अभयमती का आगमन-अभयमती ने सन् १९८५ का चातुर्मास धर्मसागर जी के पास किया था। मेरी अस्वस्थता को सुन-सुनकर घबराती थीं। उन्हें ऐसा लगता था कि- ‘‘कहीं ऐसा न हो कि आर्यिका रत्नमती जी के समान मुझे मेरी गुर्वानी ज्ञानमती माताजी के दर्शन न हो सके ।’’
मेरे दर्शन की भावना से मार्ग के अनेक कष्टों को झेलती हुई क्षुल्लिका शांतिमती जी को साथ लेकर आ रही थीं। असल में संघ में ब्रह्मचारिणी न होने से विहार में कितनी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं, सो तो उन जैसे अस्वस्थ साधु-साध्वियों को ही अनुभव में आता है।
ये २८ अप्रैल १९८६, वैशाख कृ. ५ को मवाना से चलकर शाम को ६ बजे जम्बूद्वीप स्थल पर आ गई। मेरे दर्शन कर रो पड़ीं। सन् १९७१ में मुझे छोड़कर बुंदेलखण्ड की ओर विहार किया था। शारीरिक स्वास्थ्य गड़बड़ होते हुए भी मनोबल से १४ वर्ष तक मध्यप्रदेश में खूब घूमी हैं, यात्राएँ की हैं और मंडलविधान, शिक्षण-शिविर, महिला मंडल, उपदेश आदि के द्वारा खूब धर्मप्रभावना की है तथा परमात्मप्रकाश, समयसार कलश, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, आत्मानुशासन आदि ग्रंथों के पद्यानुवाद करके समाज को बहुत कुछ दिया है। आज गुरु-शिष्य का मिलन देखने जैसा था।
उनको रोते हुए देखकर मेरे भी आँखों में आँसू आ गये। उनको उठाया, उनके सिर पर हाथ फेरा और रत्नत्रय की कुशल पूछी। इस अवसर पर आर्यिका रत्नमती को याद कर उनका हृदय फट रहा था जो स्वाभाविक ही है। आखिर जन्मदात्री माता जो कि आर्यिका हो चुकी थीं, उन्होंने अपनी कन्याओं को प्यार के साथ जो कुछ धर्मामृत पिलाया था और मुझे तथा मनोवती को भी, पिता, परिवार के विरोध के बावजूद भी घर से निकलने में, मोक्षमार्ग में लगने में जो सहयोग दिया था- ‘‘वह उपकार मोक्ष प्राप्त करने तक भुलाया नहीं जा सकेगा।’’
आज यह लिखते समय मेरी भी लेखनी काँपने लगी और उनकी स्मृति में दो आँसू टपक पड़े। वास्तव में जन्म देने वाली माताएँ तो विश्व में भरी पड़ी हैं, किन्तु अपनी संतान के मोक्षमार्ग में सहायक बनकर पुनः उन्हीं के सानिध्य में रहकर मोक्षमार्ग को स्वयं साधने वाली माता आर्यिका रत्नमती जैसी दूसरी होना दुर्लभ है।
यद्यपि यहाँ रहने तक मैंने आर्यिका अभयमती को आर्यिका रत्नमती जी के वियोग दुःख को भुलाने की बहुत सी शिक्षाएँ दीं लेकिन ऐसा लगता है कि उनके मस्तिष्क में कुछ असर हो गया है, स्वास्थ्य बहुत कमजोर है पुनः ये सरधना में रहीं। सन् १९८७ का चातुर्मास वहीं किया था। गतवर्ष मार्च की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा और मोतीचंद की दीक्षा के समय यहाँ आई थीं, पुनः विहार कर सरधना चली गई हैंं, उनके पास क्षुल्लिका शांतिमती जी हैं।
