अमृतवर्षिणी टीका
अधुना पदभेदा: कथ्यन्ते—
अब पद भेदों को कहते हैं—
श्लोकार्थ—अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद ये पद के तीन भेद माने गऐ हैं। इनमें से मध्यम पद के द्वारा अंग एवं पूर्वों का पदविभाग किया गया है।
पद तीन प्रकार के होते हैं—अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद। इनमें से अनियत अक्षरों का समूह ‘‘अर्थपद’’ है। जैसे—ग्रंथ को लागो, देवपूजा करो इत्यादि।
आठ अक्षरों के समूह को ‘‘प्रमाणपद’’ कहते हैं। यथा—अनुष्टुप् छंद के एक-एक चरण में आठ-आठ अक्षर होते हैं इत्यादि।
मध्यमपद के अक्षरों का प्रमाण सर्वकाल (हमेशा) निश्चित ही रहता है। कहा भी है—परमागम में अंग, पूर्वों की पद संख्या मध्यम पदों के द्वारा ही बतलाई गई है। उस एक मध्यमपद के अक्षरों का प्रमाण कहते हैं—
गाथार्थ—सोलह सौ चौंतीस करोड़, तिरासी लाख, सात हजार, आठ सौ, अट्ठासी अक्षरों का एक मध्यम पद होता है।
अर्थात् एक मध्यमपद में सोलह सौ चौंतीस करोड़, तिरासी लाख, सात हजार, आठ सौ, अट्ठासी अक्षर होते हैं। इस प्रकार से द्वादशांग के समस्त पदों की संख्या कहते हैं—
गाथार्थ—द्वादशांग के सब मध्यम पदों का प्रमाण एक सौ बारह करोड़, तिरासी लाख, अट्ठावन हजार पाँच है।
अर्थात् ११२,८३, ५८,००५ पद द्वादशांग में होते हैं ऐसा अभिप्राय है।
श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, मतिज्ञान के बिना श्रुतज्ञान नहीं होता। श्रुतज्ञान के दो भेद हैं—अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक। इन्हीं दो में विशेषरूप से श्रुतज्ञान के बीस भेद हैं—पर्याय, पर्याय समास, अक्षर, अक्षर समास, पद, पद समास, संघात, संघात समास, प्रतिपत्तिक, प्रतिपत्तिक समास, अनुयोग, अनुयोग समास, प्राभृत-प्राभृत, प्राभृतप्राभृत समास, प्राभृत, प्राभृत समास, वस्तु, वस्तु समास, पूर्व, पूर्व समास। इसमें से पर्याय और पर्याय समास ये दो ज्ञान अनक्षरात्मक हैं शेष अक्षरात्मक हैं।
सूक्ष्म लब्धि—अपर्याप्तक निगोदिया जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय में स्पर्शन इन्द्रिय मतिज्ञानपूर्वक जो श्रुतज्ञान होता है वह ‘पर्याय’ नामक श्रुतज्ञान है, उससे कम श्रुतज्ञान किसी जीव को नहीं होता अत: यह ‘पर्याय’ श्रुतज्ञान नित्य-उद्घाटित (सदा निरावरण) है। यदि इस स्थान पर भी कर्म का आवरण होता तो वह निगोदिया जीव ज्ञानशून्य—जड़ हो जाता।
इस जघन्य श्रुतज्ञान के ऊपर अनन्त भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि, अनन्त गुणवृद्धिरूप छह प्रकार की वृद्धियाँ असंख्यात बार (असंख्यात लोक प्रमाण) होने पर ‘अक्षर’ श्रुतज्ञान होता है।
पर्याय श्रुतज्ञान से अधिक और अक्षर श्रुतज्ञान से कम जो श्रुतज्ञान के बीच के असंख्यात भेद हैं वे सब ‘पर्याय समास’ कहलाते हैं। इस तरह पर्याय और पर्याय समास ये दो श्रुतज्ञान अनक्षरात्मक हैं। शेष ऊपर के सब ज्ञान अक्षरात्मक हैं। पर्यायज्ञान, अक्षर ज्ञान के अनन्तवें भाग प्रमाण है।
अक्षर श्रुतज्ञान सम्पूर्ण अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का मूल है। अक्षरज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षरज्ञान की वृद्धि होते-होते जब संख्यात अक्षररूप वृद्धि हो जाती है तब ‘पद’ नामक श्रुतज्ञान होता है।
अक्षरज्ञान के ऊपर और पदज्ञान से कम बीच के संख्यात भेकद ‘अक्षर समास’ नामक श्रुतज्ञान है।
पद के तीन अर्थ हैं—अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद।
‘पुस्तक पढ़ो’ आदि अनियत अक्षरों के समूहरूप किसी अभिप्राय विशेष को बतलाने वाला ‘अर्थपद’ होता है। क्रियारूप ‘तिङन्त’ तथा संज्ञारूप ‘सुबंत’ अक्षर समूह पद भी इसी अर्थपद में गर्भित हैं। विभिन्न छन्दों के ८ नियत अक्षर समूहरूप प्रमाण पद होता है जैसे ‘नम: श्री वर्धमानाय’ तथा १६, ३४, ८३, ०७, ८८८ (सोलह अबर, चौंतीस करोड़, तिरासी लाख, सात हजार आठ सौ अठासी) अक्षरों का एक ‘मध्यम पद’ होता है। श्रुतज्ञान में इसी मध्यमपद को लिया गया है।
एक पद के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते जब संख्यात हजार पदों की वृद्धि हो जाये तब ‘संघात’ नामक श्रुतज्ञान होता है। संघात श्रुतज्ञान से कम और पदज्ञान से अधिक जितने श्रुतज्ञान हैं वे ‘पदसमास’ कहलाते हैं। संघात श्रुतज्ञान चारों गति में किसी एक गति का निरूपण करने वाले अपुनरुक्त मध्यमपदों का समूहरूप होता है।
संघात श्रुतज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते जब संख्यात हजार संघात की वृद्धि हो जाते तब चारों गतियों का विस्तार से वर्णन करने वाला ‘प्रतिपत्ति’ नामक ‘श्रुतज्ञान’ होता है। संघात और प्रतिपत्ति ज्ञान के बीच के भेद ‘संघातसमास’ कहलाते हैं।
प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान के ऊपर अक्षर की वृद्धि होते-होते जब संख्यात हजार प्रतिपत्ति की वृद्धि हो जाती है तब चौदह मार्गणाओं का विस्तृत विवेचन करने वाला ‘अनुयोग’ नामक श्रुतज्ञान होता है। प्रतिपत्ति और अनुयोग के बीच के जितने भेद हैं वे ‘प्रतिपत्ति समास’ कहलाते हैं।
अनुयोग ज्ञान के ऊपर पूर्वोक्तरूप से वृद्धि होते-होते जब संख्यात हजार अनुयोगों की वृद्धि हो जाती है तब ‘प्राभृत-प्राभृतक’ नामक श्रुतज्ञान होता है। अनुयोग और प्राभृत-प्राभृतक ज्ञान के बीच के भेद ‘अनुयोग समास’ कहलाते हैं।
इसी प्रकार अक्षर-अक्षर की वृद्धि होते-होते जब चौबीस प्राभृत-प्राभृतक की वृद्धि हो जावे तब ‘प्राभृत’ ज्ञान होता है। दोनों के बीस के भेद ‘प्राभृत-प्राभृतक समास’ हैं।
बीस प्राभृतप्रमाण ‘वस्तु’ नामक श्रुतज्ञान होता है। प्राभृत और वस्तु के बीच के भेद ‘प्राभृत समास’ हैं।
वस्तु ज्ञान में पूर्वोक्तरूप से वृद्धि होते-होते दस आदि एक सौ पंचानवे वस्तुरूप वृद्धि होती है तब ‘पूर्व’ नामक श्रुतज्ञान होता है, वस्तु और पूर्व के मध्यवर्ती श्रुतज्ञान ‘वस्तुसमास’ कहलाते हैं।
पूर्वज्ञान से वृद्धि होते-होते पूर्ण श्रुतज्ञान के मध्यवर्ती भेद ‘पूर्वसमास’ कहलाते हैं। इस तरह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के १८ भेद हैं। इनको भावश्रुत भी कहते हैं।
अक्षरात्मक श्रुतज्ञान द्वादश अंगरूप है उसमें समस्त पद एक अरब, बारह करोड़, तिरासी लाख, अट्ठावन हजार, पाँच (१,१२८३५८००५) मध्यम पद हैं।
‘‘द्वादशांग श्रुतज्ञान क्या है ?’’
