

दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम्।।३६।।

अर्थ — पहले नरक में नारकियों की जघन्य आयु १० हजार वर्ष की है। राजा श्रेणिक का जीव प्रथम नरक में है, वे आगे आने वाली अवसर्पिणी काल में पहले तीर्थंकर बनेंगे, उनकी आयु ८४ हजार वर्ष है जो मध्यम है। भवनवासियों की जघन्य आयु कितनी है ? —

भवनेषु च।।३७।।

अर्थ — भवनवासी देवों में भी जघन्य आयु १० हजार वर्ष की है। व्यन्तरों देवों में जघन्य आयु कितनी है ? —

व्यन्तराणां च।।३८।।

अर्थ — व्यन्तर देवों में जघन्य आयु १० हजार वर्ष की है। व्यन्तर की उत्कृष्ट आयु बताते हुये कहा है—

परा पल्योपमधिकम्।।३९।।

अर्थ — व्यन्तरों की उत्कृष्ट आयु एक पल्य से कुछ अधिक है। ज्योतिषी देवों की उत्कृष्ट आयु बताई है—

ज्योतिष्काणां च।।४०।।

अर्थ — ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट आयु एक पल्य से कुछ अधिक है। चन्द्रमा की उत्कृष्ट आयु एक पल्य से १ लाख वर्ष अधिक, सूर्य की १ पल्य से १ हजार वर्ष अधिक है। ग्रहों में शुक्र की १ पल्य से १०० वर्ष अधिक, वृहस्पति की १ पल्य, बुध, मंगल, शनि, राहु, केतु ग्रहों तथा नक्षत्रों की १/२ पल्य है और ताराओं की १/४ पल्य है। ज्योतिष्क देवों की जघन्य आयु बताते हुये कहा है—

तदष्टभागोऽपरा।।४१।।

अर्थ — ज्योतिष्क देवों की जघन्य आयु उस पल्य का आठवाँ भाग अर्थात् १/८ पल्य है। अपने लिये यह भी असंख्यात वर्ष की आयु है। और अब इस अध्याय के अन्तिम सूत्र में श्री उमास्वामी आचार्यवर्य लौकान्तिक देवों की उत्कृष्ट आयु बताते हुये कहते हैं—

लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम्।।४२।।

अर्थ — समस्त लौकान्तिक देवों की उत्कृष्ट और जघन्य आयु ८-८ सागर प्रमाण होती है। जैसे लौकान्तिक देवों का वर्णन अलग-अलग किया वैसे ही उनकी आयु भी अलग-अलग बताई है। लौकान्तिक देवों की उत्कृष्ट और जघन्य आयु ८-८ सागर ही होती है। इस प्रकार चतुर्थ अध्याय में देवों के प्रकरण को बताया गया है। इन सबको देवताओं के रूप में माना है, चारों प्रकार के देवों में सम्यग्दर्शन उत्पन्न करने की शक्ति है, सम्यग्दृष्टि होने के बाद भी जिनसे कुछ गल्तियाँ हो जाती हैं वे भवनत्रिक में जन्म लेते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव कल्पवासी में जन्म लेते हैं। किसी ने बड़ों का अनादर किया, शास्त्रों का अनादर किया, क्षेत्रपाल-पद्मावती को नहीं माना, उनका अनादर कर देते हैं तो कर्मबन्ध कर लेते हैं। तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों में शासन देवी-देवताओं को नियम से सम्यग्दृष्टि कहा है। ग्रन्थों के आधार से चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने शासन देवी-देवताओं को सम्यग्दृष्टि माना है। कुछ निश्चयाभाषी—एकान्तभाषी इन्हें नहीं मानते हैं, कुछ लोग मन्दिरों से इन्हें निकालकर फैकते हैं। पश्चिमी भारत में बहुतायत तेरहपंथी हैं पर क्षेत्रपालादि हैं। आप श्रावकों को किसी पंथवाद में न पड़कर आगमपंथी बनना है, अगर चारित्र चक्रवर्ती प्रथमाचार्य श्री शान्तिसागर महाराज की परम्परा को मानना है तो क्षेत्रपाल-पद्मावती की आराधना करना है। पुराने समय से—हजारों-हजारों वर्षों से पंचामृत अभिषेक होता आया है, क्या पूर्वाचार्य गलत थे ? पूज्यपाद स्वामी की हस्तलिखित प्रति है पंचामृत अभिषेक पाठ, उसमें क्षेत्रपाल पद्मावती का अघ्र्य है, पंचामृत अभिषेक पाठ है अत: पूज्य आचार्यश्री शांतिसागर महाराज एवं पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने उसका समर्थन किया है। आचार्यश्री शांतिसागर महाराज ने अंत समय तक पंचामृत अभिषेक देखा है, पूज्य माताजी ने स्वयं अपनी आँखों से वह दृश्य देखा है कि एक महिला २ घण्टे तक केसर घिसती थी। वस्तुत: आगम के आधार पर इन मान्यताओं का परिपालन करना चाहिये। हाँ, वीतराग भगवान की तरह उनकी आराधना नहीं करना चाहिये।
बन्धुओं! आचार्य उमास्वामी तथा टीकाकारों ने जो बताया है, उसमें से जो आपको अच्छा लगे मान लेना और गलत लगे तो निकाल देना, यह कथमपि उचित नहीं है। हाँ, परम्परा नहीं है तो उस हिसाब से चल सकते हैं पर मिथ्यादृष्टि मानना गलत है। माताजी ने कभी मन की परम्परा नहीं चलाई सदा आगम परम्परा चलाई है जिससे कभी प्रवचन अथवा चर्या आदि द्वारा समाज में विघटन की स्थिति नहीं आई है। पूज्य माताजी के गुरू ने उन्हें आज्ञा दे रखी है कि ज्ञानमती! संघ में चैत्यालय अवश्य रखना, कई-कई साधु भगवान के दर्शन करके नहीं उठते। अरे! जब संघ चलता है, श्रावक चलते हैं तो श्रावक की जिम्मेदारी है साधु की व्यवस्था बनाकर चलना। दूसरा, कहीं स्त्री अभिषेक होता है कहीं नहीं होता। संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनें चैत्यालय की प्रतिमा का अभिषेक करें क्योंकि हमें झगड़े की स्थिति उपस्थित नहीं होने देना है।
वास्तव में परम्परा मान्य नहीं रखती, आगम मान्य रखता है। मेरा सो खरा नहीं, खरा सो मेरा है। शास्त्रों में एक शब्दकोष में स्त्री शुद्धि के विषय में लिखा है ।—
शुचि भूमिगतं तोयं शुचिर्नारी पतिव्रता।
शुचिर्धर्मपरोराजा ब्रह्मचारी सदा शुचि।।
भूमि से निकला हुआ जल, पतिव्रता नारी, धर्मपरायण राजा तथा ब्रह्मचारी सदा पवित्र हैं, यह ब्रह्मचर्य की शुचिता है। पतिव्रता नारी शुद्ध है, जब अशुद्ध है तब मन्दिर के नजदीक भी नहीं आती। इन्द्राणी के बिना तो इन्द्र भी अधूरा है। इस प्रकार हमें आगम को दर्पण मानकर पंचामृत अभिषेक पाठ, शासन देव-देवी आराधना को ‘आगम परम्परा है’ ऐसा मानकर अपने सम्यग्दर्शन को शुद्ध बनाना है और शीघ्र ही सम्यग्दृष्टि देव बनकर वहाँ से आकर एक-दो भव लेकर मोक्ष को प्राप्त करना है यही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। ।।
इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे चतुर्थोऽध्याय: समाप्त:।।
 

 

 

 तत्त्वार्थ सूत्र प्रवचन (पंचम अध्याय)


पंचम अध्याय

—मंगलाचरण—

प्रवचन कर्त्री -आर्यिका चंदनामती माताजी

मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुण लब्धये।।
सिद्र्धेधाममहारिमोहहननं कीर्ते: परं मंदिरम्।
मिथ्यात्वप्रतिपक्षमक्षयसुखं संशीतिविध्वंसनम्।।
सर्वप्राणिहितं प्रभेन्दुभवनं सिद्धिप्रमालक्षणम्।

संतश्चेतसि चिन्तयंतु सुधिय: श्रीवर्धमानं जिनम्।।
आज तत्त्वार्थ सूत्र की पंचम अध्याय का अध्ययन करना है। इन अध्यायों के माध्यम से आचार्य उमास्वामी ने सात तत्त्वों का निरूपण किया है। प्रारम्भ में मैंने बताया था कि पूरे तत्त्वार्थसूत्र में ३५७ सूत्र हैं जो कि दिगम्बर परम्परा के अनुसार हैं और श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार उन्होंने ३४४ सूत्र माने हैं। इनमें सात तत्त्वों में एक जीव तत्त्व का वर्णन चार अध्यायों के माध्यम से किया इसलिये जीवतत्त्व की विलक्षणता हम समझ सकते हैं। पाँचवीं अध्याय में अजीव तत्त्व का वर्णन है। एक प्रश्न उठता है कि जीव और अजीव तत्त्व में ज्यादा महिमा किसकी है। आज अपने को ज्यादा क्या दिखता है तो उत्तर मिलता है आज जितना कुछ दिख रहा है सब अजीव तत्त्व की महिमा है। मैंने एक सज्जन से पूछा तो बोले—माताजी! आज कम्प्यूटर का निर्माण हुआ है वह भी अजीव है, मिसाइल, एटमबम का निर्माण हुआ वह सब अजीव है अत: ज्यादा महिमा अजीव की ही दिखती है। मगर भैय्या, महिमा तो जीव की ही है असलियत तो यह है कि जब जीव और अजीव दोनों मिलते हैं तो उसकी महिमा का प्रदर्शन होता है। अकेला जीव अपनी महिमा का वर्णन स्वयं नहीं कर सकता, उसकी महिमा तो अपने में ही समाहित हो जाती है अकेला अजीव कुछ भी नहीं कर सकता है जब दोनों का परस्पर में सम्बन्ध होता है तभी संसार चलता है, तभी खोज— अन्वेषण होता है और तभी कुछ अलग दिखता है इसी का मिला-जुला रूप ही संसार कहलाता है। हमारे ऋषि-मुनियों ने, आचार्यों ने अपने तत्त्वज्ञान, चिंतन और मनन के आधार पर हमें सुन्दर-सुन्दर शास्त्र—ग्रन्थ दिये हैं जिन्हें पढ़-सुनकर हम आनन्दित होते हैं। जब एक छोटा-सा बच्चा प्रारम्भ में स्कूल जाता है, स्कूल से चिड़ियों की कविता सीख कर आता है उसे चित्र के माध्यम से बताया जाता है कि बेटा! यह चिड़िया है, ये डाल पर बैठी है। स्कूल से आने पर जब वह बताता है तो आप कितने हर्षित होते हैं कि मेरा बेटा कुछ सीख गया। जब वह थोड़ा और आगे बढ़ता है तब वह नहीं पढ़ता, चिड़ियों की कविताएँ नहीं सुनाता, जब उसका ज्ञान थोड़ा और आगे बढ़ता है तो वह कुछ अच्छी कविता याद करता है।
धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ वही बालक, जिसके अन्दर शक्तिरूप ज्ञान छिपा था, अपनी योग्यता के आधार पर चिंतन-अध्ययन करता है, तत्त्वज्ञानी बनता है, वैज्ञानिक, ऋषि-मुनि, दार्शनिक बन जाता है। कब ? जब वह क्रम से पढ़ता हुआ, क्लास को अटेन्ड कर अपनी परीक्षा में उत्तीण होता है, अपने लक्ष्य की सिद्धि कर लेता है तो उसको भी आनन्द होता है और उसके परिवार वालों को भी आनन्द होता है। ठीक उसी प्रकार से हमारे सन्तों ने, ऋषि-मुनियों ने हमें जो ग्रन्थ दिये हैं हमें भी उसे पढ़ने की कला सीखनी पड़ेगी। हम कैसे पढ़ें कि वह ज्ञान हमारे अन्दर अवतरित हो जाए, हम कैसे सीखें कि आगे आने वाले समय में भूलने नहीं पाएं, हम कैसे याद रखें कि हमारा वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान बना रहे, मिथ्याज्ञान नहीं बनने पाएं वरना आज शास्त्र की बात पढ़ी और कल उससे उल्टी कुछ बात देख ली तो श्रद्धान परिवर्तित हो गया, सम्यग्ज्ञान से आपका ज्ञान मिथ्याज्ञान हो गया। बन्धुओं! श्रद्धान ऐसा करना जिसके बाद कोई अश्रद्धान न हो, ज्ञान ऐसा प्राप्त करना जिसके बाद कभी अज्ञान न हो, सुख ऐसा प्राप्त करना कि सुख के बाद कभी दु:ख की प्राप्ति न हो। वास्तव में वही ज्ञान, वही सुख, वही तत्त्वज्ञान प्राप्त करना हमारे लिये कार्यकारी होता है। रामचन्द्र के जीवन की एक घटना याद आती है कि सीता ने बचपन से कितना तत्त्वज्ञान संचित किया था। कहते हैं कि जब कृतान्तवक्र सेनापति को रामचन्द्र ने सीता को वन में छोड़ने की आज्ञा दी तब वह सीता को तीर्थयात्रा के बहाने ले गए और घने जंगल के बीच में ले जाकर सीता को उतार दिया कि राम की यही आज्ञा है। सीता ने कहा कि मेरे साथ ऐसा धोखा क्यों किया गया ? मैं गर्भवती हूँ। कहीं इस जंगल के अन्दर कोई चीता, बाघ आ गया तो मेरे साथ-साथ दो और जीवों की हत्या होगी, ऐसा कहकर वह करुण विलाप करने लगी लेकिन थोड़ा विलाप करने के बाद उसका तत्त्वज्ञान जागृत हो जाता है। उधर कृतान्तवक्र सेनापति उसकी इस दशा को देखकर बहुत दु:खी होता है और सोचता है—अहो! इस सीता के कर्मों की गति कैसी विचित्र है, महलों में पली-बढ़ी यह सीता जैसे ही विवाह करके आई, राम के साथ उसे वनवास जाना पड़ा। राजमहल के सुखों का त्यागकर वनवास भी गयी, वहाँ भी प्रकृति ने उसे चैन से नहीं रहने दिया। रावण की दृष्टि खराब हो गयी, उसने उसका अपहरण कर लिया कितना मानसिक दु:ख सहना पड़ा उसे, रामचन्द्र से बिछुड़कर रावण के महल में जाकर उसने ११-११ उपवास कर लिए कि जब तक रामचन्द्र का समाचार नहीं मिलेगा, अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगी, ऐसा मेरा नियम है। आई थी राजमहल से, पट्टरानी बनने जा रही थी और कहाँ क्या हो गया ? किसी तरह रामचन्द्र युद्ध करके लाए भी तो एक धोबी के कहने मात्र से, जनता के अपवाद मात्र से उसे जंगल में निकाल दिया, उसके बाद भी मैं कुछ नहीं कर सकता।
उसने माता सीता से कहा—‘‘हे देवी! हे माता! मैं तो िंककर मात्र हूँ, मैं आपके लिये कुछ भी नहीं कर सकता लेकिन इतना जरूर है कि आप कोई सन्देश प्रभु राम के लिये देवें तो मैं अवश्य ही उन तक पहुँचा दूँगा। तब सीता जो अत्यन्त दु:खी थीं, बोलीं—हे सेनापति! आप राम से मेरा एक ही संदेश कह देना कि जिस प्रकार लोकापवाद के भय से आपने अपनी पत्नी को छोड़ दिया है, कभी ऐसा अवसर आने पर धर्म को मत छोड़ देना, मेरा मात्र इतना ही सन्देश है। आप उनसे यह मत कहना कि वह जंगल में दु:खी थी अथवा रो रही थी। यह सुनकर कृतान्तवक्र दु:खी मन से विलाप करने लगा और पुन:-पुन: सीता को देखते हुये लौट गया। ऐसी थी वह सीता! धन्य है वह देवी, जिसने घर में रहकर भी इतना तत्त्वज्ञान प्राप्त किया था कि दु:ख के क्षण आने पर वह विचलित नहीं हुई। आज भी लोग अपनी बेटी को पढ़ाते हैं भले ही वह गरीब हों, शायद इसलिये कि मेरी बेटी पर कभी संकट आ जाये तो वह उसका सामना कर सके, उसकी हिम्मत न टूटे लेकिन बी.ए., एम.ए., एम. एस. सी., ग्रेजुएट आदि होने के बाद भी क्या वह सीता बन सकती है ? क्या आज किसी लड़की में इतना धैर्य आ सकता है ? मैं तो कहती हूँ कि अगर आज ऐसा राम पैदा हो जाए तो वह सीता कोर्ट का दरवाजा खटखटाने लगती है, वह नहीं सहन करने वाली है, आज का राम तो सीता के पीछे-पीछे घूमता है। उस सीता ने कर्मसिद्धान्त के बल पर किस प्रकार के दु:ख सहन किए, कहाँ तक उसकी कहानी सुनाई जाए। वहाँ से आने के बाद जब राम का पुन: मिलन हुआ तो लोकापवाद के भय से ही राम ने उसकी अग्निपरीक्षा ली। नारद ने उन्हें बहुत समझाया, लक्ष्मण ने समझाया, लव-कुश ने समझाया कि सीता निर्दोष है लेकिन राम ने कहा कि अग्निपरीक्षा दिये बिना सीता को मेरे महल में जाने का अधिकार नहीं है, आखिर अग्निपरीक्षा हुई और अग्नि जलमयी सरोवर बन गया। सती सीता के शील की परीक्षा तो हो गयी लेकिन उसे वास्तविक तत्त्वज्ञान हो गया था। उधर राम भी जानते थे कि मेरी सीता निर्दोष है लेकिन जनता को दिखाने के लिये उन्होंने सीता की अग्निपरीक्षा ले डाली। इधर तत्त्वज्ञान होते ही सीता राम से कहती है—हे राम! तुम्हारा कोई दोष नहीं है, तुम विवाह के पहले कितने सुखी थे। मैं तुम्हारे जीवन में आई और तुमको वनवास जाना पड़ा, रावण से मेरे लिए संघर्ष झेलने पड़े, फिर जनता का अपवाद झेलना पड़ा, इनके पीछे मैं निमित्त हूँ और मेरा कर्मसिद्धान्त है जो मुझे कष्ट दे रहा है आपने मुझे कोई कष्ट नहीं दिया। अब मैंने संसार को पहचान लिया है अत: अब मैं महल में नहीं जाना चाहती हूँ मैं अपनी आत्मा के महल को प्राप्त करना चाहती हूँ। रामचन्द्र कहते हैं—हे सीते! ऐसा मत कहो। मुझे क्षमा करो। तुम महल में वापस चलो, वहाँ की पट्टरानी बनकर रहना और मेरे ऊपर भी साम्राज्य करना लेकिन सीता एक बात भी नहीं सुनती और केशलोंच करके बाल उखाड़ कर राम के हाथों में रख देती है। राम मूर्छित हो जाते हैं, उसने उसका भी ध्यान नहीं दिया क्योंकि उसे वास्तविक वैराग्य हो गया था। राम को होश आवे इससे पूर्व ही वह महेन्द्रोदय उद्यान में जाकर पृथ्वीमती आर्यिका माताजी से दीक्षा ले लेती है। वह दशरथ की माता और सीता की दादी सासु थीं जो पृथ्वीमती माताजी बन गयीं थीं। वैदिक रामायण में माना जाता है कि सीता पृथ्वी में समा गयीं। अरे! जो पापी होते हैं वह पृथ्वी में समाते हैं न कि सती। शब्द के अर्थ का थोड़ा-सा अनर्थ हो गया। फर्वâ इतना था कि सीता पृथ्वीमती माताजी की गोद में समा गर्इं अर्थात् अपने को समर्पित कर दिया। यह सब उसने कैसे किया ? तत्त्वचिंतन के बल पर, उसके द्वारा उसने अपनी आत्मा को परमात्मा बना लिया और राम ने आकर उन्हें नमस्कार करके उनकी बारम्बार स्तुति की। आपको भी जैन रामायण का अध्ययन करना है और इन शास्त्रों के स्वाध्याय के बल पर इन सभी बातों को समझना है कि सीता ने भी जीव, अजीवादि द्रव्यों का अध्ययन किया था लेकिन बाद में उनमें विलक्षण जीवतत्त्व को ही जाना और तत्त्वज्ञान के बल पर की गयी अनुभूति से वह अपना कल्याण करने में सक्षम हुर्इं थीं। मैं आज आपको उसी अजीव तत्त्व का व्याख्यान करने वाले पंचम अध्याय की ओर ले चलती हूँ जहाँ आचार्य उमास्वामी ने अजीव तत्त्व का व्याख्यान करते हुए सारांश रूप में यह बताया है कि जीव और अजीव के माध्यम से, इन दोनों के संयोग से जो संसार चलता है, संसार का परिभ्रमण होता है हमें इन दोनों को पुरुषार्थ के बल पर अलग करना है। पंचम अध्याय में प्रथम सूत्र का अवतरण करते हुए श्री उमास्वामी आचार्य कहते हैं—

अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला:।।१।।

अर्थ — धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चार अजीव तथा बहुप्रदेशी हैं। अजीव के चार भेद होते हैं—धर्म, अधर्म, आकाश और काल। अजीव और पुद्गल में क्या अन्तर है ? अजीव इन चार भेद वाला होता है और पुद्गल एक भेद वाला होता है। अजीव का भेद पुद्गल है अर्थात् जिसके अन्दर पूरण-गलन स्वभाव पाया जाये, वह पुद्गल कहलाता है। पुद्गल अजीव रूप है लेकिन सारे अजीव पुद्गल रूप हों यह बात नहीं है। अहमदाबाद के शिविर में द्रव्य संग्रह की कक्षा चलती थी, मैं उसका प्रतिपादन करती थी। जब एक दिन मैं वहाँ अजीव और पुद्गल का प्रतिपादन करने लगी, वहाँ एक आर्यिका माताजी भी विराजमान थीं, बोलीं—जीवन में पहली बार मैंने सुना है कि अजीव और पुद्गल में भेद होता है। यह बात आप लोगों को भी जानना है कि पुद्गल अजीव है लेकिन सारा अजीव पुद्गल नहीं है। अधर्म द्रव्य अजीव है लेकिन वह पुद्गल नहीं है, धर्म द्रव्य अजीव है पर वह पुद्गल नहीं है, काल द्रव्य अजीव है लेकिन वह पुद्गल नहीं है, आकाश द्रव्य अजीव है लेकिन वह भी पुद्गल नहीं है। जिसमें केवल पूरण-गलन स्वभाव पाया जाता है वह कहलाता है पुद्गल/अजीव तो और भी हो सकते हैं जिसमें मात्र चेतना नहीं होती है वह अजीव कहलाता है। यह अपना हाड़-माँस पुद्गल है। पूरण-गलन अर्थात् पहले बना है फिर उसके परमाणु विकसित हुए हैं और उसके बाद उसका गलन हो जायेगा। इन सबके भीतर हमारी चैतन्य आत्मा विराजमान है। मूलत: द्रव्य छह हैं, उनमें ५ अजीव हैं मात्र एक द्रव्य जीव है तथा ६ द्रव्यों में ५ द्रव्य अस्तिकाय हैं और एक काल द्रव्य अस्तिकाय नहीं है अत: जीवद्रव्य काय रूप है किन्तु अजीव नहीं है और कालद्रव्य अजीव है किन्तु कायरूप नहीं है इसलिये जीव और काल के अतिरिक्त शेष ४ द्रव्य अजीव भी हैं और काय भी हैं। इनमें से यदि धर्मद्रव्य न हो तो सभी वस्तुएँ एक ही स्थान पर स्थिर हो जायेंगी, गमन करते हुए जीव और पुद्गल को चलने में जो सहकारी हो वह धर्म द्रव्य है। जो जीव और पुद्गल को ठहरने में सहकारी हो वह अधर्म द्रव्य है, यदि यह न हो तो सब वस्तुएँ चलती ही रहेंगी। समस्त द्रव्यों को अवकाश देने में जो सहायक द्रव्य हो उसे आकाश कहते हैं, जो ऊपर नीला-नीला दिखता है, हम उसे आकाश कहते हैं लेकिन वह तो पुद्गल वायुकाय है, आकाश तो एक अखण्ड सर्वव्यापी पदार्थ है, अमूर्त है, लोक-अलोक में सब जगह व्याप्त है और जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श के गुण पाये जाते हैं उसे पुद्गल द्रव्य कहते हैं। पुद्गल द्रव्य एकप्रदेशी है पर उसमें दूसरे पुद्गलों के साथ मिलने की और बहुप्रदेशी होने की शक्ति है इसीलिए उसे काय संज्ञा दी है। द्रव्यों की गणना करते हुए कहते हैं—

द्रव्याणि।।२।।

अर्थ — उक्त चार पदार्थ द्रव्य हैं। जो त्रिकाल अपने गुण पर्याय को प्राप्त होता है उसे द्रव्य कहते हैं। पदार्थ परिवर्तनशील होकर भी अनादिनिधन हैं। हाँ, द्रव्यों में जो परिणमन होता है वह अपने-अपने रूप ही होता है। जो धर्मादिक बताए हैं ये सब द्रव्य हैं अर्थात् मूल में द्रव्य के दो भेद हैं और अन्य भेद से छह भेद हो जाते हैं—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। अब चूँकि अजीव द्रव्य की बात चल रही थी इसलिये अजीव के चार भेद बताए थे और आकाश समेत उसके ५ भेद हो गए थे। जीव द्रव्य के लिए बताते हुए आचार्य श्री ने कहा है—

जीवाश्च।।३।।

अर्थ — जीव भी द्रव्य है। जीव भी द्रव्य है और बहुप्रदेशी है, उन सबकी अलग-अलग सत्ता है। वे संसारी-मुक्त, त्रस-स्थावर आदि अनेक प्रकार के हैं। जो ५ द्रव्य बताए गए हैं इनमें एक जीव चेतन और शेष ४ अजीव—अचेतन हैं। चूँकि यह सब हैं अर्थात् इनका अस्तित्व है और यह पाँचों ही बहुप्रदेशी हैं अत: इन पाँचों को पंचास्तिकाय कहा है। द्रव्यों की विशेषता बताते हुए कहते हैं—

नित्यावस्थितान्यरूपाणि।।४।।

अर्थ — ऊपर कहे हुए सभी द्रव्य नित्य, अवस्थित और अरूपी हैं। जिस द्रव्य का जो स्वभाव है वह सदैव बना रहता है, ये द्रव्य कभी नष्ट नहीं होते इसलिये नित्य हैं, इनकी संख्या भी निश्चित है अत: अवस्थित हैं और रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित हैं अत: अरूपी हैं। अब प्रश्न उठा कि पुद्गल द्रव्य तो अलग से दिखाई देता है तो आचार्य ने उसका भी समाधान करते हुए कहा कि—

रूपिण: पुद्गला:।।५।।

अर्थ — पुद्गल द्रव्य रूपी—अमूर्तिक है। पुद्गल द्रव्य रूपी अर्थात् मूर्तिक है और बाकी द्रव्य अरूपी हैं, चूँकि उसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श पाया जाता है। इस लोक में जितने भी पदार्थ दिखाई देते हैं वह सभी रूपी हैं, इन्द्रियों से जाने जाते हैं, मूर्तिक हैं, जैसे—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति। ईट, पत्थर, महल, झोंपड़ी, खेत-खलिहान और साथ में यह शरीर भी पुद्गल है, अजीव पदार्थ है। इस पुद्गल के दो प्रकार हैं—१. अणु अर्थात् परमाणु, २. स्वंध। जिसका दूसरा हिस्सा न किया जा सके वह अणु कहलाता है। यह पुद्गल द्रव्य का सबसे छोटा अविभागी कण है, इसलिये इन्द्रियों द्वारा न दिखने पर भी उसमें असाधारण पौद्गलिक गुण रूप, रस, गंध, स्पर्श सदैव विद्यमान रहे हैं। पुद्गल के इन ४ गुणों के २० भेद हो जाते हैं, जिसमें स्पर्श के ८ भेद हैं—हल्का, भारी, कड़ा, नरम, रूखा, चिकना, ठण्डा, गरम। रस के ५ भेद हैं—खट्टा, मीठा, कड़ुआ, चरपरा और कषायला। गंध दो प्रकार की होती है—सुगंध और दुर्गन्ध एवं वर्ण के ५ भेद हैं—काला, नीला, पीला, लाल और सफेद। आज के विज्ञान ने भी परमाणु में दो तत्त्व माने हैं—इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन। इन्हीं दो प्रकार के परमाणु तत्त्वों से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु बनते हैं। यह चारों भिन्न-भिन्न पदार्थ नहीं हैं। पुद्गल परमाणुओं का एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तन हुआ करता है जैसे मिट्टी के परमाणु में से जल होता है, पानी से बिजली-अग्नि होती है, वायु के मिश्रण से जल होता है। अणु का आकार समषट्कोण घन—ठोस पुद्गल द्रव्य कहा है, फिर भी अणु का आदि, मध्य एवं अन्त नहीं है। अणुओं के समूहरूप पिण्ड को स्कंध कहते हैं, अणुओं की हीनाधिकता से स्कं]ध के छह भेद हैं जिसमें—१. स्थूल-स्थूल अर्थात् जिसका छेदन-भेदन हो सके और अन्य पदार्थ की सहायता से ही जुड़े, जैसे—लकड़ी, ईट, कागज, कपड़ा आदि। २. स्थूल—बहने वाले वे द्रव्य पदार्थ जिनका छेदन-भेदन तो हो किन्तु मिलाया जाए तो एकमेक हो जावें, जैसे—तेल, पानी, दूध आदि। ३. स्थूलसूक्ष्म—जिसका छेदन-भेदन हो जाए, जैसे—छाया, धूप, चाँदनी आदि। ४. सूक्ष्मस्थूल—जो आँखों से तो दिखे किन्तु स्पर्शन, रसना, घ्राण और कर्ण इन चार इन्द्रियों द्वारा जाने जा सकें, जैसे—रस, गंध, शब्द आदि। ५. सूक्ष्म—जिसका इन्द्रियों द्वारा भी ग्रहण न हो सके जैसे—कार्माण वर्गणा। ६. सूक्ष्मसूक्ष्म—इसमें अविभागी पुद्गल परमाणु आएगा। पुद्गल किसे कहते हैं ? ‘पूरयन्ति गलयन्ति इति पुद्गला:’ अर्थात् जिसमें पूरण-गलन स्वभाव पाया जावे वह पुद्गल है। पुद् ± गल · मिल जाना और बिछुड़ जाना। आज जो परमाणु बम बनाया जा रहा है वह अणुओं का समूह है न कि एक अणु-परमाणु। द्रव्यों के स्वभेद की गणना करते हुए कहते हैं—

आ आकाशादेक द्रव्याणि।।६।।

अर्थ — आकाशपर्यन्त सभी द्रव्य १-१ हैं अर्थात् धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य १-१ ही हैं, जीवद्रव्य अनन्त हैं। पुद्गल द्रव्य अनंतानंत हैं और काल द्रव्य असंख्यात माने गये हैं। इन तीनों द्रव्यों को एक-एक बतलाने से यह स्पष्ट है कि बाकी के द्रव्य अनेक हैं। जैन सिद्धान्त में बताया है कि जीव द्रव्य अनंतानंत हैं क्योंकि प्रत्येक जीव एक स्वतन्त्र द्रव्य है, जीवों से अनंतगुणे पुद्गल द्रव्य हैं क्योंकि एक-एक जीव के उपभोग में अनंत पुद्गल द्रव्य हैं। कालद्रव्य असंख्यात हैं क्योंकि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं और एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित रहता है तथा धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं। विशेष बात यह है कि एकत्व की अपेक्षा धर्म, अधर्म और आकाश में समानता है। अनेकत्व की अपेक्षा जीव, पुद्गल और काल में समानता है और एकत्व-अनेकत्व पहले तीनों की दूसरे तीनों से भिन्नता है। धर्मादिक तीन द्रव्यों की निष्क्रियता के बारे में बताते हैं—

निष्क्रियाणि च।।७।।

अर्थ — धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य क्रियारहित हैं अर्थात् धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य तीनों ही क्रियारहित होते हैं स्वयमेव क्रिया नहीं करते, ये एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्वयं नहीं जाते, निष्क्रिय होते हैं। इनमें दूसरे का कुछ न कुछ निमित्त बनता है उसमें वे सहायक बन जाते हैं और उनमें से भी धर्म और अधर्म द्रव्य को सहायक मान लेते हैं बाकी स्वयं ये कोई कार्य नहीं करते हैं। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप अवस्थाएं छहों द्रव्यों में होती हैं किन्तु क्रिया संसारी जीव और पुद्गल इन दो में ही होती है इसलिये इन दो द्रव्यों के अतिरिक्त शेष द्रव्यों को निष्क्रिय कहा है। धर्म और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं तथा आकाश द्रव्य लोक और अलोक दोनों जगह व्याप्त है इसलिये अन्य क्षेत्र का अभाव होने से इनमें क्रिया नहीं होती। एक स्थान से दूसरे स्थान को प्राप्त होने को क्रिया कहते हैं। द्रव्यों के प्रदेशों का वर्णन करते हुए बताया है—

असंख्येया: प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम्।।८।।

अर्थ — धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और एक जीवद्रव्य इनमें से प्रत्येक के असंख्यात-असंख्यात प्रदेश होते हैं। जितने क्षेत्र को पुद्गल का एक परमाणु रोकता है उस स्थान को प्रदेश कहते हैं वह बहुत सूक्ष्म है हमारे चक्षुगम्य नहीं है केवलीगम्य है। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य तो निष्क्रिय हैं और समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं अत: लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में व्याप्त होने से वे दोनों असंख्यात-असंख्यात प्रदेशी हैं। जीव भी उतने ही प्रदेशी हैं किन्तु उसका स्वभाव संकुचन और फैलने का है, नामकर्म के उदय से जिस जीव को जितना बड़ा अथवा जितना छोटा शरीर प्राप्त होता है वह उतने में फैल जाता है। इसमें सबसे छोटी अवगाहना वाला जीव ऋजुगति जन्म से तीसरे समय वाला लब्ध अपर्याप्तक निगोदिया है जो जघन्य असंख्यात प्रदेशी है और जब केवलज्ञान प्राप्त करके यही जीव लोकपूरण समुद्घात करता है तब यह समस्त लोकाकाश में व्याप्त हो जाता है अत: वह भी उत्कृष्ट असंख्यात प्रदेशी ही है। शेष बीच की अवगाहना वाले जीव मध्यम असंख्यात प्रदेशी हैं। अब आकाश द्रव्य के प्रदेश को बताते हैं—

आकाशस्यानन्ता:।।९।।

अर्थ — आकाश के अनंत प्रदेश हैं परन्तु लोकाकाश के असंख्यात ही हैं। आकाश द्रव्य के अनंत प्रदेश हैं लेकिन यहाँ आकाश द्रव्य से मतलब है—लोकाकाश और अलोकाकाश। जहाँ पर छहों द्रव्य हों वह लोकाकाश और जहाँ केवल एक आकाश द्रव्य हो वह अलोकाकाश है। लोकाकाश को जब लेंगे तो तीन लोक के अन्दर जितना आकाश है वह असंख्यात प्रदेशी है और बाहर का जो लोकाकाश है उसको मिला लेंगे तो अनंत प्रदेशी है। पुद्गल द्रव्य के प्रदेश को बताया है—

संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम्।।१०।।

अर्थ — पुद्गल द्रव्यों के संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश होते हैं। शुद्ध पुद्गल द्रव्य तो एक अविभागी परमाणु है जिसका कि दूसरा हिस्सा नहीं हो सकता है किन्तु परमाणुओं में इतनी शक्ति है कि वह बंध भी सकते हैं और बिछुड़ भी सकते हैं अत: परमाणुओं के मिलने से स्वंध बनता है, कोई स्वंध दो परमाणु से, कोई तीन, कोई संख्यात और कोई असंख्यात परमाणुओं के मिलने से बनता है। उसी हिसाब से कोई स्वंध संख्यातप्रदेशी, कोई असंख्यात और कोई अनंतप्रदेशी होता है। जैसे—एक कमरे में एक दीपक का प्रकाश भी रहता है, सैकड़ों दीपकों का प्रकाश भी रह सकता है। छोटे से गुलाब की खुशबू बहुत दूर तक फैल जाती है, बहुत बड़ी वायु के कण एक-दूसरे में समाकर छोटे से साइकिल आदि के ट्यूब में एक स्थान में आ जाते हैं। एक्स-रे मशीन से निकली किरण शरीर के आर-पार हो जाती है और सामने की प्लेट पर उस शरीर का फोटो आ जाता है आदि-आदि। अब परमाणु के प्रदेश बताये हैं—