आर्यिका रत्नमती जी की समाधि के समय एक माह के अंदर उनके सभी पुत्र-पुत्रवधु और पुत्रियों ने दर्शन कर लिए थे, मात्र ये अभयमती जी ही बची थीं। ये उस समय ‘मौजमाबाद’ (राजस्थान) में थीं। संसार में संयोग-वियोग, सुख-दुःख आदि कर्मों के उदय से होते रहते हैं। इनको दूर करने के लिए ही, कर्मों को नष्ट करने के लिए ही यह दीक्षा ग्रहण की जाती है, ऐसा सोचकर, ऐसे-ऐसे इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग आदि प्रसंगों में समभाव धारण करना कर्तव्य है अतः प्रतिदिन भगवान से प्रार्थना करते रहना चाहिए।
इस जीव ने इस संसार में संयोग के निमित्त से ही दुःखों को प्राप्त किया है अतः अब मैं मन, वचन, काय ये सभी संयोग संबंध का त्याग करता हूँ। यह भावनाएँ ही संसार के संयोग संबंध से छुड़ाकर शाश्वत सुख को प्राप्त कराने में समर्थ हैं।
जंबूद्वीप विधान अपरनाम महामृत्युंजय विधान
भादों में ज्वर आ जाने से जंबूद्वीप विधान अपूर्ण छूट गया था। उसकी पूजा के संस्कार ज्वर में भी चलते रहते थे और पूजा के लिए नई-नई पंक्तियाँ भी मस्तिष्क में आती रहती थीं।
इतनी लम्बी बीमारी के बाद मई १९८६, वैशाख में मैंने उस विधान को उठाया और शेष पूजाएँ श्रुतपंचमी के दिन पूर्ण कीं। उस समय मेरे मन में यह भाव आया कि ‘‘इस विधान को पूर्ण करने के लिए ही शायद मैंने पुनर्जन्म पाया है।’’ इसी के प्रभाव से मेरी अपमृत्यु टली है।
ऐसा सोचकर मैंने इस विधान का अपरनाम ‘महामृत्युंजय विधान’ रख दिया और प्रशस्ति में इसका उल्लेख कर दिया है। श्रुतपंचमी के दिन १२ जून १९८६ को यह जंबूद्वीप विधान, धवला पुस्तक और मूलाचार को पालकी में विराजमान कर मोतीचंद आदि ने इसकी शोभायात्रा निकाली पुनः मध्यान्ह में श्रुतस्कंध विधान होकर श्रुतपंचमी समारोह मनाया गया।
श्वेतांबर साधु-साध्वियोें की सद्भावना
अनेक प्रबुद्ध लोग आकर समझाते रहते थे। खासकर श्वेताम्बर संप्रदाय के साधु-साध्वियाँ भी मेरी बीमारी में देखने के लिए कई बार आते रहे हैं। वे भी ऐसे ही शिक्षा देते रहते।
एक बार एक श्वेतांबरी साध्वी ने अपनेपन से वात्सल्य दर्शाते हुए खूब कहा- ‘‘देखो, माताजी! आपके द्वारा संसार में महान् आदर्श कार्य हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे। आपका जीवन आपके स्वयं के लिए ही सीमित नहीं है प्रत्युत् तमाम जीवों के उद्धार के लिए है अतः आप हम लोगों की बात मानकर दिन में दो-चार बार औषधि ग्रहण कर स्वस्थ होइये और बाद में प्रायश्चित ले लेना ।’’
मैंने कहा- दिगम्बर सम्प्रदाय में चर्या कठोर है। हमें समाधि से मरना इष्ट है किन्तु बार-बार दवा आदि लेकर अपने नियम में बाधा लाना इष्ट नहीं है। यह संयम बार-बार नहीं मिलता है शरीर तो इस संसार में अनंत-अनंत बार मिल चुका है ।’’
इन सबके कथन को सुनकर मैं सोचा करती थी- आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव के वचन हैं-
आदहिदं कादव्वं जइ सक्कइ परहिदं च कादव्वं।
आदहिदपरहिदादो आदहिदं सुट्ठु कादव्वं।।