‘‘ जिनेन्द्रदेव की दिव्यध्वनि को गणधरदेव धारण करते हैं। पुन: उसे द्वादशांगरूप से गूँथते हैं। अत: भगवान् की वाणी ही द्वादशांग श्रुतज्ञानरूप है।
उस श्रुतज्ञान के दो भेद हैं— अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । इनमें से अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं और अंगबाह्य के चौदह। अंगप्रविष्ट के नाम आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, नाथधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद।
(१) आचारांग—इनमें १८००० पदों द्वारा मुनियों के आचार का वर्णन रहता है। जैसे कि—
कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सए। कधं भुंजेज्ज भासेज्ज कधं पावं ण बज्झई।।७०।।
जदं चरे जदं चिट्ठे जद्मासे जदं सए। जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झई।।७१।।
किस प्रकार चलना चाहिये ? किस प्रकार खड़े रहना चाहिये ? किस प्रकार बैठना चाहिये ? किस प्रकार शयन करना चाहिये ? किस प्रकार भोजन करना चाहिये ? किस प्रकार संभाषण करना चाहिये? कि जिससे पापकर्म नहीं बंधता है।
इस तरह गणधरदेव के प्रश्नों के अनुसार भगवान् उत्तर देते हैं—
यत्न से चलना चाहिये, यत्नपूर्वक खड़े रहना चाहिये, यत्नपूर्वक बैठना चाहिये, यत्नपूर्वक शयन करना चाहिये, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिये, यत्नपूर्वक संभाषण करना चाहिये। इस प्रकार आचरण करने से पापकर्म का बंध नहीं होता है । इत्यादिरूप से मुनियों के आचार का मूलगुण और नाना प्रकार उत्तरगुणों का वर्णन इस अंग में पाया जाता है।
(२) सूत्रकृतांग—इस अंग में ३६००० पदों द्वारा ज्ञानविनय, प्रज्ञापना,कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहार धर्मक्रिया का प्ररूपण होता है तथा यह स्वसमय और परसमय का भी निरूपण करता है।
(३) स्थानांग—यह अंग ४२००० पदों द्वारा उतरोत्तर एक— एक अधिक स्थानों का वर्णन करता है। जैसे महात्मा अर्थात् यह जीवद्रव्य निरंतर चैतन्यरूप धर्म से उपयुक्त होने के कारण उसकी अपेक्षा एक ही है। ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का है । कर्मफलचेतना, कर्मचेतना और ज्ञानचेतना से लक्ष्यमाण होने के कारण तीन भेदरूप है।
चार गतियों में परिभ्रमण की अपेक्षा इसके चार भेद हैं। औदयिक, औपशमिक , क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन पाँच प्रधान गुणों से युक्त होने के कारण इसके पाँच भेद हैं। भवान्तर में जाते समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर और नीचे इस तरह छह संक्रमण लक्षण अपक्रमों से युक्त होने के कारण छह प्रकार का है। अस्ति, नास्ति इत्यादि सात भंगों से युक्त होने की अपेक्षा सात प्रकार का है। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के आश्रय से सहित होने के कारण आठ प्रकार का है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन नव पदार्थों को विषय करने वाला अथवा इन नव प्रकार के पदार्थोंरूप परिणमन करने वाला होने की अपेक्षा से नौ प्रकार का है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक,प्रत्येक वनस्पतिकायिक, साधारण वनस्पतिकायिक, द्वींद्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियजाति, इन दश भेद से दश स्थानगत होने की अपेक्षा दश प्रकार का कहा जाता है। इत्यादिरूप से जितने भी भेद संभव हैं उन सबका यह अंग वर्णन करता है।
(४) समवायांग—यह अंग १६४००० पदों द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों के समवाय का वर्णन करता है, अर्थात् सादृश्य सामान्य से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जीवादि पदार्थों का ज्ञान कराता है। वह समवाय चार प्रकार का है—द्रव्यसमवाय, क्षेत्रसमवाय, कालसमवाय और भावसमवाय। उनमें से द्रव्यसमवाय की अपेक्षा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश समान हैं। क्षेत्र समवाय की अपेक्षा प्रथम नरक के प्रथम पटल का सीमंतक नाम का इन्द्रक बिल, ढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र, प्रथम स्वर्ग के प्रथम पटल का ऋजु नाम का इन्द्रक विमान और सिद्ध क्षेत्र ये समान हैं। काल की अपेक्षा एक समय एक समय के बराबर है और एक मुहूर्त एक मुहूर्त के बराबर है। भाव की अपेक्षा केवलज्ञान केवलदर्शन के समान है, क्योंकि ज्ञेयप्रमाण ज्ञान है और ज्ञानमात्र चेतना की उपलब्धि होती है।
(५) व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग—यह अंग २२८००० पदों द्वारा क्या जीव है ? क्या जीव नहीं है ? इत्यादिरूप से साठ हजार प्रश्नों का व्याख्यान करता है।
(६) नाथधर्मकथांग—इस अंग का ज्ञातृधर्मकथा भी नाम है। यह ५५६००० पदों द्वारा सूत्र पौरुषी अर्थात् सिद्धान्तोक्त विधि से स्वाध्याय की प्रस्थापना हो इसलिये, तीर्थंकरों की धर्मदेशना का, संदेह को प्राप्त गणधर के संदेह को दूर करने की विधि का तथा अनेक प्रकार की कथा और उपकथाओं का वर्णन करता है।
(७) उपासवस ध्ययनांग—यह अंग ११,७०,००० पदों द्वारा दर्शनिक, व्रतिक, सामायिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत इन ग्यारह प्रकार के श्रावकों के लक्षण, उन्हीं के व्रत धारण करने की विधि और उनके आचरण का वर्णन करता है।
