दिगम्बर मुनियों में मुख्यरूप से आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन भेद होते हैं। इन तीनों का संक्षिप्त लक्षण देखिये-
आचार्य परमेष्ठी-‘‘जो पाँच प्रकार के आचारों का स्वयं आचरण कहते हैं और दूसरे साधुओं से आचरण कराते हैं वे ‘आचार्य’ कहलाते हैं। जो चौदह विद्याओं के पारंगत, ग्यारह अंग के धारी अथवा आचारांगमात्र के धारी हैं अथवा तत्कालीन स्वसमय और परसमय में पारंगत हैं, मेरु के समान निश्चल, पृथ्वी के समान सहनशील, समुद्र के समान दोषों को बाहर फेंक देने वाले और सात प्रकार के भय से रहित हैं, देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, जो शिष्यों के संग्रह और उन पर अनुग्रह करने में कुशल हैं, सूत्र के अर्थ में विशारद हैं, यशस्वी हैं तथा सारण-आचरण, वारण-निषेध और शोधन-व्रतों की शुद्धि करने वाली क्रियाओं में उद्यत (उद्यमशील) हैं वे ही आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं१।”
संघ के आचार्य जब सल्लेखना ग्रहण के सम्मुख होते हैं तब वे अपने योग्य शिष्य को विधिवत् चतुर्विधसंघ के समक्ष आचार्यपद देकर नूतन पिच्छिका समर्पित कर देते हैं और ऐसा कहते हैं कि ‘‘आज से प्रायश्चित्त शास्त्र का अध्ययन करके शिष्यों को दीक्षा, प्रायश्चित्त आदि आचार्य का कार्य तुम्हें करना है।” उस समय गुरु उस आचार्य को छत्तीस गुणों के पालन का उपदेश देते हैं।
आचारवत्त्व आदि ८, १२ तप, १० स्थितिकल्प और ६ आवश्यक ये छत्तीस गुण होते हैं।
आचारवत्त्व आदि ८ गुण-आचारवत्त्व, आधारवत्त्व, व्यवहारपटुता, प्रकारकत्व, आयापायदर्शिता, उत्पीलन, अपरिस्रवण और सुखावहन।
आचार के पांच भेद हैं-दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार।
१. दर्शनाचार-जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना अथवा सम्यक्त्व को पचीस मलदोष रहित-निर्दोष करना यह दर्शनाचार है। दर्शनशुद्धि के आठ भेद हैं-
नि:शंकित-तत्त्वों में शंका नहीं करना।
नि:कांक्षित-उभयलोक संबंधी भोगों की आकांक्षा नहीं करना।
निर्विचिकित्सा-अस्नानव्रत, नग्नता आदि में अरुचि नहीं करना।
अमूढ़दृष्टि-मूढ़ता या मिथ्या परिणामों से रहित होना।
उपगूहन-चतुर्विध संघ के दोषों का आच्छादन करना।
स्थितिकरण-रत्नत्रय से च्युत होने वाले को उपदेशादि द्वारा स्थिर करना।
वात्सल्य-साधर्मियों में अकृत्रिम स्नेह रखना।
प्रभावना-‘‘दान, पूजन, व्याख्यान, वाद, मंत्र, तंत्र आदि से मिथ्यामतों का निरसन कर अर्हंत के शासन को प्रकाशित करना१।”
‘‘ये नि:शंकित आदि आठ गुण हैं इन्हें दर्शनशुद्धि कहते हैं। इनके विपरीत इतने ही अतिचार हो जाते हैं२।
जिससे आत्मा का यथार्थ स्वरूप जाना जाता है, जिससे मनोव्यापार रोका जाता है और जिससे आत्मा कर्ममल से रहित होती है वही सम्यग्ज्ञान है। उसको आठ भेद सहित पालन करना ज्ञानाचार है। ये भेदज्ञान की आठ शुद्धिरूप है।
काल शुद्धि-स्वाध्याय की बेला में पठन, सच्चे शास्त्रों को पुन: पुन: पढ़ना-अभ्यास करना, व्याख्यान आदि करना कालशुद्धि है।
विनय शुद्धि-मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक अत्यर्थ विनय से श्रुत का पठन-पाठन करना।
उपधान शुद्धि-कुछ नियम लेकर अर्थात् ‘जब तक यह ग्रन्थ पूरा न हो तब तक मेरा दूध का त्याग है’ इत्यादि नियम लेकर पढ़ना।
बहुमान शुद्धि पूजा-सत्कारपूर्वक पठन आदि करना।
अनिन्हव शुद्धि-जिस गुरु से शास्त्र पढ़ा है उसका नाम प्रकाशित करना अथवा जिस ग्रन्थ से ज्ञान हुआ है उसको नहीं छिपाना।
व्यंजन शुद्धि-वर्ण, पद, वाक्यों को शुद्ध पढ़ना।
अर्थशुद्धि-पदों का अनेकांत रूप अर्थ करना।
तदुभय शुद्धि-शब्द और अर्थ को शुद्धिपूर्वक पढ़ना।
इस प्रकार कालादि शुद्धि के भेद से ज्ञानाचार के आठ भेद होते हैं।
पाप क्रिया से निवृत्ति चारित्र है। उसके पांच भेद हैं-प्राणिवध, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह। इन पांच पापों का सर्वथा त्याग कर देना ये पाँच चारित्राचार हैं।
‘‘पाँच महाव्रतों की रक्षा के लिये रात्रिभोजन का भी त्याग किया जाता है। इसे छठा अणुव्रत भी कहते हैं।३” अन्यत्र-साधुओं के प्रतिक्रमण में भी कहा है-‘रात्रिभोजन से विरक्त होना छठा अणुव्रत हैै’।४
अथवा पांच समिति और तीन गुप्तिरूप आठ प्रकार का चारित्राचार है।
‘‘चंपापुरी, पावापुरी, गिरनार आदि तीर्थयात्रा हेतु, साधुओं के संन्यास निमित्त, देव, धर्म आदि के हेतु अथवा शास्त्रों को सुनने-सुनाने के लिये अथवा प्रतिक्रमण आदि सुनने-सुनाने के लिये, अपररात्रिक स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और देववंदना करके सूर्योदय हो जाने पर प्रासुकमार्ग में चार हाथ आगे जमीन देखते हुए गमन करना ईर्यासमिति है१।” क्योंकि साधु किसी भी लौकिक कार्य के लिए या व्यर्थ गमन नहीं करते हैं ऐसे ही शास्त्रानुकूल बोलना, आहार करना, कुछ वस्तु रखना, उठाना और प्रासुक स्थान में मलमूत्रादि विसर्जन करना ये पांच समितियाँ हैं।
अशुभ मन, वचन और काय का गोपन करना अर्थात् मन, वचन, काय की अशुभ प्रवृत्ति का त्याग करना गुप्ति है अथवा स्वाध्याय और ध्यान में तत्पर हुए मुनि के जो मन, वचन, काय का संवरण होता है उसी का नाम गुप्ति है। इसके मन, वचन, काय की अपेक्षा तीन भेद हो जाते हैं।
इन्हें ‘‘अष्टप्रवचनमातृका’ भी कहते हैं क्योंकि ये मुनियों के रत्नत्रय की रक्षा करती हैं जैसे कि माता अपने पुत्र की रक्षा करती है।२”
पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकार का चारित्र भी माना है, इनव्ाâा पालन करना-कराना ही चारित्राचार है।
‘‘पांच महाव्रतों की रक्षा के लिए रात्रिभोजननिवृत्तिरूप छठा अणुव्रत, आठ प्रवचन मातृकाएं और पच्चीस भावनाएँ मानी गयी हैं३।”
उसमें से सभी का लक्षण स्पष्ट है। अब पाँच व्रतों की पच्चीस भावनाओं को कहते हैं-
भावना-व्रतों की पूर्णता हेतु या स्थिरता हेतु जो पुन: पुन: भावित की जाती हंै, पाली जाती हैं वे भावनाएँ हैं। पाँच व्रतों में प्रत्येक की पाँच-पाँच भावनाएँ होने से पच्चीस भावनाएँ हो जाती हैं।
‘‘जो शरीर और इन्द्रियों को तपाता है दहन करता है, वह तप है४।” यह कर्मों को दहन करने में समर्थ है। इसके दो भेद हैं बाह्य और अभ्यंतर। इन दोनों के भी छह-छह भेद होने से बारह भेद हो जाते हैं। इन बारह प्रकार के तपों का अनुष्ठान करना तप आचार है।
अपने बल और वीर्य को न छिपा कर जो साधु यथोक्त आचरण में अर्थात् प्राणिसंयम-इन्द्रियसंयम के पालन और तपश्चरण में अपने आपको लगाते हैं, कायरता प्रगट न करके हमेशा चारित्र के आचरण में और तप में उत्साहित रहते हैं। यही वीर्याचार है।
इन पांच आचारों का पालन करना-कराना ही आचारवत्त्व है।
२. आधारवत्त्व-जिस श्रुतज्ञानरूपी संपत्ति की कोई तुलना नहीं कर सकता उसको, अथवा नौ पूर्व, दशपूर्व या चौदह पूर्व तक के श्रुतज्ञान को अथवा कल्पव्यवहार के धारण करने को आधारवत्त्व कहते हैं।
३. व्यवहारपटुता-व्यवहार नाम प्रायश्चित्त का है, वह पांच प्रकार का है। इसकी कुशलता ही व्यवहारपटुता है। जिन्होंने अनेक बार प्रायश्चित्त देते हुए देखा है, स्वयं ग्रहण किया है, दूसरों को दिलवाया है वे ही व्यवहारपटु हैं।
व्यवहार-प्रायश्चित्त के ५ भेद—आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत हैं।
ग्यारह अंगशास्त्रों में प्रायश्चित्त वर्णित है अथवा उनके आधार से जो प्रायश्चित्त दिया जाता है उसको आगम कहते हैं।
चौदहपूर्व में बताये हुए या तदनुसार दिये हुए प्रायश्चित्त को श्रुत कहते हैं। कोई आचार्य समाधिमरण के लिये उद्यत हैं, उनकी जंघा का बल घट गया वे दूर तक विहार नहीं कर सकते, वे आचार्य किसी योग्य आचार्य के पास अपने योग्य ज्येष्ठ शिष्य को भेजकर उसके द्वारा ही अपने दोषों की आलोचना कराकर प्रायश्चित्त मंगाकर ग्रहण करते हैं उसको आज्ञा कहते हैं।
कोई आचार्य उपर्युक्त स्थिति में हैं और उनके पास शिष्यादि भी नहीं हैं तो वे स्वयं अपने दोषों की आलोचना कर पहले के अवधारित (जाने हुए) प्रायश्चित्त को ग्रहण करते हैं वह धारणा प्रायश्चित्त है।
बहत्तर पुरुषों की अपेक्षा जो प्रायश्चित्त बताया जाता है उसको जीत कहते हैं। इनमें निष्णात आचार्य व्यवहारपटु कहलाते हैं।
४. प्रकारकत्व-जो समाधिमरण कराने में या उसकी वैयावृत्य करने में कुशल हैं उन्हें परिचारी अथवा प्रकारी कहते हैं यह गुण प्रकारकत्व कहलाता है।
५. आयापायदर्शिता-आलोचना करने के लिये उद्यत हुए क्षपक (समाधिमरण करने वाले साधु) के गुण और दोषों के प्रकाशित करने को आयापायदर्शिता अथवा गुणदोषप्रवक्तृता कहते हैं। ६. उत्पीलन-कोई साधु या क्षपक यदि दोषों को पूर्णतया नहीं निकालता है तो उसके दोषों को युक्ति और बल से बाहर निकाल लेना उत्पीलन गुण है। ७. अपरिस्रवण-शिष्य के गोप्य दोष को सुनकर जो प्रकट नहीं करते हैं उनके अपरिस्रवण गुण होता है।
८. सुखावहन-क्षुधादि से पीड़ित साधु को जो उत्तम कथा आदि के द्वारा शांत करके सुखी करते हैं वे सुखावह गुण के धारी हैं।
इस प्रकार इन आठ गुण के धारी आचार्य आचारी, आधारी, व्यवहारी, प्रकारक, आयापायदिक्, उत्पीडक, अपरिस्रावी और सुखावह होते हैं।
कर्म निर्जरा के लिए किया गया तपश्चरण ‘तप’ कहलाता है। तप के दो भेद हैं-बाह्य और आभ्यन्तर।
बाह्य तप के छह भेद हैं-अनशन-उपवास करना, अवमौदर्य-भूख से कम खाना, वृत्तपरिसंख्यान-घर, गली अथवा अन्य पदार्थों का नियम करके आहार ग्रहण करना,
रसपरित्याग- घी, दूध आदि रसों में एक, दो या सभी रसों का त्याग करना।
विविक्त शय्यासन-एकान्त स्थान में या गुरु के सानिध्य में शयन आसन करना।
कायक्लेश-कुक्कुट आसन, पद्मासन, खड्गासन, प्रतिमायोग आदि से ध्यान करना।
अभ्यन्तर तप के छह भेद हैं-
प्रायश्चित्त-व्रत आदि में दोष लग जाने से गुरु से उसका दण्ड लेना। विनय-रत्नत्रयधारकों की विनय करना, वैयावृत्य-आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि व्रतीजनों की सेवा करना, स्वाध्याय-शास्त्रों का पठन-पाठन आदि करना, व्युत्सर्ग-पापों के कारणरूप उपधि—परिग्रह का त्याग करना, ध्यान-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत आदि प्रकार से ध्यान करना।
स्थितिकल्प के दश भेद
आचेलक्य, औद्देशिकपिंडत्याग, शय्याधरिंपडत्याग, राजकीयिंपडत्याग, कृतिकर्म, व्रतारोपण योग्यता, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मासैकवासिता और योग, इस प्रकार स्थितिकल्प गुण के दश भेद हैं।