नाणो:।।११।।

अर्थ — पुद्गल परमाणु के दो आदिक प्रदेश (खण्ड) नहीं होते अर्थात् वह एकप्रदेशी ही है। जैसे आज परमाणु बम है उसे वैज्ञानिकों ने शक्ति की अपेक्षा परमाणु बम की संज्ञा दे दी है लेकिन जैन सिद्धान्त की भाषा में वह स्कन्ध का रूप है क्योंकि वह दिखता है। पुद्गल का परमाणु हमें दिख नहीं सकता। जिसका दूसरा हिस्सा ही नहीं किया जा सके, दूसरा खण्ड न हो सके वह परमाणु है। एक अणु के अन्दर १४ राजू गमन करने की शक्ति होती है, उसी शक्ति की अपेक्षा आज पुद्गल के परमाणुओं को एकत्रित करके बम बना दिया गया है। कहते हैं कि एक परमाणु बम को दबाने से आधी दुनिया एक साथ नष्ट हो सकती है। यह सब परमाणुओं के अन्दर विद्युत्शक्ति का प्रवाह है, उस विद्युत्शक्ति का परीक्षण करके जब एकत्रीकरण किया गया, स्कन्ध का रूप दे दिया गया तो उसको वैज्ञानिकों ने परमाणु बम बना दिया जो विश्व के लिये विनाशकारी सिद्ध हुआ है। यह अणु, परमाणु, जीव-अजीव, इन सबको बताने का आचार्यों का मतलब यह नहीं है कि आप इसके द्वारा भौतिकता का वातावरण पैदा करके अपने लिये ही विनाश की स्थिति उत्पन्न कर लें लेकिन आज वैज्ञानिक तो आध्यात्मिक ज्ञान से रहित होकर लौकिक ज्ञान की ओर बढ़ गए हैं और भौतिकता की चकाचौंध के अन्दर फसकर आज हम भी उन्हीं चीजों में, उन्हीं कम्प्यूटर, मिसाइल में, उन्हीं परमाणुओं में और उन्हीं तोप आदि के युग में घुल-मिल गये हैं जिससे कि हम भी अपनी आत्मा के ज्ञान से शून्य हैं। शारीरिक सौन्दर्य, पंचेन्द्रिय विषय भोगों की कामना, धन कमाने की इच्छा, परिवार का पोषण, अपनी स्वार्थपरता आदि में मानव इतना लिप्त है कि आत्मा नाम की चीज क्या है ? वह नहीं जानता। इसलिये एक कवि ने कहा—भौतिकता की चकाचौंध में, मानव निज को भूल गया है।

दुनिया की झूठी माया और, वैभव में ही फूल गया है।।
क्षणभंगुर लक्ष्मी की खातिर, मानवता भी आज रो रही।
दुनिया की हर साँसों में, हिंसा अधर्म की बात हो रही।।
फिर हम क्या करें ? तो उसी ने फिर प्रेरणा दी है—
वीतराग गुरुओं की वाणी, सुनकर अपनी प्यास बुझाओ।
त्याग और संयम की ज्योती, अपने जीवन में चमकाओ।।
वीतरागता ही प्राणी के, उन्नति की आधारशिला है।

कथनी को करनी में बदलो, शुभ अवसर यह आज मिला है।।
समयसार कह गया, नियमसार कह गया, कुन्दकुन्द स्वामी कह गए लेकिन जिस प्रकार उन्होंने कथनी को अपनी आत्मा के अन्दर उतारा उस प्रकार से हमको भी उतारने की आवश्यकता है केवल कहने से कुछ होने वाला नहीं है। सर्वप्रथम हमें अपना उद्धार करना है, जग के उद्धार की बात तो जाने दीजिये जैनधर्म तो आत्महित की प्राथमिक बात करता है हमें आत्महित की ओर जागृत होना है। ऐसा तो नहीं है कि कहीं हम आत्महित को छोड़कर परहित को करते-करते आत्महित से विमुख हो गए हैं। अगर वास्तव में देखा जाए तो आज यही हो रहा है कि इन अणुओं को प्राप्त करके अनुसन्धान करते-करते पश्चिमी देशों ने इतनी उन्नति कर ली है कि हमारी आध्यात्मिकता के ऊपर भी कुठाराघात होने लगा है। वह हमें भी अध्यात्म की ओर बढ़ने नहीं देना चाहते हैं और ऐसा भौतिकता का वातावरण बन गया है कि हर देश सोचता है कि हमारे पास युद्ध की इतनी सामग्री हो गई है तो मैं धनी हो गया हूँ, मैं आगे आ गया हूँ। वह देश जिसके पास युद्ध की सामग्री नहीं है वह सोचता है कि मेरा देश पिछड़ा देश है, गरीब देश है लेकिन आपको देखना है कि हमारे भारत देश में जहाँ आध्यात्मिकता की गंगा बह रही है वह देश कभी गरीब नहीं हो सकता, कभी पिछड़ा नहीं हो सकता क्योंकि हमारे पास भी अमूल्य सिद्धान्त हैं, इन एक-एक सिद्धान्त को भी अगर हम विक्रय करें तो हम बहुत शक्तिशाली बन सकते हैं लेकिन सिद्धान्त कोई विक्रय करने वाली चीज नहीं है, यह हमारे देश की, समाज की धरोहर है, हमारे लिये अमूल्य निधि है। समस्त द्रव्यों के रहने के स्थान के बारे में बताते हुए आचार्यश्री कहते हैं—

लोकाकाशेऽवगाह:।।१२।।

अर्थ — ऊपर कहे हुए समस्त द्रव्यों का अवगाह अर्थात् स्थान लोकाकाश में है अर्थात् समस्त द्रव्यों को अवगाह देने वाला आकाश द्रव्य है। अगर आकाश द्रव्य नहीं हो तो हम और आप यहाँ नहीं रुक सकते हैं। सब द्रव्यों को आश्रय देने का श्रेय लोकाकाश को प्राप्त है अर्थात् आकाश तो सर्वत्र है उसके बीच के जितने भाग में धर्म आदि छहों द्रव्य पाए जाते हैं उतने भाग को लोकाकाश कहते हैं और उसके बाहर जो आकाश है उसे अलोकाकाश कहते हैं। धर्म और अधर्म द्रव्य के रहने के स्थान को बताया है—

धर्माधर्मयो: कृत्स्ने।।१३।।

अर्थ — धर्म और अधर्म द्रव्य का अवगाह तिल में तेल की तरह समस्त लोकाकाश में है अर्थात् धर्म और अधर्म द्रव्य का अवगाह सम्पूर्ण क्षेत्र के अन्दर भरा हुआ है जैसे तिल में तेल ठसाठस भरा हुआ है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि तिल के इस कोने में तेल है या इस कोने में तेल है, तिल के तो हर कोने में तेल है ऐसे ही धर्म और अधर्म द्रव्य का अवगाह पूरे लोकाकाश में तिल में तेल की तरह व्याप्त है। पुद्गल के रहने के स्थान को बताते हुए उमास्वामी आचार्य ने कहा है—

एकप्रदेशादिषु भाज्य: पुद्गलानाम्।।१४।।

अर्थ — पुद्गल द्रव्य का अवगाह लोकाकाश के एक प्रदेश से लेकर संख्यात-असंख्यात प्रदेशों में भी विभाजित करने योग्य है। पुद्गल द्रव्य संख्यात प्रदेशी भी है, असंख्यात प्रदेशी भी है और संख्यात-असंख्यात दोनों प्रदेशों में रहता है क्योंकि तीन लोक में असंख्यात प्रदेश होते हैं अर्थात् लोक के असंख्यात भाग करके, उनमें से एक भाग लोक का असंख्यातवाँ भाग है जो असंख्यात प्रदेशी है। कम से कम उस एक असंख्यातवें भाग में एक जीव रहता है, यहाँ तक कि केवली सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं। यह सभी अवगाहना एक जीव की अपेक्षा है यदि सभी जीवों की अपेक्षा से कहा जाये तो अवगाह क्षेत्र समस्त लोक को प्राप्त होता है क्योंकि जीवराशि सम्पूर्ण लोक को व्याप्त करके स्थित है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब एक जीव द्रव्य असंख्यातप्रदेशी है तब वह लोक के असंख्यातवें भाग में कैसे रह सकता है उसका उत्तर देते हुए आचार्यश्री कहते हैं—

असंख्येय भागादिषु जीवानाम्।।१५।।

अर्थ — जीवों का अवगाह लोकाकाश के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोकाकाश क्षेत्र में है अर्थात् लोक के असंख्यातवें भाग में भी जीव रह सकता है इतनी उसके अन्दर शक्ति है और पूरे लोक के अन्दर भी जीव रह सकता है।

प्रदेशसंहारविसर्पाभ्याम् प्रदीपवत्।।१६।।

अर्थ — दीपक के प्रकाश की तरह जीव के प्रदेशों में संकोच और विस्तार होने से जीव लोकाकाश के असंख्यातवें आदि भागों में रहता है। किसी ने प्रश्न कर दिया कि ऐसे कैसे जीव हैं, जो छोटे भी बन जाएं और इतना बड़े भी बन जाएं कि पूरे तीन लोक में व्याप्त हो जाएं। तब आचार्यश्री ने बताया कि जैसे दीपक का प्रकाश एक घड़े में रखें तो छोटा हो जाएगा और यदि एक कमरे में रख दें तो पूरे कमरे में प्रकाश भर जाएगा दीपक का प्रकाश संकुचित भी किया जा सकता है और फैलाया भी जा सकता है। जैसे दीपक का प्रकाश संकुचित व विस्तीर्ण हो सकता है ऐसे ही जीव भी है, यह अखण्ड ज्योति है इसका प्रकाश चाहे संकुचित कर दें चाहे फैला दें। देखो! चींटी के शरीर में वही जीव गया तो इतना छोटा बन गया और हाथी के शरीर में वही जीव गया तो कितना बड़ा बन गया। वही जीव जब केवली समुद्घात करता है, लोकपूरण समुद्घात करता है तो उसकी आत्मा के प्रदेश पूरे लोकाकाश में फैल जाते हैं और सिद्ध अवस्था में अन्तिम शरीर से कुछ कम रहता है। मूल शरीर को न छोड़कर आत्मा के प्रदेशों के बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं। इसके सात भेद होते हैं— # आहारक # वैक्रियिक # तैजस # कषाय # वेदना # मारणान्तिक # केवली लोकपूरण समुद्घात। धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार या लक्षण बताते हैं—

गति स्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकार:।।१७।।

अर्थ — स्वयमेव गमन तथा स्थिति को प्राप्त हुए जीव और पुद्गलों को गति तथा स्थिति में सहायता देना क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है। द्रव्य अजीव भले ही है फिर भी कैसे उपकार करता है ? यह जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में निमित्त बनता है। हम चल रहे हैं अर्थात् जीव और पुद्गल मिलकर चल रहे हैं, उसमें अज्ञात रूप से धर्म द्रव्य का सहयोग है। उनसे आपने कहा नहीं है कि आप चलिए लेकिन जब आप चले तो चलने में धर्मद्रव्य निमित्त बन गया। जैसे आप यहाँ बैठे हैं आपको यहाँ ठहराने में आकाश द्रव्य निमित्त है, आकाश द्रव्य नहीं हो तो कोई भी द्रव्य रह नहीं सकता है। इस बात को हमने नहीं केवली भगवान ने जाना और बताया कि जीव और पुद्गल के पीछे कोई तीसरी शक्ति भी है और उसका नाम है धर्मद्रव्य। यहाँ धर्म और अधर्म द्रव्य से आप पुण्य-पाप को नहीं लेना कि हम पूजा करें तो धर्म हो जायेगा, िंहसा करें तो पाप हो जायेगा, यहाँ द्रव्य हैं जो उदासीन रूप से निमित्त बनते हैं। जैसे मछली जल में चलती है तो पानी उसको चलने में सहकारी निमित्त बनता है ऐसे ही हमारे चलने में धर्म द्रव्य निमित्त बनता है। हम जाकर एक पेड़ के नीचे ठहर गये तो हमको छाया देने में पेड़ सहायक निमित्त है, ऐसे ही ठहराने में अधर्म द्रव्य निमित्त है, यही हमारे ऊपर धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार माना गया है। आकाश द्रव्य का क्या उपकार है ? इस बात को बताते हुए कहा है—

आकाशस्यावगाह:।।१८।।

 अर्थ — सब द्रव्यों को अवकाश देना आकाश का उपकार है। आकाश द्रव्य का क्या उपकार है ? समस्त द्रव्यों को अवकाश देना यह आकाश द्रव्य का उपकार है। यह कहते नहीं हैं कि हमने तुम पर उपकार किया है, हमने तुमको ठहराया है, हमने तुमको चलाया है, यह उदासीन रहते हैं। हमें इन द्रव्यों से सीखना है कि हम किसी के उपकार को बार-बार कहें नहीं, हमें पर का उपकार करके उदासीन रहना है। अगर किसी से हम बार—बार कहते हैं कि अगर हम नहीं होते तो तुम ऐसा नहीं कर सकते थे, अगर हमने तुमको ५०० रुपये नहीं दिए होते तो तुम बिजनेस कर सकते थे क्या ? उतना कहने से वह सारा उपकार व्यर्थ हो जाता है। उपकार करने वाले का फर्ज है कि वह अपने उपकार को बार-बार कहे नहीं और जिसका उपकार किया जाए उसका फर्ज है कि ‘‘निंह कृतं उपकारं साधवो विस्मरन्ति’’ वह किये हुये उपकार को कभी भूले नहीं। जैसे—जीवन्धर कुमार ने मरते हुये कुत्ते को णमोकार मन्त्र सुनाया था, जब भी उनके ऊपर संकट आया तो वह कुत्ता जो यक्षेन्द्र का जीव था हरदम आकर उसकी रक्षा करता था पर जीवन्धर कुमार ने कभी नहीं कहा कि मैंने ही तुझे देव बनाया है। बन्धुओं! महापुरुष कभी भी किए हुये उपकार को कहते नहीं हैं। यहाँ उनके माध्यम से और बहुत सी शिक्षाएं मिल जाती हैं किन्तु यहाँ तो अजीव द्रव्य की बात चल रही है कि अजीव द्रव्य भी वैâसे जीव द्रव्य का उपकार करने में सक्षम है। यद्यपि अवगाह गुण समस्त द्रव्यों में है तथापि आकाश में यह गुण सबसे बड़ा है क्योंकि यह समस्त पदार्थों को एक साथ अवकाश देता है। वैसे तो अलोकाकाश में भी अवगाह हेतु है किन्तु वहाँ अवगाह लेने वाला कोई द्रव्य नहीं है और इससे आकाश का अवगाह देने का गुण नष्ट नहीं हो जाता, क्योंकि द्रव्य अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता। पुद्गल द्रव्य जीवों पर क्या उपकार करता है अथवा पुद्गल द्रव्य का क्या कार्य है ? इस बात को बताने के लिए अगला सूत्र अवतरित होता है—

शरीरवाङ्मन:प्राणापाना: पुद्गलानाम्।।१९।।

अर्थ — औदारिक आदि शरीर, वचन, मन तथा श्वासोच्छ्वास ये पुद्गल द्रव्य के उपकार हैं अर्थात् शरीर की रचना पुद्गल से ही होती है। जीवों के शरीर आदि की रचना का उपादान कारण पुद्गल है और निमित्त कारण जीव है। परमाणु से लेकर महास्वंâध तक पुद्गल द्रव्य के आहार आदि २३ वर्गणा समूह हैं, इनमें से आहार, भाषा, मन, तैजस और कार्माण इन पाँच प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं के समूह से जीवों के ५ शरीर—औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्माण तथा वचन, मन और श्वासोच्छ्वास का निर्माण होता है। वचन दो प्रकार का है—भाव वचन और द्रव्य वचन। मति, श्रुत, ज्ञानावरण कर्म, वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से और आंगोपांग नामकर्म के उदय से बोलने की शक्ति का होना भाववचन है। वास्तव में भाववचन जीव की अवस्था है पर पुद्गल के निमित्त से होने के कारण तथा जीव का त्रिकाली स्वभाव न होने से भाववचन रूप अवस्था अलग हो जाती है और निश्चयनय से देखें तो भाववचन जीव के न होकर पुद्गल शब्द हैं तथा बोलने की शक्ति से सहित जीव के गला, तालू आदि के संयोग से जो भाषा वर्गणा के पुद्गलरूप शब्द बनते हैं वह द्रव्य वचन हैं वह भी पौद्गलिक ही हैं। जैसे—किसी जीव की आवाज चली जाए तो वह परेशान हो जाता है, आवाज का बने रहना यह पुद्गल का कार्य है, पुद्गल का उपकार है। मन भी दो प्रकार का है—भाव मन और द्रव्य मन। गुण दोष रूप विचार की शक्ति का होना अथवा लब्धि और उपयोग रूप भाव मन कहलाता है। यह शक्ति भी पुद्गल कर्म के क्षयोपशम से ही प्राप्त होती है तथा ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से और आंगोपांग नामकर्म के उदय से हृदय स्थान में जो पुद्गल मनरूप से परिणमन करे वह द्रव्य मन है, इसमें भी पुद्गल ही निमित्त कारण है। वायु को अन्दर से बाहर करना उच्छ्वास है, इसे प्राणवायु कहते हैं तथा बाहर की वायु को अन्दर ले जाना निश्वांस है इसे अपानवायु कहते हैं। ये दोनों ही पौद्गलिक हैं। अगर प्राणापान अर्थात् श्वासोच्छ्वास चली जाये तो सारा काम ही खत्म हो जायेगा, श्वांस अथवा नि:श्वांस के बिना प्राणी जीवित ही नहीं रह सकता है। पुद्गल द्रव्य और भी किस प्रकार उपकार करता है, इस बात को बताते हुए कहते हैं—

