चत्तारि मंगलं-अरिहंत मंगल, सिद्ध मंगल, साहू मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा—अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि—अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
जो, मल अर्थात् पापों का गालन अर्थात् क्षालन करें अथवा जो पुण्य को देवे वह मंगल है।
अर्थ—लोक में मंगल चार हैं—अरिहंत परमेष्ठी मंगल स्वरूप हैं (मंगल करने वाले हैं), सिद्ध परमेष्ठी मंगल स्वरूप हैं, साधु परमेष्ठी (आचार्य, उपाध्याय और साधु) मंगल स्वरूप हैं और केवली भगवान् के द्वारा प्रणीत धर्म मंगल स्वरूप हैं।
लोक में चार ही सबसे उत्तम हैं—अरिहंत ही लोकोत्तम हैं, सिद्ध ही लोकोत्तम हैं, साधु ही लोकोत्तम हैं और केवली द्वारा प्रणीत धर्म ही लोक में उत्तम है।
चार की ही मैं शरण लेता हूँ—अरिहंतों की मैं शरण लेता हूँ, सिद्धों की मैं शरण लेता हूँ, साधुओं की मैं शरण लेता हूँ और केवली भगवान द्वारा प्रणीत धर्म की मैं शरण लेता हूँ।
‘‘मगि’’ इस धातु से मंगल शब्द निष्पन्न होता है-बनता है। जो किसी एक निश्चय या निर्णय में क्षेपण करता है अर्थात् निर्णीत वस्तु का उसके नामादिक के द्वारा निर्णय कराता है उसे ‘‘निक्षेप’’ कहते हैं। निक्षेप के छह भेद हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव।
अब ‘‘मंगल’’ में नाम आदि निक्षेपों को घटित करते हैं-
वाच्यार्थ-शब्दार्थ की अपेक्षा से रहित ‘‘मंगल’’ शब्द नाम मंगल है। उस मंगल का आधार आठ प्रकार का है। जैसे-१. एक जीव, २. अनेक जीव, ३. एक अजीव, ४. अनेक अजीव, ५. एक जीव और एक अजीव, ६. अनेक जीव और एक अजीव, ७. एक जीव और अनेक अजीव, ८. अनेक जीव और अनेक अजीव।१
वाच्यार्थ से निरपेक्ष-मंगल शब्द नाम मंगल कहलाता है अर्थात् किसी का नाम तो मंगल रख दिया गया किन्तु उसमें मंगलपने का कोई गुण घटित नहीं होता है। न ही उसका नाम लेने से पापों का नाश होता है, न उसे देखने से पुण्य की प्राप्ति होती है और न उसके वचनालाप से सुख मिलता है, वह तो केवल ‘‘मंगल’’ संज्ञा को प्राप्त एक साधारण मनुष्य है इसीलिए उसका यह नाम ‘‘नाम मंगल’’ निक्षेप कहा जाता है।
उस मंगल के आठ आधार होते हैं-एक जीव आदि। जैसे-एक जिनेन्द्रदेव के आश्रय से जो मंगल-मंगलाचरण किया जाता है वह ‘एक जीवाश्रित मंगल’ कहलाता है, इसी प्रकार आठों में समझ लेना चाहिए।
किसी नाम को धारण करने वाले दूसरे पदार्थ की ‘वह यह है’ इस प्रकार स्थापना करने को स्थापना कहते हैं। वह स्थापना दो प्रकार की है-सद्भावस्थापना, असद्भावस्थापना। इन दोनों में से आकारवान वस्तु में सद्भाव स्थापना होती है और इससे विपरीत असद्भावस्थापना जाननी चाहिए।
उनमें स्थापना मंगल में किसी दूसरे नाम को धारण करने वाले पदार्थ में ‘‘यह वही है’’ इस प्रकार स्थापना करने को ‘स्थापना मंगल’ कहते हैं। वह स्थापना दो प्रकार की है-सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना। उनमें से किसी आकार वाली वस्तु में सद्भाव स्थापना होती है। जैसे-चन्द्रप्रभ की प्रतिमा में ‘ये चन्द्रप्रभ भगवान् हैं’ ऐसा मानना, इससे विपरीत में-बिना आकार वाली वस्तु में असद्भावस्थापना होती है, जैसे-सुपारी, नारियल आदि में क्षेत्रपाल की स्थापना कर लेना।१