१. आचेलक्य-वस्त्रादि संपूर्ण परिग्रह के अभाव को अथवा नग्नता को आचेलक्य कहते हैं। नग्न दिगंबर साधु लंगोटीमात्र को भी नहीं रखते हैं चूंकि उसे धोना, सुखाना, संभालना, फटने पर याचना करना आदि अनेक आकुलताएँ होती हैं जिससे ध्यान-अध्ययन की पूर्णतया सिद्धि असंभव है तथा तीर्थंकरों के आचरण का अनुसरण भी नग्नता से ही होता है।
२. औद्देशिकपिंड त्याग-जो मुनियों के उद्देश्य से तैयार किया गया है ऐसे भोजन, पान अर्थात् पेय पदार्थ आदि द्रव्य को ग्रहण नहीं करना औद्देशिक पिंड आहार का त्याग गुण होता है।
३. शय्याधरपिंड त्याग-वसतिका बनवाने वाला, उसका संस्कार करने वाला और वहाँ पर व्यवस्था आदि करने वाला ये तीनों ही शय्याधर शब्द से कहे जाते हैं। इनके आहार, उपकरण आदि न लेने को शय्याधरपिंड त्याग कहते हैं। अभिप्राय यह है कि किसी ने वसतिका दान किया, साधु वहां ठहरे पुन: ‘‘यदि मैं आहार नहीं दूँगा तो लोग क्या कहेंगे कि इसने साधु को ठहरा तो लिया किंतु उन्हें आहार नहीं दिया” इत्यादि भावना से संक्लिष्ट परिणाम करके आहार देने से दोषास्पद है। यदि कोई गृहस्थ मान कषाय या भय, संकोच आदि रहित होकर मात्र पात्रदान की भावना से वसतिका दान देकर आहारदान भी देता है तो उसमें कोई दोष नहीं है।
कोई आचार्य इसको शय्यागृहपिंडत्याग कहकर इसका ऐसा अर्थ करते हैं कि विहार करते हुए मार्ग में रात्रि को जिस गृह या वसति में ठहरें या शयन आदि करें वहां दूसरे दिन आहार नहीं लेना अथवा वसतिका संबंधी द्रव्य के निमित्त से जो भोजन तैयार किया गया हो उसको नहीं लेना यह शय्यागृहपिंडोज्झा गुण है।
४. राजकीय पिंड त्याग-इक्ष्वाकु कुल आदि में जन्में अथवा अन्य राजाओं के यहाँ आहार नहीं लेना राजकीयपिंडत्याग गुण है। अभिप्राय यह है कि ऐसे घरों में भयंकर कुत्ते आदि जन्तु घात कर सकते हैं या पशु-गाय, भैंस आदि या गर्विष्ठ नौकर-चाकर आदि अपमान कर सकते हैं इत्यादि बाधक कारणों के प्रसंग से राजाओं के यहाँ का आहार नहीं लेना चाहिये। उपर्युक्त दोषों से रहित यदि होवे तो लेने में कोई दोष नहीं है। भरतसम्राट् आदि महाराजाओं के यहाँ तो आहार होते ही थे।
५. कृतिकर्म-विधिवत् आवश्यकों का पालन करना अथवा गुरुजनों का विनयकर्म करना कृतिकर्म है।
६. व्रतारोपणयोग्यता-शिष्यों में व्रतों के आरोपण करने की योग्यता होना यह छठा गुण है।
७. ज्येष्ठता-जो जाति, कुल, वैभव, प्रताप और कीर्ति की अपेक्षा गृहस्थों में महान् रहे हैं, जो ज्ञान और चर्या आदि में उपाध्याय और आर्यिका आदि से भी महान् हैं, क्रियाकर्म के अनुष्ठान में भी श्रेष्ठ हैं उनके यह सातवाँ गुण होता है।
८. प्रतिक्रमण-प्रतिक्रमण के नाना भेदों को समझने वाले और विधिवत् करने-कराने वाले आचार्य इस गुण के धारी होते हैं। ९. मासैकवासिता-जिनके तीन दिन-तीन रात्रि तक एक ही स्थान में या ग्राम में रहने का व्रत हो उनके यह मासैकवासिता गुण होता है। चूंकि अधिक दिन एक जगह रहने से उद्गम आदि, क्षेत्र में ममता, गौरव में कमी, आलस, शरीर में सुकुमारता, भावना का अभाव, ज्ञातभिक्षा का ग्रहण आदि दोष होने लगते हैं।
मूलाराधना में इसका ऐसा अर्थ किया है कि ‘‘चातुर्मास के एक महीने पहले और पीछे उसी ग्राम में रहना।” १०. योग-वर्षाकाल में चार महीने एक जगह रहना। चूंकि वृष्टि के निमित्त से त्रस-स्थावर जीवों की बहुलता हो जाती है, इससे विहार में असंयम होगा, वृष्टि से ठंडी हवा चलने से आत्मविराधना, शरीर में कष्ट, व्याधि, मरण आदि आ जावेंगे। जल, कीचड़ आदि के निमित्त से गिर जाना आदि संभव है। इत्यादि कारणों से चातुर्मास में एक सौ बीस दिन तक एक ग्राम में रहना यह उत्सर्ग (उत्कृष्ट) मार्ग है। अपवाद मार्ग की अपेक्षा विशेष कारण उपस्थित होने पर अधिक अथवा कम दिन भी निवास किया जा सकता है। अधिक में आषाढ़ शुक्ला दशमी से कार्तिकशुक्ला पूर्णिमा के ऊपर तीस दिन तक निवास किया जा सकता है। अत्यधिक जलवृष्टि, श्रुत का विशेष लाभ, शक्ति का अभाव और किसी की वैयावृत्ति आदि के विशेष प्रसंग आ जाने पर, इन प्रयोजनों के उद्देश्य से एक स्थान में अधिक दिन निवास किया जा सकता है। यह उत्कृष्ट काल का प्रमाण है।
इस प्रकार से आचार्य के ये स्थितिकल्प नाम के दश गुण बताये हैं।
छह आवश्यक-१ समता, २. स्तव, ३. वंदना, ४. प्रतिक्रमण, ५. प्रत्याख्यान और ६. व्युत्सर्ग, ये छह आवश्यक क्रियायें हैं।
इस प्रकार आचारवत्त्वादि ८ ± तपश्चरण १२±, स्थितिकल्प १० ± और आवश्यक ६·३६ गुणों का पालन करने वाले आचार्य परमेष्ठी होते हैं।
अन्यत्र अन्य प्रकार से भी बताये हैं। यथा ‘‘१२ तप, १० धर्म, ५ आचार, ६ आवश्यक और ३ गुप्ति ये आचार्य के ३६ गुण होते हैं।”
१२ तप-१. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्तपरिसंख्यान, ४. रस परित्याग, ५. विविक्तशय्यासन, ६. कायक्लेश, ७. प्रायश्चित, ८. विनय, ९. वैय्यावृत्य, १०. स्वाध्याय, ११. व्युत्सर्ग, १२. ध्यान।
उत्तम क्षमा-आहार के लिए अथवा विहार के लिए साधु भ्रमण करते हैं, उस समय कोई दुष्टजन अपशब्द, उपहास अथवा तिरस्कार कर देते हैं या मारपीट देते हैं तो भी मन में कलुषता का न होना उत्तम क्षमा है।
उत्तम मार्दव-जाति, कुल, विद्या आदि का घमंड नहीं करना उत्तम मार्दव है।
उत्तम आर्जव-मन, वचन और काय को सरल रखना आर्जव है।
उत्तम शौच-प्रकर्षप्राप्त लोभ का त्याग करना उत्तम शौच है।
उत्तम सत्य-अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना।
उत्तम संयम-प्राणियों की हिंसा और इन्द्रियों के विषयों का परिहार करना।
उत्तम तप-कर्मक्षय हेतु बारह प्रकार का तपश्चरण करना।
उत्तम त्याग-संयत के योग्य ज्ञान आदि का दान करना।
उत्तम आकिंचन्य-जो शरीर आदि हैं उनमें भी संस्कार को दूर करने के लिए ‘यह मेरा है’ इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना।
उत्तम ब्रह्मचर्य-स्त्रीमात्र का त्याग करना ‘‘अथवा स्वतंत्रवृत्ति का त्याग करने के लिए गुरुकुल में निवास करना ब्रह्मचर्य है१।’’
ख्याति, पूजा आदि की अपेक्षा िबना आत्मविशुद्धि हेतु इन धर्मों को पालने के लिए इनमें उत्तम विशेषण लगाया गया है।
पाँच आचार—१. दर्शनाचार, २. ज्ञानाचार, ३. वीर्याचार, ४. चारित्राचार, ५. तप आचार
छह आवश्यक—१. समता, २. स्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. प्रत्याख्यान, ६. व्युत्सर्ग।
तीन गुप्ति—१. मनगुप्ति, २. वचनगुप्ति, ३. कायगुप्ति।
‘‘चौदह विद्यास्थान-चौदह पूर्व के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं अथवा तत्कालीन परमागम के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं। वे संग्रह और अनुग्रह आदि गुणों को छोड़कर मेरु के समान नििंश्चतता आदि रूप आचार्य के गुणों से समन्वित होते हैं१।’’
अर्थात् उपाध्याय परमेष्ठी केवल पठन-पाठन में ही लगे रहते हैं। बाकी शिष्यों का संग्रह करना, उन्हें दीक्षा देना, प्रायश्चित्त देना, उनका संरक्षण करना, संघ की व्यवस्था संभालना आदि कार्य आचार्य के हैं, सो ये नहीं करते हैं
अन्यत्र उपाध्याय के मुख्य पचीस गुण माने हैं-
‘‘ग्यारह अंग और चौदह पूर्व को आप पढ़ते हैं और अन्य को पढ़ाते हैं। ये पचीस गुण उपाध्याय परमेष्ठी के होते हैं।’’
ग्यारह अंग-१. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ६. ज्ञातृकथांग ७. उपासकाध्ययनांग ८. अंत:कृद्दशांग ९. अनुत्तरोप्पाददशांग १०. प्रश्नव्याकरणांग ११. विपाकसूत्रांग।
चौदह पूर्व-१. उत्पादपूर्व २. अग्रायणीयपूर्व ३. वीर्यानुवादपूर्व ४. अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व ५. ज्ञानप्रवादपूर्व ६. कर्मप्रवादपूर्व ७. सत्यप्रवादपूर्व ८. आत्मप्रवादपूर्व ९. प्रत्याख्यानपूर्व १०. विद्यानुवादपूर्व ११. कल्याणवादपूर्व १२. प्राणावायपूर्व १३. क्रियाविशालपूर्व और १४. लोकबिन्दुसारपूर्व।
आज इन अंगपूर्वों का ज्ञान न रहते हुए भी उनके कुछ अंशरूप षट्खंडागम, कसायपाहुड़ आदि ग्रंथ तथा उन्हीं की परम्परा से आगत समयसार, मूलाचार आदि अन्य ग्रंथ विद्यमान हैं। तत्कालीन सभी ग्रंथों के पढ़ने-पढ़ाने वाले भी उपाध्याय परमेष्ठी हो सकते हैं। ‘धवला’ में ‘‘तात्कालिक-प्रवचनव्याख्यातारो वा’’ इस पद से स्पष्ट किया है।
साधु परमेष्ठी
‘‘अनंतज्ञानादि शुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधव:। पंच महाव्रतधरास्त्रिगुप्तिगुप्ता: अष्टादशशील-सहस्र-धराश्चतुरशीतिशतसहस्रगुणधराश्च साधव:।’’
‘‘जो अनंतज्ञानादिरूप शुद्ध आत्मा के स्वरूप की साधना करते हैं उन्हें साधु कहते हैं। जो पाँच महाव्रतों को धारण करते हैं-तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं, अठारह हजार शील के भेदों को धारण करते हैं और चौरासी लाख उत्तरगुणों का पालन करते हैं, वे साधु परमेष्ठी कहलाते हैं१।’’
इनके २८ मूलगुण हैं। यथा-५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इंद्रियनिरोध, १ केशलोंच, ६ आवश्यक, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एक भक्त, ये उनके नाम हैं।
पांच महाव्रत-मुख्य व्रतों को महाव्रत कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए कारणभूत हिंसादि के त्याग को व्रत कहते हैं। जिनको तीर्थंकर आदि महापुरुष ग्रहण करते हैं अथवा जो पालन करने वाले को महान् बना देते हैं, वे महाव्रत कहलाते हैं। इसके पाँच भेद हैं-
अहिंसा महाव्रत-कषाययुक्त मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को प्रमत्त योग कहते हैं, प्रमत्त योग से दश प्राणों का वियोग करना हिंसा है, ऐसी हिंसा से विरत होना, सर्व प्राणियों पर पूर्ण दया का पालन करना अहिंसा महाव्रत है।
सत्य महाव्रत-प्राणियों को जिससे पीड़ा होगी ऐसा भाषण, चाहे विद्यमान पदार्थ विषयक हो अथवा न हो, उसका त्याग करना।
अचौर्य महाव्रत-अदत्तवस्तु को ग्रहण नहीं करना।
ब्रह्मचर्य महाव्रत-पूर्णतया मैथुन का-स्त्रीमात्र का त्याग कर देना।
परिग्रह त्याग महाव्रत-बाह्य-अभ्यंतर परिग्रहों का त्याग करना, मुनियों के अयोग्य समस्त वस्तुओं का त्याग करना।
ये पाँच महाव्रत सर्व सावद्य-पापों के त्याग के कारण हैं।
पांच समिति-सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति है। उसके पाँच भेद हैं-
ईर्या समिति-अच्छी तरह देखकर मन को स्थिर कर गमन-आगमन करना।
भाषा समिति-आगम से अविरुद्ध, पूर्वापर सम्बन्ध से रहित, निष्ठुरता, कर्कश, मर्मच्छेदक आदि दोषों से रहित भाषण करना।