(८) अन्तकृद्दशांग—यह अंग तेईस लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा एक— एक तीर्थंकर के तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहन कर और प्रातिहार्य अर्थात् अतिशय विशेषों को प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त हुये दश—दश अंतकृत केवलियों का वर्णन करता है।
तत्त्वार्थभाष्य में भी कहा है—
जिन्होंने संसार का अन्त किया उन्हें अन्तकृत् केवली कहते हैं। वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में नमि, मतंग , सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक,वलीक,किष्कंबिल, पालम्ब, अष्टपुत्र ये दश अन्तकृत् केवली हुये हैं। इसी प्रकार ऋषभदेव आदि तेईस तीर्थंकरों के तीर्थ में अन्य दूसरे दश—दश अनगार मुनि दारुण उपसर्गों को जीतकर सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से अन्तकृत् केवली हुये । इन सबकी दशा का जिसमें वर्णन किया जाता है उसे अन्तकृद्दश नाम का अंग कहते हैं।
(९) अनुत्तरौपपादिकदशांग—यह अंग बानवे लाख चवालीस हजार पदों द्वारा एक—एक तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहकर और प्रातिहार्य अर्थात् अतिशय विशेषों को प्राप्त करके पाँच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुये हैं उन दश—दश अनुत्तरौपपादिकों का वर्णन करता है। तत्त्वार्थभाष्य में भी कहा है—
उपपादजन्म ही जिनका प्रयोजन है उन्हें औपपादिक कहते हैं। विजय, वैजन्य, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पाँच अनुत्तर विमान है। जो अनुत्तरों में उपपादजन्म से पैदा होते हैं उन्हें अनुत्तरौपपादिक कहते हैं। ऋषिदास,धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिकेय, आनन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, वारिषेण और चिलातपुत्र ये दश अनुत्तरौपपादिक वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में हुए हैं। इसी तरह ऋषभनाथ आदि तेईस तीर्थंकरों के तीर्थ में अन्य दश—दश महासाधु दारुण उपसर्गों को जीतकर विजय आदिक पाँच अनुत्तरों में उत्पन्न होने वाले दश साधुओं का जिसमें वर्णन किया जावे उसे अनुत्तरौपपादिक नाम का अंग कहते हैं।
(१०) प्रश्नव्याकरणांग—यह अंग तेरानवें लाख सोलह हजार पदों द्वारा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी इन चार कथाओं का तथा भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल सम्बन्धी धन, धान्य, लाभ, अलाभ, जीवित, मरण, जय और पराजय सम्बन्धी प्रश्नों के पूछने पर उनके उपाय का वर्णन करता है।
१. आक्षेपणी—जो नाना प्रकार की एकान्त दृष्टियों का और दूसरे समयों के निराकरण पूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नव प्रकार के पदार्थों का प्ररूपण करती है उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं।
२. विक्षेपणी— जिसमें पहले परसमय के द्वारा स्वसमय में दोष बताये जाते हैं । अनंतर परसमय की आधारभूत अनेक एकान्त दृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना की जाती है और छह द्रव्य नौ पदार्थों का प्ररूपण किया जाता है उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं।
३. संवेदनी—पुण्य के फल का वर्णन करने वाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं।
शंका—पुण्य के फल कौन से हैं ?
समाधान—तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं१।’’
४. निर्वेदनी—पाप के फल का वर्णन करने वाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं।
शंका—पाप के फल कौन से हैं ?
समाधान—नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र्य आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं।
अथवा संसार, शरीर और भोगों में वैराग्य को उत्पन्न करने वाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं। कहा भी है—
तत्त्वों का निरूपण करने वाली आक्षेपणी कथा है। तत्त्व से दिशान्तर को प्राप्त हुई दृष्टियों का शोधन करने वाली अर्थात् परमत की एकान्त दृष्टियों का निराकरण करके स्वसमय की स्थापना करने वाली विक्षेपणी कथा है। विस्तार से धर्म के फल का वर्णन करने वाली संवेदनी कथा है और वैराग्य उत्पन्न करने वाली निर्वेदनी कथा है।
इन कथाओं का प्रतिपादन करते समय जो जिनवचन को नहीं जानता है अर्थात् जिसका जिनवचन में प्रवेश नहीं है, ऐसे पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं देना चाहिये। अभिप्राय यह है कि अन्य सम्प्रदाय का पूर्व पक्ष रखकर जिसमें उनका खण्डन करके अपने पक्ष का मंडन किया जाता है उन्हें ही विक्षेपणी कथा कहते हैं। क्योंकि जिसने स्वसमय के रहस्य को नहीं जाना है और परसमय की प्रतिपादन करने वाली कथाओं के सुनने से व्याकुलित चित्त होकर वह मिथ्यात्व को स्वीकार न कर लेवे, इसलिये स्वसमय के रहस्य को नहीं जानने वाले पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश न देकर शेष तीन कथाओं द्वारा जिसने स्वसमय को भली भाँति समझ लिया है,जो पुण्य और पाप के स्वरूप को जानता है, जिस तरह मज्जा अर्थात् हड्डियों के मध्य में रहने वाला रस हड्डी से संसक्त होकर ही शरीर में रहता है, उसी तरह जो जिनशासन में अनुरक्त है, जिनवचन में जिसको किसी प्रकार की विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रति से विरक्त है और जो तप, शील और नियम से युक्त है ऐसे पुरुष को ही पश्चात् विक्षेपणी कथा का उपदेश देना चाहिये। प्ररुपण करके उत्तमरूप से ज्ञान कराने वाले के लिये यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिये योग्य पुरुष को प्राप्त करके ही साधु को कथा का उपदेश देना चाहिये।