भावार्थ-इन्हें तदाकार और अतदाकार स्थापना के नाम से भी जाना जाता है। ये दोनों स्थापनाएँ वर्तमान में व्यवहार में प्रचलित हैं। पंचपरमेष्ठी, नवदेवता, पंचबालयति, चौबीस तीर्थंकर, भरत, बाहुबली आदि प्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सद्भाव स्थापना मंगल को ही दर्शाने वाली है तथा क्षेत्रपाल आदि की स्थापना जो नारियल, सुपारी आदि से की जाती है वह असद्भाव स्थापना की प्रतीक है एवं अनेक मंदिरों में इनकी तदाकार प्रतिमाएँ भी देखी जाती हैं।
आगे होने वाली मंगल पर्याय को ग्रहण करने के सन्मुख हुए द्रव्य (उस पर्याय की अपेक्षा) को द्रव्य मंगल कहते हैं। अथवा वर्तमान पर्याय की विवक्षा से रहित द्रव्य को ही द्रव्यमंगल कहते हैं। वह द्रव्य मंगल आगम और नो-आगम के भेद से दो प्रकार का है।२
भविष्य में होने वाली पर्याय विशेष की अपेक्षा करके उसी भावी पर्याय के सन्मुख हुए द्रव्य को अथवा अतद्भाव रूप द्रव्य को द्रव्यमंगल कहते हैं।
वह द्रव्यमंगल दो प्रकार का है-आगमद्रव्य मंगल और नोआगम द्रव्यमंगल। मंंगलप्राभृत के ज्ञान में उपयोगरहित जीव को अथवा मंगलप्राभृत रूप शब्दों की रचना को ‘‘आगमद्रव्यमंगल’’ कहते हैं।
नोआगमद्रव्यमंगल ज्ञायक शरीर, भावि और तद्व्यतिरिक्त के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें से ज्ञायक शरीर भावि, वर्तमान और अतीत के भेद से तीन प्रकार का होता है। इनमें से अतीत शरीर के भी तीन भेद हैं-च्युत, च्यावित, त्यक्त।
विशेषार्थ-आगे होने वाली पर्याय के सन्मुख अथवा वर्तमान पर्याय की विवक्षा से रहित अर्थात् भूत या भविष्यत् पर्याय की विवक्षा से द्रव्य को द्रव्य मंगल कहा है और तद्विषयक ज्ञान को आगम कहा है। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि जो मंगलविषयक शास्त्र का जानकार वर्तमान में उसके उपयोग से रहित हो वह आगमद्रव्यमंगल है। यहाँ पर जो मंगलविषयक शास्त्र की शब्द रचना अथवा मंगल शास्त्र के अर्थ की स्थापनारूप अक्षरों की रचना को आगम द्रव्य मंगल कहा है वह उपचार से ही समझना चाहिए क्योंकि मंगलविषयक शास्त्रज्ञान में मंगलविषयक शास्त्र की शब्द रचना और मंगल शास्त्र के अर्थ की स्थापनारूप अक्षरों की रचना ये मुख्यरूप से बाह्य निमित्त पड़ते हैं। वैसे तो सहकारी कारण शरीरादिक और भी होते हैं, परन्तु वे मुख्य बाह्य निमित्त न होने से उनका ग्रहण नो आगम में किया है। अथवा मंगलविषयक शास्त्रज्ञान से और दूसरे बाह्य निमित्तों की अपेक्षा इन दोनों बाह्य निमित्तों की विशेषता दिखाने के प्रयोजन से इन दोनों बाह्य निमित्तों का आगमद्रव्यमंगल में ग्रहण कर लिया है।
आगम के बाह्य सहकारी कारण होने से शरीर को नो आगम कहा गया है और उसमें अन्वय प्रत्यय का उपलब्धि होने से उसे द्रव्य कहा गया है। ये दोनों बातें अतीत, वर्तमान और अनागत इन तीनों शरीरों में घटित होती हैं, इसलिए इनमें मंगलपने का व्यवहार हो सकता है।
इनमें से अतीत शरीर के तीन भेद हैं-च्युत, च्यावित और त्यक्त।