सुखदु:खजीवितमरणोपग्रहाश्च।।२०।।

अर्थ — इन्द्रियजनित सुख-दु:ख, जीवन-मरण ये भी पुद्गल द्रव्य के उपकार हैं। आचार्यश्री तो आगे बढ़ते चले गए परन्तु शिष्य तो इतने में ही परेशान था कि अजीव द्रव्य के कितने-कितने उपकार हैं, इस बात पर उसे सम्बोधित करते हुए आचार्य कहते हैं—सुख, दु:ख, जीवन-मरण सब तेरे ऊपर उपकार कर रहे हैं। क्या दु:ख भी उपकार कर सकता है ? हाँ, दु:ख भी अपने ऊपर उपकार कर रहा है यह मानना पड़ेगा, सिद्धान्त का अटल नियम है। आप भजन में पढ़ते हैं— दु:ख ही मानव की सम्पति है, तू दु:ख से क्यों घबराता है, दु:ख आया है तो जाएगा, सुख आया है तो जाएगा। दु:ख जाएगा तो सुख देकर, सुख जाएगा तो दु:ख देकर, सुख देकर जाने वाले से, रे मानव क्यों घबराता है। हम इन पंक्तियों को पढ़ते हैं लेकिन क्या हम वास्तव में दु:ख को उपकारी मानते हैं ? दु:ख आता है तो हम अपने पथ से विचलित हो जाते हैं, जाने किनके-किनके चक्कर चलाने लगते हैं, हम भगवान से तो कहते हैं—चत्तारि शरणं पव्वज्जामि, अरिहंत शरणं पव्वज्जामि, सिद्ध शरणं पव्वज्जामि, साहू शरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तो धम्मो शरणं पव्वज्जामि, पर भगवान्! आपत्तिकाले डॉक्टर शरणं पव्वज्जामि। आपत्ति के काल में आप डॉक्टर की शरण में पहुँच जाते हैं तब कहाँ भान रहेगा कि दु:ख हमारी सम्पत्ति है, उसके लिए आचार्यश्री कहते हैं कि थोड़ा-सा सहन करना सीखें। भागवत में मैंने एक कथानक पढ़ा था— नाारायण श्रीकृष्ण एक दिन अपने दरबार में बैठे थे, वह सभा में उपस्थित सभी लोगों से बोले कि आज मैं बहुत अच्छे मूड में हूँ जिसको जो वरदान माँगना है, माँग लो। सबने इतनी-इतनी सुन्दर वस्तुएँ माँगी कि सात जन्मों तक की दरिद्रता दूर हो जाये और वह सुखी रहें। उनमें से एक व्यक्ति ऐसा था जिसने कुछ नहीं माँगा। सबने कहा कि आज बहुत सुनहरा मौका है, कुछ तो माँग ले, स्वयं नारायण श्रीकृष्ण ने कहा कि तूने कुछ क्यों नहीं माँगा, माँग तुझे क्या चाहिये। तो उसने कहा—महाराज! मुझे कुछ नहीं चाहिये। नारायण बोले कि शायद तू बहुत घबरा गया है। जीवन में दो ही आदमी कुछ नहीं माँगते हैं या तो कोई ज्यादा सुखी हो या फिर कोई जीवन, परिवार, पत्नी आदि सबसे घबरा जाता है और आत्महत्या के अभिमुख हो जाता है तो कहता है कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। दिखने में तो ऐसा लगता था कि बेचारा सुबह खाएगा तो शाम को रोटी भी नसीब नहीं होगी लेकिन फिर भी कुछ नहीं माँगा। जब नारायण श्रीकृष्ण ने बहुत बार कहा कि अवसर है कुछ माँग ले तो उसने सोचा कि तीन खण्ड के अधिपति मुझसे बार-बार कह रहे हैं तो कुछ माँग लूँ।
अत: उसने कहा कि मुझे देना ही है तो दु:ख दे दीजिए। सब सुनकर आश्चर्यचकित थे कि इसने यह क्या माँगा। जब नारायण ने पूछा कि तुमने दु:ख क्यों माँगा ? तो उसने कहा कि स्वामी! मैंने दु:ख इसलिये माँगा कि सुख में लोग पूâल जाते हैं, जाने क्या-क्या करते हैं ? और मेरे ऊपर जब दुख की घड़ियाँ आती हैं तो मैं भगवान का स्मरण करता हूँ, मन्दिर में जाकर बैठता हूँ, गुरुओं की शरण लेता हूँ। मेरे मन में हमेशा धर्म ही आता है इसलिये मैंने सोचा कि दु:ख ही माँग लूँ ताकि जीवन में हमेशा धर्ममय रहूँ, जीवन में कभी दूसरे की शरण में जाने की कोशिश नहीं करूँ। वास्तव में उसने दु:ख को अपना उपकारी माना कि सुख से ज्यादा दु:ख उपकारी है। बन्धुओं! राग से बढ़कर द्वेष अच्छा होता है क्योंकि वह हमारे वैराग्य भाव को प्रज्ज्वलित करता है। भरत-बाहुबली युद्ध में, युद्धक्षेत्र में भरत ने बाहुबली पर चक्र नहीं चलाया होता तो क्या पता उनके अन्दर ऐसी वैराग्य की भावना नहीं आई होती, सब कुछ पाकर सब कुछ छोड़ दिया और ज्ञानी हो गये कि मेरे कारण आज भरत को इतना घिनौना कृत्य करना पड़ा जबकि वह जानते थे कि अपने वंशज के ऊपर कभी चक्र नहीं चलता है लेकिन ऐश्वर्य का मद और राजसत्ता इतनी बुरी होती है कि वहाँ व्यक्ति सब कुछ भूल जाता है। मैं कई बार कहा करती हूँ कि जीवन के अन्दर तीन ककार हैं—वचन, कामिनी और कीर्ति। इन तीन में पड़कर व्यक्ति माता-पिता, गुरु-शिष्य का सब भेद समाप्त कर देता है। वंâचन के पीछे झगड़े हो गए, महाभारत का युद्ध हो गया, कामिनी के पीछे रामायण बन गयी और कीर्ति के पीछे आप देख ही रहे हैं कि कितने बड़े युद्ध हो रहे हैं।
जहाँ भी चुनाव हो रहे हैं वहाँ की दशा किसी से छिपी नहीं है। कीर्ति का झगड़ा तो वंâचन और कामिनी से भी ज्यादा होता है। वहाँ हर क्षण लगा रहता है कि मैं किसको किस प्रकार से हरा दूँ, वोटों की राजनीति हो गई है। हम देखते हैं कि कोई नेता सपा में है, कोई बसपा में है, कोई कांग्रेस में है थोड़ा-सा गठबन्धन करके तीसरी नई सरकार बन जाती है, उसका कारण क्या है ? आज लोगों की कहीं भी किसी भी जगह आस्था नहीं रह गयी है, एक जगह उनका विश्वास नहीं रह गया है, यह राजनीति है कि कोई नेता कभी किसी का विरोध कर रहा है और कभी उसी को माला पहना रहा है और जब यह राजनीति धर्मनीति में प्रवेश कर जाती है तो बहुत बुरा होता है। धर्मनीति राजनीति में प्रवेश करती है तो राजनीति थोड़ा स्वच्छ हो जाती है लेकिन धर्मनीति में राजनीति आ जाती है तो ध्यान रखना कि बहुत कटु—वूâटनीति बन जाती है। वस्तुत: यह सुख-दु:ख, जीवन-मरण सब हमारे लिये उपकारी हैं। सातावेदनीय के उदय से बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से आत्मा में प्रसन्नता का होना सुख है, असातावेदनीय के उदय से संक्लेश रूप परिणामों का—भावों का होना दु:ख है। आयुकर्म के उदय से एक भव में स्थित जीव के श्वासोच्छ्वास का चलना जीवन है और वही जब रुक जाए तो मरण हो जाता है। ये सुख, दु:ख आदि जीव की अवस्थाएँ हैं परन्तु उनके होने में पुद्गल निमित्त है इसलिये यह सब पुद्गल के ही उपकार कहे गये हैं। चूँकि इस सूत्र में उपग्रह शब्द का प्रयोग किया गया है अत: उससे यही जानना है कि पुद्गल परस्पर में एक दूसरे का उपकार करते हैं। जैसे—राख कांसे का, पानी लोहे का, साबुन कपड़े का आदि। उपकार शब्द का अर्थ यहाँ परोपकार से नहीं लेना है अपितु निमित्त मात्र ही समझना है। जीवों के उपकार के बारे में बताते हुए बहुत ही सुन्दर सूत्र का अवतार हुआ है—

परस्परोपग्रहो जीवानाम्।।२१।।

अर्थ — जीवों का परस्पर उपकार है अर्थात् जीव कारणवश एक-दूसरे का उपकार करते हैं। अब शिष्य ने प्रश्न किया कि भगवन! पुद्गल आदि द्रव्य जीव का इतना-इतना उपकार करते हैं तो जीव का क्या कत्र्तव्य है ? तब आचार्यश्री ने कहा—परस्पर में एक-दूसरे का उपकार करना हर जीव का कत्र्तव्य है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों का यही कत्र्तव्य है। जैसे—शिष्य गुरु का उपकार करता है, गुरु शिष्य का उपकार करता है। पति पत्नी का उपकार करता है, पत्नी पति का उपकार करती है। माता पुत्र में या किसी और रूप में ले लीजिये सांसारिक व्यवस्थाओं के अनुसार भी यही होना चाहिये। यह सब तो मनुष्य हैं हम देखते हैं कि एक छोटा-सा पौधा हम बोते हैं उसके बाद वह बड़ा होकर हमारा कितना उपकार करता है। हम गाय को सूखी घास खिलाते हैं, गाय हमारा कितना उपकार करती है हमें अमृतमय दूध प्रदान करती है लेकिन मानव एक ऐसा प्राणी बन गया है इतना हिताहित का विवेक होने के बावजूद भी एक गाय जैसा पशु, जो हमारा उपकार करती है उसको भी रिटायर होने के बाद उसकी गर्दन पर छुरी चला देता है, उसे कत्लखाने में भेज देता है। कितने कत्लखाने आज हमारे देश के अन्दर खुल गये हैं। यह मानवता के प्रति अपराध है, पर्यावरण के प्रति प्रदूषण है और क्या मानव को प्रकृति कभी क्षमा कर पायेगी ? आज हमारे देश में कहीं न कहीं भूकम्प आ रहे हैं, बाढ़ आ रही हैं, ये क्या हैं ? प्रकृति हमारे अपराधों को कहाँ तक क्षमा करती रहेगी ? जब बहुत ज्यादा पाप हो जाते हैं तब प्राकृतिक प्रकोप भी आते हैं लेकिन अगर सन्तुलन बराबर चलता रहे, हम एक-दूसरे का उपकार करते रहें, तो ऐसी स्थिति ही न आवे। अगर पेड़-पौधे हमारा उपकार करते हैं तो हम पेड़-पौधों का उपकार करते रहें, तिर्यंच यदि हमारा उपकार करते हैं तो हम उनका उपकार करते रहें, हम उनको तिनका नहीं दे सकते हैं, हम उनके लिये कुछ नहीं कर सकते हैं तो कम से कम उनको जंगल में तो रहने दें, उनको स्वच्छन्दता से अपनी प्रवृत्ति तो करने दें पर नहीं, उसके लिये तो मानव ने अपने रास्ते बना लिये हैं, उपकार करने के बजाय उसने अपकार करने का ठेका ले लिया है। हम इन पंक्तियों को भूल जाते हैं—यदि भला किसी का कर न सको, तो बुरा किसी का मत करना। अमृत न पिलाने को घर में, तो जहर पिलाने से डरना।।परन्तु अपकार करने का जहर तो आज प्राणी के रग-रग में भर गया है। किस तरह से उसका अपकार हो जाए, वह चुनाव में हार जाए मेरा प्रत्याशी जीत जाए, आप यहाँ बैठे-बैठे यह भावना करने लगते हैं। आपको तो न जीतना है न हारना है लेकिन मन में सोचने लगते हैं इसमें भी दोष लगता है। इसलिये हमें इन सिद्धान्तों को पढ़कर यही सोचना है कि हम अगर उपकार नहीं कर सकते हैं तो अपकार भी न करें। काल द्रव्य का क्या उपकार है, इस बात को बताया है—

वर्तनापरिणामक्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य।।२२।।

अर्थ — वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये कालद्रव्य के उपकार हैं। इन सूत्रों में हमारे आचार्यों ने जो गूढ़ अर्थ संजोया है अगर हम इनकी सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार आदि टीकाएं लेकर बैठें तो हम विस्तार से समझ सकते हैं कि किस प्रकार से आचार्यों ने अपनी प्रतिभाशक्ति के आधार पर १-१ सूत्र का १००-१००, २००-२०० पृष्ठों में वर्णन किया है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल द्रव्य के उपकार हैं। हम जब पैदा हुए तो छोटे से थे आज इतने बड़े हो गये तो हमारे ऊपर यह किसने उपकार किया, काल द्रव्य ने। कालद्रव्य इतना उपकार करता है कि हमारी काया जीर्ण हो गयी तो उसको आज बदल दीजिए लेकिन उसको हम मानने लगते हैं कि हम मर गये, मरना भी उपकार है अगर नहीं मरे तो वह हाड़-माँस की काया लेकर आप कहाँ तक घूमते रहेंगे, बदलना भी आवश्यक है, जैसे—जब कपड़ा एकदम जीर्ण हो जाता है तो उसको बदलना जरूरी होता है, ऐसा ही यह काल द्रव्य छोटे से बड़ा, युवा से जवानी, जवानी से बुढ़ापा हमारे अन्दर लाता है, परिणमन कराता है। परत्व-अपरत्व भी काल द्रव्य की क्रियाएं होती हैं ये भी हमारे ऊपर उपकार हैं। जो द्रव्यों को बरतावे उसे वर्तना कहते हैं। एक धर्म के त्यागरूप और दूसरे धर्म के ग्रहणरूप जो पर्याय है उसे परिणाम कहते हैं, जैसे—जीवों में ज्ञानादि और पुद्गलों में वर्णादि। हलन-चलन रूप परिणति को क्रिया कहते हैं। छोटे-बड़े के व्यवहार को परत्वापरत्व कहते हैं, जैसे—२५ वर्ष के मनुष्य को बड़ा और २० वर्ष के मनुष्य को उसकी अपेक्षा छोटा कहते हैं। पुद्गल द्रव्य का लक्षण बताया है—

स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त: पुद्गला:।।२३।।

अर्थ — जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण होता है, उसे पुद्गल कहते हैं। यह चार गुण हर एक पुद्गल में एक साथ और अवश्य ही रहते हैं। इनके उत्तर भेद बीस हो जाते हैं। स्पर्श के आठ भेद—हल्का, भारी, कड़ा, नरम, रूखा, चिकना, ठण्डा, गरम। गन्ध के दो भेद हैं—सुगन्ध और दुर्गन्ध। रस के पाँच भेद हैं—खट्टा, मीठा, कड़ुवा, चरपरा और कषायला और वर्ण के पाँच भेद हैं—काला, नीला, पीला, लाल और सपेâद। ये पुद्गल के बीस गुण कहलाते हैं। पुद्गल का अर्थ क्या है ? व्याकरण की व्युत्पत्ति के अनुसार जिसमें पूरण और गलन स्वभाव हो, वह पुद्गल है। परन्तु यहाँ बता रहे हैं कि जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण पाए जाएं वह पुद्गल कहलाता है। इसे छू करके भी जान सकते हैं, इसके अन्दर रस है, चख करके देखें, आपके आँसू गिरते हैं, मुँह में जाते हैं, वैâसे लगते हैं ? खारे लगते हैं। पसीना मुँह में जाता है खारा लगता है। मेरे मन में एक प्रश्न उठा कि हमारे शरीर से निकलने वाली यह मन की परिणति, यह क्षारीय तत्त्व क्यों है ? इनमें नमक क्यों है ? हर एक के अन्दर नमक भी है, शक्कर भी है, सोडा भी है, जो भी चीज हैं आपके शरीर में हैं और जब संताप के द्वारा वह बाहर निकलते हैं तो खारे बन जाते हैं, क्षार बन जाते हैं। जवाखार वैâसे बनता है ? जौ को जलाकर असली जवाखार बनता है। जब ऐसा क्षारीय तत्त्व हमारे शरीर, आँखों, पसीने या किसी भी माध्यम से निकलता है, नमकीन लगता है। तीर्थंकर के शरीर में पसीना नहीं होता, कोई क्षारीय तत्त्व नहीं होता उनका तो खून भी सपेâद होता है और आज के मानव के खून के अन्दर अगर ज्यादा सफेद ‘सेल’ आ जाएं तो उसे वैंâसर हो जाता है। वास्तव में हमारे और तीर्थंकर के शरीर में अन्तर है, मानव का शरीर हमारा भी है और मानव का शरीर उनका भी है लेकिन हमारे अन्दर दु:ख, शोक, ताप, आक्रन्दन न जाने क्या-क्या लगा हुआ है और उसके सन्ताप से जब ये चीजें पैदा होती हैं तो क्षारीय तत्त्व आ जाता है। एक व्यक्ति ने कहा कि क्या कारण है कि आँखों से आँसू ही निकलते हैं, खुश होते हैं तो आँसू निकलते हैं और दु:खी होते हैं तो भी आँसू ही निकलते हैं तो मैंने उनको कहा कि—आँखों में आँसू हैं तो मुस्कान भी है, धागों में टूटन है तो संधान भी है। एक सिक्के के होते हैं पहलू दो, जीवन में समस्या है तो समाधान भी है।।अत: समस्याओं को समाधान के रूप में परिवर्तित करते हुए ही हमें इन १-१ सूत्र के ऊपर चिन्तन करना है कि कितने-कितने उपकारों को हम अपने ऊपर लेकर बैठे हैं। अजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश सबने हमारा उपकार किया, सब हमारे उपकारी बन जाते हैं। पुद्गल की पर्यायों के बारे में बताया है—

शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योत-वन्तश्च।।२४।।

अर्थ — उक्त लक्षण वाले पुद्गल—शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान अर्थात् आकार, भेद, अन्धकार, छाया, आतप और उद्योत सहित हैं अर्थात् पुद्गल की पर्याय हैं। शब्द निकलते हैं और नष्ट हो जाते हैं यह पुद्गल की पर्याय है, बन्ध होता है नष्ट भी हो जाता है, यह भी पुद्गल की पर्याय है। पुद्गल के परमाणु घूमते रहते हैं और जब वह आपस में मिल जाते हैं, आत्मा के साथ आ जाते हैं तब बन्ध हो जाता है। सूक्ष्मता, स्थूलता अर्थात् छोटापन-बड़ापन, जैसे—गेहूँ का पीस छोटा भी हुआ, बड़ा भी हुआ। बड़े कण को दलिया बोल दिया और छोटे कण को आटा बोल दिया। यह सब परिवर्तनशील हैं, पुद्गल की पर्याय हैं। संस्थान, आकार, भेद, छाया, आतप और उद्योत ये सब पुद्गल की पर्याय हैं, नष्ट होती रहती हैं, इनमें पूरण और गलन होता रहता है इसलिये इनको पुद्गल की पर्याय कह दिया है और पर्याय इसलिये कहा गया है क्योंकि ये होकर नष्ट होती हैं, गुण कभी भी नष्ट नहीं होता और पर्याय कभी भी स्थिर नहीं रहती। इन अवस्थाओं में कितनी तो परमाणु और स्कन्ध दोनों में होती हैं और कई स्कन्ध में ही होती हैं। पुद्गल के भेद बताये हैं—