आत्मा का हित करना चाहिए, यदि शक्य हो तो पर का हित भी करना चाहिए। इन आत्महित और परहित में आत्महित ही अच्छी तरह करना चाहिए। श्री पूज्यपाद स्वामी ने भी कहा है-
परोपकृतिमुत्सृज्य सोपकारपरो भव।
पकुर्वन् परस्याज्ञो ट्टश्यमानस्य लोकवत्।।
हे भव्य ! तुम परोपकार को छोड़कर अपने उपकार में तत्पर होवो। देखो! लोक में ऐसे मूढ़ बहुत हैं कि जो पर का उपकार करने में लगे रहते हैं और अपनी तरफ लक्ष्य ही नहीं देते हैं। मैं समझती हूँ कि ‘‘यह मेरे कई जन्मों का पुण्य होगा कि ऐसी लंबी ८-१० महीने तक बीमारी होने पर भी मेरे मन में चारित्र के प्रति दृढ़ता बनी रही है और मेरा परिकर-शिष्यवर्ग ने भी मेरी परिचर्या के साथ ही मेरे संयम में बाधा पहुँचाने की बात स्वप्न में भी नहीं सोची।
इन्द्रध्वज विधान एवं प्रशिक्षण शिविर
ज्येष्ठ शु. १२, १९ जून १९८६ से अमरचंद जैन होमब्रेड वालों ने पुनः यह तृतीय बार इन्द्रध्वज विधान कराया। प्रातः ५.३० बजे से विधान का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। इसी मध्य श्री अमरचंद ने विद्वानों के लिए प्रशिक्षण शिविर का भी आयोजन रखा था। जिसमें नरेन्द्र प्रकाश जैन प्राचार्य फिरोजाबाद वालों को कुलपति बनाया गया और तत्त्वार्थ सूत्र तथा दश धर्म पर प्रशिक्षण चलाया गया। २९ जून, आषाढ़ बदी ८ को यह विधान और शिविर पूर्ण हुआ।
इसमें प्रो. श्रेयांसकुमार, प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन आदि ने प्रशिक्षण दिया एवं लगभग ४० विद्वानों ने प्रशिक्षण ग्रहण किया। इसी मध्य जुलाई १९८६ के ‘सम्यग्ज्ञान अंक’ में सामायिक विधि शास्त्रोक्त छपा देने से ‘सामायिक विधि’ एवं ध्यान साधना का भी शिक्षण दिया गया। विधिवत् सामायिक शिक्षण को प्राप्त कर सभी प्रभावित हुए। नरेन्द्र प्रकाश आदि कई एक महानुभावों ने, महिलाओं ने विधिवत् सामायिक करने का महीने में कुछ-कुछ दिनों का नियम लिया।
सरधना में शिविर
हस्तिनापुर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की ओर से १४ मई से २१ मई १९८६ तक सरधना में शिक्षण शिविर का आयोजन रखा गया, जिसमें स्वयं मोतीचन्द ने जाकर बालकों को शिक्षण देकर अनेक बालक-बालिकाओं में ही नहीं बल्कि प्रौढ़ लोगों में भी धर्म शिक्षा के संस्कार डाले और मेरे पास आकर प्रसन्नता व्यक्त की।
जंबूद्वीप की जिनप्रातिमाएँ
२ मई सन् १९८५ की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के निर्वाण कल्याणक दिवस पर जंबूद्वीप में सुमेरु पर्वत के अतिरिक्त ६२ जिनमंदिरों की एवं १२२ देव भवनों की सर्व सिद्ध प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित होकर विराजमान की जा चुकी थीं। प्रतिष्ठा से कई माह पूर्व ही यद्यपि रवीन्द्र कुमार आदि ने दिल्ली में किसी कारीगर को यहाँ जिनमंदिर में और देव भवनों में कांच के दरवाजे लगाने के लिए आर्डर किया हुआ था किन्तु वे दरवाजे नहीं लग पाये थे।