यह प्रश्नव्याकरण नाम का अंग प्रश्न के अनुसार हत, नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दु:ख, जीवन, मरण, जय, पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्या का भी प्ररूपण करता है।
(११) विपाकसूत्रांग—यह अंग एक करोड़ चौरासी लाख पदों द्वारा पुण्य और पापरूप कर्मों के फलों का वर्णन करता है।
ग्यारह अंगों के कुल पदों का जोड़ चार करोड़ पंद्रह लाख दो हजार पद है।
(१२) दृष्टिवादांग—यह बारहवां अंग है , इस अंग में कौत्कल, काण्ठेविद्धि, कौशिक, हरिश्मश्रु, मांधुपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड और अश्वलायन आदि क्रियावादियों के एक सौ अस्सी मतों का वर्णन और निराकरण है। मरीचि, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाद बलि, माठर और मौद्गल्यायन आदि अक्रियावादियों के चौरासी मतों का वर्णन और निराकरण किया गया है। शाकल्य, बल्कल, कुथुमि, सात्यमुग्रि, नारायण, कण्व, माध्यन्दिन, मोद, पैप्पलाद, बादरायण, स्वेष्टकृत, ऐतिकायन, वसु और जेमिनी आदि अज्ञानवादियों के सरसठ मतों का वर्णन और निराकरण किया गया है। तथा वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, बाल्मीकि, रोमहर्षिणी, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यु, ऐन्द्रदत्त और अयस्थूण आदि वैनयिकवादियों के बत्तीस मतों का वर्णन और निराकरण किया गया है। इस प्रकार से क्रियावादी के १८० ± अक्रियावादी के ८४ ±, अज्ञानवादी के ६७ ± वैनयिकवादी के ३२ ± मिलाकर · ३६३ पाखंड मत होते हैं। दृष्टिवाद अंग इन मतों का वर्णन करके उनका खण्डन करता है।
इस दृष्टिवाद अंग के पाँच अधिकार हैं— परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका।
इनमें से प्रथम परिकर्म नामा भेद के भी पाँच भेद माने गये हैं—चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति।
(१) चन्द्रप्रज्ञप्ति—नाम का परिकर्म छत्तीस लाख पांच हजार पदों द्वारा चन्द्रमा की आयु, परिवार, ऋद्धि, गति और बिम्ब की ऊँचाई आदि का वर्णन करता है।
(२) सूर्यप्रज्ञप्ति—नाम का परिकर्म पाँच लाख तीन हजार पदों के द्वारा सूर्य की आयु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति, बिम्ब की उँâचाई, दिन की हानिवृद्धि, किरणों का प्रमाण और प्रकाश आदि का वर्णन करता है।
(३) जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति—नाम का परिकर्म तीन लाख पच्चीस हजार पदों के द्वारा जंबूद्वीपस्थ भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुये नाना प्रकार के मनुष्य तथा दूसरे तिर्यंच आदि का और पर्वत, द्रह, नदी, वेदिका, वर्ष (क्षेत्र), आवास, अकृत्रिम जिनालय आदि का वर्णन करता है।
(४) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति—नाम का परिकर्म बावन लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा उद्धार पल्य से द्वीप और समुद्रों के प्रमाण का तथा द्वीपसागर के अंतर्भूत नाना प्रकार के दूसरे पदार्थों का वर्णन करता है।
(५) व्याख्याप्रज्ञप्ति—नाम का परिकर्म चौरासी लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा रूपी अजीवद्रव्य अर्थात् पुद्गल, अरूपी अजीवद्रव्य अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश और काल , भव्यसिद्ध और अभव्यसिद्ध जीव इन सबका वर्णन करता है।
दृष्टिवाद अंग का सूत्र नाम का द्वितीय अर्थाधिकार—अठासी लाख पदों के द्वारा जीव अबन्धक ही है, अलेपक ही है, अकर्त्ता ही है, अभोक्ता ही है, निर्गुण ही है, अणु प्रमाण ही है, जीव नास्ति स्वरूप ही है, जीव अस्ति स्वरूप ही है, पृथ्वी आदि पाँच भूतों के समुदायरूप से जीव उत्पन्न होता है, चेतना रहित है, ज्ञान के बिना भी सचेतन है, नित्य ही है, अनित्य ही है, इत्यादिरूप से क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादियों के तीन सौ त्रेसठ पाखंडमतों का पूर्वपक्षरूप से वर्णन करता है पुन: उत्तर पक्ष से उनका निराकरण करता है।
यह त्रैराशिकवाद , नियतिवाद, विज्ञानवाद, शब्दवाद, प्रधानवाद, द्रव्यवाद और पुरुषवाद का भी वर्णन करता है कहा भी है—
इस सूत्र नामक अर्थाधिकार के अठासी अधिकारों में से चार अधिकारों का अर्थनिर्देश मिलता है। उनमें पहला अधिकार अबन्धकों का, दूसरा त्रैराशिकवादियों का, तीसरा नियतिवाद का तथा चौथा अधिकार स्वसमय का प्ररूपक है।
विशेषार्थ—गोशालप्रवर्तित, आजीविक और पाखंडी ये त्रैराशिक कहलाते हैं, क्योंकि ये सर्ववस्तुओं को तीन रूप मानते हैं । जैसे — जीव, अजीव और जीवाजीव। लोक, अलोक और लोकालोक। सत्, असत् और सदसत् इत्यादि। नियतिवादी लोग कहते हैं कि जब, जिसके द्वारा, जैसे, जिसका, जो होना है, तब उसके द्वारा वैसे ही, उसका होता है। यह भी एकान्त मान्यता है। बौद्धों का एक भेद विज्ञानवाद है इसकी ऐसी मान्यता है कि जगत् में दिखने वाले सभी चेतन—अचेतन पदार्थ मात्र ज्ञान स्वरूप ही हैं। बस, यह ज्ञानमात्र ही एक परमार्थ तत्त्व है और सब कल्पना जाल है इत्यादि। ब्रह्माद्वैतवादी सकल जगत् को एक शब्दरूप ही मानते हैं उनका कहना है कि सचेतन—अचेतन पदार्थ शब्द से ही अनुबद्ध होकर प्रतिभासित होते हैं । प्रधानवाद सांख्यों का सिद्धांत है। इसका अभिप्राय है कि सत्व, रज और तम की सम्यावस्था प्रधान है इत्यादि। यही सांख्य द्रव्यमात्र को ही मानता है, पर्यायों को नहीं । अत: द्रव्यमात्र सिद्धान्त भी सांख्यों का ही है। पुरुषवादी लोग पुरुषार्थ को ही सब कार्यों की सिद्धि का करने वाला कहते हैं। ये सब एकांतवाद मिथ्यारूप हैं। इस सूत्र नाम के भेद में इन सभी मिथ्यामतों का स्वरूप बताकर उनका निराकरण किया जाता है।