अणव: स्वंधाश्च।।२५।।

अर्थ — पुद्गल द्रव्य के दो भेद मुख्य रूप से बताये हैं—अणु और स्कन्ध। अविभागी—जसका कोई भाग न हो सके उस एकप्रदेशी पुद्गल द्रव्य को अणु या परमाणु कहते हैं। दो, तीन, संख्यात, असंख्यात तथा अनंन्त परमाणुओं के पिण्ड को स्कन्ध कहते हैं। सारे पुद्गल इन अणु और स्कन्ध में समा जाते हैं। स्कन्धों की उत्पत्ति का कारण बताते हुए कहा है—

भेद-संघातेभ्य: उत्पद्यन्ते।।२६।।

 अर्थ — पुद्गल द्रव्य के स्कन्ध भेद—बिछुड़ने, संघात—मिलने और भेद संघात—दोनों से उत्पन्न होते हैं। जैसे १०० परमाणुओं वाला स्कन्ध है उसमें से १० परमाणु बिखर जाने से ९० परमाणु वाला स्कन्ध बन जाता है और उसी में १० परमाणु मिल जाने से ११० परमाणु वाला स्कन्ध बन जाता है और उसी में एक साथ १० परमाणुओं के बिछुड़ने और १५ परमाणुओं के मिल जाने से १०५ परमाणु वाला स्कन्ध बन जाता है। यह स्कन्ध आदि कैसे उत्पन्न होते हैं ? यह स्कन्ध भेद, संघात और भेद संघात दोनों से उत्पन्न होते हैं। कोई बड़ी चीज है उसको हमने तोड़ दिया तो भेद हो गया इससे स्कन्ध की उत्पत्ति होती है, छोटी चीज को मिला दिया तो बड़ा बन गया अत: भेद से अर्थात् तोड़ने से, संघात से अर्थात् मिलने से स्कन्ध बन गया। जैसे—आटे के कण को हमने एक साथ उसन कर मिला दिया तो पिण्ड बन गया, स्कन्ध बन गया ऐसे ही परमाणुओं से, भेद से या भेद संघात से स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। अणु की उत्पत्ति का कारण बताते हुए कहते हैं—

भेदादणु:।।२७।।

अर्थ — अणु की उत्पत्ति भेद से होती है। अणु की उत्पत्ति कभी मिलने से नहीं होती, अणु की उत्पत्ति तो भेद से ही हो सकती है। जहाँ मिलन हुआ स्कन्ध बन गया और जहाँ भेद हुआ, वह भी ऐसा भेद हुआ कि जिसका टुकड़ा नहीं हो सके वह कहलाता है अणु। यह पुद्गल द्रव्य की स्वाभाविक अवस्था है। चाक्षुष अर्थात् देखने योग्य स्थूल स्कन्ध की उत्पत्ति का कारण बताया है—

भेदसंघाताभ्यां चाक्षुष:।।२८।।

 अर्थ — चक्षु इन्द्रिय से दिखने योग्य जो स्कन्ध हैं वे भेद और संघात दोनों से ही उत्पन्न होते हैं केवल भेद से नहीं उत्पन्न हो सकते हैं। केवल भेद से ही कोई स्कन्ध चक्षु इन्द्रिय से देखने योग्य नहीं हो जाता किन्तु भेद और संघात दोनों से ही होता है। जैसे—एक सूक्ष्म स्कन्ध है, वह टूटा और दो टुकड़े हो जाने पर भी वह सूक्ष्म ही बना रहता है। इस तरह वह चक्षु इन्द्रिय के द्वारा नहीं देखा जा सकता है किन्तु जब वह सूक्ष्म स्कन्ध दूसरे स्कन्ध में मिलकर अपने सूक्ष्मपने को छोड़ देता है और स्थूल रूप धारण कर लेता है तो वही चक्षु इन्द्रिय का विषय हो जाता है अर्थात् उसे आँखों से देखा जा सकता है। आचार्यश्री द्रव्य का लक्षण बताते हुए अगले सूत्र में कहते हैं—

सद्द्रव्यलक्षणम्।।२९।।

 अर्थ — द्रव्य का लक्षण सत् (अस्तित्व) है। सत् अर्थात् जो हमेशा विद्यमान रहता है वह द्रव्य कहलाता है। आज हम मनुष्य पर्याय में हैं, कल देव पर्याय में जा सकते हैं, आगे तिर्यंच पर्याय में जा सकते हैं, नरक में जा सकते हैं तो पर्याय बदल गयी लेकिन उसके अन्दर जो आत्मा थी वह नहीं बदली उसको कहते हैं—द्रव्य। यह सूत्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सत् रूप वस्तु का ही विचार किया जाता है। जिसका अस्तित्व हो वह द्रव्य है यदि द्रव्य हो तो ही दूसरे गुण हो सकते हैं। सत् का मतलब क्या है, उसे बताते हैं—

उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुत्तं सत्।।३०।।

अर्थ — जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है वही सत् है। जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों चीजें रहें वह सत् है। मान लीजिये आपके पास एक सोने की चेन है। आपने सुनार के पास ले जाकर उसको गलवाकर अंगूठी बनवा दी तो चेन का तो विनाश हो गया, अंगूठी का उत्पाद हो गया और दोनों ही अवस्थाओं में सोना वह भी था और सोना यह भी है अर्थात् विनाश, उत्पाद और ध्रौव्य यह तीनों एक ही चीज में लागू हुए। मस्तक से घड़ा गिरा, टूट गया अब घड़ा टूटा तो किस चीज की उत्पत्ति हुई ? कपालों की उत्पत्ति हो गई, घड़े के टुकड़े-टुकड़े हो गये घड़े का विनाश हुआ, कपाल की उत्पत्ति हुई और दोनों में मिट्टी रूप पुद्गल विद्यमान रहा यही सत् है। चेतन या अचेतन द्रव्य में अपनी पर्याय का त्याग किए बिना नवीन पर्याय की प्राप्ति को उत्पाद कहते हैं। जैसे—मिट्टी के पिण्ड में घड़े रूप पर्याय का होना। पूर्व पर्याय का त्याग व्यय है, जैसे—घट रूप पर्याय उत्पन्न होने पर पिण्ड—मिट्टी रूप पर्याय का व्यय—विनाश होना। ध्रौव्य—पूर्व पर्याय का नाश और नई पर्याय का उत्पाद होने पर भी अपने अनादि स्वभाव को नहीं छोड़ना, जैसे—पिण्ड-मिट्टी के आकार के नष्ट हो जाने पर और घड़े रूप पर्याय में उत्पन्न होने पर भी मिट्टी ध्रौव्य रूप में विद्यमान है। प्रत्येक द्रव्य में ये तीनों ही धर्म एक साथ पाए जाते हैं क्योंकि नई पर्याय का उत्पन्न होना ही पहली पर्याय का नाश है और पहली पर्याय का नाश होना ही नई पर्याय का उत्पाद है तथा उत्पाद होने पर भी द्रव्य वही रहता है और व्यय होने पर भी द्रव्य वही रहता है। श्लोकवार्तिक ग्रन्थ में आचार्य श्री विद्यानन्द स्वामी ने इस उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक वस्तु स्वरूप को एक श्लोक द्वारा समझाते हुए बताया—घट मौलि सुवर्णार्थी नाशोत्पाद स्थितिष्वयम्।  शोक प्रमोद माध्यस्थं जनो याति सहेतुकम्।।  नित्य का लक्षण बताते हैं—

तद्भावाव्ययं नित्यम्।।३१।।

अर्थ — जो द्रव्य तद्भाव रूप से अव्यय है वही नित्य है। तद्भाव अर्थात् अपनी जातिरूप भाव से जो अव्यय है वह नित्य है, वह कभी नष्ट नहीं होता है। नित्य का पर्याय यह नहीं है कि जो वस्तु जिस रूप में है वह सदा उसी रूप में बनी रहे और उसमें कुछ भी परिणमन न हो किन्तु परिणमन के होते हुए भी उसमें ऐसी एकरूपता का बने रहना ही नित्यता कहलाती है जिसे देखते ही हमें तुरन्त यह ज्ञान हो जाये कि वही वस्तु है जिसे पहले देखा था। प्रत्यभिज्ञान के हेतु को सद्भाव कहते हैं। अब शंका हुई कि एक ही द्रव्य में दो चीजें अर्थात् नित्यता और अनित्यता ये दो विरुद्ध धर्म किस प्रकार उत्पन्न होंगे तो सूत्र आया—

अर्पितानर्पितसिद्धे:।।३२।।

अर्थ — मुख्य वस्तु को अर्पित और गौण वस्तु को अनर्पित कहते हैं। मुख्यता और गौणता से ही अनेक धर्म वाली वस्तु का कथन सिद्ध होता है। जैन आगम में यह सूत्र अनेकान्तवाद का मूल सूत्र है। उदाहरणस्वरूप आप पत्नी के पास गये तो बहन के लिये भाई रूप गौण हो गये, बहन के पास गये तो पत्नी रूप गौण हो गए। इसी प्रकार मथानी का उदाहरण है, जैसे दही बिलोने के लिये मथानी की एक रस्सी खींचते हैं तब दूसरी ढीली करनी पड़ती है इसी प्रकार पहली रस्सी को ढीला किया तब वह नष्ट हो गयी क्या ? नहीं। वह विद्यमान रही बस गौण मात्र हो गयी। यह सूत्र हमारे जैनागम का प्राण है। यदि इस सूत्र को दुनिया में मान लिया जाए तो आज साम्प्रदायिकता का झगड़ा ही समाप्त हो जाएगा। हम चाहें तो विश्वशांति को जब चाहें तब पा सकते हैं ? बस अनेकान्त और स्याद्वाद को अपने मन में बिठाना होगा। परमाणुओं के बन्ध होने में कारण क्या है ? इस बात को आगे के सूत्र में बताया है—

स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्ध:।।३३।।

अर्थ — स्निग्ध अर्थात् चिकनाई और रूक्षता यानी रूखापन इन दोनों के कारण ही पुद्गल परमाणुओं का परस्पर में बन्ध होता है। जैसे धूल का धूल से बन्ध नहीं होता, मीठे अर्थात् चिकनाई के मिलने पर होता है। पुद्गलों में स्निग्ध और रूक्ष गुण पाए जाते हैं बस किन्हीं परमाणुओं में स्निग्धता ज्यादा होती है और किन्हीं में रूक्षता। इन दोनों के अविभाग प्रतिच्छेद बहुत से होते हैं, शक्ति रूप में सबसे जघन्य अंश को अविभागी प्रतिच्छेद कहते हैं। एक-एक परमाणु में अनंत अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं जो घटते-बढ़ते रहते हैं जिससे परमाणुओं में चिकनाई या रूखापन कम या अधिक पाया जाता है जिसका अनुमान हम स्कन्धों को देखकर लगा सकते हैं। जैसे जल से बकरी के दूध में, बकरी के दूध से गाय के दूध में, गाय के दूध से भैंस के दूध में चिकनाई अधिक पाई जाती है। इसी प्रकार धूल से रेत में, रेत से बजड़ी में रूखापन अधिक होता है और यही पुद्गल के बन्ध में कारण है, पुद्गल के अन्य गुण या पर्याय बन्ध कराने में कारण नहीं हैं। अनेक पदार्थों में एकपने का ज्ञान कराने वाले सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं। आत्मा में कर्मों का बन्ध भी स्निग्ध अर्थात् राग और रूक्षता अर्थात् द्वेष के कारण होता है। यदि राग-द्वेष न हो तो कर्मबन्ध नहीं हो सकता। चूँकि मुक्त जीव कर्मबन्ध से रहित होते हैं अत: फिर संसारी नहीं होते। एक गुण वाले परमाणु में बंध का अभाव है, ऐसा इस सूत्र में आचार्यश्री बताते हैं—

न जघन्य गुणानाम्।।३४।।

अर्थ — जघन्य गुण सहित परमाणुओं का बन्ध नहीं होता। एक गुण वाले परमाणु में बन्ध का अभाव होता है। जघन्य गुण वाले परमाणुओं का बन्ध नहीं होता। जिन परमाणुओं में रूक्षता का अविभागी बन्ध करना चाहें तो नहीं होगा। स्निग्धता और रूक्षता के अविभागी प्रतिच्छेदों को गुण कहते हैं और जिस परमाणु में स्निग्धता और रूक्षता का एक अविभागी अंश हो उसे जघन्य गुण सहित परमाणु कहते हैं। अब बताते हैं कि बन्ध कब नहीं होता—

गुण साम्ये सदृशानाम्।।३५।।

 अर्थ — गुणों की समानता होने पर समान जाति वाले परमाणुओं का बन्ध नहीं होता। जैसे—दो गुण वाले स्निग्ध परमाणु का अन्य दो गुण वाले स्निग्ध परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता। दो गुण रूक्षता वाले परमाणु का दो गुण रूक्षता वाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता। इसी तरह दो गुण रूक्षता वाले परमाणु का दो गुण स्निग्धता वाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता। गुणों की विषमता में समान जाति वाले अथवा भिन्न जाति वाले पुद्गलों का बन्ध हो जाता है। बन्ध किनका होता है, इस बात को बताते हैं—

द्व्यधिकादि गुणानां तु।।३६।।

अर्थ — किन्तु दो अधिक गुण वालों के साथ ही बन्ध होगा अर्थात् जब एक परमाणु से दूसरे परमाणु में दो अधिक गुण होते हैं तभी बन्ध होता है। जैसे दो गुण वाले परमाणु का चार गुण वाले परमाणु के साथ बन्ध होगा इससे अधिक व कम गुण वाले के साथ नहीं होगा। यह बन्ध स्निग्ध का स्निग्ध के साथ, रूक्ष का रूक्ष के साथ, स्निग्ध का रूक्ष के साथ तथा रूक्ष का स्निग्ध के साथ होता है। बन्ध होने पर होने वाली अवस्था बताई है—

बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च।।३७।।

अर्थ — बन्ध होने पर अधिक गुण वाले परमाणु कम गुण वाले परमाणु को अपने रूप बना लेते हैं जैसे—गुड़ ज्यादा है तो धूल को गुड़ रूप परिवर्तित कर लिया और यदि थोड़ा सा गुड़ ज्यादा सी धूल में चला जाये तो कोई खायेगा क्या ? नहीं खायेगा। द्रव्य का लक्षण दूसरी प्रकार से भी बताते हैं—

गुणपर्ययवद् द्रव्यम्।।३८।।

अर्थ — जिसमें गुण और पर्यायें पाई जाती हैं वह द्रव्य है। द्रव्य में अनेक परिणमन होने पर भी जो द्रव्य से भिन्न नहीं होता सदा द्रव्य के साथ ही रहता है वह गुण है और जो द्रव्य में आती जाती रहती है वह पर्याय है। गुण पर्याय रूप ही द्रव्य है। जैसे—ज्ञान आदि जीव के गुण हैं और रूप आदि पुद्गल के गुण हैं। हाँ! ज्ञान गुण में भी घट, पट रूप परिणमन होता है, यह परिणमन का ही पर्याय है। ज्ञान नामक आत्मा का गुण नष्ट नहीं होता है। पर्याय में उत्पाद व्यय की और गुण से ध्रौव्य की प्रतीति हो जाती है। अब बताते हैं कि काल भी द्रव्य है—

कालश्च।।३९।।

अर्थ — काल भी द्रव्य है क्योंकि यह भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तथा गुण पर्यायों से सहित है। काल भी द्रव्य है उसमें भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तथा गुण, पर्याय विद्यमान है। अभी जो साढ़े तीन बजे का समय था, वह नष्ट हो गया, पौने चार बज गया तो समय जरूर रहा पर टाईम बदल गया। यह अमूर्तिक द्रव्य है क्योंकि इसमें रूप, रस आदि गुण नहीं पाए जाते हैं। यह एकप्रदेशी है बहुप्रदेशी नहीं है क्योंकि लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालाणु रत्नों की राशि की तरह अलग-अलग स्थित है। वे आपस में मिलते नहीं हैं अत: कालद्रव्य काय नहीं है और प्रत्येक कालाणु एक-एक कालद्रव्य है अत: कालद्रव्य असंख्यात हैं और वे निष्क्रिय हैं, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर नहीं जाते हैं, जहाँ के तहाँ ही बने रहते हैं। कालद्रव्य की विशेषता बताई हैै—

सोऽन्तसमय:।।४०।।

अर्थ — वह कालद्रव्य अनन्त समय वाला है यद्यपि वर्तमान काल एक समय मात्र ही है तथापि भूत, भविष्यत् की अपेक्षा अनन्त समय वाला है। कालद्रव्य अनन्त समय वाला है। कालद्रव्य के सबसे छोटे हिस्से को समय कहते हैं। मन्द गति से चलने वाला पुद्गल परमाणु आकाश में एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जितने काल में पहुँचता है उतना काल ‘एक समय’ है। इन समयों के समूह से ही आवली, घंटा आदि व्यवहारकाल होता है। यह व्यवहारकाल निश्चय कालद्रव्य की पर्याय है। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर रत्नों की राशि की तरह जो स्थित है उसे निश्चयकाल कहते हैं, वर्तना उसका कार्य है। गुण का लक्षण क्या है, सो ही बताते हैं—

द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा:।।४१।।

अर्थ — जो सदा द्रव्य के आश्रय से रहता है और जिसमें दूसरे द्रव्य का गुण नहीं रहता है, उन्हें गुण कहते हैं। जैसे—जीव का ज्ञान, दर्शन आदि। ये जीव द्रव्य के आश्रय से रहते हैं तथा इनमें कोई दूसरा गुण नहीं रहता। गुण तो सदा ही द्रव्य के आश्रय से रहता है, कभी भी द्रव्य को नहीं छोड़ता किन्तु पर्याय अनित्य होती है एक जाती है, दूसरी आती है अत: गुण का उक्त लक्षण पर्याय में नहीं रहता। दीपक को देखने हेतु कोई दीपक नहीं ले जाता, ज्ञानी ज्ञान को देखने नहीं जाता है, वैसे ही द्रव्य को देखने द्रव्य नहीं जाता है। पर्याय का लक्षण बताते हुए इस अध्याय के अन्तिम सूत्र में आचार्यश्री कहते हैं—