अतः प्रतिष्ठाचार्य ब्र. सूरजमल से राय लेकर वहाँ से सर्व प्रतिमाओं को यहां रत्नत्रय निलय में एक कमरे में विराजमान करा दिया गया था। चूँकि यहाँ हस्तिनापुर में बंदरों का उपद्रव तो है ही, जैन की अपेक्षा जैनेतर यात्री भी बहुत आते रहते हैं अतः आसादना के भय से यह निर्णय लिया गया था और उधर कांच के दरवाजे लगाने के लिए प्रयास चालू था।
जैसे-जैसे दरवाजे लगते गये, वैसे-वैसे ही मुहूर्त निकालकर वेदी शुद्धि करा-कराकर वहाँ यथास्थान सिद्ध प्रतिमाएँ विराजमान कराते गये। एक बार वैशाख शु. ३, अक्षय तृतीया (दिनाँक १२ मई) को वेदी शुद्धि कराकर कुछ प्रतिमाएँ मोतीचंद, रवीन्द्र कुमार ने विराजमान करायीं पुनः दूसरी बार ज्येष्ठ सुदी ५, श्रुतपंचमी दिनाँक १२ जून को प्रातः जिनप्रतिमाएँ विराजमान करायी गयीं। इसके बाद तीसरी बार शेष रहीं सभी प्रतिमाएँ आषाढ़ सुदी १०, १७ जुलाई १९८६ को यथास्थान विराजमान की गई।
जब सब प्रतिमाजी जंबूद्वीप में विराजमान हो गई , तब मेरे मन में बहुत ही संतोष हुआ। इससे पूर्व मैं कई बार सोचा करती- ‘‘देखो! ‘हाथी निकल गया पूँछ अटक गई’ कहावत के अनुसार यहाँ जम्बूद्वीप के जिनमंदिर और देवभवन कितनी कठिनाई के बावजूद भी कितनी जल्दी बनवाये गये थे लेकिन सन् १९८५ में २ मई को प्रतिमाजी वहाँ विराजमान होने के बाद कांच के दरवाजे नहीं लग पाने से उन्हें यहाँ वापस लाया गया ।
इन ६२+१२२=१८४ एक सौ चौरासी मंदिर व देवभवनों में दरवाजे लगने में एक वर्ष लग गया। कभी-कभी ऐसा ही हो जाया करता है कि बड़े-बड़े काम तो जल्दी हो जाते हैं और छोटे-छोटे काम रुक जाते हैं, बहुत समय ले लेते हैं।
इन्द्रध्वज विधान
३ जुलाई १९८६, आषाढ़ वदी १२ से दरियाबाद में माधुरी की बड़ी बहन कामिनी ने इन्द्रध्वज विधान कराया। उसमें पूरे समय के लिए माधुरी को जाना पड़ा। ऐसे ही यहाँ हस्तिनापुर में जंबूद्वीप स्थल पर त्रिमूर्ति मंदिर में आनन्दप्रकाश दिल्ली और प्रकाशचंद जैन, सुभाषचंद जैन टिकैतनगर वालों ने दो मण्डल बनवाये और आषाढ़ सुदी ७, १४ जुलाई १९८६ से इन्द्रध्वज विधान शुरू किया। माधुरी के दोनों भाई सपरिवार आये थे।
इनके बच्चोें के लिए मोतीचंद ने शिक्षणशिविर की व्यवस्था बना दी। जिसमें अनेक बालक-बालिकाओं ने बालविकास आदि के शिक्षण प्राप्त किये, बहुत ही अच्छा वातावरण रहा। इसके मध्य २० जुलाई को मैंने चातुर्मास स्थापना की।
२२ जुलाई श्रावण कृ. १ को हवन और रथयात्रा होकर विधान पूर्ण हुआ। इसी चातुर्मास के मध्य भादों वदी ३, २२ अगस्त से भादों वदी १२, १ सितम्बर १९८६ तक श्रीमती जैन-प्रेमचंद जैन ने बहराइच उत्तर प्रदेश में इन्द्रध्वज विधान कराया। उसमें भी यहाँ से मोतीचंद, रवीन्द्र कुमार, माधुरी आदि गये थे, अच्छी धर्मप्रभावना हुई।
वहाँ के स्थानीय लोगों ने तो विशेषरूप से लाभ लिया ही, साथ ही माधुरी आदि के प्रवचनों से बहुत प्रभावित रहे हैं।