एषणा समिति-लोकनिंद्य आदि कुलों को छोड़कर और सूतक, पातक, जाति संंकर आदि दोषों से रहित घरों में छ्यालीस दोष और बत्तीस अंतराय टालकर आहार ग्रहण करना।
आदाननिक्षेपण समिति-आँखों से देखकर और पिच्छिका से शोधन कर यत्नपूर्वक वस्तु को रखना और उठाना।
प्रतिष्ठापन समिति-जन्तु रहित प्रदेश में ठीक से देखकर मलमूत्रादि का त्याग करना।
इस प्रकार ये पाँच समितियाँ हैं।
पंच इन्द्रिय निरोध-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पंच इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को हटाना-नियंत्रण करना इन्द्रिय निरोध है।
छह आवश्यक क्रियाएँ-अवश्य करने योग्य क्रियाएँ आवश्यक क्रियाएँ कहलाती हैं।
समता-राग-द्वेष, मोह से रहित होना अथवा त्रिकाल पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करना।
स्तव-ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना।
वन्दना-एक तीर्थंकर का दर्शन या वंदन करना अथवा पंचगुरुभक्तिपर्यन्त दर्शन, वंदना करना।
प्रतिक्रमण-अशुभ मन, वचन और काय के द्वारा जो प्रवृत्ति हुई थी, उससे परवृत्त होना अथवा किये हुए दोषों का शोधन करना। इस प्रतिक्रमण के दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ ऐसे सात भेद हैं।
प्रत्याख्यान-अयोग्य द्रव्य का त्याग करना अथवा योग्य वस्तु का भी त्याग करना।
व्युत्सर्ग-देह से ममत्वरहित होकर जिनगुण चिन्तनयुक्त कायोत्सर्ग करना, ऐसे छह आवश्यक हैं।
इन्द्रिय, कषाय, राग-द्वेषादि के वश में जो नहीं हैं वे अवश हैं, उनकी क्रियाएँ आवश्यक क्रियाएँ हैं, ये छह आवश्यक क्रियाएँ मुनियों को नित्य ही करनी चाहिए।
लोच-अपने हाथों से मस्तक और दाढ़ी-मूंछ के केशों को उखाड़ कर फेंक देना। यह केशलोच उत्कृष्ट दो महीने में, मध्यम तीन और जघन्य चार महीने में होता है।
आचेलक्य-चेल-वस्त्र, मुनिपने से अयोग्य सर्व परिग्रहों का त्याग कर देना।
अस्नान-स्नान का त्याग।
क्षितिशयन-घास, लकड़ी का फलक, शिला इत्यादि पर सोना।
अदंत धावन-दांतौन के लिए दन्त मंजन, काष्ठादि का उपयोग नहीं करना।
स्थिति भोजन-खड़े होकर पैरों को चार अंगुल अन्तर से रखकर भोजन करना।
एकभक्त-दिन में एक बार आहार लेना।
इस प्रकार ये अट्ठाईस मूलगुण कहलाते हैं।
आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनों ही प्रकार के दिगम्बर गुरुओं में ये मूलगुण अवश्य ही रहते हैं। पुन: आचार्य अपने दिगम्बर शिष्य को ही आचार्य पद देते हैं। पठन-पाठन में कुशल योग्य साधु को उपाध्याय पद देते हैं। आचार्यपद और उपाध्यायपद देने की विधि क्रियाकलाप में है। उस विधि से आचार्य दीक्षा या उपाध्याय दीक्षा होने पर ही प्रमाणता आती है।
‘‘गणधर देवों के सम्पूर्ण चौंसठ ऋद्धियाँ रहती हैं, किन्तु घोराघोर तपश्चरण और ध्यान विशेष करने वाले मुनियों के भी इनमें से कोई-कोई ऋद्धियाँ प्रगट होती रहती हैं। जिनके कि उदाहरण प्रथमानुयोग में बहुत पाये जाते हैं। ये सभी ऋद्धियाँ भावलिंगी मुनियों के ही हो सकती हैं द्रव्यलिंगी के नहीं। इन ऋद्धियों की अपेक्षा भी मुनियों में भेद हो जाता है।
आहारकऋद्धि के धारक, छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के आहारक शरीर नामकर्म के उदय से आहारक शरीर (पुतला) निकलता है। ‘‘यह असंयम का परिहार करने के लिए तथा संदेह को दूर करने के लिए निकलता हैै। अपने क्षेत्र में केवली या श्रुतकेवली के नहीं होने पर किन्तु दूसरे क्षेत्र में जहाँ औदारिक शरीर से पहुँचा नहीं जा सकता, वहाँ पर केवली या श्रुतकेवली विद्यमान रहने पर अथवा तीर्थंकरों के दीक्षाकल्याणक आदि तीन कल्याणकों में से किसी के होने पर तथा जिन, जिनगृह-चैत्य, चैत्यालयों की वंदना के लिए भी आहारक शरीर प्रगट होता है।१’’ अर्थात् इस ऋद्धि वाले मुनि के यदि किसी सूक्ष्म पदार्थ में संदेह हो गया है अथवा दीक्षाकल्याणक आदि के प्रसंग में या चैत्यालयों की वंदना करने हेतु भावना विशेष के होने पर मुनि के मस्तक से एक हाथ प्रमाण शुभ अवयववाला श्वेत शरीर निकलता है। यह न किसी से बाधित होता है न किसी को बाधा देता है। यह इतना सूक्ष्म है कि वङ्कापटल को भेद कर भी जा सकता है। इसकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्तमात्र है। मुनि के संदेह में, यह पुतला केवली भगवान के पास जाकर सूक्ष्म पदार्थों का ग्रहण करता है। पुन: आकर मुनि के शरीर में वापस प्रविष्ट हो जाता है और मुनि का संदेह दूर हो जाता है। अथवा जिनचैत्य की वंदना आदि से निकलने में उन्हें वंदना आदि का आनंद प्राप्त हो जाता है।
२तैजस ऋद्धि-‘‘तपोविशेष से तैजस शरीर भी प्रगट होता है। अर्थात् तपो विशेष से ऋद्धि की प्राप्ति लब्धि है। इस लब्धि के निमित्त से तैजस शरीर भी होता है। इसके दो भेद हैं-नि:सरणात्मक और अनि:सरणात्मक।३’’ औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर में दीप्ति करने वाला नि:सरणात्मक है। नि:सरणात्मक तैजस उग्रचारित्रवाले, अतिक्रोधी यति के शरीर से निकलकर जिस पर क्रोध है, उसे घेरकर शाक की तरह पका देता है, फिर वापस यति के शरीर में समा जाता है। यदि अधिक देर ठहर जाये, तो उसे भस्मसात् कर देता है।
अन्यत्र इस तैजस के शुभ और अशुभ ऐसे दो भेद किये हैं।
अशुभ तैजस-किसी कारण क्रोध उत्पन्न हो जाने पर संयम के निधान महामुनि के बाएँ कंधे से सिंदूर के ढेर जैसी कांतिवाला बारह योजन लम्बा (९६ मील) सूच्यंगुल के संख्यातवें भागमात्र मूलविस्तार और नौ योजन (७२ मील) अग्र विस्तार वाला काहल (विलाव) के आकार का धारक पुरुष निकल करके बायीं प्रदक्षिणा देकर मुनि को जिस पर क्रोध है उस विरुद्ध पदार्थ को भस्म करे और उसी मुनि के साथ आप भी भस्म हो जावे। जैसे द्वीपायन मुनि के शरीर से पुतला निकलकर द्वारिका नगरी को भस्म करके द्वीपायन मुनि को भी भस्म करके आप भी भस्म हो गया। यह अशुभतैजस समुद्घात है।
शुभतैजस-जगत् को रोग, दुर्भिक्ष आदि से दु:खी देखकर दया उत्पन्न होने से परम संयत निधान महाऋद्धि के मूल शरीर को छोड़कर पूर्वोक्त देह प्रमाण, सौम्य आकृति का धारक, पुरुष दायें कंध से निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा करके रोग, दुर्भिक्ष आदि को दूर कर फिर अपने स्थान में आकर प्रवेश कर जावे, वह ‘शुभतैजस समुद्घात’ है।१’’
विशेष-इन आहारक ऋद्धि और तैजसऋद्धि की अपेक्षा भी दिगम्बर मुनियों में भेद हो जाता है।
जब कोई भी मनुष्य दीक्षा लेता है, उस समय उसके परिणाम पहले गुणस्थान से या चौथे गुणस्थान से अथवा पाँचवें गुणस्थान से एकदम सातवें गुणस्थानरूप होते हैं। चूँकि छठा गुणस्थान िगरने से ही होता है, अत:-‘‘जब श्रमण एक सामायिक संयम में आरूढ़ होने के कारण जिसमें भेदरूप आचरण सेवन नहीं है, ऐसी अभेददशा से च्युत होता है, तब ‘केवल सुवर्ण मात्र के इच्छुक को कुंडल, कंकण, अंगूठी आदि को ग्रहण करना भी श्रेय है किन्तु ऐसा नहीं कि (कुंडल आदि ग्रहण न करके) सर्वथा स्वर्ण की ही प्राप्ति श्रेय है।’ ऐसे विचार करके वह मूलगुणों में अपने को स्थापित करता हुआ अर्थात् मूलगुणों में भेदरूप से आचरण करता हुआ छेदोपस्थापक होता है।२’’ चूँकि ये अट्ठाईस मूलगुण निर्विकल्प सामायिक संयम के ही भेद हैं।’’३ अर्थात् सुवर्ण के इच्छुक को यदि सुवर्ण न मिले, तो वह सुवर्ण से बनी हुई अंगूठी आदि को ही लेता है, उसे छोड़कर दोनों तरफ से रिक्त हस्त नहीं होता है, वैसे मुनि अभेदरूप सामायिक संयम में जब अधिक देर नहीं रह सकते हैं, तब वे भेदरूप छेदोपस्थापना में आ जाते हैं।
श्री जयसेनाचार्य कहते हैं कि-‘‘छेद-व्रत का खंडन होने पर पुनरपि उनको स्थापित करने वाला छेदोपस्थापक कहलाता है।१ निश्चय से मूल अर्थात् आत्मा, उसके केवलज्ञानादि अनंतगुण हैं, वे ही मूलगुण कहलाते हैं। वे मूलगुण निर्विकल्प, समाधिरूप, परमसामायिक नाम वाले और मोक्ष के लिए बीजभूत ऐसे निश्चयरूप एक व्रत के द्वारा मोक्ष के प्राप्त हो जाने पर ही प्रगट होते हैं। अर्थात् एक निश्चयरूप व्रत के द्वारा ही मोक्ष प्राप्त होता है, उसी समय ये (केवलज्ञानादि) मूलगुण प्रगट होते हैं। इसलिए वही सामायिकव्रत मूलगुणों को व्यक्त करने वाला होने से निश्चय मूलगुण कहलाता है और जब यह जीव निर्विकल्प समाधिरूप ध्यान में स्थिर रहने को समर्थ नहीं होता है, तब वह निश्चय मूलगुणरूप परमसमाधि के अभाव में सविकल्परूप छेदोपस्थापनाचारित्र को ग्रहण करता है।
छेद के होने पर उपस्थापना छेदोपस्थापना है। अथवा छेद-व्रत के भेद से उपस्थापना छेदोपस्थापना है और वह संक्षेप से पाँच महाव्रतरूप है। उन पाँच व्रतों की रक्षा करने के लिए पुन: पाँच समिति इत्यादि के भेद से अट्ठाईस मूलगुणरूप भेद हो जाते हैं। इन मूलगुणों की रक्षा के लिए बाईस परीषहजय और बारह प्रकार के तपश्चरण के भेद से चौंतीस उत्तरगुण होते हैं और उनकी भी रक्षा के लिए देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतन के द्वारा किये गये चार प्रकार के उपसर्गों का जय और द्वादश अनुप्रेक्षाओं की भावना आदि की जाती है?२’’
‘‘जिन उपकरणों से संयम का विनाश न होता होवे, ऐसे उपकरण या अन्य वस्तु को काल और क्षेत्र के अनुसार ग्रहण करने में साधु को दोष नहीं है। अर्थात् यह पंचमकाल है अथवा शीत, उष्ण आदि काल है, भरतक्षेत्र अथवा मानुष-जांगल आदि क्षेत्र है। उसके अनुरूप जिन उपकरणों से भावसंयम और द्रव्यसंयम में बाधा नहीं आती है। उनको स्वीकार करके प्रवृत्ति करना उचित है।’ अर्थात् काल की अपेक्षा परमोपेक्षा संयम की शक्ति का अभाव होने से आहार करना, संयमोपकरण, शौचोपकरण और ज्ञानोपकरण आदि कुछ भी ग्रहण करना ही उचित है।३’’
श्रामण्य पर्याय का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं किया जा सकता, ऐसा अत्यन्त मिला हुआ होते हुए भी ‘यह शरीर परद्रव्य होने से परिग्रह है।’ यह अनुग्रह योग्य नहीं है किन्तु उपेक्षा के ही योग्य है, ऐसा समझने वाले मुनि शरीर से भिन्न अन्य परिग्रह को ग्रहण वैâसे करेंगे ? यह उत्सर्ग मार्ग है और आहार, पिच्छी, कमण्डलु आदि ग्रहण करना अपवाद मार्ग है। मतलब यह है कि सर्वपरिग्रह का त्याग ही श्रेष्ठ-उत्सर्ग है। जो कुछ उपकरण रखना है, वह उपचार है-अशक्यानुष्ठान है-अपवाद है।’’
सो ही स्पष्ट कहते हैं-
‘‘यथाजातरूप लिंग, गुरुवचन, विनय और सूत्र का अध्ययन, जिनमार्ग में ये उपकरण हैं।४’’
युक्ताहार—विहार करने वाले अर्थात् आगम के अनुकूल आहार-विहार में प्रवृत्ति करने वाले साधु साक्षात् अनाहारी और अविहारी ही हैं।
उत्सर्ग और अपवाद का क्या अर्थ है ?
