द्वादशांग जिनवाणी के बारहवें दृष्टिवादांग के १४ पूर्वों में १०वाँ विद्यानुवाद पूर्व है जो तंत्र,मंत्र एवं यंत्र से सम्बद्ध है। आज भी मानव अलौकिक एवं आध्यामिक शक्तियों की आराधना में मंत्रों का प्रयोग करता है किन्तु मंत्र क्या हैं? मंत्रों का स्वरूप एवं उपयोग सा हो? क्या दिगम्बर आगम परम्परा में मंत्रों की साधना एवं धर्मप्रभावना के निमित्त उनके प्रयोग की अनुमति है? क्या पौराणिक सन्दर्भों में आचार्यों द्वारा इनके प्रयोगों का विवरण मिलता है? इन प्रश्नों के समाधान के साथ ही मंत्रों के उपयोग, विधि-निषेधों की संक्षिप्त चर्चा प्रस्तुत आलेख में की गई है।
प्राचीनकाल से मनुष्य अपने विकास हेतु भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति के लिए तत्पर रहा है। मनुष्य अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए अलौकिक शक्तियों की आराधना करता रहा है इसलिए मंत्रशास्त्र के प्रति उसी की श्रद्धा एवं आदर सदैव बना रहा किन्तु मंत्र-शास्त्रों का अध्ययन व साधन दोनों ही विशिष्ट व्यक्तियों तक सीमित रहे अतएव यह ज्यादा प्रचारित नहीं हो सके। मंत्रशास्त्र का प्रसंग आते ही एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि मंत्र किसे कहते हैं? अथवा मंत्र शास्त्र की प्राचीनता क्या है? इन प्रश्नों के उत्तर में आगम के इतिहास पर दृष्टि डालनी होगी। आगम के अनुसार तीर्थंकरवाणी द्वादशांग सूत्र रूप खिरती है। उसमें दसवां विद्यानुवाद पूर्व है। जिसमें ५०० महाविद्या एवं ७०० क्षुद्रविद्याओं का वर्णन है और यह निर्विवाद सत्य है कि द्वादशांग अनादिनिधन है तब विद्यानुवाद (यंत्र-मंत्र-तंत्र) का ग्रंथ भी अनादिनिधन माना जाएगा। यह अवश्य है कि साधकों की कमी एवं मंत्र साधना विधि का पूर्ण ज्ञान नहीं होने से इसका प्रचलन अधिक नहीं हो पाया है।मंत्रविद्या के सन्दर्भ में लगभग १३वीं शताब्दी का विद्यानुशासन नामक ग्रंथ मुनि मल्लिषेण कृत ही उपलब्ध है जिसमें विलुप्त होती मंत्र विद्या के कुछ अंशों को मुनिश्री ने उक्त ग्रंथ में संकलित किया है। मंत्र का ध्वनि से घनिष्ठ सम्बंध है। ‘मंत्र विज्ञान मूलत: ध्वनि विज्ञान’ है। विद्यानुशासन ग्रंथ के अनुसार मंत्र की परिभाषा निम्न प्रकार है-
अकारादि हकारांत वर्णा मंत्र: प्रकीर्तिता:
अकार से हकार तक विशिष्ट वर्णों के समुदाय को मंत्र कहते हैं। अपने प्रभाव एवं व्यापकता के कारण शब्द अनेकार्थी रूप में प्रचलित हैं। भिन्न-भिन्न आचार्यों,विचारकों ने मंत्र की व्याख्या निम्नानुसार की है—
१. चित्त की एकाग्रता अर्थात चिन्तन की प्रक्रिया का ध्वन्यात्मक रूप ही मंत्र है।
२. देवता के सूक्ष्म शरीर का नाम मंत्र है।
३. जिस शब्द या शब्द समूह के उच्चारण से या शब्द शक्ति के द्वारा शक्तियों का अनुग्रह प्राप्त हो, उसे मंत्र कहते हैं।
४. शब्द शक्ति और आत्मा का एकीकरण करने का चिंतन मंत्र कहलाता है।
५. जो शब्द शक्ति मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति और कर्तव्य की प्रेरणा देती है, वह मंत्र है।
६. ज्ञान का बोध और आत्मिक शक्ति का उद्भव करने वाली विद्या मंत्र कहलाती है।
मंत्र के दो भेद हैं-१.लोकोत्तर मंत्र, २.लौकिक मंत्र।
लोकोत्तर मंत्र के माध्यम से परमात्म पद (मोअ) की प्राप्ति में सहायता मिलती है जबकि लौकिक मंत्र से भौतिक सुखों की । प्रत्येक सम्प्रदाय का अपना एक मूलमंत्र होता है। मूल मंत्र के आसपास ही उस सम्प्रदाय की साधना पद्धति व सिद्धान्त आदि सुरक्षित रहते हैं। जैन आम्नाय के पास भी अपना मूलमंत्र है- णमोकार मंत्र। यह चौरासी लाख मंत्रों का जन्मदाता है| मंत्रों का मूल व मातृकाओं का आगर यह अनादि नमस्कार मंत्र है। यह चौदह पूर्वों का सार है। द्वादशांग का मूल है। बीजपद को ग्रहण करके ही गौतम गणधर ने द्वादशांग की रचना की थी। तीर्थंकर भी दीक्षा लेते समय नम: सिद्धेभ्य: उच्चारण कर ध्यानस्थ होते हैं। जितने सिद्ध हुए हैं अथवा होंगे उन सबका मूलाधार इस मंत्र का ध्यान है।