कदलीघातमरण के बिना पके हुए फल के समान कर्म के उदय से झड़ने वाले आयु कर्म के क्षय से अपने आप पतित शरीर को च्युत शरीर कहते हैं। जैसे पका हुआ फल अपना समय पूरा हो जाने के कारण वृक्ष से स्वयं गिर पड़ता है। वृक्ष से अलग होने के लिए फल को और दूसरे बाह्य निमित्तों की अपेक्षा नहीं पड़ती है। उसी प्रकार आयुकर्म के पूरे हो जाने पर जो शरीर शस्त्रादिक के बिना छूट जाता है, उसे च्युत शरीर कहते हैं।
कदलीघात के द्वारा छिन्न आयु के क्षय हो जाने से छूटे हुए शरीर को च्यावित शरीर कहते हैं। कहा भी है-
विष के खा लेने से, वेदना से, रक्त का क्षय हो जाने से, तीव्र भय से, शस्त्राघात से, संक्लेश की अधिकता से तथा आहार और श्वासोच्छ्वास के रुक जाने से आयु क्षीण हो जाती है।
जैसे कदली (केला) के वृक्ष का तलवार आदि के प्रहार से एकदम विनाश हो जाता है, उसी प्रकार विष भक्षणादि निमित्तों से भी जीव की आयु एकदम उदीर्ण होकर छिन्न हो जाती है। इसे ही अकाल मरण कहते हैं और इसके द्वारा जो शरीर छूटता है उसे च्यावित शरीर कहते हैं।
त्यक्त शरीर तीन प्रकार का है-प्रायोपगमन विधान से छोड़ा गया, इंगिनी विधान से छोड़ा गया और भक्तप्रत्याख्यान से छोड़ा गया। इस तरह त्यक्त शरीर के तीन भेद हो जाते हैं।
अपने और पर के उपकार की अपेक्षा से रहित समाधिमरण को प्रायोपगमन कहते हैं।
प्रायोपगमन समाधिमरण को धारण करने वाला साधु संस्तर का ग्रहण करना, बाधा के निवारण के लिए हाथ-पाँव का हिलाना, एक क्षेत्र को छोड़कर दूसरे क्षेत्र में जाना आदि क्रियाएँ न तो स्वयं करता है और न दूसरे से कराता है। जैसे काष्ठ सर्वथा निश्चल रहता है, उसी प्रकार वह साधु समाधि में सदा निश्चल रहता है।
शास्त्रों में प्रायोपगमन के अनेक प्रकार के अर्थ मिलते हैं। जैसे-संघ को छोड़कर अपने पैरों द्वारा किसी योग्य देश का आश्रय करके जो समाधिमरण किया जाता है उसे पादोपगमन समाधिमरण कहते हैं। अथवा प्राय अर्थात् संन्यास की तरह उपवास के द्वारा जो समाधिमरण होता है, उसे प्रायोपगमन समाधिमरण कहते हैं। अथवा पादप अर्थात् वृक्ष की तरह निष्पन्दरूप से रहकर, शरीर से किसी भी प्रकार की क्रिया न करते हुए जो समाधिमरण होता है उसे पादपोपगमन समाधिमरण कहते हैं। इन सब अर्थों का मुख्य अभिप्राय यही है कि इस विधान में अपने व पर के उपकार की अपेक्षा नहीं रहती है।
जिस संन्यास में, अपने द्वारा किये गए उपकार की अपेक्षा रहती है, किन्तु दूसरे के द्वारा किए गये वैयावृत्य आदि उपकार की अपेक्षा सर्वथा नहीं रहती, उसे इंगिनीसमाधि कहते हैं।
जिस संन्यास में अपने और दूसरे के द्वारा किए गए उपकार की अपेक्षा रहती है उसे भक्तप्रत्याख्यान संन्यास कहते हैं। भक्तनाम भोजन का है और प्रत्याख्यान त्याग को कहते हैं। इसका यह अभिप्राय है कि जिस संन्यास में क्रम-क्रम से आहारादि का त्याग करते हुए अपने और पर के उपकार की अपेक्षा रखकर समाधिमरण किया जाता है, उसे भक्त प्रत्याख्यान संन्यास कहते हैं।
इन तीनों प्रकार के समाधिमरणों में से भक्त प्रत्याख्यान विधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की है। जघन्य भक्तप्रत्याख्यान विधि का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त मात्र है, उत्कृष्ट भक्तप्रत्याख्यान विधि का प्रमाण बारह वर्ष है और मध्यम भक्त प्रत्याख्यान विधि का प्रमाण जघन्य अन्तर्मुहूर्त से लेकर बारह वर्ष के भीतर है।