दृष्टिवाद अंग का प्रथमानुयोग नाम का तीसरा अर्थाधिकार पाँच हजार पदों के द्वारा पुराणों का वर्णन करता है कहा भी है—
जिनेंद्रदेव ने जगत् में बारह प्रकार के पुराणों का उपदेश दिया है । वे समस्त पुराण जिनवंश और राजवंश का वर्णन करते हैं। पहला अरिहंत अर्थात् तीर्थंकरों का, दूसरा चक्रवर्तियों का, तीसरा विद्याधरों का, चौथा नारायण—प्रतिनारायणों का, पाँचवाँ चारणों का, चारण ऋषियों का, छठा प्रज्ञाश्रमणों का वंश है तथा सातवां कुरुवंश, आठवाँ हरिवंश, नौवाँ इक्ष्वाकुवंश, दशवाँ काश्यप वंश, ग्यारहवाँ वादियों का वंश और बारहवाँ नाथवंश है।
दृष्टिवाद अंग का पूर्वगत नाम का चौथा अर्थाधिकार पंचानवे करोड़ पचास लाख और पाँच पदों द्वारा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य आदि का वर्णन करता है। इस अर्थाधिकार के चौदह भेद हैं—
उत्पादपूर्व, अग्रायणीयपूर्व, वीर्यानुप्रवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, कर्मप्रवादपूर्व,प्रत्याख्यानपूर्व, विद्यानुप्रवादपूर्व, कल्याणवादपूर्व, प्राणावायपूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकबिंदुसारपूर्व ।
(१) उत्पादपूर्व—यह पूर्व दस वस्तुगत, दो सौ प्राभृतों के एक करोड़ पदों द्वारा जीव, काल और पुद्गल द्रव्य के उत्पाद , व्यय और ध्रौव्य का वर्णन करता है।
(२) अग्रायणीयपूर्व—अग्र अर्थात् द्वादशांगों में प्रधानभूत वस्तु के अयन अर्थात् ज्ञान को अग्रायण कहते हैं। उसका कथन करना जिसका प्रयोजन हो उसे अग्रायणीयपूर्व कहते हैं। यह पूर्व चौदह वस्तुगत, दो सौ अस्सी प्राभृतों के छ्यानवे लाख पदों द्वारा अंगों के अग्र अर्थात् परिमाण का कथन करता है।
(३) वीर्यानुप्रवादपूर्व—यह पूर्व आठ वस्तुगत, एक सौ साठ प्राभृतों के सत्तर लाख पदों द्वारा आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य, क्षेत्रवीर्य, भाववीर्य और तपवीर्य का वर्णन करता है।
(४) अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व—यह पूर्व अठारह वस्तुगत, तीन सौ साठ प्राभृतों के साठ लाख पदों द्वारा जीव और अजीव के अस्तित्व और नास्तित्व धर्म का वर्णन करता है। जैसे जीव, स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा कथंचित् अस्तिरूप है। परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, और परभाव की अपेक्षा कथंचित् नास्तिरूप है। जिस समय वह स्वद्रव्य चतुष्टय और परद्रव्यचतुष्टय के द्वारा अक्रम से अर्थात् युगपत विवक्षित होता है उस समय स्यादवक्तव्यरूप है। स्वद्रव्यादिरूप प्रथम धर्म और परद्रव्यादिरूप द्वितीय धर्म से जिस समय क्रम से विवक्षित होता है उस समय कथंचित् अस्तिनास्तिरूप है। स्यात् अस्तिरूप प्रथम धर्म से और स्यात् अवक्तव्यरूप तृतीय धर्म से जिस समय विवक्षित होता है उस समय कथंचित् अस्ति अवक्तव्यरूप है। स्यात् नास्तिरूप द्वितीय धर्म और स्यात् अवक्तव्यरूप तृतीय धर्म से जिस समय क्रम से विवक्षित होता है उस कथंचित् नास्ति अवक्तव्यरूप है। स्यात् अस्तिरूप प्रथम धर्म, स्यात् नास्तिरूप द्वितीय धर्म और स्यात् अवक्तव्यरूप तृतीय धर्म से जिस समय क्रम से विवक्षित होता है उस समय कथंचित् अस्तिनास्ति अवक्तव्यरूप जीव है। इसी तरह अजीव आदि का भी कथन करना चाहिए।
(५) ज्ञानप्रवादपूर्व—यह पूर्व बारह वस्तुगत, दो सौ चालीस प्राभृतों के एक कम एक करोड़ पदों द्वारा पाँच ज्ञान और तीन अज्ञानों का वर्णन करता है तथा द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा अनादि—अनंत, अनादि—सान्त, सादि—अनन्त और सादि—सान्तरूप ज्ञानादि तथा इसी तरह ज्ञान के स्वरूप का वर्णन करता है।
(६) सत्यप्रवादपूर्व—यह पूर्व बारह वस्तुगत, दो सौ चालीस प्राभृतों के एक करोड़ छह पदों द्वारा वचनगुप्ति, वाक् संस्कार के कारण, वचनप्रयोग, बारह प्रकार की भाषा, अनेक प्रकार के वक्ता, अनेक प्रकार के असत्य वचन और दस प्रकार के सत्य वचन इन सबका वर्णन करता है।
असत्य नहीं बोलने को अथवा वचन संयम—मौन के धारण करने को वचनगुप्ति कहते हैं।
मस्तक, कण्ठ, हृदय, जिह्वा का मूल, दांत, नासिका, तालु और ओठ ये आठ वचन संस्कार के कारण हैं।
शुभ और अशुभ लक्षणरूप वचन प्रयोग का स्वरूप सरल है।
बारह प्रकार की भाषा के नाम निम्न प्रकार हैं—अभ्याख्यान वचन, कलह वचन, पैशून्य वचन, अबद्धप्रलाप वचन, रति वचन, अरति वचन, उपधि वचन, निकृति वचन, अप्रणति वचन, मोष वचन, सम्यग्दर्शन वचन और मिथ्यादर्शन वचन।