‘‘शुद्धात्मा से अतिरिक्त अन्य बाह्य और अभ्यन्तर सभी परिग्रह का त्याग कर देना उत्सर्ग है। इसके निश्चयनय, सर्वपरित्याग, परमोपेक्षासंयम, वीतराग चारित्र और शुद्धोपयोग ये सब पर्यायवाची नाम हैं।
इस उत्सर्ग संयम में असमर्थ हुए मुनि शुद्धात्मभावना के लिए सहकारीभूत प्रासुक आहार, ज्ञानोपकरण आदि कुछ भी ग्रहण करते हैं, यह अपवाद है। इसके व्यवहारनय, एकदेशपरित्याग, अपहृतसंयम, सराग चारित्र और शुभोपयोग ये पर्यायवाची हैं।’’
और भी देखिए-वह चारित्र अपहृतसंयम-उपेक्षासंयम भेद से सराग और वीतराग के भेद से अथवा शुभोपयोग और शुद्धोपयोग के भेद से दो प्रकार का है।
नियमसार में भगवान श्री कुंदकुंददेव ने चतुर्थ अधिकार में व्यवहार चारित्ररूप तेरह प्रकार के चारित्र का व्याख्यान किया है। पश्चात् निश्चयप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान, निश्चयआलोचना, शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति इनका वर्णन करते हुए निश्चयपरमावश्यक का विवेचन किया है। अर्थात् निश्चयप्रतिक्रमण आदि शुद्धोपयोगी मुनि के ही संभव हैं, ऐसा स्पष्ट किया है।१ चूँकि निर्विकल्प ध्यानावस्था में ही घटित होते हैं। देखिए-२‘‘परमोपेक्षा संयम धारण करने वाले के निश्चयप्रतिक्रमण का स्वरूप होता है।’’
‘‘जो३ साधु अगुप्ति भाव को छोड़कर त्रिगुप्ति से गुप्त-रक्षित हैं, वे साधु ही प्रतिक्रमण हैं, क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हो चुके हैं। अर्थात् वे त्रिगुप्ति से गुप्त निर्विकल्प परमसमाधि लक्षण से लक्षित अतिशय अपूर्व आत्मा का ध्यान करते हैं। इस हेतु से वे प्रतिक्रमणमय परमसंयमी है और इसीलिए वे निश्चयप्रतिक्रमण स्वरूप हैं। ऐसे ही सर्वत्र समझना।
‘‘व्यवहारनय४ की अपेक्षा से समता, स्तुति, वंदना, प्रत्याख्यानादि षट् आवश्यक क्रिया से हीन श्रमण चारित्रभ्रष्ट है और शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा परमअध्यात्मभाषा से उक्त निर्विकल्प समाधिस्वरूप परमावश्यक क्रिया से परिहीन श्रमण निश्चयचारित्रभ्रष्ट है।’’
पुन: आचार्य कहते हैं।
‘यदि करना शक्य है, तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि करना चाहिए, यदि तुम शक्तिविहीन हो, तो तुम्हें तब तक श्रद्धान ही करना चाहिए।’ अर्थात् यदि तुम इस दग्धकाल रूप अकाल (पंचमकाल) में श्ािक्तहीन उत्तम संहनन से हीन हो, तो तुम्हें केवल निजपरमात्मतत्त्व का श्रद्धान ही करना चाहिए।
क्योंकि पद्मप्रभमलधारी देव तो इस काल में शुद्धात्मा के ध्यान का अभाव ही बतला रहे हैं-
इस१ असार संसार में जिसमें पाप की बहुलता हो रही है, ऐसा कलिकाल का विलास होने पर निर्दोष जिनेन्द्रदेव के मार्ग में मुक्ति नहीं है। अत: इस काल में अध्यात्म ध्यान वैâसे हो सकता है ? इसलिए निर्मलबुद्धि वालों ने सांसर के भय का नाश करने वाला इस निजात्मा के श्रद्धान को स्वीकार किया है।
इस प्रकार वीतराग चर्या का किंचित् वर्णन किया गया है। यह ‘‘सराग२ चारित्र के अनन्तर ही होता है’’ अर्थात् सरागचारित्र में कुशल महामुनि ही इसे प्राप्त कर पाते हैं।
‘‘देशकाल का ज्ञाता साधु यदि आहार विहार आदि में होने वाले अल्पबंध के भय से उसमें प्रवृत्ति नहीं करता है और वीतरागता का ही हठ ग्रहण कर लेता है, तब वह अतिकठोर आचरण द्वारा अक्रम से ही शरीर को समाप्त करके देवलोक में चला जाता है। इसलिए वह संयमरूपी अमृत को वमन करने वाला है अर्थात् वहाँ असंयमी हो जाता है, उसे वहाँ तप का अवकाश नहीं रहने से महान् बंध होता है। अत: अपवाद (सराग) निरपेक्ष उत्सर्ग (वीतराग चारित्र) श्रेयस्कर नहीं है।३
इसी प्रकार से अपवाद मार्ग द्वारा अल्पलेप को न गिनकर उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करने से उत्सर्ग रूप ध्येय से चूककर अपवाद में स्वच्छन्दतया प्रवृत्ति करता है तो भी असंयतजन के समान तप को अवकाश न मिलने से महान् लेप होता है, अत: उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद भी श्रेयस्कर नहीं है।
यदि कोई कदाचित् औषधि, पथ्य आदि सावद्य के भय से व्याधि पीड़ा आदि का प्रतीकार न करके शुद्धात्मा की भावना नहीं करता है, तो उसके महान् कर्मबंध होता है। अथवा कोई प्रतीकार-इलाज में प्रवृत्ति करते हुए भी ‘हरड़ के बहाने गुड़ खाने के समान’ इन्द्रियसुख की लम्पटता से संयम की विराधना करता है। तब भी उसके महान् कर्मबंध होता हे। इसलिए विवेकी साधु उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद को छोड़ देता है और शुद्धात्मभावनारूप अथवा शुभोपयोगरूप संयम की विराधना न करके औषधि पथ्य आदि के निमित्त से उत्पन्न हुए अल्पसावद्य को भी बहुत गुणों के समूहरूप ऐसा जो उत्सर्ग से सापेक्ष अपवाद है उसको स्वीकार करता है।
अभिप्राय यह है कि सराग और वीतराग दोनों चारित्र तभी तक होते रहते हैं जब तक पूर्णतया कषाय का अभाव होकर पूर्णतया वीतरागता नहीं आती है। इसलिए इन दोनों को परस्पर सापेक्षरूप से धारण करना श्रेयस्कर है।
‘‘सकल परिग्रह के त्यागस्वरूप श्रामण्य के होने पर भी जो कषायांश के आवेश के निमित्त से केवल शुद्धात्मा में ही स्थित होने में असमर्थ हैं ऐसा श्रमण यदि अर्हंत भगवान् आदि में भक्ति करता है और प्रवचन में रत हुए जीवों के प्रति वात्सल्य करता है तो उसकी यह शुभयुक्तता ही शुभोपयोगी चारित्र है। यह शुभोपयोगी साधु श्रमणों के प्रति वन्दन-नमस्कारपूर्वक खड़ा हो जाना और पीछे चलना, विनय करना तथा उनकी थकान दूर करना आदि करता है। यह सब रागचर्या में निषिद्ध नहीं है। दर्शन, ज्ञान का उपदेश देना, शिष्यों का ग्रहण करना और उनका पोषण करना अर्थात् उनके अनशन, शयन आदि की चिन्ता रखना और जिनेन्द्रदेव की पूजा का उपदेश देना यह सरागी मुनियों की चर्या है। जो श्रमण हमेशा चतुर्विध श्रमण संघ का जीवों की विराधना से रहित (प्रासुक वस्तुओं से) उपकार करता है वह मुनि भी राग की प्रधानता वाला है। अर्थात् संघ के उपकार की यह प्रवृत्ति शुभोपयोगी मुनियों में ही होती है शुद्धोपयोगी मुनियों में कदापि नहीं। यदि कोई साधु अन्य साधुओं की वैयावृत्य के निमित्त जीवघात (आरंभ या अप्रासुक औषधि आदि देना) करता है तो वह साधु नहीं है किन्तु अगारी हो जाता है क्योंकि आरंभ में आदि कार्य श्रावकों का ही धर्म है।१’’
यद्यपि वैयावृत्ति आदि में अल्प लेप (अल्पसावद्य) होता है तो भी सागार-अनगार चर्यायुक्त जैनों का निरपेक्षता अनुकम्पा-बुद्धिपूर्वक उपकार करो। अर्थात् सागार और अनगारचर्या से युक्त जो श्रावक और तपोधन हैं, उनका दयाभाव अर्थात् धर्मवात्सल्यपूर्वक उपकार करना चाहिए। यदि उसमें अल्पसावद्य भी हो तो ‘सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ’ बहुत सी पुण्य की राशि में किंचित् मात्र सावद्य दूषित नहीं है जैसे कि एक कणिका विष बहुत बड़े समुद्र में कुछ बिगाड़ नहीं कर सकता है।
रोग से, क्षुधा से, तृषा से अथवा थकावट से पीड़ित साधु को देखकर साधु अपनी शक्ति के अनुसार उनकी वैयावृत्ति आदि करें। अर्थात् निजात्म भावना के विघातक ऐसे रोगादि का प्रसंग आ जाने पर साधु-साधु की वैयावृत्ति करें। शेष काल में अपना चारित्र पालें ऐसा अभिप्राय है।
रोगी या गुरु या बाल अथवा वृद्ध साधुओं की वैयावृत्ति के निमित्त शुभोपयोगी मुनि लौकिक जनों के साथ वार्तालाप कर सकता है। इसका निषेध नहीं है। यह प्रशस्त भूतचर्या साधुओं की होती है और गृहस्थों के लिए तो मुख्यरूप ही है (क्योंकि वे पूर्णतया विरत-महाव्रती न होने से शुद्धात्मतत्त्व को प्रगट नहीं कर सकते हैं।) इस चर्या से ही परम सौख्य प्राप्त होता है।२’’
इस प्रकार से जो अशुभोपयोग से रहित हैं तथा शुद्धोपयोग अथवा शुभोपयोग से युक्त हैं वे श्रवण भव्यजनों को संसार से पार कर देते हैं और उनके प्रति भक्ति करने वाला भक्त प्रशस्त-पुण्य को प्राप्त कर लेता है। अर्थात् जो साधु मोह, द्वेष और अप्रशस्तराग से रहित हैं, सम्पूर्ण कषायों के उदय का अभाव होने से कदाचित् शुद्धोपयोगी हैं। प्रशस्तराग के उदय से कदाचित् शुभोपयोग में लगे हुए हैं वे ही भव्यजनों को संसार से पार करने वाले हैं।
जयसेन स्वामी भी कहते हैं-निर्विकल्प समाधि के बल से शुभ और अशुभ इन दोनों उपयोग से रहित काल में कदाचित् वीतरागचारित्रलक्षण शुद्धोपयोग से युक्त हैं और कदाचित् पुन: मोह, द्वेष तथा अशुभ राग से रहित काल में सराग चारित्ररूप शुभोपयोग से मुक्त हैं वे ही साधु भव्यों को पार करने वाले हैं। उनकी भक्ति करने वाले भव्य जीव प्रशस्तफलभूत स्वर्ग को प्राप्त करते हैं। पुन: परम्परा से मोक्ष को भी प्राप्त कर लेते हैं।१’’
निष्कर्ष यह निकला कि साधु छठे और सातवें गुणस्थान में बारम्बार परिवर्तन किया करते हैं। चूँकि छठे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक प्रत्येक का काल अन्तर्मुहूर्तमात्र ही है जो आगे-आगे छोटा होता गया है। ऐसी स्थिति में वे छठे गुणस्थान में अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हुए संघ संचालन आदि व्यवस्था भी संभालते हैं और कदाचित् सप्तम गुणस्थान में शुद्धोपयोगी भी हो जाते हैं। सप्तम गुणस्थान के दो भाग हैं-एक स्वस्थान अप्रमत्त और दूसरा सातिशय अप्रमत्त।
इसमें से पहले स्थान में सविकल्प अर्थात् भेदचारित्र ही सुनने में आता है। यथा-‘‘परमभावदर्शी मुनियों को शुद्धनय उपदेश करने वाला शुद्धनय ही जानने योग्य है और जो अपरम भाव में स्थित हैं उनके लिए व्यवहारनय का उपदेश है।
यहाँ पर भूतार्थ-निश्चयनय निर्विकल्प समाधि में रत हुए जीवों के लिए प्रयोजनीभूत है, केवल इतनी ही बात नहीं है किन्तु निर्विकल्प समाधि से रहित जो कोई प्राथमिक शिष्य हैं, उनके लिए कदाचित् सविकल्प अवस्था में मिथ्यात्व विषय और कषायरूप दुर्ध्यान को हटाने के लिए व्यवहारनय भी प्रयोजनवान् है ऐसा प्रतिपादन करते हैं। शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला शुद्धनय, शुद्धात्मभावदर्शी महामुनियों को अभेद-रत्नत्रयस्वरूप समाधि के समय प्रयोजनवान् है और व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय ये एकार्थ नाम हैं, इस व्यवहार से अर्थात् भेदरूप से जिसमें कथन किया जाता है वह व्यवहारनय है। जो अपरम भाव में स्थित हैं अर्थात् अशुद्ध भाव में-असंयतसम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से अथवा श्रावक की अपेक्षा से सरागसम्यग्दृष्टि लक्षण शुभोपयोग में अथवा अप्रमत्त तथा अप्रमत्त संयत की अपेक्षा से भेदरत्नत्रय लक्षण शुभोपयोग में स्थित हैं उनके लिए व्यवहार नय प्रयोजनवान है।२’’