तद्व्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कर्ममंगल तद्व्यतिरिक्त और नोकर्ममंगल तद्व्यतिरिक्त। उनमें दर्शनविशुद्धि आदि सोलह प्रकार के तीर्थंकर नामकर्म के कारणों से जीव के प्रदेशों से बन्धे हुए तीर्थंकर नामकर्म को कर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य मंगल कहते हैं क्योंकि वह मंगलपने का हेतु है और जो तद्व्यतिरिक्त नोकर्म मंगल है वह भी दो प्रकार का है-एक लौकिक नोकर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यमंगल और दूसरा लोकोत्तर नोकर्मतद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यमंगल। उन दोनों में से लौकिक मंगल सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है।१
उनमें सिद्धार्थ-सफेद सरसों, पूर्णकुंभ-जल से भरा हुआ मंगल कलश आदि अचित्त मंगल हैं, कुमारीकन्या, श्वेत ऐरावत हाथी आदि सचित्त मंगल हैं और अलंकार-कंकण, मुकुट, हार आदि से सुसज्जित कन्या, सौभाग्यवती स्त्री आदि मिश्र मंगल हैं।
इसी प्रकार लोकोत्तर मंगल भी सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का होता है। अर्हन्त आदि का अनादि और अनन्त स्वरूप जीवद्रव्य सचित्त लोकोत्तर मंगल है। कृत्रिम, अकृत्रिम चैत्यालय आदि अचित्त लोकोत्तर मंगल हैं। उन चैत्यालयों में स्थित प्रतिमाओं का इस निक्षेप में ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि उनका स्थापना निक्षेप में अन्तर्भाव होता है।
शंका-अकृत्रिम प्रतिमाओं में स्थापना का व्यवहार वैâसे संभव है ?
समाधान-ऐसी शंका उचित नहीं है। क्योंकि अकृत्रिम प्रतिमाओं में भी बुद्धिपूर्वक ‘‘ये जिनेन्द्रदेव हैं’’ ऐसा उनका प्रतिनिधित्व मान लेने पर मुख्य स्थापना व्यवहार की उपलब्धि होती है। इन दोनों प्रकार के सचित्त और अचित्त से मिश्रित गंधकुटी, समवसरण आदि को मिश्र मंगल कहते हैं।२
गुणपरिणत आसन क्षेत्र अर्थात् जहाँ पर योगासन, वीरासन इत्यादि अनेक आसनों से तदनुकूल अनेक प्रकार के योगाभ्यास, जितेन्द्रियता आदि गुण प्राप्त किये गये हों, ऐसा क्षेत्र परिनिष्क्रमणक्षेत्र, अर्थात् जहाँ तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने दीक्षा ली है ऐसा क्षेत्र, केवलज्ञानोत्पत्ति क्षेत्र और निर्वाण क्षेत्र (सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर आदि) को क्षेत्र मंगल कहते हैं।
उदाहरणपूर्वक इनका खुलासा करते हैं-
ऊर्जयन्त (गिरनार पर्वत) चम्पापुर, पावापुर नगर आदि क्षेत्र मंगल हैं। अथवा साढ़े तीन हाथ से लेकर पाँच सौ पच्चीस धनुष तक के शरीर में स्थित और केवलज्ञानादि से व्याप्तआकाश प्रदेशों कोक्षेत्र मंगल कहते हैं अथवा लोकप्रमाण आत्मप्रदेशों से लोकपूरण समुद्घात दशा में व्याप्त किए गए समस्त लोक के प्रदेशों को क्षेत्र मंगल कहते हैं।३
जिस काल में जीव केवलज्ञानादि अवस्थाओं को प्राप्त होता है, उसे पापरूपी मल का गलाने वाला होने के कारण कालमंगल कहते हैं। उदाहरणार्थ-दीक्षाकल्याणक, केवलज्ञान की उत्पत्ति और निर्वाणप्राप्ति के दिवस आदि को काल मंगल समझना चाहिए। जिनमहिमा संबंधी काल को भी कालमंगल कहते हैं, जैसे-नंदीश्वर (आष्टान्हिक) आदि पर्व के दिवस।१