तद्भाव: परिणाम:।।४२।।

अर्थ — जीवादि द्रव्य जिस रूप हैं उनके उसी रूप रहने को परिणाम या पर्याय कहते हैं जैसे—जीव की नर-नारकादि पर्याय। पर्याय का होना अर्थात् प्रति समय बदलते रहना परिणाम है। जिस द्रव्य का जो स्वभाव है वही परिणाम है जैसे धर्मद्रव्य का गति.०००००००००००.०. निमित्तता ही तद्भाव है। सभी द्रव्यों में ऐसा ही समझना। जैसे—मनुष्य बालक से युवा और युवा से वृद्ध हो जाता है लेकिन मनुष्य पर्याय सदैव विद्यमान रहती है वैसे ही प्रत्येक द्रव्य अपनी धारा के भीतर रहते हुये परिवर्तन करता रहता है। इस पर्याय के दो भेद हैं—१. व्यंजन पर्याय, २. अर्थ पर्याय। प्रदेश तत्त्व गुण के विकार को व्यंजन पर्याय कहते हैं और अन्य गुणों के अविभागी प्रतिच्छेदों के परिणमन को अर्थ पर्याय कहते हैं। आपने इस प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छहों द्रव्यों को जाना। इनमें से कौन-सा द्रव्य अधिक विलक्षण है हमने जान लिया, वह है—जीव द्रव्य। इसके अस्तित्व को जानकर हमें एक दिन उस परमात्म अवस्था को, मुक्त अवस्था को प्राप्त करना है जिससे पुन:-पुन: इस संसार में इस जीव को भटकना न पड़े।

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तत्त्वार्थ सूत्र प्रवचन (दशमी अध्याय)


दशम अध्याय

प्रवचन कर्त्री -आर्यिका चंदनामती माताजी
प्रभु वीतराग की वाणी पर जो सम्यक् श्रद्धा करता है।
सद्बुद्धि विवेक क्रियाओं से, वह श्रावक पद को वरता है।।
श्री वीरप्रभू ने साधु और श्रावक का मार्ग बताया है।
उस मोक्षमार्ग को नमन करूँ जो स्वयं वीर ने पाया है।।१।।
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये।।२।।
सरस्वती नमस्तुभ्यं, वरदे कामरूपिणी।
विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा।।३।।
भव्यात्माओं! जैसे क्रम से सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते कोई महल की छत पर चढ़ जाता है वैसे ही हम भी इन अध्यायों को पढ़ते हुए मोक्ष की छत पर पहुँचते जा रहे हैं। मेरे मन में एक शंका आई कि सारी अध्याय इतनी बड़ी थीं, यह इतनी छोटी क्यों ? मोक्ष सबसे बड़ा है और इसके लिये इतनी भानगढ़ करी गयी, फिर यह अध्याय छोटी क्यों? उत्तर मिला—मोक्षगति में कोई भानगढ़ नहीं, जो कुछ है वह संसार में है। दसवीं अध्याय को बताते हुए आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि मोक्ष सबसे सरल है इसके विषय में कुछ बोलना नहीं पड़ता है, सरलता सबसे अनुभवगम्य चीज है, बोलने में कुटिलता आती है। जब प्राणी योग को धारण करके बैठ जाता है तब शुक्लध्यान से केवलज्ञान को प्राप्त करने से ही मोक्ष होगा। यह नियम है कि केवलज्ञान के बाद ही मोक्ष होगा चाहे वे अंतकृतकेवली क्यों न हों। जब नव अध्यायों और छ: तत्त्वों द्वारा कर्मों की स्थिति समझकर जीव आगे आ गया तो मोक्ष तत्त्व को समझने में देर नहीं लगेगी। आचार्यों ने कहा है कि—बिना दिगम्बर हुए न तो कोई मोक्ष पा सका है और न ही आगे पा सकेगा। आज पंचमकाल में मोक्ष नहीं है लेकिन हमें कोशिश तो करनी ही चाहिये क्योंकि आज भले ही हम मोक्ष न जा सकें लेकिन उस मोक्ष की लाइन में तो लग ही सकते हैं। एक जैन लड़का एक कॉलेज में अध्ययन कर रहा था। उससे एक दिन एक छात्र ने कहा कि तुम्हारे मुनियों को शर्म नहीं आती, वस्त्र नहीं पहनते। मेरी दुकान से ढाई मीटर कपड़ा ले जाकर उन्हें पहना देना, मुझे शर्म आती है।
वह लड़का बोला—शर्म तो तुम्हें आनी चाहिये। इतने महान दिगम्बर साधुओं को ऐसा कह रहे हो, दिगम्बर तो बालक के समान निर्विकार होते हैं और रही ढाई मीटर कपड़े की बात, वह तू अपने कफन के लिये रख ले, काम आयेगा। अरे दुर्बुद्धि! अभी तूने उस अवस्था का भान किया कहाँ ? जब भान कर लेगा तो तू अनुपम सुख को प्राप्त कर अनुपम सुन्दरी का वरण कर लेगा। बन्धुओं! अभी तो हम मोक्ष से बहुत दूर खड़े हैं। वर्तमान में जब आपको त्याग करने की शिक्षा दी जाती है तो आप कहते है कि हमसे सहन नहीं होता इसलिए हम त्याग नहीं कर पाते हैं। अगर आपसे रात्रिभोजन त्याग करने को कहा जाये तो वह भी सहन नहीं होता और आपके साधु क्या करते हैं ? २४ घण्टे में एक बार अन्तराय का पालन कर आहार लेते हैं, लोगों को ज्ञान-ध्यान का उपदेश देते हैं और उनके चेहरे पर चमक बनी रहती है। पूज्य माताजी कहती हैं कि जैसे गाय माता सूखी घास खाती है और मीठा दूध देती है अगर वैसे ही हमें जीवन में कुछ करना है तो घास जैसा सात्विक भोजन करना तभी जीवन में उन्नति के शिखर पर आगे बढ़ोगे। हे भव्य प्राणियों! अगर हम इन्द्रियों के दास बन गये, उसके पचड़े में पड़ गये तो उसका तो काम है कि वह हमें जकड़ लेगी। जैसे—एक बन्दी के साथ पाँच सिपाही हों और एक राजा के साथ पाँच सिपाही हों, तो सिपाही तो दोनों के साथ हैं किन्तु दोनों में बहुत अन्तर है। एक जो बन्दी है, उसको सिपाही जहाँ ले जाएंगे वहीं जाएगा परन्तु जो राजा है वह अपने साथ वाले सिपाही को अपनी मर्जी से ले जाएगा। इसी प्रकार हमारी भी दो अवस्थाएं हैं, अब सोचना आपको है कि हम अपनी आत्मा को किस प्रकार बनाना चाहेंगे क्या हमारी यह आत्मा पाँच इन्द्रियरूपी सिपाहियों से जकड़ जाये या हम इन पाँच इन्द्रियों के राजा बनकर इन पर अपना हुक्म चलायें।
‘‘आशादासी कृता येन तेन दासीकृतं जगत्’’ आशाओं को जिन्होंने अपना दास बना लिया, समझ लीजिए उन्होंने संसार को भी अपना दास बना लिया और अगर उसके दास बन गये तो आपने पंचपरावर्तन को तो जाना ही और मोक्ष भी हमसे बहुत दूर है, हम पाँच इन्द्रियरूपी सिपाहियों के चंगुल में पंâस जायेंगे। जैसे—बरसात आती है, मिट्टी गीली हो जाती है उससे हम कुछ भी बना सकते हैं और जब वह सूख जाती है तो वह बेकार है उसी प्रकार जब ज्ञानरूपी अमृत से अपनी आत्मा रूपी मिट्टी गीली हुई तो उसे साधु मुद्रा का आकार नहीं दे सकते तो इन १० दिनों में सच्चे श्रावक का आकार तो दे दें, जिससे कि आगे के ३५५ दिन जो सूखी मिट्टी की भांति हैं आराम से निकल सवेंâ। इस जीव का अनादिकाल से लगा हुआ भ्रम भगवान के उपदेश से दूर हो जावे, आत्मा का सच्चा श्रद्धान हो जाए, तो स्वयमेव इन क्षणिक सुखों से अरुचि होकर आत्मारूपी आनन्द में रुचि हो जाएगी, उन आत्मानंद का अनुभव हो जाएगा और उस आनन्द में लीन रहकर वह जीव शाश्वत आनंद को अर्थात् मुक्तिधाम—निर्वाणधाम को पा सकता है। इस प्रकार वह जीव सदा के लिए क्लेशों से छुटकारा पा सकता है उसी मुक्त जीवन अवस्था का वर्णन इस अध्याय में है। मोक्ष संवरपूर्वक होता है, निर्जरा की पूर्णता होने पर यह जीव परम निश्चल निर्वाण पद में स्थित हो जाता है। जीव की इसी दशा का नाम ‘मोक्ष’ है। इस दशा में जीव के समस्त कार्य की सिद्धि हो जाने से वे मुक्त जीव कहलाते हैं। आचार्य उमास्वामी ने इससे पूर्व नवमीं अध्याय में केवली भगवान का उल्लेख तो किया किन्तु केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण नहीं बताया। केवलज्ञान की प्राप्ति ही भाव मोक्ष है और इस भाव मोक्ष द्वारा ही द्रव्य मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी को बताते हुए आचार्यश्री इस दशवीं अध्याय में प्रथम सूत्र का अवतार करते हुए कहते हैं—

मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्चकेवलम्।।१।।

अर्थ — मोहनीय कर्म का क्षय होने से अन्तर्मुहूर्त के लिये क्षीणकषाय नामक बारहवाँ गुणस्थान पाकर एक साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान उत्पन्न होता है। चार घातिया कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने पर केवलज्ञान होता है और केवलज्ञान की उत्पत्ति ही केवली अवस्था कहलायी। समवसरण अथवा गंधकुटी को प्राप्त हो जाना केवली भगवान का लक्षण है। घातिया कर्मों में सबसे पहले मोहनीय कर्म का क्षय होता है, मोह को सबसे पहले इसलिये दिया कि यह सब कर्मों का राजा है, सब पर चढ़ाई करता है अत: मुख्य रूप से इसका निर्देश दिया कि इसी के साथ सभी प्रकृतियाँ लगी हुई हैं। परमात्मा अर्थात् परम विशुद्धि को प्राप्त हुई आत्मा दो प्रकार की है—सकल परमात्मा एवं निकल परमात्मा। जो शरीर सहित परमात्म पद को प्राप्त सकल परमात्मा हैं उनको अरहंत, जिन, सर्वज्ञ आदि अनेक संज्ञाए हैं तथा जिन्होंने अंत में इस शरीर का भी अभाव करके मोक्षपद को पा लिया है, वह निकल परमात्मा हैं। सकल परमात्मा बनने के बाद ही निकल परमात्मा बनते हैं। चार घातिया कर्मों की—मोहनीय की २८, ज्ञानावरण की ५, दर्शनावरण की ९ तथा अंतराय की ५, इस प्रकार ४७ प्रकृतियों को और इनके साथ नरक, तिर्यंच एवं देवायु तथा नामकर्म की १३ प्रकृतियाँ, इस प्रकार कुल ६३ प्रकृतियों का नाश करके जीव केवलज्ञान को अर्थात् अरहंत अवस्था को प्राप्त कर लेता है, इन्हें जीवन मुक्त परमात्मा भी कहते हैं। जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इन आठों कर्मों का नाश कर दिया, वे निकल परमात्मा कहलाते हैं। केवली भगवान भी १० प्रकार के होते हैं—पंचकल्याणक वाले तीर्थंकर केवली, तीन कल्याणक वाले तीर्थंकर केवली, दो कल्याणक वाले तीर्थंकर केवली, सातिशय केवली, सामान्य केवली, उपसर्ग केवली, अंतकृत केवली, मूक केवली, अनुबद्ध केवली और सतत केवली। वैâवल्य अवस्था में चार कर्मों के नष्ट होने पर अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य इन चार अनंत चतुष्टय की प्राप्ति होती है। अब मोक्ष के कारण और लक्षण बताते हैं—

बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:।।२।।

अर्थ — बन्ध के कारणों का अभाव तथा निर्जरा के द्वारा ज्ञानावरणादि समस्त कर्म प्रकृतियों का अत्यन्त अभाव होना मोक्ष है। मिथ्या, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग ये पाँच बंध के हेतु हैं। जिस प्रकार जब पतझड़ आता है तो सारे पत्ते झड़ जाते हैं, इसी प्रकार जब ज्ञान आता है तब सारे कर्म झड़ जाते हैं। एक लौकिक उदाहरण के माध्यम से मैं आपको बताती हूँ—एक बहन जी पिक्चर देखने गयीं, उसमें बारिश का सीन आया तो वह गफलत में पड़ गयीं और वहाँ से भागीं कि मेरे कपड़े व सामान बाहर पड़ा है। उन्होंने बाहर का मौसम देखना भी उचित नहीं समझा। वह भागकर जब घर आयीं तो बहू पूछती है कि अम्माजी क्या हुआ ? वह बोलीं—अरे बहू! मैं गफलत में पड़ गयी कि बारिश आ गई है और भागी-भागी आयी हूँ। इसी प्रकार यह जीव अनादिकाल से गफलत में पड़ा हुआ है उसे कर्मरूपी पहरेदारों ने एकदम अपने आधीन कर रखा है। अरे! जब संवर हटा नहीं, निर्जरा हुई नहीं, तो मोक्ष कहाँ से होगा? मोक्ष के लिये उन पहरेदारों को हटाकर एकाकी आत्मा का चिन्तन करना होगा। आज आप मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते पर मोक्षमार्ग पर चल तो सकते हैं। उत्कृष्ट रूप से कर्मों का छूट जाना मोक्ष कहलाता है। अत्यन्त अभाव किसे कहते हैं ? जैसे—किसी पौधे को काटते हैं, वह जड़ से नहीं कटा तो फिर उग आता है और जड़ से काट दिया तो नहीं उगा वैसे ही कर्मों को जड़ से खत्म कर दिया तो मोक्ष हो गया। मुच्ऌ धातु से मोक्ष शब्द बना है। चूँकि मिथ्यात्व आदि कारणों का अभाव हो जाने से नए कर्मों का बंध होना रुक जाता है और तपस्या आदि के द्वारा पूर्व के बंधे हुए कर्मों की निर्जरा हो जाती है अत: आत्मा सम्पूर्ण कर्मबंधन से छूट जाता है और इसी का नाम मोक्ष है। कर्म का अभाव भी दो प्रकार से होता है। कुछ कर्म ऐसे हैं, जैसे नरकायु, तिर्यंचायु, देवायु इनका अभाव चरम शरीरी के स्वयं होता है और शेष के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। अब आचार्यश्री बताते हैं कि मोक्ष में कर्मों के अतिरिक्त और किसका अभाव होता है ?—

औपशमिकादिभव्यत्वानां च।।३।।

अर्थ — मुक्त जीव में औपशमिक आदि भावों का तथा पारिणामिक भावों में से भव्यत्व भाव का भी अभाव हो जाता है। दूसरी अध्याय में जीव के स्वतत्त्व आदि बताये थे कि यह जीव को छोड़कर रहते नहीं हैं। अब मुक्त जीव में औपशमिक भाव, क्षायोपशमिक भाव, औदयिक भाव तो पूरे नष्ट हो जाते हैं तथा पारिणामिक भावों में से भव्यत्व भाव का भी अभाव हो जाता है अर्थात् जीवत्व नाम का परिणामिक भाव मुक्तावस्था में भी रहता है अत: केवल भव्यत्व का अभाव हो जाता है। जिसके सम्यग्दर्शनादि प्राप्त होने की योग्यता हो उसे भव्य कहते हैं। जब सम्यग्दर्शन आदि गुण पूर्ण रूप से प्रगट हो चुकते हैं तब आत्मा में भव्यत्व का व्यवहार मिट जाता है। अब प्रश्न आया कि इतना सब करने के बाद मोक्ष मिलेगा तो वहाँ है क्या ? तब आचार्य कहते हैं कि अरे वत्स! हमें जो दिख रहा है यह सब क्षणिक है, मोक्ष में तो क्षायिक सम्यक्त्व है, क्षायिक ज्ञान और सम्यक्त्व भाव है, बाकी के भाव का अभाव हो जाता है, वहाँ अनन्त सुख है। मोक्ष में रहने वाले भावों को बताते हैं—

अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्य:।।४।।

अर्थ — केवलसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व इन भावों को छोड़कर मोक्ष में अन्य भावों का अभाव हो जाता है। मुक्त अवस्था में जीवत्व नामक पारिणामिक भाव और कर्मों के क्षय से प्रगट होेने वाले आत्मिक भाव रहते हैं तथा जिन गुणों का अनन्तज्ञानादि के साथ सहभाव सम्बन्ध है ऐसे अनन्तवीर्य, अनन्तसुख आदि गुण भी पाये जाते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व जो आत्मा का केवल अविनाभावी गुण बनकर रहता है उसके बिना आत्मा टिक ही नहीं सकता है। केवल से मतलब है—दूसरा कुछ नहीं। कर्मों का क्षय होने के बाद क्या करते हैं ? इस बात को बताते हुए आचार्यश्री कहते हैं— 