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वे आचार्य सातवें गुणस्थान में भी भेदरत्नत्रय मानते हैं।
आगे समयसार में ही श्री जयसेनाचार्य ने छठे तक सरागचारित्र मानकर सातवें में वीतरागचारित्र माना है, जो कि अभेदरत्नत्रय की अपेक्षा से ही है। यथा-
छठे गुणस्थानरूप सरागचारित्र के साथ अविनाभावी सरागसम्यक्त्व की अन्यथानुपपत्ति है। अर्थात् छठे गुणस्थान में सरागचारित्र है और जहाँ तक सरागचारित्र है वहीं तक सरागसम्यक्त्व है।
शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव परमात्मा को उपादेय मान लेने पर उसके योग्य स्वकीय शुद्धात्म समाधि से उत्पन्न सहजानंद एक रूप स्वलक्षण सुखानुभूति मात्र स्वरूप ऐसे अप्रमत्त आदि गुणस्थानवर्ती जीवों के वीतरागचारित्र के साथ अविनाभावी वीतराग सम्यक्त्व की अन्यथानुपपत्ति है। अर्थात् सातवें आदि गुणस्थानों में उस-उस गुणस्थान के योग्य निर्विकल्पध्यान में वीतरागचारित्र और वीतराग सम्यक्त्व होता है।१’’
निष्कर्ष यही निकलता है कि छठे तक शुभोपयोग अवस्था ही है, उसे सरागचारित्र कहते हैं। उससे आगे सातवें से लेकर बारहवें तक शुद्धोपयोग अवस्था है। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में शुद्धोपयोग का फल है।२’’
जयधवला में प्रश्न यह हुआ है कि ‘‘पुण्यकर्म के बाँधने के इच्छुक देशव्रतियों को मंगल करना युक्त है किन्तु कर्मक्षय के इच्छुक मुनियों को मंगल करना युक्त नहीं है। आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि पुण्यबंध के कारणों के प्रति उन दोनों में कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् पुण्यबंध के कारणभूत कार्योें को जैसे देशव्रती करते हैं वैसे ही मुनि भी करते हैं। यदि ऐसा न माना जाये, तो जिस प्रकार यहाँ आप मंगल के परित्याग की बात कह रहे हैं वैसे ही उनके सरागसंयम के परित्याग का प्रसंग प्राप्त होगा, क्योंकि देशव्रत के समान सरागसंयम भी पुण्यबंध का कारण है।
यदि आप कहें कि सरागसंयम के परित्याग का प्रसंग प्राप्त है सो हो जावे, सो भी बात नहीं है, क्योंकि मुनियों के सरागसंयम के त्याग का प्रसंग प्राप्त होने से उनको मुक्तिगमन के अभाव का प्रसंग भी प्राप्त हो जावेगा।
यदि आप कहें कि सरागसंयम गुणश्रेणी निर्जरा का कारण है, क्योंकि उससे कर्मबंध की अपेक्षा कर्मों की निर्जरा असंख्यातगुणी अधिक होती है। अत: सरागसंयम में मुनियों की प्रवृत्ति का होना योग्य है, सो ऐसा भी निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि अरहंत नमस्कार भी तत्कालीन बंध की अपेक्षा संख्यातगुणी निर्जरा का कारण है, इसलिए सरागसंयम के समान उसमें भी मुनियों की प्रवृत्ति होती है।३’’
निष्कर्ष यह निकला कि सरागसंयम भी मुनियों के लिए उपादेय है और असंख्यात गुणी निर्जरा का कारण है। और भी कहा है-
‘‘जब महाव्रती मुनियों के प्रतिसमय घटिकायंत्र के जल के समान असंख्यातगुणित श्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा होती रहती है, तब उनके पाप वैâसे संभव हैं १?’’
विशेष-वर्तमान में छठे, सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि ही होते हैं। इससे ऊपर के नहीं अत: इस समय साधुओं में सरागचर्या ही प्रधान है। हाँ उनके लिए ध्येय वीतराग चारित्र है। इस तरह सरागता और वीतरागता की अपेक्षा भी भेद हो जाता है।
‘ईर्यासमिति आदि में प्रवृत्ति करने वाले मुनि उनका प्रतिपालन करने के लिए जो एकेन्द्रिय आदि प्राणियों की पीड़ा का परिहार करते हैं वह प्राणिसंयम है और इन्द्रियों के विषय शब्द आदिकों में राग का अभाव होना इन्द्रियसंयम है२।’’ संयम के दो भेद हैं-उपेक्षासंयम और अपहृतसंयम।
अपहृत संयम के तीन भेद हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य।
‘‘ज्ञान और चारित्र की क्रियाओं को अपने आधीन रखने वाला और उनके बाह्य साधन प्रासुक वसतिका तथा अन्न, पुस्तक आदि मात्र को ही ग्रहण कराने वाला जो संयमी उन प्रासुक वसतिका आदि में दैवात् आ जाने वाले जीव जन्तुओं के वियोग या उपघात आदि का विचार न करके स्वयं अपने को ही उनसे अलग रखकर उनकी रक्षा करता है, वही उत्तम प्राणिपरिहाररूप अपहृतसंयमी कहा जाता है। ऐसे संयमी की साधुजन भी पूजा करते हैं।३’’
‘‘जो साधु स्वयं अपने को ही उन जीवों से पृथक् न रखकर अपने शरीरादि के ऊपर आकर पड़ने वाले उन जीवों को शास्त्र कथित पाँच गुणों से कोमल पिच्छी आदि के द्वारा मार्जन करके उनकी रक्षा करता है वह मध्यम प्राणिपरिहाररूप अपहृत संयमी होता है। उसको भी सत्पुरुष बड़ी प्रेम की दृष्टि से देखते हैं।४’’
‘‘जो साधु उस तरह की पीछी न मिलने पर उसके समान किसी भी दूसरी कोमल वस्तु से उन जीवों को शोधन करता है, वह जघन्य प्राणिपरिहाररूप अपहृत संयमी कहा जाता है। वह भी सत्पुरुषों के द्वारा आदरणीय है।५’’
यही बात अन्यत्र भी है-‘‘मृदु उपकरण से परिमार्जन करके जन्तुओं का परिहार करना मध्यम है और अन्य उपकरणों की इच्छा रखना जघन्य अपहृत संयम है।६’’
‘‘इस अपहृत संयम के प्रतिपादनार्थ आठ प्रकार की शुद्धि का उपदेश दिया गया है। अर्थात् इन शुद्धियों के निमित्त से ही संयम की वृद्धि होती है।
भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि ये आठ शुद्धियाँ हैं।१’’
भावशुद्धि-कर्म के क्षयोपशम से जन्य, मोक्षमार्ग की रुचि से जिसमें विशुद्धि प्राप्त हुई है और जो रागादि उपद्रवों से रहित है वह भावशुद्धि है। इसके होने से आचार उसी तरह चमक उठता है, जैसे स्वच्छ दीवाल पर आलेखित चित्र।
कायशुद्धि-यह समस्त आवरण और आभरणों से रहित, शरीर संस्कार से शून्य, यथाजात मल को धारण करने वाली, अंगविकार से रहित और सर्वत्र यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्तिरूप है। यह मूर्तिमान प्रशम सुख सदृश है। इसके होने पर न दूसरों को अपने से भय होता है और न अपने से दूसरों को अर्थात् उपर्युक्त नग्नमुद्रा ही कायशुद्धि है।
विनयशुद्धि-अर्हंत आदि गुरुओं में यथायोग्य विनय रखना, गुरुओं के प्रति सर्वत्र अनुकूल२ वृत्ति रखना यह सब विनयशुद्धि है।
ईर्यापथशुद्धि-सूर्य प्रकाश और इन्द्रिय प्रकाश में अच्छी तरह देखकर गमन करना, इधर-उधर देखते हुए अर्थात् शीघ्रतापूर्वक गमन नहीं करना आदि ईर्यापथशुद्धि है।
भिक्षाशुद्धि-आचारसूत्र कथित आहार को ग्रहण करना, लोकगर्हित३ कुलों का वर्जन करते हुए प्रासुक आहार ढूँढना। दीन वृत्ति से रहित, दीन अनाथ, दानशाला, विवाह, यज्ञ आदि के भोजन का परिहार करना तथा निर्दोष आहार ग्रहण करना भिक्षाशुद्धि है।
प्रतिष्ठापनशुद्धि-मल, मूत्र, नख, रोम, नाक-मल, थूक आदि शरीर-मल को निर्जन्तुक जगह का विलोकन करके क्षेपण करना प्रतिष्ठापनशुद्धि है।
शयनासनशुद्धि-स्त्री, क्षुद्र, चोर, जुआरी आदि जनों से वर्जित और शृँगार, विकार, संगीत, वाद्य, नृत्य आदि से रहित स्थान में रहना। प्राकृतिक गिरि, गुफा, वृक्ष की खोह तथा शून्य मकानों में स्वयं छोड़े गये या छुड़ाये गये मकानों में रहना जो कि अपने उद्देश्य से नहीं बने हुए हैं और अपने लिए कोई आरम्भ नहीं किया गया हो, ऐसे वसतिका आदि में सोना, बैठना शयनासनशुद्धि है।४
वाक्यशुद्धि-पृथ्वीकायिक आदि संबंधी आरंभ की प्रेरणा से वर्जित, पुरुष, निष्ठुर और परपीड़ाकारी प्रयोगों से रहित तथा व्रतशील आदि का उपदेश देने वाले, सर्वत: योग्य हितमित मधुर और मनोहर वचन प्रयोग करना ही वाक्यशुद्धि है।
वर्तमानकाल में अपहृत संयम के पालन करने वाले ही साधु होते हैं, वे संयम की वृद्धि के लिए यथायोग्य इन शुद्धियों का पालन करते हैं।
देशकाल के विधान को जानने वाला और आत्मा तथा शरीर के भेदविज्ञान से युक्त उपेक्षा संयम का धारक यति मानसिक, वाचिक और कायिक तीनों ही प्रकार के व्यापारों का अच्छी तरह निरोध करके तथा शरीर से सर्वथा ममत्व का त्याग करके उपद्रव करने वाले अथवा हिंस्र आदिक क्रूर जन्तुओं के द्वारा उपसर्ग किये जाने पर भी उनको किसी तरह का क्लेश न देते हुए समता परिणामों को ही धारण करता है। किसी भी पदार्थ को वह इष्ट या अनिष्ट समझकर उसमें रागद्वेष नहीं करता, क्योंकि वह सोचता है, जो ये व्याघ्र आदि मेरे शरीर का भक्षण कर रहे हैं सो ये समझते हैं कि मैं इस जीव को खा रहा हूँ किन्तु ये तो मेरे शरीर का ही भक्षण कर रहे हैं आत्मा तो अमूर्तिक और ज्ञानस्वरूप है तथा इस उपसर्ग में इनका कोई भी अपराध नहीं है क्योेंकि ये मेरे ही पूर्व संचित उपघात आदि कर्मोदय के निमित्त से ही फल में कारण बन रहे हैं। किन्तु शुद्ध द्रव्य दृष्टि से यदि देखा जाये, तो इनमें और मुझमें कोई अन्तर नहीं है। अथवा ये मेरे उपकारी मित्र ही हैं क्योंकि इनके निमित्त से असातावेदनीय उदीर्ण होकर जल्दी फल देकर झड़ जायेगी। इत्यादि रूप से उपसर्गकर्ता जनों पर क्रोध न करके पूर्ण क्षमा धारण करते हुए वे मुनिराज शरीर से भिन्न अपनी आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन करते हैं। यह आत्मा टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव है उसका चिन्तवन करते हुए उसमें तन्मय हो जाते हैं तब उन्हें बाह्य दु:खों का आभास भी नहीं हो पाता है। इस प्रकार से उपेक्षा संयम के द्वारा ये मुनि केवलज्ञान आदि अनंतचतुष्टय लक्ष्मी को प्राप्त कर लेते हैं।
विशेष-इस प्रकार से अपहृत संयम और उपेक्षा संयम धारक मुनियों की अपेक्षा भी भेद देखा जाता है। वर्तमान में अपहृत संयमधारक ही मुनि हो सकते हैं।
सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात यह पाँच प्रकार का चारित्र है। इसे संयम भी कहते हैं।
सामायिक चारित्र-अभेद रूप से सम्पूर्ण सावद्ययोग का त्याग करके जो होता है अथवा अवधृत-नियत काल होता है वह सामायिक चारित्र है। इसमें पाँच महाव्रत आदि रूप से भेद की विवक्षा नहीं रहती है। सम्पूर्ण सावद्य-सदोष-हिंसादि प्रवृत्ति का त्याग हो जाता है। ‘‘प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के सिवाय बाईस तीर्थंकरों ने इसी का ही उपदेश दिया था।’’
छेदोपस्थापना-त्रस और स्थावर जीवों की उत्पत्ति और हिंसा के स्थान छद्मस्थ के अप्रत्यक्ष हैं अत: निरवद्य क्रियाओं में प्रमादवश दोष लगने पर उसका सम्यक् प्रतीकार करना छेदोपस्थापना है। ‘‘अथवा सावद्य कर्म हिंसादि के भेद से पाँच प्रकार के हैं, इत्यादि विकल्पों का होना छेदोपस्थापना है।१’’ यथा-
‘सर्वसावद्य त्याग लक्षण वाले सामायिक की अपेक्षा से व्रत एक है और वही छेदोपस्थापना की अपेक्षा से पाँच प्रकार का होता है।१’’
अन्यत्र भी कहा है-