अतएव दिगम्बर जैन आम्नाय में मंत्रों का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे मैं आगम में उल्लेखित विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से स्पष्ट करना चाहूंगी— जैन आचार्यों ने, जिनमें समंतभद्र स्वामी, अकलंक स्वामी, कुमुदचन्द्र आदि का नाम प्रसिद्ध है, मंत्रशक्ति आदि के द्वारा धर्म की प्रभावना की थी और मिथ्यात्वियों के समक्ष अनेकान्त शासन की वैजयन्ती फहराई थी। जिन स्वामी समंतभद्र के प्रभाव से पाषाण पिण्ड फटा था तथा उसमें से चन्द्रप्रभु भगवान की मूर्ति की उपलब्धि हुई थी,वे आचार्य बहुत बड़े मंत्रवादी, तंत्रवादी, ज्योतिषी, वैद्य शिरोमणि, सिद्ध सारस्वत आदि थे। उन्होंने अपना परिचय इस पद्य में दिया है-
आचार्योंहं कविरहमहं वादिराट् पंडिताहम्। दैवझोह, भिषगमहं, मांत्रिक स्तात्रिकोहम्।।
राजन्नस्यां जलधिवलयान्मेखलयामिलायाम्। आज्ञासिद्ध: किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोहम् ।।
वे विक्रम की दूसरी तीसरी शताब्दी में हुए हैं। धवला टीका में कहा है कि महाज्ञानी मुनि धरसेन आचार्य ने षट्खंडागम सूत्र के प्रमेय का उपदेश पुष्पदन्त तथा भूतबलि महामुनियों को दिया था। उन्होंने मुनियुगल की परीक्षा हेतु उन्हें दो दिन के उपवासपूर्वक दो विद्याएँ सिद्ध करने को दी थी। जब उनको विद्याएँ सिद्ध हुईं तो एक देवी कानी दिखी और दूसरी देवी के दाँत बाहर निकले हुए थे। दोनों विवेकी मुनियों ने मंत्र सम्बन्धी व्याकरण के अनुसार मंत्रों को सिद्ध करना प्रारम्भ किया तब सुन्दर रूप में देवता दिखाई पड़े। इस कथानक से धरसेनाचार्य की मंत्र विद्या निपुणता के साथ पुष्पदंत तथा भूतबलि मुनीन्द्रों की भी मंत्र-शास्त्र सम्बन्धी प्रवीणता स्पष्ट हो जाती है। अन्य धर्मों के इतिहास पर दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि उनके प्रमुख आचार्यों ने विविध विद्याओं से अपने को सुसज्जित किया था। सिद्धिसम्पन्न विवेकी साधु उसका उपयोग अहिंसा धर्म की अभिवृद्धि तथा अनेकान्त शासन की महिमा को प्रकाशित करने के पवित्र कार्य में किया करते हैं। दक्षिण भारत में अनेक मंदिरों का ध्वंस, जैन धर्म के विनाश आदि का क्रूर कार्य साधुओं ने मंत्रशक्ति के बल पर किया था। जैनों के पास उसका मुकाबला करने की सामग्री नहीं रहने से उन्हें अपार क्षति उठानी पड़ी। इतिहास इसका साक्षी है।
तपोबलेन तंत्रेण मंत्रेणापि च सर्वया। कर्तव्यं यतिना यत्नाज्जिनपूजा प्रवर्तनम् ।।
मुनि को तपोबल, तंत्र तथा मंत्र के द्वारा जिनेन्द्र भगवान की पूजा का कार्य सम्पन्न करना चाहिए। अमृतचन्द्र सूरि ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में सम्यग्दर्शन के अंगरूप प्रभावना पर इस प्रकार प्रकाश डाला है-
आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव। दान तपो जिनपूजा-विद्यातिशयैश्च जिनधर्म:।।
रत्नत्रय के तेज द्वारा अपनी आत्मा को प्रभावित करें तथा दान, तपश्चर्या, जिनपूजा तथा विद्या के चमत्कार अर्थात् मंत्र-तंत्रादि के द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करें ताकि स्याद्वाद शासन का प्रकाश एकान्तवाद के अन्धकार को दूर करें जिससे जीवों का हित हो। जो अविवेकी अध्यात्म का यथार्थ स्वरूप न समझकर धर्मप्रभावना को आत्म-विकास का बाधक सोचता है, उसे उत्तरपुराण में गुणभद्राचार्य की यह सूक्ति ध्यान से मनन करना चाहिए-
रूचि: प्रवर्तते यस्य जैनशासन भासने। हस्ते तस्य स्थिता मुक्तिरिति सूत्र निगद्यते।।
जिसकी जैनधर्म की प्रभावना के कार्यों में रुचि है,उसके हाथ में मुक्ति है,ऐसा जिनागम सूत्र का कथन है।
भासते च जगद्येन भासते जिनशासनम्। तस्य पादाम्बुजद्वयं घ्रियतां मूर्ध्नि धार्मिका:।।
जो जिनशासन की प्रभावना करता है उससे यह जगत् शोभायमान होता है। धार्मिक लोग उस महापुरुष के चरणकमलों को अपने मस्तक पर रखते हैं, अर्थात् उसको प्रणामांजलि अर्पित करते हैं। सम्यक्त्वी जीव धर्मप्राण रहता है, इससे वह सदा धर्म की अभिवृद्धि चाहता है तथा इस कार्य हेतु सदा तत्पर रहता है। धर्म पर विपत्ति आने पर वह पूर्ण शक्ति लगाकर धर्मरक्षण हेतु प्रयत्नशील रहता है। गुणभद्र स्वामी कहते हैं-