‘‘यह इसका कर्ता है’’ इस तरह अनिष्ट करने को अभ्याख्यान भाषा कहते हैं। कलह का अर्थ स्पष्ट ही है अर्थात् परस्पर विरोध के बढ़ाने वाले को कलह कहते हैं। पीछे से दोष प्रकट करने को पैशून्य वचन कहते हैं। धर्म, अर्थ,काम और मोक्ष के सम्बन्ध से रहित वचनों को अबद्धप्रलाप वचन कहते हैं। इन्द्रियों के शब्दादि विषयों में राग उत्पन्न करने वाले वचनों को रति वचन कहते है। इन्दियों के विषयों के प्रति अरुचि या द्वेष उत्पन्न करने वाले वचनों को अरित वचन कहते हैं। जिस वचन को सुनकर परिग्रह रक्षण और अर्जन करने में आसक्ति उत्पन्न होती है उसे उपधि वचन कहते हैं। जिस वचन को अवधारण करके जीव व्यापार करते समय ठगने रूप प्रवृत्ति करने में असमर्थ होता है उसे निकृति वचन कहते हैं। जिस वचन को सुनकर तप और ज्ञान से अधिक गुण वाले पुरुषों में भी जीव नम्रीभूत नहीं होता है उसे अप्रणति वचन कहते हैं। जिस वचन को सुनकर चौर्य कर्म में प्रवृत्ति होती है उसे मोष वचन कहते हैं। समीचीन मार्ग के उपदेश देने वाले वचनों को सम्यग्दर्शन वचन कहते हैं। मिथ्या मार्ग के उपदेश देने वाले वचनों को मिथ्यादर्शन वचन कहते हैं।
जिनमें वत्तृपर्याय प्रगट हो गई है ऐसे द्वीन्द्रिय से आदि लेकर सभी जीव वक्ता हैं।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा असत्य अनेक प्रकार का है।
सत्यवचन के दस भेद होते हैं—नामसत्य, रूपसत्य, स्थापनासत्य, प्रतीत्यसत्य, संवृतिसत्य, संयोजनासत्य, जनपदसत्य, देशसत्य, भावसत्य और समयसत्य।
मूल पदार्थ के नहीं रहने पर भी सचेतन और अचेतन द्रव्य को व्यवहार के लिये जो संज्ञा की जाती है उसे नाम सत्य कहते हैं। जैसे—ऐश्वर्य आदि गुणों के न होने पर भी किसी का नाम ‘‘इन्द्र’’ ऐसा रखना नाम सत्य है। पदार्थ के नहीं होने पर भी रूप की मुख्यता से जो वचन कहे जाते हैं उसे रूप सत्य कहते हैं। जैसे—चित्रलिखित पुरुष आदि में चैतन्य और उपयोगादि रूप अर्थ के नहीं रहने पर भी ‘‘पुरुष’’ इत्यादि कहना रूप सत्य है। मूल पदार्थ के नहीं रहने पर भी कार्य के लिये जो द्यूत सम्बन्धी अक्ष (जुये सम्बन्धी पांसा) आदि में स्थापना की जाती है उसे स्थापना सत्य कहते हैं। सादि और अनादि भावों की अपेक्षा जो वचन बोला जाता है उसे प्रतीत्य सत्य कहते हैं। लोक में जो वचन संवृति—कल्पना के आश्रित बोले जाते हैं उन्हें संवृति सत्य कहते हैं। जैसे—पृथ्वी आदि अनेक कारणों के रहने पर भी जो पंक—कीचड़ में उत्पन्न होता है उसे पंकज कहते हैं इत्यादि। धूप के सुगंधीपूर्ण अनुलेपन और प्रघर्षण के समय अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और क्रौंच आदि रूप व्यूह रचना के समय सचेतन—अचेतन द्रव्यों के विभागानुसार विधिपूर्वक रचना विशेष के प्रकाशक जो वचन हैं उन्हें संयोजना सत्य कहते हैं। आर्य और अनार्य के भेद से बत्तीस देशों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्राप्त कराने वाले वचन को जनपद सत्य कहते हैं। ग्राम, नगर, राजा, गण, पाखण्ड, जाति और कुल आदि के धर्मों के उपदेश करने वाले जो वचन हैं उन्हें देश सत्य कहते हैं। छद्मस्थों का ज्ञान यद्यपि द्रव्य की यथार्थता का निर्णय नहीं कर सकता है तो भी अपने धर्म के पालन करने के लिए ‘‘यह प्रासुक है यह अप्रासुक है’’ इत्यादि रूप से जो संयत और श्रावक के वचन हैं, उन्हें भाव सत्य कहते हैं । आगम गम्य प्रतिनियत छह प्रकार के द्रव्य और उनके पर्यायों की यथार्थता के प्रगट करने वाले जो वचन हैं उन्हें समय सत्य कहते हैं।
(७) आत्मप्रवाद पूर्व— यह पूर्व सोलह वस्तुगत, तीन सौ बीस प्राभृतों के छब्बीस करोड़ पदों द्वारा जीववेत्ता है, विष्णु है, भोक्ता है, बुद्ध है इत्यादि रूप से आत्मा का वर्णन करता है। कहा भी है—
‘‘जीव कर्ता है, वक्ता है , प्राणी है, भोक्ता है, पुद्गल है, वेद है, विष्णु है, स्वयंभू है, शरीरी है, मानव है, सकता है, मानी है, जन्तु है, मायावी है, योग सहित है, संकुट है, असंकुट है, क्षेत्रज्ञ है और अन्तरात्मा है।’’
आगे इन्हीं दोनों गाथाओं का अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है— जीता है, जीवित रहेगा और पहले जीवित था, इसलिये जीव है। शुभ और अशुभ कार्य को करता है, इसलिये कर्ता है। सत्य—असत्य और योग्य—अयोग्य वचन बोलता है, इसलिये वक्ता है। इसके प्राण पाये जाते हैं, इसलिये प्राणी है। देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी के भेद से चार प्रकार के संसार में पुण्य और पाप का भोग करता है, इसलिये भोक्ता है। छह प्रकार के संस्थान और नाना प्रकार के शरीरों द्वारा पूर्ण करता है और गलाता है, इसलिये पुद्गल है। सुख और दु:ख का वेदन करता है, इसलिये वेद है अथवा जानता है, इसलिये वेद है। प्राप्त हुये शरीर को व्याप्त करता है, इसलिये विष्णु है । स्वत: ही उत्पन्न हुआ है, इसलिये स्वयंभू है। संसार अवस्था में इसके शरीर पाया जाता है, इसलिये शरीरी है। मनु ज्ञान को कहते हैं, उसमें यह उत्पन्न हुआ है, इसलिये मानव है। स्वजन, सम्बन्धी, मित्रवर्ग आदि में आसक्त रहता है, इसलिये सकता है। चार गतिरूप संसार में उत्पन्न होता है और दूसरों को उत्पन्न करता है, इसलिये जन्तु है। इसके मान कषाय पाई जाती है, इसलिये मानी है। इसके माया कषाय पाई जाती है, अत: मायावी है। इसके तीन योग होते हैं, इसलिये योगी है। अतिसूक्ष्म देह मिलने से संकुचित होता है, इसलिये संकुट है। सम्पूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करता है, इसलिये असंकुट है। क्षेत्र अर्थात् अपने स्वरूप को जानता है, इसलिये क्षेत्रज्ञ है। आठ कर्मों के भीतर रहता है, इसलिये अन्तरात्मा है।