‘‘व्रत, समिति और गुप्तिरूप तेरह प्रकार के चारित्र में भेद वा दोष लगने पर उन दोषों को छेद करना-नाश करना और फिर अपनी आत्मा में स्थापन करना, अपने आत्मस्वरूप चारित्र को अपने आत्मा में ही स्थिर रखना सो छेदोपस्थापना चारित्र है।२’’
तात्पर्य यह है कि तेरह प्रकार चारित्र और २८ मूलगुण चारित्ररूप छेदोपस्थापना चारित्र है। यह चारित्र छठे गुणस्थान से नवमें गुणस्थान तक पाया जाता है और आठवें से श्रेणी में ध्यानमग्न अवस्था होने से वहाँ पर यह छेद-दोषों के प्रायश्चित्तरूप नहीं है किन्तु अपनी आत्मा को अन्तर्जल्पों से भी छुड़ाकर अपने में स्थापित करनेरूप है।
परिहारविशुद्धिचारित्र-‘‘जिसमें प्राणिवध के साथ-साथ विशिष्ट शुद्धि हो वह परिहारविशुद्धिचारित्र है।’’ जो तीस वर्ष की आयु वाला, वर्ष पृथक्त्व (३ से ९ तक) पर्यंत तक तीर्थंकर के पादमूल की सेवा करने वाला, प्रत्याख्यान पूर्व का पारंगत ही इस चारित्र को प्राप्त कर सकता है। अर्थात् ‘‘जन्म से लेकर तीस वर्ष तक सदा सुखी रहकर अनन्तर दीक्षा ग्रहण करके श्री तीर्थंकर भगवान के पादमूल में आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक नवमें पूर्व का अध्ययन करने वाले के यह संयम होता है। इस संयम वाला जीव तीन संध्याकालों को छोड़कर प्रतिदिन दो कोश पर्यंत गमन करता है, रात्रि को गमन नहीं करता और इसके वर्षाकाल में गमन करने का या न करने का कोई नियम नहीं है।३’’
सूक्ष्मसाम्परायिकचारित्र-दशवें गुणस्थान में उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी चढ़ने वाले जीव सूक्ष्म लोभ का वेदन करते हैं। वह सूक्ष्मसांपराय चारित्र है।
यथाख्यातचारित्र-चारित्रमोहनीय के सर्वथा उपशम हो जाने से ग्यारहवें गुणस्थान में अथवा क्षय हो जाने से बारहवें में तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में यथाख्यातचारित्र होता है।
इनमें से सामायिक और छेदोपस्थापनाचारित्र छठे गुणस्थान से नवमें तक पाये जाते हैं। परिहारविशुद्धि छठे और सातवें में तथा सूक्ष्मसांपराय दसवें में और यथाख्यातचारित्र ग्यारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक होता है।
विशेष-वर्तमान में सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र के धारक ही मुनि हो सकते हैं। इनकी अपेक्षा भी मुनियों में भेद हो जाता है।
मुनियों के पाँच भेद-पुलाक, वकुश, कुशील, निर्र्ग्रन्थ और स्नातक।
‘‘पुलाक-जिनका चित्त उत्तरगुणों की भावना से रहित है और व्रतों में भी क्वचित् कदाचित् परिपूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाते हैं अर्थात् पाँच महाव्रतों में भी दोष लग जाते हैं। बिना शुद्ध हुए (किंचित् लालिमा सहित) धान्य सदृश होने से वे पुलाक कहलाते हैं।१’’
इनके सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम पाये जाते हैं। श्रुतज्ञान की अपेक्षा उत्कृष्टरूप से ये अभिन्नदशपूर्वी हो सकते हैं और जघन्य से आचार वस्तु मात्र है।
‘‘ये दूसरों की जबरदस्ती से पाँच महाव्रत और रात्रिभोजनत्याग ऐसे छठे अणुव्रत इनमें से किसी एक की विराधना कर लेते हैं, इसीलिए पुलाक कहलाते हैं।२’’ इस प्रसंग में तत्त्वार्थवृत्ति में प्रश्न किया है कि-
‘‘प्रश्न-रात्रिभोजनत्याग का विराधक कैसे हो जाता है ?
उत्तर-‘श्रावक आदिकों का इससे उपकार होगा’ ऐसा सोचकर अपने छात्र आदि को रात्रि में भोजन करा देते हैं, इसलिए विराधक हो जाते हैं।३’’
वकुश-‘जो निर्ग्रन्थ अवस्था को प्राप्त हैं, मूलगुणों को अखंडित-निरतिचार पालते हैं, शरीर और उपकरण की शोभा के अनुवर्ती हैं, ऋद्धि और यश की कामना रखते हैं सात और गौरव के आश्रित हैं, ४परिवार-शिष्यों से घिरे हुए हैं और छेद से जिनका चित्त शबल-चित्रित है, वे मुनि वकुश कहलाते हैं। श्री पूज्यपाद स्वामी ने ‘‘इन्हें विविध प्रकार के मोह से युक्त कहा है।’’५ तत्त्वार्थवृत्ति में-‘अविविक्तपरिवारा:’ पद का अर्थ असंयत शिष्यादि किया है। अर्थात् ‘‘जो निर्र्ग्रन्थ पद में स्थित हैं, व्रतों में दोष नहीं लगाते हैं, किन्तु शरीर, उपकरण-पिच्छी, कमण्डलु, पुस्तक आदि की शोभा चाहते हैं, ऋद्धि, यश, सुख और वैभव की आकांक्षा रखते हैं, असंयत परिवार-शिष्यों से सहित हैं, अनुमोदना आदि विविध भावों से शबलचित्त हैं वे वकुश कहलाते हैं।६’’
इनके सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम होते हैं। उत्कृष्ट से इनका ज्ञान अभिन्नदश पूर्व तक हो सकता है और जघन्य से अष्टप्रवचनमातृका (पाँच समिति, तीन गुप्ति) मात्र का ज्ञान रह सकता है।
‘‘वकुश मुनि के दो भेद हैं-उपकरण वकुश और शरीर वकुश। उपकरणों में जिनका चित्त आसक्त हैं जो नाना प्रकार के विचित्र परिग्रहों से युक्त हैं, बहुत विशेषता से युक्त उपकरणों के आकांक्षी हैं, उनके संस्कार और प्रतीकार को करने वाले हैं ऐसे साधु उपकरण वकुश कहलाते हैं तथा शरीर के संस्कार को करने वाले शरीर वकुश हैं।७’’
कुशील-कुशील मुनि के दो भेद हैं। कैसे ? प्रतिसेवना और कषाय के उदय के भेद से। अर्थात् प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील ये दो भेद हैं।
जो परिग्रह से अविविक्त-मुक्त नहीं हुए हैं, मूलगुण और उत्तरगुणोें में परिपूर्ण हैं किन्तु जिनके कथंचित्-किसी अपेक्षा से उत्तरगुणों की विराधना भी हो जाती है वे प्रतिसेवना कुशील हैं।
जो ग्रीष्मऋतु में जंघाप्रक्षालन आदि कर लेने से अन्य कषायोदय के वशीभूत हैं संज्वलनमात्र कषाय के आधीन हैं वे कषाय कुशील मुनि हैं।१’’
प्रतिसेवना कुशील के सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो ही संयम होते हैं, किन्तु कषाय कुशील के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय ये चार संयम होते हैं।
प्रतिसेवना कुशील मुनियों का भी उत्कृष्ट ज्ञान अभिन्नदशपूर्व तक है और जघन्य ज्ञान आठ प्रवचनमातृका ही है।
ये मूलगुणों में विराधना न करते हुए उत्तरगुणों में किंचित् विराधना कर सकते हैं।
कषाय कुशील मुनियों का उत्कृष्ट ज्ञान चौदहपूर्व है और जघन्य आठ प्रवचनमातृका ही है। इनके द्वारा मूलोत्तर गुणों में विराधना संभव नहीं है।
‘‘जैसे जल में डंडे की लकीर तत्क्षण मिट जाती है वैसे ही जिनके कर्मों का उदय व्यक्त नहीं है, मुहूर्त के अनन्तर ही जिनको केवलज्ञान२ और केवलदर्शन प्रगट होने वाले हैं वे निर्ग्रन्थ साधु हैं।’’
इनके यथाख्यात संयम ही होता है। उत्कृष्ट से इनका श्रुतज्ञान चौदहपूर्व है और जघन्य से वही अष्ट प्रवचनमातृका पर्यन्त है। इनके मूलोत्तर गुणों में विराधना असंभव हैं, चूँकि शुक्लध्यान में स्थित हैं।
स्नातक-ज्ञानावरण आदि घातिकर्मों के क्षय से जिनके केवलज्ञानादि अतिशय विभूतियाँ प्रगट हो चुकी हैं, जो सयोगी सम्पूर्ण-अठारह हजार शीलों के स्वामी हैं, कृतकृत्य हो चुके हैं ऐसे केवली भगवान स्नातक कहलाते हैं।
इनके भी एक यथाख्यातसंयम ही है। इनके श्रुतज्ञान का सवाल ही नहीं है क्योंकि पूर्ण-केवलज्ञान प्रगट हो चुका है।
ये पाँचों प्रकार के मुनि प्रत्येक तीर्थंकरों के समय होते हैं। ‘‘ये पाँचों प्रकार मुनि के भी भावलिंगी हैं३।’’
इसमें से पुलाक मुनियों के तीन शुभलेश्याएँ ही होती हैं। किन्तु ‘‘वकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनियों के छहों लेश्याएँ भी हो सकती हैं।४’’ सर्वार्थसिद्धि की टिप्पणी में इस बात को स्पष्ट किया है कि-‘‘कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याएँ भी इन दोनों मुनियों के कैसे संभव हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं–इन दोनों प्रकार के मुनियों में उपकरण की आसक्ति संभव होने से कदाचित् आर्तध्यान संभव है और आर्तध्यान से ये अशुभलेश्याएँ संभव हैं।१’’
तत्त्वार्थवृत्ति में भी इसी बात को स्पष्ट किया है-
शंका-कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्याएँ वकुश और प्रतिसेवना कुशील में वैâसे संभव हैं ?२
समाधान-आपका कहना सत्य है, किन्तु इन दोनों प्रकार के मुनियों के उपकरणों में आसक्ति से उत्पन्न होने वाला आर्तध्यान कदाचित्-किसी काल में संभव है और आर्तध्यान संभव होने से कृष्ण आदि तीनों लेश्याएँ संभव ही हैं। दूसरे मत की अपेक्षा परिग्रह३ के संस्कार की आकांक्षा होने से और स्वयं ही उत्तरगुणों की विराधना हो जाने से आर्त-परिणामों में पीड़ा-क्लेश संभव है और उस आर्त से अविनाभावी छहों लेश्याएँ भी संभव हैं।
पुलाक मुनियों के आर्तध्यान के कारणों का अभाव होने से छह लेश्याएँ नहीं है, किन्तु तीन शुभ ही हैं, अर्थात् अशुभ लेश्याएँ नहीं हैं।’’
‘‘कषाय कुशील मुनियों में और परिहारविशुद्धि संयमी के कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये चार लेश्याएँ हैं।४’’
‘‘इनमें भी कापोत इस अशुभ लेश्या के होने का मतलब पूर्वोक्त ही है, क्योंकि इनमें संज्वलन मात्र अन्तरंग कषाय का सद्भाव होने से और परिग्रह की आसक्ति मात्र का सद्भाव होने से यह लेश्या मानी है।५’’
सूक्ष्मसांपराय, निर्र्ग्रन्थ और स्नातक के केवल एक शुक्ल लेश्या ही है।
पुलाक मुनि उत्कृष्टरूप से यदि स्वर्ग में जाते हैं तो बारहवें में उत्कृष्ट स्थिति वाले देवों में जन्म ले सकते हैं। वकुश और प्रतिसेवनाकुशील बावीससागर की उत्कृष्ट स्थिति लेकर आरण और अच्युतकल्प जा सकते हैं। कषाय कुशील और निर्ग्रन्थ (ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती) तेतीससागर की आयु लेकर सर्वार्थसिद्धि में जन्म ले सकते हैं। स्नातक केवली तो मोक्ष ही जाते हैं। स्नातक से अतिरिक्त सभी प्रकार के मुनि जघन्य-कम से कम सौधर्म स्वर्ग में दो सागर की आयु वाले ऐसे देव अवश्य होते हैं।
इन पाँच प्रकार के मुनियों के स्वरूप को अच्छी तरह से समझकर यह निर्णय करना चाहिए कि चतुर्थकाल में भी मूलगुणों में दोष लगाने वाले साधु हो सकते थे और आज भी पुलाक आदि मुनि विद्यमान हैं। जंघा प्रक्षालन या उपकरण की सुंंदरता से आसक्त हुए साधु को चारित्रहीन द्रव्यलिंगी कह देना उचित नहीं है।
श्री अकलंकदेव इसी बात को और भी स्पष्ट कहते हैं-
‘‘सम्यग्दर्शन और भूषा, वेश तथा आयुध से विरहित निर्र्ग्र्रंन्थरूप, यह सामान्यतया पुलाक आदि सभी में पाया जाता है, यही कारण है कि सभी को निर्ग्रन्थ शब्द से कहना युक्त है अर्थात् ये पाँचों ही निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं चूँकि इनमें सम्यक्त्व और वस्त्राडंबर रहित निर्र्ग्रन्थरूप विद्यमान है।
प्रश्न-यदि भग्नव्रत-खंडितव्रत में भी निर्ग्र्रन्थ शब्द का प्रयोग होता है, तो श्रावक में भी करना चाहिए ?