तदनन्तरमूध्र्वं गच्छत्यालोकान्तात्।।५।।

अर्थ — समस्त कर्मों का क्षय होने के बाद मुक्त जीव लोक के अन्त भाग पर्यन्त ऊपर को जाता है। यहाँ कर्म का क्षय हुआ और जीव लोक के अन्त पर्यन्त चला जाता है फिर उसे कोई मतलब नहीं रहता है। भगवान ऋषभदेव जब मोक्ष चले गये तब भरत को रोना आ गया इसलिये कि तीर्थंकर भगवान मोक्ष चले गये, अब धर्म को कौन बताएगा? तब ऋषभसेन गणधर कहते हैं कि हे भरत! विलाप मत करो। ये तुम्हारे ही नहीं जगत के पिता थे। वे भले ही मोक्ष चले गये पर जो स्याद्वाद ज्ञान दे गये हैं वह हमें आगे चलाना है। आप इतिहास उठाकर देखें कि पिता अर्थात् भगवान ऋषभदेव से पूर्व उनके दो पुत्र अनन्तवीर्य और बाहुबली मोक्ष चले गये। उनके सभी पुत्र-पुत्रियों ने दीक्षा ले ली। यह परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। उन्हीं की परम्परा में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज हुए हैं। उनके भाई वगैरह भी त्याग के मार्ग पर निकल गये। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का परिवार, पूज्य आचार्यश्री श्रेयांससागर महाराज का परिवार आदि अनेक उदाहरण हैं, जिन्होंने त्यागमार्ग पर चलकर जिनधर्म की महती प्रभावना की है। बंधुओं! यह त्याग की आनुवांशिक परम्परा होती है जब कोई एक व्यक्ति त्याग मार्ग पर निकलता है तो उसी के परिवार के एक, दो लोग और निकलते हैं। आपको यहाँ मात्र इतना समझना है कि जब हमारी आत्मा हल्की हो जाती है तो जीव जाकर लोक के अग्रभाग पर अर्थात् सिद्धशिला पर विराजमान हो जाता है। सर्वार्थसिद्धि विमान से १२ योजन ऊपर ८ योजन मोटी, १ राजू पूर्व पश्चिम और ७ राजू उत्तर दक्षिण ईषत् प्राग्भार नाम की आठवीं पृथ्वी है, जिसके अंतिम ऊपरी भाग में बीचों-बीच मनुष्य लोक प्रमाण ४५ लाख योजन समतल अर्धगोलाकार सिद्धशिला है। आठवीं पृथ्वी के ऊपर २ कोस, १ कोस और १५७५ धनुष के क्रम से तीन वातवलय हैं, अंतिम वातवलय के १ कोस से कुछ कम की मोटाई और ४५ लाख योजन में अपनी अंतिम देह से कुछ न्यून आकार के खड्गासन व पद्मासन सिद्ध भगवान विराजमान हैं, उन सभी सिद्धों के सिर एक समान धरातल में हैं और वे सब अधर अंतरिक्ष में स्थित हैं। अब मुक्त जीव के ऊध्र्वगमन में कारण बताते हैं—

पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागति परिणामाच्च।।६।।

अर्थ — पूर्व प्रयोग से, संगरहित होने से, कर्मबंधन के नष्ट होने से तथा गतिपरिणाम अर्थात् ऊध्र्वगमन का स्वभाव होने से मुक्त जीव ऊध्र्वगमन करता है। यह क्यों होता है ? जहाँ से इसके कर्म छूटे ये वहीं बैठ जाता, सिद्धशिला पर क्यों गया ? पूर्व प्रयोग अर्थात् पूर्व संस्कार से उसके ऊपर-ऊपर जाने का जो पूर्व में प्रयोग चल रहा था वही चलता रहा और वह ऊपर जाने का अधिकारी बन गया। दूसरा संगरहित होने से, तीसरा कर्म बंधन के नष्ट होने से वह ऊपर गया—जैसे—केवली भगवान के आस—पास कर्म के परमाणु घूमते रहते हैं पर उनके पास जा नहीं पाते हैं क्योंकि उन्होंने बन्ध का छेद कर दिया है और चौथा है गति परिणाम अर्थात् ऊध्र्वगमन का स्वभाव होने से मुक्त जीव ऊध्र्वगमन करता है। द्रव्य संग्रह में जीव के ९ लक्षण बताते हुए अंतिम लक्षण बताया है कि यह स्वभाव से ऊध्र्वगमनशाली है अर्थात् स्वभाव होने से मुक्त होने पर ऊपर गमन करता है, जब तक कर्म लगे रहते हैं, तब तक इधर-उधर जा सकता है। संयोग सम्बन्ध वैभाविक स्थिति को बताता है और इनसे छूटना स्वाभाविक स्थिति है। उक्त चारों कारणों के क्रम से चार दृष्टान्त बताते हैं—

आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाम्बुवदेरण्डबीजवदग्नि-शिखावच्च।।७।।

अर्थ — मुक्त जीव कुम्हार द्वारा घुमाए हुए चाक की तरह पूर्व प्रयोग से, लेप रहित तूम्बे की तरह संगरहित होने से, एरण्ड के बीज की तरह बंधनरहित होने से और अग्नि की शिखा की तरह ऊध्र्वगमन स्वभाव से ऊपर को गमन करता है। पूर्व प्रयोग क्या है ? जैसे—
(१) कुम्हार चाक को चलाकर छोड़ देता है और वह चक्र पहले के भरे हुए वेग के वश हो घूमता रहता है उसी प्रकार जीव भी संसार अवस्था में मोक्षप्राप्ति के लिये बार-बार अभ्यास करता था जो आगे साकार हो जाता है और वह ऊपर सिद्धशिला को प्राप्त कर लेता है।
(२) मुक्त जीव तूम्बड़ी की भांति लेपरहित हो ऊपर जाता है जैसे तूम्बे पर जब तक मिट्टी का लेप रहता है तब तक वह वजनदार होने से पानी में डूबा रहता है पर ज्यों ही पानी में उसकी मिट्टी गलकर दूर चली जाती है त्यों ही वह पानी के ऊपर आ जाता है इसी प्रकार यह जीव जब तक कर्मरूपी मिट्टी के लेप से सहित होता है तब तक संसार में डूबा रहता है और जब त्याग और ज्ञान के जल का संसर्ग प्राप्त होता है, कर्म की मिट्टी गलकर दूर हो जाती है तब हमारी आत्मा अत्यन्त हल्की होकर ऊपर गमन कर जाती है। इन आचार्यों ने पहले लोकव्यवहार का अनुभव किया फिर बाद में लोक प्रसिद्ध उदाहरण को अपने सूत्र में रखा। तीसरा उदाहरण उन्होंने दिया
(३) मुक्त जीव कर्मबन्ध से मुक्त होने के कारण एरण्ड के बीज के समान ऊपर को जाता है अर्थात् एरण्ड वृक्ष का सूखा बीज जब चटकता है तब उसकी मींगी जिस प्रकार ऊपर को जाती है उसी प्रकार यह जीव कर्मों के बन्धन दूर होने पर ऊपर को जाता है।
(४) मुक्त जीव स्वभाव से ही अग्निशिखा की तरह ऊध्र्वगमन करता है। आपने देखा होगा कि जब हवा नहीं चलती है तो दीपक की लौ ऊपर की ओर जाती है और जब हवा चलती है तो दीपक की लौ इधर-उधर जाने लगती है। उसी प्रकार जब मिथ्यात्व की हवा लगने लगती है तब जीव दीपक की लौ की भांति इधर-उधर जाने लगता है और जब हवा समाप्त हो जाती है तो वह दीपक की अग्निशिखा की भांति सम्यक्त्व के द्वारा कर्मों को नष्ट करके ऊपर चला जाता है। लोकाग्र के आगे नहीं जाने का कारण बताते हैं—

धर्मास्तिकायाभावात्।।८।।

अर्थ — धर्मास्तिकाय का अभाव होने से मुक्त जीव लोक के अग्रभाग के आगे अर्थात् अलोकाकाश में नहीं जा सकते क्योंकि जीव और पुद्गलों का गमन धर्मद्रव्य की सहायता से होता है और अलोकाकाश में धर्मद्रव्य का अभाव है। लोक के अन्त में ४५ लाख योजन विस्तार वाली सिद्धशिला है। मुक्त जीव उसी के ऊपर तनुवातवलय में ठहर जाते हैं। मोक्ष में मुक्त जीवों के सिर एक बराबर स्थान पर रहते हैं, मुक्त जीवों का सिद्धशिला से सम्बन्ध नहीं रहता। इक सिद्ध में सिद्ध अनंत जान, अपनी—अपनी सत्ता प्रमान।। जो जीव और पुद्गल को चलने में सहायता दे वह धर्मास्तिकाय है। उसका ऊपर अभाव है अत: अनन्त शक्ति होते हुए भी सिद्धजीव और ऊपर नहीं जा सकता है। मुक्त जीवों में भेद होने के कारण बताते हुए इस अन्तिम अध्याय के अन्तिम सूत्र में आचार्यश्री उमास्वामी कहते हैं—

क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानाव—गाहनांतर-संख्याल्पबहुत्वत: साध्या:।।९।।

अर्थ — क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहन, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगों से सिद्धों में भी भेद साधने योग्य हैं। क्षेत्र आदि बारह अनुयोगों से सिद्धों में भी भेद माना है अर्थात् जब तक वे सिद्ध लोक की ओर नहीं गये तब तक उनको अलग-अलग सिद्ध माना है। ये भेद कहाँ होता है ? जब हम उनका वर्णन करने लग जाते हैं। क्षेत्र से जैसे—कोई भरतक्षेत्र से, कोई ऐरावत क्षेत्र से और कोई विदेहक्षेत्र से सिद्ध हुए हैं अर्थात् संहरण की अपेक्षा ढाई द्वीप से ही मुक्त होते हैं। काल की अपेक्षा—कोई उत्सर्पिणी काल में सिद्ध हुए हैं और कोई अवसर्पिणी काल में, एक तीर्थंकर से दूसरे तीर्थंकर के काल में व्यवहार की अपेक्षा से भेद आ गया। अवसर्पिणी के सुषमासुषमा नामक तीसरे काल के अंतिम भाग से लेकर दुषमासुषमा नामक चौथे काल तक उत्पन्न हुए जीव ही मुक्त होते हैं। चौथे काल का उत्पन्न हुआ जीव पंचमकाल में मुक्त हो सकता है पर पंचमकाल का जन्मा हुआ जीव पंचमकाल में मुक्त नहीं हो सकता। गति—कोई मनुष्यगति से मुक्त हुए कोई सिद्धगति से। प्रत्युत्पन्न नय की अपेक्षा सिद्धगति में ही सिद्ध होते हैं और भूत नैगमनय की अपेक्षा अनंतर गति अर्थात् बिना अन्तर की गति से सिद्ध हुए तो वह गति मनुष्यगति है और मोक्ष होने वाली मनुष्यगति से पहली गति चारों ही गति हैं अर्थात् जीव चारों गतियों से ही मनुष्य गति प्राप्त कर सिद्ध होते हैं। लिंग—वास्तव में अलिंग से ही सिद्ध होते हैं अथवा द्रव्य पुल्लिंग से ही सिद्ध होते हैं। व्यवहार में यदि पुरुष है और भाव से स्त्रीवेदी है तो भी मोक्ष जा सकता है क्योंकि मोक्ष पुरुषवेद से है। भाववेद का उदय नवम गुणस्थान तक रहता है इसलिए मोक्ष अवेद दशा में ही होता है। धवला ग्रन्थ में वर्णन आया है कि यदि भाव से स्त्रीलिंग हुआ या नपुंसकलिंग हुआ और द्रव्य से पुरुषवेदी है तो मोक्षप्राप्त कर सकता है और इस दूसरी बात का लोगों ने गलत अर्थ निकाल लिया कि स्त्री भी मोक्ष जा सकती है।  लिंग की अपेक्षा उसको मोक्ष नहीं हो सकता, मोक्ष तो पुरुषवेद से ही है।
तीर्थ—कोई तीर्थंकर होकर सिद्ध होते हैं और कोई बिना तीर्थंकर हुए ही सिद्ध होते हैं। कोई तीर्थंकर के काल में सिद्ध होते हैं और कोई तीर्थंकर के मोक्ष चले जाने के बाद उनके तीर्थ में सिद्ध होते हैं।
चारित्र—चारित्र की अपेक्षा कोई एक चारित्र से अथवा भूतकाल की बात को वर्तमान में कहने वाले नय की अपेक्षा दो, तीन चारित्र से सिद्ध हुए हैं।
प्रत्येकबुद्धबोधित—कोई स्वयं संसार से विरत होकर मुक्ति को प्राप्त करते हैं और कोई किसी के उपदेश को प्राप्त करके मुक्त अवस्था पाते हैं।
ज्ञान—कोई एक ही ज्ञान से और कोई भूतकाल की बात को वर्तमान में कहने वाले नय की अपेक्षा दो-तीन ज्ञान से सिद्ध हुए हैं।
अवगाहना—कोई-कोई उत्कृष्ट अवगाहना अर्थात् पाँच सौ पच्चीस धनुष से सिद्ध हुए हैं कोई मध्यम और कोई जघन्य अवगाहना अर्थात् कुछ कम साढ़े तीन हाथ से सिद्ध हुए हैं।
अन्तर की अपेक्षा—एक सिद्ध से दूसरे सिद्ध होने का अन्तर जघन्य से एक कम और उत्कृष्ट से आठ समय का है तथा विरहकाल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छह माह का होता है। विरहकाल अर्थात् छह माह तक कोई सिद्ध नहीं होते हैं।
संख्या—जघन्य से एक समय में एक ही जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्ट से १०८ जीव सिद्ध हो सकते हैं।
अल्पबहुत्व—समुद्र आदि जलक्षेत्रों से थोड़े सिद्ध होते हैं और विदेहादि क्षेत्रों से अधिक सिद्ध होते हैं। इस प्रकार सिद्ध जीवों में निमित्त की अपेक्षा भेद की कल्पना की गयी है। वास्तव में आत्मीय गुणों से उनमें कुछ भी भेद नहीं रहता है। महानुभावों! हमारी और आपकी अर्थात् प्रत्येक आत्मा के अन्दर सिद्ध बनने की शक्ति है। आज पंचमकाल में कोई मुनि भी सिद्धावस्था को नहीं प्राप्त कर सके हैं लेकिन साधु और श्रावक मोक्षमार्ग की गाड़ी के दो पहिये हैं। जैन रामायण में एक स्थान पर वर्णन आया है कि जब रामचन्द्र वन को चले गये तब भरत बहुत दु:खी हुए और उन्हें ढूंढते-ढूंढते उनके पास उनको वापस लाने के लिए पहुँच गये, तब राम ने उन्हें समझा-बुझाकर वापस अयोध्या भेज दिया। भरत बहुत दु:खी थे वे जब श्रुति नामक आचार्य के पास गये और मुनिराज से यह नियम देने को कहा कि जिस दिन अयोध्या में राम का प्रवेश होगा मैं दीक्षा ले लूँगा। तब मुनिराज ने उन्हें समझाया कि हे भरत! मैं आपके वैराग्य की प्रशंसा करता हूँ लेकिन गृहस्थ धर्म भी मुनिधर्म का लघुभ्राता है। अत: बन्धुओं! आप षट्कत्र्तव्यों का पालन करते हुए रह रहे हैं इस दृष्टि से आप भी मोक्षमार्गी हैं। इस प्रकार आचार्यश्री उमास्वामी ने इन ३५६ सूत्रों में उनका विस्तार से प्रतिपादन करते हुए अन्त में अपनी लघुता को प्रदर्शित किया है। उन्होंने कहा है कि—अक्षरमात्र पदस्वरहीनं व्यंजन सन्धि विवर्जितरेफम्। साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे।।१।।
अर्थात् इस शास्त्र में यदि कहीं अक्षर, मात्रा, पद या स्वर रहित हो तथा व्यंजन, सन्धि व रेफ रहित हो तो सज्जन पुरुष मुझे क्षमा करें क्योंकि शास्त्ररूपी समुद्र में कौन पुरुष मोह को प्राप्त नहीं होता अर्थात् भूल नहीं करता है। वास्तव में कितनी नम्रता, कितनी विनम्रता उन साधुओं में हुआ करती थी। यह मात्र उनकी लघुता नहीं अपितु विद्वत्ता का भी परिचायक है। एक बार एक पंडित जी धवला के स्वाध्याय के समय बोले कि वीरसेन स्वामी घसर गये तब माताजी बोलीं कि ऐसा मत कहिये क्योंकि जो नम्र प्रवृत्ति वाले होते हैं उनमें क्षमाप्रवृत्ति होती है और घमण्ड करने वाले अहंकारी होते हैं। इसमें जो अंतिम श्लोक है कि—दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थ पठिते सति। फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुङ्गवै:।।२।।इसे भी शायद उमास्वामी आचार्य या उनके बाद के आचार्यों ने बनाया होगा, जिन्होंने भी इसकी महिमा को समझा है, इसका भावपूर्वक पाठ किया है, चिन्तन किया है या करते हैं उन्हें एक उपवास का फल प्राप्त होता है। इस प्रकार इस तत्त्वार्थ सूत्र को पढ़-सुनकर बहुत से लोगों ने अपनी आत्मा के अन्दर अनेक भावनाएं भाई होंगी। महानुभावों! आप अगर साधु नहीं बन सकते तो क्या हुआ, इन दस धर्मों को कभी आप अपने से अलग मत करना। जैसे सीताजी को जब राम ने कृतान्तवक्त्र सेनापति से जंगल में धोखे से छुड़वा दिया था उस समय सेनापति से सारा वृतान्त जानकर सीताजी ने रामचन्द्र के लिये संदेश दिया था कि जैसे आपने लोकापवाद के भय से मुझ सीता को छोड़ दिया है उसी प्रकार एक दिन धर्म से भयभीत होकर धर्म को मत छोड़ देना। इसी प्रकार आप भी इन धर्मों को अपने से अलग मत करना अपितु आप सब इन धर्मों को अपने में उतारकर तत्त्वार्थसूत्र के एक-एक सूत्रों पर चिन्तन-मनन करके अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने में सफल होवें, यही तत्त्वार्थ सूत्र पढ़ने और सुनने का सार है।।।

इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे दशमोऽध्याय: समाप्त:।।

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तत्त्वार्थ सूत्र प्रवचन ( प्रथम अध्याय )


प्रवचन कर्त्री -आर्यिका चंदनामती माताजी

मंगलाचरण

सिद्धेर्धाममहारिमोहहननं कीर्ते: परं मंदिरम्।
मिथ्यात्वप्रतिपक्षमक्षयसुखं संशीतिविध्वंसनम्।।
सर्वप्राणिहितं प्रभेन्दुभवनं सिद्धिप्रमालक्षणम्।
संतश्चेतसि चिन्तयंतु सुधिय: श्रीवर्धमानं जिनम्।।

भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित सम्पूर्ण द्वादशांग के सार को अपने में समाहित किए हुए ग्रन्थराज तत्त्वार्थसूत्र अनेकान्त वाणी को प्रतिपादित करने वाला है इसीलिए उसे मोक्षशास्त्र भी कहा जाता है। इस ग्रन्थ के मंगलाचरण का प्रथम पद ही मोक्ष शास्त्र की सार्थकता को बतलाता है। उमास्वामी आचार्य ने सूक्ष्म चिंतनपूर्वक ही इस ग्रंथ में समस्त सार रहस्य को गागर में सागर सदृश भर दिया है। इसके दश अध्यायों में क्रमशः सात तत्त्वों का वर्णन पाया जाता है। उन्हीं में से प्रथम अध्याय का कुछ सार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। सर्वप्रथम ग्रन्थकर्ता आचार्य श्री उमास्वामी द्वारा किए गए मंगलाचरण को आपको जानना है–

मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुण लब्धये।।१।।

अर्थ — जो मोक्षमार्ग के नेता है, कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करने वाले हैं और विश्व के समस्त तत्त्वों के ज्ञाता–जानने वाले हैं, ऐसे किसी परमात्मपद को मैं उनके गुणों की प्राप्ति हेतु नमस्कार करता हूं। देखिए न ! स्वार्थपरता की पराकाष्ठा, भगवान् के नमस्कार में भी भक्त का कितना स्वार्थ छिपा है। शायद स्वार्थ के बिना कोई किसी को पूछता ही नहीं है किन्तु किसी की समूलचूल वस्तु को मांगते हुए नमस्कार करने का तो कोई ढंग नहीं समझ में आता ? यदि किसी सेठ साहूकार के पास जाकर कोई सेवक खूब नमस्कार करे और उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति की माँग करे तो क्या सेठजी उसे अपनी सारी सम्पत्ति देने को राजी हो जायेंगे ? नहीं, वे तो कभी नहीं देने वाले, जिस सम्पत्ति को खून पसीना एक करके उन्होंने कमाया है, अपने प्राणों से अधिक उसकी रक्षा की है, स्वयं के भोगों में तो सोच-सोच कर एक-एक पैसा निकालते हैं तो भला कैसे उस सम्पत्ति को दूसरे के लिए दे देंगे। यदि बहुत उदारता भी दिखाएंगे तो थोड़ा बहुत दानस्वरूप तो दे सकते हैं किन्तु सारी सम्पत्ति न तो वह दे ही सकते हैं और न मांगने वाला स्वयं इतनी हिम्मत ही कर सकता है। लेकिन ध्यान दीजियेगा कि हमारे जिनेन्द्र भगवान अत्यन्त उदार हैं उनसे आप उनकी पूरी सम्पत्ति भी मांग लेवें तो वे प्रतिक्षण देने को तैयार रहते हैं। शर्त यह है कि आपको उन जैसी मुद्रा स्वीकार करनी पड़ेगी और अपना सर्वस्व समर्पण करना पड़ेगा। समर्पण करना कोई कठिन बात भी नहीं है। चाहे गुरु हों या भगवान्, यदि उनके प्रति आप सर्मिपत हो गए तो कोई भी पद या गुण की प्राप्ति दुर्लभ नहीं है अन्यथा कितनी भी ज्ञानाराधना करें, पूजा करें किन्तु समर्पित भावना नहीं है तो आपकी पदोन्नति नहीं हो सकती है।

एक संक्षिप्त उदाहरण आपको बताती हूँ— एक असहाय बालक दर-दर की ठोकरें खाता था। एक दिन किसी सेठ ने उसे देखा तो करुणावश उसको अपने घर लाकर सेठानी को सौंप दिया और बोले कि इसे भी पुत्रवत् स्नेह देकर अपने घर में रखना है। पति की आज्ञावश न चाहते हुए भी सेठानी को उसका पालन पोषण करना पड़ता था। सेठ ने बालक से कहा—आज से हम लोग तुम्हारे माता—पिता हैं और तुम हमारे पुत्र हो। बालक प्रसन्नतापूर्वक सेठ के घर में रहने लगा किन्तु सेठानी अपने कर्कश स्वभाववश उस बालक को बहुत कष्ट देती। उससे दिन भर खूब काम करवाती, फटकारती, मारती तथा रात्रि को सेठजी के समाने प्यार जताती। यही क्रम प्रतिदिन चल रहा था।

तभी एक दिन— प्रात:काल बालक ग्वाले के यहाँ से दूध लेकर आ रहा था अकस्मात् रास्ते में ठोकर खाकर गिरने से सारा दूध गिर गया। बेचारा बालक बहुत सहम गया कि कैसे घर जाऊँ, क्या कहूँ ? सेठानी तो वैसे ही रोज मुझे डाँटती मारती है, आज जाने क्या होगा ? किसी तरह डरते-डरते वह घर आया किन्तु जो सोचा था उससे कहीं ज्यादा अनुभव अया। मार-मार कर सारी चमड़ी लाल कर दी सेठानी ने और घर से बाहर निकालकर दरवाजा बन्द कर लिया। एक वृक्ष के नीचे बेचारा उदास बालक बैठा था। मार्ग से एक बाबाजी निकले, उन्होंने पूछा—रेलवे स्टेशन किधर है? इतना सुनते ही बालक उसके साथ ही स्टेशन की ओर चल दिया। रास्ते में दोनों का वार्तालाप हुआ। बालक को बहुत दुखी देखकर बाबाजी ने उससे पूछा—बेटे! तुम उस सेठानी को क्या कहकर सम्बोधित करते थे ? बालक बोला—वह तो सेठानी है इसलिए मैं उसे सेठानी ही कहता था और वह मुझे नौकर समझकर सारा कार्य कराती थी। बाबा बोले—कभी तुमने प्यार से उसे माँ कहकर पुकारा होता तो वह भी तुम्हें पुत्रवत् स्नेह देती। खैर! जो हुआ उसे जाने दो। मेरी मानो एक बार जाकर तुम उसे माँ कहकर समर्पित हो जाओ वह भी तुम्हें पुत्र ही मानेगी।

बालक के बहुत मना करने पर भी बाबाजी ने उसे घर भेज दिया और बोला—यदि फिर भी तुम वहाँ न रह सको तो वापस आना, मैं तुम्हें अपने साथ ले चलूंगा। मार्ग में अनेकों विचारों में झूलता उतराता है बालक! सोचता है कि सच बात तो है, जब मैने उसे माँ नहीं समझा तो वह भला मुझे पुत्र वैâसे समझती। बस! उसने निर्णय कर लिया और दौड़ा—दौड़ा घर की ओर चल पड़ा। दोनों ओर की भावनाओं का तारतम्य देखिए। इधर सेठानी भी दरवाजे पर खड़ी पुत्र का मानो इन्तजार ही कर रही थी। बालक आते ही सेठानी के पैरों में लिपट गया और बोला—माँ! मुझे माफ कर दो, तुम्हारे सिवाय तो संसार में मेरा कोई नहीं है। अश्रुपूरित नेत्रों से माँ ने बेटे को पुचकारा और नहलाकर भोजन कराया, सुख दुख पूछा। समर्पित भावों से एक असहाय बालक को अपनी माँ मिल गई और सेठानी के अन्दर असली मातृत्त्व भी जाग उठा। वह सोचती है कि मुझसे बड़ी गलती हुई।

यदि मेरे पुत्र से ही दूध गिर जाता तो………… इन उदाहरणों से प्रत्येक मानव को शिक्षा लेनी चाहिए। माता-पिता की सम्पत्ति, गुरु का स्नेह, प्रभु की गुण सम्पत्ति सभी पुत्र, शिष्य और भक्त को सर्मिपत भावनाओं से स्वयं प्राप्त हो जाते हैं। उन्हें मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। यदि उनकी आज्ञा की अवहेलना होती रहे, भक्त के स्थान पर बगुला भगत बनकर मात्र भक्ति ही करते रहे, पीठ पीछे उनके अनादर की प्रबल भावना रही तो सिवाय पाप बन्ध के कोई गुण या सम्पत्ति प्राप्त नहीं होती। आचार्य श्री उमास्वामी ने भी ‘वन्दे तद्गुणलब्धये’ कहकर प्रभु की वंदना की है क्योंकि उन्होंने स्वयं दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण कर स्वयं को प्रभू के हवाले कर दिया था। निरीहवृत्तिपूर्वक अयाचकवृत्ति से इस मोक्षशास्त्र की रचना प्रारम्भ करते हुए अपने से महान व्यक्तित्व के प्रति शीश झुकाया था। उनका यह मंगलाचरण ही इतना महान है कि जिसके ऊपर अनेकों आचार्यों ने बड़ी-बड़ी टीकाएं लिख डालीं। श्री विद्यानन्दि स्वामी ने इस मंगलाचरण के ऊपर ‘आप्तपरीक्षा’ नामक ग्रन्थ लिखकर उसकी स्वोपज्ञ टीका लिखी है। श्री समन्तभद्र स्वामी ने इस मंगलाचरण की टीका करते हुए ‘आप्तमीमांसा’’ नामक स्तोत्र ग्रंथ को ११४ कारिकाओं में रच डाला है। इसी स्तोत्र पर श्री भट्टाकलंक देव ने आठ सौ श्लोक प्रमाण ‘अष्टशती भाष्य’ बनाया है, अनंतर श्री विद्यानन्दि स्वामी ने आप्तमीमांसा की कारिका सहित इस अष्टशती को लेकर आठ हजार श्लोक प्रमाण ‘अष्टसहस्री’ ग्रंथ की रचना कर डाली है; जिसे न्यायदर्शन का उच्चतम ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ के बारे में वर्णन करते हुए स्वयं विद्यानन्दि महोदय ने इसे ‘कष्टसहस्री’ शब्द से सम्बोधित किया है।

अष्टसहस्री के विषय में एक जर्मन के न्यायदर्शनविज्ञ ने कहा है— ‘‘जिसने जैनकुल में जन्म लेकर अष्टसहस्री ग्रंथ नहीं पढ़ा वह जैन नहीं और जो अष्टसहस्री पढ़कर जैन नहीं बना तो समझो उसने अष्टसहस्री पढ़ी ही नहीं।’’ अर्थात् अनेकांत स्याद्वाद का झण्डा फहराने वाला यह एकमात्र ग्रंथ है। इसी अष्टसहस्री ग्रंथ का हिन्दी में अनुवाद किया था वर्तमान की परम विदुषी, सरस्वती की प्रतिमूर्ति, गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने सन् १९७० में, जो प्रकाशित होकर भक्तों को न्याय का उच्च कोटि का विद्वान बनाने में सहायक सिद्ध हो रहा है। कुछ वर्ष पूर्व यह चर्चा उठी थी कि यह मंगलाचरण आचार्य उमास्वामी कृत नहीं है प्रत्युत् सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ के प्रारम्भ में उपलब्ध होने से यह सर्वार्थसिद्धि का मंगलाचरण है। इस पर अनेक विद्वानों ने इसे श्री उमास्वामी कृत घोषित किया है। आचार्य उमास्वामी आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव के पट्टशिष्य थे जिसका वर्णन श्रवलबेलगोला स्थित एक शिलालेख में है कि—

अभूदुमास्वाति मुनि: पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी।
सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन।।
स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृद्धपिच्छान्।
तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छम्।।

आचार्य कुन्दकुन्द की वंश परम्परा में गृद्धपिच्छाचार्य (उमास्वाति आचार्य) हुए जिनके समान इस धरती पर आगम का कोई ज्ञात नहीं था। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण रचकर उसमें बहुत सार भर दिया। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें किसी व्यक्ति विशेष को नमस्कार न करके ऐसे गुणों को नमस्कार किया है जो किसी भी व्यक्ति में घटित हो सकते हैं। यहाँ एक प्रमाण मैं और प्रस्तुत कर रही हूँ। आप्तमीमांसा की ११४ वीं कारिका की टीका में अष्टसहस्री ग्रंथकार श्री विद्यानन्दि स्वामी क्या कहते हैं—

‘‘शास्त्रारम्भेभिष्टुतस्याप्तस्य मोक्षमार्गप्रणेतृतया

कर्मभूमृद्भोत्तृतया विश्वतत्त्वानां ज्ञातृतया च

भगवदर्हत् सर्वज्ञस्यैवान्ययोगव्यवच्छेदेन

व्यवस्था-पनपरा परीक्षेयं विहिता।’’

अर्थात् शास्त्र के प्रारम्भ में स्तुति को प्राप्त जो आप्त हैं, वे मोक्षमार्ग के प्रणेता, कर्म पर्वत के भेत्ता और विश्वतत्त्व के ज्ञाता इन तीन विशेषणों से युक्त भगवान अर्हंत सर्वज्ञ ही हैं, अन्य कोई नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार अन्य योग का व्यवच्छेद करके भगवान् अर्हंत में ही इन विशेषणों की व्यवस्था को करने में तत्पर यह परीक्षा की गई है। यह है सारे अष्टसहस्री ग्रंथ का अन्तिम उपसंहार। यह मंगलाचरण उमास्वामी आचार्यकृत ही है, इस बात को सिद्ध करने के लिए इससे बढ़कर सबल प्रमाण और क्या हो सकता है ? श्लोकवार्तिकालंकार ग्रंथ में भी श्री विद्यानंदि महोदय ने कई स्थलों पर इसी बात को स्पष्ट किया है। जब एक मंगलाचरण के ऊपर आप्तमीमांसा, अष्टशती, अष्टसहस्री जैसे जैनदर्शन के सर्वोपरि ग्रंथ बन गये तब उस ग्रंथ की जितनी भी गौरवगाथाएं गाई जावें, थोड़ी ही हैं। यही कारण है कि आज भी भारतवर्ष में दक्षिण-उत्तर आदि प्रान्तों में सर्वत्र नर-नारी इस तत्त्वार्थसूत्र का पाठ बड़ी भक्ति से करते हैं और एक उपवास करने का फल प्राप्त करते हैं। बहुत सी महिलाओं का तो नियम ही रहता है कि ‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ सुने बिना भोजन नहीं करना। कहा भी है—दशाध्याये परिच्छिन्ने, तत्त्वार्थे पठिते सति।
फलं स्यादुपवासस्य, भासितं मुनिपुंगवै:।।
दश अध्याय से परिपूर्ण इस तत्त्वार्थसूत्र को पढ़ने पर एक उपवास का फल प्राप्त होता है ऐसा श्री मुनियों में श्रेष्ठ मुनियों ने कहा है। इस ग्रंथ का यह मंगलाचरण सच्चे आप्त–देव को सिद्ध करने में सर्वोपरि मान्य अमोघ उपाय है ऐसा समझना चाहिए। अब प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र का अवतार होता है— सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:।।१।।

अर्थ — सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यव्चाचरित्र इन तीनों की एकतारूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है। संसार सागर में डूबते हुए संसारी प्राणियों के उद्धार की पुण्य भावना से मोक्षमार्ग का निरूपण करने वाले इस सूत्र की रचना आचार्य श्री उमास्वामी महाराज ने की है। इन तीन रत्नों की व्याख्या तत्त्वार्थराजर्वाितक के कत्र्ता श्री भट्टाकलंक स्वामी ने निम्न प्रकार से की है— दर्शनमोह कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशम रूप अंतरंग कारण से होने वाले तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादि तत्त्वों का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान कहलाता है।

संसार के कारणभूत राग—द्वेषादि की निवृत्ति के लिए कृतसंकल्प विवेकी पुरुष का शरीर और वचन की बाह्य क्रियाओं से तथा अभ्यंतर मानस क्रियाओं से विरक्त होकर स्वस्वरूप स्थिति का प्राप्त करना सम्यक्चारित्र है। पूर्ण यथाख्यात चारित्र वीतरागी-ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में तथा जीवनमुक्त केवली के होता है। उससे नीचे विविध प्रकार का चारित्र श्रावकों को तथा दसवें गुणस्थान तक के साधुओं को होता है। इसके अतिरिक्त सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवृत्ति आदि अनेकानेक ग्रंथों के अन्दर यही बताया है कि इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन कराने वाली है। केवल सम्यग्दर्शन आपको मोक्ष प्रदान नहीं करेगा। only the right knowledge cannot, Only the right conduct cannot, but the mixture of all will take us to salvation केवल सम्यग्ज्ञान अथवा केवल सम्यक्चारित्र ही आपको मोक्ष प्रदान नहीं कर सकते अपितु इन तीनों का जहाँ पूर्ण रूप से एकीकरण—समावेश हो जाता है वहीं मोक्षमार्ग साकार होता है। यद्यपि मोक्ष साक्षात् रूप में दिखता नहीं है फिर भी उसका कथन किया गया है क्योंकि बहुत सी चीजें प्रत्यक्ष नहीं भी दिखती हैं तो भी उका अस्तित्त्व स्वीकार करना पड़ता है। कर्मोदय की निवृत्ति होने पर चतुर्गति का चक्र रुक जाता है और उसके रुकने से संसार रूपी घटीयन्त्र का परिचलन समाप्त हो जाता है, इसी का नाम मोक्ष है। चूँकि प्राणी अनादिकाल से कर्मों के बन्धन में जकड़ा हुआ है। जैसे जेल में पड़ा हुआ व्यक्ति यदि अपने मुक्त होने का समाचार जान लेता है तो आश्वस्त होकर संसार से मुक्त होने का प्रयास करने लगता है। जैन सिद्धान्त में आचार्यों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इनको रत्न की संज्ञा दी है, जो प्रत्येक प्राणी में विद्यमान रहते हैं। व्यवहार में रत्नों को रखने वाला ‘जौहरी’ कहलाता है इसलिए आप सभी जौहरी हैं ऐसा श्रद्धान रखें। जौहरी अपने रत्नों को खूब संभालकर रखता है। आपने देखा होगा कि जब आप किसी ज्वैलर्स की दुकान पर जाकर किसी रत्न को दिखाने की मांग करते हैं तो वह एक मजबूत अलमारी खोलता है। अलमारी के अन्दर भी लॉकर खोलता है और उसमें से रत्नों का डिब्बा निकालता है। इतना ही नहीं, डिब्बे के अन्दर डिब्बी, डिब्बी में लाल कागज की पुड़िया में रुई में लिपटा नगीना निकाल कर बड़े सुरक्षित ढंग से ग्राहक के समक्ष प्रस्तुत करता है। उसी प्रकार आपकी तिजोरी में भी तीन-तीन अनमोल रत्न बड़े सुरक्षित रखे हैं आप उन्हें प्रगट कर अपने शहर के जौहरी ही नहीं तीन लोक के सर्वोत्तम जौहरी बन सकते हैं। जहां आपके पास मांगने वाले भक्तों (ग्राहकों) की भीड़ लग जाए