वर्तमान पर्याय से युक्त द्रव्य को भाव कहते हैं। वह दो प्रकार का है-आगमभावमंगल और नोआगमभावमंगल। सिद्धान्त को आगम कहते हैं इसलिए जो मंगलविषयक शास्त्र का ज्ञाता होते हुए वर्तमान में उसमें उपयुक्त है उसे आगम भाव मंगल कहते हैं।
नो आगमभाव मंगल के दो भेद हैं-उपयुक्त और तत्परिणत। जो आगम के बिना ही मंगल के अर्थ में उपयोगसहित है उसे ‘‘उपयुक्त नो आगम भावमंगल’’ कहते हैं और मंगलरूप पर्याय अर्थात् जिनेन्द्रदेव आदि की वंदना, भावस्तुति आदि में परिणत जीव को ‘‘तत्परिणत नो आगम भावमंगल’’ कहते हैं।२
इस ग्रंथ में यहाँ इन निक्षेपों में से किस निक्षेप से प्रयोजन है ? ऐसा किसी के द्वारा पूछे जाने पर श्री वीरसेनाचार्य कहते हैं कि-
इस ग्रंथ में तत्परिणत नोआगमभावमंगलरूप निक्षेप से प्रयोजन है। इस प्रकार निक्षेपों का वर्णन पूर्ण हुआ।
अब क्रम प्राप्त ‘‘मंगल’’ शब्द के एकार्थवाची शब्द कहते हैं-
मंगल, पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, शुभ, कल्याण, भद्र, सौख्य इत्यादि सभी शब्द मंगल के पर्यायवाची नाम हैं।
शंका-यहाँ पर मंगल के एकार्थवाचक अनेक नामों का प्ररूपण किसलिए किया गया है ?
समाधान-क्योंकि मंगलरूप अर्थ अनेक शब्दों का वाच्य है अर्थात् अनेक शास्त्रों में अनेक पर्यायवाची नामों के द्वारा मंगलरूप अर्थ का प्रयोग किया गया है। अर्थात् प्राचीन आचार्यों ने अनेक शास्त्रों में अनेक अर्थात् भिन्न-भिन्न शब्दों के द्वारा मंगलरूप अर्थ का कथन किया है। उसका मतिभ्रम के बिना शिष्यों को सरलतापूर्वक ज्ञान हो जावे, इसलिए यहाँ पर मंगल के एकार्थवाची नाम कहे हैं।
अथवा ‘‘यदि शिष्य एक शब्द से प्रकृत विषय को नहीं समझ पावे, तो दूसरे शब्दों के द्वारा भी उसे ज्ञान कराना चाहिए’’।३ इस वचन के अनुसार भी यहाँ पर मंगलरूप अर्थ के पर्यायवाची अनेक नाम कहे गये हैं। इस प्रकार मंगल के एकार्थवाची नामों का निरूपण किया गया, अब आगे निरुक्ति अर्थ कहेंगे।
‘मंगल’ शब्द की निरुक्ति करते हुए कहते हैं कि जो मल को गलाता है, विनाश करता है, घात करता है, जलाता है, नष्ट करता है (मारता है), विशोधन करता है, विध्वंस करता है उसे ‘मंगल’ कहते हैं। वह मल, द्रव्यमल और भावमल के भेद से दो प्रकार का है। द्रव्यमल के दो भेद हैं-बाह्यद्रव्यमल और अभ्यन्तरद्रव्यमल। उनमें पसीना, धूल, मल, मूत्रादि बाह्य द्रव्यमल हैं। घन (समूह) और कठिन रूप से जीव के प्रदेशों से बंधे हुए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश इन भेदों में विभक्त ऐसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्म अभ्यन्तर द्रव्यमल हैं। अज्ञान और अदर्शन आदि परिणाम भावमल कहलाते हैं।
पुन: नाममल, स्थापनामल, द्रव्यमल और भावमल के भेद से मल चार प्रकार का भी बताया है अथवा इसी प्रकार विवक्षा भेद से मल अनेक प्रकार का भी होता है। उस मल का जो गालन करे, विनाश करे, ध्वंस करे उसे मंगल कहते हैं।
अथवा मंग का अर्थ है-सुख, उस सुख को जो लाता है-प्राप्त कराता है उसे मंगल कहते हैं।