धर्मध्वंसे सतांध्वंसस्तस्माद्धर्मद्रहोद्यमान्। निवारयंति ये संता रक्षितं तै: सतां जगत् ।।
धर्म के नाश होने पर सज्जनों का नाश होता है। इससे जो धर्मद्रोही,पापियों का निवारण करते हैं, ऐसे सत्पुरुषों के द्वारा सज्जनों के जगत् का रक्षण होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान जिनेश्वर के सर्वोदय तीर्थ की प्रवृत्ति हेतु जो व्यक्ति विशिष्ट साधना में संलग्न रहता है तथा उपलब्धि होने पर उस विशिष्ट सिद्धि द्वारा प्रसिद्धि का विचार छोड़कर अहिंसा धर्म की महिमा जनमानस में प्रतिष्ठित करता है, वह व्यक्ति जिनेन्द्र भक्तों द्वारा सर्वदा वंदना का पात्र है। इसलिए हर तरह से दिगम्बर साधुओं को जिनशासन की प्रभावना करने में संलग्न रहना चाहिए। चाहे वह तप के द्वारा हो, तन्त्र के द्वारा हो या फिर मंत्र के द्वारा हो। वर्तमान में जैन गृहस्थ ही धर्मगुरुओं की निन्दा करने का दृढ़संकल्प लेकर तरह-तरह की बातें मुँह से निकालकर बेबाक होकर निन्दा करते-करते थकते नहीं जबकि आगम में साधुओं को मंत्र और व्रत दान करने की आज्ञा है। जैसा कि कहा है कि धर्मप्रभावना,परोपकार आदि की इच्छा से दे सकते हैं। मुनिराज ने ही मैनासुन्दरी के पति का कष्ट दूर होने हेतु सिद्धचक्र विधान,जाप्य आदि का अनुष्ठान बताया था। सभी व्रतों की कथाओं में भी मुनियों के द्वारा ही व्रत दिये जाने का विधान है। यदि श्रावक बिना गुरू के कोई व्रत लेते हैं तो उसका फल नहीं कहा है। मूलाचार और मूलाराधना में धर्मप्रभावना आदि के हेतु स्वयं भी मंत्रादि कर सकते हैं ऐसा कहा है। जैसा कि कंदर्पी आदि भावनाओं के वर्णन में बताया जा चुका है। धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत और भूतबलि मुनियों की योग्यता की परीक्षा हेतु मंत्र जपने को दिया था। यदि कोई साधु किसी को मिथ्यात्व से छुड़ाकर धर्म में लगाते हैं,सच्चे मंत्रादि द्वारा उसे कार्यसिद्धि का प्रलोभन देकर कुदेव आदि की भक्ति से निवृत्त करते हैं तो कोई दोष नहीं है।
(१) इतिहास की दृष्टि से युगप्रसिद्ध प्रवर्तक आदिनाथ परमेश्वर के सम्बन्धी (साला) नमि, विनमि ने धरणेन्द्र के कथन से विद्या सिद्ध की थी। भगवान मुनिसुव्रतनाथ के शासनकाल में त्रिखण्डाधिपति रावण ने विद्याएं सिद्ध की थीं जिसका वर्णन पद्मपुराण में है।आदिसम्राट भरत चक्रवर्ती ने दिग्विजयकाल में अनेक देवी-देवताओं की आराधना सिद्धि की थी।
(२) श्रेष्ठी जिनदत्त को भी विभिन्न प्रकार की विद्यायें प्राप्त थीं। जिनदत्त को ये विद्यायें विद्याधर द्वारा दहेज में प्राप्त हुईं थीं।
(३) महाबली तद्भवमोक्षगामी चरमशरीरी हनुमानजी ने विद्याबल के प्रभाव से ही लंकादहन में सफलता प्राप्त की थी।
(४) भगवान पार्श्वनाथ पर तपस्या करते समय कमठ ने जिस प्रकार भयानक उपसर्ग किया था उसका निवारण धरणेन्द्र पद्मावती ने किया था। उन्हीं धरणेन्द्र पद्मावती की बाद में पूजा होने लगी और मंत्रों द्वारा उनकी साधना की जाने लगी। यहीं से अर्थात् भगवान महावीर के पूर्व ही अलिखित मंत्रशास्त्र प्रारम्भ हो गया। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् मंत्रों द्वारा चमत्कार की ग्रन्थों में अनेक कहानियाँ अथवा उदाहरण मिलते हैं।
(५) आचार्य कुन्दकुन्द की प्रसिद्धि एवं गणना युग संस्थापक रूप में मानी जाती है। उनके नाम से ही उत्तरवर्ती परम्परा कुन्दकुन्द आम्नाय के नाम से प्रसिद्ध है, कहते हैं कि एक बार गिरनार पर्वत पर श्वेताम्बरों के साथ उनका विवाद हो गया। उन्होंने वहाँ अम्बिकादेवी के मुख से यह कहलवाया था कि ‘‘दिगम्बर निर्ग्रन्थ मार्ग ही सच्चा है।’’ उक्त कथन से ज्ञात होता है कि समयसार, प्रवचनसार जैसे महान अध्यात्म ग्रन्थों के निर्माता भी मंत्रशास्त्र के ज्ञाता ही नहीं, साधक भी थे।
(६) आचार्य मानतुंग के भक्तामर स्तोत्र की सर्वत्र प्रसिद्धि के प्रभाव से आचार्य मानतुंग को ४८ तालों से मुक्ति मिली थी। पूरा भक्तामर स्तोत्र चमत्कारपूर्ण आख्यान से जुडा हुआ है। उनके द्वारा रचित पूरा भक्तामर स्तोत्र ही मंत्र रूप है। किसी मंत्रवादी विद्वान ने भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक के पृथक-पृथक यंत्र तथा मंत्र व्याकरण के अनुसार बना दिये। भक्तामर स्तोत्र के अतिरिक्त कल्याण मन्दिर,एकीभाव आदि स्तोत्र भी चमत्कारपूर्ण आख्यानों से जुड़े हुए हैं।