उत्तर-नहीं, ऐसा दोष नहीं आ सकता है।
प्रश्न-क्यों ?
उत्तर-क्योंकि उनमें श्रावकों में निर्ग्रन्थरूप का अभाव है। हम लोगों को यहाँ पर निर्र्ग्रन्थरूप प्रमाण है और वह श्रावक में है नहीं, इसलिए अतिप्रसंग नहीं आ सकता है।
प्रश्न-यदि निर्ग्रन्थरूप ही आपको प्रमाण है तो अन्य भी किसी सरूप-सदृश अर्थात् नंगे में निर्र्ग्रन्थ संज्ञा हो जावेगी ?
उत्तर-ऐसा नहीं है।
प्रश्न-क्या कारण है ?
उत्तर-क्योंकि हर किसी नंगे में सम्यक्त्व का अभाव है। सम्यग्दर्शन के साथ जहाँ पर रूप है वहीं पर निर्र्ग्रन्थ यह नाम आता है किन्तु रूपमात्र-नंगे मात्र में नहीं।
प्रश्न-तो फिर यह पुलाक आदि नाम क्यों रखे हैं ?
उत्तर-चारित्रगुण की उत्तरोत्तर प्रकर्र्ष में वृत्ति-रहना विशेष बतलाने के लिए ही ये पुलाक आदि भेदों का उपदेश किया गया है।१’’
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये पुलाक आदि मुनि सदोषी शिथिलाचारी नहीं है किन्तु भावलिंगी होने से पूज्य ही हैं। चूँकि ये यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले हैं।
प्रश्न होता है कि-
‘‘साधु को किस प्रकार ये प्रवृत्ति करना चाहिए ? वैâसे खड़े होना चाहिए? वैâसे बैठना चाहिए ? वैâसे सोना चाहिए ? वैâसे भोजन करना चाहिए और वैâसे बोलना चाहिए ? कि जिससे पाप का बंध नहीं होवे।’’
उत्तर में-‘‘यत्न से-ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक गमन करना चाहिए। यत्न से खड़े होना चाहिए। यत्न से-सावधानीपूर्वक जीवों को बाधा न देते हुए उन्हें पिच्छिका से हटाकर पद्मासन आदि से बैठाना चाहिए। यत्न से सोते समय भी संस्तर का संशोधन करके अर्थात् चटाई, फलक आदि को उलट-पलट कर देखकर रात्रि में गात्र संकुचित करके सोना चाहिए। यत्न से-छ्यालीस दोष वर्जित आहार ग्रहण करना चाहिए। यत्न से-भाषा समिति से बोलना चाहिए। इस प्रकार की प्रवृत्ति से पापबंध नहीं होता है।१’’
क्योंकि जो साधु यत्नाचार से प्रवृत्ति करता है, दयाभाव से सतत प्राणियों का अवलोकन करता है। उसके नवीन कर्मों का बंध नहीं होता है और पुराना कर्म भी नष्ट हो जाता है। ‘‘जो मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहनन की अपेक्षा करके चारित्र में प्रवृत्त होता है वह क्रम से बंध-हिंसा से रहित हो जाता है।२’’
विशेष-ये पुलाक आदि मुनि सभी दिगम्बर हैं। इनकी अपेक्षा भी मुनियों में भेद होता है।
‘‘जिनेन्द्रदेव ने जिनकल्प और स्थविरकल्प ऐसे दो भेद किये हैं।
जिनकल्प-जो उत्तम संहननधारी हैं। जो पैर में कांटा चुभ जाने पर अथवा नेत्र में धूलि आदि पड़ जाने पर स्वयं नहीं निकालते हैं। यदि कोई निकाल देता है तो मौन रहते हैं। जलवर्षा होने पर गमन रुक जाने से छह मास तक निराहार रहते हुए कायोत्सर्ग से स्थित हो जाते हैं। जो ग्यारह-अंगधारी हैं, धर्म अथवा शुक्लध्यान में तत्पर हैं, अशेष कषायों को छोड़ चुके हैं, मौनव्रती और कंदरा में निवास करने वाले हैं, जो बाह्य और अभ्यंतर परिग्रह से रहित, स्नेहरहित, नि:स्पृही यतिपति ‘जिन’ के समान हमेशा विचरण करते हैं, वे ही श्रमण जिनकल्प में स्थित हैं।
स्थविरकल्प-जिनेन्द्रदेव ने अनगार साधुओं का स्थविरकल्प भी बताया है। पाँच प्रकार के चेल-वस्त्र का त्याग करना, अकिंचनवृत्ति धारण करना और प्रतिलेखन-पिच्छिका ग्रहण करना, पाँच महाव्रतों को धारण करना, स्थितिभोजन और एक भक्त करना, भक्ति सहित श्रावक के द्वारा दिया गया आहार करपात्र में ग्रहण करना, याचना करके भिक्षा नहीं लेना, बारह प्रकार के तपश्चरण में उद्यत रहना, छह प्रकार की आवश्यक क्रियाओं का हमेशा पालन करना, क्षितिशयन करना, शिर के केशों का लोंच करना, जिनवर की मुद्रा को धारण करना, संहनन की अपेक्षा से इस दुषमाकाल में पुर, नगर और ग्राम में निवास करना। ऐसी चर्या करने वाले साधु स्थविरकल्प में स्थित हैं। ये वही उपकरण ग्रहण करते हैं कि जिससे चर्या-चारित्र का भंग नहीं होवे। अपने योग्य पुस्तक आदि को ही ग्रहण करते हैंैं। ये स्थविरकल्पी साधु समुदाय-संघ सहित विहार करते हैंं अपनी शक्ति के अनुसार धर्म की प्रभावना करते हुए भव्यों को धर्मोपदेश सुनाते हैं और शिष्यों का संग्रह तथा उनका पालन भी करते हैंं।
इस समय संहनन अतिहीन है, दु:षमकाल है और मन चंचल है, फिर भी वे धीर-वीर पुरुष ही हैं जो कि महाव्रत के भार को धारण करने में उत्साही हैं।
पूर्व में-चतुर्थ काल में जिस शरीर से एक हजार वर्ष में जितने कर्मों की निर्जरा की जाती है, इस समय हीनसंहनन वाले शरीर से एक वर्ष में उतने ही कर्मों की निर्जरा हो जाती है।१’’
इस प्रकार से जिनकल्प में स्थित साधु जिनकल्पी और स्थविरकल्प में स्थित स्थविरकल्पी कहलाते हैं। आज के युग में स्थविरकल्पी मुनि ही होते हैं, चूँकि उत्तमसंहनन नहीं है।
अन्यत्र भी कहा है-
‘‘जो जितेन्द्रिय साधु सम्यक्त्व रत्न से विभूषित हैं, एकाक्षर के समान एकादशांग के ज्ञाता हैं, पाँव में लगे हुए कांटे को और लोचन में गिरी हुई रज को न स्वयं निकालते हैं न दूसरों को निकालने के लिए कहते हैं। निरंतर मौन रहते हैं, वङ्कावृषभनाराचसंहनन के धारक हैं, गिरि की गुफाओं में, वनों में, पर्वतों पर तथा नदियों के किनारे रहते हैं, वर्षाकाल में मार्ग को जीवों से पूर्ण समझकर षट्मास पर्यंत आहार रहित होकर कायोत्सर्ग धारण करते हैं। परिग्रह रहित, रत्नत्रय से विभूषित, मोक्षसाधन में निष्ठ और धर्म तथा शुक्लध्यान में निरत रहते हैं, जिनके स्थान का कोई निश्चय नहीं है तथा जो जिन भगवान के समान विहार करने वाले होते हैं ऐसे जिनकल्प-जिनेन्द्रदेव के सदृश संयम धारण करने वालों को जिनेन्द्रदेव ने जिनकल्पी कहा है।२’’ यहाँ पर ‘कल्पप्रत्यय३’ ईषत् असमाप्ति-किंचित् अपूर्णता के अर्थ में हुआ है।
जो जिनलिंग-नग्नमुद्रा के धारक हैं, सम्यक्त्व से जिनका हृदय क्षालित हैं, अट्ठाईस मूलगुणों के धारक हैं, ध्यान और अध्ययन में निरत हैं, पंचमहाव्रत और दर्शनाचार आदि पाँच आचारों के पालन करने वाले हैं, दशधर्म से विभूषित, ब्रह्मचर्य में निष्ठ, बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रह से विरक्त हैं, तृण-मणि, शत्रु-मित्र आदि में समानभावी हैं, मोह, अभिमान और उन्मत्तता से रहित हैं, धर्मोपदेश के समय तो बोलते हैं और शेष समय मौन रहते हैं, शास्त्र समुद्र के पारंगत हैं, इनमें से कितने ही अवधिज्ञान के धारक होते हैं तथा कितने ही मन:पर्यय ज्ञान के धारक भी होते हैं। अवधिज्ञान के पहले पाँच गुणवाली सुन्दर पिच्छी प्रतिलेखन के लिए धारण करते हैं। संघ के साथ-साथ विहार करते हैं, धर्मप्रभावना तथा उत्तम-उत्तम शिष्यों के रक्षण और वृद्ध साधुओं के रक्षण तथा पोषण में सावधान रहते हैं। इसीलिए इन्हें महर्षि लोग स्थविरकल्पी कहते हैं।
‘‘इस भीषण कलिकाल में हीन संहनन के होने से साधु स्थानीय नगर, ग्राम आदि के जिनालय में रहते हैं। यद्यपि यह काल दुस्सह है, शरीर का संहनन हीन है, मन अत्यन्त चंचल है और मिथ्यात्व सारे संसार में विस्तीर्ण हो गया है, तो भी ये साधु संयम के पालन करने में तत्पर रहते हैं।४’’
जो कर्म पूर्वकाल में हजार वर्ष में नष्ट किये जा सकते हैं, वे कलियुग में एक वर्ष में ही नष्ट किये जा सकते हैं।
इसी से मोक्षाभिलाषी साधु संयमियों के योग्य पवित्र तथा सावद्यरहित पुस्तक आदि ग्रहण करते हैं। इस प्रकार सर्वपरिग्रहादि रहित स्थविरकल्प कहा जाता है और जो यह वस्त्र, दण्ड, पात्र, कम्बल आदि धारण करना है वह स्थविरकल्प नहीं है किन्तु वह गृहस्थकल्प है। अत: यह श्वेताम्बरों की वस्त्रादि कल्पना मोक्ष हेतु न होकर इन्द्रिय सुखानुभव हेतु ही है।
विशेष-वर्तमान में उत्तम संहनन का अभाव होने से जिनकल्पी साधु हो ही नहीं सकते हैं अत: सभी दिगम्बर साधु स्थविरकल्पी ही होते हैं। इन दो भेदों की अपेक्षा भी दिगम्बर मुनियों में भेद हो जाते हैं।
चातुर्वर्ण्यसंघ
श्रमण संघ से ऋषि, मुनि, यति और अनगार ऐसे चार भेद रूप साधु लिये जाते हैं।१
१. ऋषि-ऋद्धि को प्राप्त हुए साधु ऋषि कहलाते हैं। इनके भी चार भेद हैं-राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि। विक्रिया ऋद्धि और अक्षीण ऋद्धिधारी राजर्षि हैं। बुद्धि ऋद्धि और औषधि ऋद्धिधारी ब्रह्मर्षि हैं। गगन गमन ऋद्धि से सम्पन्न साधु देवर्षि कहलाते हैं। केवलज्ञानी भगवान परमर्षि कहे जाते हैं।
२. अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी मुनि कहलाते हैं।
३. उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी पर आरोहण करने वाले यति कहलाते हैं।
४. सामान्य साधु अनगार कहे जाते हैं।