अथवा कर्त्ता-किसी उद्देश्यपूर्वक कार्य को करने वाला, जिसके द्वारा या जिसके किये जाने पर कार्य की सिद्धि को प्राप्त होता है, उसे भी मंगल कहते हैं। इस तरह मंगल शब्द के अर्थ विषयक निश्चय के उत्पन्न करने के लिए निरुक्ति कही गई है।
अब क्रम प्राप्त मंगल का अनुयोग कहते हैं-
गाथार्थ-पदार्थ क्या है ? किसका है ? किसके द्वारा होता है ? कहाँ पर होता है ? कितने समय तक रहता है ? कितने प्रकार का है ? इस प्रकार छह अनुयोगद्वारों से सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान करना चाहिए।
इसी का स्पष्टीकरण करते हैं-मंगल क्या है ? जीव द्रव्य मंगल है। मंगल किसका है ? जीवद्रव्य का मंगल है। किनके द्वारा मंगल किया जाता है ? औदयिक आदि भावों के द्वारा मंगल किया जाता है अर्थात् पूजा-भक्ति-अणुव्रत-महाव्रत आदि प्रशस्तरागरूप औदयिक भाव-परिणाम भी मंगल में कारण होते हैं ऐसा अर्थ हुआ। मंगल कहाँ होता है ? जीव में मंगल होता है। कितने समय तक मंगल रहता है ? नाना जीवोें की अपेक्षा सर्वदा-हमेशा मंगल रहता है और एक जीव की अपेक्षा अनादि-अनन्त, सादि-अनन्त और सादि-सान्त इस प्रकार मंगल के तीन भेद हो जाते हैं।
प्रश्न-मंगल में एक जीव की अपेक्षा अनादि-अनन्तपना वैâसे बनता है ?
उत्तर-द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता से मंगल में अनादि अनन्तपना बन जाता है। अर्थात् द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जीव अनादिकाल से अनन्तकाल तक सर्वथा एक स्वभावरूप में अवस्थित है अतएव मंगल में भी अनादि अनन्तपना बन जाता है। अथवा नोआगमभाविद्रव्यमंगल की अपेक्षा मंगल अनादि-अनन्त है। रत्नत्रय को धारण करके कभी भी नष्ट नहीं होने वाले रत्नत्रय के द्वारा ही प्राप्त हुए सिद्ध के स्वरूप की अपेक्षा नैगम नय से मंगल सादि-अनन्त है। सम्यग्दर्शन की अपेक्षा मंगल सादि-सान्त समझना चाहिए, उसका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ कम छ्यासठ सागर प्रमाण है।
मंगल कितने प्रकार का है ? मंगल, सामान्य की अपेक्षा एक प्रकार का है। मुख्य और गौण के भेद से दो प्रकार का है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के भेद से तीन प्रकार का है। धर्म, सिद्ध, साधु और अर्हन्त के भेद से चार प्रकार का है। ज्ञान-दर्शन और तीन गुप्ति के भेद से पाँच प्रकार का है अथवा ‘जिनेन्द्रदेव को नमस्कार हो’ इत्यादि रूप से अनेक प्रकार का है। इस प्रकार अनुयोगद्वारों के द्वारा मंगल का वर्णन हुआ।
अथवा मंगल के विषय में छह अधिकारों द्वारा दंडकों का कथन करना चाहिए। वे इस प्रकार हैंं-१. मंगल २. मंगलकर्ता ३. मंगलकरणीय ४. मंगल का उपाय ५. मंगल के भेद ६. मंगल का फल। अब इन छह अधिकारों का अर्थ कहते हैं। मंगल का अर्थ तो पहले कहा जा चुका है। चौदह विद्यास्थानों के पारगामी आचार्य परमेष्ठी मंगलकर्ता हैं। भव्यजन मंगल करने योग्य हैं। रत्नत्रय की साधक सामग्री मंगल का उपाय है। एक प्रकार का, दो प्रकार का इत्यादि रूप से मंगल के भेद पहले वर्णन कर चुके हैं। अभ्युदय और मोक्षसुख मंगल का फल है अर्थात् जितने प्रमाण में यह जीव मंगल के साधन मिलाता है उतने ही प्रमाण में उससे जो यथायोग्य अभ्युदय और नि:श्रेयस सुख मिलता है वही उसके मंगल का फल है।१
यहां ‘मंगल’ चार प्रकार के हैं—