(७) आचार्य अकलंकदेव दिग्विजयी शास्त्रार्थी विद्वान थे। राष्ट्रकूटी राजा सहस्रतुंग की सभा में उन्होंने सम्पूर्ण बौद्ध विद्वानों को पराजित किया था। अकलंक पर कूष्मांडिनी देवी प्रसन्न थीं जिससे ज्ञात होता है कि अकलंक भी मंत्रशास्त्र के ज्ञाता ही नहीं साधक भी थे। उन्होंने कूष्मांडिनी देवी को सिद्ध कर लिया था। उनके बारे में लिखा है कि—
तारायेन विनिर्जना घर कुटी-गूढावतारा समं। बौद्धैयो घृतपीठ-पीडित-कुदृग्देवात-सेवाज्जलि:।।
प्रायश्चित प्रिवडिध्र वारिज-रज स्नानं च यस्थाचरत् दोषाणां सुगतस्य कस्य विषयो देवाकलंक: कृति।।
मल्लिषेण की प्रशस्ति से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि अकलंक ने हिम-शीतल राजा की सभा में शास्त्रार्थ कर तारादेवी को परास्त किया था। यह द्रविड संघ के अधिपति और द्रविडगण के मुनियों में मुख्य थे और जिनागम की क्रियाओं का विधिपूर्वक पालन करते थे। पंच महाव्रत,पंच समिति और तीन गुप्तियों सें संरक्षित थे-
उनका विधिपूर्वक आचरण करते थे। ऐसा संस्कृत में निम्न श्लोक उल्लेखित है:-
द्रविड़गण समयमुख्यो जिनपति मार्गोपचित क्रियापूर्ण:। व्रत समिति गुप्तिगुणो हेलाचार्यो मुनिर्जयति।।
यह आचार्य मलयदेश में स्थित ‘हेम’ग्राम के निवासी थे। एक बार उनकी शिष्या कमलश्री को,जो समस्त शास्त्रज्ञ और श्रुत देवी के समान विदुषी थीं, कर्मवश ब्रह्म राक्षस लग गया। ऐसा विवेचन संस्कृत के ज्वालामालिनी कल्प की प्रशस्ति में आया है कि-
दक्षिणदेशे कलये हेमग्रामे मुनिर्महात्मासीत्। हेलाचार्योनाम्ना द्रविडगणधीश्वरो धीमान्।।
तच्छिष्या कमलश्री:श्रुतदेवी वा समस्त शास्त्रज्ञा। सा ब्रह्मराक्षसेन ग्रहिता रौद्रेण कर्मवशात्।।
उसकी पीड़ा को देखकर हेलाचार्य नीलगिरी के शिखर पर गए। वहाँ उन्होंने ज्वालामालिनी देवी की विधिपूर्वक साधना की। सात दिन में देवी ने उपस्थित होकर पूछा कि क्या चाहते हो? तब मुनि ने कहा, मैं कुछ नहीं चाहता। सिर्प कमलश्री को ग्रहमुक्त कर दीजिए तब देवी ने एक लोहे के पत्र पर एक मंत्र लिखकर दिया और उसकी विधि बतला दी। इससे उनकी शिष्या ग्रहमुक्त हो गई। फिर देवी के आदेश से उन्होंने ‘ज्वालामालिनी कल्प’ नाम ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ की रचना राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय की संरक्षकता में शक् सं. ८६९ (९४७ ई.) में की जैसा कि निम्न उल्लेख है-
विकमणिय परिवयि कालए, गणएवरिस सहसचउतालए।
इस उप्पण्णु भवियजण सुहयरू अंभरहिय धम्मासमयसारू।।
इससे हेलाचार्य का समय यदि उनके शिष्य प्रशिष्यादि के समय क्रम में कम से कम एक शताब्दी और पच्चीस वर्ष पूर्व माना जाय, जो अधिक नहीं है,तो हेलाचार्य के ग्रन्थ का रचना काल शक सं. ७३६ (८१४ ई.) हो सकता है।
(८) मल्लिषेण अजितसेन की शिष्य परम्परा में हुए हैं। अजितसेन के शिष्य कनकसेन हुए हैं। यह कनकसेन अजितसेन आचार्य के शिष्य थे, जो गंगवंशीय नरेश राचमल्ल और उनके मंत्री एवं सेनापति चामुण्डराय के गुरू थे। गोम्मटसार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने उनका भुवनगुरू नाम से उल्लेख किया है। कनकसेन के शिष्य जिनसेन और जिनसेन के शिष्य मल्लिषेण थे। उन्होंने जिनसेन के अनुज या सतीर्थ नरेन्द्रसेन का भी गुरु रूप से उल्लेख किया है। जैसा कि कहा है कि-
तस्यानुजश्चारु चरित्र वृत्ति: प्रख्यातकीर्तिभुवि पुण्यमूर्ति:।
नरेन्द्रसेनो जितवादिसेनो विज्ञाततत्वो जितकाम सूत्र:।।
वादिराज ने भी न्यायविनिश्चय की प्रशस्ति में कनकसेन और नरेन्द्रसेन का स्मरण किया है।१६ इससे वादिराज भी मल्लिषेण के समकालीन जान पड़ते हैं और उनके द्वारा स्मृत कनकसेन और नरेन्द्रसेन भी वही ज्ञात होते हैं। मल्लिषेण भी वादिराज के समान मठपति ज्ञात होते हैं क्योंकि इनके मंत्र-तंत्रविषयक ग्रन्थों में स्तम्भन, मोहन, वशीकरण और अंगनाकर्षण आदि के प्रयोग पाये जाते हैं। ये उभय भाषा कवि चक्रवर्ती (प्राकृत और संस्कृत भाषा के विद्वान) कविशेखर, गारुड़ मंत्रवादवेदी आदि पदवियों से अलंकृत थे। जैसा कि कहा है-