(८) कर्मप्रवादपूर्व—यह पूर्व बीस वस्तुगत, चार सौ प्राभृतों के एक करोड़ अस्सी लाख पदों द्वारा आठ प्रकार के कर्मों का वर्णन करता है।
(९) प्रत्याख्यानपूर्व—यह पूर्व तीस वस्तुगत, छह प्राभृतों के चौरासी लाख पदों द्वारा द्रव्य—भाव आदि की अपेक्षा परिमित कालरूप और अपरिमितरूप प्रत्याख्यान, उपवास विधि, पाँच समिति और तीन गुप्तियों का वर्णन करता है।
(१०) विद्यानुवादपूर्व—यह पंद्रह वस्तुगत, तीन सौ प्राभृतों के एक करोड़ दस लाख पदों द्वारा अंगुष्ठ, प्रसेना आदि सात सौ अल्प विद्याओं का, रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याओं का और अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन, चिन्ह इन आठ महानिमित्तों का वर्णन करता है।
(११) कल्याणवादपूर्व—यह दस वस्तुगत, दो सौ प्राभृतों के छब्बीस करोड़ पदों द्वारा सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र और तारागणों के चार क्षेत्र, उपपाद स्थान, गति, वक्रगति तथा उनके फलों का, पक्षी के शब्दों का और अरिहन्त अर्थात् तीर्थंकर, बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती आदि के गर्भावतार आदि महाकल्याणकों का वर्णन करता है।
(१२) प्राणावायपूर्व—यह पूर्व दस वस्तुगत, दो सौ प्राभृतों के तेरह करोड़ पदों द्वारा शरीर चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म अर्थात् शरीर आदि की रक्षा के लिये किये गये भस्मलेपन, सूत्रबन्धनादि कर्म, जांगुलि प्रक्रम (विषविद्या) और प्राणायाम के भेद—प्रभेदों का विस्तार से वर्णन करता है।
(१३) क्रियाविशालपूर्व—यह पूर्व दस वस्तुगत दो सौ प्राभृतों के नौ करोड़ पदों द्वार लेखन कला आदि बहत्तर कलाओं का, स्त्री संबन्धी गुण—दोष विधि का और छन्द निर्माण कला का वर्णन करता है।
(१४) लोकबिंदुसारपूर्व—यह पूर्व दस वस्तुगत, दो सौ प्राभृतों के बारह करोड़ पचास लाख पदों द्वारा आठ प्रकार के व्यवहारों का, चार प्रकार के बीजों का, मोक्ष को ले जाने वाली क्रिया का और मोक्ष—सुख का वर्णन करता है।
इन चौदह पूर्वों में सम्पूर्ण वस्तुओं का जोड़ एक सौ पंचानवे है और सम्पूर्ण प्राभृतों का जोड़ तीन हजार नौ सौ है।
दृष्टिवाद अंग का पंचम भेद जो चूलिका है उसके भी पाँच भेद हैं—
जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता।
(१) जलगता चूलिका—यह चूलिका दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदों द्वारा जल में गमन और जलस्तंभन के कारणभूत मंत्र—तंत्र तथा तपश्चर्या रूप अतिशय आदि का वर्णन करती है।
(२) स्थलगता चूलिका—यह उतने ही (२०९८९२००) पदों द्वारा पृथ्वी के भीतर गमन करने के कारणभूत मंत्र—तंत्र और तपश्चरणरूप आश्चर्य आदि का तथा वास्तुविद्या और भूमि सम्बन्धी दूसरे शुभ—अशुभ कारणों का वर्णन करती है।
(३) मायागता चूलिका—यह भी उतने ही पदों द्वारा मायारूप इन्द्रजाल आदि के कारणभूत मंत्र—तंत्र और तपश्चरण का वर्णन करती है।
(४) रूपगता चूलिका—यह भी उतने ही पदों द्वारा सिंह, घोड़ा और हरिणादि के स्वरूप के आकार रूप से परिणमन करने के कारणभूत मंत्र—तंत्र और तपश्चरण का तथा चित्रकर्म, काष्ठकर्म, लेप्यकर्म और लेनकर्म आदि के लक्षण का वर्णन करती है।
(५) आकाशगता चूलिका—उतने ही उपर्युक्त पदों द्वारा आकाश में गमन करने के कारणभूत मंत्र—तंत्र और तपश्चरण का वर्णन करती है।
इन पांचों ही चूलिकाओं के पदों का जोड़ दस करोड़ उनचास लाख छयालीस हजार पद हैं।
विशेष—जिनेंद्र देव की वाणी द्वादशांगरूप है। इस द्वादशांग में ग्यारह अंगों में क्या—क्या विषय हैं उन्हें यहां दिखाया गया है । पुन: बारहवें अंग के पांच भेद—परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका हैं । इनके विषयों को भी यहां संक्षेप में लिखा गया है। अत: भगवान् की वाणी में आयुर्वेद, मंत्र, तंत्र, निमित्त ज्ञान आदि सभी विषय आ गये हैं। बारहवें अंग के परिकर्म नामक प्रथम भेद के पांच भेदों में ‘‘जम्बूद्वीप—प्रज्ञप्ति’’ यह तृतीय भेद है। इसका लक्षण धवला में इस प्रकार से किया है—
‘‘जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म तीन लाख पचीस हजार पदों के द्वारा जंबूद्वीप में स्थित भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुये नाना प्रकार के मनुष्य तथा तिर्यंच आदि का और पर्वत, द्रह, नदी, वेदिका, वर्ष (क्षेत्र), आवास, अकृत्रिम जिनालय आदि का वर्णन करता है१।’’
वास्तव में इन अंगों में व्यवहारनय की मुख्यता से ही जीवादि तत्त्वों का वर्णन किया गया है। ये अंग साक्षात् भगवान् की वाणीरूप हैं, अत: इन्हें असत्य भी नहीं कह सकते हैं तथा संपूर्ण ऋद्धियों के स्वामी और मति, श्रुत, अवधि तथा मन:पर्यय इन चार ज्ञान से समन्वित उसी भव से मोक्ष जाने वाले ऐसे गौतम गणधर ने इन अंग, पूर्वों की रचना की है। इन द्वादश अंगों में सबसे प्रथम आचारांग है जिसका अत्यधिक महत्त्व है। सबसे प्रथम भगवान् ने मोक्ष मार्ग पर चलने का उपदेश दिया है, न कि श्रावक धर्म का। श्रावक धर्म का उपदेश तो सातवें उपासकाध्ययन नाम के अंग में किया है। अत: इन अंगों के विषय को पढ़कर मोक्षमार्ग में चलने का प्रयत्न हर एक मोक्षाभिलाषी को करना ही चाहिये।।
अब अंगबाह्य के अक्षरों की संख्या कहते हैं—
गाथार्थ—प्रकीर्णक अर्थात् सामायिक आदि चौदह अंग—बाह्यों के अक्षर आठ करोड़, एक लाख, आठ हजार, एक सौ पिचहत्तर प्रमाण होते हैं।