नैगमनय की अपेक्षा से इन सभी को अनगार, मुनि, यति, भिक्षुक, साधु, संयमी, तपस्वी और निर्र्ग्रन्थ आदि शब्दों से कहते हैं।
आज के युग में उपर्युक्त चार प्रकार के साधुओं में से मात्र अनगार साधुओं का ही अस्तित्व है।
विशेष-यद्यपि ये सभी दिगम्बर मुनि होते हैं फिर भी इन भेदों की अपेक्षा भी मुनियों में भेद हो जाते हैं।
आर्यिका-ये पूर्वोक्त अट्ठाईस मूलगुण और समाचार विधि का पालन करने वाली हैं। साड़ी मात्र परिग्रह धारण करती हैं। अर्थात् एक बार में एक साड़ी ही पहनती हैं, ऐसे दो१ साड़ी का परिग्रह रहता है, इसलिए उपचार से महाव्रती हैं। आतापन योग आदि के सिवाय बाकी सभी क्रियाएँ मुनियों के समान करती हैं और बैठकर एक बार करपात्र में आहार लेती हैं। इन्हें शास्त्रों में संयतिका, संयता, संयमिनी, श्रमणी और महाव्रतिनी शब्दों से भी सम्बोधित किया है। यथा-
प्रथमानुयोग में ऐसे अनेकों उदाहरण पाये जाते हैं।
पहली प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक श्रावक के ११ स्थान होते हैं६। उनके दर्शन प्रतिमा आदि नाम हैं-
१. दर्शन प्रतिमा, २. व्रत प्रतिमा, ३. सामायिक प्रतिमा, ४. प्रोषध प्रतिमा, ५. सचित्तत्याग प्रतिमा, ६. रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा, ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा, ८. आरंभत्याग प्रतिमा, ९. परिग्रहत्याग प्रतिमा, १०. अनुमतित्याग प्रतिमा, ११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा।
इस ग्यारहवीं प्रतिमाधारी के दो भेद हैं-क्षुल्लक और ऐलक।
क्षुल्लक-इनके हाथ में मयूरपिच्छिका७ और काष्ठ का कमण्डलु रहता है। लंगोटी और चादर रहती है। चादर खंडवस्त्ररूप अर्थात् कुछ छोटी रहती है। ऐसे दो लंगोटी और दो चादररूप परिग्रह इनके पास रहता है। ये चाहें तो केशलोंच करें अथवा वैंâची या उस्तरा आदि से केश निकाल सकते हैं। गुरु के पीछे जो गोचरी वृत्ति से जाकर श्रावक के यहाँ पड़गाहन विधि से पहुुँचकर अर्घ्य आदि चढ़ाने के बाद बैठकर कटोरी अथवा थाली में भोजन करते हैं। अन्य विधि भी कही गई है-
‘‘गुरु की आज्ञा से ग्रहण किये हुए अपने पात्र को स्वच्छ कर चर्या के लिए श्रावक के घर में प्रवेश करते हैं आँगन में ठहरकर ‘‘धर्मलाभ’’ कहकर भिक्षा लेते हैं। ऐसे मौनपूर्वक एक, दो या पाँच, सात आदि घर से भिक्षा लेकर पश्चात् किसी एक के घर में बैठकर आहार करके अपना पात्र प्रक्षालन करके गुरु के पास आ जाते हैं। यदि ऐसी प्रवृत्ति नहीं रुचती है तो गुरु की गोचरी चर्या के अनन्तर श्रावक के घर में गोचरी वृत्ति से जाकर आहार ग्रहण करते हैं।१’’
ऐलक-उपर्युक्त व्रतों को पालते हुए लंगोटी मात्र (दो लंगोटी) परिग्रह रखते हैं। नियम से केशलोंच करते हैं और पाणिपात्र-अपने हाथ की अंजुलियों में ही आहार करते हैं।
‘‘इन क्षुल्लक, ऐलक को भी दिन में प्रतिमायोग, सिद्धान्त शास्त्र और प्रायश्चित्त शास्त्रों का अध्ययन वीरचर्या और त्रिकाल योग करने का अधिकार नहीं है।२’’
स्त्रियों में क्षुल्लिका ही एक भेद रहता है दो भेद नहीं है। ये क्षुल्लिकाएं भी एक धोती और एक चादर रखती हैं। अर्थात् दो धोती, दो चादर मात्र परिग्रह रहता है। मयूर पंख की पिच्छी और कमण्डलु रखती हैं। क्षुल्लक के समान व्रतों का पालन करते हुए आर्यिकाओं के पास में रहती हैं और प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाओं में तत्पर रहती हैं।
पहली प्रतिमा से छठी तक गृहस्थ कहलाते हैं। सातवीं प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी गृहविरत और गृहनिरत के भेद से दो प्रकार के होते हैं। आगे के प्रतिमाधारी मुनि संघों में रहते हैं या मंदिर आदि में भी रहते हैं।
पहली प्रतिमा से छठी तक जघन्य, सातवीं से नवमीं तक मध्यम और दशवीं, ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। आचार्यों ने इन्हें उपासक भी कहा है। यथा-
‘‘सम्पूर्णरूप पाँचों पापों का त्याग करने वाले यति समयसार स्वरूप हैं और जो एकदेश त्याग करने वाले हैं वे उपासक होते हैं।३’’
श्रावक के पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक ऐसे भी तीन भेद माने हैं। उनमें से जिसके हिंसादि पाँच पापों का त्यागरूप पक्ष है तथा जो अभ्यासरूप से श्रावकधर्म का पालन करता है, वह पाक्षिक है।
जो निरतिचार श्रावक धर्म का पालन करता है अर्थात् पहली प्रतिमा से लेकर दशवीं प्रतिमा तक के पालने वालों में से कोई भी हो नैष्ठिक है।
जिसका देशसंयम पूर्ण हो चुका है और जो आत्मध्यान में लीन होकर समाधिमरण करता है, वह साधक कहलाता है।
इन श्रावक के व्रतों को पालन करने वाले पुरुष और स्त्री श्रावक और श्राविका कहलाते हैं।
विशेष-इन चतुर्विध संघ में प्रथम भेदरूप मुनि ही दिगम्बर होते हैं। उनमें भी संघ की अपेक्षा आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ऐसे पाँच४ भेद माने गये हैं। इनकी अपेक्षा भी मुनि में भेद हो जाते हैं।
पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अवसंज्ञ और मृगचरित्र ये मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्र में नियुक्त नहीं है और मन्दसंवेगी है।१’’
पार्श्वस्थ-‘पार्श्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्थ:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो संयत के गुणों की अपेक्षा पास में-निकट में रहता है वह पार्श्वस्थ है। ‘‘जो मुनि वसतिकाओं में आसक्त रहता है, मोह की बहुलता है, रात-दिन उपकरणों के बनाने में लगा रहता है, असंयतजनों की सेवा करता है और असंयतजनों से दूर रहता है वह पार्श्वस्थ है।२’’ अर्थात् यह संयम मार्ग के समीप ही रहता है। यद्यपि यह एकान्त से असंयमी नहीं है, परन्तु निरतिचार संयम मार्ग का पालन भी नहीं करता है। निषिद्ध स्थानों में आहार लेता है, हमेशा एक ही वसतिका में रहता है, एक ही संस्तर में हमेशा शयन करता है, एक ही क्षेत्र में रहता है। गृहस्थों के घर में अपनी बैैठक लगाता है। गृहस्थोपकरणों से अपनी शौचादि क्रिया करता है, जिसका शोधन अशक्य है अथवा बिना शोधी हुई वस्तु को ग्रहण करता है। सुईं, वैंâची, नख, छेदने का शस्त्र, चीमटा, उस्तरा तीक्ष्ण करने का पत्थर रखता है। कर्णमल निकालने का साधन इन वस्तुओं को जो ग्रहण करता है, सीना, धोना, रंगना इत्यादि कार्यों में तत्पर रहता है वह पार्श्वस्थ मुनि हैं।३’’
कुशील-जिसका आचरण अथवा स्वभाव कुत्सित है वह कुशीलमुनि है। यह क्रोधादि कषायों से कलुषित रहता है, व्रत, गुण और शील से हीन रहता है और संघ का अपयश करने में कुशल होता है।
संसक्त-जो असंयत के गुणों में अतिशय आसक्त रहता है, वह संसक्त है। यह आहार आदि की लम्पटता से वैद्यक, मंत्र, ज्योतिषी आदि द्वारा अपनी कुशलता दिखाने में लगा रहता है, राजादिकों की सेवा करने में तत्पर रहता है।
अवसंज्ञ-जिनके सम्यग्दर्शन आदि संज्ञा अपगत-विनष्ट हो गई है वह अवसंज्ञ मुनि है। यह चारित्र आदि गुणों से शून्य है, जिनवचनों का भाव न समझने से यह चारित्रादि से भ्रष्ट है। तेरह प्रकार की क्रियाओं में आलसी है, इनके मन में सांसारिक सुख की इच्छा लगी हुई है।
मृगचरित्र-मृग के समान-पशु के समान जिनका आचरण है वे मृगचरित्र कहलाते हैं। यह मुनि आचार्य के उपदेश को नहीं मानता है, स्वच्छंद प्रवृत्ति करता है, अकेला विचरण करता है, जिनसूत्र में दूषण लगाता है, तप-सूत्रादि में अविनीत है और धैर्यरहित है।४’’ अर्थात् ‘‘जिनसूत्र में दूषण लगाते हैं-वैंâची से केश निकालना ही योग्य, ऐसा कहते हैं। केशलोंच करने से आत्मविराधना होती है। सचित्त तृण पर बैठने पर भी मूलगुण पाला जाता है। उद्देशादिक दोषसहित भोजन करना दोषास्पद नहीं है, ग्राम में आहार के लिए जाने से जीवविराधना होती है अत: वसतिका में ही भोजन करना चाहिए। इस प्रकार उत्सूत्र भाषण करने वाले को मृगचरित्र कहते हैं।१’’
ये पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के मुनि दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थिर नहीं रहते हैं। इनको संसार का भय नहीं है, ये तीर्थ और धर्म आदि में हर्षयुक्त नहीं होते हैं, अत: ये वंदनीय नहीं हैं।
सो ही कहा है-
‘‘ये पार्श्वस्थ आदि साधु दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनकी विनय से हमेशा ‘पार्श्वस्थ’-दूर रहते हैं, इसलिए ये वंदनीय नहीं है। ये हमेशा गुणधरों के छिद्रों को देखने वाले हैं-संयतजनों के दोषों को प्रगट करने वाले हैं, इसीलिए ये अवंद्य हैं तथा इनसे अतिरिक्त अन्य पाखंडी साधु भी वंदनीय नहीं है।२’’
विशेष-ये पाँचों प्रकार के मुनि दिगम्बर होते हुए भी दोषसहित चारित्र वाले हैं। इसलिए ये नमस्कार के लिए या संगति के लिए निषिद्ध माने गये हैं।