प्राकृत संंस्कृतो भय कवित्वघृता कवि चक्रवर्तिना।
उन्होंने अपने को सकलागम में निपुण,लक्षणवेदी और तर्कवेदी तथा मंत्रवाद में कुशल सूचित किया है, सो लिखा है कि-
गारूड मंत्रवाद सकलागम लक्षण तर्क वेदिना।
वे गृहस्थ शिष्यों के कल्याण के लिए मंत्र-तंत्र और रोगोपचार की प्रवृत्ति भी करते थे। वे उच्च श्रेणी के कवि भी थे। भैरव पद्मावती कल्प के अनुसार उनके सामने संस्कृत,प्राकृत का कोई भी कवि अपनी कविता का अभिमान नहीं कर सकता था। जैसा कि उनके बारे में कहा है कि-
भाषाद्वय कवितायां कवयो दर्प वहन्ति तावदिह।
ना लोक यन्ति यावत्कविशेखर मल्लिषेण मुनिम्।।
विविध विषयों के विद्वान होते हुए भी मंत्रवादी के रूप में ही उनकी विशेष ख्याति थी। यह विक्रम की ग्यारहवीं सदी के अन्त और बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ के विद्वान थे क्योंकि इन्होंने अपना महापुराण शक सं. ८६८ सन् (वि.सं. ११०४) में ज्येष्ठ सुदी ५ (श्रुतपंचमी) मूलगुन्द नामक नगर के जैन मन्दिर में रहकर पूरा किया था। ऐसा महापुराण की प्रशस्ति में लिखा है कि-
तीर्थे श्री मूलगुन्द नाम्निनगरे श्री जैनधर्मालये,
स्थित्वा श्री कविचक्रवर्तियतिप: श्री मल्लिषेणं हय:।
संक्षेपात्प्रथमानुयोग कथनं व्याख्यान्वितं शृण्वतो।
भव्यानां दुरितापहं रचितवाग्नि: शेषविद्याम्बुधि:।।१।।
वर्षैैक त्रिशताहीने सहस्त्रे शक भूभुज:
सर्वजिद्वत्सरे ज्येष्ठे सशुक्ले पंचमी दिने।।२।।
यह मुलगुन्द नगर धारवाड़ जिले की गदक तहसील से १२ मील दक्षिण पश्चिम की ओर है। यहाँ जैन मंदिर में रहते हुए इन्होंने महापुराण की रचना की थी। उसका कवि ने तीर्थरूप में उल्लेख किया है। इस समय भी वहाँ चार जैन मन्दिर हैं। इन मंदिरों में शक सं. ८२४, ८२५, ९७५,११९६,१२७५,१५९७ के शिलालेख अंकित हैं। मुनि मल्लिषेण की निम्नलिखित ६ रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनका परिचय निम्न प्रकार है-महापुराण, नागकुमार काव्य, भैरव पद्मावती कल्प, सरस्वती मंत्र कल्प, ज्वालामालिनीकल्प और कामचाण्डाली कल्प। भैरव पद्मावती कल्प-यह चार सौ श्लोकों का मंत्रशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें दश अधिकार हैं। यह बंधुषेण की संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है। इसकी राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में १५ से अधिक प्रतियाँ उपलब्ध हैं। सरस्वती कल्प-यह मंत्र शास्त्र का छोटा सा ग्रंथ है। इसके पद्यों की संख्या ७५ है एवं यह भैरव पद्मावती कल्प के साथ प्रकाशित हो चुका है। ज्वालामालिनी कल्प- इसकी सं.१५६२ की लिखी हुई एक १४ पत्रात्मक प्रति स्व. सेठ माणिकचंद जी के ग्रन्थ भण्डार में मौजूद है। कामचाण्डाली कल्प- इसकी प्रति ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन, ब्यावर में मौजूद है।
(९) इन्द्रनन्दी (ज्वालामालिनी ग्रन्थ के कर्ता) प्रस्तुत इन्द्रनन्दी योगीन्द्र वे हैं जो मंत्र शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे। यह वासवनन्दी के प्रशिष्य और बप्पनन्दी के शिष्य थे। उन्होंने हेलाचार्य द्वारा उदित हुए अर्थ को लेकर ‘ज्वालामालिनी कल्प’ नाम के मंत्रशास्त्र की रचना की है। इस ग्रन्थ में मन्त्र, ग्रहमुद्रा मण्डल, कटु, तैल, वश्यमंत्र, तन्त्र, वपन विधि, नीराजनविधि और साधन विधि नाम के दस अधिकारों द्वारा मंत्रशास्त्र विषय के महत्व का कथन दिया हुआ है। इस ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति के २२वें पद्य में ग्रन्थ रचना का पूरा इतिवृत दिया हुआ है और बतलाया गया है कि देवी के आदेश से ‘ज्वालामालिनी मत’ नाम का ग्रन्थ हेलाचार्य ने बनाया था। उनके शिष्य गंगमुनि, नीलग्रीव और वीजाब हुए। आर्यिका क्षांतिरसव्वा और विरूवद्र नाम के क्षुल्लक हुए। इस तरह गुरु परिपाटी और अविच्छिन्न सम्प्रदाय से