अर्थात् ८०१०८१७५ अक्षर प्रकीर्णक—अंगबाह्य में होते हैं ऐसा अर्थ हुआ।
इतने अक्षरों से मध्यमपद नहीं होते हैं अतएव इतने अक्षरों के द्वारा अंग-पूर्व की पदसंख्या नहीं बनती है, इसी कारण इन अक्षरों के द्वारा ग्रथित—गूँथे गये—वर्णित किए गए श्रुत की ‘अंगबाह्य’ संज्ञा मानी गई है।
सामायिक, चतुा\वशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका ये चौदह भेद अंगबाह्य के हैं।
१. इनमें से सामायिक नाम का श्रुत अंगबाह्य अर्थाधिकार नाम, स्थापना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छह भेदों द्वारा समता भाव के विधान का वर्णन करता है।
अन्यत्र कहा भी है—तीनों ही सन्ध्याओं में या पक्ष और मास के संधि दिनों में या अपने इच्छित समय में बाह्य और अंतरंग समस्त पदार्थों में कषाय का निरोध करना सामायिक है।२
२. चतुा\वशतिस्तव श्रुत उस-उस काल संबंधी चौबीस तीर्थंकरों की वंदना करने की विधि, उनके नाम, संस्थान, उत्सेध, पाँच महाकल्याणक, चौंतीस अतिशयों के स्वरूप और तीर्थंकरों की वंदना की सफलता का वर्णन करता है।
३. वंदना नाम का अर्थाधिकार एक जिनेन्द्रदेव संब्ांधी और उनके जिनालय संबंधी वंदना के निरवद्यभाव का अर्थात् प्रशस्तरूप भाव का वर्णन करता हे।
४. प्रतिक्रमण नाम का अर्थाधिकार काल और पुरुष का आश्रय लेकर सात प्रकार के प्रतिक्रमणों का निरूपण करता है।
भावार्थ—प्रमाद कृत दैवसिक आदि दोषों का निराकरण जिसके द्वारा किया जाता है उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। वह दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐर्यापथिक और औत्तमार्थिक के भेद से सात प्रकार का है। दुष्षम आदि काल और छह संहनन से युक्त स्थिर तथा अस्थिर स्वभाव वाले पुरुषों का आश्रय लेकर यथायोग्य इन सातों प्रतिक्रमणों का प्ररूपण करने वाला यह प्रतिक्रमण अर्थाधिकार है।
५. वैनयिक नाम का अर्थाधिकार ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय इन पाँच प्रकार के विनयों का वर्णन करता है।
६. कृतिकर्म नाम का अर्थाधिकार अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु की पूजा आदि की विधि का वर्णन करता है।
अन्यत्र भी कहा है—
उस कृतिकर्म के आत्माधीन होकर किए गए तीन बार प्रदक्षिणा, तीन अवनति, चार नमस्कार और बारह आवर्त आदि रूप लक्षण, भेद फल का वर्णन कृतिकर्म प्रकीर्णक करता है।१
७. दशवैकालिक अर्थाधिकार मुनियों के आचार और गोचरी विधि का वर्णन करता है।
भावार्थ—विशिष्ट काल को विकाल कहते हैं। उसमें जो विशेषता होती है उसे वैकालिक कहते हैं। वे वैकालिक दश हैं। उनको कहने वाला दशवैकालिक है।
८. उत्तराध्ययन अर्थाधिकार उत्तरपदों का वर्णन करता है। यह चार प्रकार के उपसर्गों का, बाईस प्रकार के परीषहों का एवं उन सबके सहन करने की विधि का तथा फल का प्रश्नोत्तररूप में वर्णन करता है।
९. कल्पव्यवहार साधुओं के योग्य आचरण का और अयोग्य आचरण के होने पर प्रायश्चित विधि का वर्णन करता है।
भावार्थ—कल्प नाम योग्य का है और व्यवहार नाम आचार का है उन सबका वर्णन करने वाला कल्पव्यवहार है।
१०. कल्पाकल्प द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की अपेक्षा मुनियों के लिए यह योग्य है और यह अयोग्य है इस तरह इन सबका वर्णन करता है।
११. महाकल्प काल और संहनन का आश्रय कर साधुओं के द्रव्य-क्षेत्रादि का वर्णन करता है।
भावार्थ—इसमें उत्कृष्ट संहनन आदि विशिष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर प्रवृत्ति करने वाले जिनकल्पी साधुओं के योग्य त्रिकालयोग आदि अनुष्ठान का और स्थविरकल्पी साधुओं की दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना आदि का विशेष वर्णन है।
१२. पुण्डरीक नामका अर्थाधिकार भवनवासी, व्यन्हर, ज्योतिष्क और कल्पवासी इन चार प्रकार के देवों में उत्पत्ति के कारणरूप दान, पूजा, तपश्चरण, अकामनिर्जरा, सम्यग्दर्शन और संयम आदि अनुष्ठानों का वर्णन करता है।
१३. महापुण्डरीक समस्त इंद्र और प्रतीन्द्रों में उत्पत्ति के कारणरूप तपोविशेष आदि आचरण का वर्णन करता है।
१४. निषिद्धिका अनेक प्रकार के प्रायश्चित विधान का कथन करता है।
भावार्थ—प्रमादजन्य दोषों के निराकरण करने को निषिद्धि कहते हैं और इस निषिद्ध अर्थात् बहुत प्रकार के प्रायश्चित के प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को निषिद्धका कहते हैं।
विशेषार्थ–एक मध्यम पद में सोलह सौ चौंतिस करोड़, तिरासी लाख, सात हजार, आठ सौ अट्ठासी अक्षर होते हैं अर्थात् १६ अरब, ३४ करोड़ , ८३ लाख, ७ हजार, ८ सौ ८८ (१६,३४,८३,०७८८८) अक्षर होते हैं। प्रथम आचारांग नाम के अंग में १८ हजार पद हैं, सूत्रकृतांग में ३६ हजार पद हैं। इत्यादि यही कारण है कि इन द्वादशांगों की अथवा ग्यारह अंग और चौदह पूर्वों की लिपिबद्ध ग्रंथ रचना संभव नहीं है।
श्री धरसेनाचार्य को द्वितीय अग्रायणीय पूर्व के कुछ अंश का ज्ञान था। उन्होंने मुनि श्री पुष्पदंत एवं भूतबली इन दो मुनियों को सिद्धान्त ज्ञान दिया अर्थात् मौखिक अध्ययन कराया। अनंतर दोनों मुनियों ने षट्खंडागम नाम से लिपिबद्ध ग्रंथ रचना की है।
यही कारण है कि दिगम्बर जैन परम्परा में ११ अंग १४ पूर्व नाम से ग्रंथ नहीं माने गये हैं। आज जितना भी उपलब्ध श्रुत है वह सभी इन द्वादशांग का अंशरूप ही है।