आया हुआ। उसे कन्दर्प ने जाना और उसने गुणनन्दी नामक मुनि के लिए व्याख्यान किया और उपदेश दिया। उनके समीप उन दोनों ने उस शास्त्र को ग्रन्थत:और अर्थत: इन्द्रनन्दी मुनि के प्रति भले प्रकार कहा। तब इन्द्रनन्दी ने पहले क्लिष्ट प्रोक्त शास्त्र को हृदय में धारण कर ललित आर्या और गीतादिक में हेलाचार्य के उक्त अर्थ को ग्रन्थ परिवर्तन के साथ सम्पूर्ण जगत को विस्मय करने वाला जनहित कर ग्रन्थ रचा। अतएव प्रस्तुत इन्द्रनन्दी विक्रम की दसवीं शताब्दी के उपान्त्य समय के विद्वान है क्योंकि इन्होंने ज्वालामालिनी कल्प की रचना शक सं. ८६१ सन् ९३९ (वि.सं.९९६) में बनाकर समाप्त किया था। जैसा कि कहा है कि-
अष्टाशतस्यैकषष्ठि प्रमाण शवत्सरेष्वतीतेषु। श्री मान्यखेट कंटके पर्वण्यक्षय तृतीयायाम्।
शतदल सहितचतु: परिमाण ग्रन्थरचनायायुक्तम्। श्री कृष्णराज राज्ये समाप्तमेतन्मत देव्या:।।
इस प्रकार दिगम्बर जैन अनेक आचार्य अध्यात्मवादी होने के साथ-साथ क्रियावादी भी रहे हैं और जिनशासन की प्रभावना के लिए कृतसंकल्प भी हुए हैं। उन्होंने समय-समय पर जिनशासन की प्रभावना करके उसकी वैजयन्तिका को फहराया है जिससे जिनशासन का उत्थान हुआ है। वर्तमान में अज्ञानी लोग बिना स्वाध्याय, अध्ययन किये,बिना सोचे समझे बेबाक होकर अनर्गल शब्दों का उच्चारण करके जिनशासन को कलंकित करके उत्साहित हो रहे हैं। यह एक विचारणीय बात है। हमने कई जगह धर्म की, साधुओं की निंदा करने के रुचिवान लोगो को यद्वा तद्वा बोलते देखा है और विशेषकर आज यंत्र, मंत्र, तंत्र पर विशेष टीका टिप्पणी करते देखा है। कहते हुए सुना है कि जैन साधु को यंत्र, मंत्र, तंत्र नहीं करना चाहिए परन्तु हमने देखा है कि हिमालय समान वाक्यों को बोलने वाले लोग ही मिथ्यात्व के पोषक होते हैं और वे स्वयं जैन होने के बावजूद भी अन्य मिथ्यादृष्टि देवी-देवताओं को पूजने जाते हैं। यह कैसा और कौन सा न्याय है। हमारे यहाँ तो चौदह पूर्व जिनेन्द्र भगवान की वाणी से निरूपित हैं। जिसमें एक विद्यानुवादपूर्व भी है, जो जिनेन्द्र वाक्य है, उसमें सर्वज्ञ भगवान के अनुसार ही यंत्र, तंत्र, मंत्र आदि विद्याओं का निर्देशन है। फिर भी बिना विवेक के कुछ भी कहते हैं। उन्हें जिनागम का पूरी तरह से ज्ञान करना चाहिए और सभी विषयों पर अधिकार रखना चाहिए। हमारा जैनशासन अगर देखा जाय तो मंत्र से ही प्रारम्भ होता है जिसका नाम है ‘णमोकार मंत्र’। अगर मंत्र का स्थान जिनागम में नहीं है तो फिर इस मंत्र का उच्चारण भी नहीं होना चाहिए। वास्तव में अगर देखा जाय तो यही मंत्र सभी मंत्रों का जन्मदाता है।
दिगम्बर जैन आचार्यों की परम्परा में निमित्तज्ञानशिरोमणि श्री १०८ भद्रबाहु आचार्य से भी परिचित हैं। जिन्हें उच्च कोटि का निमित्त ज्ञान प्राप्त था और जो महामंत्रवादी थे। उनके निमित्त के बारे में शास्त्रों में उल्लेखित है कि उज्जैनी नगर के अन्तर्गत उत्तर भारत में श्री भद्रबाहु स्वामी २४००० शिष्यों के साथ विराजमान थे। एक रोज आहार को जाते हुए एक स्थान पर बाहर फणों का विशाल सर्प मिला और वह फन उठाकर आगे बढ़ने से रोकने लगा, तो आचार्य भद्रबाहु स्वामी आगे बढ़े। फिर क्या देखते है कि एक घर में बालक पालने में झूलते हुए बोलने लगा कि ‘‘तुम यहाँ से जाओ जाओ’’ इस निमित्त से भद्रबाहु स्वामी ने समझा था कि अब आने वाले समय में उत्तर भारत में १२ वर्ष का अकाल पड़ने वाला है इसलिए वे बिना आहार लिये ही लौट गये। ऐसे महान निमित्तज्ञानी भद्रबाहु आचार्य द्वारा कही गयी ‘भद्रबाहु संहिता’ में रोगी के जीवनकाल का समय जानने के लिए मंत्र साधनापूर्वक विधि बतलाई है। उसमें लिखा है कि-
अभिमन्त्रस्तत्र तनु: तच्चरणैर्मापयेच्च सन्हायायाम्।
अपि ते पुन: प्रभाते सूत्रे न्यूने हि मासमायुष्कम् ।।
सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में एक प्रभावना नाम का अंग है जो कि सम्यग्दृष्टि का एक मुख्य अंग है। अब यह ध्यान देना है कि सम्यग्दृष्टि गृहस्थ ही होगा ? क्या साधु नहीं हो सकता ? वास्तव में अगर देखा जाय तो साधु ही सम्यग्दृष्टि है, अभी गृहस्थ के सम्यग्दर्शन की वास्तविकता का कोई पता ठिकाना ही नहीं है क्योंकि हमने जो दिगम्बर जैन हैं और यंत्र, मंत्र का निषेध करते हैं, उन्हें अन्य मिथ्यादृष्टि देवी-देवताओं के देवालय पर माथा टेकते देखा है इसलिए आज वर्तमान में तो जिनशासन की प्रभावना अन्य किसी के द्वारा नहीं हो सकती है इसलिए प्रभावना हेतु अमृतचन्द्र आचार्य और समन्तभद्र आचार्य ने कहा है कि रत्नत्रय के द्वारा ही आत्मा की प्रभावना करनी चाहिए। जिनागम में उदाहरण है कि मथुरा के राजा पूतिगंध की रानी उर्विला ने जब देखा कि आष्टान्हिक पर्व में बुद्धदासी का रथ पहले निकलेगा। उसने उपवास की प्रतिज्ञा करके क्षत्रिय गुफा में रहने वाले सोमदत्त और वज्रकुमार मुनि के पास जाकर प्रार्थना की। तभी मुनि वन्दना हेतु दिवाकरदेव आदि बहुत से विद्याधर (जिनके यहाँ वज्रकुमार का पालन हुआ था) आये। वज्रकुमार मुनि ने उनसे कहा कि आप लोग विद्या के बल से उर्विला रानी की इच्छानुसार जिनेन्द्रदेव का रथ पहले निकालिये, इन लोगों ने वैसा ही किया जिससे कि आज तक प्रभावना अंग में वज्रकुमार मुनि की प्रसिद्धि हो रही है।
मंत्र के तीन अंग होते हैं:
(१) रूप (मंत्र की ध्वनियों का सन्निवेश),
(२) बीज (मंत्र की ध्वनियों में निहित शक्ति) और
(३) फल (मंत्र के द्वारा होने वाली किसी वस्तु की प्राप्ति)
उपरोक्त जानकारी के साथ मंत्र साधना की विधि भी आचार्यों ने बतलाई है।सबसे पहले जिस मंत्र की साधना करना है उस मंत्र के अक्षरों की तिगुना करके अपने नाम के अक्षरों को उनमें जोड़ देवे। फिर उसमें १२ का भाग देवें । फल निम्न प्रकार समझे-५ या ६ बचे तो मंत्र सिद्ध होगा, ९ या १० बचे तो देर से सिद्ध होगा, ७ या ११ बचे तो भी ठीक है, ८ या शून्य (०) बचे तो मंत्र सिद्ध नहीं होगा। यदि मंत्र सिद्ध करना ही है तो ‘ह्रीं, श्रीं, क्लीं’ इन तीन बीजाक्षरों में से किसी को भी मंत्र में यथास्थान सम्मिलित करने से सब दोष दूर हो जाते हैं तथा नियम से मंत्र सिद्ध हो जाता है। मंत्र शास्त्र में मंत्र लिखा है फिर भी मंत्र विधि जानने वालेसे उसके विषय में आवश्य पूछना चाहिए।। मंत्र साधना के समय शुद्ध घृत का दीपक रहे। साथ ही अगरबत्ती भी जलती रहे । मंत्र साधना के प्रारम्भ में सकलीकरण करने का विधान है। निर्विध्न इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए अपनी रक्षा हेतु जो विविध मंत्रों के रूप में सम्यग्दृष्टि देवों का स्मरण कर दिशा बन्धन आदि किया जाता है, उसे सकलीकरण कहते है। मंत्र सिद्धि के प्रथम दिन पंचोपचारी पूजा भी करनी चाहिए। आह्वानन, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन की विधिपूर्वक की गई पूजन पंचोपचारी कहलाती है। पूरक से आह्वानन, रेचक से विसर्जन और शेष के कर्म कुम्भक प्राणायाम से करने चाहिए। जप की संख्या एक बार में कम से कम १०८ होनी चाहिए। फिर प्रतिदिन संकल्पानुसार ४, ३, २ या १ माला प्रात:, मध्यान्ह और अद्र्धरात्रि अवश्य करें। संकल्पानुसार जाप्य पूर्ण होने पर हवन व पूजन क्रिया की जावे । हवन में अन्य विधि के साथ इस बात का विशेष ध्यान रखा जावे कि जिस मंत्र की आराधना की गई है उसी मंत्र की दशांश आहुति दी जावे।
मंत्र की साधना के लिए जाप तीन प्रकास से किया जाता है-
१.वाचक- जाप में शब्दों का उच्चारण किया जाता है अर्थात् मंत्र को बोल-बोलकर जाप किया जाता है।
२. उपांशु-इसमें भीतर से शब्दोच्चारण की क्रिया होती है पर कण्ठ स्थान पर मंत्र के शब्द गूँजते रहते है। मुख से नहीं निकल पाते। इस विधि में शब्दोच्चारण की क्रिया के लिए बाहरी और भीतरी प्रयत्न किया जाता है।
३.मानस- जाप में बाहरी और भीतरी शब्दोच्चारण का प्रयास रूक जाता है। हृदय में मात्र इष्ट का ही चिन्तन होता रहता है।
उक्त तीन प्रकार के जाप क्रमश: जघन्य, मध्यम और उत्तम हैं। साधक जिससे भी चाहे जाप कर सकता है। जो विशेषकर स्वात्मा के कल्याण के लिए णमोकारादि मंत्रों का जाप करना चाहता है उसे निम्न आठ प्रकार की शुद्धियों का ध्यान रखना आवश्यक है:-
(१) द्रव्यशुद्धि-पाँचों इन्द्रियों तथ मन को वश कर, कषाय और परिग्रह का यथाशक्ति त्याग करके दयालुचित हो जाप करना।जाप करने वाले को यथाशक्ति अपने अन्तरंग के काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान, माया आदि विकारों को दूर कर ही जाप करना आवश्यक है। यहाँ द्रव्यशुद्धि का अभिप्राय साधक की अंतरंग शुद्धि से है।
(२) क्षेत्र शुद्धि-निराकुल स्थान जहाँ शोरगुल न हो तथा डांस, मच्छर आदि बाधक जन्तु न हो ‘मन में क्षेभ’ उत्पन्न करने वाले उपद्रव एवं अधिक शीत, उष्ण की बाधा श्न हो, एकान्त निर्जन स्थान जाप करने के लिये श्रेष्ठ है।घर के किसी एकान्त स्थान में जहाँ पूर्ण शान्ति रह सके वहाँ पर जाप किया जा सकता है।
(३) समय शुद्धि-प्रात: मध्यान्ह, संध्या और अद्र्धरात्रि के समय २,४ और ६ घड़ी तक जाप करना चाहिए। एक घड़ी २४ मिनट की मानी गई है।
(४) आसन शुद्धि-मौनपूर्वक काष्ठ, शिला, भूमि, चटाई या शीतल पट्टी पर पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर मुख करके पद्मासन, खड्गासन या अद्र्धपद्मासन से क्षेत्र तथा काल का प्रमाण करके जाप करना।
(५) विनय शुद्धि- जाप करनके के लिए नम्रतापूर्वक भीतर का अनुराग उत्साह रखना तथा जिस आसन पर जाप करना हो उस आसन को सावधानीपूर्वक साफ करना।
(६) मन: शुद्धि- मन की चचंलता व विचारों की गन्दगी का त्याग कर जाप करना।
(७) वचन शुद्धि- मंत्र के उच्चारण में अशुद्धि न होना एवं यथासम्भव उच्चारण मन में ही करना तथा धीरे-धीरे साम्य भावपूर्वक मंत्र का जाप करना।
(८) काय शुद्धि- शौचादि शंकाओं से निवृत्त होकर सावधानीपूर्वक स्नानादि द्वारा शरीर शुद्ध करके हलन चलन क्रिया रहित हो जाप करना।
शास्त्रों में जाप करने की तीन विधियाँ निम्न प्रकार हैं, उनका ज्ञान होना आवश्यक है-
(१) कमल जाप-अपने हृदय में आठा पाँखुड़ी के श्वेत कमल का विचार करें। फिर उसकी प्रत्येक पाँखुड़ी पर पीतवर्ण १२/१२ बिन्दुओं की कल्पना करें तथा मध्य के गोलवृत (कणर््िाका) में बारह बिन्दुओं का चिन्तवन करें। इन १०८ बिन्दुओं पर क्रमश: मंत्र का जाप करना चाहिए।
(२) हस्तांगुलि जाप-दाहिने हाथ की मध्यमा (बीच की ) अँगुली के बीच के पोरुये पर मंत्र को पूरा पढ़े फिर उसी अँगुली के ऊपर पोरूये पर फिर तर्जनी (अंगूठे के पास) अँगुली के ऊपरी पौरुये पर मंत्र पढ़े फिर उसी अँगुली के बीच के पोरुये पर फिर नीचे के पोरुये पर मंत्र पढ़े। तत्पश्चात् बीच की अँगुली के निचले पोरुये पर मंत्र पढ़े फिर अनामिका (सबसे छोटी अँगुली के पास वाली) अँगुली के निचले, बीच के तथा ऊपर के पोरुये पर क्रमश: मंत्र पढ़े। इस प्रकार एक बार में ९ बार मंत्र पढ़ा जाता है। इस विधि से १२ बार पूरा मंत्र पढ़ने पर १०८ जाप की एक माला हो जाती है।
(३) मालाजाप- सोने, चाँदी, स्फटिक, मूँगे या कन्या के हाथ से कते सूत के १०८ दानों की माला से प्रत्येक दाने पर पूरा मंत्र पढ़ना।
उपरोक्त तीन विधियों में कमल जाप की विधि उत्तम है क्योंकि इसमें उपयोग अधिक स्थिर रहता है। साधक यथाशक्ति किसी भी विधि से मंत्र साधना कर सकता है। उपरोक्त ऐतिहासिक उदाहरणों से निर्विवादित रूप से स्वीकार करना होगा कि आगम में यंत्र, मंत्र, तंत्र का अस्तित्व प्राचीन है एवं उनकी शक्ति भी उल्लेखनीय है। मंत्रों के प्रकार, प्रयोजन व प्रभाव अनेक हैं। उनको विधिवत् समझने व जीवन में उतारने का संकल्प होने पर ही मंत्र कार्यकारी होगा। जिस प्रकार रसायन शास्त्र में विभिन्न पदार्थों के अनुपातिक मिश्रण से अद्भुत क्रियाएँ और रूप प्रकट होते हैं उसी प्रकार शब्दों की सही शक्ति समझकर उनका सही मिश्रण करने से उनमें शांति, आकर्षण, वशीकरण, उच्चाटन एवं रचनात्मक शक्ति पैदा की जाती है। वैसा ही मंत्र बन जाता है। मंत्र सूक्ष्म रूप है बीज रूप है, जिससे बाहृ वस्तुरूपी वृक्ष उत्पन्न होता है, तो दूसरी ओर लोकोत्तर सुख के द्वार भी खुलते हैं। मंत्र की सत्ता अपने आपमें सर्वोपरि है और इसका प्रभाव निश्चित और स्थायी होता है। मंत्र आत्मज्ञान और परमात्मा सिद्धि का मूल कारण है। परन्तु यह तभी संभव हो सकता है जब ज्ञान हृदयस्थ हो जाए और आचरण में ढल जाए।